विचार/लेख
- अपूर्व गर्ग
टीवी घर -घर आया और धीरे -धीरे पत्र -पत्रिकाओं को ही नहीं पुस्तकें भी निगल गया । टीवी ने ये तय करना शुरू कर दिया लोग क्या खाएं, पहनें और कैसा जीवन जीयें ।
दिमाग अखरोट की गिरी सा दीखता है और इस अखरोट की दिमागी गिरी का आवरण बन गया टीवी ।
इसी टीवी के तार सत्ता के एंटीने से जुड़ गए और बरसाने लगीं प्रायोजित मंशाएं । भाषा बदल गई, तेवर बदल गए और सूख गए समाचार ।
इसका असर पूरे मीडिया पर आया और मीडिया जगत बन गया कठपुतली मीडिया ।
इस ‘डिहाइड्रेटेड’ मीडिया में खबर की एक बूँद भी न देखकर लोग सोशल मीडिया की ओर विमुख हो चुके और खबर पाने की प्यास वो ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर’ से लगाए हुए हैं ।
‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर’ को लोगों ने बेतहाशा समर्थन दिया , समय दिया , पैसा दिया, विश्वास दिया।
इसमें कोई दो राय नहीं कुछ पत्रकार और बुद्धिजीवी जनता के विश्वास की कसौटी पर खरे उतरे हैं और उनके पास विजन है,भाषा है, ज्ञान है, संस्कार है पर इनसे कहीं दुगनी-चौगुनी मात्रा में बहुत से नौजवान ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स’ उभरे हैं जो चालू भाषा में।
उत्तेजक पोस्ट निर्भीकता से डालकर सत्ता को चुनौती देते हैं। ये ऐसे नौजवान हैं जो शुरू -शुरू में हर उन खबरों पर बात करते हैं जो दबाई और छिपाई जाती हैं ।
जाहिर है इन युवा ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स’ की ओर उनकी ख़बरें ब्रेक करने की कला को देख लोग भागते हैं और एक दिन उन्हें लगता है ये जो कह रहे वही सही। लोग इन्हें कई मिलियन सब्सक्राइबर का बादशाह बनाते हैं इनके सोशल मीडिया के सभी माध्यमों फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब, इंस्टाग्राम में फॉलो करते हैं। कभी गौर करिये ज़्यादातर इन ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स’ के पास न सोच है न समझ न विचार न विचारधारा। भाषा की तमीज जानते नहीं बस एक के बाद एक उकसावे-उत्तेजक पोस्टों के गोले दागते हैं और उस ताली पीटते हैं लाखों लोग ।
ताली पीटने वाले ऐसे लोग हैं जिनका न किसी पत्र से कोई रिश्ता रहता है न किताबों से, दरअसल, ये लोग उस धरती पर खड़े हैं जो कभी पत्रकारिता और साहित्य के शब्दों से हरी-भरी थी और अब बंजर हो चुकी। अच्छे और बुरे का कोई ज्ञान नहीं, समझ नहीं। फिर भी जिन्हें अगर ये लग रहा है कि सोशल मीडिया पत्रकारिता का विकल्प बन चुका तो बहुत बड़े मुगालते में हैं। सनसनी फैलना खबरें पढ़ाना नहीं होता।
गौर से देखिये, ज़्यादातर इन ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स’ ने बची-खुची भाषाई तमीज छीन ली है, पाठकों को तमाशाई दर्शकों में बदल दिया, गंभीरता-चिंतन गायब।
पहले ही हिंसक हो चुकी आवारा और तमाशबीन भीड़ को ब्रेकिंग न्यूज़ के नाम पर कैसे मुर्ख, जाहिल और भाषाई असभ्य बना रहे हैं ये चंद ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स’ इस पर पहल करिये।
चुनाव बीत जायेगा पर आवारा और असभ्य बनाई जा रही भीड़ का खतरा बना रहेगा ।
-अनंत झणाणें
पीलीभीत से भारतीय जनता पार्टी ने मौजूदा सांसद वरुण गांधी को टिकट नहीं दिया। उनकी जगह पार्टी ने कांग्रेस से बीजेपी में आए और योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री जितिन प्रसाद को उम्मीदवार बनाया है। इसके बाद इस बात को लेकर कयास लगाए जा रहे थे कि वरुण गांधी वहाँ से निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे लेकिन 27 मार्च को जब नामांकन भरने का समय समाप्त हो गया तो इन अटकलों पर भी विराम लग गया। लेकिन राजनीति में एक कयास ख़त्म होता है तो दूसरा शुरू हो जाता है।
अब चर्चा यह हो रही है कि कहीं वरुण गांधी दूसरी सीट से तो नहीं लड़ेंगे। समय के साथ इन कयासों से भी पर्दा हटेगा पर वरुण गांधी के अगले क़दम को लेकर सस्पेंस बना हुआ है। 16 फऱवरी, 2004 को कऱीब 24 साल की उम्र में वरुण ने अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता लेते हुए कहा था, ‘भले ही उनका परिवार (नेहरू-गांधी परिवार) कांग्रेस पार्टी का हिस्सा रहा है, लेकिन वो यह मानते हैं कि उनका परिवार किसी पार्टी के प्रति नहीं बल्कि आत्म-बलिदान की परंपरा, राष्ट्रीय गौरव और आत्मा की स्वतंत्रता के सिद्धांतों के प्रति सच्चा था।’ उन्होंने बीजेपी की सदस्यता लेते हुए पार्टी को मज़बूत करने की बात कही थी और सदस्य बनने के अपने फ़ैसले को राष्ट्र हित में सर्वोत्तम फ़ैसला बताया था। लेकिन वरुण अब शायद ही इस फ़ैसले को सर्वोत्तम मानते होंगे।
नरेंद्र मोदी और अमित शाह की बीजेपी में वरुण गांधी पिछले 10 सालों में बीजेपी में हाशिए पर ही रहे हैं।
बीजेपी में रहते बागी तेवर
सबसे पहले वरुण गांधी का टिकट कटने के संभावित कारणों को समझने की कोशिश करते हैं। दरअसल, वरुण गांधी अक्सर कई मुद्दों को लेकर सोशल मीडिया पर अपने विचार खुल कर रखते हैं। जैसे अफ्रीका से लाए गए चीतों के मरने पर उन्होंने कहा, ‘विदेशी जानवरों की यह लापरवाह खोज तुरंत समाप्त होनी चाहिए।’ चीतों की मौत को वरुण ने न सिफऱ् क्रूरता बल्कि लापरवाही का भयावह प्रदर्शन भी कहा था।
दरअसल, भारत में 1952 में चीते को विलुप्त घोषित कर दिया गया था। इन चीतों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में लाकर छोड़ा गया था। इससे पहले बीते साल उनका एक वीडियो क्लिप वायरल हुआ था जिसमें एक कार्यक्रम में वरुण गांधी कार्यकर्ताओं के एक साधु को टोकने पर उनसे कहते हैं, ‘अरे, उन्हें टोको मत, क्या पता कब महाराज सीएम बन जाएँ।’ इसके बाद वो कार्यकर्ताओं से कहते हैं, "आप बिल्कुल इनके साथ ऐसा मत करो, कल को मुख्यमंत्री बन जाएँगे तो हमारा क्या होगा। समय की गति को समझा करो।’ उनके इस बयान को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर तंज के तौर पर देखा गया।
बीते साल ही द हिंदू अख़बार के लिए लिखे लेख में उन्होंने देश के 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने के मिशन पर कहा था कि देश को इससे पहले एक बेहतर लोक हितकारी व्यवस्था बनाने की ज़रूरत है। इस लेख को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस दावे पर निशाना माना गया जिसमें मोदी देश को 2025 तक 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने की बात करते है। इससे पहले उन्होंने कृषि बिल के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे किसानों का भी समर्थन किया था। वरुण के इस बयान को सरकार की आलोचना के तौर पर देखा गया।
क्या बयानों के कारण गिरी गाज़
उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार उमर रशीद कहते हैं, ‘वरुण गांधी के बयानों से बीजेपी के ब्रैंड मोदी और ब्रैंड योगी पर सवाल खड़े होते थे।’ पीलीभीत से बीजेपी प्रत्याशी जितिन प्रसाद के नामांकन के बाद हुई रैली में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह ने वरुण गांधी की ग़ैर-मौजूदगी के बारे में कहा, ‘वरुण गांधी बीजेपी के नेता हैं और हमारे साथ हैं। उनका उपयोग हर जगह है। उनका उपयोग पार्टी ठीक तरह से करेगी। मुझे विश्वास है कि वो हमारे साथ रहेंगे।’ उत्तर प्रदेश में बीजेपी पर लंबे समय से नजऱ रख रहे पत्रकार रतिभान त्रिपाठी कहते हैं, ‘वरुण गांधी जिस परिवार से आते हैं, उसकी अपनी विरासत है। लेकिन बीजेपी का अपना अनुशासन है। वरुण गांधी अपने आप को पार्टी से ऊपर समझ रहे थे। पार्टी और सरकार को लगातार ट्रोल कर रहे थे। यह किसी पार्टी में रहते उचित नहीं होता है। उन्हें अपनी बात पार्टी के फोरम पर रखनी चाहिए ना कि सार्वजनिक फोरम पर।’
पत्रकार उमर रशीद कहते हैं, ‘पार्टी लाइन से अलग हट कर अपने विचार सार्वजनिक करने के बावजूद, मुझे लगता है कि कहीं न कहीं वरुण गांधी को लगता था कि उन्हें टिकट मिल ही जाएगा। अगर उन्हें टिकट कटने का इल्म होता तो अब तक वो अपनी राजीतिक दिशा को बदलने की कोशिश करते और हमें कहीं न कहीं वो कोशिश होती नजऱ आती। पिछले एक महीने से वरुण ने बिल्कुल चुप्पी साधी हुई है। उन्होंने सोशल मीडिया पर एक महीने से एक पोस्ट भी नहीं डाली।’
क्या पार्टी में होगा कमबैक?
लेकिन यूपी बीजेपी में बड़े-बड़े से नेता पार्टी लाइन से अलग जाने पर अतीत में किनारे किए जा चुके हैं। इस फेहरिस्त में कल्याण सिंह से लेकर उमा भारती तक हैं। यहाँ तक कि एक समय में योगी आदित्यनाथ को भी पार्टी में तवज्जो नहीं मिली थी तो अलग होना पड़ा था। पत्रकार रतिभान त्रिपाठी कहते हैं, ‘राजनाथ सिंह सांसद हैं। देश के रक्षा मंत्री हैं और उनके बेटे पंकज सिंह विधायक हैं। पंकज सिंह ने कभी भी पार्टी लाइन के ख़िलाफ़ एक शब्द नहीं बोला। लखनऊ से पूर्व सांसद लालजी टंडन राज्यपाल थे और उनके बेटे आशुतोष टंडन योगी सरकार में मंत्री थे। आशुतोष टंडन भी हर हाल में पार्टी लाइन के साथ खड़े रहे। मेनका गांधी भी पार्टी के ख़िलाफ़ कभी नहीं गईं लेकिन वरुण इस लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर रहे थे।’ बीजेपी ने मेनका गांधी का टिकट नहीं काटा लेकिन वरुण को नहीं दिया। इससे ये भी संदेश गया कि वरुण को पार्टी के ख़िलाफ़ बोलने के कारण टिकट नहीं मिला।
मेनका को टिकट मिलने के कारण?
वरिष्ठ पत्रकार उमर रशीद कहते हैं, ‘हमें वरुण गांधी और मेनका गांधी का राजनीतिक आकलन करने के लिए दोनों को अलग-अलग देखने की ज़रूरत है। मेनका गांधी काफ़ी लंबे समय से राजनीति में हैं। वह कैबिनेट मंत्री भी रह चुकी हैं। उन्होंने काफ़ी चुनौतियों का सामना भी किया है। 32 साल तक राजनीति करके पीलीभीत को उन्होंने अपना गढ़ बनाया और उसका लिहाज बीजेपी भी करती है।’
उमर रशीद कहते हैं, ‘वरुण गांधी के पास गांधी परिवार का सदस्य होने के अलावा कोई आकर्षण नहीं है। और इस देश की राजनीति में गांधी परिवार का मतलब है सिफऱ् सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी। पीलीभीत उत्तर प्रदेश में अमेठी और रायबरेली की तजऱ् पर गांधी परिवार के गढ़ के रूप में कभी देखा नहीं गया है।’
घटता राजनीतिक प्रभाव?
उत्तर प्रदेश की राजनीति में 2012 और 2017 के बीच युवा नेताओं और नेतृत्व का दौर आया। अखिलेश यादव सूबे के मुख्यमंत्री बने, राहुल गांधी अमेठी से सांसद थे और देश की राजनीति के साथ-साथ उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी सीधा दख़ल देते थे।
वरुण गांधी के नाम से कई फैन क्लब सोशल मीडिया पर सक्रिय थे। लेकिन इसके बावजूद वरुण गांधी का प्रभाव पीलीभीत और सुल्तानपुर से तक सीमित क्यों रह गया? इसकी झलक हमें 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से जुड़े एक इंटरव्यू में मिलती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि बीजेपी के उत्तर प्रदेश में 55 मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। इसी इंटरव्यू में उन्होंने यह भी कहा था कि वो अपने मन की बात कहते हैं।
वरुण गांधी के राजनीतिक करियर पर शुरू से नजऱ बनाए हुए बरेली से वरिष्ठ पत्रकार पवन सक्सेना मानते हैं कि पीलीभीत के लोगों का वरुण गांधी और मेनका गांधी से लगाव ज़रूर है। उसके समझते हुए वो कहते है कि, ‘एक समय यह जब आडवाणी पीलीभीत में एक सभा करने आए और मेनका गांधी ने मंच से ही अपना टिकट घोषित कर दिया।’ यह उनका राजनीतिक दबदबा दर्शाता है।
बीच में यह दौर भी आया जब वरुण गांधी के उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री चेहरा बनने की चर्चा हुई। पत्रकार पवन सक्सेना कहते हैं, ‘वरुण के समर्थकों ने जगह-जगह इस बात की चर्चा चलाई, रोड शो और जन सभाएं हुईं। लेकिन यह सब 10 साल पहले हो कर ख़त्म हो चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा में ऐसा संभव नहीं था।’
अब वरुण के पास क्या विकल्प हैं?
वरुण गांधी को लेकर चर्चा गर्म थी तभी लोकसभा में कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी का बयान आया। उन्होंने तो एक तरह से वरुण को कांग्रेस में शामिल होने का निमंत्रण दे दिया। अधीर ने कहा था, ‘गांधी परिवार से होने के कारण बीजेपी ने वरुण गांधी को टिकट नहीं दिया। वरुण गांधी को कांग्रेस में शामिल होना चाहिए। वह एक साफ़ छवि के नेता हैं। हम चाहते हैं कि वरुण गांधी अब कांग्रेस में शामिल हों। अगर पार्टी जॉइन करते हैं, तो हमें ख़ुशी होगी।’
तो क्या अब वरुण कांग्रेस का रुख़ करेंगे?
उमर रशीद कहते हैं, ‘उनकी माँ मेनका गांधी बीजेपी में ही हैं और चुनाव लडऩे जा रही हैं। कांग्रेस का पहले से तीन गांधी नेतृत्व कर रहे हैं और उसका आलाकमान है। तो सवाल यह उठता है कि वरुण कांग्रेस में शामिल होकर क्या करेंगे? इससे पार्टी में विरोधाभास पैदा होगा।’
उमर रशीद वरुण और मेनका की राजनीतिक क्षमता का आकलन करते हुए कहते हैं, ‘2019 के लोकसभा में सुल्तानपुर सीट से अगर वरुण गांधी चुनाव लड़ते तो उनका जीतना मुश्किल होता। इसलिए मेनका गांधी ने पीलीभीत छोड़ सुल्तानपुर से चुनाव लड़ा और वरुण गांधी को सुरक्षित सीट पीलीभीत से चुनाव लड़वाया। लेकिन सुल्तानपुर की सीट पर भी मेनका गांधी महज़ 15,000 वोटों से जीतीं। मतलब यह कि जो दोनों की जीतने की क्षमता समय के साथ घटते नजऱ आ रही है।’
भाजपा के लिए वरुण गांधी के महत्व के बारे में उमर कहते हैं, ‘एक ज़माने में मेनका गांधी और वरुण गांधी का बीजेपी में क़द उनके सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को काउंटर करने के नज़रिये से बढ़ाया गया।’
‘लेकिन कांग्रेस की कमज़ोरी और खास तौर से उत्तर प्रदेश में गांधी परिवारों के कमज़ोर होते गढ़ के कारण अब उसकी उपयोगिता भी कम हो गई है। धीरे-धीरे भाजपा गांधी परिवार और उसके नाम से हर किस्म की दूरी बनाना चाहती हैं। अगर दूर की सोचें तो यह बीजेपी के लिए भी फ़ायदेमंद है क्योंकि वो पीलीभीत और सुल्तानपुर जैसी सीटों पर अपने जातिगत और विचारधारा के अनुसार, स्थानीय चेहरों को आगे बढ़ा सकती है।’ (bbc.com/hindi)
-प्रेरणा
साल 2022 में द्रौपदी मुर्मू भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनीं। देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर एक आदिवासी महिला का बैठना कई मायनों में ऐतिहासिक था। इसी का एक दूसरा पहलू ये भी है कि आदिवासी महिला राष्ट्रपति होने के बावजूद, राजनीति में अनुसूचित जनजाति की महिलाओं की हिस्सेदारी काफ़ी कम है।
वर्तमान में देश की संसद में आदिवासी महिलाओं की भागीदारी महज़ 1।8 प्रतिशत है। इसके पीछे की वजह क्या है और साधारण पृष्ठभूमि से आने वाली आदिवासी महिलाओं के लिए राजनीति में अपनी जगह बना पाना कितना चुनौतिपूर्ण है?
