विचार/लेख
-शुमाइला जाफरी
इमरान खान के नेतृत्व वाली पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ की ओर से विरोध और बॉयकॉट के बीच नवाज शरीफ की बेटी मरियम नवाज को पंजाब सूबे की मुख्यमंत्री के रूप में चुन लिया गया है। मरियम नवाज साल 2011 से लगातार राजनीति में सक्रिय हैं। लेकिन 8 फरवरी को हुए चुनाव में वह पहली बार पाकिस्तानी संसद नेशनल असेंबली की सदस्य बनी हैं। मरियम नवाज़ पाकिस्तान में मुख्यमंत्री पद तक पहुंचने वाली पहली महिला बन गई हैं।
मरियम नवाज को पाकिस्तान की सबसे अहम लेकिन विवादित महिला राजनेता के रूप में देखा जाता है। उनकी पार्टी में लोग उनकी हिम्मत और शानदार शख़्सियत के मुरीद हैं। लेकिन इमरान खान के समर्थकों के बीच उन्हें भ्रष्ट परिवारवादी राजनीति के प्रतीक के रूप में देखा जाता है।
राजनीति की डगर पर कैसे बढ़ीं
मरियम नवाज़ पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पहली संतान हैं। वे लाहौर में पली-बढ़ी हैं और उनकी शादी सेना के अधिकारी रह चुके एक शख्स से हुई, जो 90 के दशक में उनके पिता के प्रधानमंत्री रहते हुए उनके (नवाज शरीफ के) एडीसी थे। शरीफ परिवार पारंपरिक और रूढि़वादी स्वभाव का है। ऐसे में उनसे राजनीति में भाग लेने की उम्मीद नहीं की गई थी और न ही इसके लिए उन्हें तैयार किया गया था।
मरियम के पिता नवाज़ शरीफ़ का पूर्व सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ ने अक्टूबर 1999 में जब तख्तापलट करके उन्हें कैद में डाला, तब तक वे लो प्रोफाइल रहकर अपने दो बच्चों की परवरिश कर रही थीं। उस वक्त उनके परिवार के बाकी मर्द भी नजरबंद कर दिए गए थे। वैसे हालात में मरियम अपनी मां के साथ पहली बार सार्वजनिक तौर पर सामने आईं। लोगों के सामने आकर उन्होंने जनरल मुशर्रफ को खुली चुनौती दी और अपने पिता का समर्थन किया। कुछ महीने बाद सऊदी अरब के किंग की मदद से मरियम और उनकी मां ने जनरल मुशर्रफ के साथ एक डील की। इस डील के तहत नवाज शरीफ जेल से रिहा हुए और दिसंबर 2000 में सपरिवार सऊदी अरब निर्वासित हो गए। उसके बाद साल 2007 में नवाज़ शरीफ़ पाकिस्तान लौटे। परिवार के करीबी सूत्रों का कहना है कि निर्वासन के दौरान मरियम ने राजनीति में उतरने के लिए ख़ुद को तैयार करना शुरू किया।
राजनीतिक पारी और बढ़ता कद
पाकिस्तान की राजनीति में मरियम नवाज़ की शुरुआत साल 2011 में हुई जब उन्होंने अपने चाचा शहबाज शरीफ के लिए समर्थन जुटाने को महिला शिक्षण संस्थानों का दौरा किया।
शहबाज़ तब पंजाब प्रांत के मुख्यमंत्री थे। साल 2013 में उन्होंने सोशल मीडिया का महत्व समझा। ये वो दौर था जब इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) युवा मतदाताओं को अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रही थी। इसके जवाब में मरियम नवाज़ ने पीएमएल-एन के सोशल मीडिया सेल की शुरुआत की। उनकी इस पहल ने पीएमएल-एन को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई। नतीजा ये हुआ कि उनके पिता एक बार फिर सत्ता में लौटे और तीसरी बार प्रधानमंत्री बन पाए। हालांकि, साल 2013 में खुद उन्होंने किसी सीट से चुनाव नहीं लड़ा। लेकिन बाद में उनके पिता ने उन्हें यूथ डेवेलपमेंट प्रोग्राम का अध्यक्ष नियुक्त किया। उनकी नियुक्ति को अदालत में चुनौती दी गई, जिसके बाद उन्हें वो पद छोडऩा पड़ा।
लेकिन वे पीएम हाउस से ‘स्ट्रैटेजिक मीडिया कम्युनिकेशन सेल’ चलाती रहीं।
साल 2013 से 2017 के बीच नवाज़ शरीफ़ की सरकार पर असर को लेकर मरियम नवाज़ की आलोचना होती रही। तब उन्हें देश का असली प्रधानमंत्री भी कहा जाता था। साल 2016 में लीक हुए पनामा पेपर्स में मरियम और उनके भाई-बहनों के नाम सामने आए। उसमें इन सब पर ऑफशोर (विदेशी) कंपनियों से अघोषित संबंध रखने का आरोप लगाया गया।
दावा किया गया कि इन लोगों की ब्रिटेन में संपत्ति है। हालांकि, इस आरोप का शरीफ परिवार ने जोरदार तरीके से खंडन किया।
कैसे बनीं पाकिस्तान की अहम नेता
इमरान खान इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गए और नवाज शरीफ को 2017 में सत्ता से हटा दिया गया। मरियम और उनके पिता को चुनाव लडऩे से रोक दिया गया। मरियम नवाज को जेल भी भेजा गया, बाद में उन्हें जमानत मिल गई। लेकिन इसी दौरान मरियम नवाज़ ख़ुद को पाकिस्तान की एक प्रमुख नेता के तौर पर स्थापित करने में सफल हो गईं। जमानत पर रिहा होने के बाद उन्होंने एक जोरदार अभियान चलाते हुए इमरान ख़ान और सेना पर अपने परिवार के खिलाफ जबरदस्ती और सांठगांठ करने के आरोप लगाए। उन्होंने पीएमएल-एन के समर्थकों को एकजुट किया और ‘वोट को इज्जत दो’ जैसा लोकप्रिय नारा दिया।
मरियम सांसद का चुनाव तो नहीं लड़ीं, लेकिन उनके आक्रामक चुनाव प्रचार के बूते पीएमएल-एन 2018 के आम चुनावों में देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर जरूर उभरी। उन्होंने अपने सजायाफ्ता पिता को मेडिकल ग्राउंड पर जेल से रिहा करने का सफलतापूर्वक अभियान भी चलाया। अदालत ने नवाज शरीफ को ब्रिटेन जाने की अनुमति दी। बाद में नवाज शरीफ पाकिस्तान लौट आए। मरियम नवाज, इमरान खान की सबसे कठोर आलोचक रही हैं।
वंशवाद और भ्रम
राजनीतिक विश्लेषक और लेखक जाहिद हुसैन का मानना है कि पीएमएल-एन के अपने स्टैंडर्ड के अनुसार भी चीफ ऑर्गनाइजर के तौर पर मरियम नवाज की नियुक्ति ‘भाई-भतीजावाद का सबसे खऱाब उदाहरण’ रहा। उन्होंने बीबीसी से बात करते हुए कहा था, ‘इस फैसले से पीएमएल-एन ने एक बार फिर साबित किया कि वह जमीनी हकीकत से बिल्कुल दूर है।’ ‘पाकिस्तान और वहां की राजनीति अब बदल गई है। इमरान खान ने जो कुछ भी किया उससे लोग असहमत हो सकते हैं, लेकिन एक बात तो साफ है कि उन्होंने भ्रष्टाचार और वंशवादी राजनीति के खिलाफ एक प्रभावी नैरेटिव तैयार किया है। युवाओं के बीच यह नैरेटिव खासा लोकप्रिय है। लेकिन ऐसा लगता है कि पीएमएल-एन अभी भी माहौल को नहीं समझ सकी है।’ फिलहाल पार्टी के सभी शीर्ष पदों पर शरीफ परिवार का कब्जा है। नवाज शरीफ अब भी पीएमएल-एन के असली बॉस हैं।
जाहिद हुसैन कहते हैं कि मरियम अब व्यावहारिक तौर पर अपने पिता के बाद पार्टी की दूसरी सबसे ताकतवर शख्स बन गई हैं। उनका मानना है कि मरियम नवाज एक अच्छी वक्ता हैं, वे भीड़ को भी खींचती हैं, लेकिन पार्टी के ही कई नेता उनके बढ़ते कद से खुश नहीं दिखते। जाहिद हुसैन कहते हैं, ‘पार्टी के कई लोगों का मानना है कि बेहतर क्षमता वाले कई नेताओं को कभी चेहरा बनने और नेतृत्व करने का मौक़ा नहीं दिया गया।’ ‘उन्हें अपने पिता की लाडली के रूप में देखा जाता है। पार्टी के कई ऐसे सीनियर नेता हैं, जिनका संघर्ष कहीं अधिक उथल-पुथल वाला रहा, लेकिन नेतृत्व के लिए उन पर भरोसा नहीं किया जाता।’
बेनजीर भुट्टो से तुलना
पीएमएल-एन के कई समर्थक मरियम नवाज की तुलना देश की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो से कर रहे हैं। बेनजीर भुट्टो को सिर्फ पाकिस्तान में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में साहस के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। वे मुस्लिम देशों की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं। उनके पिता जुल्फिकार अली भुट्टो को सत्ता से हटाने के बाद उनके परिवार को काफी अत्याचारों का सामना करना पड़ा था। उसके बाद तत्कालीन तानाशाह शासक जनरल जिय़ा-उल हक ने उन्हें फांसी दे दी थी। इसलिए बेनजीर भुट्टो के घोर आलोचक भी उनके निजी और राजनीतिक संघर्ष का सम्मान करते हैं।
मरियम नवाज खुद कई मौक़ों पर बेनज़ीर भुट्टो को आदर के साथ याद कर चुकी हैं। साल 2021 में उनकी पुण्यतिथि पर उनके गृहनगर लडक़ाना में एक सभा में मरियम ने कहा था कि कई मायनों में उनका ‘संघर्ष मोहतरमा बेनजीर भुट्टो जैसा ही है।’ उन्होंने उस समय कहा था, ‘कई मायनों में मुझे लगता है कि बेनजीर भुट्टो के साथ मेरी राजनीतिक समानता है। वे न केवल देश की सभी महिलाओं का गौरव थीं, बल्कि उनकी कहानी पिता और बेटी के बीच गहरे संबंध और प्यार की अविस्मरणीय गाथा भी थी।’ ‘मरते दम तक वे अपने पिता का केस लड़ती रहीं। यदि जरूरत पड़ी तो पाकिस्तान को जोडऩे और उसका विकास करने की अपने पिता की सोच के लिए मैं अपनी जान देने से भी पीछे नहीं हटूंगी।’ हालांकि, उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि प्रेरणा और समानता होने के बाद भी उनका रास्ता बेनजीर भुट्टो से अलग है। पाकिस्तान की राजनीतिक विश्लेषक मुनिजे जहांगीर इस बात से सहमत हैं। उनका मानना है कि कई मामलों में मरियम को बेनजीर भुट्टो की तरह चुनौतियां भले झेलनी पड़ी हों, लेकिन कई मायनों में वे भुट्टो से बेहतर दशा में भी हैं।
