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विशेष रिपोर्ट

कभी कांग्रेस का गढ़ था, अब तीन दशकों में जड़ें जमा चुकी भाजपा

  बिलासपुर से मोहले लगातार जीतते गए, रेशम लाल कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों से सांसद रहे  
1951 से लेकर अब तक कई दिलचस्प पड़ावों को तय कर चुकी यह लोकसभा सीट

विशेष रिपोर्ट : राजेश अग्रवाल
बिलासपुर, 8 अप्रैल (‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता )।
कांग्रेस के कभी गढ़ रहे बिलासपुर लोकसभा सीट से एक के बाद एक चार चुनाव जीतकर पुन्नूलाल मोहले ने इसकी जड़ें इतनी मजबूत कर दी कि 1998 के बाद से आज तक सिलसिला थमा नहीं है। अब 2024 में अपनी खोई विरासत को हासिल करने के लिए कांग्रेस ने पहली बार ओबीसी उम्मीदवार को दांव पर लगाया है।

छत्तीसगढ़ की 11 लोकसभा सीटों में से एक बिलासपुर का दिलचस्प इतिहास रहा है। यहां से रेशम लाल जांगड़े ऐसे उम्मीदवार रहे हैं, जिन्होंने दो बार कांग्रेस से तो एक बार भाजपा से जीत हासिल की है। सन् 1951 में पहला आम चुनाव हुआ तो रेशमलाल जांगड़े ने कांग्रेस की टिकट पर जीत हासिल की। 1957 में उन्होंने फिर जीत दोहराई। सन् 1962 में कांग्रेस अपने चुनाव चिन्ह पर किसी उम्मीदवार को किसी तकनीकी कारण से खड़ा नहीं कर पाई तो उसने निर्दलीय सत्यप्रकाश को समर्थन दिया। उन्होंने जनसंघ के जमुना प्रसाद को शिकस्त दी। 1967 में कांग्रेस प्रत्याशी अमर सिंह ने जनसंघ के मदन लाल शुक्ला को हराया। 1971 में फिर कांग्रेस की जीत हुई। प्रत्याशी रामगोपाल तिवारी ने जनसंघ के मनहरण लाल पांडेय को पराजित किया। इस तरह से शुरूआत के दो दशकों में पांच चुनाव हुए जिनमें से चार बार कांग्रेस को सीधे जीत मिली, जबकि एक बार उसके समर्थन से निर्दलीय की।

इसके बाद इमरजेंसी लगी और चुनाव 1977 में हुए। इस चुनाव में निरंजन प्रसाद केशरवानी जनता पार्टी से चुनाव लड़े उन्होंने पहली बार कांग्रेस को हराया और प्रत्याशी अशोक राव को हार मिली। सन् 1980 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस अलग पार्टी बन चुकी थी। कांग्रेस (आई) के गोदिल प्रसाद अनुरागी इस चुनाव में जीते, उन्होंने जनता पार्टी के प्रत्याशी गणेश राम अनंत को हराया।

इसके बाद भारतीय जनता पार्टी अस्तित्व में आ चुकी थी। जनसंघ और आरएसएस से जुड़े लोग इसमें शामिल थे। 1984 में उसने गोविंद राम मिरी को उम्मीदवार बनाया, जो डॉ. खेलन राम जांगड़े से हार गए। 1989 में पहली बार भाजपा को जीत मिली। इसी चुनाव में रेशम लाल जांगड़े कांग्रेस छोडक़र भाजपा में आ गए थे। उन्होंने डॉ. खेलनराम जांगड़े को हरा दिया। मगर वे दो साल ही सांसद रहे। बदली हुई परिस्थिति में 1991 में फिर चुनाव हुए। फिर डॉ. खेलन राम जांगड़े और गोविंद राम मिरी आमने-सामने थे। इस बार जांगड़े ने अपनी खोई सीट वापस ले ली। कांग्रेस की यही जीत बिलासपुर लोकसभा से आखिरी है। 1996 में भाजपा के पुन्नूलाल मोहले ने इस बार खेलन राम जांगड़े को हरा दिया। इसके बाद 1998 में चुनाव हुए। गोदिल प्रसाद अनुरागी की बेटी कन्या (तान्या) अनुरागी को टिकट दी गई मोहले ने उन्हें करीब 50 हजार मतों से परास्त किया। 1999 में मोहले ने फिर जीत दर्ज की। इस बार उन्होंने रामेश्वर कोसरिया 75 हजार से ज्यादा मतों को हराया, जो पिछली जीत से बड़ी थी। 2004 में उनकी जीत का फासला और बढ़ गया। उन्होंने कांग्रेस के डॉ. बसंत पहारे को 81 हजार से अधिक मतों से हरा दिया।

