आजकल
जब लोगों के हाथ में अपनी मर्जी का काम करने की अपार ताकत रहती है, और जिन्हें रोकने-टोकने वाले लोग नहीं रहते हैं, तो ऐसे लोगों की गलतियां करने, और उनके गलत काम करने के खतरे बढ़ जाते हैं। अमरीका के अगले निर्वाचित राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प के साथ यही हो रहा है। वे अपने अगले मंत्रिमंडल के लिए लोगों को मनोनीत करते चल रहे हैं, और देश के दूसरे प्रमुख ओहदों पर भी अपने समर्थकों, और अपने पसंदीदा लोगों के नाम घोषित करते जा रहे हैं। उनकी बहुत सी पसंद ऐसी हैं जिन्हें लेकर अमरीका में उनके समर्थकों, और उनकी रिपब्लिकन पार्टी के भीतर भी बेचैनी है। उनके छांटे गए नामों में कुछ तो ऐसे हैं जिनके खिलाफ बड़े आरोप लगे हुए हैं, और जब संसदीय समिति इनके काम संभालने के पहले इन लोगों से सवाल-जवाब करेगी, तो हो सकता है कि इनमें से कुछ नाम उन ओहदों पर न भी पहुंच पाएं। अमरीका की यह व्यवस्था भारत की राजनीतिक व्यवस्था से परे है जहां पर प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की तरफ से राष्ट्रपति या राज्यपाल को दिए गए नामों को शपथ दिलानी ही रहती है। अमरीका में राष्ट्रपति के मनोनीत तमाम लोगों को संसदीय सुनवाई का सामना करना पड़ता है, और वहां बहुमत की मंजूरी मिलने के बाद ही वे सरकार का हिस्सा बन पाते हैं। अब इससे बचने के लिए ऐसी चर्चा है कि ट्रम्प वहां अमरीकी संविधान के एक ऐसे प्रावधान का सहारा लेने की सोच रहे हैं जो राष्ट्रपति को उस वक्त लोगों को सीधे नियुक्त कर देने का हक देता है जब संसद सत्र नहीं चलता रहता। न सिर्फ मंत्री स्तर के 15 विभागीय मुखिया लोगों को, बल्कि सरकार के अलग-अलग करीब एक हजार ओहदों पर मनोनीत लोगों को संसद की कमेटी की मंजूरी लगती है जिसमें तमाम राजदूत भी शामिल हैं। मतलब यह कि अमरीकी राष्ट्रपति जो कि दुनिया का सबसे ताकतवर व्यक्ति माना जाता है, वह हर मनोनयन के बाद उसकी मंजूरी के लिए संसदीय सुनवाई पर निर्भर करता है।
इस बात की चर्चा आज जरूरी इसलिए है कि ट्रम्प ने अटार्नी जनरल के लिए मैट गेट्स नाम के जिस आदमी का नाम घोषित किया था, उसने कुछ पुराने विवादों को लेकर अपना नाम वापिस ले लिया जिनमें किसी महिला से जबर्दस्ती करने का आरोप भी है। अब अगर संसद की सुनवाई का सामना करना पड़ता, तो इस आदमी से हजार किस्म के असुविधाजनक सवाल किए जा सकते थे। अब दिलचस्प बात यह है कि इसकी जगह पैम बॉंडी का नाम ट्रम्प ने घोषित किया है, और उन पर भी कई तरह के गंभीर आरोप लगे हुए हैं जिनमें चुनावी चंदा, रिश्वतखोरी, और चुनाव अभियान के लिए मौत की एक सजा में देर कराने की कोशिश जैसे मामले हैं।
अमरीकी सरकार के लोगों के बारे में अधिक चर्चा करना आज का मकसद नहीं है, लेकिन दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में सत्ता के मुखिया के हाथ कितने अधिकार रहने चाहिए, और उन अधिकारों पर निगरानी रखने, सवाल-जवाब करने, और उसके गलत कामों को रोकने का कैसा संवैधानिक इंतजाम होना चाहिए, इस पर बात जरूरी है। जहां लोकतंत्र नहीं है वहां तो कोई बात भी नहीं है क्योंकि वहां पर राजशाही या तानाशाही की ताकत से मनमाने फैसले लिए जाते हैं जिनमें असहमति रखने वाले लोगों के कत्ल के फैसले भी रहते हैं, वहां पर सत्ता के किसी जुर्म को रोकने की गुंजाइश नहीं रहती है। लेकिन लोकतंत्र में सत्ता के मुखिया जिस तरह के सहयोगी छांटते हैं, उनसे लोकतंत्र सीधे-सीधे प्रभावित होता है।