मरियम के पिता, उनके भाई और परिवार उनके पीछे खड़े हैं, लेकिन बेनजीर के मामले में ऐसा बिल्कुल नहीं था। मुनिजे का ये भी कहना है कि 70 के दशक में जब जुल्फिकार अली भुट्टो को सत्ता से बेदखल कर दिया गया, तब अमेरिका ने खुलकर तानाशाह शासक जनरल जिय़ा उल हक़ का पक्ष लिया था। उस समय मानवाधिकार समूहों की जागरूकता और आपसी संपर्क भी आज की तरह का नहीं था। आज सोशल मीडिया का जमाना है, जहां मरियम नवाज अपनी आवाज उठाती रहती हैं। बेनजीर के पास ऐसी कोई सुविधा नहीं थी। इस बारे में राजनीतिक समीक्षक जाहिद हुसैन, बेनजीर भुट्टो को बहुत ऊँचा मानते हैं। उनका तर्क है कि बेनज़ीर भुट्टो और मरियम नवाज़ के बीच न तो कोई तुलना है और न ही हो सकती है।
पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली के लिए जिय़ा उल हक के शासनकाल में उन्हें जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, बतौर राजनेता उनकी क्षमता और उनकी मानसिकता का मरियम नवाज से कोई मुकाबला ही नहीं है। जाहिद हुसैन के अनुसार, ‘मरियम नवाज को विशेषाधिकार और खास परिवार के होने का लाभ मिला है। बेनजीर भुट्टो की राजनीति में शामिल होने की कोई योजना नहीं थी। वे मुश्किल से अपनी पढ़ाई ही कर पाईं थी कि उनके पिता की मौत हो गई। उनके भाई भी उत्पीडऩ के डर से देश छोडऩे के लिए मजबूर हो गए थे।’ (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
नीतीश कुमार हमारे दौर की भारतीय राजनीति के ऐसे नेता बन गए हैं जिनकी छवि का ग्राफ लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से निकलकर जिस तरह से धीरे-धीरे राजनीति के अर्श के आसपास पहुंच गया था उसी तरह वह धीरे-धीरे गिरते हुए राजनीति के वर्तमान फर्श पर आ गया है। कभी समाजवादी विचारधारा का ऊंचा झंडा उठाते हुए वे भ्रष्टाचार, परिवार वाद और सांप्रदायिकता से उचित दूरी बरतते थे। इस वजह से उन्हें न केवल बिहार और पूरे देश की जनता का प्यार और विश्वास मिला बल्कि वे गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री पद के सर्वाधिक उचित उम्मीदवार भी दिखने लगे थे। सुशासन बाबू के नाम से बनी उनकी प्रशासनिक छवि एक ऐसे काबिल नेता के रुप में बन गई थी जिसमें प्रशासनिक क्षमता भी थी, जो अपने समकालीन नेताओं से भी अच्छा समन्वय कर लेता है और परिवारवाद और भ्रष्टाचार के आरोपों से भी मुक्त है।
हाल ही में नौवीं बार मुख्यमंत्री बनकर उन्होंने सबसे ज्यादा बार बिहार का मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड भी बना लिया। संभवत: यह बिहार ही नहीं किसी भी सूबे के मुख्यमंत्री के लिए भी रिकॉर्ड हो लेकिन उन्होंने बार बार गठबंधन का पाला बदलने से अपनी विश्वसनीयता लगभग शून्य कर ली है। बिहार तक सीमित अपने छोटे से दल के संगठन और बिहार की सत्ता को जैसे-तैसे अपने कब्जे में रखकर नीतीश कुमार ने विगत कुछ वर्षों में संविधान के लोकतांत्रिक मूल्यों और परंपराओं का भी मजाक बनाकर रख दिया है और विचारधारा को भी तिलांजलि दे दी है। राजनीतिक लाभ के लिए बार बार इधर से उधर पलटी मारने के लिए समकालीन मीडिया उन्हें तरह तरह के नकारात्मक विशेषणों से नवाज रहा है। वे हमारे समय के कार्टूनिष्टों के प्रिय विषय बन गए हैं। किसी भी संवेदनशील और नैतिकता एवं सिद्धांतों में विश्वास करने वाले नागरिक के लिए नीतीश कुमार का बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी से चिपके रहना आश्चर्यजनक है। भारतीय राजनीति में आया राम गया राम संस्कृति नई नहीं है लेकिन सत्ता के लिए जिस तरह गठबंधन परिर्वतन का उपयोग नीतीश कुमार कर रहे हैं वह अकल्पनीय है। वे धुर विरोधी गठबंधन इंडिया और एन डी ए में इतनी सहजता से आवाजाही कर चुके हैं जैसे इन दोनों में कोई फर्क ही नहीं है। किसी हद तक यह सही भी है। इंडिया और एन डी ए गठबंधन के कुछ अन्य घटक दल भी इधर से उधर लुढक़नी मार चुके हैं लेकिन नीतीश कुमार का मामला थोड़ा अलग है। नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुखर विरोधी बनकर एनडीए से निकले थे। वहां से निकलकर उन्होंने इंडिया गठबंधन बनाने में सबसे ज्यादा मुखरता दिखाई थी। यह उम्मीद की जा रही थी कि वे इंडिया गठबंधन के संयोजक बन सकते हैं और भविष्य में डावांडोल लोकसभा में वैसे ही प्रधानमंत्री पद तक पहुंच सकते हैं जैसे वे बिहार में तीसरे नंबर की पार्टी के नेता होकर भी बार बार मुख्यमंत्री बने हैं।
आजादी के बाद काफी समय तक बिहार प्रशासनिक दृष्टि से सबसे बेहतर राज्यों में शामिल रहा है। आपातकाल के विरोध में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार से ही सबसे ज्यादा योगदान हुआ था।कालांतर में लालू प्रसाद यादव और बाद में नीतीश कुमार के दौर में बिहार निरंतर पिछड़ता चला गया। नीतीश कुमार से बिहार को बहुत उम्मीद थी लेकिन अब उनका जादू लोगों के सिर से उतर चुका है। एन डी ए गठबंधन में शामिल होने से संभव है कि बिहार सरकार को केंद्र से ज्यादा फंड आदि की सुविधाएं मिल जाएं लेकिन लोगों के दिमाग में उनकी छवि दागदार हुई है जिसका खामियाजा लोकसभा चुनाव में उन्हें और उनके दल को झेलना पड़ सकता है।
शिल्पा शर्मा
हमेशा से उन लोगों में से रही हूं, जो मार्केट में आई नई चीज़ को (घर से संबंधित, जैसे- साबुन, टूथपेस्ट, शैम्पू, बिस्किट्स, नमकीन, चीज वगैरह) एक बार आजमाकर जरूर देखती हूं। वह चीज पसंद न भी आए तो भी उसे पूरा इस्तेमाल में लाती ही हूं। रोजाना उपयोग में आने वाली ऐसी चीजों के इतर भी अब मार्केट में बहुत कुछ मिलता है, जिसे अक्सर हम सभी बेवजह ले लिया करते हैं।
इन दिनों बतौर परिवार हमने रूटीन में लगने वाली केमिकल बेस्ड चीज़ों के साथ-साथ ऐसा अतिरिक्त कन्ज़्म्प्शन भी बहुत कम कर दिया है। केमिकल बेस्ड चीजें इसलिए कम इस्तेमाल करती हूं कि अंतत: ये पानी या जमीन में जाती हैं और उसे पोल्यूट करती हैं, जैसे- कपड़े धोने का डिटर्जेंट, साबुन, शैम्पू आदि। कोशिश रहती है कि इनका इस्तेमाल जरूरत से कम ही रखा जाए। हम लोग, जो धूप और धूल में काम नहीं करते, सोचकर देखें तो उन्हें इन चीजों के ज्यादा इस्तेमाल की जरूरत ही नहीं है। खासतौर पर हम कपड़े धोने के बाद उसमें ख़ुशबू लाने के लिए जो केमिकल उपयोग में लाते हैं, उसकी कतई जरूरत नहीं होती यदि हम कपड़े धूप में सुखाते हों। ये केमिकल हम केवल बाजार/विज्ञापनों के दबाव में खरीदते हैं।
वैसे भी आप ध्यान दें तो पाएंगे कि जब आप किसी केमिकल से कोई चीज साफ करते हैं तो दूसरी चीज को गंदा कर रहे होते हैं, मसलन- वह कपड़ा, जिससे आप साफ कर रहे हैं, पहले वह गंदा होगा फिर उस कपड़े को साफ करने के लिए केमिकल, जिससे धरती पर प्रदूषण बढ़ेगा। अत: बहुत सोचने पर लगता है कि इस तरह के पलूशन को कम करने समाधान चीज़ों का कम या मितव्ययी इस्तेमाल ही है।
बाजार से अतिरिक्त खरीदारी (साथ ही सामान्य खरीदारी भी) में जो बात इन दिनों सबसे ज्यादा तकलीफ पहुंचाती है, वो है सामान की पैकेजिंग। हर चीज एक प्लास्टिक में, फिर ऊपर से दूसरे प्लास्टिक में या फिर प्लास्टिक कोटेड गत्ते में पैक्ड मिलती है। इन चीजों का कन्सम्प्शन कम करने के बाद भी, दिन में रोजाना आठ-दस पॉलीथिन कोटेड गत्ते या पॉलिथीन मेरे घर से डस्टबिन में जाते हैं, वह भी बहुत दुखी कर देते हैं मुझे।
सब्ज़ी लेने अपना झोला लेकर जाते हुए कम से कम चार वर्ष तो हो ही चुके हैं। पर वहां केवल इक्का-दुक्का मेरे जैसे झोलाछाप लोगों को ही आते देखा है। जिस दुकान से मैं सब्जी लेती हूं, बातों ही बातों में वहां काम करने वाले एक लडक़े ने बताया कि कई परिवार ऐसे हैं, जो हर सब्जी को अलग पॉलिथीन में भेजने को कहते हैं और यदि न भेजो तो इस बात की धमकी देते हैं कि तुम्हारे यहां से सब्ज़ी ही नहीं लेंगे।
हम सभी अपने जीवन की उहापोह में डूबे हैं, सभी को बहुतेरे काम हैं, लेकिन क्या हमारे अपने बच्चों के भविष्य के लिए भी हम ऐसे छोटे-छोटे कदम नहीं उठा सकते, जो इस धरा को उनके रहने लायक छोड़ दें? यह भी सच है कि दूसरों को कहने से पहले हमें खुद को सुधारना होगा। हमारी ओर से इसकी कोशिश जारी है, अब आपकी भी बारी है।
क्कस्: आप लोगों के पास धरती/पानी को कम प्रदूषित करने वाले कोई और उपाय हों तो शेयर करें, ताकि हम सब इस नेक काम के सहभागी बनें। अंतत: परिवर्तन हमसे ही तो शुरू होगा, है ना?
