विचार/लेख
टेसा वांग
बहुत कड़े मुक़ाबले में ताइवान के राष्ट्रपति चुनाव में विलियम लाई के जीतने के साथ जैसे ही सरगर्मी कम हुई, एक अप्रत्याशित विजेता का नाम चर्चा में है।
शनिवार को हुए राष्ट्रपति चुनाव में ताइवान के एक चौथाई मतदाताओं, जिनमें अधिकांश युवा हैं, ने एक ऐसे राजनेता वेन-जे को वोट किया, जो स्वतंत्र विचार वाले माने जाते हैं।
वेन की नई नवेली ताइवान पीपल्स पार्टी (टीपीपी) ने आठ सीटें जीती हैं, जो कि संसद में सत्ता तक भी पहुँच सकती है, जहाँ अभी किसी का बहुमत नहीं है।
हालांकि टीपीपी की बढ़त अभी उतनी नहीं है और ख़ुद को वेन-जे तीसरे नंबर पर रहे हैं लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि उन्होंने ताइवान के राजनीतिक परिदृश्य को हमेशा के लिए बदल कर रख दिया है।
यहां लंबे समय से दो पार्टियों का दबदबा था, कोमिंतांग (केएमटी) और विलियम लाई की डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (डीपीपी)।
अटलांटिक काउंसिल्स ग्लोबल चाइना हब के नॉन रेजिड़ेंट फ़ेलो और राजनीति विज्ञानी वेन-ती सुंग के अनुसार, ‘अब यह दो पार्टियों का मुक़ाबला नहीं रहा, यह त्रिकोणीय हो गया है।’
हालांकि को वेन-जे ताइपे के पूर्व मेयर रहे हैं और मंझे हुए राजनीतिज्ञ हैं लेकिन राष्ट्रपति पद की दौड़ में यह उनका पहला मौक़ा था।
उन्होंने अपने चुनाव प्रचार अभियान में चीन और ताइवान के रिश्ते में मध्य-मार्ग अपनाते हुए नीले और हरे को हटाने का अह्वान किया- नीला केएमटी के और हरा डीपीपी के झंडे का रंग है।
नौजवानों में लोकप्रिय
साल 2016 से ही ऐसी अन्य पार्टियां रही हैं, जिन्होंने चुनावों में कुछ सफ़लता हासिल की। लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि टीपीपी का प्रदर्शन बताता है कि मतदाता अब अधिक बहलुवादी राजनीतिक माहौल चाहते हैं और यह भावना ताइवान के नौजवानों में अधिक है।
शनिवार को जब नतीजे आए तो बहुत से नौजवान निराश हुए। कुछ ने तो सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों पर चुनावी धांधली के भी आरोप लगाए।
आकर्षण के केंद्र में ख़ुद को वेन-जे थे जो सीधी बात करने वाले राजनेता हैं तो कभी-कभार आक्रामक रुख़ अपना सकते हैं।
युवा लोग उन्हें उत्सुकता और अपनापन से देखते हैं, हालांकि मर्दवादी और समलैंगिकता विरोधी माने जाने वाले उनके कुछ बयानों को लेकर उनकी आलोचना भी हुई है।
लेकिन नौजवानों में मौजूदा राजनीतिक पार्टियों को लेकर धैर्य टूट रहा है, जो लंबे समय से चले आ रहे आर्थिक मुद्दों को हल नहीं कर पाईं, जैसे, कम वेतन और महंगे आवास का मुद्दा, जिससे युवा पीढ़ी सबसे अधिक प्रभावित है।
युवा पीढ़ी ने साल 2000 से ही देखा है कि शासन में बारी-बारी से डीपीपी या केएमटी ही शासन करती है, हालांकि इस बार विलियम लाई ने यह चक्र तोड़ा है।
पुरानी पार्टियों का ज़माना ख़त्म होगा
28 साल के सैनिक हुआंग ने बीबीसी से कहा, ‘एक नई पार्टी डीपीपी और केएमटी का ज़माना ख़त्म कर रही है। यह नई पीढ़ी के उठने का समय है और टीपीपी मुझे ज़्यादा नई लग रही है।’
नेशनल चेंगची यूनिवर्सिटी में राजनीतिक विज्ञान पढ़ाने वाले लेव नेचमैन ने कहा, ‘वैकल्पिक राजनीति की यह मांग इतनी अधिक नहीं है कि राजनीति तंत्र को बिखरा दे, लेकिन यह अन्य पार्टियों को और व्यापक मतदाताओं तक पहुंचने के लिए मजबूर करती है।’
सुंग कहते हैं कि लेकिन साथ ही यह टीपीपी को भविष्य में एक ताक़त और ताइवान में दूसरी राजनीतिक शक्ति बनने का मौक़ा भी देती है।
को वेन-जे का मत प्रतिशत, केएमटी के उम्मीदवार हू यू-इह से महज 7त्न कम था। लेकिन चीज़ें तभी सही दिशा में जाएंगी जब वो सधा हुआ क़दम उठाएंगे।
कार्नेगी चाइना में नॉन रेजिडेंट फ़ेलो इयान चोंग ने कहा, ‘टीपीपी का समर्थन मज़बूत है लेकिन सवाल है कि क्या वो टिक पाएगी?’
‘यह इस बात पर निर्भर करेगा कि इसकी टीम ज़मीन पर कितनी है और विधायिका में इसका कैसा प्रदर्शन रहता है और साथ ही सिद्धांतों, नीतियों और मूल्यों पर भी बहुत कुछ निर्भर होगा।’
टीपीपी की चुनौतियां
वर्तमान में टीपीपी उन मतदाताओं को आकर्षित करने की कोशिश में है जो नाख़ुश हैं और को वेन-जे पर ही पूरी पार्टी टिकी है।
वो कहते हैं, ‘सामाजिक आंदोलन के लिए शख़्सियतों की ज़रूरत होती है। लेकिन इसे आगे के लिए टिकाए रखने और अपने आइडिया से समर्थकों को आकर्षित करने की ज़रूरत होती है।’
टीपीपी समर्थक हैरिसन वू ने कहा, ‘मुझे लगता है कि को वेन-जे को अब अपनी पार्टी को और व्यवस्थित करना होगा। वो भी जानते हैं कि यह वन मैन पार्टी है, उन्हें अपने उत्तराधिकारियों को विकिसित करना होगा। क्योंकि वो खुद 64 साल के हो चुके हैं।’
शनिवार को विलियम लाई से हारने के बाद को वेन-जे ने माना कि उनका रास्ता अभी लंबा है और वो इसे तय करेंगे।
उन्होंने अपने समर्थकों से कहा, ‘मैं आप लोगों से कहूंगा कि हार न मानें क्योंकि मैंने हार नहीं माना है, टीपीपी हार नहीं मानेगी। मैं जानता हूं कि आज रात आप सभी दुखी हैं। लेकिन असल में हमारे पास दुखी होने सा समय नहीं है।’
उन्होंने कहा, ‘अगर हम अगले चार सालों में धैर्य पूर्वक काम जारी रखते हैं तो हम और अधिक पहचान के साथ जीतेंगे और अधिक ताक़त हासिल करेंगे। अगली बार हम सत्ता संभालेंगे और निश्चित रूप से इस देश का भी भरोसा जीतेंगे। हमने पहले ही काफ़ी चमत्कार किए हैं।’ (bbc.com)
-दिलीप कुमार
आजकल एनिमल फिल्म चर्चा का विषय बनी हुई है। बनना भी चाहिए, क्योंकि हिन्दी सिनेमा की दूसरी सबसे कामयाब फिल्म बन गई है। मैं रणबीर का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं, फिर भी एनिमल फिल्म मैं झेल नहीं पाया, और फिल्म आधी छोडक़र ही चला आया। मुझे तो विचित्र नहीं लगा, और भारी मन से इस बात को स्वीकार करता हूँ, क्योंकि मैं फिल्म देखने से पहले कहानी, निर्देशक, एक्टर सब कुछ समझने के बाद अपने तीन घंटे खर्च करता हूँ। मैं जानता हूं एक फिल्म बनने में कई परिवारों के लोगों की मेहनत शामिल होती है, इसलिए फिल्म न देखने का आव्हान मैं कभी नहीं कर पाता, अत: लिख देता हूं फिल्म मुझे पसंद नहीं आई, हालांकि मेरी पसंद सार्वभौमिक सत्य नहीं है, हो सकता है आपको पसंद आए।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, हर कोई अपने विचार रख सकता है। हमारे विचार ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंचते, लेकिन जावेद अख्तर साहब जैसे नामचीन हस्तियों का बोलना मतलब पूरे समाज में उनका भाषण असर करता है। जावेद अख्तर साहब ने कहा- ‘एनिमल फिल्म में नायक- नायिका को मारता है, और कहता है मेरे जूते चाटो’ गर ऐसी फिल्में ब्लॉकबस्टर हो रहीं हैं तो यह समाज के लिए बहुत खतरनाक बात है’। यह सुनकर एनिमल फिल्म के रायटर संदीप रेड्डी वांगा ने जावेद अख्तर साहब की रायटिंग स्किल पर ही सवाल उठा दिया, जो न काबिले बर्दाश्त है। आप अपनी बात रख सकते थे, कोई प्रश्न कर सकते थे, जावेद अख्तर साहब सम्मानित इंसान हैं, वो खुद बड़ी विनम्रतापूर्वक जवाब देते, मुझे संदीप का जवाब अभद्र लगा हमें अपने से बड़ों के प्रति ऐसे कटुता के शब्द नहीं बोलने चाहिए।
मैं जावेद अख्तर साहब से पूर्णत: सहमत हूँ, ऐसी फि़ल्में समाज के लिए हानिकारक हैं, लेकिन मेरा एक छोटा सवाल यह भी है ‘जैसा कि मैंने पहले बोला कि मेरी पसंद सार्वभौमिक सत्य नहीं है, और न ही जावेद अख्तर साहब की फिर भी वो कौन से लोग हैं जिन्होंने एनिमल फिल्म को’ ऑल टाइम ब्लॉकबस्टर’ बना दिया? सवाल तो करना पड़ेगा। मैं जवाब देना चाहता हूं, वो इसलिए कि ‘सिनेप्रेमी युवाओं का ढंग हमेशा ही विपरीत रहा है’। जी हां यह बात मैं बड़ी जिम्मेदारी से कह रहा हूं।
जब हिन्दी सिनेमा में अमर प्रेम, आराधना, गोलमाल, चुपके-चुपके जैसी शुद्ध पारिवारिक फि़ल्में बन रही थीं, दूसरी ओर पार, बाजार, चश्मे बद्दूर, अर्धसत्य, सद्गति, स्पर्श, मासूम, आक्रोश जैसी कला फिल्में बन रहीं थीं, तब कौन से लोग थे, जिन्होंने डॉन, दीवार, जंजीर जैसी फिल्में इन फिल्मों को खारिज करते हुए नई धारा की फिल्में चलने लगी थीं। जावेद अख्तर साहब सलीम साहब ने हिन्दी सिनेमा की दुनिया ही बदल डाली थी। मैं अपनी कोई हैसियत नहीं समझता कि जावेद साहब से सवाल कर सकूं फिर भी अभिव्यक्त की स्वतंत्रता है तो पूछना चाहूँगा ‘आदरणीय जावेद अख्तर साहब मेरी गुस्ताखी मुआफ कीजिएगा, डॉन, दीवार, जंजीर, शराबी फिल्मों से क्या सीख मिलती है? समाज क्या सीखेगा? आप दार्शनिक इंसान हैं आप बेहतर समझा सकते हैं, फिर भी मेरे शब्दों से कोई ठेस पहुंची हो तो आप मेरे बड़े हैं, मैं आपका छोटा हूं मुझे मुआफ कर दीजिएगा, क्योंकि आप मेरे अपने हैं।
चूंकि आप तक मेरे सवाल नहीं पहुंच पाएंगे।फिर भी मुझे अपने सवालों के जवाब तो चाहिए थे, फिर मैंने खुद को समझाया कि फिल्में सिर्फ मनोरंजक उद्देश्य से देखी जानी चाहिए। ज्यादा भावुकतापूर्ण उद्देश्य से फि़ल्मों को देखना हानिकारक हो सकता है। समाज फि़ल्मों से प्रभावित होता है, फिर भी, हिन्दी सिनेमा की अधिकांश फिल्मों में कानून की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं, समाज में अपराधीकरण का प्रमुख कारण यह हो सकता है।
शाहरुख खान की डर, बाजीगर, अंजाम फिल्म देखकर तब के युवाओं ने सिर्फ और सिर्फ लड़कियों को परेशान करना सीखा होगा। अजय देवगन की संग्राम फिल्म को देखकर तब के युवाओं ने लडक़ी को अपने जूते पर नाक रगडऩा ही सीखा होगा। अन्यथा ऐसी फिल्में देखकर सीख क्या मिलेगी? हिन्दी फिल्मों में अधिकांश फिल्मों में लड़कियों, महिलाओं की बेज्जती ही की जाती रही है, एक फिल्म है, रानी मुखर्जी एक ऐसी लडक़ी का किरदार करती हैं, जिसमें उस लडक़ी किरदार का बलात्कार हो जाता है, वही लडक़ी अदालत के जरिए उस रेपिस्ट से पत्नी का हक मांगती है, बताइए कितनी दु:खित बात है। 90 के दशक में अधिकांश फिल्मों में नायिका नायक के पीछे भागती हुई बार-बार बेइज्जत करती हुई दिखाई देती है। क्या असल में ऐसे होता है?
अमिताभ बच्चन की शराबी फिल्म के बाद न जाने कितने युवाओं ने शराब पीना शुरू किया होगा। आज फिल्मों के पोस्टर एक्टर के हाथ में सिगरेट के बिना बनते ही नहीं है। युवाओं को इससे क्या सीख मिलेगी?अंतत: मैंने खुद को समझाया कि फिल्मों को मनोरंजक उद्देश्य से देखना चाहिए, जो बात सीखने लायक हो सीख लो अन्यथा बुरे विसंगति वाले लोगों से हम घिरे रहते हैं, हम यहां से भी सीख सकते हैं। जिसे बुरी आदतें सीखना होता है सीखता ही है, उसे कोई रोक नहीं सकता, लेकिन युवाओं का मन ब्रेनवॉश तो होता ही है। आज के जो बुजुर्ग हैं, वो शराबी, डॉन, जैसी फिल्में बड़ी चाव से देखते थे, आज उन्हें एनिमल बर्दाश्त नहीं हो रही, आज के युवा जो एनिमल बड़े चाव से देख रहे हैं, भविष्य में उन्हें आने वाली फिल्में बर्दाश्त नहीं होंगी। क्योंकि समय समय पर सिनेमा बदलता है, और लोगों की रुचि बदलती है।
पहले पारिवारिक, संजीदा, सामाजिक, थ्रिलर, सस्पेंस फिल्में बन रहीं थीं, फिर एक विधा आई एक्शन। एडल्ट फि़ल्मों की भी भरमार है, जिनमे नग्नता होती है, उसमे लिखा होता है, यह फिल्म फलाने वर्ग के लिए है। हमें उदारवादी होना पड़ेगा, अब समाज बदल रहा है। हमेशा बदलता रहा है, मैं एनिमल फिल्म को वाहियात श्रेणी में रखते हुए भी यही कहना चाहता हूं, कि आप को जो फिल्म पसन्द आए तो देखिए अन्यथा छोड़ दीजिए, और अपनी पसंद की फिल्मों का इंतजार कीजिए, अब तो ढेर सारे ऑप्शन हैं। वहीं संदीप रेड्डी ने जावेद अख्तर साहब को जो बोला है, उसमे भी हैरां नहीं हूं, क्योंकि अब बड़ों की इज्जत न करने का रिवाज़ भी ट्रेंड में है। हम सब को गर अपने जीवन को कुढ़ते हुए नहीं बिताना तो उदारवादी बनना पड़ेगा, क्योंकि समाज चल पड़ता है, हम पीछे छूट जाते हैं। क्योंकि ‘सिनेप्रेमी युवाओं का ढंग हमेशा ही विपरीत रहा है’।
समरेंद्र शर्मा
राम नाम की चर्चा कोई नई नहीं है। चर्चा भी होती रही है, राम नाम का जाप भी होता है, लेकिन राम नाम का जो दर्शन है, उसका अनुभव नहीं होता। क्योंकि हम राम नाम की चर्चा या जाप कर रहे हैं, तो हमारे जीवन में रामायण चलनी चाहिए। नहीं चल रही है, तो इसका आशय गोस्वामी जी बताते हैं कि अब भी बुद्धिरूपी अहिल्या पत्थर बनी हुई है। दुराशा की ताडक़ा मौजूद है और मन में मोह का रावण बना हुआ है।
धर्म-कर्म को लेकर भी असमंजस की स्थिति रहती है। दरअसल, जब हम अहंकारग्रस्त होकर धर्म के बारे में फैसला करते हैं, तो हम धर्म के केवल शब्दों को पकड़ते हैं और उसके भाव को भूल जाते हैं।
राम तो सदैव से हैं, लेकिन हमको कब पता कि राम हैं, जब राम जी प्रकट किए गए। उनकी लीलाओं का विस्तार हुआ और संसार की समस्याओं का समाधान हुआ। ऐसे ही जब तक हम राम जी को मन में प्रकट नहीं करेंगे। हमारे जीवन में रामायण सक्रिय नहीं हो सकती।
मौजूदा समय में राम नाम को लेकर सभी एकमत हैं। असल मतभेद एक-दूसरे से है। दोनों एक दूसरे की बात न सुनने तैयार हैं न ही समझने के लिए तैयार हैं। आवश्यकता ऐसे व्यक्ति की है, जो दोनों की बात को सुने, समझे और एक दूसरे को समझाए। राम नाम ही ऐसा माध्यम है, जो एक दूसरे को मिला सकता।
तुलसीदासजी और कबीरदासजी के ग्रंथों को पढऩे से लग सकता है कि दोनों की मान्यताएं एकदम अलग-अलग हैं, लेकिन राम नाम के संदर्भ में दोनों एक दिखाए पड़ते हैं। रूप और अरूप को लेकर विवाद हो सकता है, लेकिन नाम के जरिए दोनों को मिलाया जा सकता है।
1990 में राम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़े बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा है कि वो केवल रथ के सारथी रहे लेकिन ये भाग्य का फैसला है कि एक दिन राम मंदिर हकीकत बन जाएगा।
अख़बार द इंडियन एक्सप्रेस लिखता है कि ‘राष्ट्रधर्म’ नाम की एक हिन्दी पत्रिका के लिए लिखे एक लेख में लालकृष्ण आडवाणी ने 33 साल पहले की घटनाओं को याद किया और कहा कि वो राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के लिए अयोध्या जाना चाहते हैं।
उन्होंने ये भी कहा कि उन्हें खुशी है कि भगवान राम ने मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के लिए अपने भक्त को चुना है।
‘श्री राम मंदिर: एक दिव्य स्वप्न की पूर्ति’ नाम का ये लेख, 76 साल पुरानी इस पत्रिका के 15 जनवरी के अंक में छपने वाला है। इसमें लालकृष्ण आडवाणी ने 1990 में सोमनाथ मंदिर से अयोध्या तक निकाली गई रथ यात्रा को याद करते हुए लिखा, ‘मैं तो केवल सारथी था, नियति ने तय कर लिया था कि अयोध्या में श्रीराम का मंदिर अवश्य बनेगा।’
पत्रिका का ये अंक 22 तारीख को अयोध्या में होने वाले प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम में शामिल होने वाले सभी लोगों को दिया जाएगा।
उन्होंने लिखा, ‘रथ यात्रा शुरू होने के कुछ दिन बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं सिर्फ एक सारथी था। रथ यात्रा का मुख्य संदेशवाहक रथ ही था और पूजा के योग्य था क्योंकि यह मंदिर निर्माण के पवित्र उद्देश्य को पूरा करने के लिए श्री राम की जन्मस्थली अयोध्या जा रहा था।’
उन्होंने यात्रा में मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका के बारे में लिखा कि मोदी उस वक्त अधिक चर्चित नहीं थे और वो यात्रा के समय उनके साथ थे।
उन्होंने लिखा, ‘जब प्रधानमंत्री मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा करेंगे, उस वक्त वो भारत के हर नागरिक का प्रतिनिधित्व कर रहे होंगे। मुझे उम्मीद है कि भगवान राम के मूल्यों को सीखने में ये मंदिर लोगों की मदद करेगा।’
लोग अपनी आस्था छिपाकर जी रहे थे- आडवाणी
अख़बार के अनुसार आडवाणी ने लिखा है कि 1990 के दौर में उन्हें इस बात का अहसास नहीं था कि उनकी रथ यात्रा एक बड़े आंदोलन का रूप ले लेगी। उन्होंने मंदिर को हक़ीक़त में बदलने और बीजेपी का वादा पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को बधाई दी है और लिखा है, ‘मोदी उस वक्त लोगों के सामने नहीं आए थे और मेरे साथ थे। भगवान राम ने अपने भक्त को मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के लिए चुना है।’
उन्होंने यात्रा के बारे में लिखा कि इसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया।
वो लिखते हैं, ‘मैंने देखा कि मंदिर के लिए लोगों का समर्थन बढ़ता जा रहा था। ‘जय श्री राम’ और ‘सौगन्ध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे’ का नारा चारों तरफ गूंज रहा था।’
अखबार के अनुसार वो लिखते हैं, ‘रथ यात्रा ने मुझे कुछ ऐसे अनुभव दिए जिनका मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। सुदूर गांवों में अनजान ग्रामीण रथ देखकर मेरे पास आते थे। वो लोग भावुक हो जाते थे। वो मुझे बधाई देते, फिर भगवान राम के नारे लगाते और चले जाते।’
वो लिखते हैं कि वो इस बात से आश्वस्त हो गए थे कि हजारों लोग अयोध्या में राम मंदिर का सपना देखते हैं लेकिन वो अपनी आस्था छिपाकर जी रहे थे।
आडवाणी ने लिखा आखिरकार 22 जनवरी को हजारों गांववालों की छिपाकर रखे गए सपने सच्चाई का रूप लेंगे।
उन्होंने ये भी लिखा कि उनके सामने ये एक ऐसा मौका है जब वो लंबे वक्त तक अपने वरिष्ठ रहे नेता अटल बिहारी वाजपेयी को याद कर रहे हैं। 2018 में वाजपेयी का निधन हो गया था। (bbc.com/hindi)
नीदरलैंड्स के हेग में मौजूद इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में बीते दो दिनों से इसराइल के खिलाफ मामले की सुनवाई हो रही है।
कोर्ट से गुहार लगाई गई है कि वो ये तय करे कि इसराइल गज़़ा में फ़लस्तीनियों के साथ जो कर रहा है क्या वो जनसंहार है।
अंतरराष्ट्रीय अदालत में ये मामला दक्षिण अफ्ऱीका लेकर गया है। इसराइल ने उसके लगाए आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए इन्हें ‘बेबुनियाद’ कहा है।
पढि़ए दो दिन चली कार्ट की कार्रवाई में क्या कुछ हुआ, किसने क्या कहा।
क्या कहना है दक्षिण अफ्रीका का?