पढि़ए झारखंड के तीन अलग-अलग जगहों से, तीन अलग-अलग आदिवासी महिलाओं की कहानी। ये तीनों महिलाएं राज्य में जल,जंगल, ज़मीन से जुड़े आंदोलनों का मुख्य चेहरा रही हैं।
हमारी इस यात्रा की शुरुआत झारखंड के संथाल परगना क्षेत्र से हुई। हमें यहां मुन्नी हांसदा नाम की एक महिला से मिलना था। वो दुमका के काठिकुंड में रहती हैं और संथाल के इस क्षेत्र में एक जाना-पहचाना नाम हैं। वो प्रदेश की उन आंदोलनकारी महिलाओं में शामिल हैं, जो पिछले कई सालों से राज्य की ख़निज संपदा को कॉरपोरेट घरानों से बचाने की लड़ाई लड़ रही हैं और अपनी एक राजनीतिक पहचान बनाना चाहती हैं।
पहली बार उनका नाम सुर्खियों में तब आया था, जब साल 2005-07 में दुमका के काठीकुंड में कोलकाता की एक बड़ी कंपनी अपना पावर प्लांट स्थापित करने वाली थी।
झारखंड की तत्कालीन सरकार के साथ कंपनी ने एमओयू पर हस्ताक्षर भी कर लिए थे पर ग्रामीणों के विरोध और लंबे चले आंदोलन के बाद कंपनी और सरकार दोनों को बैकफुट पर जाना पड़ा।
मुन्नी हांसदा इसी आंदोलन का मुख्य चेहरा बनकर उभरी थीं। उन्होंने कंपनी के प्रस्ताव के ख़िलाफ़ तकऱीबन सात महीने जेल में भी बिताए थे। इससे पहले वो लंबे समय तक आदिवासियों को पेसा क़ानून, फॉरेस्ट राइट्स, संथाल परगना टेनेन्सी एक्ट के बारे में जागरूक करती रही थीं। कोलकाता की कंपनी के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन में मिली जीत शायद इसी का नतीजा था। मुन्नी हांसदा ने इसके बाद भी कई आंदोलनों का नेतृत्व किया और हक़ के लिए लड़ती रहीं।
बतौर सामाजिक कार्यकर्ता एक सफल पारी खेलने के बाद मुन्नी हांसदा ने जब राजनीति में अपनी किस्मत आज़माने की कोशिश की, तो उन्हें लोगों का अपेक्षित समर्थन नहीं मिला। वो कहती हैं, ‘चुनाव के समय में जिसके पास पैसा है और वो गाँव में पैसा फेंकता है, दारू पिलाता है तो उसको वोट मिल जाता है। हमारे समाज में वोट को लेकर जागरूकता नहीं है। वो नहीं समझते कि किसको जिताने से हमारी आवाज़ लोकसभा या विधानसभा में उठेगा।’
साल 2009 में तृणमूल कांग्रेस, साल 2015 में मार्कसिस्ट कोऑपरेशन और साल 2020 के विधानसभा चुनाव में भी टीएमसी से शिकारीपाड़ा सीट से चुनाव लड़ चुकी हैं। इन तीनों ही पार्टियों का झारखंड में कोई जनाधार नहीं है। वो मानती हैं कि उनकी जैसी साधारण पृष्ठभूमि से आने वाली महिलाओं के लिए राजनीति में अपने बूते जगह बना पाना बहुत मुश्किल है। वो बताती हैं, ‘इसके पीछे वो दो-तीन मुख्य वजहें हैं। पहला कि कोई भी बड़ी पार्टी आपको टिकट नहीं देती। आपके पास पैसे हों, संसाधन हो, मज़बूत राजनीतिक बैकग्राउंड हो, तभी टिकट मिलने की उम्मीद है लेकिन अगर आपके पास इन तीनों में से कुछ भी नहीं है और आप महिला हैं, तो आपका कुछ नहीं हो सकता।'' इसके बावजूद मुन्नी हांसदा ने आगामी लोकसभा चुनाव में दुमका लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लडऩे की इच्छा जताई है।
वो कहती हैं कि इस सीट से सबसे अधिक बार चुनकर आए शिबू सोरेन आदिवासी समुदाय से ही आते हैं लेकिन उन्होंने आदिवासियों के लिए कुछ काम नहीं किया। वो जानबूझकर आदिवासी युवाओं को वो मौक़े नहीं देना चाहते, जिनके वो हक़दार हैं क्योंकि वो जानते हैं कि अगर उन्होंने इस समुदाय के लोगों का आगे बढ़ाया तो वो राजनीति में भी हस्तक्षेप करेंगे। इन दिनों मुन्नी हांसदा ग्रामसभा को संबोधित कर आदिवासियों को उनके वोट की अहमियत समझा रही हैं।
उन्हें उम्मीद है कि एक दिन उनके समुदाय के लोगों को ये बात ज़रूर समझ आएगी और वो उनके जैसी महिलाओं पर भरोसा जताएंगे। वो कहती हैं, ‘हमारे यहाँ के आदिवासियों के पास राजनीतिक ज्ञान नहीं है। पैसा पर बिका, वोट दिया दूसरे को, हमको सपोर्ट नहीं किया। आंदोलन में साथ देता है लेकिन चुनाव के वक़्त पैसा पर बिक जाता है, लेकिन हम आज भी लोगों के साथ हैं, आज भी लड़ रहे हैं।’
आदिवासी बहुल राज्यों में आदिवासी महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी
बिहार से अलग होकर झारखंड राज्य का गठन साल 2000 में किया गया। साल 2000 से 2019 तक इस प्रदेश ने कुल चार लोकसभा चुनाव देखे हैं लेकिन इन चार चुनावों में प्रदेश से चुनकर देश की संसद तक का रास्ता चार महिलाएं भी पूरा नहीं कर सकी हैं। रही बात आदिवासी महिलाओं की तो आदिवासी बहुल राज्य होते हुए भी इस समुदाय से आने वाली केवल दो महिलाएं ही सदन में प्रवेश कर पाई हैं।
साल 2004 में खूँटी से चुनी गईं सुशीला केरकेट्टा और साल 2019 में सिंहभूम सीट से जीतकर आईं गीता कोड़ा। गीता कोड़ा झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी हैं, वहीं सुशीला केरकेट्टा प्रदेश से चुनी गईं इकलौती आदिवासी महिला सांसद है, जो साधारण पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखती हैं। झारखंड से इतर हम अगर दूसरे प्रदेशों की बात करें तो मध्य प्रदेश में जनजाती समुदाय की सबसे अधिक आबादी रहती है। आज़ादी के बाद हुए पहले आम चुनाव से लेकर पिछले 2019 के आम चुनाव तक इस प्रदेश से 12 आदिवासी महिला संसद चुनी गई हैं।
आंध्रप्रदेश, ओडिशा से आठ, महाराष्ट्र-राजस्थान से तीन, छत्तीसगढ़-गुजरात जैसे राज्यों से दो और कर्नाटक-पश्चिम बंगाल से एक-एक आदिवासी महिला सांसद चुनी गई हैं। डॉ वासवी किड़ो ख़ुद विस्थापन से जुड़े कई आंदोलनों का मुख्य चेहरा रही हैं। किसी बड़ी पार्टी कि तरफ़ से टिकट न मिलने पर साल 2019 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने बतौर स्वतंत्र उम्मीदवार हटिया सीट से चुनाव लड़ा। वो कहती हैं, ‘राजनीतिक दलों का एक करैक्टर जो दिखायी दे रहा हैज्चाहे झारखंड हो या राष्ट्रीय स्तर पर, वो ये है कि बहुत पढ़ी-लिखी, बहुत संघर्ष की हुई, बहुत काम की हुई औरतें उनको बिल्कुल पसंद नहीं हैं। कम बोलो, कम बात करो, ख़ूबसूरत चेहरा रखो और अच्छी साडिय़ाँ पहनोंज्तो ऐसी औरतों को वो ज़्यादा तवज्जो देते हैं कि भई ये औरतें ज़्यादा मुँह नहीं लगेंगी, ज़्यादा हक़ की बात नहीं करेंगी, ज़्यादा मुद्दे नहीं उठाएंगी’।
आदिवासी महिलाओं की न के बराबर भागीदारी पर वो कहती हैं, ‘आदिवासी महिलाओं को टिकट नहीं देते क्योंकि समझते हैं कि इनके पास नॉलेज नहीं है। ये लड़ती ज़्यादा हैं, बोलती हैं, इनके पास में जो बैकग्राउंड होना चाहिए वो नहीं है।’ ‘उनको सशक्त करना, सही जगह दिलाना ये काम नहीं हो रहा है। राजनीतिक दलों के द्वारा और इसलिए आदिवासी औरतों को ज़्यादा चुनौती फेस करना पड़ रहा है कि वो राजनीति में अपनी जगह बना पाएं।’ हालांकि एक वर्ग मानता है कि दो साल पहले द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद आदिवासी महिलाओं में ये विश्वास पनपा है कि वो भी देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहुंच सकती हैं। डॉ वासवी किड़ो भी इस बात से सहमत नजऱ आती हैं।
उन्होंने कहा, ‘निश्चित तौर पर महिलाओं में विश्वास तो आया है और वो इस बात से खुश हैं कि एक आदिवासी महिला देश की राष्ट्रपति हैं लेकिन ये काफ़ी नहीं है। आप एक आदिवासी औरत को बैठाके वन संरक्षण संशोधन अधिनियम में साइन करा रहे हो, पूरे जंगल उजाड़ रहे हो आदिवासी औरत को बिठाकर आप आदिवासी औरतों को जेल भेज रहे हो तो आदिवासी औरतें ये भी समझ रही हैं।
क्या कहते हैं आंकड़े?
एक बार आंकड़ों की तरफ़ नजऱ डालें तो साल 1952 से लेकर साल 2019 तक हुए लोकसभा चुनावों में कुल 51 आदिवासी महिला सांसद चुनी गई हैं। इनमें सबसे अधिक यानी 30 कांग्रेस पार्टी से चुनकर आई हैं। वहीं भारतीय जनता पार्टी से 12 अनुसूचित जनजाति की महिलाएँ संसद पहुंची हैं। तीसरे नंबर पर ओडिशा की बीजू जनता दल है, जिससे आज तक दो आदिवासी महिला सांसद चुनी गई हैं। वर्तमान में देश के निचले सदन में 77 महिला सांसद हैं। इनमें से दस आदिवासी समुदाय से आती हैं। यानी कुल 543 सदस्यों वाले निचले सदन में आदिवासी महिलाओं की भागीदारी महज 1।8 प्रतिशत है।
संसद पहुँचीं ये सभी महिलाएं अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों से जीतकर आई हैं, जिनकी संख्या कहने को लोकसभा चुनावों के इतिहास में सबसे अधिक है लेकिन अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित देशभर की 47 सीटों में से अभी भी 20 सीटें ऐसी हैं, जिससे आज तक एक भी महिला उम्मीदवार चुनकर नहीं आईं।
झारखंड की आयरन लेडी के नाम से मशहूर दयामनी बारला की पहचान देश- दुनिया में हैज्पिछले एक दशक से वो नई और स्थानीय पार्टियों के सहारे चुनावी लड़ाई लड़ रही हैं। कुछ महीने पहले ही उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ली है। वो खूंटी या लोहरदगा लोकसभा सीट से चुनाव लडऩे की इच्छुक हैं। लेकिन इस बात की संभावना कम ही है कि पार्टी उन्हें टिकट दे। वो कहती हैं, ‘टिकट की गारंटी कोई करे या ना करे, चाहे लोकसभा टिकट की गारंटी करे ना करे, विधानसभा टिकट की गारंटी करे ना करे, लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप में आना है और संघर्ष करना है एक दिन आपको कामयाबी मिलेगा, हमलोग हमेशा बोलते हैं कि लड़ेंगे और जीतेंगेज्हमलोगों ने कई आंदोलन लड़ा है और जीता है, बाक़ी आंदोलन भी लड़ेंगे और जीतेंगे।’
- डॉ. आर.के. पालीवाल
केन्द्रीय जांच एजेंसियों की ताबड़तोड़ कार्यवाहियों से दिन ब दिन लगातार यह आभास और पुख्ता होता जा रहा है कि वे उस निष्पक्षता से कोसों दूर होती जा रही हैं जिसकी परिकल्पना संविधान निर्माताओं ने उनसे की थी। ऐसा नहीं है कि यह परिर्वतन रातों रात हुआ है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि कुछ दौर में इन जांच एजेंसियों का व्यवहार अत्यंत पक्षपातपूर्ण दिखने लगता है। इंदिरा गांधी के आपातकालीन दौर के आसपास ऐसी ही स्थिति बनी थी या फिर वर्तमान केंद्रीय सत्ता के दौर में कुछ कुछ उसी तरह के हालात बनते दिखाई दे रहे हैं।
दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री को एक के बाद एक नौ समन जारी करने के बाद उनके सरकारी आवास से देर शाम छापे के बाद गिरफ्तार करने की घटना आजाद भारत के लिए इसलिए ऐतिहासिक बन गई है क्योंकि इसके पहले भी भ्रष्टाचार के मामलों में बहुतेरे मुख्यमंत्रियों पर संगीन आरोप लगे हैं और उनकी गिरफ्तारी हुई है लेकिन किसी दौर में किसी मुख्यमंत्री को इस तरह पद पर रहते हुए गिरफ्तार नहीं किया गया और वह भी पूरे देश में लोकसभा चुनाव के मद्देनजर लगी आचार संहिता के समय, इसलिए अरविंद केजरीवाल की गिरफ़्तारी के समय का चुनाव भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।
भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र सरकार यह कहकर अपना पल्ला झाडऩे की असफल कोशिश करेगी कि चुनाव काल में केंद्रीय जांच एजेंसियां स्वतंत्र रूप से अपना काम कर रही हैं। लेकिन आम आदमी पार्टी के लिए यह करो या मरो की स्थिति है। जब उसके तीन तीन कद्दावर नेता अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और संजय सिंह आबकारी नीति मामले में जेल में बंद हैं, ऐसे में उसके दूसरी और तीसरी श्रेणी के नेता आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं को कितना उत्साह दिला पाएंगे, आम आदमी पार्टी का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा।
ऐसा लगता है कि दिल्ली में उप राज्यपाल, केंद्रीय जांच एजेंसियों और दिल्ली पुलिस के माध्यम से आम आदमी पार्टी की सरकार की गतिविधियों में रोड़े अटकाने वाली केन्द्र सरकार ने बहुत नाप तौल कर अरविन्द केजरीवाल को ऐसे नाजुक वक्त में गिरफ्तार करने का जोखिम उठाया है जिसका ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है।इलेक्टोरल बॉन्ड के घेरे में फंसती भारतीय जनता पार्टी के लिए लोकसभा चुनाव में बाहर रहकर अरविंद केजरीवाल इस मुद्दे पर काफी परेशानी खड़ी कर सकते थे। अरविंद केजरीवाल और उनकी पत्नी सुनीता केजरीवाल लंबे समय तक आयकर विभाग में रहे हैं और आर्थिक अपराध की बारीकियों को अधिकांश नेताओं से बेहतर समझ सकते हैं। अरविन्द केजरीवाल स्वभाव से अत्यंत मुखर और महत्वाकांक्षी हैं इसलिए इलेक्टोरल बॉन्ड के मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा कर वे इंडिया गठबंधन में भी अपना कद बढ़ा सकते थे इसलिए लोकसभा चुनाव के समय इंडिया गठबंधन के लिए प्रचार के लिए उनका उपलब्ध रहना भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन सकता था। केजरीवाल का जेल में रहना भाजपा के लिए अलग तरह की परेशानी पैदा कर सकता है। उनकी अनुपस्थिति में कार्यकर्त्ता धरने प्रदर्शन कर माहौल अपने पक्ष में बनाने की पूरी कोशिश करेंगे।
अरविंद केजरीवाल की गिरफ़्तारी का ऊंट किस करवट बैठेगा, निकट भविष्य में यह न्यायपालिका के आदेशों पर सबसे ज्यादा निर्भर करेगा। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में आ चुका है। अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में विद्वान वकीलों की भारी भरकम फौज निचली अदालत से लेकर उच्च और उच्चतम न्यायालय तक जिरह करने के लिए चौबीस घंटे उपलब्ध रहती है जिसमें अभिषेक मनु सिंघवी से लेकर कपिल सिब्बल सरीखे दिग्गज शामिल रहते हैं। अगले दस पंद्रह दिन में केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का भविष्य थोड़ा साफ दिखने लगेगा। फिलवक्त आम आदमी पार्टी से ज्यादा केंद्र सरकार इस मामले में घिरती नजर आ रही है ।
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
होली हो और नजीर अकबराबादी पर बातें न हों यह हो नहीं सकता। ब्रज की होली के रंगों को जिन लोगों ने देखा और जिया है उनके लिए होली का अर्थ समझना आसान है ,लेकिन जिन लोगों ने ब्रज की होली नहीं देखी है वे उसके मर्म को समझ नहीं सकते। टीवी से ब्रज की होली समझ में नहीं आ सकती।
विगत वर्षों में होली खेलते खेलते ब्रज बदला है, मंदिर, बदले हैं, मंदिरों में होने वाला हुरंगा बदला है, सड़कों की रौनक और रंगों का खेल बदला है। आम लोगों का होली के प्रति मिजाज बदला है। ब्रज की होली का अर्थ है कोई नियम नहीं। यह दिन मनुष्य के लिए मुक्ति और आनंद का दिन है। इस दिन को मनुष्य पूर्ण उल्लास और आनंद के साथ व्यतीत करता है।
होली में रंग तो बहाना है असल मकसद है बंधनों से मुक्ति। रंग यहां बंधनमुक्ति का प्रतीक हैं। जब आप किसी को रंग देते हैं तो बंधन मुक्ति की कामना करते हैं। जिसने भी होली को आरंभ में खेला था वह बंधनों में बंधे मनुष्य की पीड़ा का भुक्तभोगी रहा होगा। होली का मतलब महज होलिका दहन नहीं है, कुछ लकड़ियों का जलाया जाना नहीं है.यह पौराणिक आख्यान की पुनरावृत्ति भी नहीं है। वैसे हमारे समाज में प्रत्येक त्यौहार के साथ पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं , कोई न कोई देवी-देवता, नायक-नायिका आदि जुड़े हैं। ये इन पर्वों के गौण रूप हैं। उत्सवधर्मिता इसके पीछे प्रदान लक्ष्य है।
होली सांस्कृतिक पर्व है अतः इसकी महिमा निराली है। उसके रंगों का अर्ख रंगों के परे है। यह रंगों से आरंभ जरूर होता है, लेकिन खत्म बंधनों से मुक्ति में होता। रंग पड़ने का अर्थ है निषिद्ध की मौत, बंधन का अंत।यही वजह है होली सब मनाते हैं, लेकिन होली के बहाने भारतीय समाज बंधनों से मुक्ति का महा उत्सव मनाता है।
मजेदार बात यह है कि होली ब्रज की ही सुंदर मानी गयी है, सवाल यह है कि ब्रज की होली क्यों ? ब्रज में भी मथुरा की ही होली क्यों महत्वपूर्ण है ? मथुरा भारत की प्राचीन नगर सभ्यता के बड़े केन्द्रों में से एक रहा है। कृष्ण की जन्मभूमि है और सामाजिक परिवर्तन का श्रीकृष्ण सबसे बड़ा मिथकीय नायक है। वह बंधनों से मुक्ति का भी नायक है। यही वजह है मथुरा को होली का आदर्श स्थान माना गया।
इसके अलावा जिस चीज ने होली को महान बनाया वह है इसका जातिभेद रहित रूप। होली एकमात्र त्यौहार है जो परंपरा में शूद्रों का पर्व माना जाता है, लेकिन इसको मनाते सभी जाति के लोग हैं। भारत की जातिप्रथा के प्रतिवाद में इस पर्व की बड़ी भूमिका रही है। बंधन, जाति, भेद आदि को होली में जलाते हैं। भेदरहित बंदनमुक्त समाज के आदर्श सांस्कृतिक पर्व के रूप में इस मनाया जाता है। होली पर यदि आप किसी रंग पर डाल दें, किसी को गाली दे दें, किसी को रंग के हौदा में डुबो दें। या फिर प्रेम व्यक्त कर दें।कोई बुरा नहीं मानता। होली में सात खून माफ हैं।