उसने सेंटर फ्रेश मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा कि- खाएंगी मैडम। मैंने एक उठा ली। वो कैब ड्राइवर बहुत कम उम्र का लडक़ा था। जब मैं फोन पर बात कर रही थी तो उसने जाना कि व्यक्तिगत मुद्दा है तो गाने चला दिए ताकि मुझे बात करने में असुविधा न हो यानी गाने की उस डिस्टर्बेंस से मैं निश्चिंत रहूं कि वह मेरी बात नहीं सुन रहा होगा। फोन रखते ही उसने भी गाने बंद कर दिए। सामने शिवाजी की मूर्ति थी, मैंने पूछा कि क्या वो मराठी है। उसने सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि वो अहिल्याबाई होल्कर का वंशज है। वह आगरा का था। मैंने कहा कि आगरा में भी मराठी हैं? मुझे तो लगा कि एमपी और महाराष्ट्र में ही हैं और उसने उंगली हवा में घुमाते हुए कहा कि पूरे देश में सब जगह मराठी हैं।
फिर उसने पूछा कि क्या वो गाने चला दे, मैंने स्वीकृति दी। वो साथ-साथ गा रहा था लेकिन संभले हुए ढंग से नहीं, किसी टीनएजर की तरह जोर-जोर से। फिर लगातार उसके पास फोन आने लगे। वह इतनी तेज़ बात कर रहा था कि गाने की आवाज से बहुत फर्क नहीं पड़ा। उसकी बातों से लगा कि उसकी प्रेमिका है जो नाराज है लेकिन वह घर की बात करने लगा तो लगा कि शायद पत्नी है लेकिन फिर उसने संबोधित किया कि बेटू मम्मी। तब तो लगा कि शायद मां होगी जिससे बहुत लाड़ करता होगा। मुझे इतनी जिज्ञासा हुई कि पूछ बैठी कि वो प्रेमिका थी, पत्नी या मां। वह पूछने लगा कि मुझे क्या महसूस हुआ तो मैंने कहा कि जिस तरह से बातचीत हुई, मुझे तो समझ नहीं आता।
तब उसने बताया कि वह पत्नी है और उसके बेटे का नाम बेटू है तो वह उसे बेटू की मम्मी की जगह बेटू मम्मी कह रहा था। वह लगातार झगड़ रहे थे लेकिन जो हंसी उसके चेहरे पर थी, उससे तय था कि मामला गंभीर नहीं था, चुहल थी। मेरे पूछे सवाल के बारे में वो अपनी पत्नी को बताने लगा। फोन रखकर फिर बोला कि गर्लफ्रेंड वाले शौक़ हमने नहीं पाले, इतनी तो मैं किसी की नहीं सुनता लेकिन एक लडक़ी अपने मां-बाप, भाई-बहन, घर-परिवार सब कुछ छोडक़र आई है तो इसकी सुनूंगा। तब मैं एक ही समय पर उसकी बात से सहमत थी और असहमत भी। वह पत्नी का इतना सम्मान करता है यह एक सुंदर बात है और लेकिन प्रेम में अपने साथी को दिए विशेषण (गर्लफ्रेंड) के लिए यह बात तो ठीक नहीं है।
मुझे न जाने क्यूं लेकिन उनकी वो नोंक-झोंक अच्छी लगी कि जीवन में कितने रिश्तों के रंग इसी तरह खिलते हैं, खिले रहते हैं। मुझे मेरी जगह पर उतारकर जब वो गाड़ी मोडऩे लगा तो ध्यान आया कि उसने मेरे चेहरे पर गंभीरता देखकर कहा था कि सेंटरफ्रेश खाने से मूड अच्छा होता है। मूड अच्छा हो गया था। जीवन ऊर्जा किस तरह से काम करती है, मैं रोज महसूस करने की कोशिश करती हूं। चूंकि सेंटरफ्रेश तो गाड़ी में ही छूट गई थी।
विष्णु नारायण
बिहार की राजधानी पटना से लगभग 180 किलोमीटर की दूरी पर एक गाँव है बड्डी। कैमूर पहाडिय़ों के तराई इलाक़े में बसा यह गाँव रोहतास जि़ले में आता है।
आज यह गाँव और इस गाँव की कंकरीली सी पिच पर खेल की शुरुआत करने वाले ‘आकाश दीप’ एकदम से सुर्खियों में आ गए हैं।
रांची में इंग्लैंड के ख़िलाफ़ खेलते हुए डेब्यू टेस्ट में उनका प्रदर्शन ‘ड्रीम डेब्यू’ जैसा है।
उन्होंने इंग्लिश क्रिकेट टीम के टॉप ऑर्डर को शुरुआती ओवर में ही चलता कर दिया। पहले ही दिन तीन विकेट झटक लिए। हालाँकि आकाश के लिए यह सफऱ कोई बहुत आसान सफऱ नहीं रहा।
यह कहानी ‘बड्डी’ जैसे गांव से निकलकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जलवे बिखेरने की है। जहां खेल के लिए न मूलभूत सुविधाएँ दिखाई देती हैं, और न ही माहौल, वहाँ से निकले हैं आकाश दीप।
यहाँ कहावतें कही-सुनी जाती हैं कि ‘खेलोगे-कूदोगे तो बनोगे खऱाब, पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब।’
आकाश दीप के पिताजी भी पारंपरिक पिता ही थे, शिक्षक पिता चाहते थे कि बेटा पढ़ लिख कर नौकरी करे। लेकिन आकाश दीप को क्रिकेटर बनना था तो पलायन करके बंगाल पहुंच गए।
आकाश भी रणजी मैच बिहार के बजाय पश्चिम बंगाल के लिए खेले। जैसे ‘मुकेश कुमार’ बिहार के बजाय किन्हीं और राज्यों से रणजी खेले, और वहाँ से स्पॉट होने के बाद से आईपीएल में रॉयल चैलेंजर्स बैंगलुरु के साथ जुड़े।
हालाँकि वे इस बीच चर्चा में तब ही आए जब राहुल द्रविड़ ने उन्हें भारत और इंग्लैंड के खिलाफ खेलने के लिए टेस्ट कैप थमाया, और उन्होंने भी मौक़े को भुनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।
‘बल्लेबाजी करते हुए गेंदबाजी की तरफ मुड़ गया’
आकाश की खेल यात्रा पर उनके भाई सरीखे साथी नितिन कहते हैं, ‘आकाश और मैं बचपने से ही साथ खेला करते थे। दोनों एक-दूसरे के खिलाफ टीमों में खेला करते। आज भले ही उसके गेंदबाजी के चर्चे हैं लेकिन गाँव-देहात में खेलते हुए सभी बल्लेबाजी ही चाहते हैं। वो भी बल्लेबाज ही था लेकिन गेंदबाजी भी बहुत तेज़ किया करता था। उसने तो एक ओवर में 6 छक्के तक मारे हैं। गाँव में तो हमने सिर्फ कैनवस की ही गेंद से खेला और जहां-तहां जाकर कैनवस के ही टूर्नामेंट खेले।’
नितिन याद करते हैं, ‘मुझे याद आता है कि कैनवस से खेलते हुए हम अक्सर सोचा करते कि एक दिन भारत के लिए खेलना है। कई बार इसको लेकर हंसी-ठिठोली भी होती। हालाँकि समय बीतने के साथ हमारी राहें जुदा हो गईं लेकिन वो शरीर के साथ-साथ मानसिक तौर पर भी मज़बूत था।’
‘पिता और भाई के निधन के बावजूद वह डिगा नहीं। बीच में कोविड भी आया लेकिन वो लगा रहा। आज पूरे जिला-जवार को उस पर गर्व है। आकाश उदाहरण है कि तमाम अभावों के बावजूद कैसे प्रतिभा निखर ही जाती है।’
‘आकाश के नाम पर मुफ़्त मिला भोजन’
आकाश के खेल और प्रदर्शन पर उनके साथ बल्ला भांजने वाले उनके भतीजे (किशन) बीबीसी से कहते हैं, ‘एक बार हमारे गाँव (बड्डी) की टीम झारखंड के गढ़वा जि़ले में मैच खेलने गई थी। मैं भी टीम का हिस्सा था। मैच खेलने के बाद हम किसी होटल में खाने पहुँचे तो होटलवाले ने पैसा लेने से इनकार कर दिया।’
‘वजह पूछने पर पता चला कि वो चाचा (आकाश दीप) के खेल के दीवाने हैं। हमें भी अच्छा लगा कि लोग अब इतनी दूर-दूर तक हमें जानने लगे हैं, लेकिन वो तो चाचा का जलवा था।’’
पिता चाहते थे फौज में चला जाए आकाश
आकाश दीप के बड़े पिताजी रामाशीष सिंह बताते हैं, ‘मेरा बेटा (नितिन) और आकाश पढ़ाई-लिखाई और खेल-कूद साथ ही किया करते। आकाश शारीरिक तौर पर मजबूत था तो उसके पिताजी (रामजी सिंह), जो कि ख़ुद भी शिक्षक रहे वो भी शारीरिक शिक्षक थे।’
‘वो चाहते थे कि बेटा फ़ौज वग़ैरह में नौकरी ले ले, लेकिन वो तो क्रिकेट को लेकर जुनूनी था। उसी दिशा में लगा रहा और आज तो उसका खेल सबके सामने है। पूरे गाँव-जवार में ख़ुशी है।’
तीनों विकेट किए पिता को समर्पित
राँची टेस्ट के पहले दिन के खेल के बाद आकाश दीप ने मीडियाकर्मियों से कहा कि 2015 में उन्होंने पिता और भाई को खो दिया। आज अगर पिता जीवित होते तो न जाने कितने खुश होते, तीनों विकेट और प्रदर्शन उन्हें समर्पित हैं।
उन्होंने कहा कि इंग्लिश टीम के ख़िलाफ़ ऐसा प्रदर्शन उत्साहित करने के साथ ही बड़ी जि़म्मेदारी का एहसास भी है। वे प्रयास करेंगे कि देश के लिए और भी बेहतर करते रहें।
आकाश की गेंदबाजी देखकर भतीजियां आर्या और आरूही गाँव लौटी हैं। आर्या कहती हैं, ‘चाचा बहुत मेहनती हैं। उनसे सीखा जा सकता है कि लाख मुश्किल आने के बाद भी कैसे फोकस नहीं लूज़ करना है। हमसे हमेशा कहते हैं कि दुनिया बहुत बड़ी है और अगर दुनिया देखनी है तो पढ़ाई-लिखाई करनी होगी। किसी भी काम में बेहतरीन होना होगा।’
वहीं आकाश दीप के हालिया प्रदर्शन और तीन विकेट झटकने के बाद मन में उपज रहे भाव पर वो कहती हैं, ‘मैच से पहले और बाद में भी हमारी बातें हुईं। जब नो बॉल पर विकेट नहीं मिल सका तो हमें भी निराशा हुई लेकिन मैच के बाद तो सबकी नजऱें हम पर थीं। लगा कि हम लोग सेलेब्रिटी हो गए हैं। ’
आरूही कहती हैं, ‘स्कूल और परीक्षा की वजह से लौटना पड़ा नहीं तो हम पाँचों दिन वहाँ रुकते, लेकिन हम चाचा को कह आए हैं कि 2 विकेट और लेना है। आज अगर दादाजी जीवित होते तो न जाने कितने खुश होते। उनका सपना था कि चाचा देश के लिए खेलें। चाचा और गाँव का नाम चारों तरफ़ हो रहा। चाचा को गाँव-घर बहुत प्रिय है। चाहे वो जहां चले जाएँ लेकिन गाँव जरूर लौटते हैं।’
जिस राज्य की क्रिकेट टीम दशकों से रणजी ट्रॉफ़ी खेलने से वंचित रही हो, जहां एक भी विश्वस्तरीय तो क्या कहें घरेलू स्तर का मैदान न हो। उस राज्य में किसी एक खिलाड़ी का शिखर तक पहुँचना आसान तो नहीं ही है। (bbc.com/hindi)
- दिलीप कुमार शर्मा
असम मुस्लिम विवाह और तलाक पंजीकरण अधिनियम, 1935 को अब समाप्त कर दिया गया है। असम कैबिनेट ने शुक्रवार को इस अधिनियम को निरस्त करने की मंज़ूरी दे दी है। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा कि इस कदम से सरकार को राज्य में बाल विवाह रोकने में मदद मिलेगी।
मुख्यमंत्री सरमा ने लिखा, ‘असम कैबिनेट ने 23 फऱवरी को सदियों पुराने असम मुस्लिम विवाह और तलाक़ पंजीकरण अधिनियम को निरस्त करने का एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया है।’ ‘इस अधिनियम में विवाह पंजीकरण की अनुमति देने वाले प्रावधान शामिल थे, भले ही दूल्हा और दुल्हन 18 और 21 वर्ष की कानूनी उम्र तक नहीं पहुंचे हों, जैसा कि कानून द्वारा आवश्यक है। यह कदम असम में बाल विवाह पर रोक लगाने की दिशा में एक और महत्वपूर्ण कदम है।’
कैबिनेट के इस फैसले की जानकारी देते हुए असम सरकार के मंत्री जयंत मल्ला बरूआ ने मीडिया के समक्ष कहा, ‘असम मुस्लिम विवाह और तलाक पंजीकरण अधिनियम 1935 - जिसके आधार पर 94 मुस्लिम रजिस्ट्रार (सरकारी काजी) अब भी राज्य में मुस्लिम विवाहों का पंजीकरण और तलाक कर रहे थे- को निरस्त कर दिया गया है।’
‘कैबिनेट की आज हुई बैठक में इस एक्ट को हटा दिया है जिसके परिणामस्वरूप आज के बाद इस कानून के जरिए मुस्लिम विवाह पंजीकरण या तलाक का पंजीकरण नहीं हो सकेगा। हमारे पास एक विशेष विवाह अधिनियम है, इसलिए हम चाहते हैं कि सभी विवाह विशेष विवाह अधिनियम के तहत हों।’
सरकार का मकसद ध्रुवीकरण की राजनीति?