दक्षिण अफ्रीका का दावा है कि गजा में फिलीस्तीनियों के खिलाफ इसराइल जो कर रहा है वो जनसंहार है क्योंकि उसकी कार्रवाई ‘फिलीस्तीनी क्षेत्र में रहने वाले में एक नस्लीय समूह की बड़े पैमाने पर तबाही के उद्देश्य से है।’
दक्षिण अफ्रीका ने कोर्ट से गुजारिश की है कि वो इसराइल को अपना सैन्य अभियान बंद करने का आदेश दे।
दक्षिण अफ्रीका ने कहा है कि इसराइल 1948 में हुए जीनोसाइड कन्वेन्शन (जनसंहार समझौते) का उल्लंघन कर रहा है। इसराइल और दक्षिण अफ्रीका दोनों ने ही इस समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं और ये समझौता जनसंहार होने से रोकने के लिए दोनों पक्षों को प्रतिबद्ध करता है।
11 जनवरी को अदालत की 17 जजों की बेंच ने दक्षिण अफ्रीका के हाई कोर्ट के वकील टेम्बेका एनजीकुकेतोबी की दलील सुनी।
उन्होंने कहा कि इसराइल ने ‘जनसंहार के उद्देश्य से’ सैन्य कार्रवाई की है और ‘जिस तरह सैन्य हमले किए गए उससे ये साबित हो जाता है।’
उन्होंने कहा कि इसराइल की योजना गजा को ‘तबाह’ करने की योजना थी जिसके लिए ‘राष्ट्र के उच्चतम स्तर पर समर्थन मिला।’
वहीं मामले में दक्षिण अफ्रीका की तरफ से पैरवी कर रही आदिला हाशिम ने कोर्ट से कहा, ‘यहां हर रोज संपत्ति, सम्मान और मानवता के लिहाज से फिलीस्तीनी लोगों का नुकसान बढ़ रहा है और इसकी कोई भरपाई नहीं का जा सकती।’
‘कोर्ट के आदेश के अलावा कोई भी और चीज़ नहीं जो इस कष्ट से निजात दिला सके।’
इसराइल की क्या रही प्रतिक्रिया?
इसराइली क़ानूनी सलाहकार ताल बेकर ने कोर्ट में कहा कि दक्षिण अफ्रीका सच को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहा है, वो इसराइल-फिलीस्तीन संघर्ष के बारे में ‘सच से परे व्यापक विवरण पेश कर रहा है।’
12 जनवरी को कोर्ट में अपनी दलील शुरू करते हुए ताल बेकर ने ये स्वीकार किया कि गज़़ा में आम नागरिक जो कष्ट झेल रहे हैं वो ‘त्रासदी है’, हालांकि उन्होंने ये भी कहा कि फिलीस्तीनी चरमपंथी संगठन हमास ‘इसराइल और फ़लस्तीनियों को हो रहे नुक़सान को बढ़ाना’ चाहता है जबकि ‘इसराइल इसे कम करना चाहता है।’
उन्होंने कहा कि ‘ये दुख की बात है कि दक्षिण अफ्रीका ने कोर्ट के सामने बेहद तोड़-मरोड़ कर तथ्यात्मक और क़ानूनी तस्वीर को पेश किया है। ये पूरा मामला मौजूदा संघर्ष की हकीकत के संदर्भ से हटकर और जोड़-तोड़ वाले विवरण के आधार पर जानबूझकर बनाया गया है।’
गुरुवार को इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में मौजूद नहीं थे। हालांकि दक्षिण अफ्रीका की तरफ से दलील पेश किए जाने के बाद उन्होंने कहा कि ‘दक्षिण अफ्रीका चिल्लाने का ढोंग कर रहा है।’
उन्होंने दक्षिण अफ्रीका की आलोचना की और कहा कि जब सीरिया और यमन में ‘हमास के सहयोगी संगठन’ लोगों पर अत्याचार कर रहे थे, वो खामोश रहा था।
उन्होंने कहा, ‘हम आतंकवाद से लड़ रहे हैं, हम झूठ से लड़ रहे हैं। आज हमने एक उलटी दुनिया देखी। इसराइल पर जनसंहार का आरोप लगाया जा रहा है जबकि वो जनसंहार के खिलाफ लड़ रहा है।’
इसराइली सेना ने कहा है कि उसके हमलों में आम नागरिकों को कम से कम नुक़सान हो इसके लिए वो हर तरह के कदम उठा रहा है।
सेना ने कहा इन कदमों में हमलों के बारे में जानकरी देने वाले पर्चे गिराने, किसी इमारत को निशाना बनाने से पहले आम नागरिकों को फ़ोन कर उन्हें इमारत खाली करने को कहने और रास्ते में आम लोगों के होने पर हमला रोकने जैसे कदम शामिल हैं।
इसके साथ इसराइली सरकार भी बार-बार कहती रही है कि उसके हमलों का निशाना हमास के ठिकाने हैं और वो आम फिलीस्तीनी नागरिकों को अपना निशाना नहीं बनाना चाहता।
आरोन बराक कौन हैं?
इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस के 17 जजों की बेंच में आरोन बराक भी शामिल हैं। इसराइल ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व अध्यक्ष आरोन बराक को आईसीजे में बतौर जज नामित किया है।
आईसीजे के नियमों के अनुसार जजों की बेंच में अगर पहले से ही किसी मुल्क की राष्ट्रीयता के कोई जज नहीं हैं, तो वो अपने मामले की सुनवाई में शामिल होने के लिए एक एड-हॉक जज चुन सकते हैं जो बेंच का हिस्सा होंगे।
इसराइल में दक्षिणपंथी झुकाव पाली पार्टियां आरोन बराक की निंदा करती रही हैं। उन्हें नामित करने का इसराइल का फैसला यहां के सत्ताधारी गठबंधन के लिए भी चौंकाने वाला था।
आरोन बराक इसराइली सुप्रीम कोर्ट के पूर्व अध्यक्ष रहे हैं। वो बीते साल न्यायिक सुधारों के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के विवादित प्रस्ताव का विरोध करने के लिए जाने जाते हैं।
मामले की सुनवाई से पहले दक्षिण अफ्रीका ने भी पूर्व डिप्टी चीफ़ जस्टिस दिक्गांग मोसेनेक को अपनी तरफ से एड-हॉक जज नामित किया है।
विरोध प्रदर्शन क्यों हो रहे हैं?
एक तरफ कोर्ट के भीतर दोनों पक्ष एक-दूसरे के आमने सामने हैं तो दूसरी तरफ कोर्ट के बाहर भी हलचल कम नहीं थी। यहां पुलिस ने भारी सुरक्षा व्यवस्था की है ताकि फिलीस्तीनी समर्थक और इसराइली समर्थक एक-दूसरे के आमने-सामने न आने पाएं।
मामले की सुनवाई की प्रक्रिया दिखाने के लिए कोर्टरूम से लाइव फीड की व्यवस्था की गई है और इसके लिए कोर्ट के बाहर बड़ी-सी स्क्रीन लगाई गई है। इस स्क्रीन के नीचे कई लोग फिलीस्तीनी झंडे लिए खड़े हैं।
वहीं कई लोग अपने हाथों में नेल्सन मंडेला की तस्वीरें लिए हैं और गजा में मानवीय स्थिति के बारे में दलील पेश कर रही दक्षिण अफ्रीका की कानूनी टीम के सामने इसकी तुलना और मंडेला के दौर में दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद नीति के दौर करने की कोशिश कर रहे हैं।
इस जगह से करीब 100 मीटर की दूरी पर एक सांकेतिक सबात टेबल (कुछ धर्म को मानने वालों के लिए आराम करने का दिन) लगाया गया है।
इसके साथ लगी कुर्सियों को खाली छोड़ दिया गया है, लेकिन उन पर उन 130 से अधिक लोगों की तस्वीरें रखी हैं, जो हमास के हमले में या तो मारे गए हैं या फिर जिन्हें हमास के लड़ाके अपने साथ अगवा कर ले गए हैं।
आगे क्या होगा?
इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस संयुक्त राष्ट्र की सर्वोच्च कोर्ट है। इसका फैसला सैद्धांतिक और कानूनी रूप से उन देशों पर बाध्यकारी है जो आईसीजे के सदस्य हैं। इसराइल और दक्षिण अफ्रीका दोनों ही इसके सदस्य हैं, लेकिन कोर्ट के पास फैसले को लागू कराने की अपनी कोई शक्ति नहीं है।
ऐसे में जनसंहार के आरोप से जुड़ा जो भी फैसला आईसीजे देगी उसे केवल उसकी राय माना जाएगा। हालांकि इस पर पूरी दुनिया की नजर जरूर रहेगी।
इस मामले में आखिरी फैसला आने में सालों का वक्त लग सकता है, लेकिन दक्षिण अफ्रीका की गुजारिश पर कोर्ट जल्द इस मामले में अपना फैसला दे सकती है और इसराइल से अपना सैन्य अभियान रोकने के लिए कह सकती है।
बीते साल सात अक्तूबर को हमास ने गजा सीमा की तरफ से इसराइल पर हमला किया था। हमास के हमले में 1,300 लोग मारे गए और 240 लोगों को अगवा कर अपने साथ बंधक बनाकर ले गए।
इस हमले की जवाबी कार्रवाई में इसराइल ने पूरे गजा के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया।
हमास के नियंत्रण वाले स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा है कि इसराइल के हमलों में गजा में अब तक 23,350 लोगों की मौत हुई है, हजारों घायल हुए हैं जबकि लाखों विस्थापित हैं। यहां मरने वालों में बड़ी संख्या महिलाएं और बच्चे शामिल हैं।
दक्षिण अफ्रीका चाहता है आईसीजे ‘इसराइल को जल्द से जल्द गजा में अपना सैन्य अभियान रोकने’ का आदेश दे। लेकिन ये भी एक तरह से तय है कि इसराइल इस तरह के आदेश को नजरअंदाज करेगा और इसे लागू करने को लेकर उस पर दबाव नहीं बनाया जा सकेगा।
साल 2022 में रूस-यूक्रेन युद्ध का मामला भी आईसीजे पहुंचा था। आईसीजे ने रूस को आदेश दिया था कि वो यूक्रेन में ‘जल्द से जल्द अपना सैन्य अभियान रोके’। लेकिन रूस ने इस आदेश को नजरअंदाज कर दिया।
रूस-यूक्रेन युद्ध अगर कुछ और सप्ताह जारी रहा तो इसे दो साल पूरे हो जाएंगे। (bbc.com/hindi)
दीपाली अग्रवाल
एक ही किताब को मन की अलग-अलग तह में पढ़ा जाए तो उसका असर भी वैसा ही पड़ता है।
ओशो का एक व्याख्यान है जिसमें मिस्र के पिरामिड की चर्चा है। वे बता रहे हैं कि मन की स्थिति से उसके भीतर के तहखाने खुल गए थे। वह बना ही यूं है कि, जो जैसा अनुभव कर रहा होगा वैसे कमरे में वहां पहुँच जाएगा।
किताबों के साथ भी वैसा नहीं है? गुनाहों का देवता तीन बार पढ़ी, तीनों बार अलग परिस्थिति में, हर बार भाव अलग थे। सो आखिऱी पेज को पढ़ते वक़्त जो शेष मिला, वह भिन्न था, हर बार।
2017 में पढ़ी थी आषाढ़ का एक दिन, सिफऱ् इसलिए कि एक अच्छा नाटक है, पढऩा चाहिए यानी पढऩे के लिए पढ़ी थी। किताब में संवाद अच्छे लगे, बारिश और परिवेश भी। पात्रों के नाम मोहक महसूस हुए मातुल, निक्षेप, प्रियंगुमंजरी। जैसे मोहन राकेश ने शब्दकोश के सबसे सुंदर शब्द खोजने चाहे। मुझे भी सब आकर्षक लगा। इसी के साथ किताब पढ़ी और रख दी।
पिछले दिनों फिर नजऱ पढ़ी तो लगा दोहरा ली जाए। लेकिन इस बार की छाप उस बरस से अलग थी। किताब बिना बदले ऐसा जादू कैसे कर पाती हैं, मैं सोचती हूँ। मैं सोचती हूँ कि मल्लिका का वह उपन्यास जो उसने कोरे पृष्ठ पर ही लिख दिया, मैंने तब महसूस क्यों न किया। जबकि कालिदास तो उसका उल्लेख सरलता से करते हैं। वह उपन्यास जो कालिदास की तमाम रचनाओं से बड़ा था, जिसे एक नाटक में लेखक ने सरलता से लिख दिया। जिसे मैंने पहली बार में पढ़ा ही न था।
इस बार मैं शायद मल्लिका के घर के प्रकोष्ठ में थी, वहां जहां सिवा उसके अस्तित्व और उस ग्रंथ के कुछ न था। मुझे लगता है कि, किताबें मिस्र के पिरामिड जैसी हैं, मन की स्थिति से खुलते हैं उसके तहख़ाने।
के.जी.कदम
कल शाम घर आया ही था कि एक जानकार ने तुरंत दौडक़र सूचना दी कि शर्मा जी ने ‘क्रियेटा’ खरीद ली है।
मैंने स्कूटर स्टैंड पर लगाया और बोला इस ‘क्रियेटा’ की किस्त मुझे भरनी है क्या?
वे घबराकर बोले कि ‘नहीं तो.. मैं तो ऐसे ही आपको बता रहा था।’
मैंने कहा अच्छा किया.. बता दिया..जाइए .. उधर चौराहे पर चालीस आदमी और है.. जिनको अभी तक पता नहीं है कि शर्मा जी ने क्रियेटा खरीद ली है.. जाइये ‘बता दीजिए सबको’
आपका वहां आधा घंटा और निकल जायेगा।
वे श्रीमान नाराज होकर मुंह फुलाए निकल गये।
मैं अन्दर आने के बाद सोचने लगा कि देश में शायद 90 फीसदी लोग तो सिर्फ सूचना देने के लिए जिन्दा है ‘उधर की खबर पकड़ी.. इधर परोस दो.. बस’
और खबर फिर चटपटी मसालेदार या मजेदार हो तो परोसना और भी जरूरी हो जाता है.. खबर के महत्व अनुसार ये ही लोग चलकर, दौडक़र या घर में घुस घुसकर सूचना देते हैं।
किसी की बेटी ने प्रेम विवाह कर लिया तो पड़ोसी ने दौडक़र दौडक़र हांफते हुए सबको बताया ऐसी खबरें पेट में आफरा बनाती है समय पर उल्टी ना हो तो पेट फटकर मृत्यु भी हो सकती है।
फलानी आंटी के.. पता है, ब्रेस्ट में कैंसर है .. कल ही डॉक्टर ने सैंपल भेजा है। अभी तो साठ साल की भी नहीं है एक लडक़ी तो अभी कुंवारी बैठी है.. हे भगवान।
डॉक्टर ने अभी तो सिर्फ रिपोर्ट भेजी है, पर इन्होंने कर दिया डिक्लियर ले लिया मजा सूचना देने का फिर ऊपर से सहानुभूति का नाटक..
जबकि सच्चाई यह है कि उन आंटी से इनका कोई लेना देना ही नहीं पर ये खबरी जीव है खबर पकड़ी है तो आगे भी पहुंचानी है।
यही हाल सोशल मीडिया पर है.. कोई भी, कैसा भी वीडियो, मैसेज, खबर, वचन, प्रवचन कहीं से मिला नहीं कि करो उल्टी फिर दूसरों के मोबाइल में एक सज्जन रोज मेरे को श्री प्रेमानन्द जी महाराज के वीडियो भेजते है.. शायद इस भाव से कि बेटा मैंने अपने जीवन को तो पूर्णतया प्रेमानन्द जी जैसा बना दिया है। अब ऐसे विडियो छलक रहे है तुम इन्हें देखो। और मेरी तरह हो जाऔ।
वीडियो भेजने वाले सज्जन शातिर आदमी है पर विडियो के साथ ये सच्चाई कभी नहीं दिखाई देती।
कुछ लोग मैसेज इस तरह भेजते है मानो वो मैसेज ‘वरदान’ की तरह सिर्फ उन्हें ही मिले हो और खुद भगवान ने प्रकट होकर उनको कहा हो कि ‘प्यारे पुत्र.. इस दुर्लभ मैसेज को पचास लोगों में, और पचास ग्रुप में पटक वरना मैं तुम्हें उठा लूंगा।
ये सूचना देने की, अनावश्यक मैसेज फॉरवर्ड करने की लत जो है वो आपके व्यक्तित्व का परिचय देती है कि आप कितने निठ्ठल्ले है ।
इस युग में जहां सबके हाथ मोबाइल है। उसको जो भी जरूरत है वो देख सकता है। बीमारी हो, दवा हो, गीता ज्ञान, प्रवचन, इतिहास, विज्ञान, जीवन मृत्यु से लेकर मां बाप की सेवा के फायदेज् सब गूगल पर है।
फिर क्यों अपना समय खराब करना।
और अब तक जीतने ज्ञान के विडियो देखे, मैसेज पढ़े वो कम है क्या उनको ही जी लेगें तो नैया पार लग जायेगी ये परोसने ढूंसने की आदत खत्म होनी चाहिए।
जो भी ये डाकियापंथी करते है तो आज से ही सबक ले ले दुनिया में सब लोग होशियार है सब समझदार है.. आपके ज्ञान की जरूरत नहीं है किसी कोज् हां, अपना कुछ सृजन अनुभव, विचार, या ऐसी जानकारी जो जरूरी हो.. वहां तक ठीक है।
लेकिन ये उल्टियां झेलना और करना.. आप और आपसे जुड़े लोगों के लिए खतरनाक हो सकती है।
.. जै राम जी की।
ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती
कृष्ण कांत
दो दिन पहले चंपत राय ने कहा था कि राम मंदिर रामानंद संप्रदाय का है, शैव, शाक्त और संन्यासियों का नहीं है। इस पर शंकराचार्य का कहना है कि राम मंदिर रामानंद संप्रदाय का है तो चंपत राय वहां क्या कर रहे हैं? राम मंदिर रामानंद संप्रदाय को सौंप देना चाहिए। चंपत राय और अन्य पदाधिकारियों को इस्तीफा सौंप देना चाहिए। इसमें संत समाज को कोई आपत्ति नहीं होगी।
ज्योतिष पीठ से फेसबुक और ट्विटर पर जारी बयान में शंकराचार्य ने कहा कि चारों शंकराचार्य प्राण-प्रतिष्ठा में नहीं जा रहे हैं। कोई राग द्वेष नहीं है। शंकराचार्यों को कोई राग द्वेष नहीं है लेकिन उनका मानना है कि शास्त्र सम्मत विधि का पालन किये बिना मूर्ति स्थापित किया जाना सनातनी जनता के लिये अनिष्टकारक होने के कारण उचित नहीं है। आधे अधूरे मंदिर में भगवान को स्थापित किया जाना न्यायोचित और धर्म सम्मत नहीं है। वे प्रधानमंत्री मोदी के विरोधी नहीं है, बल्कि उनके हितैषी हैं और इसलिए उन्हें सलाह दे रहे हैं कि वे शास्त्र सम्मत कार्य करें। विरोधी तो वे हैं जो उनसे अशास्त्रीय कार्य करवा कर उनके अहित का मार्ग खोल रहे हैं।
उन्होंने कहा कि शंकराचार्यों का अपना कोई भी मंदिर नहीं होता है। वे केवल धर्म व्यवस्था देते हैं। चंपत राय को जानना चाहिए कि शंकराचार्य और रामानन्द सम्प्रदाय के धर्मशास्त्र अलग अलग नहीं होते। उन्होंने सवाल किया कि चंपत राय बताएं कि क्या रामानंद संप्रदाय अधूरे मंदिर में प्रतिष्ठा को शास्त्र सम्मत मानता है?