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की पिछली भूपेश बघेल सरकार के वक्त उनके सबसे अधिक भरोसे की एक डिप्टी कलेक्टर सौम्या चौरसिया को सरकारी कामकाज का मुखिया बनाकर रखा गया था। प्रदेश के मुख्य सचिव और डीजीपी भी इस डिप्टी कलेक्टर को रिपोर्ट करते थे, उससे हुक्म लेते थे। नतीजा यह हुआ कि पूरी सरकार एक मुजरिम-गिरोह की तरह काम करने लगी, और जिस दर्जे की सरकारी रंगदारी इन पांच बरसों में देखने मिली, वह हिन्दुस्तान के इतिहास में किसी प्रदेश में कभी नहीं थी। अगर खुद सरकार के भीतर सत्ता का विकेन्द्रीकरण होता, मुख्यमंत्री अपने सहयोगियों को उनकी वरिष्ठता के मुताबिक काम करने देते, तो आज इतने अफसर जेल में नहीं पड़े रहते। जब एक महिला डिप्टी कलेक्टर तानाशाह की ताकत से पूरी सरकार और पूरे प्रदेश को अपनी उंगलियों पर नचा रही थी, तब न तो संगठन की ताकत इसे रोकने की थी, न ही सरकार में किसी एक ने भी नियम-कानून के खिलाफ ऐसी व्यवस्था का विरोध किया। अघोषित रूप से चल रही इस तानाशाही ने ही सरकार के बड़े-बड़े अफसरों को मुजरिम बना दिया।
इसलिए इस बात को समझने की जरूरत है कि सरकार के कोई भी मुखिया अपने सहयोगी किस तरह के छांटते हैं, वे चाहे मंत्री रहें, अफसर रहें, या किसी और संवैधानिक ओहदे के लिए छांटे लोग रहें, उन्हीं से किसी सरकार के सफल या असफल होने का फैसला होता है। भूपेश सरकार के महाधिवक्ता आज हाईकोर्ट में अग्रिम जमानत याचिका लेकर खड़े हैं। उन पर तोहमत है कि एजी रहते हुए उन्होंने अभियुक्तों के पक्ष में मामले खत्म करवाने के लिए कोशिश की, अभियुक्तों की जमानत की कोशिश की, और सरकार के हितों के खिलाफ काम किया। अब अगर प्रदेश में सरकार के सबसे बड़े वकील पर यह तोहमत लगती है कि वह अभियुक्तों और हाईकोर्ट के एक जज के बीच पुल का काम कर रहे थे, तो इससे जाहिर होता है कि एजी की जिम्मेदारी के पद के लिए वे सही व्यक्ति नहीं थे। अगर किसी ईमानदार, और काबिल वकील को एजी बनाया जाता, तो आज शायद उस वक्त की सरकार इतनी कानूनी दिक्कतों में नहीं फंसी होती कि वह जेल में होती, और खुद एजी अग्रिम जमानत मांगते घूमते रहते।
कोई देश हो, या प्रदेश हो, उसमें अगर सत्ता के अहमियत वाले ओहदों पर अच्छे और बेहतर लोगों को नहीं छांटा जाता, तो नाकामयाबी वहीं से शुरू हो जाती है, जो कि खतरों से होते हुए जेल तक ले जाती है। इसलिए लोकतंत्र यही सुझाता है कि देश-प्रदेश के मुखिया के हाथ में असीमित ताकत रहते हुए भी उसे लोकतांत्रिक तरीके से अपने साथियों से सलाह लेनी चाहिए। जहां कहीं बड़े फैसले सामूहिक जिम्मेदारी से लिए जाएंगे, व्यापक विचार-विमर्श होगा, वहां पर खराब फैसलों की आशंका घट जाएगी। कुछ अरसा पहले तक केरल में यह व्यवस्था थी कि वहां किसी भी जिले के कलेक्टर और एसपी के नाम तय करने का काम पूरा मंत्रिमंडल बैठकर करता था। आज हालत यह है कि दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमरीका में मंत्रियों (वहां सचिव कहा जाता है) और दूसरे ताकतवर ओहदों के नाम एक अकेला ट्रम्प मनमाने अंदाज में कर रहा है, विवादास्पद लोगों को कर रहा है, और शायद न सिर्फ अमरीका, बल्कि बाकी दुनिया को भी इस मनमानी के दाम चुकाने होंगे।
इस सिलसिले में एक ही मिसाल सूझती है कि अगर पूरी मनमानी का हक दे दिया जाए, और कोई व्यक्ति पखाने में रखे जाने वाले टॉयलेट पेपर की जगह रेत कागज रख दे, और लोहे से जंग छुड़ाने के लिए नर्म टॉयलेट पेपर रख दे तो क्या होगा? आज दुनिया, देश, और प्रदेशों में इसी किस्म के कई फैसले देखने मिल रहे हैं। सत्ता के फैसलों का लोकतंत्रीकरण किया जाना एक अधिक समझदारी का काम होता है।