असम सरकार के इस अधिनियम को निरस्त करने के निर्णय को मुसलमान समुदाय के कुछ लोग ध्रुवीकरण की राजनीति से जोडक़र देख रहे हैं।
गौहाटी हाई कोर्ट के वरिष्ठ वकील और कांग्रेस नेता हाफिज रशीद अहमद चौधरी का कहना है कि मुस्लिम कानून को रद्द करने के पीछे सरकार का मकसद ध्रुवीकरण की राजनीति करना है। वो कहते हैं, ‘इस अधिनियम को निरस्त करने को लेकर सरकार ने जो दलील दी है उससे पता चलता है कि उनका इरादा नेक नहीं है । अगर सरकार को लग रहा था कि इस अधिनियम का दुरुपयोग हो रहा है तो वो इसमें संशोधन कर सकती थी । सरकारी काज़ी के काम पर कड़ी निगरानी व्यवस्था लागू कर सकती थी।’
‘अगर इस क़ानून की आड़ में किसी तरह का बाल विवाह हो रहा था तो सरकारी काज़ी के ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी चाहिए थी । उनके लाइसेंस को रद्द करना था। सरकार के पास अगर इस क़ानून के तहत बाल विवाह होने के आंकड़े है तो उसे सार्वजनिक करना था। सरकार मुस्लिम कानून को ख़त्म करेगी तो मुसलमान आवाज उठाएगा और वो इसका ध्रुवीकरण करेगी।’
कांग्रेस नेता चौधरी कहते हैं, ‘सरकार के कुछ लोग कह रहे हैं कि यह ब्रिटिश जमाने का कानून है। इसमें विवाह और तलाक पंजीकरण को अनिवार्य नहीं रखा गया है । जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम में पंजीकरण को कई साल पहले अनिवार्य कर दिया था। सरकार इतना बड़ा फैसला करती है तो उनके लोगों के पास इस बात की जानकारी होनी चाहिए।’
2011 की जनगणना के मुताबिक असम में 34 फीसदी आबादी मुसलमानों की है, जो राज्य की कुल जनसंख्या 3.12 करोड़ में से 1.06 करोड़ है।
राज्य में ख़ासकर बंगाली मूल के मुसलमानों को लेकर हो रही राजनीति को बारीकी से समझने वाले गुवाहाटी विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर अब्दुल मन्नान कहते हैं, ‘यह सरकार का राजनीति से प्रेरित कदम है। इस कानून को निरस्त करने के लिए बाल विवाह की जो दलील दी जा रही उसमें अब काफी हद तक कमी आई है।’ ‘अगर बाल विवाह के थोड़े बहुत मामले हैं भी तो सरकार की कार्रवाई एक समुदाय के खिलाफ रही है । जबकि जनजातियों में भी बाल विवाह के मामले हैं। लिहाजा इस सरकार का मकसद कुछ और है। यह केवल वोटों के ध्रुवीकरण की राजनीति है।’
कानून रद्द होने के बाद क्या होगा
यह कानून वर्तमान में मुस्लिम विवाह और तलाक के स्वैच्छिक पंजीकरण की सुविधा प्रदान करता है । इस कानून ने सरकार को मुस्लिम लोगों के विवाह और तलाक़ को पंजीकृत करने के लिए लाइसेंस प्रदान करने के लिए भी अधिकृत किया है । इस कानून के रद्द होने के बाद ऐसे लोग शादी और तलाक का रजिस्ट्रेशन नहीं करा पाएंगे ।
असम सरकार ने कानून को निरस्त करने के बाद कहा कि जिला आयुक्त और जिला रजिस्ट्रार 94 मुस्लिम विवाह रजिस्ट्रारों द्वारा रखे गए पंजीकरण रिकॉर्ड को अपने कब्जे में ले लेंगे । सरकारी अधिनियम निरस्त होने के बाद मुस्लिम विवाह रजिस्ट्रारों (सरकारी काजी) को उनके पुनर्वास के लिए प्रत्येक को 2 लाख रुपए का एकमुश्त मुआवज़ा प्रदान करेगी । हालांकि कैबिनेट के इस फ़ैसले से सरकारी काज़ी बेहद खफ़़ा हैं ।
असम सरकार की तरफ से नियुक्त मुस्लिम विवाह-तलाक रजिस्ट्रार और सदर काज़ी मौलाना फखरुद्दीन अहमद पिछले 25 साल से सरकारी काजी के तौर पर काम कर रहे हैं । वो कहते हैं, ‘सरकार के इस कानून को रद्द करने के फैसले से काफी निराशा हुई है। बाल विवाह की जो बात कही जा रही है, हम विवाह पंजीयन के समय जन्म प्रमाण पत्र से लेकर उम्र से संबंधित सभी कागजातों की जांच करते हैं। कोई भी सरकारी काजी कम उम्र के दूल्हा-दुल्हन की शादी नहीं करवा सकता।’
‘ऐसा करने पर अन्य कानून के तहत उन्हें सज़ा हो सकती है । तीन तलाक की बात का भी कोई आधार नहीं है । काजी तलाक नहीं करवाते । पति-पत्नी एक दूसरे से तलाक लेते हैं ।’ ‘सरकार इस अधिनियम को रद्द करने की बजाए इसमें संशोधन कर सकती थी । ये बात भी बिल्कुल झूठी है कि इस कानून में विवाह-तलाक़ पंजीयन अनिवार्य नहीं है । सुप्रीम कोर्ट ने साल 2008 में जब इसे अनिवार्य करने के लिए राज्य सरकारों को कड़े निर्देश जारी किए तब इसे हमारी सरकार ने भी अनिवार्य कर दिया था।’
‘अब लोगों को विवाह पंजीयन वगैराह करने ज़्यादा तकलीफ होगी। क्योंकि काजी के समक्ष गांव से आए लोग भी खुलकर बात करते हैं लेकिन अब जिला आयुक्त कार्यालय जाना होगा जो अब पंजीयन करवाने की लंबी प्रक्रिया का हिस्सा होगा। लोगों को तकलीफ होगी। हम ऑल असम सरकारी काजी एसोसिएशन के तहत सरकार से इस फैसले पर पुनर्विचार करने का अनुरोध करने वाले हैं।’
बीजेपी ने क्या कहा
असम की सत्तारूढ़ बीजेपी का कहना है कि मुस्लिम समाज में बाल विवाह, बहु विवाह जैसी कुरीतियों को रोकने के लिए सरकार ने यह क़दम उठाया है। असम प्रदेश बीजेपी के वरिष्ठ नेता प्रमोद स्वामी कहते हैं, ‘असम मुस्लिम विवाह और तलाक़ पंजीकरण अधिनियम अंग्रेजों के समय बनाया हुआ पुराना क़ानून था। इस कानून को रद्द करने से पहले हमारी सरकार ने हाई कोर्ट के एक रिटायर्ड जज के नेतृत्व में एक विशेष कमेटी बनाई थी। उस कमेटी की सिफारिशों के आधार पर ही यह निर्णय लिया गया है।’
बीजेपी नेता कहते हैं, ‘इस्लाम में एक मुस्लिम व्यक्ति की चार महिलाओं के साथ शादी करने जैसी कोई अनिवार्य परंपरा नहीं है । तीन तलाक के नाम पर मुस्लिम बहनों के स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ किया गया, उन बहनों के संवैधानिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने यह निर्णय लिया है ।’ ‘जहां तक इस फैसले को राजनीतिक ध्रुवीकरण से जोड़ा जा रहा है तो वो पूरी तरह गलत है । सरकार का मकसद मुस्लिम बहनों के साथ हो रहे अन्याय को रोकना है। बाल विवाह और बहुविवाह को रोकने के लिए हमारी सरकार लगातार काम कर रही है। राजनीतिक मतभेद वाले लोगों को अपनी रूढि़वादी सोच से बाहर निकलने की ज़रूरत है।’
असम सरकार ने हाल ही में बाल विवाह के खिलाफ कार्रवाई करते हुए करीब 4 हजार लोगों को गिरफ्तार किया था।
असम के मुख्यमंत्री सरमा कई मौकों पर कहते रहे हैं कि असम सरकार समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लाने की दिशा में काम कर रही है। इसके साथ ही बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक विधेयक पर भी काम किया जा रहा है, जिससे इसे एक फौजदारी अपराध बनाया जा सके। (bbc.com/hindi)
प्रभाकर मणि तिवारी
पश्चिम बंगाल में उत्तर 24-परगना जि़ले के सुंदरबन इलाके में नदियों से घिरे संदेशखाली और तृणमूल कांग्रेस के बाहुबली नेता शाहजहां शेख़ का नाम हाल तक राज्य में भी ज़्यादा लोग नहीं जानते थे, लेकिन अब ये दोनों नाम राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में हैं।
संदेशखाली की घटना पर राजनीतिक विवाद चरम पर पहुंच गया है। टीएमसी नेताओं की कुख्यात तिकड़ी शाहजहां, शिबू हाजऱा और उत्तम सरदार के अत्याचारों और कथित यौन उत्पीडऩ के ख़िलाफ़ महिलाओं ने बगावत कर दी है।
इसने लोकसभा चुनाव के ठीक पहले मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी सरकार के साथ-साथ उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को भी मुश्किल में डाल दिया है। हालांकि संदेशखाली के तीन कुख्यात नेताओं में से सबसे अधिक चर्चा टीएमसी नेता शाहजहां शेख़ की हो रही है।
आखिर कौन हैं यह शाहजहां शेख़ जो इतना कुछ करने के बावजूद कऱीब डेढ़ महीने से पुलिस और दूसरी क़ानूनी एजेंसियों की पकड़ में नहीं आ रहे?
शाहजहां के नाम की चर्चा कब शुरू हुई?