शंकराचार्य ने चंपत राय के बयान पर कहा कि पहले रामानंद संप्रदाय की उपेक्षा की और अब प्रेम उमड़ रहा है। रामानंद संप्रदाय के प्रति उनकी आस्था को इस बात से समझा जा सकता है कि रामानन्द संप्रदाय निर्मोही अखाड़े के एक सदस्य को सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर रखा गया और दूसरे सदस्य को नाम मात्र का अध्यक्ष बनाकर बैठक के पहले दिन ही अभिलेखों में उनके हस्ताक्षर करने के अधिकार को भी छीन लिया गया था, यह सर्वविदित तथ्य है।
शंकराचार्य ने कहा यदि राम मंदिर रामानंद संप्रदाय से जुड़े लोगों का है तो इस मंदिर को प्रतिष्ठा से पूर्व रामानंद संप्रदाय से जुड़े लोगों को दे दिया जाना चाहिए। इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी। शंकराचार्य ने कहा कि निर्मोही अखाड़े को पूजा का अधिकार दिए जाने के साथ ही रामानंद संप्रदाय को मंदिर व्यवस्था की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लक्षद्वीप में पर्यटन को बढ़ावा देने की पहल की तो यह सोशल मीडिया पर बहस विवाद के रूप में शुरू हो गई। इसका असर मालदीव से संबंधों पर सीधा पड़ा।
मालदीव में मोहम्मद मुइज़्ज़ू के राष्ट्रपति बनने के बाद से संबंधों में पहले से ही तनातनी थी।
पीएम मोदी को लेकर अपमानजनक टिप्पणी के कारण मालदीव में तीन मंत्रियों का निलंबन भी हुआ।
आज अंग्रेजी अखबार द हिन्दू का एक विश्लेषण पढि़ए।
भारत ने पूरे विवाद पर अपनी चिंता जताई और मालदीव में भारतीय पर्यटकों की बुकिंग्स रद्द होने की खबरें आने लगीं। सोशल मीडिया पर मालदीव का बहिष्कार ट्रेंड करने लगा।
मोहम्मद मुइज़्ज़ू ने मालदीव की सत्ता में आने से पहले चुनाव में ‘इंडिया आउट’ कैंपेन चलाया था।
हिन्द महासागर में मालदीव भारत का एक अहम समुद्री पड़ोसी देश है। मालदीव की भौगोलिक स्थिति भारत की रणनीति के लिहाज से काफी अहम है।
हिन्द महासागर में चीन की बढ़ती दिलचस्पी के कारण मालदीव की अहमियत भारत के लिए और बढ़ गई है। पिछले कई सालों से भारत और मालदीव के संबंध गहरे रहे हैं।
मालदीव में 2013 से 2018 के बीच अब्दुल्ला यामीन सरकार रही और इस सरकार की करीबी चीन से थी।
यामीन की सरकार के दौरान ही मालदीव चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ड एंड रोड इनिशिएटिव का हिस्सा बना था।
लेकिन 2018 में यामीन की सरकार गई और इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के नेतृत्व में मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) की सरकार बनी तो भारत के साथ संबंधों में तेजी से सुधार हुआ।
इब्राहिम सोलिह ने अपनी विदेश नीति में भारत को तवज्जो देते हुए ‘इंडिया फस्र्ट’ की नीति अपनाई थी। सोलिह के नेतृत्व में मालदीव और भारत के बीच कई रक्षा और आर्थिक समझौते हुए।
सोलिह भारत के साथ गहरे संबंधों को लेकर प्रतिबद्ध रहे। लेकिन भारत के साथ बढ़ती करीबी को मालदीव के विपक्ष ने सोलिह सरकार के ख़िलाफ़ लोगों को गोलबंद करने का हथियार बनाया।
विपक्ष ने सोलिह की इंडिया फस्र्ट की नीति के खिलाफ इंडिया आउट कैंपेन चलाया।
सोलिह सरकार के आलोचकों ने कहना शुरू कर दिया कि भारत के साथ संबंधों में संप्रभुता को किनारे रखा जा रहा है और भारत के सैनिकों को मालदीव की जमीन पर रहने की अनुमति दी गई।
जब सोलिह सरकार ने भारत के साथ 2021 में उथुरु थिला फलहु (यूटीएफ) समझौते पर हस्ताक्षर किया तो विपक्ष और हमलावर हो गया। यह एक रक्षा समझौता था, जिसके तहत संयुक्त रूप से नेशनल डिफेंस फोर्स कोस्ट गार्ड हार्पर बनाना था।
मालदीव में पिछले साल राष्ट्रपति चुनाव हुआ और भारत विरोधी अभियान एक लोकप्रिय मुद्दा बन गया।
कुछ ही महीनों में मोहम्मद मुइज़्ज़ू विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार के रूप में उभरे क्योंकि कई मामलों के कारण पूर्व राष्ट्रपति यामीन चुनाव में हिस्सा नहीं ले सके। मुइज़्ज़ू राष्ट्रपति बनने से पहले मालदीव की राजधानी माले के मेयर थे।
मुइज़्ज़ू ने वोटरों को लुभाने के लिए ‘इंडिया आउट’ कैंपेन का नेतृत्व किया। मुइज़्ज़ू ने यह भी वादा किया था कि वह सत्ता में आएंगे तो मालदीव की जमीन से भारतीय सैनिकों को हटाएंगे और भारत से व्यापारिक रिश्तों को भी संतुलित करेंगे। ऐसा कहा जाता था कि सोलिह सरकार की ट्रेड पॉलिसी भारत की तरफ झुकी हुई थी।
मुइज़्ज़ू ने ख़ुद को चीन परस्त होने के आरोपों को ख़ारिज किया और खुद को मालदीव परस्त कहा। उन्होंने कहा कि उनकी सरकार मालदीव में भारत या चीन के अलावा किसी भी देश के सैनिकों की मौजूदगी की अनुमति नहीं देगी।
हालांकि चीन के साथ मजबूत संबंधों के संकेत वो दे चुके थे। मुइज़्ज़ू चाहते हैं कि उनकी सरकार को चीन से आर्थिक मदद का फायदा मिले।
पद पर आने के बाद मुइज़्ज़ू के फैसले
पिछले साल सितंबर में 54 फीसदी वोटों के साथ राष्ट्रपति चुनाव में मोहम्मद मुइज़्ज़ू को जीत मिली थी। नवंबर में मुइज़्ज़ू ने द्वीपीय देश मालदीव के आठवें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली थी।
मुइज़्ज़ू ने राष्ट्रपति बनते ही संकेत दे दिया कि उनकी विदेश नीति में भारत से दूरी बनाना प्राथमिकता में है। उन्होंने पहला विदेश दौरा तुर्की का किया। मुइज़्ज़ू ने एक परंपरा तोड़ी क्योंकि इससे पहले मालदीव का नया राष्ट्रपति पहला विदेशी दौरा भारत का करता था।
तुर्की के बाद मुइज़्ज़ू यूएई गए और अभी चीन के पाँच दिवसीय दौरे पर हैं। मुइज़्ज़ू ने चीन को अहम साझेदार बताया है और कई महत्वपूर्ण समझौते किए हैं।
मुइज़्ज़ू ने शपथ लेने के बाद राष्ट्र के नाम पहले संबोधन में मालदीव से भारतीय सैनिकों की वापसी की बात दोहराई। उन्होंने कहा कि मुल्क की स्वतंत्रता और संप्रभुता उनकी सरकार के लिए ज़्यादा जरूरी है।
मुइज़्ज़ू के संबोधन को भारत के मीडिया में हाथोंहाथ लिया गया। मुइज़्ज़ू के इस रुख के मायने निकाले गए कि उनकी सरकार इंडिया फस्र्ट की नीति छोड़ चुकी है और इंडिया आउट को लागू करने लगी है। भारत ने मालदीव की नई सरकार से कहा कि वह भारतीय सैनिकों की मौजूदगी को सही संदर्भ में देखे।
मोदी से पहली मुलाकात में उठाया मुद्दा
मुइज़्जू़ ने पिछले साल दिसंबर में यूएई में आयोजित कॉप-28 जलवायु सम्मेलन में पीएम मोदी से मुलाक़ात की थी। उन्होंने इस मुलाक़ात के बाद कहा था कि पीएम मोदी के सामने भारतीय सैनिकों की वापसी की बात उठाई थी और भारतीय प्रधानमंत्री उनकी बातों से सहमत थे। भारत सरकार का कहना है कि इस मुद्दे पर अभी बातचीत जारी है।
मालदीव की नई सरकार भारत के साथ किसी भी रक्षा सहयोग से अब बच रही है। मॉरिशस में पिछले महीने कोलंबो सिक्यॉरिटी कॉन्क्लेव आयोजित हुआ था और इसमें मालदीव ने अपने किसी भी प्रतिनिधि को नहीं भेजा था।
साल 2019 में मालदीव के समुद्री इलाक़े में सर्वे को लेकर भारत से समझौता हुआ था, जिसे मुइज्ज़़ू की सरकार ने खत्म कर दिया। इब्राहिम सोलिह के राष्ट्रपति रहते पीएम मोदी ने मालदीव का दौरा किया था, तभी हाइड्रोग्राफिक सर्वेइंग को लेकर एमओयू हुआ था। इसका मकसद समुद्री सुरक्षा में सहयोग बढ़ाना था। सोलिह सरकार इस समझौते को लेकर भी विपक्ष के निशाने पर रही थी। दिसंबर में मुइज़्ज़ू सरकार ने घोषणा कर दी कि यह समझौता अब आगे नहीं बढ़ेगा।
इन समझौते से अलग होने को मुइज़्ज़ू की चीन से बढ़ती कऱीबी के रूप में देखा जा रहा है। कहा जा रहा है कि मालदीव में जो रक्षा बढ़त भारत को सोलिह सरकार में मिली थी वो अब पूरी तरह से चीन के साथ शिफ़्ट हो गई है।
(द हिन्दू, और बीबीसी )
सच्चिदानंद जोशी
मां को इलाज के लिए अस्पताल में एडमिट कराया। जितना बड़ा अस्पताल उतनी ज्यादा औपचारिकताएं। पता नहीं कितने तो फॉर्म भरे और कितनी जगह हस्ताक्षर किए। उन्हीं फॉर्म में से एक में एक कॉलम था occupation of the patient (मरीज का पेशा )। मैंने उसे भरते समय थोड़ी देर सोचा और फिर बड़े गर्व से लिखा writer (लेखक)।
औपचारिकताएं करवाने वाली महिला ने पूरी जानकारी कंप्यूटर में भरी और रजिस्ट्रेशन नंबर के लिए इंतजार करने लगी। दो-तीन बार परेशान होने के बाद बेहद सकुचाते हुए लाचारी से बोली ‘माफ करें सर, कंप्यूटर writer ले नहीं रहा है, उसका कॉलम ही नहीं है। आप please कोई और पेशा बता दीजिए।’
मैं क्या कहता बस इतना कह पाया ‘ writer की जगह house wife लिख दीजिए।’ उसने खुशी खुशी लिखा और कंप्यूटर ने झट रजिस्ट्रेशन नंबर दे दिया।
मां को जब कमरे में स्थिर कर दिया और उनका इलाज शुरू हो गया तो मन थोड़ा शांत हुआ। वैसे भी अस्पताल , फिर चाहे वह कितना भी अच्छा हो, आपको तनाव में तो डाल ही देता है। मन शांत हुआ तो पुरानी यादों की गलियों में चला गया।
एम ए पास किया था प्रथम श्रेणी में और उन दिनो कॉलेज में लेक्चरर की तदर्थ नियुक्तियां बड़ी आसानी से मिल रही थी। लेकिन कुछ दिनों से लिखने और छपने का भूत सवार हो गया था। अपने खर्चे और शौक के लायक लिख कर और रेडियो पर नाटक करके कमा लेते थे। इलस्ट्रेटेड वीकली में खुशवंत सिंह जी का कॉलम और बल्ब में उनका कैरीकेचर बहुत लुभाता था। लगता था कि ऐसा ही लेखक बनना चाहिए जिसका लिखा पढऩे के लिए लोग इंतजार करें और जाकर पत्रिका खरीदें।
शरद जोशी जी को व्यंग्य लेखन में अपना आदर्श मानता था और उनके जैसा लिखने का प्रयास भी करता था। उनको आदर्श माना तो उनकी सभी बातों का अनुसरण भी करना चाहिए ऐसा विचार भी मन में आया। लेकिन उनकी पत्नी इरफान आंटी, मां की अच्छी मित्र थी और डांटने डपटने का पूरा हक रखती थी। इसलिए उन्होंने डपट कर हिदायत भी दी कि लेखक बनो लेकिन नौकरी धंधा भी साथ-साथ करो क्योंकि लेखन से आजीविका चलाना बहुत कठिन है। लेकिन अपन कहां मानने वाले थे। लेखक बनाने का भूत सवार था।
1981 में एक और घटना हुई ‘सिलसिला’ फिल्म का आना। अमिताभ बच्चन के बहुत बड़े पंखे होने के कारण इस फिल्म का लगभग दस बार तो पारायण कर ही लिया होगा। वो जमाना OTT का नहीं था इसलिए हर बार टिकट लेकर फिल्म देखनी पड़ती थी। उसमेwriter अमित मल्होत्रा का किरदार इतना पसंद आया की पूछिए मत। लेखक बनकर हौज खास में कोठी बनाने की कामयाबी दिल को छू गई। बहुत सारी ‘चांदनिया’ भी सपनों में आने लगी और writer बनने का निश्चय और पक्का होता गया।
इसलिए पिताजी को बड़ी शान से कह दिया ‘नौकरी नहीं करेंगे , लेखक बनेंगे।’
पिताजी भी दिलेर थे बोले ‘बेटा, जैसा मन चाहे करो। बस जब तक ठीक से कमाने न लग जाओ , शादी मत करना। क्योंकि तुम्हारा तो खर्चा मैं अपनी पेंशन से भी उठा लूंगा लेकिन दो लोगो का भारी पड़ जाएगा।’ कुछ दिन बिना नौकरी किए लेखन के दम पर गुजारा करने का प्रयास भी किया और सच कहें तो किया भी। लेकिन उन दिनो की सामाजिक मानसिकता में सिर्फ लेखक बन कर जीना स्वीकारा नहीं गया। अपने अस्तित्व को साबित करने के लिए कुछ तो करना जरूरी ही था। कुछ रिश्तेदारों ने दया की दृष्टि से देखना शुरू कर दिया तो पिताजी बोले ‘कम से कम इन्हें ये साबित करके दिखाने के लिए कि तुम नाकारा नहीं हो कोई नौकरी कर लो।’ उसके बाद की नौकरी की कहानी एक अलग इतिहास है।
जब मराठी साहित्य पढऩे का शौक था तो पु.ल. देशपांडे जी को बहुत पढ़ा। उनके एक व्यक्ति चित्र ‘अंतू बरवा’ में अंतू उनका परिचय गांव के एक दूसरे सज्जन के कराते है कि ये अपने गांव के दामाद हैं और लेखक हैं। तो वो व्यक्ति भोले पन से पूछता है ‘लेखक तो ठीक है लेकिन करते क्या हैं।’ अंतू बरवा फिर खीज कर उन सज्जन को पु.ल. जी की महानता का बखान करते हैं। मन में संतोष होता था ये पढक़र कि जब पु.ल. जैसे लेखक को ये भुगतना पड़ा तो अपनी क्या बिसात है।
कहानी लेखक के रूप में मां की पहली किताब जरा देर से ही आयी। लेकिन जब एक आई तो उसके बाद लगातार काफी किताबें आई। मेरे मंझले मामा उन दिनों इंग्लैंड में थे और साल में एक बार सबसे मिलने भारत आते थे। जब उन्हें पता चला कि मां की दस बारह किताब आ गई हैं तो वे बड़े खुश हुए। उस साल जब वे भारत आए तो उन्होंने हमारी स्थिति देखी। वो वैसी ही थी जैसी पिछले साल थी। उन्हे घोर निराशा हुई। वे मां से बोले ‘दीदी मुझे तो लगा था कि आप लोग अब लखपति हो गए होगे ( बात 1985 की है जब लाख रुपए बहुत ज्यादा होते थे )। मुझे तो लगा था कि अब जीजाजी भी नौकरी छोड़ तुम्हारे अकाउंट ही सम्हाल रहे होंगे। ’ मां और पिताजी मुस्कुराए। मां बोली ‘घर और मेरे लेखन का सारा भार अभी भी तुम्हारे जीजाजी पर ही है। मैं तो अपनी रॉयल्टी से अपनी पसन्द या घर की जरूरत की एक आध चीज ही ले पाती हूं बस। ये भारत है भाई इंग्लैंड नही।’
आज मां की पचास से अधिक पुस्तकें हैं । इंग्लैंड वाले मामाजी अब इस दुनिया में नहीं है। लेकिन अगर आज वो होते तो भी उन्हें ये जानकर दुख ही होता कि भारत में अपनी पुस्तकों की रॉयल्टी पर जीवन का गुजारा लेखक के लिए आज भी एक स्वप्न ही है जो शायद बहुत कम लोगों का पूरा हो पाता है।
अभी कुछ दिन पहले भारत की जनसंख्या एकत्रित करने वाला फार्म देखने का अवसर आया। उसमे पेशा या व्यवसाय के कॉलम में कलाकार और लेखक सम्मिलित नहीं थे। पता नहीं इस बार की जनसंख्या के फॉर्म में ये विकल्प जुड़े हैं या नहीं। बहरहाल इतना सच कि अस्पताल के पंजीकरण में तो ये विकल्प उपलब्ध नहीं है।और जब तक ये विकल्प उपलब्ध नहीं होते , लेखक को पेशे के रूप में कोई दूसरा विकल्प भरना ही पड़ेगा। मां के लिए तो मैने ‘हाउस वाइफ’ का प्रयोग कर लिया पुरुष लेखक क्या लिखेंगे , ‘हाउस हसबैंड’? जरा सोचिए!
शुमाइला जाफरी
डॉक्टर सवीरा प्रकाश पाकिस्तान के उत्तर पूर्वी ख़ैबर पख़्तूनख्वा प्रांत में बूनेर की सामान्य सीट से चुनाव लडऩे वाली पहली हिंदू महिला हैं।
बूनेर एक पश्तून बहुल क़स्बा है और विभाजन से पहले यह स्वात की रियासत का हिस्सा रहा है।
बूनेर जि़ला पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के उत्तर में कऱीब 100 किलोमीटर दूर है।
साल 2009 में तहरीक-ए-तालिबान, जिसने पास की स्वात घाटी को अपने क़ब्ज़े में ले लिया था, उसने इस्लामिक क़ानून लागू करने के बहाने बूनेर में अपना विस्तार करने की कोशिश की।
उन्होंने प्रमुख जगहों पर चेक पोस्ट स्थापित किए और पहाडिय़ों के ऊपर कब्ज़ा कर लिया। बाद में सैन्य अभियान के द्वारा उन्हें वहाँ से खदेड़ा गया।
सवीरा बताती हैं, ‘पहले बूनेर को ऑपरेशन ब्लैक थंडरस्टॉर्म के लिए जाना जाता था। अब यह अन्य कारणों, ख़ासकर सकारात्मक वजहों से चर्चा में है। एक सामान्य सीट पर उम्मीदवार के रूप में मेरा नामांकन ऐसी ख़बरों में से एक है। मुझे ख़ुशी होती है कि मेरी वजह से अपना क़स्बा चर्चा में है।’
ये बताते हुए उनकी आंखों में चमक दिखती है।
स्वात, बूनेर, निचला दीर और शांगला जि़लों को तहरीक-ए-तालिबान से छुड़ाने के लिए पाकिस्तानी सेना, एयर फ़ोर्स और नेवी द्वारा संयुक्त रूप से अभियान चलाया गया था, जिसका नाम ब्लैक थंडरस्टॉर्म रखा गया।
सवीरा प्रकाश के पिता एक डॉक्टर हैं और समाजसेवी हैं। वो 30 सालों से अधिक समय से पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सदस्य हैं।
सवीरा कहती हैं कि सामाजिक कार्यों की प्रेरणा उन्हें उनके पिता से मिली है। सवीरा ने अभी अभी अपना काम ख़त्म करके पीपीपी के टिकट पर प्रांतीय विधानसभा सीट के लिए कागज़़ात जमा कराए हैं।
वो कहती हैं, ‘जब मैंने राजनीति में जाने का फ़ैसला किया तो उसके पीछे मानवीय पहलू अधिक अहम थे। डॉक्टरी की पढ़ाई के पीछे भी यही प्रेरणा थी। मैं अपने लोगों की मदद करना चाहती थी लेकिन घर के कामों के दौरान मुझे लगा कि मैं बहुत कुछ बदल नहीं सकती। मैं मरीज़ों का इलाज कर सकती थी लेकिन मैं और अधिक करना चाहती थी। मैं सिस्टम बदलना चाहती थी। इसलिए मैंने राजनीति में जाने का तय किया।’
सवीरा बहुत सारे मुद्दों के लिए काम करना चाहती हैं जैसे, स्वास्थ्य, शिक्षा और पर्यावरण लेकिन उन्हें महिलाओं के सशक्तीकरण की ज़रूरत अधिक महसूस होती है।
उन्होंने बीबीसी को बताया, ‘मेरे इलाके में आम तौर पर शिक्षा एक मुद्दा है लेकिन लड़कियों के लिए बहुत कम मौक़े हैं। बहुत सारे लोग अपने बच्चों की शिक्षा का भार नहीं वहन कर सकते, इसलिए वे अपने लडक़ों को मदरसा भेजते हैं, जहां शिक्षा नि:शुल्क है, लेकिन लड़कियां घर पर भी रह जाएंगी। कुछ मामलों में उन्हें देश के अन्य हिस्सों में घरेलू नौकरानी के रूप में भेज दिया जाता है। मैं इन चीज़ों को ठीक करना चाहती हूं और केवल डॉक्टरी पेशे में रह कर इस बारे में कुछ नहीं कर सकती।’
बूनेर के बारे में सवीरा ने कहा कि यह एक संकीर्ण जि़ला है, जहाँ महिलाओं को अपने घर से बिना पूरी तरह शरीर ढंके या परिवार के किसी सदस्य के बिना साथ के बाहर जाने की इजाज़त नहीं है।
पार्टी लाइन से अलग मिल रहा समर्थन
ये पूछे जाने पर कि ऐसे माहौल में वो अपना चुनावी अभियान कैसे चलाएंगी, डॉक्टर सवीरा कहती हैं कि शुरू में वो डरी हुई थीं लेकिन नामांकन भरने के बाद मिली प्रतिक्रियाओं से अब उनका सारा डर ख़त्म हो गया है।
वो कहती हैं, ‘बूनेर से कोई महिला राजनीतिज्ञ नहीं है। कुछ इलाक़ों में तो, पहले महिलाओं को वोट देने की भी इजाज़त नहीं थी। जब मैंने पहली बार नुक्कड़ सभा की, मैं बहुत डरी हुई थी। वहां भाषण देने वाले कुछ पुरुष भी थे, लेकिन मुझे सबसे अधिक तालियां मिलीं। जब मैंने अपना भाषण ख़त्म किया तो लोग एक मिनट तक ताली बजाते रहे।’
सवीरा के अनुसार, केवल अपने परिवार और समर्थकों से ही उन्हें प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है।
‘अपनी राजनीतिक लाइन से ऊपर उठकर चारों ओर से लोगों ने अपने पूरे दिल से मेरा समर्थन किया। उन्होंने मुझे ‘बूनेर की बेटी’ और ‘बूनेर का गर्व’ नाम दिया।’
‘अलग अलग दलों के लोगों ने मेरे पिता से मिलकर बताया कि वे चुनाव में मेरे खड़े होने को लेकर कितने ख़ुश हैं और आने वाले चुनावों में मुझे वोट देने का वादा किया।’
मानसिकता में बदलाव
सवीरा कहती हैं, ‘लोगों की मानसिकता बदल रही है। लोगों को अब अहसास होने लगा है कि युवा, महिलाएं और अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को मुख्यधारा में लाने और शामिल करने ज़रूरत है। और मैं इन मानदंडों पर खरी उतरती हूं। हर कोई बिना भेदभाव के मेरा समर्थन कर रहा है।’
सवीरा कहती हैं कि एक हिंदू के तौर पर उन्हें कभी भेदभाव नहीं झेलना पड़ा और अपने धार्मिक विश्वासों के कारण न ही कभी उन्हें ग़लत व्यवहार का निशाना बनाया गया।
वो कहती हैं, ‘हम पश्तून हैं। हमारी अपनी परम्पराएं और रीति रिवाज हैं और वे बहुत समावेशी हैं। हिंदू होने की वजह से कभी भेदभाव नहीं हुआ और न तो हमारे पूर्वज ने विभाजन के बाद भारत पलायन करने के बारे में सोचा। हम हमारा घर है, हम यहीं के रहने वाले हैं।’ (bbc.com)
डॉ. आर.के. पालीवाल