लेकिन परवर्ती पूंजीवाद में होली में मौजूद सहनशीलता को प्रभावित किया है। इन दिनों हम असहिष्णु ज्यादा बने हैं।किसी ने बिना बताए और स्वीकृति के बिना रंग डाल दिया तो प्रतिवाद करते हैं, झगड़ा करते हैं, नाराज होते हैं। होली का नारा है बुरा न मानो होली है। होली में मनुष्य की एक नई परिकल्पना की गई है वह है 'भडुए' की। यह अनुशासित नागरिक की मौत की सूचना का पर्व भी है। यह तथाकथित अभिजनवादी सभ्य समाज की विदाई का दिन भी है। यह जानते हुए भी सभ्य लोग होली पर रंग पड़ने पर बुरा मानते हैं। सरकार ने अनिच्छा से रंग फेंकने के खिलाफ कानून बना दिया है,रंग फेंकना अपराध घोषित कर दिया है। यह होली नहीं है बल्कि होली का सरकारी नियमन है।
ब्रज में होली पूरे फाल्गुन माह चलती है। रंगों का मंदिरों में जमकर हुरंगा चलता है। होली एकमात्र ऐसा पर्व है जिस पर दुश्मन से भी लोग गिला -शिकवा खत्म करके गले मिलते हैं। यह रंजिशों के अंत का दिन है। स्त्री-पुरूष के भेद के अंत का सांस्कृतिक पर्व है, यह अकेला ऐसा सांस्कृतिक पर्व है जिसमें औरतें लट्ठमार होली खेलती हैं और पुरूष निहत्थे होते हैं। वरना और किसी पर्व पर औरतों के हाथ में कोई लट्ठ आपको नहीं मिलेगा।
यहां हम नज़ीर अकबराबादी की होली पर लिखी एक शानदार कविता पेश कर रहे हैं जिसमें होली के मर्म की शानदार प्रस्तुति की गई है।
"जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली की,
और दफ़ के शोर खड़कते हों
तब देख बहारें होली की,
परियों के रंग दमकते हों
तब देख बहारें होली की,
खुम, शीशे, जाम छलकते हों
तब देख बहारें होली की,
महबूब नशे में छकते हों
तब देख बहारें होली की,
हो नाच रंगीली परियों का
बैठे हों गुलरू रंग भरे,
कुछ भीगे ताने होली के
कुछ नाज़-ओ-कदा के ढ़ंग भरे
दिल भोले देख बहारों को
और कानों में आहंग भरे
कुछ तबले खड़के रंग भरे
कुछ ऐश के दम मुँह जंग भरे
कुछ घुँघरू ताल छनकते हों
तब देख बहारें होली की
सामान जहाँ तक होता है
इस इशरत के मतलूबों का
वो सब सामान मुहय्या हो
और बाग़ खिला हो खूबों का
हर आन शराबें ढलती हों
और ठठ हो रंग के डूबों का
इस ऐश मज़े के आलम में
इक ग़ोल खड़ा महबूबों का
कपड़ों पर रंग छ्ड़कते हों
तब देख बहारें होली की
गुलज़ार खिले हों परियों के,
और मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग के छीटों से
खुशरंग अजब गुलकारी हो
मुँह लाल ,गुलाबी आँखें हों,
और हाथों में पिचकारी हो
इस रंग भरी पिचकारी को,
अँगिया पर तककर मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों,
तब देख बहारें होली की
इस रंग रंगाली मजलिस में,
वो रंडी नाचने वाली हो
मुँह जिसका चाँद का टुकड़ा हो,
औऱ आँखे भी मय की प्याली हो
बद मस्त,बड़ी मतवाली हो,
हर आन बजाती ताली हो
मयनोशी हो बेहोशी हो
'भडुए' की मुँह में गाली हो
भडुवे भी भडुवा बकते हों,
तब देख बहारें होली की
और एक तरफ़ दिल लेने को
महबूब मवय्यों के लड़के
हर आन घड़ी गत भरते हों
कुछ घट-घटके कुछ बढ़ -बढ़के
कुछ नाज़ जतावें लड़-लड़के
कुछ होली गावें अड़-अड़के
कुछ लचके शेख़ कमर पतली
कुछ हाथ चले कुछ तन फड़के
कुछ काफिर नैन मटकते हों
तब देख बहारें होली की
ऐ धूम मची हो होली की
और ऐश मज़े का झक्कड़ हों
उस खींचा-खींच की कुश्ती में
और भडुवे रंड़ी का फक्कड़ हो
माजून शराबें, नाच, मज़ा और
टिकिया, सुलफा, कक्कड़ हो
लड़-भिड़के 'नज़ीर' फिर निकला हो
कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश झमकते हों
तब देख बहारें होली की ।
-राहुल कुमार सिंह
(संदर्भ : राजकमल प्रकाशन समूह का आयोजन)
संयोग कि मेरे आस-पास और लगभग नियमित संपर्क में छह-सात ऐसे घनघोर पाठक हैं, जिनसे लाभान्वित होता रहता हूं। ये सभी, जो हाथ आए पढ़ लेते हैं, कहीं लिखने-छपने को उत्सुक नहीं रहते, आपस की बैठकी में अपनी पसंद पर बातें जरूर कर लेते हैं। इन्हीं में से एक ने किसी दिन हल्के मूड में कहा- 'कभी लगता है पढऩे को ज्यादा ही सम्मान दिया जाता है, हम दूसरे कई जरूरी कामों से बच कर किताबों में मुंह छुपा लेते हैं।'
मैंने देखा है कि अधिकतर 'पाठक' के रूप में पहचाने जाने वाले लिखने-छपने वाले या इसकी तैयारी में चाल-चलन को समझने की कोशिश करने वाले होते हैं। पाठकों की पसंद का कुछ अनुमान बाजार और लोक-प्रतिष्ठा से लगाया जा सकता है, मगर पुस्तकालयों और विनिमय से पढऩे वालों और साधक भाव वाले पाठकों की तादाद कम नहीं। मुझे लगता है कि किंडल और नेट आदि के बावजूद हिंदी का गंभीर पाठक का बड़ा वर्ग अभी भी पुस्तक और छपे रूप पर टिका है।
पढऩे और पसंद की बात होते, क्या पढ़े? कुछ अच्छा बताइए, पूछने वाले जरूर मिलेंगे, इनके अच्छा पाठक बन सकने का भविष्य संदिग्ध ही होता है। मेरे एक परिचित अभी भी कागज का हाथ आया पुरजा हो या चिंदी, एक नजर देख कर, सरसरी बांचे बिना नहीं फेंकते।
एक अन्य परिचित, जो नये-नये लेखक बन रहे थे, किताब छपाना चाहते थे, मुझे प्रिंट-आउट दिखाया, ठीक-ठाक लिखा था। बताया कि प्रकाशक अमुक राशि ले कर छापने को तैयार है, मैंने सुझाया कि जल्दी न हो तो कुछ अच्छे प्रकाशकों से बात कर लीजिए, वे भी तैयार हो सकते हैं। इस पर उन्होंने कहा साहित्यकार बनने की इच्छा नहीं है, मैं चाहता हूं, मेरी किताब छपे, बस-ट्रेन का मुसाफिर, बैठे-ठाले जिसके हाथ लगे, पढ़ ले, उसे पसंद आ जाए, बस। आज उनकी चार-पांच पुस्तकें हैं, सारी आत्मकथा वाली, खूब पढ़ी जा रही हैं, पसंद की जाती हैं। वे खुद चाहें तो अपनी पहचान यहां उजागर कर दें।
-विजया एस कुमार
याद नहीं कब से, पर बहुत ही छुटपन से मैं शिव की अन्यन भक्त रही हूं। शिव का अभिषेक और उनका श्रृंगार मुझे अतिशय प्रिय रहा।शायद इसलिये भी की वैष्णव सम्प्रदाय की दीक्षा लेने वाली पीढिय़ों के वावजूद हमारे अँगने में शिव हमेशा से ही विराजमान रहे हैं, फिर चाहे वो हमारे पुराने अँगने का मिट्टी का शिवलिंग हो या नए अँगने में वाराणसी से ले स्थापित किये गए शिवलिंग। वैसे भी अवधारणा है कि काशी से लाये गए शिवलिंग को स्थापना की जरूरत नही है क्योंकि वहां तो कण कण में शिव विराजते हैं। अम्मा गर्मियों में उनके ऊपर पानी की झाँपि रखती थी जिससे पूरे दिन बून्द-बून्द बरसते जल से शंकर भगवान का अभिषेक होता रहता और उन्हें ठंडक मिलती थी, वही सर्दियों में भोला बाबा के नजदीक धूप की अलाव जलती थी ताकि कैलाशपती को सर्दी का अहसास न हो। ऊपर से बड़े पापा के साथ हर पूर्णिमा दश्वमेध घाट का स्नान और विश्वनाथ मंदिर में बाबा का अभिषेक। वही पापा के साथ सावन में बाबा वैद्यनाथ का दर्शन। आज भी साल में कम से कम एक बार महराज मलिककार्जुन का दर्शन तो सुखद हो ही जाता है।
जब घर मे ऐसा माहौल हो तो शिवभक्ति तो रग रग में घुलने ही लगती है। सावन की हरेक सोमवारी और शिवरात्रि तो होना ही था, पर फागुन की शिवरात्रि का मोह कैसे छूट जाता।इसी दिन तो प्यारे शिव लाडली गौरा संग विवाह बंधन में बंध जाते हैं। वही बंधन जिसमे बंधते वक्त हर माता पिता अपनी बिटिया दामाद में गौरीशंकर ढूंढते हैं और उन जैसा ही होने का आशीर्वचन देते हैं। शिवरात्रि के दिन तो हर कोई भोले का पूजन करता है पर मेरी बड़ी चाची अगले दिन की पूजा मुझसे खूब मनोयोग से करवाती और कहती कि गौरा संग ब्याह के कैलाशपति इतने प्रसन्न होते हैं कि हर वचन देने को आतुर होते हैं जो चाहे मांग लो,फिर इसी दिन से गांव में खड़ी होली की भी शुरुआत होती है।
ब्याह के बाद तो गौना होता है, उसके बगैर दूल्हन आये कैसे ससुराल! तो गौरा भी कैसे पहुंचे विश्वनाथ गलियां। गौरा को गौनाने आते हैं त्रिपुरारी और संग उनके गण। बनारस में ठीक फाल्गुन एकादशी के दिन विश्वनाथ मंदिर के महंत जी के यहां से रजत जडि़त गौरा और महादेव चांदी की पालकी पर विराज गौरा के मायके की गलियों से गुजरती विश्वनाथ मंदिर आती है और सारे भक्तगण खुशी मे गुलाल उड़ाते हैं इतना कि मय नगरी लालम लाल हो जाती है और एकादशी रंगभरी हो जाती है इसलिए ही इसे रंगभरी एकादशी भी कहते हैं। इसी एकादशी से शुरुआत हो जाती है रंगों गुलाल वाली फाल्गुनी होली की।
पर शिव के भक्त में सिर्फ मनुष्य एवं देवगण ही तो नहीं आते हैं न! इस औघड़ की टोली तो भूत पिशाचों की भी उतनी ही होती है, तो भला उन्हें सिर्फ रंगों की होली कैसे रास आये। ठीक गौने के अगले दिन मणिकर्णिका पर चितायों की राख से भस्म होली खेली जाती हैं। वही मणिकर्णिका जहां सैकड़ों सालों से कभी भी चिता की आग ठंडी नही हुई है, जहां पहुच कर ही अहसास होता है कि शरीर की आखरी गति वही है। तुम्हारे पूर्वज भी इसी मिट्टी में मिले हुए हैं जिनमे तुमने भी मिलना है। फिर इस संसार से इतनी प्रीति क्यों। विरक्ति क्यो नही।
तो कितना निराला है ना शिव का प्रीति से विरक्ति तक का सफर। आइए इस होली हम भी अपने घमंड और टसनो को भी भस्म कर दे और उससे होली खेलते लब से फूटे-
‘खेले मशाने में होली दिगम्बर, खेले मसाने में होली’
होली है!
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने कहा है कि किसी राजनीतिक पार्टी के बैंक खातों को फ्रीज करना, ऐसे समय में जब चुनाव होने वाले हों, सभी को एक समान अवसर देने के नियम से उसे वंचित करना है। हाल ही में कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेताओं ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर आरोप लगाया कि दो पुराने मामले का हवाला देते हुए पार्टी के खातों को फ्रीज कर दिया गया है। कांग्रेस का आरोप है कि 30-35 साल पुराने मामले को खोल कर चार खातों को फ्रीज कर दिया गया जबकि इस मामले में करीब 14 लाख रुपये की गड़बड़ी के चलते 285 करोड़ रुपये का फंड रोक लिया गया।
बीबीसी संवाददाता इकबाल अहमद से विशेष बातचीत में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने कहा कि चुनाव आयोग का काम है स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना, इसलिए वो कांग्रेस के बैंक खाते फ्रीज किए जाने के मामले में निर्देश दे सकता है। वो ये कह सकता है कि जैसे इतने दिन रुका गया, दो महीने और रुका जा सकता है। हालांकि उनका कहना है कि अरविंद केजरीवाल का मामला अलग है। बीते एक साल से समन आ रहे थे और वो उसे नजरअंदाज कर रहे थे।
आचार संहिता लागू होने के बाद, पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व को गिरफ़्तार करने से पहले जांच एजेंसियों को क्या चुनाव आयोग को सूचित नहीं करना चाहिए? इस सवाल के जवाब में कुरैशी ने कहा कि ऐसा मामला पहले चुनाव आयोग के सामने आया नहीं। हलांकि उन्होंने कहा कि ऐसे समय में दो दो मुख्यमंत्रियों को जेल के अंदर डालने से एक ग़लत छवि बनती है। और कुछ लोग रूस से तुलना कर सकते हैं जहां हाल ही में हुए आम चुनाव के दौरान विपक्षी नेताओं को जेल के अंदर डाल दिया गया था। उन्होंने कहा कि कार्रवाई करने वाली एजेंसियां भी बहुत हद तक स्वतंत्र होती हैं, ऐसा कहना मुश्किल है।
इलेक्टोरल बॉन्ड की पारदर्शिता क्यों संदेह के घेरे में थी?
इलेक्टोरल बॉन्ड जब लाया जा रहा था तो इसी चुनाव आयोग ने आपत्ति ज़ाहिर की थी और 2017 में उसने चि_ी लिखी थी और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया भी इसके विरोध में था। लेकिन बाद में उनकी राय बदल गई।
ये पूछने पर कि इससे क्या आशय निकलता है, एसवाई कुरैशी ने कहा, ‘जब ये इलेक्टोरल बॉन्ड आए थे, तो 2017 में चुनाव आयोग की प्रतिक्रिया बहुत कड़ी थी। रिज़र्व बैंक ने इस बारे में चि_ी लिखी। लेकिन 2021 में इन्होंने बिल्कुल यूटर्न ले लिया।’ अब जबकि इलेक्टोरल बॉन्ड की स्कीम रद्द कर दी गई है और चुनाव आयोग ने इससे जुड़ी सारी जानकारियों को सार्वजनिक कर दिया है, क्या इससे कोई बदलाव आएगा?
इस पर एसवाई कुरैशी का कहना था कि इससे बदलाव तो जरूर आएगा, ‘सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्पष्ट रूप से असंवैधानिक करार दिया है। ये तो चुनाव आयोग की ही मांग थी और मेरी भी इस बारे में पुख़्ता राय रही है।’
इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर एसवाई कुरैशी ने अपनी एक किताब ‘इंडिया एक्सपेरिमेंट विद डेमोक्रेसी: लाइफ ऑफ ए नेशन थ्रू इट्स इलेक्शन’ का हवाला दिया।
कुरैशी कहते हैं, ‘जब इलेक्टोरल बॉन्ड लाया जा रहा था तो तत्कालीन वित्त मंत्री ने कहा था कि बिना पारदर्शी राजनीतिक फंडिंग के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं हैं और बीते 70 साल में इसे पारदर्शी बनाने की हमारी कोशिशें नाकाम रहीं। लेकिन अपने भाषण में पारदर्शी प्रणाली को ही उन्होंने खत्म कर दिया।’ वो कहते हैं, ‘उस वक्त ये नियम था कि 20 हजार से ऊपर चंदा लेने पर चुनाव आयोग को बताना होता था और सर्टिफिकेट दिया जाता था। इस आधार पर इनकम टैक्स छूट मिलती थी। इलेक्टोरल बॉन्ड के आने के बाद 20 हजार करोड़ का भी कोई हिसाब नहीं है। किसने किसको कितना दिया ये पता ही नहीं चलता है।’
चुनावी चंदे का पारदर्शी तरीक़ा क्या हो?
लेकिन सवाल उठता है कि एक आदर्श चुनावी चंदे की कोई प्रणाली होनी चाहिए। ये प्रणाली क्या हो सकती है?
इस पर कुरैशी ने कहा, ‘इलेक्टोरल बॉन्ड से पहले राजनीतिक पार्टियों को जाने वाला 70 प्रतिशत चंदा नकद में होता था। ये कहां से आया किसने दिया, कुछ पता नहीं लगता था। उस समय भी सुधार की बात उठी।’ वो कहते हैं, ‘इसका एक ही तरीका है कि नेशनल इलेक्शन फ़ंड (राष्ट्रीय चुनाव कोष) बना दिया जाए, क्योंकि ये कहा जाता है कि चंदा देने वाले डरते हैं कि दूसरी पार्टी न नाराज हो जाएं। प्राइम मिनिस्टर फंड, नेशनल डिजास्टर फंड आदि में देने में किसी को ऐतराज नहीं होता। इसी तरह इसमें भी फंड दिए जाएं।’
उनके मुताबिक, ‘इस राष्ट्रीय चुनावी फंड से पिछले चुनाव में मत प्रतिशत के आधार पर पार्टियों को फंड दे दिये जाएं। 70 फीसदी यूरोपीय देशों में ये प्रणाली चल रही है। इससे काफी हद तक चुनावी चंदे में पारदर्शिता आ सकती है।’
ईवीएम पर सवाल खड़ा करना कितना सही?
चुनाव करीब आते ही ईवीएम पर फिर से सवाल खड़े होने लगे हैं और कांग्रेस की अगुवाई वाले विपक्षी इंडिया गठबंधन ने हाल ही में मुंबई में हुई एक रैली में इस पर तीखा हमला बोला।पूर्व चुनाव आयुक्त ने कहा, ‘ईवीएम पर सबसे अधिक विरोध 2009 में बीजेपी ने किया था। मैं 2010 में चुनाव आयुक्त बना। लेकिन मेरी धारणा ईवीएम को लेकर सकारात्मक रही है। अगर कोई सवाल है तो राजनीतिक दलों की बैठक कर उसे हल करना चाहिए।’
‘ईवीएम के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क है कि उसी ईवीएम से राजनीतिक दल लगातार हारते और जीतते रहते हैं, कर्नाटक, पंजाब, दिल्ली, हिमाचल इसका उदाहरण है, जहां सत्तारूढ़ पार्टी हारी। हालांकि इसमें सुधार किया जा सकता है। मेरा सुझाव है कि वीवीपैट में ऐसी सुविधा दी जाए कि मतदाता संतुष्ट होने के बाद हरा बटन दबाए और तभी पर्ची निकले। और अगर इसमें गड़बड़ी हो तो अलार्म का लाल बटन हो ताकि मतदान को रोका जा सके।’
अभी चुनिंदा मतदान केंद्रों पर ही वीवीपैट की सुविधा होती है लेकिन कई राजनीतिक दल इसे 100 प्रतिशत लागू करने और उन पर्चियों की गिनती की भी मांग करते रहे हैं।
इस पर कुरैशी ने कहा कि ‘भरोसा कायम करने के लिए ये दोनों मांगें मानी जानी चाहिए। इससे चुनावी नतीजों में थोड़ी ही देरी होगी। हालांकि ये भी तरीका बनाया जा सकता है कि अगर किसी सीट के दो शीर्ष उम्मीदवार किसी बूथ के वोट की फिर से गिनती करवाना चाहें तो ये करने देना चाहिए, जिससे फिर से पूरी मतगणना से बचा जा सकेगा।’ हालांकि उन्होंने कहा कि ईवीएम बनाने वाली कंपनी में सत्तारूढ़ दल बीजेपी के लोगों का स्वतंत्र निदेशक की हैसियत से शामिल होना गंभीर बात है। उनके अनुसार, ‘निदेशक के पास बहुत ताकत होती है, वो कुछ बदलाव के लिए कह सकता है। लेकिन निदेशक भले ही कुछ न करें, उनकी राजनीतिक नियुक्ति लोगों के मन में संदेह पैदा करती है। हालांकि ये भी सुझाव पहले से रहा है कि सॉफ़्टवेयर को ओपन सोर्स कर दिया जाए। सार्वजनिक होने से उसमें सुधार ही होगा।’
चुनाव आयोग में कितना सुधार हुआ?
ये पूछने पर कि टीएन शेषन के कार्यकाल की तुलना में बाद के चुनाव आयुक्तों की कार्यपद्धति में क्या बदलाव आया, कुरैशी कहते हैं कि जिस काम को उन्होंने शुरू किया, बाद के चुनाव आयुक्तों पर उसे और मजबूत करने की जिम्मेदारी थी और हुआ भी।
उन्होंने तत्कालीन कानून मंत्री वीरप्पा मोइली के बारे में एक किस्सा भी सुनाया कि चुनाव सुधार की मीटिंग के लिए वो खुद उनके पास आए।
उन्होंने कहा कि टीएन शेषन कहते थे कि चुनाव आयुक्त को कानून मंत्री के दफ्तर के बाहर दो घंटे इंतजार करना पड़ता था। लेकिन तबसे स्थिति काफी सुधरी है।
वो पूछते हैं कि टीएन शेषन कहते थे कि वो नाश्ते में नेताओं को खाते हैं लेकिन क्या आज कोई चुनाव आयुक्त ऐसा कह सकता है?