सन् 2009 के चुनाव में बिलासपुर एक बार फिर सामान्य सीट हो गई। इस चुनाव में दिलीप सिंह जूदेव जशपुर से आकर चुनाव लड़े। उन्होंने कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. रेणु जोगी को 20 हजार से अधिक मतों से परास्त कर दिया। सन् 2014 के चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा से कांग्रेस में आईं करुणा शुक्ला को प्रत्याशी बनाया। उन्हें लखन लाल साहू ने 1 लाख 76 हजार से अधिक मतों से हरा दिया। सन् 2019 में भाजपा प्रत्याशी अरुण साव ने कांग्रेस उम्मीदवार अटल श्रीवास्तव को 1 लाख 41 हजार मतों से हराया।

इस तरह से 1989 में पहली बार कांग्रेस को यहां से हार मिली थी लेकिन 1996 के बाद से हर बार जीत रही है। यानी अभी तक भाजपा सात बार लगातार चुनाव जीत चुकी है। कुल जीत 8 बार की है। इस बार यदि भाजपा जीत जाती है तो उसकी यह नौवीं जीत होगी। कांग्रेस 7 बार जीत चुकी है।

यह देखा गया है कि कांग्रेस ने नेहरू इंदिरा का पार्टी में प्रभाव कम होने के बाद प्रत्याशी के चयन में सावधानी नहीं बरती। जब यह अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट थी तो डॉ. बसंत पहारे और तान्या अनुरागी को प्रत्याशी बनाने का पार्टी के भीतर ही विरोध हुआ जिसे वरिष्ठ नेताओं ने नजरअंदाज किया। इसी तरह सामान्य सीट हो जाने के तुरंत बाद भाजपा ने दिलीप सिंह जूदेव को जशपुर से लाकर मैदान में उतारा। यह लड़ाई स्व. अजीत जोगी के सामने होने के कारण कठिन जरूर थी मगर कांग्रेस जीत नहीं पाई। करुणा शुक्ला और अटल श्रीवास्तव को उम्मीदवार लड़ाने के दौरान हार-जीत का फासला बहुत अधिक बढ़ गया क्योंकि बिलासपुर सीट के जातीय समीकरण में दोनों फिट नहीं बैठते थे। ये सभी नाम कांग्रेस ने अचानक तय किए। जबकि भाजपा ने जूदेव के रूप में स्टार छवि को जरूरत के अनुसार उतारा वहीं जमीनी कार्यकर्ता लखन लाल साहू और अरुण साव को मौका दिया, जो साहू बाहुल्य वाले प्रदेश के जातीय समीकरण में भी सध रहे थे। इस बार भी तोखन साहू को टिकट देकर यही रणनीति अपनाई गई है, जबकि कांग्रेस ने सामान्य सीट दोबारा होने के बाद पहली बार ओबीसी उम्मीदवार के रूप में देवेंद्र यादव को मुकाबले में उतारा है। भाजपा उनका मुकाबला छत्तीसगढ़ी यादव नहीं होने और बाहरी होने के मुद्दे को लेकर ओबीसी वोटों को अपने पाले में रखने की कोशिश में है।

विचार/लेख

कांग्रेस मय भाजपा और आर एस एस!

