छत्तीसगढ़ से लगे हुए मध्यप्रदेश के कान्हा नेशनल पार्क का जो नजारा कल निकलकर सामने आया है वह बताता है कि हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के भीतर सभी तीन स्तंभों में सामंतवाद किस तरह जड़ों तक घुसा हुआ है। कान्हा दो जिलों में बंटा हुआ है, मंडला और बालाघाट। बालाघाट के एक कस्बे से कान्हा पहुंचे एक मजिस्ट्रेट ने वहां की निजी रिसॉर्ट में अपने 30-35 मेहमानों के लिए जन्मदिन की एक पार्टी मुफ्त में मांगी। जब यह नहीं हो पाया, रिसॉर्ट मालिकों ने मना कर दिया, तो बताया जाता है कि उन्होंने वन विभाग पर दबाव डाला कि उनके सारे मेहमानों को मुफ्त में जंगल सफारी कराई जाए। जंगल सफारी की तमाम गाडिय़ां पहले से बुक थीं, देश-विदेश से आए हुए पर्यटक वहां इंतजार में खड़े थे, और मजिस्ट्रेट की यह फरमाईश भी पूरी न हो पाई। बौखलाकर उन्होंने पर्यटकों को शेर दिखाने ले जाने वाली जिप्सी गाडिय़ों के कागजों की जांच शुरू कर दी। घंटों तक उन्होंने किसी गाड़ी को भीतर घुसने नहीं दिया। पर्यटक अपना कीमती वक्त खोते हुए पहले तो मजिस्ट्रेट के सामने गिड़गिड़ाते रहे, फिर उन्होंने विरोध चालू किया, और आखिर में जाकर नौबत इतनी बिगड़ी कि मजिस्ट्रेट को मौका छोडक़र भागना पड़ा। और ऐसे में विदेशी पर्यटक निराश होकर यह कहते सुने गए कि वे योरप से कान्हा के शेर देखने आए हैं, और अब उन्हें क्या मोदी को फोन करना होगा?
अब देश के सबसे प्रमुख नेशनल पार्क में से एक, कान्हा में अगर एक कस्बे का मजिस्ट्रेट नाजायज फरमाईशों को लेकर इस कदर का बवाल खड़ा कर सकता है, तो उससे बड़े दर्जे के देश के हजारों दूसरे जज-मजिस्ट्रेट क्या नहीं कर सकते? और फिर देश में सांसद और विधायक मिलाकर कई हजार हैं, बड़े नौकरशाह और दूसरे संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोग दसियों हजार हैं। इस देश में आम जनता के सार्वजनिक हकों पर खास लोगों के बुलडोजर ऐसे चलते हैं कि मानो वे आम न हों, आम की गुठलियां हों। यह सिलसिला बहुत भयानक है, शर्मनाक भी। किसी भी सभ्य लोकतंत्र में लोकतांत्रिक संस्थाओं पर काबिज प्यादा दर्जे के लोग भी जब अपने आपको सार्वजनिक जगहों का मालिक समझने लगें, तो फिर यह बताता है कि संविधान के रास्ते लोकतंत्र तो आ गया है, लेकिन सभ्यता नहीं आई है।
एक तरफ तो न सिर्फ मध्यप्रदेश, बल्कि देश के हर प्रदेश पर्यटकों को जुटाने के लिए दुनिया भर में इश्तहार करते हैं। और जब दुनिया के लोग प्रदेश घूमने आते हैं, तो प्रदेश के अपने लोग जिम्मेदार ओहदों पर बैठे हुए भी ऐसी गैरजिम्मेदारी का बवाल करते हैं। यह भयानक है। मुम्बई पुलिस का एक इश्तहार आता है जिसमें ट्रैफिक सिपाही बने हुए अक्षय कुमार सडक़ पर गलत तरफ से दाखिल हुई गाड़ी को रोकते हैं, और पूछते हैं कि सडक़ जिसके नाम पर है, क्या वे उसी के परिवार के हैं? क्या उन्हीं के बेटे हैं? क्या सडक़ उनके पिता की है? और जब लोगों को उनकी औकात याद दिलाई जाती है, तब वे शर्मिंदगी से भरते हैं। हम तो गली-गली सत्ता के भुनगों को भी सडक़ पर गाडिय़ां रोककर बोनट पर केक रखकर, तलवार से उसे काटते हुए, गोलियां चलाकर जश्न मनाते हुए जाने कितने ही प्रदेशों में देखते हैं। और अपने आसपास तो यह भी देखा है कि एक छोटी सी म्युनिसिपल का चुना हुआ ओहदेदार सडक़ किनारे दारू पीकर गाड़ी का लाउडस्पीकर बजाते हुए जन्मदिन मना रहा है, और उसे रोकने भेजी गई पुलिस को खुद पुलिस अफसर सस्पेंड कर देते हैं, क्योंकि बवाली सत्तारूढ़ पार्टी का निकल जाता है।