हाल के दिनों में चुनाव आयोग में हुए विवादों पर कुरैशी ने कहा कि ‘2019 में जैसे अशोक लवासा की असहमति का मामला सामने आया। इससे थोड़ा धक्का तो लगा ही। उस समय चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर असर पड़ा था लेकिन पिछले सालों में आयोग की छवि में सुधार ही हुआ है।’ (bbc.com/hindi)
-दिनेश श्रीनेत
पिछले दिनों दूरदर्शन के पुराने सीरियल ‘फिर वही तलाश’ का जिक्र चला तो बहुत सी यादें ताजा हो गईं। अस्सी के दशक के अंतिम साल यह टेलीकास्ट हुआ था। तब तक भारत में निजी चैनल शुरू नहीं हुए थे, तो ‘ऑन-एयर’ एक किस्म की मासूमियत फैली हुई थी। दूरदर्शन पर प्रसारित इन सीरियल्स में सादा सी कहानियां, रंगमंच से आए अभिनेता- जो पूरी तरह किरदार में ढल जाते थे और सहज-सरल निर्देशन होता था। बात को बहुत जटिल तरीके से या घुमा-फिराकर कहने की कोशिश नहीं होती थी।
उन्हीं सादा दिनों में मासूम सी प्रेम कहानी वाला यह सीरियल शुरू हुआ था। महज चार लाइनों में सिमटी प्रेम कहानी को इसके लेखक रेवती सरन शर्मा ने इस तरीके से कहा कि लगता था कि छोटे से स्क्रीन में सचमुच कुछ चलते-फिरते वास्तविक लोगों की जिंदगी समा गई है। हालांकि इससे पहले भारतीय मध्यवर्गीय जीवन पर आधारित कुछ बेहद लोकप्रिय सीरियल आ चुके थे। सन् 1984 में ‘हम लोग’ और 1986 में ‘बुनियाद’ की लोकप्रियता आज भी इतिहास है। लेकिन ‘फिर वही तलाश’ ने चुपचाप लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाई थी।
आज जब कई बरस बीत चुके हैं, इसकी याद हल्की सी कसक के साथ उन सबके भीतर आज भी मौजूद है, जिन्होंने वह समय देखा था। उस कहानी के साथ कुछ सुंदर से लम्हे बिताए थे। मुझे याद है कि ‘फिर वही तलाश’ का प्रसारण दोपहर बाद हुआ करता था- शायद तीन बजे के आसपास। इसकी टार्गेट ऑडियंस के लिए शायद दूरदर्शन को यह उपयुक्त समय लगा होगा, जब घरेलू महिलाएं फुर्सत में हुआ करती थीं। मेरी मां को यह सीरियल बहुत पसंद था। उनके साथ बैठकर मैं भी देख लिया करता था। देखते-देखते जाने कब मैं नरेंद्र और पद्मा की प्रेम कहानी से जुड़ता चला गया।
इसमें एक कंट्रास्ट भी था। सकुचाई हुई पद्मा की शोख सहेली थी शहनाज। मुफलिस और मजबूर नरेंद्र के बरअक्स था आत्मविश्वास से भरा हुआ किरदार कैप्टन सलीम, जो शहनाज़ से प्रेम करता था। पूरे 22 एपिसोड बस इन्हीं चार किरदारों के इर्द-गिर्द बुने गए थे। उनकी खुशियां, उनकी चिंताएँ, परेशानियां, शरारतें, कभी उम्मीदों से भर उठना और कभी आसपास निराशा के बादल घिर जाना। लेकिन यह लेखक और निर्देशक की खूबी थी कि उन्होंने तमाम छोटे-छोटे किरदार भी बखूबी लिखे थे। इसमें सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित किया नरेंद्र के पिता बने वीरेंद्र सक्सेना और उसके पड़ोस में रहने वाली लडक़ी तारा के रोल में हिमानी शिवपुरी ने। संभवत: हिमानी शिवपुरी को इस सीरियल में पहला ब्रेक मिला था।
मुख्य किरदार तब नए थे। कहानी के नायक नरेंद्र का किरदार निभाया था डॉ. अश्विनी कुमार ने। मूल्यों पर भरोसा करने वाला एक ऐसा इनसान जो जीवन की ख्वाहिशों और जरूरतों के द्वंद्व में उलझा हुआ है। अश्विनी कुमार को हम बहुत शानदार अभिनेता नहीं कह सकते मगर यही बात इस सीरियल के लिए शायद उनकी खूबी बन गई। वह इतने आम से दिखते हैं कि लगता ही नहीं कोई अभिनय कर रहा है। हालांकि इस सीरियल के बाद उन्होंने पूरी तरह अभिनय छोड़ दिया और फुल-टाइम डॉक्टर बन गए।
ऐसी ही सरल सहज थीं पूनम रेहानी जिन्होंने चुपचाप सी रहने वाली पद्मा का किरदार निभाया था। उन्होंने भी इस सीरियल के बाद कहीं और अभिनय नहीं किया। कहते हैं ‘मैंने प्यार किया’ के लिए उनका ऑडिशन हुआ था मगर मना करने पर यह रोल ‘कच्ची धूप’ से सामने आई भाग्यश्री को मिल गया। नीलिमा अजीम को हम सब जानते हैं, उन्हें उनकी पूरी शोखी के साथ सर्वश्रेष्ठ रूप में देखना हो तो ‘फिर वही तलाश’ जरूर देखनी चाहिए। उनके प्रेमी बने कैप्टन सलीम का रोल किया था राजेश खट्टर ने, जो नई जनरेशन के अभिनेता ईशान खट्टर के पिता भी हैं।
इसके निर्देशक लेख टंडन ने कई सफल फिल्में बनाईं मगर अस्सी के दशक में उनके लायक सिनेमा नहीं बन रहा था तो शायद उन्होंने दूरदर्शन का रुख किया। यह उनका पहला सीरियल था। उन्होंने रेवती सरन शर्मा की कहानी को बड़ी सादगी से जस-का-तस स्क्रीन पर उतार दिया। असल जादू तो रेवती सरन जी की कहानी का ही था। उनके रग-रग में रेडियो नाटक बसा हुआ था। टेलीविजन को कई यादगार फिल्में और नाटक देने के बावजूद वे अंत तक खुद को ‘रेडियोवाला’ ही कहते रहे। उनके कई लोकप्रिय रेडियो नाटक बरसों-बरस सुनने वालों को याद रहे।
बहुत कम लोगों को पता होगा कि दरअसल ‘फिर वही तलाश’ उनके ही एक घंटे भर के रेडियो नाटक ‘फिर उसी वीराने की तलाश’ की पुन: प्रस्तुति थी। उस रेडियो नाटक के राजन और रमा टेलीविजन में आकर नरेंद्र और पद्मा बन गए। चुलबुली शहनाज रेडियो में भी थी और टीवी में भी। उसका नाम नहीं बदला गया, बस उसकी प्रेम कहानी को टीवी में विस्तार मिल गया। कहानी बस इतनी सी थी पढ़ाई के लिए शहर आए एक नौजवान को किसी परिचित की मदद से शहर के एक रईस के आउटहाउस में रहने की गुंजाइश मिल जाती है। संयोग से उस अमीर व्यक्ति की बेटी भी उसी कॉलेज में पढ़ती है।
परिस्थितियां इस तरह करवट लेती हैं कि दोनों के बीच प्रेम हो जाता है मगर लडक़ी को मजबूरन किसी और से शादी करनी पड़ती है। एक दिन वह अपने पति की फैक्टरी में ही उसी युवक को नौकरी करते देखती है। वह उससे मिलती है और कहती है कि कई साल बीतने के बाद भी वह उसको नहीं भूली है और अपने पति से तलाक लेकर उसके साथ शादी करने को तैयार है। यहां तक की कहानी दोनों में एक जैसी है। मगर टीवी में अंत बदल दिया गया है। रेवती सरन शर्मा के निधन पर फ्रंटलाइन पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में उन्हें (बाकी पेज 8 पर)
‘वाइस ऑफ ह्यूमनिज़्म’ कहकर याद किया गया था। वे गंगा-जमुनी तहजीब वाले लेखक थे। उर्दू में लिखा करते थे, अपनी मुहावरेदार भाषा और काव्यात्मकता के जरिए उनका लेखन सीधे सुनने वालों के दिल में उतर जाता था। ‘फिर वही तलाश’ में नायक के सपनों से उन दिनों छोटे शहर की पृष्ठभूमि से आया हर नवयुवक जुड़ जाता था। क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हापुड़ कसबे में जन्मे रेवती सरन के पिता भी यही चाहते थे कि वे आगे पढऩे की बजाय दुकान संभालना सीखें और शादी करके घर बसा लें। शर्मा आगे पढऩा चाहते थे और यह उनके पिता को बिल्कुल पसंद नहीं था।
शायद इसी वजह से सीरियल में नायक डॉ. अश्विनी कुमार और उनके पिता बने वीरेंद्र सक्सेना के बीच द्वंद्व इतनी गहराई से उभरकर सामने आया है। रेवती सरन शर्मा की सबसे बड़ी खूबी उनके संवाद थे। उन्हें पता था कि रेडियो का श्रोता सिर्फ नरेशन और संवादों के जरिए अपनी कल्पना को उड़ान दे सकता है, लिहाजा वे इस तरह से लिखते थे कि पात्रों की तस्वीर बिना कुछ लिखे-कहे सुनने वाले के मन में बनती चली जाती थी। उनके पास रंगमंच का गहरा अनुशासन था मगर नाटकों के विपरीत वे छोटे और अंग्रेजी नाटकों की तरह विट वाले संवाद लिखा करते थे। उर्दू पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी, लिहाजा उर्दू अफसानों का चुस्त लहजा भी उनकी लेखनी को अलग बना देता था। इसका एक उदाहरण रेडियो नाटक ‘फिर उन्हीं वीरानों की तलाश’ में देखा जा सकता है, जब रमा की शादी के बाद राजन की उससे मुलाकात होती है -
मुलाकात के कुछ देर बाद राजन कहता है-मैं जा सकता हूँ?
रमा : तुमने मुझे माफ नहीं किया?
राजन : मुझे घर जाना है।।।
रमा : कुछ देर और न बैठ सकोगे?
राजन : फायदा?
रमा : हर बात फायदे के लिए की जाती है?
राजन : नहीं की जाती?
रमा : राजन...
राजन : कम से कम इस बारे में अब तो तुम्हें ईमानदार हो जाना चाहिए।
सवाल के बदले सवाल; और जब आप कहानी से गुजर चुके हों तो हर वाक्य नए अर्थ खोलता चलता है। रमा के साथ अपनी आखिरी मुलाकात में राजन कहता है, ‘तुम अगली बार मिलोगी तो पाओगी कि मैं टूटा नहीं हूँ, जुड़ गया हूँ, बन गया हूँ। मुझे चाहते रहना पर उस मंजिल की तरह जो पहली थी आखिरी नहीं...’
नाटक में रमा और राजन एक-दूसरे से कभी नहीं मिल पाते हैं और शहनाज के इस वाक्य के साथ नाटक का अंत होता है, जब वह रमा से कहती है, ‘बहुत से सफर सितारों के साथ कटते हैं तेरा सफर भी ऐसा ही सही...’
‘फिर वही तलाश’ किस तरह इस रेडियो नाटक से अलग है, इसके लिए इस सीरियल को यूट्यूब पर देखा जा सकता है, @DoordarshanNational ने इसके सभी 22 एपिसोड डाल दिए हैं। इस सीरियल की एक और खूबी थी चंदन दास की आवाज में इसका टाइटल सांग, जिसे लिखा था दिनेश कुमार स्वामी यानी शबाब मेरठी ने। इनका एक शेर है,
उस एक चेहरे के पीछे हजार चेहरे हैं
हजार चेहरों का वो काफिला सा लगता है
बहरहाल ‘फिर वही तलाश’ के टाइटिल सांग में उन्होंने लिखा था,
कभी हादसों की डगर मिले
कभी मुश्किलों का सफर मिले
ये चराग हैं मेरी राह के
मुझे मंजिलों की तलाश है
कोई हो सफर में जो साथ दे
मैं रुकूँ जहाँ कोई हाथ दे
मेरी मंजिलें अभी दूर है
मुझे रास्तों की तलाश है
लेकिन इसका सबसे खूबसूरत पहलू था हर एपिसोड के अंत में कहानी के किसी खास मोड़ पर आने वाला कोई शेर जैसे कि हमेशा पिता से तल्ख रिश्तों के बावजूद उसकी मौत पर फूट-फूटकर रोते हुए नायक के क्लोजअप के साथ जब एपिसोड खत्म होता है तो आवाज उठती है -
वो जो मुद्दतों मेरे साथ था,
वो जो मेरा दाहिना हाथ था,
मेरी जिन्दगी से निकल गया,
मुझे आसरों की तलाश है
या फिर
कोई दर्द हो या हो खुशी,
कोई ख्वाब हो या हकीकतें
जहाँ सच के चेहरे दिखाई दें,
उन्हीं आईनों की तलाश है
यह सच है कि यह सीरियल एक अंतत: एक नॉस्टेल्जिया ही है। शायद जिन्होंने उन उदास ढलती दुपहरियों में उदासी में लिपटी नायिका की उस हँसी को देखा होगा, जो अनजाने अपनी नियति की तलाश में भटकते उन किरदारों से जुड़ गया होगा, वही शायद आज दोबारा उसी शिद्दत के साथ उन भावनाओं को महसूस कर सकता है। आज जब हम ‘फिर वही तलाश’ को याद करते हैं तो शायद उन किरदारों में अपनी ही परछाइयों को पाने की कोई जि़द-सी होती है।
कोई मुझसे दूर भी जाए तो,
जिन्हें अपनी रूह में सुन सकूँ,
मुझे जिन्दगी तेरी नब्ज में
उन्हीं आहटों की तलाश है
- डॉ. आर.के. पालीवाल
अति भौतिकता के वर्तमान दौर में अर्थ इतना शक्तिशाली हो गया है कि मनुष्य का पूरा जीवन ही अर्थ के इर्द गिर्द कोल्हू के बैल की तरह सिमट कर रह गया है। हमारे व्यक्तिगत रिश्ते हों या व्यावसायिक संबंध अथवा दो देशों के बीच आपसी रिश्ते, उनका सबसे शक्तिशाली तत्व अर्थ बन गया है। यहां तक कि कभी सेवा का सबसे सशक्त और व्यापक माध्यम मानी जाने वाली राजनीति भी अब पूरी तरह अर्थ केंद्रित हो गई है। और तो और कभी अर्थ से बहुत दूर रहने वाला धर्म भी अर्थ प्रधान हो चुका है। सादगी और सेवा को सर्वोपरि मानने वाला भारतीय संत समाज, जो कभी अर्थ को छूने तक से परहेज करता था, भी अर्थ केंद्रित हो गया है। हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था ने समाज को इस तरह आत्म केंद्रित बना दिया है कि अर्थ की तपती भट्टी में नैतिक मूल्यों और मनुष्यता के तमाम मूलभूत सिद्धांतो की बलि चढ़ चुकी है। इसके लिए केवल पश्चिम की भोगवादी जीवन शैली या राजनीति को ही दोषी नहीं ठहरा सकते। अर्थ ने हर व्यक्ति और हर संस्था को अपने मोहपास में जकड़ लिया है।
कोटा कोचिंग फैक्ट्री कमसिन युवाओं को पहले दिन से बड़े बड़े पे पैकेज के लिए तैयार करती है। खुद बच्चों के मां बाप अपने जिगर के टुकड़ों को कोटा और दिल्ली की कोचिंग भट्टियों में झौंक रहे हैं। इन भट्टियों में तपकर निकले बच्चे पकी ईंट की तरह कठोर हो जाते हैं जिनमें कोमल मानवीय रिश्तों की कच्ची मिट्टी जैसी भीनी खुशबू दूर दूर तक दिखाई नहीं देती। इन्हें केवल मल्टी नेशनल कंपनियों के भारी भरकम पे पैकेज दिखाई देते हैं , भले ही वह कंपनी चीन की हो या कनाडा की इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
हमारी शिक्षा पद्धति और उसके आसपास उपजी कोचिंग संस्कृति पूरी तरह अर्थ के इर्दगिर्द घूमती है। वैसे तो प्ले स्कूल की संस्कृति ने प्राइमरी स्कूल से पहले की शिक्षा को ही इतना महंगा बना दिया है कि आम आदमी के लिए अच्छे स्कूल कॉलेज का रुख करना असंभव है। अधिसंख्य आबादी के लिए सरकारी स्कूल की लचर व्यवस्था या कुकुरमुत्तों से उपजे अंग्रेजी नाम वाले सी ग्रेड स्कूल ही एकमात्र विकल्प हैं। उच्च शिक्षा के प्राइवेटाईजेसन ने इंजीनियरिंग, मेडिकल, वकालत और एम बी ए आदि की पढ़ाई को इतना महंगा और भ्रष्ट कर दिया है कि वहां काले धन का भी धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है।आई सी एस और पी सी एस की कोचिंग के जाल महानगरों से निकलकर शहरों और कस्बों तक में फैल गए हैं जिनके सब्जबाग के सपनों में ग्रामीण बच्चे उलझकर न खेती किसानी के मतलब के रहते और न किसी सरकारी नौकरी में घुस पाते हैं। आईआईटी और आईआईएम से निकले बच्चे बुजुर्ग होते अभिभावकों से बेफिक्र अर्थ प्रधान ग्रीनर पास्चर्स खोजते हुए पूरी दुनियां में भटकते रहते हैं। अर्थ का बढ़ता प्रभाव
पति-पत्नी के दाम्पत्य में दरार डाल रहा है, जमीन जायदाद और पारिवारिक धन संपत्ति के लिए भाई-भाई में तकरार बढ़ रही हैं, बुजुर्गों और बच्चों के बीच आर्थिक तनातनी के कोर्ट केस बेतहासा बढ़ रहे हैं।
राजनीतिक दलों ने कॉरपोरेट घरानों और मतदाताओं के रिश्ते में अर्थ लाभ को प्रमुख बना दिया है। इसका दुष्परिणाम एक तरफ सत्ताधारी दलों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग से कंपनियों से धन उगाही के रुप में सामने आ रहा है और दूसरी तरफ़ मतदाताओं को मुफ्त की रेवडिय़ां बांटने से देश में आलसियों की बडी फौज पैदा हो रही है। अर्थ ने हमारी मानसिकता को इस तरह जकड़ लिया कि उसकी पकड़ से छूटना असंभव सा दिखता है। ईसा मसीह, गुरु नानक और महात्मा गांधी जैसी विभूतियों ने अर्थ के दुष्प्रभावों से तत्कालीन समाजों को इसीलिए चेताया था। हमे भी शांतिमय जीवन के लिए अर्थ के आकर्षण से बाहर आने के विकल्प खोजने होंगे।
- प्रियदर्शन
हिंदी के साथ सबसे ज़्यादा धोखा किसने किया है?