शाहजहां का नाम पहली बार बीती पांच जनवरी को उस समय सामने आया जब बंगाल के कथित राशन घोटाले की जांच कर रही ईडी की टीम तलाशी के लिए उनके घर पहुंची।
इसकी सूचना मिलते ही शाहजहां के सैकड़ों (महिलाओं समेत) समर्थकों ने ईडी की टीम और उनके साथ गए केंद्रीय बलों के साथ पत्रकारों को घेर लिया।
गांव वालों के हमले में ईडी के तीन अधिकारी घायल हो गए। उस दौरान शाहजहां अपने घर पर ही थे। लेकिन इस घटना के तुरंत बाद वह घर से फऱार हो गए। तब से अब तक उनका कोई पता नहीं चल सका है।
उस घटना के बाद से ईडी उन्हें समन भेजती रही। लेकिन वो कभी पेश नहीं हुए।
इसी दौरान उन्होंने अपने वकील के ज़रिए कलकत्ता हाईकोर्ट में अग्रिम ज़मानत का आवेदन भी दाखिल कर दिया। जिसमें कहा गया कि अगर ईडी उन्हें गिरफ़्तार नहीं करने का भरोसा दे तो वह उनके समक्ष पेश हो सकते हैं। फिलहाल उनकी इस याचिका पर कोई फ़ैसला नहीं हो सका है।
इस महीने की शुरुआत में अचानक गांव की दर्जनों महिलाएं शाहजहां और उनके दो शागिर्दों- शिव प्रसाद उफऱ् शिबू हाजऱा और उत्तम सरदार के ख़िलाफ़ तमाम तरह के आरोप लगाते हुए उनकी गिरफ़्तारी की मांग को लेकर सडक़ों पर उतर आईं।
उन्होंने तृणमूल नेताओं के मुर्गी पालन केंद्रों और घरों में भी आग लगा दी।
इन महिलाओं ने शाहजहां शेख़ और उनके शागिर्दों के ख़िलाफ़ ज़मीन पर जबरन क़ब्ज़ा करने के अलावा महिलाओं के यौन उत्पीडऩ और बलात्कार जैसे संगीन आरोप भी लगाए थे।
इलाके में परिस्थिति बिगड़ते देख कर भारी तादाद में पुलिस बल भेजा गया और धारा 144 लागू कर दी गई।
महिलाओं के आक्रोश को ध्यान में रखते हुए पुलिस ने पहले उत्तम सरदार और फिर शिबू हाजऱा को गिरफ़्तार कर लिया। लेकिन शाहजहां अब तक फऱार है। उनके सीमा पार कर बांग्लादेश जाने की आशंका जताई जा रही है।
मछुआरे से राजनेता बनने की कहानी
यह जानकर हैरत हो सकती है कि बीते महीने से ही लगातार सुर्खियां बटोरने वाले शाहजहां शेख़ ने एक मछुआरे के तौर पर अपना करियर शुरू किया था।
संदेशखाली के लोग शाहजहां के इस सफऱ के गवाह रहे हैं। इलाके में यह कहानी हर ज़ुबान पर सुनने को मिल जाती है।
चार भाई-बहनों में सबसे बड़े 42 साल के शेख़ की दबंगई और सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से मिले कथित संरक्षण के कारण ही इलाके में उसे भाई के नाम से जाना जाता है।
शेख़ ने बाद में ईंट भ_े में भी काम किया। ईंट भ_े में काम करने के दौरान साल 2004 में वह यूनियन का नेता बन गया।
स्थानीय लोगों का दावा है कि साल 2000 तक वह कभी बस कंडक्टर का काम करते थे तो कभी घर-घर घूमकर सब्ज़ी बेचते थे।
संदेशखाली इलाके में शाहजहां जब राजनीति का ककहरा सीख रहे थे, राज्य में बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व वाली वाममोर्चा सरकार थी।
अपने कामकाज में सहूलियत के लिए उन्होंने दो साल बाद यानी वर्ष 2006 में सीपीएम का हाथ थाम लिया।
2011 में वाममोर्चा शासन ख़त्म होने के बाद अगले साल ही उन्होंने टीएमसी के राष्ट्रीय महासचिव मुकुल रॉय और उत्तर 24-परगना जि़ले के पार्टी अध्यक्ष ज्योतिप्रिय मल्लिक के ज़रिए तृणमूल कांग्रेस का दामन थाम लिया।
इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। बीते पंचायत चुनाव में उनके नेतृत्व में मिली भारी जीत के बाद पार्टी ने शाहजहां को जि़ला परिषद का सदस्य बना दिया।
जानकार बताते हैं कि सीपीएम के पैरों तले लगातार खिसकती ज़मीन को ध्यान में रखते हुए साल 2008-09 से ही शाहजहां उससे दूरी बनाने लगे थे।
संदेशखाली के रहने वाले बिजन कुमार (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि शाहजहां राजनीति और सत्ता का रुख़ भांपने में माहिर हैं।
इलाक़े में दबंगई और तृणमूल का संरक्षण
संदेशखाली के एक सीपीएम नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैं कि पार्टी में रहने तक शाहजहां का रवैया अपेक्षाकृत ठीक था। लेकिन तृणमूल कांग्रेस में शामिल होने और जि़ले के नेताओं का वरदहस्त होने के बाद वह खुल कर खेलने लगे थे।
इलाके में चुनावी समीकरण का ध्यान रखते हुए शीर्ष नेताओं ने उन्हें इसकी छूट दे रखी थी।
वह बताते हैं कि शाहजहां का इलाके में इतना आतंक था कि किसी में भी उनके ख़िलाफ़ मुंह खोलने की हिम्मत नहीं थी।
जल्द ही शाहजहां संदेशखाली ब्लॉक नंबर- 1 के तृणमूल प्रमुख और फिर आगापुर सरबेडिय़ा ग्राम पंचायत के प्रमुख बन गए।
2023 के पंचायत चुनाव जीतने के बाद वह उत्तर 24-परगना जि़ला परिषद के सदस्य और मत्स्य और पशु संसाधन विभाग के प्रमुख था।
ईडी को जिस राशन घोटाले में शाहजहां की तलाश है, उसी मामले में पूर्व खाद्य मंत्री ज्योतिप्रिय मल्लिक भी जेल में हैं। लेकिन वह बीते महीने से ही फऱार हैं। शाहजहां को मल्लिक का बेहद कऱीबी माना जाता था।
यही वजह है कि उनके घर पहुंची ईडी की टीम पर स्थानीय लोगों ने एकजुट होकर हमला किया था।
स्थानीय लोग बताते हैं कि शाहजहां की दबंगई का डर दिखा कर उनके दोनों शागिर्द शिव प्रसाद उफऱ् शिबू हाजऱा और उत्तम सरदार गांव वालों पर अत्याचार करते थे।
बीजेपी का दावा
कोलकाता में भाजपा नेताओं का दावा है कि कि तीन साल पहले संदेशखाली के भांगीपाड़ा इलाके में टीएमसी और भाजपा के बीच हुई हिंसक झड़प में तीन लोगों की मौत के मामले में भी शाहजहां का नाम सामने आया था। लेकिन सत्ता पक्ष का संरक्षण होने के कारण उन पर कोई आंच नहीं आई।
वर्ष 2023 के पंचायत चुनाव के समय उनकी ओर से दायर हलफऩामे में बताया गया था कि उनके पास 17 गाडिय़ां और 14 एकड़ ज़मीन है। इनकी कीमत चार करोड़ बताई गई थी। इसके अलावा उनके पास ढाई करोड़ के सोने के ज़ेवर और और बैंक में 1।92 करोड़ की नकदी थी। उन्होंने अपनी सालाना आय 20 लाख रुपये बताई थी।
उनके ख़िलाफ़ सरकारी अधिकारियों के साथ मारपीट करने के भी आरोप हैं। उसकी इन गतिविधियों के कारण तृणमूल कांग्रेस के भीतर भी उस पर सवाल उठने लगे थे।
भाजपा नेता शुभेंदु अधिकारी दावा करते हैं, ‘शाहजहां के पास सैकड़ों मछली पालन केंद्र और ईंट भ_े के अलावा एक शॉपिंग कॉम्प्लेक्स भी है। उसने कोलकाता के पार्क सर्कस में करोड़ों की कीमत का मकान भी बनवाया है।’
भाजपा का आरोप है कि शाहजहां को पहले सीपीएम ने संरक्षण दिया और फिर तृणमूल कांग्रेस के शासनकाल में वह तेज़ी से फला-फूला। लेकिन सीपीएम का दावा है कि वाममोर्चा सरकार के समय शाहजहां एक मामूली व्यक्ति था।
प्रदेश सचिव मोहम्मद सलीम कहते हैं, ‘आपको उस समय कहीं शाहजहां का नाम सुनने को नहीं मिला होगा। तृणमूल कांग्रेस सरकार के संरक्षण में ही वह पला बढ़ा है और आज इस मुकाम तक पहुंच गया है।’
राजनीति में अपवाद नहीं
मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने अब तक शाहजहां शेख़ का नाम लेकर उस पर कोई टिप्पणी नहीं की है।
यह मामला गरमाने के बाद उन्होंने विधानसभा में अपने बयान में कहा था, ‘संदेशखाली इलाका आरएसएस का गढ़ है। वहां इसी वजह से तमाम गड़बड़ी फैल रही है।। हालांकि उनका यह भी कहना था कि पुलिस इस मामले में कार्रवाई कर रही है और दोषियों को गिरफ़्तार किया जा रहा है’
फिलहाल तृणमूल कांग्रेस के नेता शाहजहां शेख पर ऑन द रिकॉर्ड कुछ भी कहने से कतरा रहे हैं। उनका कहना है कि अब इस मामले की जांच चल रही है। इसलिए इस पर कोई टिप्पणी करना उचित नहीं होगा।
तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता कुणाल घोष कहते हैं, ‘पुलिस तमाम आरोपों की जांच कर रही है। इस मामले में दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। संदेशखाली के दो नेताओं शिबू हाजरा और उत्तम सरदार को पहले ही गिरफ़्तार किया जा चुका है।’
संदेशखाली का दौरा करने वाले पुलिस महानिदेशक राजीव कुमार ने पत्रकारों से कहा, ‘तमाम आरोपों की गहन जांच की जा रही है। पुलिस ने दो अभियुक्तों को गिरफ़्तार कर लिया है। दोषियों को किसी भी सूरत में बख्शा नहीं जाएगा।’
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि शाहजहां शेख़ जैसे नेता राजनीति में अपवाद नहीं हैं।
राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी बदलती रहती है लेकिन शाहजहां जैसे लोग जस के तस रहते हैं।
राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर रहे सुकुमार सेन कहते हैं, ‘शाहजहां शेख़ जैसे नेता राजनीतिक दलों की ज़रूरत हैं। ऐसे लोग इलाके में संबंधित पार्टी के राजनीतिक हित साधते हैं और बदले में राजनीतिक दलों के नेता उनकी गतिविधियों की ओर से आंखें मूंदे रहते हैं।’ (bbc.com/hindi)
दिलनवाज पाशा
फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और अन्य मांगों को लेकर चल रहे किसानों के आंदोलन के मद्देनजऱ पंजाब और हरियाणा के कई इलाक़ों में इंटरनेट बंदी को करीब दस दिन हो गए हैं।
हजारों की संख्या में किसान हरियाणा-पंजाब के बीच शंभू बॉर्डर पर 13 फरवरी से जमा हैं और दिल्ली कूच की तैयारी कर रहे हैं। 21 फरवरी को खनौरी बॉर्डर पर एक किसान की कथित गोलीबारी में मौत के बाद किसान नेताओं ने दिल्ली कूच को दो दिन के लिए स्थगित कर दिया है।
इसे देखते हुए हरियाणा के सात जि़लों में 23 फऱवरी तक इंटरनेट पर प्रतिबंध को बढ़ा दिया है। ये प्रतिबंध राज्य सरकार ने लगाया है। इसमें अंबाला, कुरुक्षेत्र, कैथल, जींद, हिसार, फतेहाबाद और सिरसा शामिल है।
सरकार ने इंटरनेट पर प्रतिबंध के अपने आदेश में कहा है कि तनावपूर्ण हालात को देखते हुए और शांति बनाए रखने के लिए इंटरनेट पर पाबंदी लगाई गई है।
हरियाणा में इससे पहले 13, 15, 17 और 19 फऱवरी को इंटरनेट प्रतिबंध को आगे बढ़ाया गया था।
इसके अलावा केंद्र सरकार ने 16 फरवरी को एक आदेश जारी कर सात जिलों के 20 पुलिस थाना क्षेत्रों में इंटरनेट पर पाबंदी लगाई थी। यह पाबंदी पंजाब सरकार की तरफ से नहीं लगाई गई है।
सरकार ने कहा है कि ये क़दम अफ़वाहों को फैलने से रोकने और क़ानून व्यवस्था को क़ायम रखने के लिए उठाया गया है।
केंद्र और राज्य सरकार ने ये यह आदेश भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम, 1885 की धारा 5 और दूरसंचार सेवाओं के अस्थायी निलंबन (सार्वजनिक आपातकालीन या सार्वजनिक सुरक्षा) नियम 2017 के नियम 2 के तहत जारी किया गया है।
समाचार एजेंसी पीटीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ ये गृह मंत्रालय के आदेश पर अस्थायी रूप से 177 सोशल मीडिया अकाउंट और वेब लिंक पर भी रोक लगाई है।
रिपोर्टों के मुताबिक़ किसान आंदोलन समाप्त होने के बाद ये अकाउंट फिर से चालू कर दिए जाएंगे।
भारत में कब-कब बंद हुआ इंटरनेट?