कांग्रेस के प्रथम परिवार में अभी तक प्रियंका गांधी का नाम ही आर्थिक घोटाले के आरोपों से बचा हुआ था। हाल ही में प्रियंका गांधी का नाम भी पति रॉबर्ट वाड्रा के विवादित जायदाद मामले में चार्जशीट में शामिल होने के बाद अब नेहरू/ गांधी परिवार के राजनीति में सक्रिय तीनों सदस्य सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी किसी न किसी आपराधिक मामले में जांच एजेंसियों के चक्रव्यूह में फंस गए हैं। केंद्रीय जांच एजेंसियों के चक्रव्यूह में फंसने वाले बड़े नेता सिर्फ प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के ही नहीं हैं। जांच एजेंसियों के निरंतर व्यापक होते चक्रव्यूह में इण्डिया गठबंधन में शामिल कई विपक्षी दलों के नेता या तो बुरी तरह फंस चुके हैं या निकट भविष्य में फंसने की कगार पर हैं। आम आदमी पार्टी, झारखंड मुक्ति मोर्चा, राष्ट्रीय जनता दल, तृणमूल कांग्रेस और शिव सेना आदि कई राजनीतिक दल के बड़े नेता केंद्रीय जांच एजेंसियों के निशाने पर सबसे ऊपर हैं।
इन दिनों सबसे ज्यादा मुसीबत दिल्ली और झारखंड के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन के सिर पर है जो प्रवर्तन निदेशालय के कई कई समन की तामील के बावजूद प्रवर्तन निदेशालय के कार्यालय में उपस्थित नहीं हो रहे हैं। उनके दल के लोग और वे खुद भी बार-बार यह आरोप लगा रहे हैं कि सत्ता पक्ष उन्हें विरोध की राजनीति को कुचलने के लिए षडय़ंत्र रचकर लोकसभा चुनाव से पहले जेल में बंद करना चाहता है ताकि बड़े नेता भाजपा के विरोध में चुनाव प्रचार न कर सकें। इन लोगों के आरोपों को पूरा सच तो नहीं माना जा सकता लेकिन इनमें अर्ध सत्य जरूर दिखता है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी के किसी मुख्यमंत्री तो दूर किसी पूर्व मुख्यमंत्री या मंत्रियों के यहां भी केंद्रीय जांच एजेंसियों ने कोई नोटिस जारी नहीं किया है।जिन मुख्यमंत्रियों की छवि थोडी बेहतर है और जिनका राष्ट्रीय राजनीतिक कद काफी बड़ा है उनके मंत्रियों और परिजनों पर तड़ातड़ कार्यवाही हो रही हैं।
यह कहना उचित नहीं है कि जांच एजेंसियों की कार्यवाही पूरी तरह हवाई हैं। यह जरूर कह सकते हैं कि अधिकांश कार्यवाही चुनाव के पहले विरोधियों पर दबाव बढ़ाने के उद्देश्य से हो रही हैं। जिनके खिलाफ जांच एजेंसी कार्यवाही कर रही हैं निश्चित रूप से उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के सबूत हैं इसलिए जांच एजेंसियों पर केवल यही आरोप लगाया जा सकता है कि वे समभाव से कार्यवाही नहीं कर रही। भाजपा के वर्तमान और पूर्व मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों पर भी विगत में संगीन आरोप लगते रहे हैं लेकिन उनके खिलाफ कोई जांच शुरू नहीं हुई। यहां तक कि सरकार से नजदीकी रखने वाले औद्योगिक घरानों यथा अडानी समूह पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी गम्भीर आरोपों के बावजूद त्वरित जांच नहीं होना न केवल जांच एजेंसियों की कोताही दर्शाता है अपितु यह चिंता का विषय भी है। मध्य प्रदेश में विधान सभा चुनावों के दौरान तत्कालीन केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के पुत्र का भ्रष्टाचार का कथित वीडियो काफी चर्चित हुआ था लेकिन उस पर केंद्रीय जांच एजेंसियों की कोई कार्यवाही सामने नहीं आई। इसी तरह भाजपा के लंबे शासन के दौरान भ्रष्टाचार के बहुत से मामले चर्चित हुए लेकिन किसी मामले में केंद्रीय जांच एजेंसियों की तरफ से कोई कार्यवाही नहीं हुई। यहां तक कि असम के मुख्यमंत्री और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के खिलाफ खुद भाजपा संगीन आरोप लगाती थी लेकिन भाजपा से हाथ मिलाने के बाद उन पर कार्यवाही तो दूर किसी एजेंसी ने जांच के लिए समन तक नहीं भेजा। केंद्रीय जांच एजेंसियों का सत्ताधारी दल के विरोधियों के खिलाफ इकतरफा कार्यवाही करना नैतिक और संवैधानिक दृष्टि से बेहद गलत है। लोकतंत्र में जांच एजेंसियों की निष्पक्षता पर आंच आना सरकार की छवि को धूमिल करता है।
दिलीप कुमार
प्रत्येक पिता अपनी बेटियों के लिए खत लिखता है, ऐसे ही पण्डित नेहरू जी, अर्नेस्तो चे ग्वेरा, एवं महान सर चार्ली चैप्लिन आदि तीनों ने भी कभी अपने बच्चों को ख़त लिखे। इन तीनों के लिखे गए पत्र पूरी दुनिया के लिए मनुष्यता का पाठ बन गए। इन तीनों के पत्रों को लगभग पूरी दुनिया के गहन पढऩे वालों ने पढ़ा, समझा। इनके द्वारा लिखे गए ख़त सभी को पढऩा चाहिए। सर चार्ली चैपलिन नाम को दुनिया में जितने भी लोग जानते हैं, उनके सम्मान में झुक जाते हैं।
महान सर चार्ली चैपलिन जिनके सामने विश्व सिनेमा पैदा हुआ। जो गरीबी, भुखमरी, युद्ध की विभीषिका पर श्वेत श्याम युग में मूक फि़ल्मों के ज़रिए गरीब तंगहाल लोगों के चेहरे पर मुस्कान ले आते थे , लेकिन जब रंगीन फिल्म बना कर मुँह खोला तो दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह के सीने पर चढक़र उसके मुँह पर कालिख पोत दी। महान सर चार्ली चैपलिन जिन्होंने अपने आंसुओ को बेचकर दुनिया के लिए कुछ मुस्कान खरीदी थी। जब जि़न्दगी के आखिरी पड़ाव में थे तब भी वो दुनिया को खूबसूरत देखने का ख्वाब देख रहे थे। जहां तक उनकी आवाज पहुंच सकती थी, उन्होंने पहुंचाने की कोशिश की।।। इसी कोशिश में उन्होंने अपनी डांसर बेटी को ख़त लिखा। जो बाद में समस्त विश्व के लिए मानवता का सबक बन गया।
महान सर चार्ली चैपलिन लिखते हैं। ‘- मेरी प्रिय बेटी मैं हमेशा सत्ता के विरुद्ध खड़ा रहा, और हमेशा अपनी कला के ज़रिए उसको ताक पर रखकर जरूरतमंद लोगों के लिए हमेशा खड़ा रहा। बेटी तुम भी गऱीबी को जानो, उसके कारण को ढूंढो मुफलिसी को महसूस करो, एक उत्तम आचरण इंसान बनो, इंसानियत के लिए खड़ी रहो, जीवन में मनुष्यता के लिए सब कुछ त्यागना पड़े तो संकोच मत करना। मैं तमाशा दिखाने वाला, किसी के हाथ का खिलौना नहीं बना, पूरी दुनिया को हँसाकर मैं खुद रोया हूं, मैंने कभी किसी को अपने आंसू नहीं दिखाए। मैं बारिश का इंतज़ार करता था, तब रोया करता था कि कोई मेरे आँसुओं को देखकर मुझ पर दया न करने लगे। मैं अपने आंसुओ को बेचकर दुनिया के लिए कुछ मुस्कान खरीद लाता था। तुम बस हँसती रहना, हमेशा खुश रहना।
मेरी प्यारी बेटी रात्रि का समय है, क्रिसमस की हसीन रात है। मेरे अन्दर एवं बाहर की सभी लड़ाइयां खत्म हो चुकी हैं। तुम्हारे भाई-बहिन भी नींद की गोद में हैं, तुम्हारी माँ भी सो चुकी है, केवल और केवल मैं जग रहा हूं, पता नहीं कब अंतिम नींद की गोद में मैं चला जाऊँ। कमरे में हल्की सी रोशनी है, तुम अभी मुझसे कितनी दूर हो, लेकिन मैं तुम्हें देख सकता हूँ। जिस दिन मैं तुम्हें नहीं देख पाऊँगा समझूँगा मैं अंधा हो गया।। तुम्हारी तस्वीर मेरे सामने टेबल पर रखी हुई है, और एक तुम्हारी तस्वीर मेरे दिल में भी सजी हुई है, फिर भी मुझे पता है तुम ख्वाबों के शहर पेरिस में हो जेम्स एलिसेस के उस खूबसूरत भव्य मंच पर डांस कर रही हो। इस सुनसान रात में मैं तुम्हारे पैरों की आहट सुन सकता हूँ। सर्द हवाओं की इस ऋतु में आकाश में चमकते तारो की चमक मैं तुम्हारी आँखों में देख सकता हूँ, ऐसा रोमांचक नृत्य, तुम खुद एक सितारा बनो, अनवरत चमकती रहो। बेटी ध्यान रखना इस चमक में कई बार हमारी खुद की चमक गायब हो जाती है। जब कभी तुम्हें अपने चाहने वालों की तालियों की गूँज, उनके फेंके गए फूलों की खुशबू तुम्हारे सिर चढक़र बोलने लगे तो मंच के कोने पर तुम देखना मैं न होकर भी खड़ा दिखाई दे रहा होऊँगा, तब तुम मेरा यह खत पढऩा और अपने अंतर्मन की आवाज़ सुनना।
मैं तुम्हारा पिता चार्ली। ‘चार्ली चैपलिन’, तुम्हें याद है? जब तुम छोटी सी बच्ची थीं, तब मैं तुम्हें अपनी गोद में सुलाकर या कभी-कभार तुम्हारे सिरहाने बैठकर सुन्दर-सुन्दर कहानियां सुनाया करता था। मैं तुम्हारे ख्वाबों का गवाह हूं, मैंने तुम्हारा भविष्य भी देखा है। मंच पर नाचती एक लडक़ी जैसे कोई परी आसमान पर उड़ रही है। प्रशंसनीय शब्दों तालियों के बीच ऐसी प्रशंसा मैंने सुना है। उस लडक़ी को देखो वो कोई और नहीं एक बूढ़े कॉमेडियन की बेटी है, जिसका नाम चार्ली चैपलिन था, हां मैं चार्ली चैपलिन हूं। अब इस मंच को अपने कांधे पर तुमने उठा लिया है, बहुत मुश्किल है, लेकिन तुम अब इस रास्ते पर हो। मेरी बेटी मैं फटे हुए कपड़े पहनकर, भूखे पेट भूख भी ऐसी की पेट और पीठ का फर्क ही खत्म हो जाए, लेकिन तुम बहुत महंगे रेशमी कपड़े पहनकर बड़े-बड़े मंचों पर प्रस्तुति दे रही हो।
ऐसी तालियां, प्रशंसा तुम्हें सातवें आसमान पर ले जाएगी, लेकिन तुम खूब उड़ो मेरी प्यारी बेटी, लेकिन ध्यान रखना अपने पांव कभी जमीन से उठने मत देना। अपने पैर जमीन पर ही रखना। तुम्हें लोगों को करीब से देखना चाहिए, तरह-तरह की जिन्दगी लोग जी रहे हैं। सडक़ों नुक्कड़, बाजार, में नचाते हुए गरीबों को देखो उन्हें महसूस करो, जो हड्डियां जमा देने वाली सर्दी में फटे कपड़े पहने हुए, भूखे पेट दो वक़्त की रोटी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। कभी मैं भी ऐसे ही सडक़ों पर नाचता था। उन रूहानी रातों में जब मैं तुम्हें कहानियां सुनाया करता था, और तुम सो जाया करती थीं। मैं तुम्हें देखता रहता था, और खुद से पूछता था ‘चार्ली क्या यह बच्ची तुम्हें कभी समझ पाएगी? बेटी तुम मुझे नहीं जानती। मैंने तुम्हें जाने कितनी सुन्दर-सुन्दर कहानियां सुनाई हैं। हाँ लेकिन अपनी कहानी नहीं सुनाई, यह कहानी भी बहुत दिलचस्प है।
यह कहानी एक गरीब कॉमेडियन की कहानी है। जो लन्दन की गंदी बस्तियों में नाच गाकर अपने लिए दो वक्त की रोटी के लिए जद्दोजहद करता था। यह मेरी कहानी है। मैं जानता हूं भूख-प्यास किसे कहते हैं! मैंने भोगा है, जब सिर पर छत नहीं होती और कडक़ड़ाती ठंड हवा में सर्द हवाओं के साथ बारिश का दंश भी झेला है। शाबाशी में उछाले गए सिक्कों की खनक के बीच मेरा आत्मसम्मान सडक़ों पर लोगों के बूटों तले रौंद डाला जाता था। फिर भी मैं अपनी जिन्दगी की जद्दोजहद को छोड़ नहीं सका। बेटी तुम्हारे नाम के साथ मेरा नाम भी आता है, और मैंने इसी नाम के साथ लगभग 5 दशक दुनिया भर का मनोरंजन किया है, लोगों को हंसाया है, लेकिन मैं खुद पूरे जीवन रोता रहा हूं। जब तुम मंच से नीचे आना तो तुम चाहे अपने अमीर प्रशंसकों को भूल जाना, लेकिन जो तुम्हें उस मंच से नीचे जाओगी तो तुम्हें एक गरीब मिलेगा, बस देखने की दरकार होना चाहिए, जो तुम्हें अपनी टैक्सी में होटेल या घर छोड़े उसे कभी मत भूलना, उससे पूछना घर में उसकी पत्नी कैसी है? उसके बच्चे कैसे हैं? क्या उनके पास खिलौने हैं? क्या तुम्हारे बच्चों के खाने के लिए रोटी है? उन बच्चों के लिए उस गरीब के जेब में पैसे डालना मत भूलना। मैंने अपनी जिन्दगी की कमाई तुम्हारे नाम पर बैंक में जमा करा दिया है, बहुत सोच समझकर खर्च करना। कभी-कभार ट्रांसपोर्ट बसों में सफर करना, कभी पैदल चलना, लोगों को करीब से देखना क्यों कि सडक़ों पर चल रहे हर किरदार की एक कहानी होती है। गरीबों, बच्चों, विधवाओं के प्रति सहानुभूति रखना। गरीबों की बस्तियों में जाना बच्चों को चॉकलेट, खिलौने लेकर जाना फिर तुम उन बच्चों की खुशियां देखना, उसे ही गॉड कहा जाता है। दिन में एक बार ज़रूर सोचना कि तुम इनमें से कोई एक हो। हाँ तुम इनमें से ही एक की बेटी हो।
किसी भी कलाकार को कला गॉड उपहार स्वरूप देता है, लेकिन कलाकार को उसकी महँगी कीमत चुकानी पड़ती है। बेटी जिस दिन तुम्हें लगे कि तुम अपने चाहने वालों से ज्यादा बड़ी हो गई हो तो तुम उसी दिन उस मंच को छोड़ देना। एक टैक्सी लेकर पेरिस की गलियों में देखना एक से बढक़र एक नाचने वाली, बहुत खूबसूरत नाचने वाली मिल जाएंगी। तुमसे कहीं ज्यादा प्रभावशाली, फर्क सिर्फ इतना होगा कि उनके पास महंगे रेशमी वस्त्र, एवं यह भव्य मंच नहीं होगा। उनकी सर्चलाइट चंद्रमा और सूरज हैं। जब तुम्हें यह आभास हो जाए तब उसे अपनी जगह ले आना। इस दुनिया में बहुत से लोग हमसे बेहतर होते हैं, बड़े दिल से स्वीकार कर लेना। ऐसे ही पूरी जि़ंदगी निरंतर सीखते चलना, कोई भी कलाकार परिपूर्ण नहीं होता। बेटी मैं बूढ़ा हो गया हूं, मैं इस दुनिया से चला जाऊँगा। तुम बहुत बाद तक इस दुनिया में रहोगी, मैं नहीं चाहता कि तुम गरीबी झेलो। इस ख़त के साथ मैं चेकबुक भी भेज रहा हूं। ताकि तुम खर्च कर सको, लेकिन दो सिक्के खर्च करने के बाद सोचना तीसरा सिक्का तुम्हारा नहीं है। यह सिक्का किसी जरूरतमंद का है, जिसे उसकी बेहद आवश्यकता है। मैं पैसे की बात इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि मैं इस क्रूर दौलत की ताकत मैं जानता हू।
आगे यह भी होगा। हो सकता है, कोई प्रिंस तुम्हारा दीवाना हो जाए, लेकिन याद रखना। अपने दिल का सौदा बाहरी चमक देखकर न करना। याद रखो सबसे बड़ा हीरा तो सूरज है, जो सभी के लिए चमकता है। तुम भी सूरज तरह चमकना। हाँ जब तुम्हें किसी से प्रेम हो जाए तो उसे पूरी शिद्दत से प्यार करना। मैं कलाकार का जीवन जानता हूं, बहुत कठिन होता है, तुम्हारा बदन रेशमी वस्त्रों में ढंका रहता है, लेकिन कला धीरे-धीरे अपना मुकाम बना लेती है।। मैं बुजुर्ग हो गया हूं। हो सकता है, इसलिए तुम्हें मेरी बातें विचित्र लगें, लेकिन तुम्हारे शरीर का हकदार वही हो सकता है, जो तुम्हारा और तुम्हारी आत्मा की सच्चाई का सम्मान करे। मैं यह भी जानता हूं, बच्चों और पिता के बीच एक अजीब सा तनाव रहता है। मुझे ज्यादा आज्ञाकारी बच्चे पसंद नहीं है। गॉड से प्रार्थना कर रहा हूं, कि इस क्रिसमस की रात में कोई मोजजा हो जाए, और तुम मेरे विचारों को समझ पाओ। बेटी अब मैं बूढ़ा हो गया हूं, देर सबेर तुम्हें काले कपड़े में लिपटे चार्ली की कब्र पर आना ही होगा। मैं तुम्हें ज्यादा परेशान होते नहीं देखना चाहता, लेकिन कभी-कभार खुद को आईने में देखना तुम्हें खुद में मेरे चेहरे का अक्स दिखेगा। मेरी धमनियों का खून जम जाएगा, लेकिन तुम्हारी शिराओं में दौड़ता खून मेरी याद दिलाएगा तो यह सोचना तुम्हारा पिता कोई महान नहीं है, कोई जीनियस नहीं है, तुम्हारा पिता चार्ली चैपलिन एक उत्तम आचरण का इंसान बनने की जद्दोजहद में ही पूरी जिंदगी बसर कर दी। याद रखना जि़न्दगी में आखऱि उद्देश्य एक बेहतर इंसान बनना ही है। अलविदा
फिर आई 25 दिसंबर 1977 क्रिसमस की वो रात जब यह मूक आवाज जो दर्द में भी उफ़ न करती थी। वो चार्ली चैपलिन जो बारिश में रोते थे।। ताकि कोई उनके आंसुओं को देख न सके। क्रिसमस की रात चार्ली चैपलिन अनन्त यात्रा में चले गए, और दुनिया को दे गए अपने आचरण की सीख। आदमी का उद्देश्य एक बेहतर इंसान बनना ही होना चाहिए। इतने महान इंसान की कब्र से लोगों ने उनकी लाश तक को नहीं बक्शा और कंकाल को खोद ले गए। बाद में फिर से उन्हें दफनाया गया। महान सर चार्ली चैपलिन जैसे फरिश्ते आते हैं और दुनिया को गुलजार कर जाते हैं।
हैरी पॉटर, एलन मस्क, बेयोंसे, सुपर मारियो और व्लादिमीर पुतिन।
ये नाम उन लाखों आर्टिफि़शियल इंटेलिजेंस (एआई) व्यक्तित्वों में से कुछ हैं जिनसे आप कैरेक्टर। एआई पर बात कर सकते हैं। यह एक लोकप्रिय मंच हैं, जहां कोई भी काल्पनिक या वास्तविक लोगों के नाम पर चैटबॉट बना सकता है।
कैरेक्टर.एआई (character.ai) भी चैटबॉट ChatGPT जैसे ही आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तकनीक का इस्तेमाल करता है। लेकिन समय बिताने के मामले में यह उससे अधिक लोकप्रिय है। इस पर ऊपर दिए गए चैटबॉट की तुलना में ‘साइकोलॉजिस्ट’ नाम के एक चैटबॉट अधिक लोकप्रिय है।
‘साइकोलॉजिस्ट’ को किसने बनाया है?
‘साइकोलॉजिस्ट’ को ब्लेजमैन98 नाम के एक यूजऱ ने करीब एक साल पहले बनाया था। इस चैटबॉट पर अब तक 78 मिलियन मैसेज शेयर किए गए हैं। इनमें से 18 मिलियन तो नवंबर के बाद से ही आए हैं।
कैरेक्टर.एआई ने यह नहीं बताया है कि इस चैटबॉट के कितने यूजर्स हैं, लेकिन उसके मुताबिक रोज 3.5 मिलियन लोग उसकी साइट पर आते हैं।
इस चैटबॉट का परिचय ‘जीवन में आने वाली कठिनाइयों में मदद करने वाले व्यक्ति’ के रूप में दिया गया है।
सैन फ्रांसिस्को बे की फर्म ने इसकी लोकप्रियता को कम आंकते हुए कहा कि इसके यूज़र्स मनोरंजन के लिए ‘रोल प्ले’ करने में अधिक रुचि रखते हैं। रैडेन शोगुन, जैसे सबसे अधिक लोकप्रिय चैटबॉट या तो कार्टून हैं या कंप्यूटर गेम के पात्र। इन्हें 282 मिलियन संदेश भेजे गए हैं।
इसके लाखों चरित्रों में से कुछ ही ‘साइकोलॉजिस्ट’ जितने लोकप्रिय हैं। इस पर कुल मिलाकर 475 चैटबॉट हैं, जिनके नाम में ‘थेरेपी’, ‘थेरेपिस्ट’, ‘साइकेट्रिस्ट’ या ‘साइकोलॉजिस्ट’ हैं। ये कई भाषाओं में बात करने में सक्षम हैं।
इनमें से कुछ ऐसे हैं जिनका वर्णन आप ‘हॉट थेरेपिस्ट’ जैसे मनोरंजक या काल्पनिक चरित्रों जैसा कर सकते हैं। लेकिन इस पर सबसे अधिक लोकप्रिय मानसिक स्वास्थ्य सहायक जैसे थेरेपिस्ट हैं, उनके 12 मिलियन संदेश हैं। इनके अलावा ‘आर यू फीलिंग ओके’ जैसे चैटबॉट भी हैं, जिन्हें 16.5 मिलियन मैसेज मिले हैं।
‘साइकोलॉजिस्ट’ से खुश हैं यूज़र्स
‘साइकोलॉजिस्ट’ अब तक का सबसे लोकप्रिय मानसिक स्वास्थ्य बॉट है। इसके कई यूज़र्स ने सोशल मीडिया साइट रेडिट पर शानदार समीक्षाएं लिखी हैं।
एक यूजऱ ने लिखा है, ‘यह एक जीवनरक्षक है।’ वहीं एक दूसरे यूजर ने लिखा है, ‘इससे मुझे और मेरे बॉयफ्रेंड दोनों को अपनी भावनाओं के बारे में बात करने और उन्हें समझने में मदद मिली।’
ब्लेज़मैन98 के पीछे न्यूजीलैंड के रहने वाले 30 साल के सैम जिय़ा हैं।
वो कहते हैं, ‘मैंने कभी नहीं सोचा था कि यह लोकप्रिय हो जाए, मैंने कभी यह भी नहीं सोचा था कि दूसरे लोग इसे टूल के रूप में इसका इस्तेमाल करें।’
जिय़ा कहते हैं, ‘फिर मुझे बहुत से लोगों से मैसेज मिला कि वे सच में इससे सकारात्मक रूप से प्रभावित हुए हैं और वे इसे समाधान के स्रोत के रूप में यूज़ कर रहे हैं।‘
मनोविज्ञान के इस छात्र का कहना है कि उन्होंने बॉट से बात कर अपनी पढ़ाई के दौरान मिले ज्ञान का इस्तेमाल कर अवसाद और चिंता जैसी आम मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के लिए उत्तर तैयार किए।
उन्होंने इसे अपने लिए तब बनाया जब उनके दोस्त व्यस्त थे और उन्हें उनकी जरूरत थी।
‘साइकोलॉजिस्ट’ की सफलता से आश्चर्यचकित सैम ‘एआई थेरेपी की उभरती प्रवृत्ति और यह युवाओं को क्यों आकर्षित कर रही है’, विषय पर एक स्नातकोत्तर अनुसंधान परियोजना पर काम कर रहे हैं।
कैरेक्टर.एआई पर सबसे अधिक यूजर 16 से 30 साल की आयु के हैं।
सैम कहते हैं, ‘मुझे संदेश भेजने वाले बहुत से लोग कहते हैं कि जब उनके विचार बहुत कठिन हो जाते हैं, तो वे इस बॉट का इस्तेमाल करते हैं, जैसे कि रात के 2 बजे जब वे सच में किसी दोस्त या चिकित्सक से बात नहीं कर पाते हैं।’
सैम का यह भी अनुमान है कि उनके चैटबॉट के उत्तर के प्रारूप की वजह से भी युवा उसके साथ अधिक सहज हो पाते हैं।
उनका मानना है कि फोन पर बात करना या आमने-सामने की बातचीत की तुलना में मैसेज से बात करना शायद कम कठिन है।
क्या कहते हैं असली ‘साइकोलॉजिस्ट’?
