कर्नाटक देश का ऐसा दूसरा राज्य बनने जा रहा है जो कि सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले पर अमल करते हुए किसी लाइलाज मरीज को इज्जत के साथ मरने देने की एक कानूनी व्यवस्था कर रहा है। सबसे पहले केरल ने इसे लागू किया था। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ अरसा पहले यह कहा था कि जिन मरीजों की हालत में कोई सुधार मुमकिन नहीं है, उन्हें और अधिक लंबी तकलीफ देना, और उनके परिवारों पर एक अंतहीन बोझ डालना ठीक नहीं है, और उन्हें कानून और चिकित्सा विज्ञान की मिलीजुली राय से गुजर जाने देने का एक मौका मिलना चाहिए। कैंसर जैसी बीमारियों के बहुत से ऐसे मरीज रहते हैं जिसमें कोई सुधार मुमकिन नहीं है, और वे बिस्तर पर पड़े मौत का इंतजार करते हैं, और उनके परिवार भी खर्च और तकलीफ झेलते हुए देखते हैं कि किस तरह बिना दर्द के वे गुजर जाएं। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को नियम बनाने कहा था, और कर्नाटक के स्वास्थ्य विभाग ने अदालत के दो बरस पहले के फैसले के मुताबिक खुलासे से नियम तय किए हैं ताकि इस व्यवस्था का बेजा इस्तेमाल न हो सके। इसके लिए विशेषज्ञ डॉक्टरों का एक मेडिकल बोर्ड बनेगा, जो तय करेगा कि क्या मरीज को सचमुच ही अब किसी इलाज से कोई फायदा नहीं होना है। इसे अदालती जुबान में पैसिव यूथेनेसिया (बिना मदद इच्छामृत्यु) कहा गया है। दुनिया के कुछ देशों में एक्टिव यूथेनेसिया की व्यवस्था भी है जिसमें मरीज कानूनी और मेडिकल औपचारिकताएं पूरी करके डॉक्टरी मदद से जान दे सकते हैं, लेकिन भारत की यह व्यवस्था सिर्फ इलाज बंद करके मरने देने का मौका देती है, न कि किसी जानलेवा डॉक्टरी इंजेक्शन से, या किसी और तरीके से मारने का।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस आधार पर आया था कि जिस तरह लोगों को गरिमा के साथ जीने का बुनियादी हक है, वैसे ही उन्हें नौबत आने पर गरिमा के साथ मरने का हक भी मिलना चाहिए। जब तकलीफ हद से बढ़ जाए, इलाज न रह जाए, जब सिर्फ एक साँस लेती देह रह जाए, जब ऐसी देह परिवार पर बोझ बन जाए, तो उसे जिंदा रखने के बजाय इलाज और दवाई बंद करके गुजर जाने देना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में मरीजों के लिए ऐसी वसीयत करने का प्रावधान भी किया है जिसमें वे दो लोगों को मनोनीत कर सकते हैं कि अगर वे खुद अपना इलाज बंद करने का फैसला न ले सकें, तो उनकी तरफ से ये दो लोग मेडिकल औपचारिकताओं के बाद यह फैसला ले सकें कि अब इलाज बंद करके उन्हें चले जाने देना चाहिए।
मुझे कुछ दशक पहले का अपने शहर का एक मामला याद पड़ता है जिसमें एक रिहायशी कॉलोनी के लोगों की शिकायत पर एक महिला को वेश्यावृत्ति के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उसका पति कैंसर मरीज था, और बिस्तर पर पड़े आखिरी वक्त का इंतजार कर रहा था। दो बच्चे थे, और महिला के पास कोई काम भी नहीं था। ऐसे में परिवार को जिंदा रखने के लिए उसके पास अपना बदन बेचने के अलावा और कोई जरिया नहीं था। ऐसी हालत कई परिवारों की हो सकती है जहां कोई लाइलाज मरीज हो, और कमाई का कोई जरिया न हो। कई बीमारियों के मरीज इलाज जारी रहने पर बिना ठीक हुए उसी हालत में बरसों तक पड़े रह सकते हैं, और आर्थिक रूप से, मानसिक रूप से भी उनका परिवार भी हर दिन मरते चलता है। ऐसे में यह भावनात्मक और नैतिक सवाल हर परिवार के सामने रहता है कि क्या किया जाए?