1 हिंदी के लेखकों-प्राध्यापकों ने, जिन्होंने जानबूझकर या नासमझी में ऐसी हिंदी विकसित की जो आमजन की भाषा नहीं थी।
2 हिंदी के बुद्धिजीवियों ने, जिन्होंने अरसे तक इस भाषा में किसी क्रांतिकारी विचार को लगातार हतोत्साहित किया।
3 मध्यवर्गीय समाज ने, जिसने अपने बच्चों को हिंदी में पढ़ाना बंद कर दिया और वह जड़ ही सुखा दी जिस पर हिंदी का वृक्ष बढ़ता।
4 उन हिंदी प्रेमियों ने जिन्होंने बाक़ी भारतीय भाषाओं के साथ लगभग विद्वेष भरा रिश्ता रखा। बांग्ला, मराठी, तमिल, तेलुगू सीखने से परहेज किया।
5 संस्कृत के उन पुजारियों ने, जो बताते रहे कि हिंदी तो संस्कृत की बेटी है और उसका रिश्ता स्थानीय बोलियों से काट दिया।
6 संविधान-निर्माताओं ने, जिन्होंने हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार नहीं किया। (क्या ही अच्छा होता कि हम एक ऐसी भाषा के लेखक-पाठक होते जिसकी दो-दो लिपियां संभव हो सकती थीं।)
7 अंग्रेजी के आतंक के मारे उन लोगों ने, जो मानते रहे कि सिर्फ अंग्रेजी में ही ज्ञान-विज्ञान और विशेषज्ञता संभव है, जिनकी वजह से अंग्रेजी ऐसी अपरिहार्य हो गई कि सभी भारतीय भाषाओं की मालकिन बन गई है।
8 हिंदी के संपादकों ने। ज़्यादातर खऱाब लेखक रहे और खऱाब लेखन को प्रोत्साहित करते रहे। वही लोग बाद में पुरस्कर्ता भी हुए और खऱाब परंपरा को पुरस्कृत करते रहे।
9 हिंदी के पत्रकारों ने, जिन्होंने एक तेजस्वी परंपरा को कीचड़-कीचड़ कर दिया। प्रतिरोध की भाषा भूल समर्पण के खेल में लग गए।
10 सार्वजनिक संस्थानों में बैठे हिंदी अफसरों ने, जो अबूझ कंकडऩुमा अनुवाद करते-करवाते हुए हिंदी को बदनाम करते रहे, अपने दफ्तरों में हिंदी लागू नहीं करवा पाए और खऱाब पत्रिकाएं निकालते रहे।
शुरैह नियाजी
मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिले के मोहाद गांव में रहने वाले मुस्लिम परिवारों के लोग बरसों बाद सुकून से रमजान मना रहे हैं।
इन्हीं में एक इमाम तड़वी भी हैं। चार बच्चों के पिता इमाम अपनी बच्ची को एक सुबह स्कूल छोडऩे जा रहे थे तभी पुलिस ने उन्हें रोक लिया था।
ये घटना जून, 2017 की है, जब इस गांव से हजारों किलोमीटर दूर लंदन में भारत और पाकिस्तान के बीच चैंपियंस ट्राफी का मैच खेला गया था और भारत वो मैच हार गया था।
लेकिन इस मैच से बेखबर 17 युवक और 2 नाबालिगों के लिए ये मैच उनकी जि़दगी में ऐसा पल बन गया जिसे वो याद करके सिहर उठते हैं।
30 वर्षीय इमाम ने बताया कि स्कूल के रास्ते में पुलिस ने उनके साथ बदतमीज़ी की और उनकी बच्ची को धक्का मार दिया गया जिसकी वजह से उसे नाक में चोट आई। वे कहते हैं कि उस दिन उनकी बेटी को लेकर कोई दूसरा व्यक्ति घर गया जबकि उन्हें पुलिस अपने साथ लेकर चली गई।
इमाम की आपबीती
इमाम कहते हैं, ‘मुझे क्रिकेट के बारे में कुछ भी नही मालूम है। लेकिन मैं उसकी वजह से जितना भुगता उसे में बयान नही कर सकता।’
उन्होंने बताया कि पुलिस घर वालों को कई दिन तक परेशान करती रही जिसकी वजह से वो लोग घर छोड़ कर भाग गए।
इमाम दावा करते हैं कि उनके परिजनों को गालियां दी जाती थी और बेइज्जत किया जाता था जिसकी वजह से परिवार ने कई दिन दूसरों के खेतों में सोकर गुजारे।
इमाम अब खेतों में काम करने जा रहे हैं और उन्हें रोज के ढाई सौ से लेकर तीन सौ रुपये तक मजदूरी मिलती है और केस से बरी होने के बाद उनका यह पहला रमज़ान है जब उन्हें अपने मुक़दमे के बारे में नही सोचना पड़ रहा है। उनका कहना है कि उन्हें आज भी नही पता है कि क्रिकेट में कौन-कौन से खिलाड़ी हैं लेकिन उसके बावजूद भी उन्हें उसके लिए परेशान होना पड़ा।
इमरान शाह की कहानी
इमाम तड़वी की तरह ही 32 वर्षीय इमरान शाह को भी पुलिस ने उस दिन गिरफ़्तार किया था। उस समय वो ट्रक में मक्का भर रहे थे। उन्हें पता ही नही था कि उन्हें किस वजह से गिरफ्तार किया जा रहा है।
इमरान ने बीबीसी को बताया, ‘उस समय को हम याद नही करना चाहते हैं। उस समय मेरे साथ पूरा परिवार इतना परेशान रहा कि बता नही सकते हैं। हमें तो गिरफ्तार कर लिया गया था लेकिन परिवार को भी भागना पड़ा था क्योंकि पुलिस कभी भी घर पर आ जाती थी और परिवार वालों से बदतमीजी करती था। घर वाले छुपकर जंगलों में सोते थे।’
इमरान के परिवार में उस समय उनकी मां, पिता, पत्नी और तीन बच्चें थे। इमरान ने इस मामले की वजह से डेढ़ लाख रुपये का उधार लिया है जिसका ब्याज ही वो किसी तरह से चुके पा रहे हैं।
उनका कहना है कि एक साल तक उन्हें हर हफ्ते थाने में जाना होता था जो उनके गांव से 12 किलोमीटर दूर था। इस दौरान वो मजदूरी भी नहीं कर पा रहे थे इसलिए परिवार चलाने के लिए उधारी लेनी पड़ी।
इमरान ने बताया, ‘जितना हमने उस दौरान भोगा उतना ही हमारे परिवार को भी भुगतना पड़ा। पुलिस वाले कभी भी घर पर आ जाते थे और परिवार वालों को गाली देते थे और बदतमीजी करते थे।’
क्या है मामला
मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिले के मोहाद गांव में रहने वाले 17 युवक और 2 नाबालिगों पर चैंपियंस ट्रॉफी के उस मैच के बाद ये आरोप लगा था कि वे पाकिस्तान की जीत का जश्न मना रहे थे।
उन पर पाकिस्तान की जीत को लेकर खुशियां मनाने, पटाखे फोडऩे और मिठाइयां बांटने का आरोप लगाया गया था।
लेकिन कोर्ट ने पिछले साल अक्टूबर में इन सब को सभी आरोपों से बरी कर दिया और पाया कि पुलिस ने इन पर फर्जी मामला दर्ज किया और गवाहों पर गलत बयान देने के लिये दबाव बनाया।
इस मामले में परेशान होकर एक अभियुक्त ने 2019 में आत्महत्या भी कर ली थी।
पहले इन लोगों पर राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया लेकिन बाद में उसे पुलिस ने बदलकर आईपीसी की धारा 153ए के तहत दर्ज किया जिसमें उन पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने जैसे आरोप लगाए गए।
गवाह का अपने बयान से पलटना
इस मामले में पुलिस ने जिन्हें गवाह बनाया था उनका भी कहना था कि इस तरह का कोई मामला हुआ ही नही है।
इस गांव में रहने वाले तड़वी मुसलमान हैं और ज्यादातर लोग मजदूरी करते हैं। आमतौर पर यह लोग खेतों पर काम करके अपना गुजर-बसर करते हैं।
इनका केस लड़ रहे वकील शोएब अहमद ने बीबीसी को बताया, ‘इस मामले में गवाह ही इस बात को नही मान रहे थे कि गांव में इस तरह की कोई चीज हुई है। गवाह अपनी बात पर अड़े रहे। इसके बाद कोर्ट ने फैसला हमारे हक में सुना दिया। ये लोग काफी गरीब हैं और मुश्किल से अपना गुजर बसर कर पाते हैं। खुशी मनाने के लिए न तो इनके पास पैसे हैं और न ही इन्हें क्रिकेट का कोई ज्ञान है।’
हालांकि कोर्ट ने इस मामले में पुलिस वालों के खिलाफ किसी किस्म की कारवाई का कोई आदेश नहीं दिया है जिनकी वजह से इन लोगों को बरसों परेशानी का सामना करना पड़ा।
शोएब अहमद ने बताया कि इन लोगों की पहली कोशिश यही थी कि वो किसी भी तरह से इस मामले से बरी हो जाएं। ये लोग इतने गरीब हैं कि पुलिस से वे लडऩा नहीं चाहते हैं।
इस मामलें में दो नाबालिगों को भी अभियुक्त बनाया गया था जिन्हें किशोर अदालत ने जून, 2022 में बरी कर दिया था।
हालांकि उसके बाद उन दोनों की जिंदगी कभी भी पटरी पर नही लौट पाई और दोनों ही कम उम्र में काम पर लग गए।
इस मामले में एक रुबाब नवाब ने फरवरी, 2019 में आत्महत्या करके अपना जीवन समाप्त कर लिया।
उनके परिवार के मुताबिक, उन पर लगे आरोप और रोज-रोज की बेइज्ज्जती की वजह से उन्होंने ऐसा किया।
नए सिरे से जिंदगी
बाकी बचे लोग भी अब अपनी जिंदगी को नये सिरे से आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं और मजदूरी कर रहे हैं। लेकिन बरसों के मिले जख्म अब भी उन्हें बैचेन करते रहते हैं।
इस मामले में एक मुख्य गवाह सुभाष कोली ने घटना के कुछ दिनों बाद ही मीडिया के सामने आकर कह दिया था कि इस तरह का कोई मामला नही हुआ है और पुलिस ने उन्हीं के मोबाइल फोन से डायल 100 नंबर पर कॉल करके ये मामला दर्ज किया था।
जबकि कोली उस समय अपने पड़ोसी अनीस मंसूरी को बचाने के लिए गए थे जिन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। कोली अब दुनिया में नही हैं। कुछ महीने पहले उनकी मौत कैंसर से हो गई।
इस पूरे मामले में पुलिस के अधिकारी अब बात नही करना चाहते हैं। इस मामले में भोपाल में अधिकारियों से संपर्क किया गया लेकिन उन्होंने जवाब नही दिया।(bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
हमारे संविधान में सरकारी कर्मचारियों की कल्पना ऐसे लोक सेवक के रुप में की गई है जो किसी राजनीतिक विचारधारा से अलग रहकर स्थाई रुप से जनता की सेवा करेंगे। आज़ादी के बाद से दो दशक पहले तक अधिकांश कर्मचारी ऐसा करते भी थे। इधर जब से जन प्रतिनिधियों का दखल सरकारी कर्मचारियों के ट्रांसफर और पोस्टिंग में बढ़ा है तब से कर्मचारियों का एक वर्ग अपने राजनीतिक आकाओं के प्रति इतना निष्ठावान हो गया है कि वह अपने मूल कर्तव्य को भूलकर अपने राजनीतिक आकाओं के कार्यकर्ता के रुप में काम करने लगा है। सरकारी कर्मचारियों के आचरण में यह बदलाव सरकारी दफ्तरों में हद दर्जे की अनुशासन हीनता को बढ़ावा दे रहा है। कई सरकारी कर्मचारी अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए और बहुतेरे जन प्रतिनिधियों को अपने भ्रष्ट आचरण की ढाल बनाने के लिए ऐसा करते हैं। कुछ दिन पहले रेलवे के उस रक्षक दल की घटना जेहन से भूली नहीं थी जिसने धार्मिक विचारधारा की कट्टरता के कारण धर्म विशेष के यात्री की हत्या कर दी थी। कुछ दिन पहले देश की राजधानी दिल्ली की पुलिस के दरोगा की करतूत सामने आई है जो सडक़ पर नमाज अदा करते युवाओं और बुजुर्गों को बूट से ठोकर मार रहा है। किसी सरकारी कर्मचारी का ऐसा आचरण अत्यंत शर्मनाक है।
चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव में मतदान अधिकारी का जिम्मा संभाल रहे अनिल मसीह किस हद तक जाकर आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार को हराने और भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार को जिताने के लिए मतपत्रों से खिलवाड़ कर रहे थे यह भी पूरी दुनिया ने देखा है। वह तो हाई प्रोफाइल होने के कारण यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया जिस पर न्यायालय ने उनके दुराचरण पर तुरंत कड़ी प्रतिक्रिया की अन्यथा लोकसभा और विधानसभा चुनावों में न जाने इस तरह के कितने अधिकारी पोलिंग अफसर के रुप में तैनात होते हैं और मनमानी करते हैं। यही कारण है कि विपक्षी दल ई वी एम पर विश्वास नहीं करते जिसे अनिल मसीह जैसे अधिकारी और ज्यादा आसानी से मैनिपुलेट कर सकते हैं।
सरकारी कर्मचारियों का यही ट्रेंड आजकल सोशल मीडिया पर भी सामने आ रहा है।प्राइमरी स्कूलों के शिक्षक से लेकर सरकारी डॉक्टर और इंजीनियर आदि फेसबुक और व्हाट्स एप समूहों पर अपने राज्य की सरकार के नेताओं की तारीफ में कसीदे पढ़ते हैं और विपक्षी दलों के नेताओं को अभद्र भाषा का प्रयोग कर गलियाते दिखाई देते हैं। सरकारी कर्मचारियों का यह गलत आचरण कुछ वर्षों से निरंतर बढ़ रहा है। कुछ साल पहले तक इस तरह का आचरण जन प्रतिनिधियों तक सीमित था लेकिन उनकी देखा देखी यह प्रवृत्ति जन सेवकों में भी तेजी से बढ़ रही है जो अत्यन्त घातक है। जन प्रतिनिधि किसी विशेष विचारधारा से जुड़े राजनीतिक दल से प्रतिबद्ध होते हैं। उन्हें कई मामलों में संसद और विधानसभाओं में बोलने के लिए संवैधानिक सरंक्षण प्राप्त है और विभिन्न दल अपने दलों के ऐसे नेताओं को अनुशासन में रखने की कोशिश भी नहीं करते। इसके बरक्स सरकारी कर्मचारियों के लिए बहुत कड़ी आचरण नियमावली है। सरकारी कर्मचारी इस तरह की हरकत करते हुए अक्सर यह भूल जाते हैं कि संवैधानिक पदों पर आसीन विभूतियों के बारे में अनर्गल लिखना उनकी आचरण नियमावली का उल्लंघन है। इसके लिए किसी खास विचारधारा के राजनीतिक दल की सरकार बदलने पर उन पर कड़ी कार्यवाही हो सकती है। जनसेवकों में धार्मिक या राजनीतिक वैचारिक कट्टरता लोकसेवा की विरोधी है। सिविल सोसाइटी के संगठनों को ऐसे जनसेवकों पर कड़ी नजर रखनी चाहिए ताकि उन्हें चिन्हित कर उचित सजा दिलाई जा सके अन्यथा यह बीमारी बेकाबू हो जाएगी।
आभा शुक्ला
मैं खाने में मांस मछली नहीं लेती, और ये मेरा धार्मिक या जातीय मसला नहीं है। ये सिर्फ मेरी फूड हैबिट है। मंै नॉनवेज नहीं खाती क्योंकि मैंने कभी खाया नहीं। मेरे घर में कभी बना नहीं। बाकी ऐसा नहीं है कि मेरे खानदान और रिश्तेदारो मे भी कोई नहीं खाता। लगभग 60 फीसदी लोग खाते हैं। गांव परिवार में जो पुराने और बुजुर्ग आज भी गांव में हैं वो नहीं खाते, जो नई जनरेशन बाहर निकल गई है वो दबा कर खाती है।
ऐसे में अगर जोमैटो की प्योर वेजिटेरियन स्कीम की बात करूँ तो समाज में फैलती जा रही प्योर बेवकूफी की एक और मिसाल होने के साथ ही देश में बहुसंख्यक नॉन वेजिटेरियंस के प्रति नफरत बढ़ाने की कोशिश भी है।बाकी प्योर वेज कोई नहीं होता ये आप भी समझते हैं।कौन ऐसा है जिसने कभी दही नहीं खाया।दही में लैक्टोबैसिलस नामक जीवाणु पाया जाता है। जबकि दही तो लोग व्रत में भी खा लेते हैं। दूध में भी यही जीवाणु पाया जाता है। जब मानव की आंत में पाया जाने वाला जीवाणु एशररीशिया कोलाई है तो कोई प्योर वेज है तो कैसे है।
प्योर वेज का कांसेप्ट सही है ही नहीं। मैंने कभी मांस मछली नहीं खाया था पर अभी जब बीमार हुई तो फिश ऑइल यानी मछली के तेल कैप्सूल खूब दिए मुझे डॉक्टर ने। वो इलाज का हिस्सा था। अब अगर मछली के तेल कैप्सूल डकार कर कहूँ कि मैं प्योर वेज हूँ तो ये कितना झूठ होगा। और इलाज के दौरान ऐसा बहुत लोगों के साथ होता है पर फिर भी वो प्योर वेज पता नहीं कैसे कहते रहते हैं अपने आपको।
और फिर अगर आप साइंस में घुस जाईये तो साइंस तो पेड़ पौधो में भी जीवन मानती है। साइंस तो पानी में भी कई तरह के बैक्टीरिया होने की पुष्टि करती है। इसका है कोई जवाब क्या जोमैटो के पास।
जोमैटो वालों पर तो कायदे से मुकदमा होना चाहिए। क्या नाटक पसार कर रखा है प्योर वेज का। अगर लॉजिकली साइंस में घुस जायेंगे तो कैसे प्रूव करेंगे ये प्योर वेज का कांसेप्ट।
आपका मांसाहार छोड़ देने का फैसला पर्यावरण हितैषी हो सकता है, जैसा कि आज कल की नई रिसर्च बताती हैं। लेकिन अगर ऐसा कोई आदमी आपको कभी मिले जो साइंस के सारे कांसेप्ट को मानते हुए भी खुद को प्योर वेज बता सके जो उससे मेरी भी बात कराइयेगा एक बार।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को ईडी ने गुरुवार रात नई दिल्ली स्थित उनके आवास से गिरफ्तार किया था।
लोकसभा चुनाव से ठीक पहले आम आदमी पार्टी के प्रमुख की गिरफ़्तारी को लेकर कई लोग सवाल उठा रहे हैं।
समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार, उन्हें आबकारी नीति से जुड़े मनी लॉन्ड्रिग के मामले में गिरफ्तार किया गया है। गिरफ्तारी के बाद उन्हें देर रात ईडी के दफ़्तर ले जाया गया है।
आम आदमी पार्टी ने गुरुवार देर रात ही सुप्रीम कोर्ट में इस गिरफ़्तारी को चुनौती दी थी। संभव है कि आज केजरीवाल की याचिका पर आज सुनवाई हो।
55 साल के केजरीवाल की गिरफ्तारी दिल्ली हाई कोर्ट के उस फै़सले के बाद हुई, जिसमें कोर्ट ने ईडी के ख़िलाफ़ उन्हें गिरफ्तारी से सुरक्षा देने से इनकार कर दिया था।
केजरीवाल गिरफ्तारी के बाद से ही सुर्खियों में बने हुए हैं। सोशल मीडिया पर पत्रकार, राजनीतिक पार्टियों के नेता, वकील और आम लोग केजरीवाल और ईडी की कार्रवाई को लेकर चर्चा कर रहे हैं। कुछ लोग इस मामले को चुनावी बॉन्ड्स से भी जोडक़र देख रहे हैं।
किसने क्या कहा?
जानेमाने पत्रकार रवीश कुमार ने सोशल मीडिया पर सवाल किया कि क्या इस बार विपक्ष रहित चुनाव होने वाला है।
उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, ‘क्या 2024 का रिजल्ट घोषित हो चुका है? अब कोई भी सर्वे लाइये, कोई भी डेटा लाइये, सब सही हो जाएगा। कहीं से फिट कर दीजिए, सब सही हो जाएगा। 400 की जगह 543 लिख दीजिए, सही हो जाएगा।’
उन्होंने तंज कसते हुए लिखा, ‘विपक्ष का मुख्यमंत्री भी सुरक्षित नहीं है। हेमंत सोरेन गिरफ़्तार हो चुके हैं, केजरीवाल भी गिरफ़्तार हुए। कांग्रेस का खाता बंद हो चुका है विपक्ष रहित चुनाव। जनता तय करेगी या जाँच एजेंसी।’
एक और पत्रकार रोशन किशोर ने 2013 से 2024 में दिल्ली में कांग्रेस, बीजेपी और आम आदमी पार्टी के वोटशेयर का डेटा साझा करते हुए लिखा, ‘दिल्ली में वोटरों की एक बड़ी संख्या विधानसभा के स्तर पर केजरीवाल का समर्थन करती है लेकिन लोकसभा के लिए बीजेपी के समर्थन में है।’
उन्होंने सवाल किया, ‘अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद बड़ा राजनीतिक सवाल खड़ा हुआ है। क्या उनकी गिरफ्तारी से 2024 में वोटर बीजेपी से नाराज होगा? या फिर मोदी के प्रति प्यार इस ग़ुस्से को खत्म कर देगा?’
वहीं पत्रकार पूजा प्रसन्ना ने लिखा, ‘इलेक्टोरल बॉन्ड में सामने आई जानकारी में एक मुख्य अभियुक्त जो बाद में शराब घोटाले में गवाह बन गए, उन्होंने बॉन्ड्स के जरिए 52 करोड़ रुपये राजनीतिक पार्टियों को चंदे में दिए। इसमें से 34।5 करोड़ रुपये बीजेपी के खाते में गए।’
पूजा प्रसन्ना ने द न्यूज मिनट की एक रिपोर्ट के हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि अरविंदो फार्मा के निदेशकों में से एक हैदराबाद के रहने वाले पी शरत चंद्र को 11 नवंबर 2022 को ईडी ने शराब घोटाले में गिरफ्तार किया था।
15 नवंबर को उनकी कंपनी ने पांच करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे। 21 नवंबर को ये बॉन्ड बीजेपी ने भुनाए।
जून 2023 में शरत चंद्र इस मामले में गवाह बन गए और फिर नवंबर 2023 में अरविंदो फ़ार्मा ने बीजेपी के 25 करोड़ रुपये चुनावी बॉन्ड के जरिए चंदे में दिए।
रिपोर्ट के अनुसार कंपनी ने कुल 52 करोड़ रुपये के बॉन्ड खऱीदे, जिसमें से 34.5 करोड़ रुपये बीजेपी के पास गए, 15 करोड़ भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के पास और 2.5 करोड़ रुपये तेलूगु देशम पार्टी (टीडीपी) के पास गए।
वहीं जाने माने पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने लिखा अरविंद केजरीवाल के गिरफ्तार होने की खबरें हर तरफ छाई हुई हैं, लेकिन कुछ और है जिसकी तरफ ध्यान जाना चाहिए।
वो लिखते हैं, ‘स्टेट बैंक ने इलेक्टोरल ब़ॉन्ड्स देने वालों के नामों और आंकड़ों का मिलान राजनीतिक पार्टी से करने के लिए जून के आखऱि तक का, यानी चुनाव ख़त्म होने तक का वक्त मांगा था। सोचिए क्या मामला है? मेरे इंटर्न दोस्त और कई अख़बारों ने चुछ घंटों में ही आंकड़ों का मिलान कर दिया।’
‘ये एसबीआई के बारे में और देश की संस्थाओं की ईमानदारी के क्या बताता है? ये ऊटपटांग टाइमलाइन किसके आदेश पर दी गई थी? शुक्र है कि सुप्रीम कोर्ट को ये नाटक दिख गया।’
जाने माने राजनीतिक विश्लेषक और पत्रकार सुहास पलशीकर ने लिखा, ‘क्या ये चुनाव आयोग के क्षेत्र में नहीं आता कि वो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करवाए और आईटी विभाग के अधिकारियों से कहे कि वो चुनाव के वक़्त किसी राजनीतिक पार्टी का अकाउंट फ्रीज़ न करें?’