थेरेसा प्लेवमैन एक पेशेवर मनोचिकित्सक हैं। वो कहती हैं कि उन्हें आश्चर्य नहीं है कि इस प्रकार की थेरेपी युवा पीढ़ी में लोकप्रिय है, लेकिन वे इस बात पर सवाल उठाती हैं कि यह काम कितना करता है।
वो कहती हैं, ‘बॉट के पास कहने के लिए बहुत कुछ है। वह तुरंत धारणाएं बना लेता है, जैसे जब मैंने कहा कि मैं उदास महसूस कर रही हूं तो मुझे अवसाद के बारे में सलाह देना। लेकिन यह वैसा नहीं है, जैसा कोई इंसान प्रतिक्रिया देगा।’
थेरेसा कहती हैं कि बॉट वे सभी जानकारियां जमा करने में विफल रहता है जो एक इंसान चाहता है। वह एक सक्षम चिकित्सक नहीं है। लेकिन वो कहती हैं कि इसकी तत्काल और सहज प्रकृति उन लोगों के लिए उपयोगी हो सकती है जिन्हें मदद की ज़रूरत है।
वो कहती हैं कि बॉट का उपयोग करने वाले लोगों की संख्या चिंता पैदा करने वाली है। वो कहती हैं कि यह उच्च स्तर के मानसिक स्वास्थ्य और सार्वजनिक संसाधनों की कमी की ओर इशारा करती है।
कैरेक्टर.एआई की एक प्रवक्ता ने कहा, ‘हमें यह देखकर खुशी हो रही है कि लोगों और समुदाय की ओर से बनाए गए चरित्रों के माध्यम से लोगों को अच्छा समर्थन और जुड़ाव मिल रहा है, लेकिन यूज़र्स को वैध सलाह और मार्गदर्शन के लिए उस क्षेत्र के प्रमाणिक पेशेवरों की मदद लेनी चाहिए।’
कंपनी का कहना है कि चैट लॉग यूज़र्स के लिए निजी हैं, लेकिन सुरक्षा कारणों से अगर उनको पढऩे की ज़रूरत है तो उसके कर्मचारी चैट को पढ़ सकते हैं।
इस पर हर बातचीत लाल अक्षरों में आने वाली एक चेतावनी से शुरू होती है। इसमें कहा जाता है, ‘याद रखें, पात्र जो कुछ भी कहते हैं वह मनगढ़ंत है।’
यह एक रिमाइंडर है कि इसमें इस्तेमाल की गई तकनीक जिसे लार्ज लैंग्वेज मॉडल (एलएलएम) कहा जाता है, यह उस तरह से नहीं सोचती है जैसा एक इंसान सोचता है।
कैसी हैं एआई आधारित अन्य सेवाएं
एलएलएम पर आधारित रेप्लिका (Replika) जैसी साइट भी है, यह भी कैरेक्टर।एआई जैसी ही सेवा देती है। लेकिन उसकी प्रकृति को देखते हुए उसे केवल वयस्कों के लिए जैसा दर्जा दिया गया है।
एनालिटिक्स कंपनी सिमिलरवेब के आंकड़ों के मुताबिक बिताए गए समय और विजिट के आधार पर रेप्लिका कैरेक्टर।एआई जितनी लोकप्रिय नहीं है।
Earkick और Woebot भी एआई चैटबॉट हैं जिन्हें पहले से ही मानसिक स्वास्थ्य साथी के रूप में काम करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। इन दोनों कंपनियों का दावा है कि उनके शोध से पता चलता है कि ये ऐप्स लोगों की मदद कर रहे हैं।
कुछ मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि एआई बॉट मरीज़ों को खराब सलाह दे सकते हैं। उनकी चिंता यह भी है कि ये बॉट वे नस्ल या लिंग के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित भी हो सकते हैं। लेकिन चिकित्सा जगत ने इन चैटबॉट को धीरे-धीरे उपकरण के रूप में स्वीकार करना शुरू कर दिया है।
Limbic Access नाम के एक एआई सेवा को पिछले साल ब्रिटेन की सरकार ने मेडिकल डिवाइस का प्रमाण पत्र दिया था। वह यह प्रमाणपत्र हासिल करने वाला पहला मानसिक स्वास्थ्य चैटबॉट है।
अब इसका उपयोग नेशनल हेल्थ सर्विस के कई ट्रस्टों में रोगियों का वर्गीकरण करने और उनकी वरीयता तय करने में किया जाता है। (bbc.com/hindi)
उरुफ जाफरी
पाकिस्तान में केबल टीवी के पॉपुलर होने के साथ ही भारतीय टीवी और फिल्मों की चर्चा भी शुरू हुई। स्टार प्लस, जी सिनेमा, जी टीवी और कलर्स टीवी के ड्रामे और शो खूब देखे जाने लगे।
यह भी कहा जा सकता है कि इससे पाकिस्तान के अपने चैनलों की डिमांड भी कम हुई।
इसका इलाज ये निकाला गया कि ‘कहानी घर-घर की’, ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’, जैसे टीवी धारावाहिकों का फार्मूला तैयार किया गया, जो बिकने भी लगा।
जब पाकिस्तान में केबल टीवी पर भारतीय चैनलों को बैन किया गया तो दर्शक उदास भी हुए। लेकिन आज भी पाकिस्तान के हमारे अपने ड्रामों में यह फार्मूला चल रहा है।
कौन कौन से सीरियल हुए मशहूर
पाकिस्तान के एक कामयाब टीवी और फि़ल्म लेखक साजी गुल, आजकल ग्रीन इंटरटेनमेंट चैनल के कंटेंट हेड हैं।
उनका कहना है, ‘स्टार प्लस ने हमारी मेल ऑडिएंस हमसे छीन ली क्योंकि सास बहू फार्मूला सिर्फ महिलाएं देखा करती थीं। स्टार प्लस का दौर पाकिस्तान ड्रामों के लिए पतन का दौर था।’
‘फिर पाकिस्तानी ड्रामे ने दोबारा करवट तब ली जब कैमरा तकनीक और कंटेंट में एडवरटाइजिंग से जुड़े लोगों ने भाग लिया।’
उन्होंने कहा, ‘ये और बात है कि जब वो (भारतीय चैनल वाले) हमसे लिखवाते हैं तो उन्हें पाकिस्तानी रंग ही चाहिए और हमारी उर्दू भी उन को बहुत पसंद है।’
भारतीय टीवी चैनलों को क्या पाकिस्तान में लोग अब भी मिस करते हैं? ये सवाल जिसके भी सामने मैंने रखा, उन लोगों को ‘कहानी घर-घर की’ और ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’, जरूर याद आया।
याद आता भी क्यों नहीं, पाकिस्तान में जब केबल टीवी ने आंख खोली तो सबसे बड़े आकर्षण हुआ करते थे, स्टार प्लस, जी टीवी, कलर्स टीवी और बॉलीवुड फि़ल्में।
स्टार प्लस और जी टीवी के ड्रामे जैसे हमारे घरों में रहने लगे। शाम के साढ़े छह बजे नहीं कि अम्मी, दादी, भाभियां, सासें, हम सभी टीवी का रिमोट संभाल के बैठ जाते और अगर केबल में मसला होता तो केबल वाले को भी फोन किया जाता।
ये 2004 की बात होगी जब मेरी बीबीसी उर्दू लंदन से वापसी हुई थी तो घर का माहौल फिर से मिला।
अगर काम से जल्दी वापसी हो जाती तो स्टार प्लस लग ही जाता और कोई ना कोई सीरियल का लुत्फ़ उठाया जाता। अम्मी से बात मनवानी होती तो पूजा की थाली भी बना ली जाती।
प्रोडक्शन के हिसाब से कहानी तो दस किश्त के बाद भी कुछ ज्यादा आगे ना बढ़ी होती लेकिन सीन इतने लंबे जरूर होते कि दो ब्रेक में ड्रामा ख़त्म हो जाता।
ये स्टार प्लस या जी की वो तरकीब थी जो दर्शकों को बांधे रखती।
ताहिर जमां का ताल्लुक पहाड़ी इलाके हुंज़ा से है, जहां महिलाएं कम ही घरों से निकलती हैं।
वे याद करते हैं, ‘गोपी और ससुराल गेंदा फूल जैसे ड्रामे मेरी सासू मां के दिल से बहुत करीब थे। वो जैसे ड्रामे देखते हुए हर हीरोइन और वैम्प को डांटना अपना कर्तव्य समझतीं, फिर उनको याद दिलाया जाता कि ये तो सिर्फ एक ड्रामा है, लेकिन हम दोनों देखते रोज थे।’
ताहिर जमां का मानना है, ‘हमारी महिलाएं न सिर्फ इन ड्रामों को शौक से देखती थीं बल्कि उसमें जो कुछ होता वो अपने जीवन में भी अप्लाई करतीं।’
‘वो ये भूल कर कि ये सभी धारावाहिक इतने लंबे-लंबे सीन्स पर एडिट किए जाते हैं, देखने वाले मासूम लोग उनके प्रभाव में गुम हो जाते।’
भारत और पाकिस्तान के टीवी सीरियल
टीवी और फिल्मों के मशहूर लेखक साजी गुल कहते हैं, ‘हमारे पास अपनी शैली वाले लेखक और निर्देशक हैं, जबकि भारतीय टीवी मनोरंजन में हर चैनल एक ही जैसा काम प्रोड्यूस कर रहे हैं।’
हालांकि पाकिस्तान की अपनी मनोरंजन की दुनिया पर भारतीय टीवी चैनलों का असर आज भी है, जो फार्मूला सबसे ज्यादा बिकता है वह है सास-बहू की तकरार वाला ड्रामा, क्योंकि भारतीय चैनलों ने यही मसाला हर ड्रामे पर छिडक़ा है और केबल से जो कुछ हम तक आया वो सिर्फ महिलाओं तक सीमित या लिमिटेड था।
अगर बात की जाए केबल पर भारतीय ड्रामों पर पाबंदी के बाद की तो महिलाओं ने भी यही कहा कि हम अब देखते ही नहीं और अगर देखे भी तो एक लंबा समय बीत चुका है।
ज़्यादा वक्त लंदन में गुजार कर आने वाली लाहौर की एक हाउस वाइफ का मानना है, ‘हमारी संस्कृति तो अलग-अलग है लेकिन पहनावा जरूर हमको भाता है। चाहे साड़ी हो या लहंगे। फैशन फॉलो करने से तो हमें कोई नहीं रोक सकता। साड़ी और ज्वेलरी के डिजाइन और कलर कॉम्बिनेशन के लिए तो हम दुबई से भी अक्सर खरीददारी करते हैं।’
कुछ महिलाओं का ये भी कहना था कि उन सभी जी और स्टार प्लस के ड्रामों में भारतीय कल्चर खूब जम कर दिखाया जाता। उसका पाकिस्तानी समाज पर भी असर रहा है और आगे भी रहेगा।
कुछ महिलाओं ने ये भी कहा कि एक दूसरे की संस्कृति को समझने के लिए कौन सा हिमालय पार जाना पड़ता है। एक घर के दो हिस्से ही तो हैं, जो धर्म के नाम पर बांट दिए गए। लेकिन अगर हम आम पाकिस्तानी युवा की बात करें तो हमारी आम बोलचाल में हिंदी ड्रामों और फिल्मों की भाषा जरूर बोली जाती है।
एक उबर चालक ने अपनी सवारियों के बारे में कहा, ‘कस्टमर अपमान करते हैं।’
ये एक उदाहरण है कि किस तरह से पाकिस्तानी जुबान में ऐसे जुमले भी आ गए जो भारतीय ड्रामों या फिल्मों में इस्तेमाल होते हैं, जैसे कि सीख लेना, अच्छे से मिल लेना, इसके चलते वैसा हो गया, ऐसा कब तक चलेगा, रोक लगा दी है। वगैरह-वगैरह।
भारत में पाकिस्तानी टीवी सीरियल
हालांकि ये भी याद रखना होगा कि पाकिस्तान के लेखक-लेखिकाओं के लिखे ड्रामे भारत में भी खूब मकबूल हुए हैं।
नूर उल हुदा शाह, बी गुल, फरहत इश्तियाक़ और उमेरा अहमद के टीवी ड्रामे सरहद पार भी शौक से देखे गए।
फरहत इश्तिाक़ का ड्रामा हमसफऱ शुद्ध पाकिस्तानी समाज पर बनाया गया था और सरहद पार भी खूब चर्चा में रहा।
हमारे समाज में जागीरदारों का मुद्दा बड़ा मुद्दा है, ज्यादा ड्रामे इसकी चर्चा करते हैं लेकिन बकौल लेखक और आलोचक सलमान आसिफ कहते हैं कि हमारी सभ्यता में वो रंग नहीं है शायद जो हिंदू धर्म से जुड़े हैं।
आसिफ का यह भी कहना था कि हिंदुस्तान में त्योहार भी इतने सारे हैं कि ड्रामे के कई एपिसोड उनको मनाते हुए दिखाए जा सकते हैं और वो रौनक, वो रंगीनी सभी को अपनी ओर खींचती है।
यही वजह है पाकिस्तानी समाज में शादी ब्याह से लेकर मनोरंजन की स्क्रीन्स तक में इनकी परछाइयां देखी जा सकती हैं।
आसिफ कहते हैं कि आज के टीवी सीरियल्स चकाचौंध भरे होते हैं और ये सरहद के दोनों तरफ बन रहे हैं।
वहीं दूसरी तरफ कुछ लोगों ने यह भी कहा कि भारतीय टीवी और बॉलीवुड असली भारत नहीं दिखाते हैं, जो टीवी और फिल्मी स्क्रीन्स से बहुत अलग, सादा और मुश्किल है।
मुल्क के तौर पर भी भारत बड़ा है, तो वहां ज्यादा मुद्दे हैं। यही वजह है कि नेटफ्लिक्स में अच्छा कवर किया जा रहा है, चाहे ‘दिल्ली क्राइम’ हो या ‘बॉम्बे बेगम’। ये भी नहीं भूलना चाहिए कि टीवी ड्रामों की और नेटफ्लिक्स को देखने वाले दर्शक अलग-अलग हैं।
हाल ही में नेटफ्लिक्स पर दिखाए जाने वाले सीरियल ‘द रेलवे मैन’ ने तो जैसे लोगों को हिलाकर रख दिया।
समाज की हर कहानी को लिखना और स्क्रीन्स पर दिखाना भी एक बड़े हिम्मत की बात है। यह पाकिस्तान के लेखकों के लिए आसान नहीं है।(bbc.com)
डॉ. आर.के. पालीवाल
मध्य प्रदेश में प्रचंड बहुमत से बनी भारतीय जनता पार्टी की सरकार के पंख धीरे-धीरे खुलने शुरु हुए हैं। पूत के पांव पालने में दिखने से भविष्य का अनुमान लगने की कहावत के आधार पर मध्य प्रदेश की नई सरकार के बारे में भी यह कहा जा सकता है कि उसका ऊंट किस करवट बैठने वाला है। जिस तरह से अल्पमत सरकार बनाने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है क्योंकि उसे समर्थन देने वाला हर विधायक मंत्री पद की ख्वाईश रखता है।
वैसे ही प्रचंड बहुमत की सरकार बनने में यह परेशानी रहती है कि जीतने वाले विधायकों में मंत्री पद की खवाइश रखने वाले कई दर्जन कद्दावर विधायक दावेदारी करते हैं और जब केन्द्र के मंत्री और सासंद एवम कई बार चुनाव जीते उम्मीदवार भी विधायकों की सूची में शामिल हो जाएं तो ऐसे लोगों को मंत्रालय भी कद के अनुरूप देना पड़ता है। यही कारण रहा कि सरकार के मंत्री पद बांटने में इतना विलंब हुआ और अब मंत्रियों के विभाग बांटने में भी जबरदस्त माथापच्ची हो रही है।
अभी तक सरकार के गठन से लेकर नई सरकार के प्रारंभिक फैसलों से तीन बात तो स्पष्ट दिखाई देती हैं। मध्य प्रदेश में अप्रत्यक्ष रूप से मुख्यत: केंद्र सरकार का ही राज होगा और प्रदेश सरकार केंद्र सरकार की खड़ाऊ की तरह केन्द्र सरकार के इशारों पर काम करेगी। जिस तरह से मुख्यमंत्री और कैबिनेट के अन्य मंत्रियों का चयन हाई कमान के निर्देशन में हुआ है और कैबिनेट ने जिस प्रकृति के प्रारंभिक फैसले लिए हैं उससे यह स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि राज्य सरकार पूरी तरह केन्द्र सरकार के इशारों पर चलेगी। सरकार के लिए धर्म सबसे बड़ी प्राथमिकता होगी। राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा और बाद में उसके प्रचार प्रसार के लिए मध्य प्रदेश सरकार ज्यादा से ज्यादा भक्तों को अयोध्या भेजकर लोकसभा चुनाव के लिए माहौल बनाने की पूरी कोशिश करेगी।
तीसरे शिवराज सिंह चौहान की सरकार के काफी निर्णयों को बदला जा सकता है। सबसे पहले भोपाल में बी आर टी एस कॉरिडोर योजना का खात्मा किया जा रहा है जिसे सरकार ने सार्वजनिक यात्रा के साधन के रूप में मील का पत्थर कहा था। लाडली बहना योजना को पुराने स्वरूप में जारी रखने पर वर्तमान मुख्यमंत्री का गोलमाल उत्तर था कि जन कल्याण की सभी योजनाओं को आगे बढ़ाएंगे। सरकार के शुरूआती निर्णय दर्शाते हैं कि कम से कम मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान का युग लगभग समाप्त हुआ।शिवराज सिंह चौहान का कद न केवल मध्य प्रदेश भाजपा में सबसे ऊपर है उनका नाम राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी के विकल्प के रुप में भी जब तब उछलता रहता था। 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रचंड जीत प्रदेश सरकार का सबसे प्रमुख लक्ष्य होगा। वर्तमान सरकार की सफलता की यही सबसे बडी कसौटी होगी।
विधान सभा चुनाव नतीजों के बाद शिवराज सिंह चौहान ने अपने पक्ष में हवा बनाने के लिए यही तीर चला था जब वे सबसे पहले छिंदवाड़ा यह कहकर गए थे कि आगामी लोकसभा चुनाव में यह सीट भी भाजपा को दिलाकर लोकसभा चुनाव में प्रदेश में क्लीन स्वीप करना है। हालांकि उनके इस वक्तव्य से भी केन्द्रीय नेतृत्व ने उन्हें कुर्सी नहीं सौंपने के निर्णय में कोई बदलाव नहीं किया। शायद शिवराज सिंह चौहान पर केंद्रीय नेतृत्व को अपने हिसाब से काम कराने का विश्वास नहीं था इसीलिए मध्य प्रदेश में डॉ मोहन यादव के नेतृत्व में नई टीम खड़ी की गई है ताकि वह रिटर्न गिफ्ट के रूप में लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल कराने के लिए केंद्रीय नेतृत्व की योजनाओं को क्रियान्वित कर सके।
हृदयेश जोशी
लक्षद्वीप से वाकई प्यार, या महज़ पाखंड ? हम इतना आंदोलित होते नहीं दिखते जब संवेदनशील हिमालय को तोड़ा जाता है या हसदेव अरण्य जैसे अनमोल जंगल की हत्या की जाती है। पश्चिमी तट पर हमें खिलखिलाता लक्षद्वीप दिखाया जा रहा लेकिन पूर्वी तट के आगे अंडमान-निकोबार द्वीपों में 72000 करोड़ के अल्ट्रा मेगा प्रोजेक्ट लाकर उसकी दुर्लभ जैव विविधता को नष्ट करने की तैयारी है।
मालदीव-लक्षद्वीप विवाद के बारे में बोल रहे कितने लोग प्रकृति को करीब से महसूस करते हैं, मैं नहीं कह सकता। प्रकृति का कोई भी नज़ारा चाहे वो खिडक़ी से दिखने वाली सुबह की लाली हो, हिमालय की धवल चोटियां या सुदूर समुद्र तट पर उठती-गिरती लहरें, सबका अपना मज़ा है। इन ख़ूबसूरत नज़ारों को लेकर फैलाई कड़वाहट बताती है कि हम प्रकृति की सुंदरता नहीं अपनी कुरूपता में खोये हैं। अगर आप हिन्दुस्तान में घूमे हैं और अगर आपके पास कुदरत की अठखेलियां देखनी की नजऱ और पवित्रता है तो आपको हर जगह खूबसूरत लगेगी। पंजाब-हरियाणा में सरसों से लदे खेत, यूपी में चंबल के बीहड़ों से लेकर बलिया में गंगा की ख़ूबसूरती, बिहार के गांव, झारखंड के जंगल, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के झरने और पठार और अरण्य, बंगाल और ओडिशा की संस्कृति, कितना कुछ है। अभी मैंने दक्षिण के तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र या पश्चिम में गोवा, महाराष्ट्र, गुजरात और उत्तर में दिल्ली, उत्तराखंड, हिमाचल और कश्मीर आदि का जि़क्र ही नहीं किया।
राजस्थान और उत्तर-पूर्व क्या कुदरती ख़ूबसरती में किसी से कम हैं? असल में जो सुंदरता हमें दिखाई जा रही है या जिसके लिये हम लड़ रहे हैं वह सुंदरता नहीं हमारे भीतर की कुरूपता है। हर विषय पर ध्रुवीकृत होकर बोलना और लडऩा हमारा नया शगल बन चुका है। वरना हज़ारों ग्लेशियरों और हरियाली से भरपूर या 7,500 किलोमीटर की तटरेखा वाले इस देश के नागरिक तब अपने अभिमान के लिये इतना आंदोलित होते क्यों नहीं दिखते जब संवेदनशील हिमालय को तोड़ा जाता है या बहुमूल्य हसदेव अरण्य जैसे अनमोल जंगल की हत्या की जाती है और वहां रह रहे मूल निवासियों और आदिवासियों को उजाड़ा जाता है। हम तब परेशान क्यों नहीं होते जब हमारे मैंग्रोव तबाह किये जाते हैं या शहरों का सीवेज पवित्र नदियों में छोड़ा जाता है।
संयोगवश इस समय हमारे जंगल, झरने, समुद्र तट और हिमालयी क्षेत्र ही नहीं यहां रहने वाले लोग भी संकट में हैं। एक बड़ा ख़तरा पूर्वी तटों पर है जहां अंडमान-निकोबार द्वीप पर करीब 72,000 करोड़ रुपये के प्रोजेक्ट लाकर इस संवेदनशील क्षेत्र को हांगकांग, सिंगापुर और दुबई बनाने की योजना है। इस कृत्रिम अभिमान और उत्तेजना ने प्रकृति से प्रेम या भारत की अस्मिता के लिये अभिमान जितना भी दिखाया हो लेकिन एक सुविधाभोगी समाज की पाखंडी प्रवृत्ति और दूरदृष्टिहीनता को अवश्य उजागर किया है।
-लक्ष्मीकांत पाण्डेय
एक सहेली ने दूसरी सहेली से पूछा:- बच्चा पैदा होने की खुशी में तुम्हारे पति ने तुम्हें क्या तोहफा दिया ?