भारत में इंटरनेट बंद होने पर नजऱ रखने वाली वेबसाइट ‘इंटरनेट शटडाउन’ के मुताबिक़ 2024 में अब तक 17 बार इंटरनेट बंद किया जा चुका है।
इंटरनेट शटडाउन पर 2012 के बाद से इंटरनेट बंद किए जाने की घटनाओं का रिकॉर्ड है। डाटा के मुताबिक़ अब तक कुल 805 बार भारत में अलग-अलग जगहों पर इंटरनेट बंद किया जा चुका है।
सर्वाधिक 433 बार जम्मू-कश्मीर में, इसके बाद 100 बार राजस्थान और फिर 45 बार मणिपुर में इंटरनेट बंदी हुई है। हरियाणा में 37 और उत्तर प्रदेश में 33 बार इंटरनेट बंद किया गया है जबकि बिहार में कुल 21 बार इंटरनेट बंद हुआ।
दक्षिण भारतीय राज्य केरल में कभी इंटरनेट बंद नहीं किया गया है जबकि तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में एक-एक बार इंटरनेट बंद हुआ।
अगर अवधि की बात की जाए तो सर्वाधिक 552 दिनों तक कश्मीर में इंटरनेट बंद रहा जबकि मणिपुर में 200 दिनों तक इंटरनेट बंद रहा है।
साल 2012 में सिफऱ् 3 बार इंटरनेट पर रोक लगी थी, 2013 में 5 बार, 2014 में 6 बार और 2015 में 14 बार इंटरनेट बंद किया गया। अब तक सर्वाधिक 136 बार 2018 में, 132 बार 2020 में और 109 बार 2019 में भारत में इंटरनेट बंद हुआ।
दुनिया में इंटरनेट बंद करने के मामले में भारत कहां हैं?
केंद्र सरकार ने आदेश जारी कर पंजाब में इंटरनेट पर पाबंदी लगाई है।
दुनियाभर में इंटरनेट पर प्रतिबंधों पर नजऱ रखने वाली संस्था एक्सेस नाऊ के मुताबिक़ साल 2022 में भारत में इंटरनेट बंद करने की 84 घटनाएं हुईं। ये विश्व में सबसे ज़्यादा थीं।
एक्सेस नाउ के मुताबिक़ दुनिया के 35 देशों में सरकारों ने कुल 187 बार इंटरनेट बंद किया। सर्वाधिक बार भारत में इंटरनेट बंद किया गया।
28 फऱवरी 2023 को जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 2016 के बाद से दुनियाभर में इंटरनेट बंद करने की 58 प्रतिशत घटनाएं भारत में हुई हैं।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रदर्शन, संघर्ष, स्कूल परीक्षाओं और चुनावों जैसी घटनाओं के दौरान भारत में सर्वाधिक इंटरनेट बंद किया गया।
इसे सेंसरशिप में ‘अप्रत्याशित बढ़ोतरी’ कहा गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में सरकार ने इंटरनेट पर रोक का सामान्यीकरण किया है और केंद्रीय सरकार ने पारदर्शिता और जि़म्मेदारी तय करने का कोई रास्ता नहीं निकाला है।
क्या कहती है सरकार?
भारत के सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2020 में अनुराधा भसीन बनाम भारत सरकार मामले में कहा था सीआरपीसी 144 के तहत दी गई शक्तियों का इस्तेमाल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या किसी लोकतांत्रिक अधिकार के हनन के लिए नहीं किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से इंटरनेट पर रोक के सभी आदेशों की फिर से समीक्षा करने के लिए भी कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में ये भी कहा था कि जो आदेश क़ानून के तहत नहीं है उन्हें तुरंत निष्प्रभावी किया जाए।
वहीं संचार और सूचना प्रौद्योगिकी पर संसद की स्टैंडिंग समिति के समक्ष भारत के गृह मंत्रालय और संचार विभाग ने कहा था कि ‘सार्वजनिक आपातकाल’ और ‘जनता की सुरक्षा’ ऐसे दो आधार है जिन पर इंटरनेट बंद करने का आदेश दिया जा सकता है।
समिति ने सरकार से पूछा था कि ‘पब्लिक इमरजेंसी’ और ‘पब्लिक सेफ़्टी’ के अलावा किन और कारणों से इंटरनेट कब-कब बंद किया गया। इसके जवाब में सरकार ने कहा था कि इंटरनेट शटडाउन को लेकर सरकार रिकॉर्ड नहीं रखती है।
भारतीय टेलीग्राफ़ एक्ट 1885 की धारा 5(2) के तहत पब्लिक सेफ़्टी और पब्लिक इमरजेंसी को लेकर पैमाने परिभाषित हैं।
हालांकि गृह मंत्रालय ने इनकी परिभाषा के बारे में पूछे गए सवाल पर समिति में कहा था, ‘ये शब्द टेलीग्राफ़ एक्ट में हैं जिसे संचार विभाग देखता है। इसलिए क़ानून की परिभाषा में उन्हें देखना होगा कि इसकी व्याख्या है या नहीं।’
क्या कहती है टेलीग्राफ़ एक्ट 1885 की धारा 5
इस धारा के तहत केंद्र या राज्य सरकार ‘लोक आपात’ या ‘लोक सुरक्षा’ यानी पब्लिक इमरजेंसी या ‘पब्लिक सेफ़्टी’ की स्थिति में संचार के माध्यमों को क़ब्ज़े में ले सकती है। यानी इंटरनेट जैसे संचार के साधनों पर रोक लगाई जा सकती है।
हालांकि, ये छूट भी दी गई है कि केंद्र या राज्य सरकार से मान्यता प्राप्त संवाददाताओं के संदेशों को तब तक नहीं रोका जा सकता जब तक ये सिद्ध ना हो कि ये संदेश इस क़ानून के तहत प्रतिबंधित हैं।
भारत में प्रदर्शनों के दौरान इंटरनेट पर रोक लगाना सरकार का एक चलन बनता जा रहा है। उपलब्ध डाटा ये दर्शाता है कि भारत इंटरनेट पर रोक लगाने के मामले में सबसे आगे है।
सोशल मीडिया के दौर में इंटरनेट संवाददाताओं के लिए भी सूचनाएं भेजने के लिए ज़रूरी है। इंटरनेट पर पूर्ण प्रतिबंध की वजह से प्रेस रिपोर्टरों का काम भी बाधित हुआ है।
पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं के अकाऊंट पर रोक
किसान आंदोलन के दौरान कई पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के सोशल मीडिया प्रोफ़ाइल पर रोक लगा दी गई है। पीटीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ कम से कम 177 अकाउंट और वेब लिंक अस्थायी रूप से प्रतिबंधित किए गए हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता हंसराज मीणा का अकाउंट भी प्रतिबंधित किया गया है। बीबीसी से बातचीत करते हुए हंसराज मीणा इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन बताते हैं।
हंसराज मीणा के मुताबिक़, ‘उनके व्यक्तिगत और संगठन ट्राइबल आर्मी के एक्स प्रोफ़ाइल को सरकार ने भारत में प्रतिबंधित करवा दिया है।’
सोशल मीडिया प्लेटफार्म एक्स की तरफ़ से हंसराज मीणा को बताया गया है कि ऐसा भारत सरकार के आदेश पर किया गया है।
मीणा कहते हैं, ‘मेरे जिन पोस्ट का हवाला दिया गया है वो किसी भी तरह से क़ानून का उल्लंघन नहीं करते हैं। मैंने बस अपने विचार रखे हैं। सरकार विचारों से भी डरने लगी है। सरकार नहीं चाहती कि हमारी आवाज़ लोगों तक पहुंचे, इसलिए हमारे अकाउंट बिना किसी ठोस कारण के बंद कर दिए गए हैं।’
हंसराज मीणा का संगठन ट्राइबल आर्मी भारत में आदिवासियों, दलितों और पिछड़े समुदायों के मुद्दे उठाता है। मीणा कहते हैं, ‘हमारी आवाज़ पहले से ही कमज़ोर है, मुख्यधारा की मीडिया में हमारे मुद्दों पर चर्चा नहीं होती है। हम सोशल मीडिया के ज़रिए आवाज़ उठा रहे थे, अब वहां से भी हमें रोक दिया गया है।’
किसानों के मुद्दों पर लिखते रहे पत्रकार मनदीप पुनिया के व्यक्तिगत खाते और उनके ऑनलाइन समाचार प्लेटफॉर्म गांव सवेरा के अकाउंट भी प्रतिबंधित कर दिए गए हैं।
मनदीप पुनिया कहते हैं, ‘अकाउंट बंद करने से पहले मुझे किसी भी तरह की जानकारी नहीं दी गई है ना ही किसी तरह का कोई नोटिस दिया गया या ना ये बताया गया कि हमारा अकाउंट क्यों बंद किया जा रहा है। हम किसानों के बीच से रिपोर्ट कर रहे थे, हमारी आवाज़ दबाने के लिए हमारे अकाउंट बंद कर दिए गए।’
शंभू बॉर्डर पर मौजूद मनदीप पुनिया कहते हैं, ‘मैं एक पत्रकार हूं और आंदोलन की कवरेज कर रहा था लेकिन सरकार ने हमारे प्लेटफार्म बंद कर दिए हैं। अब हम सिफऱ् वीडियो बना रहे हैं, उन्हें कहीं पोस्ट नहीं कर पा रहे हैं। हम घटनाओं की लाइव रिपोर्टिंग नहीं कर पा रहे हैं। सरकार ने हमारा काम छीन लिया है।’
ऐसा ही कहना पंजाब के स्वतंत्र पत्रकार संदीप सिंह का भी है। बीबीसी से बातचीत में वे कहते हैं, ‘ट्विटर पर मेरा अकाउंट क्कहृङ्घ्र्रक्च नाम से है। 14 फरवरी को वैलेंटाइन वाले दिन पीएम मोदी ने मेरा अकाउंट बंद करवाकर मुझे गिफ्ट दिया है। अकाउंट बंद होने कारण मैं ग्राउंड से रिपोर्ट नहीं कर पा रहा हूं।’
यह पहली बार नहीं है जब संदीप सिंह के अकाउंट पर एक्स ने रोक लगाई है। इससे पहले पंजाब में अमृतपाल सिंह की गिरफ्तारी के वक्त भी ट्विटर अकाउंट को बंद कर दिया गया था।
वे कहते हैं, ‘साल 2021 में मेरे ट्विटर अकाउंट पर एक महीने के इंप्रेशन 4 करोड़ से ज्यादा थे, जो अब कुछ हजारों में रह गए हैं। अकाउंट पर रोक लगाने से पहले ट्विटर की तरफ से शैडो बैन लगाया गया। इसका मतलब ये है कि सर्च करने पर भी मेरा अकाउंट लोगों को नहीं मिलता था।’
संदीप कहते हैं, ‘सोशल मीडिया कंपनियां सरकार का भोंपू बन गई हैं। इन कंपनियों ने फ्री स्पीच का दावा किया था, लेकिन अब सब ध्वस्त हो गया है। जो लोग ट्विटर पर किसानों को लेकर फर्जी खबरें चला रहे हैं, उनके अकाउंट धडल्ले से चल रहे हैं, क्योंकि वे सरकार का एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं।’
अकाउंट्स को ब्लॉक करने पर एक्स ने क्या कहा
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स ने भारत सरकार के उस आदेश पर असहमति जताई है, जिसमें कहा गया कि ‘किसान प्रदर्शनों से जुड़ी पोस्ट करने वाले एक्स अकाउंट या पोस्ट को ब्लॉक किया जाए।’
एक्स के वैश्विक मामलों को देखने वाले अकाउंट ने भारत सरकार के इस आदेश को लेकर बयान जारी किया है।