स्वराज इंडिया के संस्थापक योगेन्द्र यादव ने लिखा, ‘राजनीतिक सहमति असहमति अपनी जगह है, लेकिन लोकतांत्रिक मर्यादा सर्वोपरि है। अरविंद केजरीवाल की गिरफ़्तारी इस मर्यादा का चीरहरण है। इस हिसाब से तो इलेक्टोरल बॉन्ड घोटाले में पूरी केंद्रीय कैबिनेट को जेल में होना चाहिए। लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर भारतीय को इसके विरोध में खड़ा होना चाहिए।’
योगेन्द्र यादव आम आदमी पार्टी के संस्थापकों में से एक रहे हैं लेकिन अब आम आदमी पार्टी में नहीं हैं।
दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे और ईस्ट दिल्ली लोकसभा सीट से दो बार कांग्रेस सांसद रहे संदीप दीक्षित ने कहा, ‘ये कोई बात होती है क्या कि आप रात को ये क़दम उठा रहे हैं। रात ते नौ बजे और सवेरे नौ बजे के बीच में क्या पहाड़ टूट जाएगा?’
इसे लेकर एक सोशल मीडिया यूजर ने लिखा, ‘ये शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित हैं। जब वो दिल्ली की मुख्यमंत्री थीं तब केजरीवाल ने उनकी टीम पर आरोप लगाए थे, उन्हें बदनाम किया था। लेकिन आज केजरीवाल गिरफ्तार किए गए हैं तो इन्होंने जाकर उनके परिवार से मुलाकात की। यही है कांग्रेस पार्टी।’
सुप्रीम कोर्ट में वकील संजय हेगड़े ने लिखा, ‘अगर अरविंद केजरीवाल को ईडी ने उसी तरह गिरफ्तार किया जैसे हेमन्त सोरेन को किया और न्यायिक प्रक्रिया उन्हें बिना सुनवाई के लंबे वक्त तक क़ैद में रखने की इजाज़त देती है तो हमें ये सवाल करना चाहिए कि क्या ये क़ानून का शासन है या फिर ये शासक का क़ानून है जो यहां पर लागू है।’
फैक्ट चैकिंग वेबसाइट ऑल्टन्यूज़ के संस्थापक प्रतीक सिन्हा लिखते हैं, ‘सत्ता में मौजूद वो सभी वयस्क चाहे वह राजनेता हों, पत्रकार, नौकरशाह, पुलिसकर्मी, वकील, जज या किसी और पेशे से जुड़े हों। जो तानाशाही की स्थापना करने और उसे बढ़ाने में किसी तरह से योगदान देता है, उसने सोच समझकर वो विकल्प चुना है। ऐसे लोगों के साथ कभी सहानुभूति न रखें।’
बीजेपी के संस्थापक लालकृष्ण आडवाणी के करीबी रहे सुधीन्द्र कुलकर्णी ने लिखा है, ‘चुनावों की तारीखों की घोषणा के बाद मौजूदा मुख्यमंत्री की गिरफ्त्तारी निदंनीय है। ये गैर-लोकतांत्रिक है और साफ तौर पर चुनावों में बीजेपी को अनुचित तरीके से फायदा पहुँचाने के लिए है।’
थिंकटैंक सेंटर फॉर पॉलिसी रीसर्च में सीनियर फेलो और राष्ट्रीय सुरक्षा मामलो के जानका सुशांत सिंह ने तंज कसा, ‘जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।’
गुरुराज अनजान नाम के एक यूजर ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का 10 साल पुराना एक वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट किया।
साल 2014 के इस वीडिया में मनमोहन सिंह देश को चेतावनी देते हैं, ‘नरेंद्र मोदी की काबिलियत पर चर्चा किए बिना अगर वो भारत के प्रधानमंत्री के पद तक पहुंच गए तो यह देश के लिए घातक सिद्ध होगा।’
2014 में एक संवाददाता सम्मेलन में मनमोहन सिंह ने कहा था कि वो लगातार तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री का पदभार नहीं संभालेंगे।
इस दौरान उन्होंने नरेंद्र मोदी को लेकर चेताया था और कहा था, ‘अगर आप अहमदाबाद की गलियों में बेगुनाह लोगों के नरसंहार को प्रधानमंत्री बनने की क्षमता नापने का पैमाना मानते हैं तो मैं इसमें विश्वास नहीं करता।’
बीजेपी और आम आदमी पार्टी के आरोप प्रत्यारोप
बीजेपी का कहना है कि ईडी का कार्रवाई के बाद केजरीवाल को नैतिक आधार पर मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे देना चाहिए।
बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा, ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाए, करें घोटाला शराब का तो आराम कहां से पाए। ये शराब के घोटाले का विषय है और किस अदालत तक ये घोटाला नहीं पहुंचा है।’
‘कौन सी ऐसी एजेंसी है, जिसने इसकी जांच नहीं की है? और कौन सा ऐसा दिल्लीवासी है, जो इस मामले के तथ्यों से अनभिज्ञ है?’
वहीं आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता राघव चड्ढा ने सोशल मीडिया पर लिखा, ‘भारत में अघोषित आपातकाल है, हमारा गणतंत्र ख़तरे में है। चुनावों से ठीक पहले अरविंद केजरीवाल को गिरफ्तार किया गया है। वो दूसरे विपक्षी नेता हैं, जो गणतांत्रिक तरीक़े से चुने गए हैं। हम किस ओर जा रहे हैं?’
‘देश ने कभी एजेंसियों का इस तरह से खुले तौर पर ग़लत इस्तेमाल नहीं देखा। ये कायराना हरकत है और विपक्ष की आवाज़ को दबाने का साजि़श है।’
आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव संदीप पाठक ने लिखा, ‘भारतीय जनता पार्टी और मोदी जी को ये दांव उल्टा और बहुत महँगा पड़ेगा।’
पार्टी ने गुरुवार रात को कहा था कि ‘केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बने रहेंगे चाहे उन्हें जेल से ही सरकार क्यों न चलानी पड़े।’
कांग्रेस और दूसरी पार्टियों ने क्या कहा?
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ट्वीट किया, ‘मीडिया समेत सभी संस्थाओं पर कब्ज़ा, पार्टियों को तोडऩा, कंपनियों से हफ़्ता वसूली, मुख्य विपक्षी दल का अकाउंट फ्रीज़ करना भी ‘असुरी शक्ति’ के लिए कम था, तो अब चुने हुए मुख्यमंत्रियों की गिरफ्तारी भी आम बात हो गई।’
कांग्रेस नेता संदीप दीक्षित ने गुरुवार रात को केजरीवाल के परिवार से मुलाक़ात की और आरोप लगाया कि मोदी सरकार पर एजेंसियों का ग़लत इस्तेमाल कर रही है।
उन्होंने कहा, ‘चाहे हमारे अकाउंट फ्रीज़ करने की बात हो या फिर हेमन्त सोरेन की गिरफ्तारी बात हो या फिर केजरीवाल की गिरफ्तारी की बात की, ईडी चुनावों के साथ जोड़ कर ये कार्रवाई कर रही है। आप चुनाव से पहले किसी भी पार्टी का गला थोड़े घोंट सकती है।’
कांग्रेस के पूर्व नेता और जानेमाने वकील कपिल सिब्बल ने तंज कसते हुए लिखा, ‘मदर ऑफ़ डेमोक्रेसी ने ये दिखा दिया कि ईडी उसका सबसे वफ़ादार बेटा है।’
कांग्रेस नेता और जानेमाने वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने लिखा, ‘घबराइए, आप फासीवाद में प्रवेश कर चुके है। तानाशाही सरकार सारे विपक्षी नेताओं को जेल में डाल रही। संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या की जा रही है। जैसे-जैसे लोक सभा चुनाव करीब आ रहे है देश में सिर्फ नाममात्र का लोकतंत्र रह गया है असल मे यहाँ फासीवाद चल रहा है।’
नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के शरद पवार ने इसकी कड़ी आलोचना की और लिखा कि इंडिया गठबंधन अरविंद केजरीवाल के ख़िलाफ़ इस असंवैधानिक कार्रवाई का विरोध करती है।
उन्होंने लिखा, ‘आम चुनाव सिर पर हैं और विपक्ष को निशाना बनाने के लिए केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल किया जा रहा है। ये गिरफ्तारी दिखाती है कि सत्ता के लिए बीजेपी किस हद कर नीचे गिर सकती है।’
क्या है मामला?
गुरुवार को हाई कोर्ट का फ़ैसला आने के बाद ईडी के अतिरिक्त डायरेक्टर के नेतृत्व में 10 सदस्यों की ईडी की एक टीम दिल्ली के सिविल लाइन्स में मौजूद केजरीवाल के आधिकारिक आवास पर पहुंची।
वहां तलाशी अभियान चलाया गया। ईडी की टीम के उनके आवास पर पहुंचने के कऱीब दो घंटे बाद केजरीवाल को गिरफ्तार कर लिया गया।
केजरीवाल की गिरफ्तारी के मुद्दे को लेकर आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिए जिसके बाद उनके आवास के बाहर धारा 144 लागू की गई।
इस मामले में ये ईडी की ये 16वीं गिरफ्तारी है। ईडी ने अब तक इस मामले में छह चाजऱ्शीट दाखिल की है और 128 करोड़ रुपये मूल्य की संपत्ति ज़ब्त की है।
इससे पहले ईडी ने पूछताछ के लिए पेश होने के लिए कई बार केजरीवाल को समन भेजे थे, लेकिन केजरीवाल ये पेश होने से इनकार कर दिया था। उन्होंने ईडी के ख़िलाफ़ कोर्ट का रुख़ किया था।
ईडी और सीबीआई का आरोप है कि दिल्ली सरकार ने अपनी आबकारी नीति के ज़रिए लाइसेंसधारी शराब कारोबारियों से घूस लेकर उन्हें अनुचित लाभ पहुंचाया गया। आम आदमी पार्टी अब तक इन आरोपों से इनकार किया है। (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
सरकार ने आनन फानन में केंद्रीय चुनाव आयोग में चुनाव आयुक्त के दो खाली पदों पर दो सेवानिवृत आई ए एस सुखबीर सिंह संधू और ज्ञानेश कुमार की नियुक्ति कर दी। अक्सर सरकार की दो कारणों से ही सबसे ज्यादा आलोचना होती है, एक तब जब वह अपने पसंदीदा कामों को बिजली की गति से करती है और एक तब जब वह अपनी अरुचि के कामों को हजार कुतर्क देकर सालों साल टालती रहती है। इन्हीं दो कारणों से सरकार के कामों की विपक्ष और उससे भी ज्यादा प्रबुद्ध जन एवम जन सरोकारी मीडिया द्वारा आलोचना की जाती है।
भ्रष्टाचार के मामलों की जांच की निगरानी करने वाली शीर्ष संस्था केंद्रीय सतर्कता आयोग का भी यही सिद्धांत है कि जब कोई काम या तो सामान्य से बहुत तेज गति से सम्पन्न किया जाता है या बहुत दिनों तक लटकाया जाता है तो उसमें भ्रष्टाचार की प्रबल संभावना मानी जाती है। चुनाव आयुक्तों की यह दो नियुक्तियां भी इसी परिपेक्ष्य में विवादित हो गई हैं। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए सरकार द्वारा गठित समिती के सदस्य और लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी ने इस मामले में अपनी कड़ी असहमति दर्ज की है। उनका कहना है कि जब सर्वोच्च न्यायालय 15 मार्च को केंद्रीय चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति संबंधी याचिका की सुनवाई करने जा रहा था, ऐसे में आनन फानन में दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ती की बैठक रखने का क्या मतलब है। उनका यह भी मानना है कि यह बैठक मात्र औपचारिकता पूरी करने के लिए लिए रखी गई थी।
एक तरफ सरकार ने आयुक्तों की नियुक्ती की समिती से सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश को अलग रखा है और दूसरे उनकी जगह गृह मंत्री को रखकर सरकार ने समिती में अपना बहुमत बनाकर अपनी पसंद के चुनाव आयुक्त नियुक्त कर लिए। उन्होंने यह भी कहा कि नियुक्ति समिती की प्रस्तावित बैठक से पहले उन्होने नियुक्ति के शॉर्ट लिस्ट किए गए लोगों की जानकारी मांगी थी ताकि वे उन लोगों की योग्यता और प्रशासनिक छवि के बारे में कुछ जानकारी जुटा सकें लेकिन शॉर्टलिस्ट नामों की जगह सरकार ने उन्हें दो सौ से ज़्यादा नामों की सूची थमा दी। इतने लोगों की योग्यता और क्षमता का निरीक्षण किसी भी व्यक्ति के लिए एक दिन में कर पाना संभव नहीं है। अधीर रंजन चौधरी के इन तर्कों को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता। चुनाव आयुक्त की नियुक्तियों पर विगत में भी विवाद हुए हैं जिससे केंद्रीय चुनाव आयोग की निष्पक्ष छवि पर प्रश्न चिन्ह खड़े हुए हैं इसलिए सरकार का दायित्व बनता है कि उसकी कार्यशैली पूरी तरह पारदर्शी और विवेक सम्मत हो।
विगत में पूर्व चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति का विवाद सर्वोच्च न्यायालय में गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी ऐच्छिक सेवानिवृति के तुरंत बाद चुनाव आयुक्त के पद पर नियुक्ति पर आश्चर्य जताया था हालांकि उनकी नियुक्ति को निरस्त नहीं किया था। अरुण गोयल की नियुक्ति जैसा ही आश्चर्य उनके अचानक हुए त्यागपत्र से हुआ है क्योंकि वह लोकसभा चुनाव से मात्र चंद दिनों पहले हुआ था। अभी वह विवाद थमा नहीं था दो नए चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का विवाद खड़ा हो गया। हालाकि सर्वोच्च न्यायालय ने इन नियुक्तियों को भी निरस्त करने की मांग स्वीकार नहीं की फिर भी इस तरह के विवाद संवैधानिक पदों और संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा को ठेस पहुंचाते हैं। इससे सरकार और सरकार के राजनीतिक दल की प्रतिष्ठा भी धूमिल होती है। अब जब राजनीति से नैतिकता की लगभग विदाई सी हो चुकी है तब संवैधानिक संस्थाओं की नियुक्तियों में निष्पक्षता आवश्यक है और वह तभी संभव है जब नियुक्तियों की तीन सदस्यीय समिति में किसी का बहुमत नहीं होगा। इसके लिए नियुक्ति समिती में प्रधानमन्त्री, नेता विपक्ष और सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश का होना ही सर्वोत्तम विकल्प लगता है।
पल्लवी त्रिवेदी
जब मैं 30 बरस की थी तब सारा संसार मिलकर मेरा ब्याह कराने पर तुला था ।
जब मैं मना करती तो अंत में हरेक के पास अंत में एक अकाट्य ( उनके हिसाब से) तर्क होता कि अभी पता नहीं चलेगा, 40 के बाद साथी की जरूरत महसूस होती है ,जब सारे दोस्त अपने जीवन में व्यस्त हो जाएंगे, तब अकेलापन काटने को दौड़ेगा। फिर बुढ़ापे में शरीर साथ नहीं देगा तो देखभाल करने के लिए पति और बच्चों की जरूरत होगी...।
मैं हमेशा इस बात की शुक्रगुजार रही हूँ कि हमको दो कान मिले हैं। एक से सुनकर दूसरे से निकालने के लिए। सो दोनों कानों का भरपूर इस्तेमाल करते हुए ‘एकला चलो रे’ की धुन पर हम आगे बढ़ते गए।
और अब जबकि मैं 44 साल की हो गई हूं, उन सभी अकाट्य तर्कों की चटनी बनाते हुए कहना चाहती हूं कि-
1- शादी तब करो जब किसी से मिलकर महसूस हो कि इसके साथ एक घर में रहे बिना जीवन जीना असंभव है और शादी ही एकमात्र तरीका है ।
2- शादी की कोई उम्र नहीं होती, अगर आपको शादी से बच्चे पैदा न करने हों। 80 की उम्र में भी किसी के साथ रहने के लिए शादी की जरूरत महसूस होती हो तो जरूर शादी करो।
3- किसी से अपनी देखभाल कराने के लिए शादी मत करो। उल्टा भी हो सकता है। इसलिए अपनी देखभाल आप करने लायक स्वस्थ रहो। अगर पैसा होगा तो नर्स भी लग जायेगी। और पैसा न होगा तो आपने जो रिश्ते कमाए होंगे वे काम आएंगे। शादी बुढ़ापे में देखभाल की गारंटी नहीं है।
4- शादी न करना प्रेम रहित जीवन जीना नहीं है जैसा लोग अक्सर सिंगल लोगों के बारे में धारणा बना लेते हैं।
5- अगर आपको अकेले रहने में आनंद आता है और खुद का साथ सबसे अच्छा लगता है तो शादी आपके लिए नहीं है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ेगी, अकेले रहना और सुखद लगने लगेगा।
तो चालीस के बाद वाली परीक्षा को अव्वल दर्जे से पास करने के बाद अब बुढ़ापे वाली परीक्षा की मार्कशीट भी अवश्य शेयर की जाएगी।
चलते-चलते अंतिम बात यह कि जीवन का लक्ष्य शांति और खुशी है। शादी करना या न करना इस लक्ष्य प्राप्ति का एक मार्ग मात्र है।
गोकुल सोनी
साथियों, प्रकृति ने हमें बोलने की क्षमता प्रदान कर हमारे साथ बड़ा उपकार किया है। हम कभी भी, कहीं भी और किसी भी परिस्थिति में बोलकर यानी अपनी बात रखकर अपना काम चला सकते हैं। लेकिन हमेशा यह काम में नहीं आता। कभी-कभी मौन रहकर या फिर सांकेतिक भाषा में अपनी भावना व्यक्त कर काम चलाना पड़ता है। सांकेतिक भाषा का इस्तेमाल खास मौके पर किसी संस्था विशेष द्वारा अपना काम निकालने के लिए किया जाता है। एक सांकेतिक भाषा का इस्तेमाल मैंने भी कभी किया था जो एक खास वर्ग के लोगों के लिए बनाया गया था।
मेरा पैतृक गांव मचान्दूर रायपुर-जगदलपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर मुख्य सडक़ से 2 किलोमीटर अंदर था। था इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि गंगरेल बांध के डुबान क्षेत्र में आने के बाद अब हमारा गांव सडक़ किनारे बस गया है। उस समय गांव के लोगों को जब कभी कांकेर-जगदलपुर, सुकमा-कोंटा, बारसूर-बैलाडीला या धमतरी-रायपुर जाना होता था तो बस पकडऩे के लिए गांव से पैदल मुख्य सडक़ तक आना पड़ता था। उस समय निजी कंपनी की बसें नहीं चलती थीं। सिर्फ मध्यप्रदेश सडक़ राज्य परिवहन निगम की बसें चलती थीं। अलबत्ता धमतरी-चारामा-कांकेर के बीच लोकल सवारियों के लिए जीप-टैक्सी भी बहुत कम संख्या में चला करती थीं।
खैर, सडक़ पर आने के बाद राज्य परिवहन की बस को हाथ दिखाकर रोकना पड़ता था। हाथ दिखाने पर बस कभी रुकती थी तो कभी नहीं रुकती थी। लेकिन मेरे पिताजी के साथ ऐसा नहीं था। वे जब भी किसी बस को हाथ दिखाते थे तो बस जरूर रुक जाती थी। गांव वाले इस बात को समझ नहीं पाते थे कि मानसिंह यानी मेरे पिता के हाथ दिखाने से बस क्यों रुक जाती है?