सहेली ने कहा - कुछ भी नहीं!
उसने सवाल करते हुए पूछा कि क्या ये अच्छी बात है ? क्या उस की नजऱ में तुम्हारी कोई कीमत नहीं ?
लफ्ज़ों का ये ज़हरीला बम गिरा कर वह सहेली दूसरी सहेली को अपनी फिक्र में छोडक़र चलती बनी।
थोड़ी देर बाद शाम के वक्त उसका पति घर आया और पत्नी का मुंह लटका हुआ पाया। फिर दोनों में झगड़ा हुआ।
एक दूसरे को लानतें भेजी। मारपीट हुई, और आखिर पति पत्नी में तलाक हो गया।
जानते हैं प्रॉब्लम की शुरुआत कहां से हुई ? उस फिजूल जुमले से जो उसका हालचाल जानने आई सहेली ने कहा था।
बिकास जी ने अपने जिगरी दोस्त पवन से पूछा:- तुम कहां काम करते हो?
मनोज जी- फला दुकान में।
बिकास जी - कितनी तनख्वाह देता है मालिक?
मनोज जी-18 हजार।
बिकास जी-18000 रुपये बस, तुम्हारी जिंदगी कैसे कटती है इतने पैसों में ?
मनोज जी- (गहरी सांस खींचते हुए)- बस यार क्या बताऊं।
मीटिंग खत्म हुई, कुछ दिनों के बाद मनोज जी अब अपने काम से बेरूखा हो गया। और तनख्वाह बढ़ाने की डिमांड कर दी।
जिसे मालिक ने रद्द कर दिया। पवन ने जॉब छोड़ दी और बेरोजगार हो गया। पहले उसके पास काम था अब काम नहीं रहा।
एक साहब ने एक शख्स से कहा जो अपने बेटे से अलग रहता था। तुम्हारा बेटा तुमसे बहुत कम मिलने आता है। क्या उसे तुमसे मोहब्बत नहीं रही?
बाप ने कहा बेटा ज्यादा व्यस्त रहता है, उसका काम का शेड्यूल बहुत सख्त है। उसके बीवी बच्चे हैं, उसे बहुत कम वक्त मिलता है।
पहला आदमी बोला- वाह!!
यह क्या बात हुई, तुमने उसे पाला-पोसा उसकी हर ख्वाहिश पूरी की, अब उसको बुढ़ापे में व्यस्तता की वजह से मिलने का वक्त नहीं मिलता है। तो यह ना मिलने का बहाना है
इस बातचीत के बाद बाप के दिल में बेटे के प्रति शंका पैदा हो गई। बेटा जब भी मिलने आता वो ये ही सोचता रहता कि उसके पास सबके लिए वक्त है सिवाय मेरे।
याद रखिए जुबान से निकले शब्द दूसरे पर बड़ा गहरा असर डाल देते हैं।। बेशक कुछ लोगों की जुबानों से शैतानी बोल निकलते हैं।
हमारी रोज़मर्रा की जि़ंदगी में बहुत से सवाल हमें बहुत मासूम लगते हैं।
जैसे-
तुमने यह क्यों नहीं खरीदा।
तुम्हारे पास यह क्यों नहीं है।
तुम इस शख्स के साथ पूरी जिंदगी कैसे चल सकती हो।
तुम उसे कैसे मान सकते हो।
वगैरा वगैरा...
इस तरह के बेमतलबी फिजूल के सवाल नादानी में या बिना मकसद के हम पूछ बैठते हैं।
जबकि हम यह भूल जाते हैं कि हमारे ये सवाल सुनने वाले के दिल में नफरत या मोहब्बत का कौन सा बीज बो रहे हैं।।
आज के दौर में हमारे इर्द-गिर्द, समाज या घरों में जो टेंशन टाइट होती जा रही है, उनकी जड़ तक जाया जाए तो अक्सर उसके पीछे किसी और का हाथ होता है।
वो ये नहीं जानते कि नादानी में या जानबूझकर बोले जाने वाले जुमले किसी की जि़ंदगी को तबाह कर सकते हैं।
ऐसी हवा फैलाने वाले हम ना बनें।
मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज़्ज़ू अपनी पत्नी साजिदा अहमद के साथ जब रविवार रात चीन रवाना हो रहे थे, तब देश में भारत से संबंधों पर एक अलग ही बहस छिड़ी हुई थी।
मोहम्मद मुइज़्ज़ू राष्ट्रपति बनने के बाद पहली बार चीन के औपचारिक दौरे पर हैं। चीनी राष्ट्रपति के न्योते पर मोहम्मद मुइज़्ज़ू अपनी सरकार के शीर्ष प्रतिनिधिमंडल के साथ चीन पहुंचे हैं।
चीन में दोनों देशों के बीच कई समझौतों पर आधिकारिक बातचीत होगी।
मोहम्मद मुइज़्ज़ू राष्ट्रपति बनने के बाद सबसे पहले 27 नवंबर को तुर्की के दौरे पर गए थे। इससे पहले मालदीव के राष्ट्रपति पहला विदेश दौरा भारत का करते थे।
ताज़ा बहस मुइज़्ज़ू सरकार के मंत्रियों और नेताओं के पीएम मोदी और भारत पर की विवादित टिप्पणी के बाद शुरू हुई है।
इस कहानी में जानेंगे कि मालदीव का मीडिया इस बहस को कैसे देख रहा है और मालदीव के अहम लोग क्या कह रहे हैं?
लक्षद्वीप बनाम मालदीव की बहस
इन तस्वीरों पर काफ़ी लोगों ने ये कहा कि अब भारतीयों को मालदीव नहीं, लक्षद्वीप जाना चाहिए। पीएम मोदी ने भी भारतीयों से लक्षद्वीप घूमकर आने की बात अपने ट्वीट में की थी।
पीएम मोदी की तस्वीरों पर मुइज़्ज़ू सरकार में मंत्री मरियम शिउना ने आपत्तिजनक ट्वीट किए थे। शिउना ने पीएम मोदी को इसराइल से जोड़ते हुए निशाने पर लिया था।
इसके अलावा वो लक्षद्वीप का भी मजाक उड़ाते हुए दिखी थीं। मालदीव के नेता मालशा शरीफ और महज़ूम माजिद भी भारत को घेरते हुए नजर आए थे।
ज़ाहिर रमीज मालदीव सीनेट के सदस्य हैं और प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ मालदीव के सदस्य हैं।
वो सोशल मीडिया पर पीएम मोदी की लक्षद्वीप वाले तस्वीरों पर कहते हैं, ‘बढिय़ा कदम है, पर हमसे मुकाबला करने की बात भ्रामक है। भारतीय इतने साफ कैसे हो सकते हैं। उनके कमरों से कभी ना जाने वाली बदबू बड़ी रुकावट है।’
सोशल मीडिया पर एक अभियान भी मालदीव में शुरू किया था, जिसमें लोगों से मालदीव आने की बात कही जा रही थी और वहाँ की ख़ूबसूरती को बताया जा रहा था।
ऐसे में जब मालदीव सरकार के नेताओं की ओर से पीएम मोदी के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी या प्रतिक्रिया आईं तो इसके जवाब में भारतीयों की ओर से भी ग़ुस्से का इज़हार सोशल मीडिया पर किया गया।
बॉलीवुड अभिनेता अक्षय कुमार, सलमान ख़ान, सचिन तेंदुलकर, श्रद्धा कपूर समेत कई हस्तियों ने भारत के समंदर में घूमने की बात की। अक्षय कुमार समेत कई लोगों ने मालदीव की ओर से आई प्रतिक्रियाओं पर कड़ी आपत्ति जताई।
ये मामला बढ़ता देख मालदीव की सरकार को सफाई देनी पड़ी। मालदीव सरकार ने बयान जारी कर कहा, ‘जो बातें सोशल मीडिया पर कही जा रही हैं, वो हमें पता हैं। ये निजी बयान हैं। इनका सरकार से कोई नाता नहीं। आगे ऐसा किसी ने बयान दिया तो हम कार्रवाई करने से हिचकेंगे नहीं।’
इस बयान के कुछ घंटों बाद ही ये रिपोर्ट्स आने लगीं कि मालदीव सरकार ने भारत को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाले मंत्रियों को निलंबित कर दिया है।
मालदीव का मीडिया क्या कह रहा है?
भारत और मालदीव के संबंधों में आई ताज़ा हलचल पर वहाँ के मीडिया में भी रिपोर्ट्स की जा रही हैं।
मालदीव के मीडिया समूह द एडिशन की रिपोर्ट के मुताबिक, लक्षद्वीप में टूरिजम बढ़ाने की बात करने वाले भारतीय पीएम नरेंद्र मोदी के फैसले पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाले तीन डिप्टी मंत्रियों को मालदीव सरकार ने सस्पेंड कर दिया है।
इन लोगों को पीएम मोदी का अपमान और आलोचना के चलते सस्पेंड किया गया है। पीएम मोदी ने बीते हफ्ते लक्षद्वीप में टूरिजम बढ़ाने को लेकर वीडियो पोस्ट किया था।
द एडिशन की रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार ने इन लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की है। जनता की ओर से इन नेताओं पर एक्शन लिए जाने की मांग की जा रही थी। कहा जा रहा है इन लोगों के बयानों से मालदीव के पर्यटन पर असर हुआ और देश की छवि खऱाब हुई।
मालदीव के मीडिया में भारतीयों की ओर से यात्राओं को रद्द करने के फैसले को भी जगह दी जा रही है। मालदीव जाने वालों में सबसे ज़्यादा तादाद भारतीयों की होती है।
हर साल मालदीव कितने भारतीय जाते हैं?
रविवार देर रात टूर एंड ट्रैवल कंपनी ‘इज़ माय ट्रिप’ की ओर से भी मालदीव की फ्लाइट बुकिंग रद्द करने का एलान किया गया।
‘इज़ माय ट्रिप’ के सीईओ निशांत ने सोशल मीडिया पर पोस्ट लिख कहा- हम अपने देश के साथ खड़े हैं और मालदीव की फ्लाइट बुकिंग हमने सस्पेंड कर दी हैं।
भारत से हर साल मालदीव बड़ी संख्या में लोग जाते हैं। बीते कुछ सालों में इस संख्या में इजाफा देखने को मिला है।
मालदीव के मीडिया में और क्या कुछ छपा
द प्रेस की रिपोर्ट में भी पीएम मोदी का अपमान करने वाले नेताओं को सस्पेंड किए जाने की ख़बर को प्रमुखता से छापा गया है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की सरकार लक्षद्वीप में सफ़ेद रेत बीच की ओर पर्यटकों को आकर्षित करने की कोशिश कर रही है।
ऐसा कहा जा जाता है कि मालदीव की सफेद रेत वाले बीच काफी सुंदर होते हैं। इन तटों की तस्वीरें, वीडियो भी सोशल मीडिया पर मशहूर हस्तियों समेत लोग शेयर करते रहे हैं।
भारत की इस कोशिश पर मालदीव सरकार समर्थक सोशल मीडिया एक्टिविस्टों ने टिप्पणी की, जिससे बाद में मालदीव सरकार ने किनारा किया।
इस रिपोर्ट में मालदीव सरकार के बयान को जगह दी गई।
इस बयान के मुताबिक़, ‘विदेशी नेताओं और शीर्ष व्यक्तियों के खिलाफ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपमानजनक टिप्पणी के बारे में मालदीव सरकार को जानकारी है। ये विचार निजी हैं और मालदीव सरकार के नज़रिए का प्रतिनिधित्व नहीं करते। सरकार का मानना है कि बोलने की आजादी का बर्ताव लोकतांत्रिक और जिम्मेदार तरीके से किया जाना चाहिए ताकि इससे नफरत, नकारात्मकता न बढ़े और अंतरराष्ट्रीय साझेदारों के साथ मालदीव के रिश्ते प्रभावित ना हों। सरकार के संबंधित विभाग ऐसे लोगों पर एक्शन लेने से हिचकेंगे नहीं, जो इस तरह की अपमानजनक टिप्पणी करते हैं।’
मालदीव में कहाँ से कितने लोग आते हैं?
मालदीव के मीडिया संस्थान एवीएएस ने देश में आने वाले पर्यटकों की संख्या पर रिपोर्ट की है। दिसंबर 2023 की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि मालदीव आने वाले सबसे ज़्यादा पर्यटक भारतीय हैं।
इस रिपोर्ट के मुताबिक, मालदीव में किस देश से आते हैं कितने लोग?
भारत- 2 लाख 5 हजार
रूस- 2 लाख 3 हजार
चीन- 1 लाख 85 हजार
यूके- 1 लाख 52 हजार
जर्मनी- 1 लाख 32 हजार
इटली- 1 लाख 11 हजार
अमेरिका- 73 हजार
रिपोर्ट में कहा गया है कि मालदीव में 1135 पर्यटन संबंधी सुविधाएं हैं। इनमें 175 रिसॉर्ट, 802 गेस्ट हाउस, 144 सफारी और 14 होटल हैं।
मालदीव के पूर्व नेताओं की आपत्ति
मालदीव के मीडिया संस्थान सन ने भी देश के पूर्व नेताओं के बयानों को जगह देते हुए इस मामले पर रिपोर्ट की है।
सन ने पूर्व राष्ट्रपति इब्राहिम सोलिह के रविवार को दिए बयान को जगह दी है।
सोलिह ने कहा था, ‘भारत के खिलाफ मालदीव के सरकारी अधिकारियों द्वारा सोशल मीडिया पर नफऱती भाषा इस्तेमाल किए जाने की मैं निंदा करता हूँ। भारत मालदीव का हमेशा से अच्छा दोस्त रहा है और हमारे दोनों देशों के बीच सालों पुरानी दोस्ती पर नकारात्मक असर डालने वाले इस तरह के संवेदनहीन बयान देने की हमें इजाजत नहीं देनी चाहिए।’
सोलिह की पार्टी एमडीपी ने भी बयान जारी कर मुइज़्ज़ू सरकार के इन बयानों की निंदा की।
सोलीह के राष्ट्रपति रहते हुए भारत और मालदीव के संबंध कऱीबी रहे थे।
मालदीव के कुछ और नेताओं ने भी भारत को लेकर की गई टिप्पणियों का विरोध किया था।
मालदीव के पूर्व विदेश मंत्री अब्दुल्ला शाहिद ने लिखा था, ‘मौजूदा मालदीव सरकार के उप मंत्रियों और सत्तारूढ़ गठबंधन के राजनीतिक दल के एक नेता की पीएम मोदी और भारतीय लोगों के खिलाफ सोशल मीडिया पर की गई अपमानजक टिप्पणी निंदनीय और नफऱत से भरी है। सार्वजनिक पदों पर बैठे लोगों को मर्यादा बनाए रखनी चाहिए। उन्हें स्वीकार करना चाहिए कि सोशल मीडिया एक्टिविज़्म और नहीं होगा और लोगों को देश के हितों की रक्षा करने की जिम्मेदारी निभाएंगे।’
उन्होंने लिखा, ‘हमारा संबंध आपसी सम्मान, इतिहास, संस्कृति और जनता के बीच मज़बूत रिश्तों की बुनियाद पर टिका है। भारत आजमाया हुआ और पक्का दोस्त है।’
मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने भी कहा था, ‘मालदीव सरकार की मंत्री मरियम एक ऐसे प्रमुख सहयोगी देश के लिए भयावह भाषा बोल रही हैं, जो मालदीव की सुरक्षा और समृद्धि के लिए अहम हैं। मुइज़्ज़ू सरकार को ऐसे बयानों से दूर रहना चाहिए। साथ ही ये स्पष्ट करना चाहिए कि ये सरकार के विचार नहीं हैं।’
मालदीव के सोशल मीडिया पर क्या चल रहा है?
मालदीव की कई अहम हस्तियां इस मामले पर अपनी राय व्यक्त कर रही हैं।
मालदीव की संसद के स्पीकर मोहम्मद असलम ने सोशल मीडिया पर लिखा, ‘कुछ उप-मंत्रियों की पीएम मोदी पर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी मालदीव के लोगों की सोच नहीं है। भारत और मालदीव सम्मान, सहयोग साझा करते हैं, जिससे दोनों को फायदा होता है। आइए इस रिश्ते को और मजबूत करते हुए आपसी संबंध बेहतर बनाते हैं।’
अहमद अदीब मालदीव के पूर्व पर्यटन मंत्री हैं।
वो सोशल मीडिया पर लिखते हैं, ‘शांति, सौहाद्र्र, सहिष्णुता और आतिथ्य सत्कार के उसूलों पर हमने मालदीव की टूरिज़्म इंडस्ट्री को बनाया। वैश्विक ब्रैन्डस और निवेश के जरिए हम यहां तक पहुंचे, इनमें भारत से मिले सहयोग भी शामिल हैं। तब जाकर हमें सफलता मिली और हम मालदीव को लग्जरी रिसॉर्ट डेस्टिनेशन में बदल पाए।’
अहमद अदीब कहते हैं, ‘मालदीव के कुछ नेताओं की ओर से जो आपत्तिजनक और नस्लभेदी टिप्पणी पीएम मोदी और भारतीयों पर की गई, मैं उसकी निंदा करता हूं। मालदीव सरकार ने इन बयानों और नेताओं से दूरी बरती, ये फैसला सराहनीय है। वैश्विक आर्थिक चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए ये जरूरी है कि हम सभी देशों से दोस्ताना संबंध रखें।’
मालदीव के सांसद हुसैन साहिम कहते हैं, ‘भारत हमेशा मालदीव का दोस्त और कऱीबी सहयोगी रहा है। सरकार में शीर्ष पदों पर बैठे लोगों की टिप्पणी निंदनीय है।’ एक और सांसद कासिम इब्राहिम भी सोशल मीडिया पर लिखते हैं, ‘जैसी टिप्पणी की गई, वो न सिर्फ राजनयिक उसूलों के खिलाफ है बल्कि ये दोनों देशों के पुराने संबंधों पर भी असर डालेगा। भारत मालदीव का दोस्त रहा है। ये अहम है कि हम दोस्ती और सदियों पुराने रिश्ते को बनाए रखें। हम ऐसे बयानों की इजाजत नहीं देनी चाहिए जो हमारे संबंधों पर असर डाले।’
सफात अहमद वित्तीय सलाहकार हैं। वो सोशल मीडिया पर एक लंबी पोस्ट में दोनों देशों के संबंधों के बारे में बताती हैं।
वो कहती हैं, ‘मालदीव और भारत पुराने दोस्त, सहयोगी और साझेदार हैं। 1965 से अब तक भारत और मालदीव के बीच संबंध हैं। हिंद महासागर क्षेत्र में स्थायित्व के लिए दोनों देशों के संबंध बेहद अहम हैं। सरकार के कुछ नेताओं की ओर से जो बयान दिए गए, वो दुर्भाग्यपूर्ण हैं। टूरिज्म हमारी अर्थव्यवस्था की जान है। महज राजनीतिक दबाव के लिए टूरिज्म इंडस्ट्री को खतरे में डालना देशभक्ति नहीं है। अफसोस कि इसकी कीमत मालदीव के लोगों को चुकानी होगी।’
अहमद महलूफ पिछली सरकार में युवा मामलों और खेल मंत्री थे।
वो सोशल मीडिया पर कहते हैं, ‘पड़ोसी देश पर की टिप्पणी के बाद पैदा हुए विवाद से चिंतित हूं। भारतीयों के मालदीव का बहिष्कार करने का हमारी अर्थव्यवस्था पर बड़ा असर होगा। ऐसे किसी अभियान से उबर पाना हमारे लिए मुश्किल रहेगा। मैं सरकार से मांग करता हूं कि इस मसले को जल्द सुलझाएं। भारत सदैव हमारा करीबी पड़ोसी रहेगा। हम भारत और भारतीयों से प्यार करते हैं और मालदीव में हमेशा उनका स्वागत है। मालदीव का नागरिक होने के नाते मैं सभी मालदीव वासियों की ओर से पीएम मोदी और भारत पर की टिप्पणी के लिए माफी मांगता हूं।’ (bbc.com/hindi)
गोकुल सोनी
एक दिन हमारे प्रेस में एक आदमी आया। उसके हाथ में एक तस्वीर थी। उस समय के हमारे सिटी चीफ (मुख्य नगर प्रतिनिधि) को वह फ़ोटो दिखाकर बताने लगा कि देखो मैंने अपने कैमरे से एक भूत की तस्वीर ली है। अति उत्साही सिटी चीफ महोदय ने दूसरे दिन अखबार में छाप दिया कि रायपुर कलेक्टोरेट परिसर में जो पानी टंकी है उसमें एक आदमी की लाश है। लाश भूत बनकर पानी टंकी के अंदर ही लेटा हुआ है। तस्वीर भी कुछ इसी तरह की थी कि टंकी में पानी भी भरा है और उसके अंदर एक लाश भी चित्त अवस्था में है। कलेक्टर आफिस में खलबली मच गई, लोग घबराने लगे, इतना डर कि कोई टंकी की ओर जाता भी नहीं था।
समाचार छपने के बाद संपादक जी ने मुझे बुलाया और उस फोटो के बारे में मेरी राय जाननी चाही। मैंने कहा -भूत होता है या नहीं ये तो मैं नहीं जानता लेकिन किसी कैमरे से इस तरह भूत की फोटो खींचना संभव नहीं है। फिर मैंने उस तकनीक के बारे में बताया। फोटोग्राफर या फोटोग्राफी को समझने वाले जानते हैं कि पहले फिल्म वाले कैमरे में एक फोटो खींच लेने के बाद दूसरी फ़ोटो खींचने के लिए फि़ल्म को आगे बढ़ाया जाता था। ऐसा करने के लिए कैमरे के ऊपर लगे एक लिवर को दांयें हाथ के अंगूठे से घूमाना पड़ता था। कभी-कभी कैमरे के अंदर का गेयर स्लिप करने से फिल्म आगे नहीं बढ़ती थी। हम जो पहले फोटो खींचे होते थे उसी के उपर दूसरी फ़ोटो भी खिंच जाती थी। फोटोग्राफी की भाषा में इसे डबल एक्सपोज, ओवरलेप या कुछ लोग सैंडिवज भी कहते हैं। उस फोटो खींचने वाले के साथ भी ऐसा ही हुआ था। पहले उसने उस कैमरे से किसी लाश की फोटो खींची रही होगी। फिल्म आगे नहीं बढ़ी और उसी के ऊपर टंकी की फोटो खींच ली । जब फिल्म से प्रिंट बनवाया तो दोनों फोटो मिलाकर ऐसा दिख रहा था मानो टंकी के अंदर किसी की लाश पड़ी हो।
पूरी बात समझकर संपादक जी खूब हंसे। अपनी ही गलती थी इसलिए खंडन छापना उचित नहीं था। मामला वहीं शांत भी हो गया। यहां फेसबुक के मित्रों को बता दूं कि अब डिजिटल कैमरे में एक नहीं अनेक ओवरलेप फोटो खींचने की सुविधा होती है। इसे मल्टी एक्सपोजर के नाम से जाना जाता है। खैर, क्या आप कभी भूत देखे हैं और उसकी फोटो खीचें हैं।
के.जी.कदम
हाल ही जैसे ट्रक वाले सडक़ों पर उतरे थे, ठीक वैसे ही अब सब्जियां सडक़ों पर उतर गई है। जी हां सब्जियां हड़ताल पर है।
हुआ यूं कि किसी विदेशी ऑनलाइन फूड टेस्ट एटलस कम्पनी ने एक रिपोर्ट में बता दिया कि ‘आलू बैंगन की सब्जी विश्व के 100 सबसे बेकार खाने में से एक है।’
तब से ये सब्जियां गुस्से में है।
ये रिपोर्ट ना बैंगन बॉस को हजम हुई, ना आलू भाई को और सच पूछो तो मुझे भी नहीं। मुझे तो खूब पसंद है आलू बैंगन।
बैंगन भले ही इंट्रोवर्ट किस्म का है। अकेला पकना पसन्द करता है। लेकिन आलू भाई तो हर सब्जी के साथ मेल मिलाप रखता है।
बस आलू का यही व्यवहार काम आया, उतर गई सारी सब्जियां सडक़ पर गोभी, टमाटर, लौकी, भिंडी.. सबकी सब सब्जियां।
कुछ ही देर में ‘आलू बैंगन जिन्दाबाद’ से लेकर ‘जब तक सूरज चांद रहेगा, आलू बैंगन का नाम रहेगा’ जैसे नारों से आकाश गूंज गया। सडक़े जाम हो गई।
कद्दू.. जिसे भले ही कम लोग पसन्द करे.. लेकिन साईज के चलते इस आन्दोलन का लीडर बनाया गया।
हम आदमियों में भी.. भले ही बुद्धि कम हो लेकिन शरीर का सुव्यवस्थित आकार प्रकार लीडर बनाने में खासी मदद कर देता है।
खैर सब्जियों ने तय किया कि नोटिस भेजा जाए इस कम्पनी को कि आपने किस आधार पर ये तय किया जनाब.. कि आलू बैंगन है सबसे खराब?