घर के भीतर भी लोग एक-दूसरे से अस्पताल के गलियारे में खड़े हुए यह चर्चा आसानी से नहीं कर पाते कि वहां भर्ती उनके परिजन को वेंटिलेटर पर कब तक रखा जाए? कब ऐसा जीवनरक्षक इलाज हटाकर गरिमापूर्ण तरीके से गुजर जाने का मौका दिया जाए। यह फैसला आसान नहीं रहता है, और ऐसे मरीज के कुछ परिजनों पर इलाज का बोझ रहता है, कुछ उससे मुक्त रहते हैं, और इन सबके हित भी अलग-अलग हो सकते हैं। कुछ को लग सकता है कि कोई चमत्कारिक इलाज शायद निकल आए, या कहीं कोई रिसर्च चल रहा हो जिसके नतीजे काम आ जाएं। दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने गरिमा के साथ मृत्यु के जिस अधिकार की बात की है, परिवार के कुछ लोग भी बिना ऐसे अदालती फैसले के भी ऐसा सोच सकते हैं कि जो जिंदगी भर अपने पैरों पर चले, उन्हें ऐसी असहाय मौत का कितना लंबा इंतजार करवाया जाए।
दक्षिण के इन दो राज्यों के बाद हो सकता है कि कुछ और राज्य भी ऐसी पहल करें, और इसके लिए एक राजनीतिक साहस की भी जरूरत पड़ेगी क्योंकि ऐसा सरकारी फैसला बड़ा अलोकप्रिय हो सकता है। जिन परिवारों ने बीमारी का ऐसा बोझ झेला नहीं है, उन्हें यह अमानवीय लग सकता है। इसलिए यह बात साफ-साफ समझ लेने की जरूरत है कि न तो अदालती फैसला, और न ही केरल और कर्नाटक के शासकीय आदेश मरीज को मरने में मदद कर रहे हैं। वे सिर्फ इलाज को रोककर मरीज को इतनी खराब हालत में बरसों तक और तकलीफ पाने से बचा रहे हैं।
लोगों को याद रखना चाहिए कि जैन धर्म में संथारा नाम की एक ऐसी परंपरा है जिसमें लोग अपनी मर्जी से प्राण त्यागने के लिए खाना-पीना छोड़ देते हैं, और कुछ दिनों या हफ्तों में वे गुजर जाते हैं। यह एक इच्छामृत्यु रहती है, लेकिन यह आत्महत्या किस्म हिंसक नहीं रहती है। यह एक ऐसी प्रथा है जो लोगों को खाना-पीना छोडक़र जान देने का अधिकार देती है, और सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मरीजों को बिना इलाज, या इलाज रोककर गुजर जाने की वैसी ही इजाजत देता है। अदालत और सरकारों ने इस बात का ख्याल रखा है कि ऐसा न हो कि जमीन-जायदाद के चक्कर में परिवार के ही कुछ लोग किसी मरीज को इस तरह रवाना कर दें, इसीलिए विशेषज्ञ डॉक्टरों के मेडिकल बोर्ड का प्रावधान किया गया है ताकि मरणासन्न और लाइलाज लोगों को ही इस दायरे में रखा जा सके।
यह एक समझदारी का फैसला है, और देश के बाकी राज्यों को भी इस पर गौर करना चाहिए। इस पर सार्वजनिक और संसदीय बहस भी होनी चाहिए, ताकि इससे जुड़े हुए कोई पहलू अनछुए हैं, तो वे भी सामने आ सकें, और उन पर भी चर्चा हो सके। फिलहाल इसे लोग निजी रूप से भी सोचने-विचारने का सामान मान सकते हैं, और अपने बारे में सोच सकते हैं कि जिंदा रहते हुए क्या वे ऐसी वसीयत करना चाहेंगे कि लाइलाज या मरणासन्न हो जाने पर इलाज रोककर उन्हें सम्मानजनक तरीके से गुजर जाने देने का फैसला करने वाले कौन दो लोग रहें? इससे कम से कम लोगों में एक वैराग्यभाव तो आएगा, उन्हें यह याद पड़ेगा कि एक दिन उन्हें भी जाना है, और हो सकता है कि ऐसी नौबत में जाना हो जब वे अपने खुद के बारे में कोई फैसला करने की हालत में नहीं रहेंगे। ऐसा अहसास भी लोगों से बाकी चीजों की कानूनी वसीयत करने, या बाकी जिम्मेदारियों को पूरा करने सरीखा काम करवा सकेगा। जब तक आपके प्रदेश की सरकार ऐसा कोई फैसला लागू न करे, तब तक खुद तो सोच ही सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)