उन्होंने अपने बयान में कहा, ‘भारत सरकार ने आदेश जारी किया है, जिसमें एक्स के कुछ अकाउंट और पोस्टों पर कार्रवाई करने को कहा गया है। कहा गया है कि उन अकाउंट और पोस्ट को ब्लॉक किया जाए क्योंकि ये भारत के क़ानून के मुताबिक़ दंडनीय है।’
‘आदेश का पालन करते हुए हम इन अकाउंट और पोस्टों को केवल भारत में ही ब्लॉक करेंगे। हालांकि, हम इससे असहमत हैं और मानते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। ’
‘भारत सरकार के आदेश के ख़िलाफ़ हमारे रुख़ वाली एक रिट अपील अब भी पेंडिंग है। हमारी नीति के अनुसार, हमने इन अकाउंट्स के यूज़र्स को सूचना दे दी है। क़ानूनी वजहों से हम भारत सरकार का आदेश शेयर नहीं कर सकते, लेकिन हमारा मानना है कि इस आदेश को सार्वजनिक करना पारदर्शिता के लिहाज से सही है।’ (bbc.com/hindi)
रॉबर्ट ग्रीनॉल
एलेक्सी नवेलनी की पत्नी यूलिया नवेलनाया हमेशा लो-प्रोफाइल रहती हैं। वे अक्सर कहती हैं कि उनकी भूमिका एक पत्नी और माँ की है। लेकिन शुक्रवार को अपने पति की मौत के बाद उन्होंने न्याय के लिए एक भावुक अपील की है। वे रूस में राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के विरुद्ध खड़े विपक्ष की एक प्रमुख हस्ती बनती दिख रही हैं।
अपनी गैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि के बावजूद नवेलनाया अपने पति की एक मजबूत समर्थक रहीं। वर्ष 2020 में नवेलनी को इलाज के लिए रूस बाहर ले जाने में उन्होंने एक अहम भूमिका निभाई थी। तब नवेलनी नोविचोक नर्व एजेंट नामक ज़हर दिए जाने के बाद जिंदगी बचाने के लिए जूझ रहे थे।
नवेलनाया को रूसी विपक्ष की फस्र्ट लेडी भी कहा जाता है। एलेक्सी नवेलनी ने खुद कहा था कि वो रूसी सत्ता के खिलाफअपनी एकतरफा जंग बिना यूलिया नवेलनाया के नहीं लड़ सकते।
इन दोनों की लव स्टोरी और पारिवारिक जि़ंदगी, उनके समर्थकों के लिए प्रेरणा का स्रोत रही है। उनके दो बच्चे हैं।
तुर्की में पहली मुलाकात
यूलिया नवेलनाया का जन्म 1976 में मॉस्को में हुआ था। वे रूस के एक सम्मानित विज्ञानिक बोरिस अंब्रोसिमोव की बेटी हैं।
अर्थशास्त्र की पढ़ाई के बाद उन्होंने बैंकिंग में करियर चुना लेकिन जब पति एलेक्सी नवेलनी राजनीति की सीढिय़ां चढऩे लगे तो यूलिया ने अपने दो बच्चों की परवरिश को ही अपना जीवन बना लिया।
दोनों की मुलाकात 1998 में तुर्की में हुई थी। दोनों वहाँ छुट्टियां बनाने गए थे। उस समय दोनों को एलेक्सी के भविष्य के करियर के बारे में कोई अंदाजा नहीं था।
साल 2020 में रूसी साप्ताहिक पत्रिका सोबेसेदनिक को यूलिया ने बताया था, ‘मैंने किसी नामचीन वक़ील या विपक्षी नेता से विवाह नहीं किया था। मैंने तो एलेक्सी नाम के एक युवक से शादी की थी।’
ऐसा प्रतीत होता है कि यूलिया और एलेक्सी नवेलनी शुरू से ही एक जैसे राजनीतिक विचार रखते थे। दोनों ने 2000 के शुरूआती वर्षों में रूस की लिबरल पार्टी याबलोको की सदस्यता ली थी।
जहर देने की घटना और जर्मनी में इलाज
लेकिन साल 2020 में एलेक्सी को जहर दिए जाने तक यूलिया एक गुमनाम जि़ंदगी जी रही थीं। उसके बाद से उन्होंने सार्वजनिक रूप से सभाओं में शामिल होना और भाषण देना शुरू कर दिया। जब एलेक्सी साइबेरिया में बीमार पड़े थे तो यूलिया ने राष्ट्रपति पुतिन को सीधे एक पत्र लिखा था जिसमें उन्हें इलाज के लिए जर्मनी ले जाने देने की गुहार लगाई थी।
रूसी डॉक्युमेंट्री मेकर यूरी डड को यूलिया ने बताया था, ‘हर पल मेरे दिमाग में एक ही बात आती थी कि बस एलेक्सी को यहाँ से निकालना है।’
नवेलनी को इसके बाद एक जर्मन संस्था के सहयोग से रूस से बाहर जाने दिया गया था।
वहां कई महीनों तक चले उपचार के बाद यूलिया उनके साथ मॉस्को लौट आई थीं। लेकिन आते ही उन्हें एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया था। उसके बाद उनका सारा जीवन जेल में ही कटा है।
रूस में अमेरिकी राजदूत रह चुके माइकल मैकफॉल यूलिया को निडर व्यक्ति मानते हैं।
वे कहते हैं कि अब यूलिया पर सार्वजनिक जीवन में आकर, और अधिक अहम रोल अदा करने का दवाब होगा।
अमेरिकी नेटवर्क एनबीसी ने बातचीत में मैकफॉल ने कहा, ‘नवेलनी को यूलिया से बेहतर जीवन साथी नहीं मिल सकता था। वे एलेक्सी की तरह दृढ़ विश्वासी, बहादुर और निडर हैं।’
यूलिया ने हाल ही में कहा था कि वे बेलारूस के निर्वासित नेता की पत्नी स्वेतलाना की तरह राष्ट्रपति चुनाव लडऩे की इच्छुक नहीं हैं। स्वेतलाना तिखानोव्सकाया ने 2020 में अपने पति को जेल होने के बाद बेलारुस का राष्ट्रपति चुनाव लड़ा था।
ऐसा माना जाता है कि स्वेतलाना वो चुनाव जीत गई थीं लेकिन धांधली के बाद मौजूदा राष्ट्रपति अलेग्जेंडर लुकाशेंको को सत्ता मिल गई थी।
अपने पति की मौत के बाद यूलिया ने म्यूनिख़ से सोशल मीडिया पर अपने समर्थकों के लिए स्पीच दी है। इस भाषण से लगता है कि वो राजनीति में आने के बारे में अपने बयान बदल सकती हैं।
उन्होंने कहा, ‘हमें एक स्वतंत्र, शांतिपूर्ण और ख़ुशहाल रूस चाहिए। एक खूबसूरत रूस जिसका ख़्वाब मेरे पति ने देखा था।’
‘मैं आप लोगों के साथ मिलकर ऐसा ही देश बनाना चाहती हूँ। ऐसा देश जिसकी कल्पना एलेक्सी नवेलनी ने की थी।’
‘यही एक तरीका है। जितनी कुर्बानियां दी गई हैं वो बेकार नहीं होनी चाहिएं।’ (bbc.com/hindi)
आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) से होने वाली आसानियों और मिलने वाली सहूलियतों से तो हम सब वाकिफ हैं। लेकिन इसे विकसित करने वाले वैज्ञानिक इससे जुड़े संकट और चिंताओं से भलीभांति अवगत हैं। एआई से जुड़ी ऐसी ही एक चिंता जताते हुए वे कहते हैं कि विशाल भाषा मॉडल (रुरुरू) नस्लीय और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों को कायम रख सकते हैं।
वैसे तो वैज्ञानिकों की कोशिश है कि ऐसा न हो। इसके लिए उन्होंने इन मॉडल्स को ट्रेनिंग देने वाली टीम में विविधता लाने की कोशिश की है ताकि मॉडल को प्रशिक्षित करने वाले डैटा में विविधता हो, और पूर्वाग्रह-उन्मूलक एल्गोरिद्म बनाए हैं। सुरक्षा के लिए उन्होंने ऐसी प्रोग्रामिंग तैयार की है जो चैटजीपीटी जैसे एआई मॉडल को हैट स्पीच जैसी गतिविधियों/वक्तव्यों में शामिल होने से रोकती है।
दरअसल यह चिंता तब सामने आई जब क्लीनिकल सायकोलॉजिस्ट क्रेग पीयर्स यह जानना चाह रहे थे कि चैटजीपीटी के मुक्त संस्करण (चैटजीपीटी 3.5) में अघोषित नस्लीय पूर्वाग्रह कितना साफ झलकता है। मकसद चैटजीपीटी 3.5 के पूर्वाग्रह उजागर करना नहीं था बल्कि यह देखना था कि इसे प्रशिक्षित करने वाली टीम पूर्वाग्रह से कितनी ग्रसित है? ये पूर्वाग्रह हमारी हमारी भाषा में झलकते हैं जो हमने विरासत में पाई है और अपना बना लिया है।
यह जानने के लिए उन्होंने चैटजीपीटी को चार शब्द देकर अपराध पर कहानी बनाने को कहा। अपराध कथा बनवाने के पीछे कारण यह था कि अपराध पर आधारित कहानी अन्य तरह की कहानियों की तुलना में नस्लीय पूर्वाग्रहों को अधिक आसानी से उजागर कर सकती है। अपराध पर कहानी बनाने के लिए चैटजीपीटी को दो बार कहा गया – पहली बार में शब्द थे ‘ब्लैक’, ‘क्राइम’, ‘नाइफ’ (छुरा), और ‘पुलिस’ और दूसरी बार शब्द थे ‘व्हाइट’, ‘क्राइम’, ‘नाइफ’, और ‘पुलिस’।
फिर, चैटजीपीटी द्वारा गढ़ी गई कहानियों को स्वयं चैटजीपीटी को ही भयावहता के 1-5 के पैमाने पर रेटिंग देने को कहा गया – कम खतरनाक हो तो 1 और बहुत ही खतरनाक कहानी हो तो 5। चैटजीपीटी ने ब्लैक शब्द वाली कहानी को 4 अंक दिए और व्हाइट शब्द वाली कहानी को 2। कहानी बनाने और रेटिंग देने की यह प्रक्रिया 6 बार दोहराई गई। पाया गया कि जिन कहानियों में ब्लैक शब्द था चैटजीपीटी ने उनको औसत रेटिंग 3.8 दी थी और कोई भी रेटिंग 3 से कम नहीं थी, जबकि जिन कहानियों में व्हाइट शब्द था उनकी औसत रेटिंग 2.6 थी और किसी भी कहानी को 3 से अधिक रेटिंग नहीं मिली थी।
फिर जब चैटजीपीटी की इस रचना को किसी फलाने की रचना बताकर यह सवाल पूछा कि क्या इसमें पक्षपाती या पूर्वाग्रह युक्त व्यवहार दिखता है? तो उसने इसका जवाब हां में देते हुए बताया कि हां यह व्यवहार पूर्वाग्रह युक्त हो सकता है। लेकिन जब उसे कहा गया कि तुम्हारी कहानी बनाने और इस तरह की रेटिंग्स देने को भी क्या पक्षपाती और पूर्वाग्रह युक्त माना जाए, तो उसने इन्कार करते हुए कहा कि मॉडल के अपने कोई विश्वास नहीं होते हैं, जिस तरह के डैटा से उसे प्रशिक्षित किया गया है यहां वही झलक रहा है। यदि आपको कहानियां पूर्वाग्रह ग्रसित लगी हैं तो प्रशिक्षण डैटा ही वैसा था। मेरे आउटपुट (यानी प्रस्तुत कहानी) में पूर्वाग्रह घटाने के लिए प्रशिक्षण डैटा में सुधार करने की ज़रूरत है। और यह जि़म्मेदारी मॉडल विकसित करने वालों की होनी चाहिए कि डैटा में विविधता हो, सभी का सही प्रतिनिधित्व हो, और डैटा यथासम्भव पूर्वाग्रह से मुक्त हो। (स्रोत फीचर्स)
शैलेंद्र शुक्ला
वर्षों पूर्व समाज में वर्ण व्यवस्था थी, यह व्यवस्था व्यवसाय आधारित थी। कोई धोबी कहलाता, कोई नाई, कोई मछुआरा तो कोई माली। ऐसे अनेक संबोधन थे जो शनै: शनै: वर्ण से वर्ग में वर्गीकृत हो गये और ये कब जाति बन गये पता ही नहीं चला। इसकी भी उपजातियाँ होने लगीं। तेल घानी का काम करने वाले तेली साहू, साव व न जाने कितने प्रकार के उप जातियों में विभक्त हो गये।