जरूर आपकी सर्वे टीम के सदस्य हमारे देश के लोग है। इसलिए वे सर्वे में सेटिंग सेट करना कराना जानते है किसे दबाना है, किसे उठाना है.. या फिर आप लोगों ने किसी नई या नहीं बिकने वाली सब्जी से सेंटिग बैठाई है। हम यह नहीं होने देंगे।
एक टिन्डा जो जुलूस में सबसे पीछे चल रहा था। एकाएक आगे आ गया और बोला.. ‘अरे वो विदेशियों। तुम लोग हमारी सब्जियों का स्वाद कैसे समझ सकते हो तुम्हारे घरों में तो रोज मुर्गे, मच्छी, सांप-कैंकड़े और भेड़ बकरी पकते है। कभी हमारे बैंगन का भर्ता खाकर तो देखोज् उंगलियां चाटोगे उंगलियां।
टिण्डे द्वारा बैंगन की इस तारीफ के बाद आलू ने एक तिरछी नजर टिन्डे पर फेंकी तो टिन्डे ने फिर हुंकार भरी और और ये हमारा भाई आलू ये राजा है राजा अमेरिका से लेकर अफ्रीका तक इसकी पकड़ है। ये इस कम्पनी को धूल चटा देगा।
कद्दू ने टिन्डे को हाथ के इशारे से चुप कराया.. भारतीय नेता की भांति कद्दू भी नहीं चाहता कि कोई छोटा मोटा एक टिन्डा भी नेता बन जाये
सो कद्दू गला साफ करके बोला..
देखो दोस्तों, हमें धैर्य रखना है। जबान पर काबू रखना है। कम्पनी से गलती भी हो सकती है। पर हम गालियां नहीं देंगे.. उटपटांग बोलने का नतीजा भीलवाड़ा के विधायकों से पूछो हम कानून के साथ मिलकर आगे बढ़ेंगे। हम विदेशियों को आलू बैंगन की इज्जत से नहीं खेलने देंगे। हम जब तक आलू बैंगन को विश्व की सर्वश्रेष्ठ सब्जी घोषित नहीं करवा देते, यहीं डटे रहेंगे।
आकाश एक बार फिर ‘आलू बैंगन -अमर रहे’ के नारों से गूंज उठा।
ये सभा और आगे बढ़े इससे पहले इन डटी हुई सारी सब्जियों को एक ठेले में भरकर सब्जीवाला मुहल्ले की और बढ़ गया।
ले.. आऔ... भाभीजी ..
ले.. आलू, बैंगन, टमाटर, मूली, मटर, मेथी, पालक, अदरक, लहसुन प्याज ले लो।
जगदीश्वर चतुर्वेदी
फिलीस्तीन इलाकों में जहां इस्राइली सेनाओं ने अवैध कब्जा जमा लिया है वहां पर फिलीस्तीनी नागरिकों को बेदखल किया जा रहा है और अवैध बस्तियों का निर्माण किया जा रहा है। इस्राइल अधिकृत फिलीस्तीनी इलाकों में बर्बरता का कानून चल रहा है। स्थिति इतनी भयाभय है कि जो स्वयंसेवी संस्थाएं फिलीस्तीनियों के लिए मानवीय सहायता का काम कर रही हैं, उन्हें अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की अवहेलना करके प्रवेश परमिट नहीं दिया जा रहा है। इस्राइली प्रशासन काम करने नहीं दे रहा है।
अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्थाओं को 16 दिसम्बर 2009 को अचानक ईमेल के जरिए इस्राइली प्रशासन ने सूचित किया कि स्वयंसेवी संस्थाओं को इस्राइल अधिकृत फिलीस्तीन इलाकों में काम करने का परमिट नहीं दिया जाएगा।
पहली बात यह कि फिलीस्तीन इलाकों में परमिट देने का अधिकार फिलीस्तीन प्रशासन को है, यदि इस्राइल ऐसा करता है तो वह फिलीस्तीन प्रशासन को कागजी संगठन मात्र बना रहा है और यह फिलीस्तीन जनता का अपमान है।
उल्लेखनीय है फिलीस्तीन प्रशासन में इन दिनों जो लोग बैठे हैं वे जनता के द्वारा चुने गए लोग हैं। फिलीस्तीन में आम चुनाव जितने पारदर्शी और लोकतांत्रिक ढ़ंग से होते हैं वैसे चुनाव इस्राइल में भी नहीं होते। फिलीस्तीन की संसद में ईमानदार और जनसेवा के लिए कुर्बानी देने वाले लोग ही संसद के लिए चुने जाते हैं।
इसके विपरीत इस्राइल में समूचा राजनीतिक नेतृत्व भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ है। मध्य-पूर्व के सबसे ज्यादा भ्रष्ट और बर्बर फंड़ामेंटलिस्ट इस्राइल में सत्ता पर कब्जा जमाए बैठे हैं। इनमें यहूदी फंडामेंटलिस्टों का वर्चस्व है।
फिलीस्तीन की सामयिक सच्चाई यह है कि अभी तक इस्राइल ने फिलीस्तीन की जमीन से अपने अवैध कब्जे नहीं हटाए है। अवैध रूप से बसायी गयी पुनर्वास बस्तियों को नहीं हटाया गया है । कुछ बस्तियों को कुछ समय पहले प्रतीकात्मक तौर पर खाली कराया गया था किंतु असल में सभी अवैध पुनर्वास बस्तियां ज्यों की त्यों बसी हुई हैं। संकेत मिल रहे हैं कि वेस्ट बैंक में बसायी गयी अवैध 149 बस्तियों को इजरायल नहीं हटाएगा। इसका अर्थ है कि फिलीस्तीनियों को स्थायी तौर पर विभाजन और घृणा में जीना पड़ेगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवीय कार्यकलाप संयोजन दफतर के मुताबिक अभी वेस्ट बैंक में इस समय 651 निगरानी चौकियां हैं। इन निगरानी चौकियों के जरिए फिलीस्तीनियों की चैकिंग होती है। जबकि अवैध बस्तियों के इलाकों में मात्र आठ निगरानी चौकियां हैं।
निगरानी चौकियों के बहाने फिलीस्तीनियों को दैनन्दिन जीवन में अकथनीय तकलीफों का सामना करना पड़ता है। उनकी रोजमर्रा की जिंदगी से लेकर समूची अर्थव्यवस्था पूरी तरह तबाह हो गयी है। आश्चर्य की बात है जो फिलीस्तीनी नागरिक अपने वतन आना चाहते हैं उन्हें इस्राइल आने नहीं देता और इसके बदले में फिलीस्तीनियों की जमीन पर अवैध ढ़ंग से यहूदियों को बाहर से लाकर बसाया जा रहा है। ऐसा करके स्थायी तौर पर वह फिलीस्तीन को पूरी तरह नष्ट करके उसका अंत ही कर देने पर आमादा है।
फिलीस्तीनियों पर एक तरफ हमले हो रहे हैं दूसरी ओर उन्हें बेदखल करके उनकी जमीन हथियाकर अवैध ढंग से यहूदी बस्तियां बसायी जा रही हैं। अवैध यहूदी बस्तियां सिर्फ बस्तियां ही नहीं हैं बल्कि इन्हें फिलीस्तीनी बस्तियों से अलग काटकर बसाया जा रहा है। उनकी बस्तियों से अलग इन्हें दीवार बनाकर किले की तरह बसाया जा रहा है। यह एक तरह का स्थायी विभाजन है जिसे फिलीस्तीन की सरजमीं पर थोपा जा रहा है।
कोई सभ्यता मानवीय है या नहीं यह इस तथ्य से तय होता है कि वह हमलावर है या नहीं। भारतीय सभ्यता का दर्जा इसी अर्थ में पश्चिमी सभ्यता से काफी ऊँचा है। भारतीय सभ्यता हमलावर नहीं है। इसमें मित्रता का भाव है,इसके विपरीत पश्चिमी पूंजीवादी सभ्यता हमलावर सभ्यता है। वह युध्द के बिना जिंदा नहीं रह सकती,बर्बर आक्रमण उसकी दैनन्दिन खुराक है।
बड़े पूंजीवादी राष्ट्र अन्य कमजोर देशों पर बर्बर हमले न करें तो पश्चिमी सभ्यता की सांसें बंद हो जाएं ,कारखाने बंद हो जाएं। पश्चिमी सभ्यता के भक्तों को इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि पश्चिम इतना बर्बर, निष्ठुर, निरंकुश ,असहिष्णु, और आक्रामक क्यों है ?
इस्राइल की बर्बरता और युध्दवादी मानसिकता के पीछे आज समूचा पश्चिमी सत्ता तंत्र खड़ा है। इस्राइल को पश्चिमी समाज आधुनिकता का आदर्श मॉडल बताकर पेश करता रहा है,जबकि इस्राइल सबसे ज्यादा बर्बर और हिंसक देश है। इस्राइली आक्रामकता,हिंसाचार,यहूदीवादी विस्तारवाद की चैनलों से गाथाएं गायब हैं। मरने वालों के बारे में कोई विस्तृत रिपोर्ट नहीं आ रही है। यहां तक कि संयुक्तराष्ट्र संघ भी इस्राइल के सामने असहाय है।
मुसलमानों का प्रतिदिन किसी न किसी बहाने कत्ल या जनसंहार दिखाना आम रिवाज बन गया है, इससे मुसलमानों के बारे में खास किस्म की इमेज बन रही है। मुसलमानों को बर्बर, आतंकवादी,हिंसक आदि रूपों में पेश किया जा रहा है। इसके कारण मुसलमानों के प्रति सही और संतुलित ढ़ंग से आम जीवन में बातें करना भी मुश्किल हो गया है।
मिथकशास्त्री एस.कीन ने मध्यपूर्व युध्द में निर्मित किए गए मिथों का खुलासा करते हुए लिखा है,''हथियारों से हत्या करने से पहले सबसे पहले हम मन में लोगों की हत्या करें।चाहे जिस तरह का युध्द हो।शत्रु हमेशा संहारक होता है और हम अच्छे लोगों की तरफ होते हैं। वे बर्बर होते हैं।हम सभ्य होते हैं।वे शैतान होते हैं।टेलीविजन से निरंतर आग के गोले दर्शक को एक ऐसे स्वप्नलोक में ले जाते हैं जहां उसके दिमाग में किसी भी किस्म के विचार नहीं आते। अब शत्रु को नम्बरों में बदल दिया गया था। ’
समाचार चैनलों में मारे गए इस्राइली नागरिकों ,बच्चों के माता-पिता के बयान,फोटो, दुखी चेहरे दिखाई दे जाएंगे ,किन्तु किसी मुसलमान बच्चे के माता-पिता के दुखी चेहरे नजर नहीं आएंगे। गाजा में तो लंबे समय से सिर्फ बच्चों का ही इस्राइल द्वारा कत्ल किया जा रहा है किन्तु किसी भी चैनल ने पीडित माता-पिता के दृश्य नहीं दिखाए, गोया ! मुसलमान बच्चों के माता-पिता नहीं होते !
चैनलों में लेबनान,सीरिया,इण्डोनेशिया, इरान, इराक, सोमालिया, सऊदी अरब, लीबिया, सूडान,अफगानिस्तान,पाकिस्तान आदि के मुसलमानों की कत्लेआम की खबरें आम हो गई हैं। आतंकवाद विरोधी मुहिम के तहत इन देशों के मुस्लिम बाशिंदों को खदेड़ा जा रहा है, हमले ए जा रहे हैं,बदनाम किया जा रहा है,सवाल किया जाना चाहिए कि यदि इन सभी देशों से मुसलमानों को निकाल देगें तो आखिरकार मुसलमान जाएंगे कहां ? क्या सारी दुनिया में मुसलमान सिर्फ शरणार्थी शिविरों में ही रहेंगे ? अथवा मुसलमानों को उनके देश में ही कैद करके रखा जाएगा ?जिससे उन्हें कभी भी कुत्तों की तरह गोलियों से भून दिया जाए,जैसा कि अभी मध्य-पूर्व के देशों में हो रहा है। पश्चिमी सभ्यता के रखवाले अमेरिका-इस्राइल ने मुसलमानों के सामने जनतांत्रिक प्रतिवाद का कोई अवसर ही नहीं छोड़ा है। मुसलमान को प्रतिवाद करना हो तो आतंकवादी बने अथवा अमेरिका के चरणों में पड़ा रहे।
मध्यपूर्व अमेरिका की जो दादागिरी चल रही है उसका गहरा संबंध अमेरिका के सैन्य उद्योग समूह के साथ है।अमेरिका की विदेश नीति का यह उद्योग समूह मूलाधार है। अमेरिका की समूची अर्थव्यवस्था इस समय सैन्य उद्योग,संस्कृति उद्योग और सूचना उद्योग पर टिकी हुई है। ये तीनों उद्योग समूह एक-दूसरे पर निर्भर हैं।एक के बिना दूसरे का विकास संभव नहीं है। हथियार उत्पादन अमेरिकी नीतियों में सबसे प्रमुख क्षेत्र है।हथियार उत्पादन क्षेत्र यदि प्रमुख क्षेत्र होगा तो उसका दूसरा कदम हथियारों का निर्यात करना होगा।अमेरिकी कंपनियों को इसके लिए ग्लोबल रणनीति बनानी होती है।इसका अर्थ यह है कि युध्द का निरंतर बने रहना। युध्द नहीं होंगे तो हथियार नहीं बिकेंगे। हथियार नहीं बिकेंगे तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था चौपट हो जाएगी।इसका अर्थ यह हुआ कि निररंतर युध्द का बने रहना।
मजेदार बात यह है कि हमारे शांति आंदोलन की मांगों में युध्द बंद करने या अमेरिका की युध्दवादी नीतियों को नंगा करने वाली मांगें तो रहती हैं किंतु सैन्य उद्योग को शांति और विकास के कार्यों में रूपान्तरित करने की मांग शामिल नहीं रहती।यह स्थिति अमेरिका के शांति आंदोलन की भी है।
कायदे से शांति आन्दोलन को युध्द के साथ -साथ सैन्य उद्योग के शांति एवं विकास कार्यों में रूपान्तरण की मांगों को भी अपना एजेण्डा बनाना चाहिए। शांति आंदोलन की मुश्किल यह है कि युध्द के खत्म होते ही वे शांत हो जाते हैं। जबकि सैन्य उद्योग काम करता रहता है।
युध्द को खत्म करने के लिए जरूरी है कि हथियारों के उत्पादन पर रोक लगायी जाए।हम यह चेतना अभी तक पैदा नहीं कर पाए हैं कि जनसंहारक अस्त्रों के निर्माण कार्य में हमारे वैज्ञानिक,रक्षा विशेषज्ञ आदि भाग न लें। हथियारों को बनाने वाले हाथ नहीं होगे तो हथियार भी नहीं बनेंगे। जनसंहारक अस्त्रों के निर्माण की प्रक्रिया से लेकर युध्द के मैदान और युध्द के बाद की स्थितियों तक शांति आंदोलन का दायरा फैला हुआ है।
हमें इस लचर तर्क से बचना चाहिए वैज्ञानिक अस्त्र नहीं बनाएंगे तो खाएंगे क्या ?सैन्य उद्योग समूह पर जो परिवार निर्भर हैं वे क्या खाएंगे ? अमेरिकी कंपनियां इस्राइल को नए अस्त्र-शस्त्र सप्लाई कर रही हैं। अमेरिकी सैन्य उद्योग में काम करने वाले ओवरटाइम काम कर रहे हैं। वे इस्राइल के आर्डर की सप्लाई लाइन चालू रखे हुए हैं।
सैन्य उद्योग में काम करने वाले कर्मचारी इस बात पर गर्वित हैं कि वे ज्यादा से ज्यादा उत्पादन कर रहे हैं। क्या हमारे मजदूर आंदोलन को सैन्य उद्योग में काम करने वाले कर्मचारियों के साथ शांति आंदोलन को जोडऩे के बारे में नहीं सोचना चाहिए ? हमें इस सवाल का भी जबाव खोजना होगा कि आखिरकार अमेरिका के शांति आंदोलन ने सैन्य कर्मचारियों को अपने प्रभाव में अभी तक क्यों नहीं लिया है ?