अब कान्हा का यह हंगामा तो किसी पार्टी का भी नहीं है, एक मजिस्ट्रेट का है जिससे कि बड़े सीमित दायरे में रहने की उम्मीद की जाती है। नेशनल पार्क राज्य सरकार के कब्जे में, वहां भीतर जाने वाली गाडिय़ां सरकार के नियंत्रण की, और उनको रोकने के नाटक में, कागज जांचने के लिए देशी-विदेशी सैलानियों का दिन बर्बाद करना, यह किस किस्म का लोकतंत्र है? अगर यह जांच के नाम पर नौटंकी नहीं होती, तो इन गाडिय़ों के कागज तो संबंधित और जिम्मेदार विभाग के अफसर सैलानियों के समय पहले या बाद भी देख सकते थे। और किसी मजिस्ट्रेट को जाकर सैलानियों को हलाकान करके गाडिय़ों की ऐसी जांच का कोई जिम्मा दिया गया होगा, ऐसा तो लगता भी नहीं है। मध्यप्रदेश सरकार, एमपी हाईकोर्ट, और सुप्रीम कोर्ट को देखना चाहिए कि न्याय व्यवस्था के नाम पर यह किस तरह का कलंक खड़ा हुआ है? हमने कुछ अदालतों के जजों को पहले भी गुंडागर्दी और ऐसी मनमानी करते देखा है, लेकिन फिर उन्हें हटाए जाते भी देखा है।
हम किसी एक घटना पर ही आज की पूरी बात खत्म करना नहीं चाहते, और इसे भारतीय सत्ता में चली आ रहीं बीमारी का एक लक्षण ही मानते हैं। इसे नमूना मानकर इस बीमारी का नीचे तक इलाज करना चाहिए। कई बरस पहले दिल्ली के एक हाईकोर्ट जज ने रेलवे स्टेशन पर खफा होकर वहीं अदालत खोल दी थी। एक दूसरी घटना में इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज ने खातिरदारी में कमी होने से रेलवे को बहुत बुरा नोटिस जारी किया था कि उनके प्रोटोकॉल में कमी की गई। इस पर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ ने इस जज को लिखा था कि शिष्टाचार की सहूलियतों को इस तरह का मानकर नहीं चलना चाहिए कि जज समाज से परे कोई ताकत या सत्ता हैं। देश के मुख्य न्यायाधीश इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज को बताया था कि उन्हें रेल अधिकारियों पर अनुशासन की कार्रवाई करने का कोई हक नहीं है, और वे किसी रेल अधिकारी से जवाब-तलब नहीं कर सकते। उन्होंने न्यायपालिका को अपने बारे में सोचने, और अपने भीतर से परामर्श पाने की जरूरत भी बताई थी। हाईकोर्ट जज की शिकायत थी कि ट्रेन पर उन्हें बार-बार कहने पर भी नाश्ता नहीं मिला, और जीआरपी के पुलिसवाले उनसे आकर नहीं मिले। जबकि रेलवे ने इस पर लिखित जवाब दिया था कि सुबह साढ़े 7 बजे ट्रेन में इस जज को उनकी मर्जी के मुताबिक बिना शक्कर की चाय, कटलेट, और ब्रेड बटर पेश किया गया था। और ट्रेन अगर लेट हुई थी, तो वह दिल्ली में यमुना का जलस्तर बढ़ जाने की वजह से हुई थी, जिस पर रेलवे का कोई बस नहीं था।
इस तरह की मनमानी और बददिमागी का सुलूक बताता है कि लोगों की सत्ता पर पहुंचने के बाद लोकतंत्र और इंसानियत की समझ किस तरह कमजोर हो जाती है, उन्हें सभ्य समाज की इस सबसे बुनियादी समझ की जरूरत नहीं रह जाती। लोकतंत्र में वीआईपी और प्रोटोकॉल किस्म के शब्दों की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। लोकतंत्र में एक इंसान दूसरे के मुकाबले अधिक महत्वपूर्ण कैसे हो सकते हैं? लोग अगर किसी ओहदे पर हैं, तो उस ओहदे का काम करने के लिए उन्हें जो सहूलियतें जरूरी हैं, उससे अधिक शिष्टाचार किसी को भी क्यों मिलना चाहिए? ऐसा अतिरिक्त सम्मान, अतिरिक्त शिष्टाचार गैरजरूरी, नाजायज, जनता पर बोझ, और बददिमाग बनाने वाला रहता है। इसे पूरी तरह खत्म करना चाहिए। मध्यप्रदेश की इस घटना पर एक बड़ी सरकारी या अदालती जांच होनी चाहिए, और इस बददिमागी को सिरे से खत्म करना चाहिए। जरूरत रहे तो ऐसे मजिस्ट्रेट के खिलाफ लोग हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी लगा सकते हैं।
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