एक बार मेरी मां को रायपुर जाना था। मैं भी उनके साथ था। मैं बहुत छोटा था। मां बस को हाथ दिखाती थी लेकिन कोई बस रुकती ही नहीं थी। मुझे लगा कि अब मुझे कुछ करना चाहिए। मैंने आगे बढक़र एक बस को हाथ दिखाया और बस रुक गई। हम बस में बैठ गए। बस ड्राइवर ने मुझे अपने पास बुलाया और बोनट पर प्यार से बिठा दिया। बस में बोनट उसे कहते हैं जहां इंजन होता है जो एक पेटी जैसे लोहे की चादर से ढंका होता है। ड्राइवर ने मुझसे पूछा कि तुम्हें बस रोकने की यह तकनीक किसने बताई? मैंने बताया कि अपने पिताजी से सीखा हूं। ड्राइवर हंसे और बोले कि अब किसी को मत बताना।
दरअसल मेरे पिताजी सेना की सेवा से आने के बाद कुछ वर्षों तक राज्य परिवहन की बस चलाया करते थे। उन दिनों बस चालक कुछ कोडवर्ड का उपयोग किया करते थे। जैसे कहीं टिकट चेकिंग हो रही है तो ड्राइवर अपनी बस की लाइट दिन में भी जला दिया करते थे। विपरीत दिशा से आ रही बस का ड्राइवर-कंडक्टर उस लाइट को देखकर समझ जाते थे कि आगे चेकिंग हो रही है। कंडक्टर अपना हिसाब ठीक कर लेता था और पकड़े जाने से बच जाता था। रात को ठीक इसके विपरीत लाइट बुझा दिया करते थे। इसी तरह किसी बस को रोकने के लिए स्टाफ द्वारा एक कोड का उपयोग किया जाता था। सडक़ पर खड़ा स्टाफ अपने हाथ में कोई थैला, गमछा या अन्य कपड़ा लेकर हवा में लहराता था। ड्राइवर समझ जाता था यह हमारा स्टाफ है और बस रोक देता था। पिताजी भी बस रोकने के लिए हाथ में थैला या कपड़ा लेकर हवा में लहरा दिया करते थे। उस दिन मां के साथ मैं भी हाथ में थैला लेकर हवा में लहराया था और बस रुक गई थी।
मैंने ड्राइवर से किया अपना वादा निभाया और कभी भी इस सांकेतिक भाषा के बारे में किसी अन्य को नहीं बताया। आज जब परिवहन निगम की बसें बंद हो गई हैं तब इसका खुलासा कर रहा हूं।
तो कैसी लगी मेरी टेक्निक, आप जरूर बताइएगा।
‘प्योर वेज फ़्लीट’ या ‘शुद्ध शाकाहारी फ्लीट’ के लॉन्च होने के बाद हुई आलोचना के बीच ज़ोमैटो के सीईओ दीपेन्द्र गोयल ने इसमें बदलाव की घोषणा की है।
इससे पहले कंपनी ने कहा था कि 100 फ़ीसदी शाकाहारी खाना पसंद करने वाले अपने ग्राहकों के लिए वो ‘शुद्ध शाकाहारी’ डिलिवरी की सुविधा लॉन्च कर रही है। इसे उन्होंने ‘शुद्ध शाकाहारी मोड’ कहा था।
इसमें डिलिवरी पार्टनर को हरे रंग की पोशाक में होना था। लेकिन सोशल मीडिया पर बढ़ती आलोचना के बीच ज़ोमैटो ने ड्रेस के रंग में बदलाव की योजना वापस ले ली है।
ज़ोमैटो के सह-संस्थापक और सीईओ दीपेन्द्र गोयल ने शुरू में दावा किया था कि शाकाहारी खाने की अलग से डिलिवरी की योजना को लेकर लोगों की सकारात्मक प्रतिक्रिया मिल रही है। लेकिन 11 घंटे के भीतर ही दीपेन्द्र गोयल को प्लान में बदलाव लाना पड़ा।
वापस लिए बदलाव
दीपेन्द्र गोयल ने अब से कुछ वक़्त पहले अपने सोशल मीडिया हैंडल पर पोस्ट किया, ‘हमने फ़ैसला किया है कि वेजिटेरियन खाने की डिलिवरी करने वाले अपने राइडरों की टोली को हम बरकऱार रखेंगे लेकिन उन्हें दूसरों से अलग करने वाले हरे रंग की ड्रेस का इस्तेमाल नहीं करेंगे। हमारे नियमित राइडर और शाकाहारी डिलिवरी वाले राइडर लाल रंग के ही कपड़े पहनेंगे।’
उन्होंने लिखा, ‘शाकाहारी खाना डिलिवरी करने वाले हमारे राइडर्स को ज़मीनी स्तर पर दूसरों से अलग नहीं किया जा सकेगा, लेकिन व्यक्ति को उसके मोबाइल ऐप में ये दिखेगा कि वेजिटेरियन ऑर्डर की डिलिवरी केवल वेजिटेरियन राइडर कर रहे हैं।’
उन्होंने कहा कि कंपनी अपने राइडर्स की सुरक्षा को प्राथमिकता देती है। उन्होंने कहा, ‘इससे ये सुनिश्चित होगा कि लाल रंग के कपड़े पहने हमारे राइडर्स को नॉन-वेज खाने के साथ जोड़ कर नहीं देखा जाएगा, और उन्हें किसी ख़ास दिन आरडब्ल्यूए नहीं रोकेगी।’
‘हमें इस बात का अहसास है कि इस कारण किराए पर रह रहे लोगों के लिए भी जोखिम पैदा हो सकता है।’
अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस से इंडियन फेडरेशन ऑफ ऐप-बेस्ड ट्रांसपोर्ट वर्कर्स (आईएफ़एटी) के अध्यक्ष शेख़ सलाउद्दीन ने कहा, ‘पिछली बार ज़ोमैटो से किसी ने ख़ास धर्म के ही डिलिवरी पार्टनर को भेजने का अनुरोध किया था तब दीपेन्द्र गोयल ने कहा था कि फूड का मज़हब नहीं होता है। अब लग रहा है कि वह अपनी इस सोच से पीछे हट रहे हैं। मैं उनसे सीधा पूछा रहा हूँ कि क्या वह डिलिवरी पार्टनर्स को जाति, समुदाय और धर्म की लाइन पर श्रेणी बना रहे हैं?’
ज़ोमैटो पहले भी अपने विज्ञापन के कारण विवाद में रही है। पिछले साल ज़ोमैटो ने एक विज्ञापन को लेकर माफ़ी मांगी थी।
इस विज्ञापन में लगान फि़ल्म के दलित किरदार ‘कचरा’ को ‘रीसाइक्लड’ रूप में दिखाया गया था। इस विज्ञापन में लगान के दलित किरदार को निर्जीव वस्तु के रूप में दिखाया गया था। ज़ोमैटो को इस विज्ञापन के कारण नेशनल कमिशन फोर शेड्यूल कास्ट से नोटिस मिला था।
क्या था पूरा मामला?
मंगलवार को दीपेंद्र गोयल ने कहा था कि कंपनी ‘शुद्ध शाकाहारी मोड’ लॉन्च कर रहा है, जिसमें वेजिटेरियन खाना ऑर्डर करने वालों को ऐप पर केवल शुद्ध शाकाहारी रेस्त्रां दिखेंगे और उन्हें नॉन-वेज खाना देने वाले रेस्त्रां नहीं दिखेंगे।
‘हमारे शुद्ध शाकाहारी राइडरों की टोली शुद्ध शाकाहारी रेस्त्रां से खाना लेकर ग्राहकों तक पहुंचाएगी। इसके लिए हरे रंग के डिब्बे होंगे।’
‘ऐसे में शुद्ध वेजिटेरियन खाना और नॉन-वेजिटेरियन खाना कभी एक ही बक्से में नहीं पहुंचाया जाएगा।’
इसे लेकर सोशल मीडिया पर जमकर लोगों ने आलोचना की थी। कई लोगों का कहना था कि वेजिटेरियन खाने वालों को शुद्ध कऱार देना ज़ोमैटो के भेदभाव करने की नीति को बताता है।
सोशल मीडिया पर छिड़ी बहस
ज़ोमैटो के प्योर वेज मोड लॉन्च करने के बाद और इसकी यूनिफ़ॉर्म को वापस लेने के बाद सोशल मीडिया पर इसकी तारीफ़ और आलोचनाएं की जा रही हैं।
जब शुरुआत में इस मोड को लॉन्च किया गया तो यूनिफ़ॉर्म के साथ-साथ प्योर वेज मोड लाने की आलोचना की गई।
रश्मिलता नामक यूजऱ ने ट्वीट किया कि ‘इस तरह के भेदभाव को रोकिए। हमने इसके नाम पर बहुत कुछ देखा है। मैं शुद्ध मांसाहारी हूं। इस शाकाहारी वर्चस्व वाली बात को बंद कीजिए।’
वहीं श्रेया नामक एक यूजऱ ने लिखा है कि ‘ग्रीन फ़्लीट क्या मदद करेगी मेरे समझ से बाहर है, अगर मेरा ऑर्डर सही से पैक है तो ग्रीन फ़्लीट क्या मदद करेगी? अच्छे पैकिंग मैटेरियल से काम चल जाता है।’
आकाश शाह नाम के यूजऱ ने एक्स पर लिखा कि ‘मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूं जो ऑनलाइन ऑर्डर नहीं करते हैं क्योंकि वो शुद्ध शाकाहारी हैं। मैं उम्मीद करता हूं कि ये उनके लिए फ़ायदेमंद होगा। ज़ोमैटो को बधाई जो वो हमेशा यूज़र्स की सुनता है।’
तीन बार ग्रैमी पुरस्कार जीतने वाले संगीतकार रिकी केज ने ट्वीट करके यूनिफ़ॉर्म को वापस लेने के फ़ैसले की तारीफ़ की है।
उन्होंने लिखा, ‘अलग यूनिफ़ॉर्म को वापस लेने का फ़ैसला अच्छा है लेकिन कृपया वेज फ़्लीट जारी रखें। ये बेहद ज़रूरी सेवा है जिसकी तारीफ़ की जानी चाहिए।’ ज़ोमैटो ने ग्रीन यूनिफ़ॉर्म के फ़ैसले को वापस लिया है लेकिन प्योर वेज मोड चलता रहेगा। इस मोड को लेकर अभी भी बहस जारी है। (bbc.com/hindi)
-दयानिधिे
निम्न और मध्य आय वाले देशों में कई बच्चों को विभिन्न सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय कारणों से पर्याप्त पौष्टिक भोजन तक पहुंचने में भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जिसके कारण अल्पपोषण और सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए भारी चिंता के रूप में उभर रही है।
जेएएमए नेटवर्क ओपन, पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है कि नवजात शिशुओं को छह महीने की उम्र तक केवल स्तनपान पर निर्भर रहना चाहिए। छह महीने की उम्र के बाद, शिशुओं और छोटे बच्चों की बढ़ती पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अकेले स्तन का दूध पर्याप्त नहीं है।
अध्ययन के दौरान भारत में लगभग 67 लाख बच्चे ऐसे पाए गए, जिन्होंने 24 घंटों के दौरान कुछ नहीं खाया। इन बच्चों को जीरो फूड की श्रेणी में रखा गया। जीरो फूड चिल्ड्रन का आशय है कि 6 से 23 माह की उम्र के वे बच्चे जिन्होंने पिछले 24 घंटों में कोई दूध, या भोजन नहीं खाया हो।
अध्ययन के मुताबकि भारत में जीरो फूड चिल्ड्रन की संख्या अब तक की सबसे अधिक है। यह अध्ययन 92 देशों पर किया गया था और भारत में पाए गए जीरो फूड चिल्ड्रन की संख्या इन 92 देशों के बच्चों की संख्या के मुकाबले लगभग आधी है। भारत की यह दर गिनी, बेनिन, लाइबेरिया और माली जैसे पश्चिम अफ्रीकी देशों में प्रचलित दर के बराबर है।
जीरो-फूड चिल्ड्रन यानी बिना भोजन के बच्चों की संख्या के मामले में नाइजीरिया दूसरे स्थान पर है (962000), इसके बाद पाकिस्तान (849000), इथियोपिया (772000) और कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य (362000) हैं।
जनसंख्या स्वास्थ्य और भूगोल के प्रोफेसर सुब्रमण्यम और हार्वर्ड सेंटर फॉर पॉपुलेशन एंड डेवलपमेंट स्टडीज के वैज्ञानिक रॉकली किम ने 92 निम्न और मध्यम आय वाले देशों के छह से 23 महीने की उम्र के 276,379 बच्चों का विश्लेषण किया, जिनकी देखभाल करने वालों ने उनके भोजन के बारे में जानकारी दी थी।
शोधकर्ताओं ने 92 निम्न और मध्यम आय वाले देशों में 2010 और 2022 के बीच एकत्र किए गए राष्ट्रीय आंकड़ों का उपयोग किया।
अध्ययन में पाया गया कि बिना भोजन वाले बच्चे अध्ययन आबादी का 10.4 फीसदी थे।
शून्य-भोजन वाले बच्चों का प्रचलन देशों के बीच व्यापक रूप से फैला हुआ है। कोस्टा रिका में, प्रसार 0.1 फीसदी था, गिनी में, 21.8 फीसदी।
भारत में, जहां अध्ययन के लगभग आधे बिना भोजन वाले बच्चे थे, जिनका प्रसार 19.3 फीसदी था।
अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, बिना भोजन वाले बच्चों की व्यापकता विकास की इस महत्वपूर्ण अवधि के दौरान शिशु और छोटे बच्चों के आहार प्रथाओं में सुधार और अधिकतम पोषण सुनिश्चित करने के लिए लक्षित हस्तक्षेप की आवश्यकता को उजागर करती है। यह मुद्दा पश्चिम और मध्य अफ्रीका और भारत में विशेष रूप से जरूरी है।
6 से 23 माह के उम्र के बच्चों के लिए निरंतर स्तनपान के अलावा पर्याप्त खाद्य पदार्थों की शुरुआत अधिकतम पोषण सबसे महत्वपूर्ण है।
शोध में पर्याप्त भोजन के कम अवधि और लंबे समय के फायदों को भी उजागर किया है, जैसे मृत्यु दर, कुपोषण, बौनापन, कम वजन और सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी के खतरों का कम होना शामिल है। साथ ही बच्चों का मानसिक विकास तेजी से होता है, जो बच्चों के भविष्य की नींव रखता है।
हार्वर्ड द्वारा किए गए अध्ययन में पाया गया कि कुछ देशों में बिना भोजन के बच्चों की प्रचलन दर 21 फीसदी तक है। (डाऊन टू अर्थ)
डॉ. आर.के. पालीवाल
निर्वाचन आयोग द्वारा लोकसभा चुनावों की घोषणा अभी हाल ही में हुई है। कुछ दिन पहले तक निर्वाचन आयोग में चुनाव आयुक्तों की दो तिहाई पोस्ट रिक्त थी जो हाल ही में भरी गई हैं। लेकिन इस सबके बरक्स 2024 का लोकसभा चुनाव इस मायने में खास है कि चुनाव आयोग द्वारा चुनाव घोषित होने के पहले ही भाजपा और उसकी देखादेखी अन्य राजनीतिक दलों ने चुनावी बिगुल काफी पहले फूंक दिया था। केन्द्रीय सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी ने विभिन्न राज्यों की काफी लोकसभा सीटों पर काफी पहले अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए थे। भाजपा की देखादेखी कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस ने भी काफी सीटों पर उम्मीदवार घोषित कर दिए। विगत कुछ माह से केंद्र सरकार की तरफ से प्रधानमन्त्री और राज्यों में विभिन्न दलों के मुख्यमंत्री चौतरफा लोकार्पण, भूमि पूजन और विविध जन उपयोगी योजनाओं की घोषणाएं कर रहे थे। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की तरफ से आए दिन अखबारों में पूरे पेज के सरकारी विज्ञापन जारी हो रहे थे।
प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी वैसे तो अपने भाषणों से हर वक्त चुनावी मोड़ में ही दिखाई देते हैं लेकिन विगत कुछ माह से वे विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न तबकों के वोटरों को आकर्षित करने के लिए चुनावी रैलियों में व्यस्त हो गए थे। उनकी केंद्र सरकार ने पहले रसोई गैस सिलेंडर के दाम में सौ रुपए की कमी की और हाल में डीजल पेट्रोल के दाम दो रूपए लीटर कम करके मतदाताओं के ऊंट के मुंह में जीरा डाल कर मतदाताओं के ऊंट को अपनी पार्टी की तरफ करवट दिलाने का भी प्रयास किया है। यह दूसरी बात है कि मतदाता चुनाव पूर्व दी गई चुटकी भर राहत को मान का पान मानकर वोट देंगे या इतनी कम राहत देने से नाराज़ हो जाएंगे। भारतीय मतदाताओं का मिजाज भांपना खुद को तीसमारखा राजनीतिक विश्लेषक समझने वालों के भी वश में नहीं है। केंद्र सरकार की तरह राज्यों की सरकारों ने भी अपने राज्यों के मतदाताओं को लुभाने के लिए नई नई राहत दी हैं, जैसे,उत्तर प्रदेश सरकार ने अन्नदाताओं के लिए सिंचाई की बिजली मुफ्त करने की होली गिफ्ट का विज्ञापन जारी किया है।
पिचहत्तर साल से वोट डालते डालते मतदाता राजनीतिक दलों और नेताओं के सब जाल बट्टे समझने लगे हैं। कुछ दिन पहले जो उत्तर प्रदेश सरकार केन्द्र सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अन्नदाताओं को दिल्ली में घुसने से रोकने के लिए बार्डर पर मोर्चा संभाले हुए थी वह चुनाव की पूर्व संध्या पर सिंचाई की मुफ़्त बिजली से किसानों की आहत आत्मा पर मरहम लगा रही है। इधर जितनी भी छूट की घोषणाएं की गई हैं वे चुनाव के पहले मतदाताओं को लुभाने के लिए हैं। अब जब चुनावों की विधिवत घोषणा हो गई है, अब विभिन्न राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र जारी करेंगे। यह आम चुनाव इस अर्थ में भी खास है कि इस बार चुनावी घोषणापत्र भी काफी हद तक चुनाव पूर्व ही घोषित हो चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी ने मोदी की गारंटी शीर्षक से अपनी घोषणाएं की हैं और कांग्रेस ने युवाओं, महिलाओं और किसानों के लिए अलग अलग पांच पांच गारंटी की घोषणा की है।
2024 के चुनाव से पहले केंद्रीय जांच एजेंसियों द्वारा विपक्ष के बड़े नेताओं की गिरफ्तारी और छापों ने भी विगत कुछ वर्षों में एक रिकॉर्ड बनाया है जिसमें कुछ प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, उनके नजदीकी परिजनों, मित्रों और नौकरशाहों की गिरफ्तारियां हुई हैं या उन पर मुकदमे और एफ आई आर दर्ज हुई हैं। केंद्रीय जांच एजेंसियों की बढ़ती कार्यवाहियों के सामुहिक विरोध ने कई राजनीतिक दलों को आपसी मतभेद भुलाकर इंडिया गठबंधन की छतरी के नीचे आने के लिए बाध्य किया है । इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप भाजपा भी छोटे छोटे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को एन डी ए में लाने के लिए मजबूर हुई है। नतीजा चाहे जो हो 2024 के लोकसभा चुनाव में सत्ता पक्ष और विपक्ष में कांटे का मुकाबला होगा।
दिनेश उप्रेती
‘आजकल हमारे देश में मुफ्त की रेवड़ी बाँटकर वोट बटोरने का कल्चर लाने की भरसक कोशिश हो रही है। ये रेवड़ी कल्चर देश के विकास के लिए बहुत घातक है। रेवड़ी कल्चर वालों को लगता है कि जनता जनार्दन को मुफ्त की रेवड़ी बाँटकर उन्हें खरीद लेंगे। हमें मिलकर रेवड़ी कल्चर को देश की राजनीति से हटाना है।’
साल 2022 में दिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस बयान पर काफी चर्चा हुई थी।
‘कोई और (राजनीतिक दल) बाँटे तो रेवड़ी और वो (मोदी सरकार) बाँटे तो विटामिन की गोलियां...’
लोगों को मुफ्त में चीज़ें या पैसे देने से सियासी दलों के वादों पर मीडिया में बहस के दौरान अक्सर विपक्षी नेता ये तर्क देते हुए देखे-सुने जा सकते हैं।
यहाँ तक कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुँचा था और उच्चतम न्यायालय ने इसे गंभीर मुद्दा बताते हुए कहा था कि वेलफ़ेयर स्टेट होने के नाते मुफ्त चीजें जरूरतमंदों को मिलनी चाहिए, लेकिन अर्थव्यवस्था को हो रहे नुकसान और वेलफेयर में संतुलन बिठाने की जरूरत है।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने फरवरी 2024 में अपने बजट भाषण में बताया था कि मुफ्त राशन योजना पर चालू वित्त वर्ष में दो लाख करोड़ रुपये खर्च किया जाएगा।
नरेंद्र मोदी सरकार ने नवंबर 2023 में ही घोषणा कर दी थी कि इस योजना को अगले पाँच साल तक यानी 2028 तक जारी रखा जाएगा।
वित्त मंत्री के बजट अनुमान को आधार बनाया जाए तो इस योजना से सरकारी खजाने का बोझ तकरीबन 10 लाख करोड़ रुपये होता है।
इस योजना को जून 2020 में शुरू किया गया था, इसके बाद से इसकी समय सीमा को कई बार आगे बढ़ाया गया है। अब इसकी डेडलाइन दिसंबर 2028 तक बढ़ाई गई है।
लाखों करोड़ कहाँ से जुटा रही सरकार?