आज हथियारों की दौड़ धरती तक ही सीमित नहीं है बल्कि उसने पूरे अंतरिक्ष को भी अपनी जद में ले लिया है।पेंटागन का अब तक का सबसे बड़ा प्रकल्प है प्लेनेट अर्थ ।इसका लक्ष्य है अंतरिक्ष को हथियारों से भर देना। यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि आज अमेरिका अपने देश में शांति के काम में आने वाली कितनी चीजें पैदा कर रहा है ? बाजार में जाने पर बमुश्किल कोई ऐसी चीजें नजर आएं।हथियारों का निर्माण करके अमेरिका बड़े पैमाने जहां युध्द को बनाए रखना चाहता है,वहीं दूसरी ओर अमेरिका युद्ध के बहाने गैस और तेल के भंडारों को अपने कब्जे में लेना चाहता है। यह सिलसिला जारी है।
संदीप पांडेय
2002 में जब मैं मग्सायसाय पुरस्कार लेने मनीला गया तो वहां एक छोटा सा विवाद खड़ा हुआ। फिलीपींस की राष्ट्रपति से पुरस्कार प्राप्त करने के अगले दिन मुझे मनीला स्थित अमरीकी दूतावास पर अमरीका के इराक पर होने वाले सम्भावित हमले के खिलाफ एक प्रदर्शन में शामिल होना था। तब मग्सायसाय फाउण्डेशन की अध्यक्षा ने मुझे वहां जाने से यह कहकर रोकने की कोशिश की कि मेरे अमरीकी दूतावास पर प्रदर्शन में शामिल होने से फाउण्डेशन की बदनामी होगी। मैंने उन्हें याद दिलाया कि जिन चार कारणों से उन्होंने मुझे मग्सायसाय पुरस्कार दिया था उसमें एक भारत के नाभिकीय परीक्षण के खिलाफ वैश्विक नाभिकीय निशस्त्रीकरण के उद्देश्य से पोकरण से सारनाथ तक निकाली गई पदयात्रा थी। यानी युद्ध के खिलाफ मेरी भूमिका से वे पूर्व-परिचित थीं। मैंने उन्हें बताया कि इत्तेफाक से जिस दिन मुझे पुरस्कार मिला उसी दिन मनीला के विश्ववि़द्यालय में हुए एक शांति सम्मेलन में अमरीकी दूतावास पर प्रदर्शन करने का निर्णय लिया गया था और मैं इस सम्मेलन में भी आमंत्रित था। मेरे विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के बाद मनीला के एक अखबार ने अपने सम्पादकीय में मुझे यह चुनौती दी कि यदि मैं उतना ही सिद्धांतवादी हूं जितना कि मैं चाहता हूं कि वे मानें तो मैैं भारत लौटने से पहले मग्सायसाय पुरस्कार लौटा कर जाऊं। इससे मेरा काम आसान हो गया। मैंने हवाई अड्डे से पुरस्कार के साथ मिली धनराशि लौटा दी और मग्सायसाय फाउण्डेशन की अध्यक्षा को एक पत्र लिखकर कहा कि फिलहाल मैं पुरस्कार अपने पास रख रहा हूं क्योंकि पुरस्कार फिलीपींस के एक लोकप्रिय भूतपूर्व राष्ट्रपति के नाम पर है और भारत में यह ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों को मिल चुका है, जैसे जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे व बाबा आम्टे, जो मेरे आदर्श हैं। उस पत्र में मैंने यह भी लिखा कि जिस दिन उन्हें लगे कि मेरी वजह से मग्सायसाय फाउण्डेशन की ज्यादा बदनामी हो रही है तो मैं पुरस्कार भी लौटा दूंगा।
लेकिन अब मुझे लगता है कि समय आ गया है। मग्सायसाय पुरस्कार रॉकेफेलर फाण्डेशन व मुझे जिस श्रेणी में पुरस्कार मिला वह फोर्ड फाण्डेशन द्वारा प्रायोजित है, जो दोनों अमरीकी संस्थाएं हैं। अमरीका जिस तरह से वर्तमान में फिलीस्तीन के खिलाफ युद्ध में बेशर्मी से खुलकर इजराइल का साथ दे रहा है और अभी भी इजराइल को हथियार बेच रहा है, अब मेरे लिए असहनीय हो गया है कि मैं यह पुरस्कार रखूं। इसलिए मैंने अब मग्सायसाय पुरस्कार भी लौटाने का फैसला लिया है। मैं फिलीपींस के लोगों से माफी चाहता हूं क्योंकि भूतपूर्व राष्ट्रपति रेमन मग्सायसाय का नाम इस पुरस्कार के साथ जुड़ा हुआ है। किंतु मेरा विरोध सिर्फ पुरस्कार के अमरीकी जुड़ाव वाले पक्ष से है।
जैसे में मग्सायसाय पुरस्कार वापस कर रहा हूं तो मुझे लगता है कि मुझे अमरीका से प्राप्त डिग्रियां भी वापस कर देनी चाहिए। मैं न्यू यॉर्क राज्य स्थित सिरैक्यूस विश्वविद्यालय से प्राप्त मैन्यूफैक्चरिंग व कम्प्यूटर अभियांत्रिकी की व कैलिफोकर्निया के विश्वविद्यालय, बर्कले से प्राप्त मेकेनिकल अभियांत्रिकी की डिग्रियां भी वापस करने का निर्णय ले रहा हूं। बल्कि यह मुझे 1991 में बर्कले के परिसर पर ही, जब राष्ट्रपति वरिष्ठ बुश ने इराक पर हमला कर दिया था, युद्ध विरोधी प्रदर्शन में पता चला कि अमरीकी विश्वविद्यालयों, खासकर प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान विभागों, में हथियारों से जुड़े शोध कार्य होते हैं।
युद्ध विरोधी प्रदर्शन में भाग लेने वाले एक इलेक्ट्रिकल अभियांत्रिकी के प्रोफेसर प्रवीण वरैया, जो रक्षा विभाग से शोध हेतु कोई पैसा नहीं लेते थे, से पता चला कि उनका शोध क्षेत्र कंट्रोल सिस्टम्स्, जो मेरा भी शोध क्षेत्र था, का जुड़ाव रक्षा कार्यक्रम से है। यानी अनजाने में मैं अमरीकी युद्ध तंत्र का हिस्सा बन गया था। मेरा अपने शोध क्षेत्र से पूरी तरह से मोहभंग हो गया और जब मैंने भारत लौटकर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर में पढ़ाना शुरू किया तो अपना शोध क्षेत्र बदल लिया।
यहां मैं फिर यह स्पष्ट कर दूं कि मेरा अमरीकी जनता या अमरीका देश से भी कोई विरोध नहीं है। बल्कि मैं समझता हूं कि अमरीका में मानवाधिकारों के उच्च आदर्शों का पालन होता है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी यहां उच्च कोटि की है। किंतु इन उच्च आदर्शों का पालन सिर्फ अमरीका के अंदर ही होता है। अमरीका के बाहर, खासकर तीसरी दुनिया के देशों में अमरीका को इनकी कोई चिंता नहीं है। यदि वह न्याय के साथ खड़ा है तो किसी भी युद्ध में उसे उत्पीडि़त के पक्ष में भूमिका लेनी चाहिए। रूस के यूक्रेन पर हमले में उसने सही भूमिका ली है। किंतु न जाने वह क्यों फिलीस्तीनियों के उत्पीडऩ और तबाही की ओर आंख मूंदे हुए है और इजराइल की सेना द्वारा किए जा रहे जघन्य अपराधों को भी नजरअंदाज करने को तैयार है। यदि यह कोई और देश कर रहा होता तो अभी तक अमरीका, जैसा उसने दुनिया के अन्य देशों के साथ मिलकर रंगभेद की नीति लागू करने वाले दक्षिण अफ्रीका के साथ किया था, कठोर प्रतिबंध लगा चुका होता।
मैं यह कड़ा निर्णय इसलिए ले रहा हूं कि मैं मानता हूं कि यह दुनिया की राय के खिलाफ जाकर अमरीका के बढ़ावा देने के कारण ही इजराइल फिलीस्तीनियों के साथ बर्बरता कर रहा है। चाहिए तो यह था कि अमरीका एक तटस्थ भूमिका लेकर इजराइल और फिलीस्तीन के बीच शांति हेतु मध्यस्थता करता, जैसा उसने पहले किया भी हुआ है। एक सम्प्रभु स्वतंत्र फिलीस्तीन, जिसको संयुक्त राष्ट्र संघ एक पूर्ण देश का दर्जा दे, ही इजराइल-फिलीतीन विवाद का हल है। किंतु यह विचित्र बात है कि अमरीका, जिसने अभी बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए, अफगानिस्तान, जिसका क्षेत्रफल फिलीस्तीन से बहुत बड़ा है, को चांदी की थाली में सजाकर तालिबान को सौंप दिया, यह जानते हुए कि वह आम अफगान, खासकर औरतों, की नागरिक स्वतंत्रता को खतरे में डाल रहा है, इजराइल की इस बात को दोहराता है कि हमास एक आतंकवादी संगठन है। वह इस बात को नजरअंदाज करता है कि हमास ने फिलीस्तीन में चुनाव जीत कर गज़ा में सरकार बनाई है जबकि तालिबान ने कोई चुनाव नहीं लड़ा था। मुझे लगता है कि अमरीका की दोगली नीति पर सवाल उठाना चाहिए।’
इमरान कुरैशी
(कल के अंक से आगे)
कुलपतियों की नियुक्ति पर टकराव
इस मुलाकात के बाद शिक्षा विभाग की तरफ से निकले विज्ञापन को वापस ले लिया गया। लेकिन 30 अगस्त को राज्यपाल सचिवालय ने कुलाधिपति की शक्ति और अधिकार के संबंध में एक पत्र जारी किया। इसमें कहा गया कि कुलाधिपति (राज्यपाल) सचिवालय के निर्देश के अलावा किसी अन्य स्तर पर जारी दिशा-निर्देश का पालन नहीं करें। किसी अन्य द्वारा विश्वविद्यालय को निर्देश देना उनकी स्वायत्ता के अनुकूल नहीं है। ये बिहार राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम 1976 के प्रावधानों का उल्लंघन है।
वरिष्ठ पत्रकार और राजभवन लंबे समय से कवर कर रहे अविनाश कुमार कहते हैं, ‘नीतीश सरकार का राज्यपालों के साथ विवाद तो समय-समय पर हुआ है, लेकिन कोई भी विवाद बहुत ज्यादा तूल नहीं पकड़ता। नीतीश कुमार सामंजस्य बना कर चलते हैं। वैसी स्थितियां नहीं बनतीं जैसे राबड़ी राज में राज्यपाल के साथ विवाद में बन जाती थीं।’
झारखंड में कई बार बनी टकराव की स्थिति
रवि प्रकाश, रांची
झारखंड की मौजूदा हेमंत सोरेन सरकार के चार साल के कार्यकाल में विधानसभा की ओर से बहुमत से पारित कमसे कम आधा दर्जन विधेयक राज्यपाल ने सरकार को लौटा दिए। कई दफा तो इसके लिए हिन्दी और अंग्रेज़ी अनुवादों में मामूली अंतर जैसे कारण भी बताए गए। ज़्यादातर मामलों में विधेयक लौटाते वक्त राज्यपाल ने कोई टिप्पणी नहीं की।
बगैर नोटिंग के लौटाए गए विधेयकों को लेकर सत्तारूढ़ गठबंधन के शीर्ष नेताओं ने पिछले दिनों जब राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन से मिलने का वक्त माँगा, तो राजभवन ने उनके पत्र का कोई जवाब नहीं दिया। इसके बाद जब इन नेताओं का प्रतिनिधिमंडल राज्यपाल से मिलने राजभवन पहुँचा, तो उन्हें बताया गया कि राज्यपाल राँची में नहीं हैं। तब इन नेताओं ने अपना आपत्ति पत्र राजभवन के मुख्य द्वार पर स्थित राज्यपाल के कार्यालय को सौंपा और वापस लौट गए।
झारखंड के राज्यपाल
इन नेताओं ने वहाँ मौजूद मीडिया से कहा कि झारखंड की राज्यपाल रहीं (अब राष्ट्रपति) द्रौपदी मुर्मू ने राज्यपाल रहते हुए खुद द्वारा लौटाए गए हर विधेयक पर नोटिंग की। इससे सरकार को यह समझने में आसानी हुई कि राज्यपाल को किन बिंदुओं पर आपत्ति है।
इसी तरह झारखंड के राज्यपाल रहे सैयद सिब्ते रजी ने भी अपने कार्यकाल के दौरान नोटिंग के साथ विधेयकों को लौटाया, लेकिन झारखंड के मौजूदा राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन और इनके पूर्ववर्ती रमेश बैस (अब महाराष्ट्र के राज्यपाल) ने अधिकतर विधेयकों को लौटाते वक्त नोटिंग करना तक ज़रूरी नहीं समझा।
इस कारण सरकार और राजभवन के बीच हमेशा टकराव की स्थिति बनी रही। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने स्वयं कई जनसभाओं में राज्यपाल के कार्यकलाप पर टिप्पणी की। राज्यपाल रहे रमेश बैस की सरकार और मुख्यमंत्री से संबंधित टिप्पणियाँ सुर्खय़िों में रहीं। सत्तारूढ़ गठबंधन के नेताओं व प्रवक्ताओं ने प्रेस कांफ्रेंस कर राजभवन पर पूर्वाग्रह से ग्रसित होने के आरोप लगाए। तब विपक्षी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेता व प्रवक्ताओं ने राज्यपाल का बचाव किया।
इस दौरान विधानसभा अध्यक्ष रवींद्र नाथ महतो की राजभवन को लेकर की गई टिप्प्णियाँ भी चर्चा में रहीं। विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को बार-बार लौटाए जाने के बाद स्पीकर ने कहा था कि विधानसभा अब अंग्रेज़ी अनुवाद कर अपने विधेयक राजभवन नहीं भेजेगा। अगर राज्यपाल चाहें तो अपने स्तर पर इसका अनुवाद करा लिया करें।
हालाँकि, अबतक राजभवन द्वारा लौटाए गए या वहाँ पेंडिंग पड़े तमाम विधेयक अंग्रेज़ी अनुवाद के साथ भेजे गए थे। इसके बावजूद कई महत्वपूर्ण विधेयक राज्यपाल की स्वीकृति का इंतज़ार कर रहे हैं। इनमें मॉब लिंचिंग निवारण विधेयक भी शामिल हैं। इस विधेयक को रमेश बैस ने अपने कार्यकाल के दौरान लौटा दिया था। सरकार अब इसे दोबारा भेजने की तैयारी कर रही है।
राज्यपाल ने मंत्री को किया तलब
यहाँ राज्यपाल रहे महाराष्ट्र के मौजूदा राज्यपाल रमेश बैस ने तो एक दफा झारखंड के कृषि मंत्री बादल पत्रलेख को राजभवन तलब कर एक विधेयक पर उनसे बातचीत की। यह पहला मौका था जब राज्यपाल किसी विधेयक को लेकर मंत्री को राजभवन बुला लें।
अपने कार्यकाल के दौरान रमेश बैस ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरन की विधानसभा सदस्यता को लेकर चुनाव आयोग के एक रहस्यमय पत्र को लेकर भी मीडिया में राजनीतिक टिप्पणियाँ भी कीं। हालाँकि, उस पत्र का मज़मून अभी तक रहस्य बना हुआ है। राजभवन अब उसपर कोई टिप्पणी नहीं करता।
रमेश बैस अपने कार्यकाल के दौरान राँची के एक मल्टीप्लेक्स में 'कश्मीर फाइल्स' देखने गए। इस दौरान मॉल के मालिक कारोबारी विष्णु अग्रवाल के साथ सिनेमा हॉल में बैठी उनकी एक तस्वीर भी मीडिया में चर्चा में रही। उसी विष्णु अग्रवाल को बाद के दिनों में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने मनी लाउंड्रिंग के एक मामले में गिरफ़्तार कर लिया। वे इन दिनों जेल में हैं।
इस बीच राष्ट्रपति ने रमेश बैस को समय से पहले ही यहाँ से हटाकर महाराष्ट्र का राज्यपाल नियुक्त कर दिया। इसके बाद सीपी राधाकृष्णन झारखंड के राज्यपाल नियुक्त किए गए। लेकिन, नए राज्यपाल भी विधानसभा द्वारा बहुमत से पारित विधेयकों को लौटाने और उन्हें रोके रखने का सिलसिला नहीं तोड़ पाए। अलबत्ता झारखंड के विभिन्न जि़लों के भ्रमण के दौरान नए राज्यपाल द्वारा सिफऱ् केंद्र सरकार की योजनाओं की तारीफ किए जाने को लेकर झारखंड मुक्ति मोर्चा ने राज्यपाल पर टिप्पणियाँ भी कीं। जेएमएम ने कहा कि राज्यपाल को किसी पार्टी के प्रवक्ता की तरह काम नहीं करना चाहिए।
इन विधेयकों में क्या है
राज्यपाल की मंज़ूरी नहीं मिलने के कारण अधर में लटके विधेयकों में से कुछ वैसे भी हैं, जिन्हें लागू कराने का वादा कर झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) सत्ता में आई थी। मॉब लिंचिंग निवारण विधेयक, 1932 के खतियान आधारित डोमिसाइल संबंधित विधेयक और ओबीसी आरक्षण बढ़ाने संबंधित विधेयक ऐसे ही कुछ विधेयक हैं, जो या तो सत्तारूढ़ जेएमएम के घोषणा पत्र में थे, या फिर अपने चुनावी भाषणों में पार्टी नेताओं ने इसका वादा किया था।
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की टिप्पणी
ऐसे में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की पिछले दिनों की गई यह टिप्पणी काबिल-ए-गौर है। ''झारखंड की जनता ने राज्य में जो सरकार बनाई है, विधेयक उसी सरकार के ज़रिए विधानसभा से पारित कराए गए हैं। ये विधेयक कैसे कानून सम्मत नहीं हो सकते हैं। झारखंड की माँग होती रही, पर इसे बनाने में 40 साल लग गए। झारखंड के मूलवासियों को सत्ता हासिल करने में 20 साल लग गए। झारखंड के साथ हमेशा छल हुआ। मूलवासी अब चुप नहीं बैठेंगे। अपना हक लेकर रहेंगे।''
छत्तीसगढ़ में सरकार बदलने से क्या कम होगा टकराव?
आलोक प्रकाश पुतुल, रायपुर
छत्तीसगढ़ में अब भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन चुकी है, ऐसे में उम्मीद तो यही है कि आने वाले दिनों में राज्य में सरकार और राज्यपाल के बीच टकराव देखने को नहीं मिलेगा।
लेकिन पिछली सरकार के दौरान दोनों का आपसी विवाद कई बार देखने को मिला। इस तनातनी के चलते ही आरक्षण का क़ानून लागू नहीं हो पाया। किसानों की सुरक्षा से संबंधित विधेयक भी अटका रहा।
गौरतलब है कि तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि और पंजाब के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित से संबंधित मामलों की सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि राज्य का निर्वाचित प्रमुख नहीं होने के नाते, राज्यपाल विधानसभा सत्र की वैधता पर संदेह नहीं कर सकते या सदन द्वारा पारित विधेयकों पर अपने फैसले को अनिश्चित काल तक रोक नहीं सकते।
अदालत ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत, जब कोई विधेयक राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो वह या तो घोषणा करेगा कि वह विधेयक पर सहमति देता है या सहमति नहीं देता है, या वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखता है। लेकिन ऐसे विधेयक को अनिश्चितकाल के लिए दबा कर नहीं रखा जा सकता।'
कांग्रेस के आरोप
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी के मीडिया प्रमुख सुशील आनंद शुक्ला ने बीबीसी से कहा, ''छत्तीसगढ़ में विधानसभा से पारित अधिकांश विधेयकों को केवल राजनीतिक कारणों से आज तक राज्यपाल ने लटका रखा था।''
2012 में छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार ने आरक्षण का दायरा 50 फ़ीसदी से 58 फ़ीसदी कर दिया था। वहीं 2018 में आई भूपेश बघेल की सरकार ने आरक्षण का दायरा बढ़ा कर 82 फ़ीसदी कर दिया। लेकिन छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने भूपेश बघेल सरकार के आरक्षण की व्यवस्था पर रोक लगा दिया।
पिछले साल 19 सितंबर को हाईकोर्ट ने रमन सिंह के शासनकाल में लागू आरक्षण व्यवस्था को 'असंवैधानिक' बताते हुए, इसे भी रद्द कर दिया।
हालत ये हो गई कि छत्तीसगढ़ में आरक्षण का कोई रोस्टर ही लागू ही नहीं रहा। कॉलेजों में प्रवेश परीक्षा अटक गए, नियुक्तियां अटक गईं और पदोन्नति भी।
पिछले साल दिसंबर में छत्तीसगढ़ विधानसभा ने लोक सेवा और प्रवेश के लिए, देश में सबसे ज़्यादा 76 फ़ीसदी आरक्षण का विधेयक पारित किया और उसे हस्ताक्षर के लिए तब की राज्यपाल अनूसुइया उइके को भेज दिया। लेकिन राज्यपाल ने इस विधेयक पर हस्ताक्षर करने के बजाय राज्य सरकार से आरक्षण के इस दायरे को बढ़ाए जाने को लेकर सवाल-जवाब शुरू कर दिया।
राज्यपाल और मुख्यमंत्री में टकराव
राज्य के मुख्यमंत्री रहे भूपेश बघेल का आरोप है कि राज्यपाल को विधानसभा से पारित क़ानून पर सवाल-जवाब करने का अधिकार नहीं है। या तो वो इस विधेयक पर हस्ताक्षर करें या इस वापस करें। लेकिन अनूसुइया उइके ने इस साल फरवरी तक इस आरक्षण विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं किया। यहां तक कि उनके बाद बनाए गए राज्यपाल विश्वभूषण हरिचंदन ने भी इस पर हस्ताक्षर नहीं किया है।
इसी तरह जब केंद्र सरकार ने तीन नए कृषि क़ानून लाए तो 23 अक्टूबर 2020 को छत्तीसगढ़ सरकार ने कृषि उपज मंडी अधिनियम को संशोधित करते हुए विधेयक पारित किया।
यह विधेयक भले केंद्र के कृषि क़ानून से कोई छेड़छाड़ नहीं कर रहा था लेकिन यह केंद्र के कृषि क़ानूनों को निष्प्रभावी करने वाला विधेयक था। इस विधेयक में मंडी की परिभाषा में डीम्ड मंडी को भी रखा गया था। सरकार ने निजी मंडियों को डीम्ड मंडी घोषित करने का फ़ैसला किया था। यह विधेयक तीन साल से भी अधिक समय से राजभवन में पड़ा रहा।
साल 2020 में राज्य के कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय और सुंदरलाल शर्मा विश्वविद्यालय में जब राज्य सरकार की इच्छा के अनुरूप कुलपतियों की नियुक्ति नहीं हो पाई तो राज्य सरकार ने विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक पारित किया।
मार्च 2020 में पारित इस विधेयक के अनुसार, राज्य सरकार जिस नाम की अनुशंसा करेगी, उसे कुलपति नियुक्ति किया जाएगा। इसके अलावा कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम छत्तीसगढ़ के पत्रकार और सांसद चंदूलाल चंद्राकर के नाम पर रखने का फ़ैसला किया गया था। लेकिन राज्यपाल ने इस विधेयक पर हस्ताक्षर ही नहीं किया।
उम्मीद है कि अब सत्ता परिवर्तन के बाद इन टकरावों का दौर समाप्त होगा और छत्तीसगढ़ में बरसों से लंबित विधेयकों के दिन फिरेंगे। (bbc.com/hindi)
घनाराम साहू
राजिम धाम के इतिहास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रतनपुर के कलचुरी सामंत एवं दुर्ग के राजा जगपाल देव का है, जिसने 3 जनवरी सन 1145 माघ शुक्ल अष्टमी दिन बुधवार कलचुरि संवत 896 को भगवान रामचन्द्र का मंदिर बनवा कर लोकार्पित किया था । रतनपुर के कलचुरी राजाओं में 10 वीं सदी के राजा कमल राज (ईसवी सन 1020 से 1045) प्रतापी थे जिसने त्रिपुरी के राजा गांगेय देव के उत्कल विजय अभियान में सहयोग किया था ।
गांगेय देव और कमल राज ने उत्कल के सोमवंशी राजा धर्मरथ को पराजित किया था। इसी युद्ध अभियान में राजा कमल राज को साहिल्ल नामक योद्धा मिला जो युद्ध उपरांत उसके साथ रतनपुर (तुम्मान) आ गया था । साहिल्ल बघेलखंड (मिर्जापुर) के बड़हर नामक स्थान का निवासी था । राजिम धाम से राजा जगपाल देव के शिलालेख के अनुसार वह राजमाल कुल गोत्र का था । उसका एक भाई वासुदेव और तीन पुत्र भायिल, देसल और स्वामिन थे । स्वामिन के पुत्र जयदेव एवं देवसिंह हुए । ठाकुराज्ञी उदया देवी (पति का नाम उल्लेख नहीं है) का पुत्र जगपाल देव हुआ, जिसने जगपालपुर नगर बसाया । इस वंश ने रतनपुर के कलचुरी राजाओं के लिए भट्टविल, विहरा, कोमोमंडल, डंडोर, मायूरिक, सातवंतों, तमनाल, राठ, तरण, तलहारी, सरहरागढ़, मचका, सिहावा, भ्रमरदेश, कांतार, कुसुमभोग, कांदाडोंगर, काकरय को जीता था ।
रतनपुर के राजा रत्नदेव द्वितीय एवं उत्कल के चोडग़ंग राजा अनंतदेव वर्मन के बीच शिवरीनारायण के निकट तलहारी मंडल में हुए युद्ध में जगपाल देव ने अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन किया था । युद्ध भूमि में उसका शरीर रक्त बूंदों से सिंदूर के समान लाल हो गया था । उसकी वीरता के कारण वह जगत सिंह के नाम से प्रसिद्ध हुआ । राजा रत्नदेव द्वितीय के पुत्र राजा पृथ्वीदेव द्वितीय ने जगपाल देव की वीरता से प्रभावित होकर दुर्ग क्षेत्र के 700 गांवों का स्वामी बना दिया तब जगपाल देव राजा कहलाने लगे । राजा जगपाल देव निसंतान थे इसलिए इनका वंश वृक्ष यहीं समाप्त हो जाता है ।
कुछ इतिहासकारों के मतानुसार साहिल्ल के वंश के राजमाल गोत्र के नाम पर राजमालपुर बसाया गया । कालांतर में यह नाम छोटा होकर राजम और इसका अपभ्रंश होकर राजिम हुआ । इतिहासकार यह भी मानते हैं कि राजा (सामंत) जगपाल देव का शिलालेख जो राजीव लोचन मंदिर के भित्ति में मिला, वह वास्तव में इस मंदिर से कुछ दूरी पर स्थित रामचंद्र मंदिर का है क्योंकि शिलालेख के अनुसार उसने भगवान रामचन्द्र का मंदिर बनवाया था । एक अन्य ऐतिहासिक प्रसंग के अनुसार अंग्रेज काल में रायपुर के मालगुजार गोविंद लाल बनिया ने सिरपुर से सामग्री लाकर राजिम के मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया था ।
फोटो में दिया गया यह प्रतिमा राजिम के मुख्य मंदिर प्रांगण में स्थापित है जिस पर राजा जगतपाल का नाम पट्टिका भी लगा है लेकिन इतिहासकार इसे गौतम बुद्ध की प्रतिमा बताते हैं ।