-डॉ. आर.के. पालीवाल
जब से राजनीति सेवा से ज्यादा स्वार्थ सिद्ध करने का धंधा बन गई है तब से हवा का रुख सूंघकर चुनावी वर्ष में नेताओं का दल बदल करना बहुत आम बात हो गई है । जिन पूर्व मंत्रियों,सांसदों और विधायकों को अपने या अपने जीवन साथी और बच्चों को लोकसभा, राज्यसभा या विधानसभा के टिकट नहीं मिलते वे टिकट मिलने की संभावना वाले किसी भी दल में घुसने की योजना बनाने लगते हैं। कभी अपने विशिष्ट चाल चरित्र और चेहरे पर गर्व करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने पिछ्ले कुछ समय से जिस तरह से दूसरे दलों के छोटे बड़े नेताओं को भाजपा में घुसाने की मुहीम चलाई है उसने भाजपा के चाल चरित्र और चेहरे को पूरी तरह बदल दिया। अब संघ के पुराने लोगों को नई भाजपा का चेहरा पहचानने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है। रोजाना पहले से ज्यादा कांग्रेसमय होती भाजपा में जिस तरह से कांग्रेसियों की आमदरफ्त तेजी से बढ़ रही है कुछ दिन बाद उससे भाजपा में दो धड़े उसी तरह साफ साफ दिखाई देने लगेंगे जैसे इलाहाबाद के संगम तट पर काफी दूर तक गंगा और यमुना का पानी एक दूसरे से मिलने के बाद भी अलग अलग दिखाई देता है।

पिछ्ले कुछ वर्षों में जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों से भाजपा में आने वाले नेताओं के लिए दरवाजे, खिड़कियां और रोशनदान तक खोल दिए हैं उससे भाजपा का वोट प्रतिशत निश्चित रूप से थोड़ा बढ़ सकता है लेकिन वर्तमान भाजपा अब मिस्सी रोटी के आटे की तरह हो गई है जिसमें गेहूं और चने के आटे को एक साथ मिलाने के बाद भी अलग अलग रंग में पहचाना जा सकता है। कांग्रेस की संस्कृति से आए लोग आर एस एस की संस्कृति से नाभिनाल संबद्ध रहे पुराने भाजपाइयों से एकमेव होने में सहज महसूस नहीं करते। यह स्वाभाविक भी है। उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान में जिस तरह से विभाजन के समय भारत से पाकिस्तान आए लोगों को मुहाजिर के तौर पर देखा जाता है वैसा ही हाल दूसरे दलों से निकलकर नए दल में आए लोगों के साथ होता है। नजमा हेपतुल्ला के मामले से भी इसे समझा जा सकता है। अपनी सक्रिय राजनीतिक पारी का लंबा हिस्सा कांग्रेस में बिताकर अपने तीसरे पहर में भाजपा में आने के बाद शुरूआती आवभगत का दौर बीतने पर वे नेपथ्य में चली गई। उन्हें कांग्रेस में जिस तरह का मान सम्मान मिला भाजपा में आकर उसमें कोई वृद्धि होती नहीं दिखी।

ज्योतिरादित्य सिंधिया और हेमंता बिश्व शरमा जैसे कुछ नेता ही ऐसे हैं जिन्हें दल बदलकर भाजपा में केंद्र सरकार के कैबिनेट मंत्री और मुख्यमंत्री जैसे सम्मान के पद मिले हैं। इसका कारण यह है कि इन नेताओं और इनके पीछे चलने वाले नेताओं ने मध्यप्रदेश और असम जैसे प्रमुख राज्यों में भाजपा की राज्य सरकार बनवाई है। संभव है कि इन राज्यों में भाजपा की स्थिति मजबूत होने पर उन्हें भी वैसे ही किनारे कर दिया जाए जैसे भाजपा ने अपने कद्दावर नेता शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे को मध्यप्रदेश और राजस्थान की राजनीति के शीर्ष से बहुत दूर कर दिया है। 
       
जिस तरह से भाजपा विशेष रूप से कांग्रेस के नेताओं को थोक में अपनी तरफ मिला रही है उससे भाजपा के राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े पुराने नेताओं का असहज होना भी स्वाभाविक है और भाजपा के अंदर भी दो स्पष्ट खेमे बनना भी स्वाभाविक है। यह भारतीय राजनीति में उतना ही स्वाभाविक है जैसे आम भारतीय परिवारों में घर की बेटी और घर की बहू के प्रति अलग व्यवहार होता है। कालांतर में यह दो धाराओं के अंदरूनी कलह के रूप में भी सामने आ सकता है। ऐसा लगता है कि अभी भाजपा का हाइ कमान केवल आसन्न लोकसभा चुनाव पर फोकस कर रहा है इसलिए भविष्य के बारे में नहीं सोच रहा। धुर विरोधी विचारधारा के लोगों का बड़ी संख्या में भाजपा में प्रवेश क्या गुल खिलाएगा यह काफी हद तक लोकसभा चुनाव के परिणाम पर भी निर्भर करेगा।

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