पर सवाल ये उठता है कि आखिर सरकार के पास इन मुफ्त की चीजों के लिए पैसा आता कहाँ से है।
जब 2014 में मनमोहन सरकार को हटाकर नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई तो सब्सिडी बिल में उसे सबसे अधिक राहत मिली पेट्रोल-डीज़ल और फर्टिलाइज़र्स की कम होती अंतरराष्ट्रीय कीमतों से।
मोदी सरकार के पहले कार्यकाल यानी 2014-15 से लेकर 2018-19 तक भारतीय रिफाइनरी कंपनियों ने 60.84 प्रति बैरल की दर से कच्चा तेल आयात किया जबकि इससे पहले के पाँच वित्त वर्षों (मनमोहन सरकार 2.0) में ये दर औसतन 96.05 डॉलर प्रति बैरल थी।
रिसर्च एनालिस्ट आसिफ इकबाल कहते हैं, ‘मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में कच्चे तेल की सस्ती आयातित दर ने सरकारी खजाने में संतुलन साधने में अहम भूमिका निभाई। मोदी सरकार इस मायने में भी चतुर रही कि उन्होंने सस्ते आयातित तेल का पूरा फायदा भारतीय उपभोक्ताओं को नहीं दिया। यानी पेट्रोल, डीजल के दाम नहीं घटाए। उलटे पेट्रोल, डीज़ल के अलावा दूसरे फ्यूल प्रोडक्ट्स पर एक्साइज़ ड्यूटी भी बढ़ा दी।’
साल 2012-13 में पेट्रोलियम उत्पादों पर जहाँ केंद्र सरकार 96,800 करोड़ रुपये की सब्सिडी दे रही थी, लेकिन उसे एक्साइज़ के रूप में सिर्फ 63,478 करोड़ रुपये का राजस्व मिल रहा था।
साल 2013-14 में भी फ्यूल सब्सिडी जहाँ 85,378 करोड़ रुपये रही, वहीं इससे मिला एक्साइज राजस्व 67,234 करोड़ रुपये रहा।
लेकिन इसके बाद की स्थिति उलट गई। साल 2017-18 और 2018-19 में जहाँ फ्यूल सब्सिडी 24,460 करोड़ रुपये और 24,837 करोड़ रुपये रही, वहीं इन पर एक्साइज कलेक्शन 2 लाख 29,716 करोड़ और 2 लाख 14,369 करोड़ रुपये हो गया।
तेल की धार पर शुरुआत से नजर
मोदी सरकार जब पहली बार 2014 में सत्ता में आई थी तो पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी 9 रुपये 48 पैसे प्रति लीटर थी, जबकि डीज़ल पर 3 रुपये 56 पैसे प्रति लीटर।
इसके बाद सरकार ने नवंबर 2014 से लेकर जनवरी 2016 तक नौ बार पेट्रोल और डीज़ल की एक्साइज ड्यूटी में बढ़ोतरी की।
यानी इन 15 महीनों में पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी में 11 रुपये 77 पैसे की बढ़ोतरी की गई जबकि डीजल पर एक्साइज़ ड्यूटी 13 रुपये 47 पैसे बढ़ाई गई।
इससे सरकारी खजाने में जमकर पैसा आया। साल 2014-15 में जहाँ पेट्रोल, डीजल से एक्साइज कमाई 99 हज़ार करोड़ रुपये थी वहीं 2016 में ये तकरीबन ढाई गुना (2 लाख 42 हज़ार करोड़ रुपये) हो गई।
आसिफ कहते हैं, ‘आंकड़ों से साफ है कि मोदी सरकार ने सस्ते इंपोर्टेड क्रूड से न केवल फ्यूल सब्सिडी घटाई, बल्कि दूसरे वित्तीय खर्चों के लिए भी इससे होने वाली कमाई का इस्तेमाल किया। पेट्रोलियम सब्सिडी ले-देकर रसोई गैस सिलिंडर तक ही सीमित रह गई और कुछ हद तक उज्ज्वला स्कीम की सब्सिडी तक। दूसरी ओर पेट्रोल-डीज़ल से एक्साइज की कमाई में कई गुना का उछाल आ गया है।’
अब आलम ये है कि मोदी सरकार पेट्रोल, डीज़ल क़ीमतों को हाथ भी नहीं लगाती, चुनावी मौसम को छोडक़र। अभी मई में लोकसभा चुनाव होने हैं, उससे पहले 15 मार्च को पेट्रोल, डीजल की कीमतों में कटौती की गई है। इससे पहले आखिरी बार 22 मई 2022 को पेट्रोल, डीज़ल कीमतें घटाई गईं थीं।
पाँच जुलाई 2013 को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू होने के बाद पीडीएस के तहत गेहूं की कीमत दो रुपये प्रति किलो और चावल की कीमत तीन रुपये प्रति किलो तय की गई थी।
मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद इन दरों में इजाफा नहीं किया बल्कि एक जनवरी 2023 से कीमतें ही शून्य कर दी। मतलब पीडीएस के तहत अब गेहूं और चावल मुफ़्त मिल रहा है।
फ्रीबीज के ऐलान में लगी होड़
मुफ़्त योजनाओं की घोषणाएं करने में केंद्र से कहीं आगे राज्य सरकारें हैं। सत्ता में आने के लिए राजनीतिक दल बड़ी-बड़ी घोषणाएं कर देते हैं और सत्ता में आने के बाद इनका सीधा असर सरकारी खजाने और दूसरी योजनाओं पर दिखने लगता है।
पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च ने अक्टूबर 2023 में एक रिसर्च रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें कम से कम 11 राज्यों का राजस्व घाटा बहुत अधिक था।
इनमें पंजाब, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और हरियाणा का राजस्व घाटा बहुत अधिक है, जबकि इसके उलट खनन से अच्छी खासी कमाई करने वाले झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों की आर्थिक हालत इनसे बेहतर थी।
सब्सिडी का बोझ इतना अधिक है कि राज्यों की कमाई का एक बड़ा हिस्सा सब्सिडी पर खर्च होता है। रिपोर्ट के मुताबिक साल 2022-23 में राज्यों ने अपनी राजस्व प्राप्तियों का औसतन 9 फीसदी सब्सिडी पर खर्च किया।
कुछ राज्यों में तो सब्सिडी का भी एक बड़ा हिस्सा बिजली सब्सिडी पर खर्च हो रहा है। मसलन राजस्थान ने कुल सब्सिडी का 97 फीसदी बिजली पर खर्च किया जबकि पंजाब ने 80 फीसदी।
मुफ़्त की रेवड़ी कहना ठीक है?
सवाल ये उठता है कि सरकारों की किन योजनाओं को ज़रूरी जन-कल्याणकारी योजना कहा जा सकता है और किन्हें ‘फ्रीबीज’ या मुफ्त की रेवड़ी कहना ठीक रहेगा?
मनी नाइन के संपादक और आर्थिक मामलों के जानकार अंशुमन तिवारी?बताते हैं, ‘हमारे पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जिसके जरिए ये बताया जा सके कि क्या चीज फ्रीबीज हैं और क्या नहीं हैं। क्या आप मुफ्त अनाज बाँटने को फ्रीबीज कहेंगे। और कहीं किसी राज्य में पहाड़ों पर पानी नहीं पहुंच रहा है और वहां सरकार फ्री में पानी उपलब्ध करवा रही है तो क्या उसे आप फ्रीबीज कहेंगे या नहीं। ऐसे में इस पूरे विचार-विमर्श में तथ्यों का भारी अभाव है।’
वह कहते हैं, ‘हमारे पास इसे देखने का सिर्फ एक ही तरीका है। अब से दस साल पहले तक भारत में तथ्यों के आधार पर चर्चा होती थी, जिसमें मेरिट और डिमेरिट सब्सिडी को परिभाषित किया जाता था। हमारे पास इसे देखने का यही एक तरीका है जो भारतीय वित्तीय व्यवस्था के अनुरूप है।’
‘इस आधार पर फ्री राशन और फ्री शिक्षा मेरिट सब्सिडी है। लेकिन अगर किसी छात्र को शिक्षा देना मेरिट सब्सिडी है तो क्या उसे लैपटॉप देना डिमेरिट सब्सिडी है, ये कहना मुश्किल है।’
लेकिन सब्सिडी चाहे मेरिट की श्रेणी में आए अथवा डिमेरिट की श्रेणी में, दोनों सूरत में टैक्सपेयर का पैसा खर्च होता है।
लोग गरीबी से बाहर या गरीबी बढ़ी?
बहस इस बात पर भी है कि अक्सर गरीबों को आगे रखकर मुफ्त योजनाओं या फ्रीबीज का ऐलान किया जाता है। साथ ही सरकार ये भी दावा करती है कि उसके कार्यकाल के दौरान देश ने खूब तरक्की की है और करोड़ों लोग गरीबी रेखा से बाहर आए हैं।
पिछले दिनों मोदी सरकार के इस दावे के बाद कि 25 करोड़ लोग गऱीबी रेखा से बाहर आए हैं, कई राजनीतिक दलों के अलावा सोशल मीडिया पर कुछ लोग सवाल पूछने लगे कि 25 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आए हैं तो 80 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन क्यों?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ुद राज्यसभा में इस सवाल को कुतर्क बताया और इसका जवाब कुछ इस तरह दिया, ‘हम जानते हैं कोई बीमार व्यक्ति हॉस्पिटल से बाहर आ जाए ना तो भी डॉक्टर कहता है कुछ दिन इसको ऐसे-ऐसे संभालिए, खाने में परहेज रखिए। क्यों...कभी दोबारा वहां मुसीबत में ना आ जाए। ’
‘जो गरीबी से बाहर निकला है ना उसको ज्यादा संभालना चाहिए ताकि कोई ऐसा संकट आकर के फिर से गरीबी की तरफ लपक ना जाए। इसलिए उसको मजबूती देने का समय देना चाहिए। ताकि वो फिर से वापिस उस नर्क में डूब न जाए।’ (bbc.com/hindi)
जय सुशील
किसी भी विदेशी भाषा मसलन जर्मन, रूसी, स्पैनिश से अंग्रेजी में किए गए अनुवाद से किसी तीसरी भाषा में अनुवाद करना आलस्य का प्रतीक है। यह काम भारत में कम से कम हिंदी और उर्दू में तो होता ही है। संभवत बांग्ला या अन्य भाषाओं में भी होता होगा।
अनुवादक यह नहीं समझते कि एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद होते ही कई चीज़ें छूटती और बदलती हैं लेकिन वो यह सोचे बगैर अंग्रेजी से उठा कर अनुवाद कर देते हैं और वाह-वाही बटोरते रहते हैं।
क्या आपने कभी सुना है कि अंग्रेजी जानने वाले ने किसी तीसरी भाषा से स्पैनिश उपन्यास का अनुवाद किया हो। पश्चिम के देशों में आम तौर पर किसी भाषा से अनुवाद करना हो तो लोग वो भाषा सीखते हैं मसलन डेजी रॉकवेल हिंदी और उर्दू से अनुवाद करती हैं। इसी तरह और भी लोग हैं। एक अनुवादक हैं (जिनका नाम भूल रहा हूं) वो पोलिश और स्पैनिश से अंग्रेजी में अनुवाद करती हैं। अनुवादकों ने पूरा जीवन लगाया है भाषा सीखने में तब अनुवाद करते हैं और इसी कारण अच्छा अनुवाद होता है अंग्रेजी में।
बहुत साल पहले महाश्वेता देवी की एक किताब का अनुवाद हिंदी में पढ़ते हुए बहुत ही खराब लगा। वही किताब बाद में अंग्रेजी में ठीक लगी। मेरा अनुमान है कि हिंदी अनुवादक ने अंग्रेजी अनुवाद से हिंदी में किया था जबकि बांग्ला से हिंदी बोलने समझने वाले बहुत लोग हैं भारत में। मैंने तमिल से अंग्रेजी में हुए अनुवाद का हिंदी अनुवाद भी देखा है और यह आलस्य भरा रास्ता है।
हिंदी भाषी लोगों को तो चाहिए कि वो अंग्रेजी के अलावा एक और भाषा जानें और उससे अनुवाद करें। पूरी दुनिया में अंग्रेजी की द्धद्गद्दद्गद्वशठ्ठ4 को चुनौती दी जा रही है लेकिन ये चुनौती दूसरी भाषाएं सीखकर ही दी जा सकती है। हवा हवाई नहीं होता है काम।
सनियारा खान
बोलनेवाले लोगों के लिए लिखे गए कुछ तथ्यों के बारे में पढऩे का मौका मिला। काफी रोचक भी लगा और खतरनाक भी। पैथोलॉजिकल झूठ को माइथोमेनिया और स्यूडोलोजिया फैंटाका नाम से भी जाना जाता है। इसे एक प्रकार से असामाजिक व्यक्तित्व विकार के रूप से भी माना जाता है। ऐसे लोग अपने बारे में गलत इतिहास गढ़ कर दूसरों को प्रभावित करते हैं। पैथोलॉजिकल झूठ बोलने वाले लोग अत्याधिक आत्मकेंद्रित, वाकपटु और रचनात्मक होने के साथ साथ कुछ ज्यादा ही मंझे हुए कलाकार होते हैं। इसे एक बड़ा रहस्यमय रोग भी कहा जा सकता है। क्यों कि वे लोग कई बार तथ्य और कल्पना के बीच का फर्क समझ ही नहीं पाते हैं या फिर समझना ही नहीं चाहते हैं। अगर उनसे कुछ सवाल पूछ लिया जाए तो वे उस खास सवाल के बारे में खामोश रह कर भी लगातार बोलकर सवाल पूछने वाला व्यक्ति को ही बूरी तरह से भ्रमित कर देते हैं। एक अध्ययन से ये पता चला है कि पैथोलॉजिकल झूठ बोलने वाला एक व्यक्ति जितना अधिक झूठ बोलते जाता है, उसके लिए आगे झूठ बोलना उतना ही आसान होता जाता है। ये अलग बात है कि पैथोलॉजिकल झूठ को हमेशा पकड़ पाना मुश्किल होता है। वे लोग इस बात में पारंगत होते हैं कि कैसे एक झूठ को सशक्त कहानी बना कर और कह कर लोगों को आसानी से आश्वस्त करके प्रभावित किया जाए। वाशिंगटन पोस्ट के कार्टूनिस्ट टॉम टॉल्स ने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को भी एक बार पैथोलॉजिकल झूठा कहा था।
पैथोलॉजिकल झूठ बोलने वाले लोगों को थोड़ी मुश्किल से ही सही, लेकिन पहचाना जा सकता है। कुछ जगह पर अपनी बनाई कहानियों से वे खुद को वीर और अत्यंत साहसी दिखा कर लोगों को मोहित करने की कोशिश करते हैं। और कुछ अन्य जगह पर कुछ अलग कहानियां बना कर खुद को पीडि़त और सताया हुआ दिखाकर सहानुभूति बटोरने में व्यस्त रहते हैं। कभी कभी ये भी देखा गया कि वे लोग एक ही कहानी को बदल बदल कर पेश करते करते कई बार पहले कही बातें बाद में भूल भी जाते हैं।
चिकित्सा साहित्य में 100 साल पहले ही पैथोलॉजिकल झूठ के बारे में बताया गया था। 1891 में मनोचिकित्सक एंटोन डेलब्रूक ने पहली बार चिकित्सा साहित्य में पैथोलॉजिकल झूठ के बारे में बताया था। इसे एक जटिल विषय माना जाता है। लेकिन इस बात से सभी सहमत हैं कि इस विषय पर और ज़्यादा व्यवस्थित शोध होना चाहिए। क्यों किपैथोलॉजिकल झूठ समाज को साधारण मानवीय झूठ से ज़्यादा भ्रमित करता है। ऐसे बीमार लोगों से प्रभावित समाज कई बार झूठ और सच में अंतर समझने लायक ही नहीं रहता हैं। तब ऐसे समाज की बुनियाद हिलने लगती है।
डॉ. आर.के. पालीवाल
इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को असंवैधानिक करार कर और लोकतंत्र में चुनावी पारदर्शिता के लिए इन बॉन्ड का तमाम ब्यौरा केंद्रीय चुनाव आयोग की वेबसाईट पर अपलोड कराने का आदेश देकर सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने देर आए दुरुस्त आए का मुहावरा चरितार्थ करते हुए एक धीर गंभीर फैसला कर ऐतिहासिक काम किया है। एक तरफ सरकार पारदर्शिता की बात करती है और भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की वकालत करती है और दूसरी तरफ़ चुनावी चंदे को उस आम जनता की नजरों से छिपाने की तरफदारी करती है जिसने अपना कीमती वोट देकर उसे इतना शक्तिशाली बनाया है।
सर्वोच्च न्यायालय की सख्ती के बावजूद अभी तक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की तरफ से इलेटोरल बॉन्ड की आधी अधूरी सूचनाएं ही बाहर आई हैं। लोकतंत्र और चुनावी प्रक्रिया को साफ सुथरी देखने के लिए प्रयास करने वाले संगठनों और पत्रकारों ने इसी आधी अधूरी सूचना के आधार पर जो विश्लेषण प्रस्तुत किए हैं वह चौंकाने वाले हैं। इन विश्लेषणों से जो निष्कर्ष निकल रहे हैं वह इंगित करते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड की कालीन के नीचे कितनी ज्यादा गंदगी छिपी है। यही कारण है कि केंद्र सरकार इन बॉन्ड की सूचना को सार्वजनिक करने के खिलाफ थी और भारतीय जनता पार्टी के अधिकांश नेता इस मुद्दे पर मुखर नहीं हो पा रहे हैं। जहां तक विपक्षी दलों का सवाल है उनमें भी काफी राजनीतिक दल ऐसे हैं जिन्हें इलेक्टोरल बॉन्ड का भारतीय जनता पार्टी से काफी कम ही सही लेकिन अच्छा खासा लाभ मिला है। जहां विपक्षी दलों की सरकार थी वहां की कंपनियों ने उन्हें भी चंदा दिया है इसलिए सारे विपक्षी दल भी इस मुद्दे पर सरकार को जोशो खरोस से नहीं घेर सकते। उदाहरण के तौर पर तृणमूल कांग्रेस जैसे पश्चिम बंगाल तक सीमित क्षेत्रीय राजनीतिक दल को भाजपा के बाद सबसे अधिक चंदा मिला है और उसकी चंदा राशि कांग्रेस से भी अधिक है।
इस मुद्दे पर अब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को भी कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। कपिल सिब्बल ने इस विवादित मुद्दे पर संघ की चुप्पी को आश्चर्यजनक बताया है। हाल ही में दुबारा संघ के सर कार्यवाह चुने गए दत्तात्रेय होसबोले ने इलेक्टोरल बॉन्ड को एक प्रयोग कहकर पल्ला झाड़ लिया। बडी चतुराई से उन्होने इसके पक्ष या विपक्ष में कुछ नहीं कहकर संघ की मु_ी बंद रखी है। संघ की चुप्पी से यह आभास होता है कि वह भी इसके पक्ष में खुलकर बोलने से कतरा रहा है। दूसरी तरफ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी इस मुद्दे पर सबसे ज्यादा मुखर है। केंद्रीय चुनाव आयोग के उस पत्र के जवाब में जिसमें राजनीतिक दलों से इलेक्टोरल बॉन्ड से प्राप्त धन की जानकारी मांगी है पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी ने लिखा है कि हमारा दल शुरु से इस योजना के खिलाफ था और सर्वोच्च न्यायालय में इसके खिलाफ हमने भी एक याचिका दायर की थी। हमारी पार्टी ने इसके लिए न कोई अकाउंट खोला और न इलेक्टोरल बॉन्ड से कोई चंदा लिया है। शायद मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी ही ऐसी प्रमुख पार्टी है जिसने इलेक्टोरल बॉन्ड को सिरे से खारिज किया है इसीलिए उसे इस योजना के खिलाफ पूरी मुखरता से बोलने का नैतिक अधिकार है। जहां तक अन्य राजनीतिक दलों की स्थिति है उनको इलेक्टोरल बॉन्ड से परहेज नहीं रहा और न उन्होंने कभी राजनीतिक चंदे की पवित्रता पर जोर दिया। उनके पेट का दर्द यह है कि केन्द्र में सत्ता पर काबिज दल भाजपा ने उनसे कई गुणा ज्यादा चंदा वसूल लिया। उदाहरण के तौर पर भाजपा को कांग्रेस से पांच गुणा ज्यादा चंदा मिला। यदि कांग्रेस को भी भाजपा के लगभग बराबर चंदा मिल जाता तो उसके पेट में मरोड़ नहीं उठती और उसका चेहरा भी भाजपा की तरह चमक जाता। चंदे की यह स्थिति केवल भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों की ही नहीं है। यही हालत क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की भी है। उदाहरण के तौर पर तमिलनाडु में सत्ताधारी दल डी एम के को जो चंदा मिला है उसकी तुलना में विपक्षी दल ए ई ए डी एम के को नगण्य चंदा मिला है। इस परिपेक्ष्य में अधिकांश राजनीतिक दलों का रूदन नकली है। चंदे के इस धंधे पर मतदाताओं और विशेष रूप से प्रबुद्ध वर्ग को सबसे कड़ा प्रहार करना चाहिए क्योंकि यह हमारे लोकतंत्र को खोखला और बेहद प्रदूषित कर देगा।