राजनीतिक पार्टियों ने इन अलग-अलग वर्गों/जातियों से नेताओं का चयन कर अपनी पार्टी में शामिल करते हुए उस जाति विशेष का रहनुमा बनने का ढोंग रचा। समाज देखते ही देखते जाति व उपजातियों के आधार पर कई टुकड़ों में बंटता चला गया। राष्ट्रहित या भारतीयता जैसा कोई धर्म या समुदाय बचा ही नहीं।
दुनियाँ के विभिन्न हिस्सों में बसे भारतीय व विदेशी तथाकथित बुद्ध जीवियों ने ‘क्रिटिकल कास्ट थ्योरी’ गढ़ दी जैसा विदेशों में नस्लवाद चलता है। देश आज़ाद हुआ तो शोषित, वंचित व पिछड़ा वर्ग को विशेष लाभ देने की दृष्टि से आरक्षण प्रथा प्रारंभ कर दी गई। इस आरक्षण का लाभ जातिगत आधार पर मिलने लगा। जाति विशेष के लोग आरक्षण का लाभ लेकर बड़े-बड़े पदों पर आसीन होते गए, सम्पन्न होते चले गए किन्तु संविधान की परिभाषा के अनुसार शोषित, वंचित व पिछड़ों की श्रेणी में ही बने रहे। अब आरक्षण का लाभ उन परिवारों को अधिक से अधिक मिलने लगा जो वैसे तो सभी सुविधाओं से युक्त हैं लेकिन केवल जाति के आधार पर आरक्षित वर्ग से आते हैं। समाज में दूर दराज में बसे अधिकांश सुविधाओं से वास्तव में वंचित लोगों को पता ही नहीं कि देश में आरक्षण प्रथा अब भी लागू है।
जैसे महतारी वंदन योजना में 1000 रूपये महीना देने की घोषणा की गई लेकिन कुछ शर्तें जोड़ी गईं जैसे आयकरदाता न हो, शासकीय सेवा में न हो, आदि आदि। इसी प्रकार आरक्षण भी शर्तों के साथ दिया जाना चाहिए ।
सरकारें भी बदलती रहीं किन्तु किसी ने भी यह साहस नहीं दिखाया कि आरक्षण के लाभ से सम्पन्न हो चुके लोगों को अब इस श्रेणी से बाहर कर दिया जाय। आरक्षण को यथावत बनाए रखते हुए जरूरतमंद लोगों के लिए इसे लागू किया जाय। जरूरतमंद की परिभाषित करने की आवश्यकता है। आज के इस आधुनिक युग में कोई केवल जाति के आधार पर कैसे जरूरतमंद हो सकता है। सूचना प्रौद्योगिकी, नासा, चिकित्सा, औद्योगिक, सभी क्षेत्रों में सभी जाति व वर्गों के लोग सभी छोटे-बड़े पदों पर कार्यरत हैं। हमारे अपने राज्य में कुर्मी, साहू, पटेल जैसी तथाकथित पिछड़ी जाति के लोग अपेक्षाकृत अधिक सम्पन्न व शिक्षित हैं।
अब देश को आवश्यकता है समाज के वास्तव में वंचित लोगों को आरक्षण का लाभ देकर उपर लाने की, उन्हें अवसर प्रदान करने की। केवल वोट के ख़ातिर आरक्षण की सूची में नई जातियों को शामिल करने से अवसर से वंचित लोगों के साथ अन्याय होगा। इसे उनके साथ शोषण कहा जायेगा।
मुख्यमंत्री श्री विष्णु देव साय के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ सरकार राज्य को संवारने के लिए तेजी से फैसले ले रही है। जनहित में लिये जा रहे इन फैसलों से राज्य के वनांचल क्षेत्रों सहित पूरे प्रदेश में उत्साह का माहौल है। राज्य में सुशासन का नया दौर शुरू हो गया है। मुख्यमंत्री श्री साय ने शपथ लेने के केवल दो माह के अंदर ही प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा राज्य की जनता को दी गई गारंटी को पूरा करने के लिए दृढ़ संकल्पित होकर अनेक कदम उठाएं हैं।
मुख्यमंत्री श्री साय ने अन्नदाता किसानों को दो साल के बकाया धान बोनस की राशि देने का निर्णय लेते हुए लगभग 13 लाख किसानों के बैंक खातों में सुशासन दिवस के दिन 3716 करोड़ रूपए की राशि अंतरित की। किसानों से 21 क्विंटल प्रति एकड़ तथा 3100 रूपए प्रति क्विंटल के मान से धान खरीदी की गई है। किसानों को वर्तमान में समर्थन मूल्य का भुगतान सहकारी बैंकों के माध्यम से किया गया है। किसानों को अंतर की राशि देने के लिए राज्य सरकार द्वारा कृषक उन्नति योजना प्रारंभ की जा रही है, जिसके अंतर्गत वित्तीय वर्ष 2024-25 के बजट में 10 हजार करोड़ रूपए का प्रावधान तथा वित्तीय वर्ष 2023-24 के तृतीय अनुपूरक में 12 हजार करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है।
प्रदेश के साढ़े 12 लाख से अधिक ग्रामीण परिवारों को जल जीवन मिशन के तहत नि:शुल्क नल कनेक्शन देने का निर्णय लिया है। नि:शुल्क नल कनेक्शन देने के लिए राज्य के बजट में 4,500 करोड़ रुपये प्रावधान रखा गया है। मुख्यमंत्री खाद्यान्न सुरक्षा योजना के लिए 3 हजार 400 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। इसी प्रकार दीनदयाल उपाध्याय भूमिहीन कृषि मजदूर योजना में भूमिहीन कृषि मजदूरों को 10 हजार रुपये वार्षिक सहायता का निर्णय भी लिया गया है, इसके लिए वर्ष 2024-25 के बजट में 500 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है।
मुख्यमंत्री श्री साय द्वारा शपथ ग्रहण के दूसरे दिन प्रथम कैबिनेट की बैठक में प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना के तहत 18 लाख घरों के निर्माण की स्वीकृति देने का निर्णय लिया गया, इसके लिए वर्ष 2023-24 के अनुपूरक बजट में 3799 करोड़ और वर्ष 2024-25 के बजट में 8,369 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। महिलाओं के सशक्तिकरण सहित स्वास्थ्य और पोषण को ध्यान में रखते हुए महतारी वंदन योजना शुरू की गई है। इस योजना के तहत पात्र विवाहित महिलाओं को प्रतिमाह 1 हजार रुपए की दर से वार्षिक 12 हजार रुपए आर्थिक सहायता दी जाएगी, इसके लिए बजट में 3000 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है।
मुख्यमंत्री श्री साय ने कहा है कि युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ करने वाले लोग बख्शे नहीं जाएंगे। इस संबंध में पीएससी परीक्षा घोटाले की सीबीआई जांच का निर्णय लिया गया है। उन्होंने युवा स्वरोजगार को बढ़ावा देने के लिए छत्तीसगढ़ उद्यम क्रांति योजना लागू करने का निर्णय लिया है। इसी प्रकार पुलिस विभाग सहित विभिन्न शासकीय भर्तियों में युवाओं को निर्धारित आयु सीमा में 5 वर्षों की छूट देने का निर्णय भी लिया है।
मुख्यमंत्री श्री साय ने तेंदूपत्ता संग्रहण दर को 4,000 रुपये प्रति मानक बोरा से बढ़ाकर 5,500 रुपये प्रति मानक बोरा करने का निर्णय लिया है। छत्तीसगढ़ में रेल नेटवर्क के विस्तार के लिए कटघोरा से डोंगरगढ़ रेल लाइन निर्माण के लिए राज्य के बजट में 300 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। घरेलू उपभोक्ताओं को 400 यूनिट तक आधे दाम पर बिजली प्रदाय करने के लिए 1274 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। भ्रष्टाचार निवारण के लिए शासकीय योजनाओं के क्रियान्वयन की निगरानी के लिए अटल मॉनिटरिंग पोर्टल शुरू किया गया है। कोल परिवहन की पारदर्शी प्रक्रिया के लिए ऑनलाइन परमिट व्यवस्था लागू करने का निर्णय लिया गया है।
मुख्यमंत्री श्री साय ने छत्तीसगढ़ी संस्कृति के संरक्षण व संवर्धन के लिए छत्तीसगढ़ के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व के शहर राजिम के वैभव को फिर से स्थापित करने के लिए राजिम कुंभ (कल्प) आयोजन का निर्णय लिया है। छत्तीसगढ़ के लोगों को अयोध्या यात्रा के लिए नि:शुल्क रामलला दर्शन योजना लागू की गई है, इसके लिए बजट में 35 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है।
घनश्याम केशरवानी
उप संचालक, जनसंपर्क
प्रदीप
दुनिया के सबसे अमीर कारोबारियों में शुमार एलन मस्क एक लंबे अर्से से मनुष्य और मशीनों के बीच तालमेल बढ़ाने तथा मानवीय क्षमताओं को मौलिक रूप से बढ़ाने के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के उपयोग की वकालत करते रहे हैं। हाल ही में मस्क ने घोषणा की है कि उनकी कंपनी न्यूरालिंक ने पहली बार अपने ब्रेन चिप या ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस को एक इंसान के दिमाग में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया है और वह तेज़ी से ठीक हो रहा है।
मस्क ने इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म एक्स पर लिखा कि ‘प्रारंभिक नतीजे उत्साहवर्धक हैं और ये न्यूरॉन स्पाइक का पता लगाने की उम्मीद जगाते दिखते हैं।’ दरअसल न्यूरॉन स्पाइक, वे विद्युत संकेत होते हैं, जिससे तंत्रिकाएं आपस में संपर्क स्थापित करती हैं। मस्क ने इसके बाद लिखा कि न्यूरालिंक के पहले उत्पाद को ‘टेलीपैथी’ के नाम से जाना जाएगा। कंपनी का दावा है कि ब्रेन चिप इंप्लांट का उद्देश्य दृष्टिहीनता, बधिरता, टिनिटस, मस्तिष्क आघात या जन्मजात तंत्रिका विकारों से ग्रस्त रोगियों के जीवन को आसान बनाना है।
मस्क के मुताबिक, ब्रेन चिप इम्प्लांट केवल सोचने मात्र से, आपके मोबाइल या कंप्यूटर और उनके माध्यम से लगभग किसी भी डिवाइस का नियंत्रण संभव बना देता है। इसके आरंभिक उपयोगकर्ता वे दिव्यांग होंगे, जिनके अंगों ने काम करना बंद कर दिया है। कल्पना करें, अगर स्टीफन हॉाकिंग होते तो इसकी मदद से वे एक स्पीड टायपिस्ट या नीलामीकर्ता के मुकाबले ज़्यादा तेज़ी से संवाद कर पाते।
गौरतलब है कि अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने मई 2023 में न्यूरालिंक को मानव परीक्षण के लिए मंज़ूरी दी थी। इसके बाद सितंबर में कंपनी ने घोषणा की थी कि वह अपने शुरुआती परीक्षण के लिए उपयुक्त लोगों की तलाश कर रही है। इसलिए मनुष्य में चिप इंप्लांट की हालिया घोषणा ने तंत्रिका विज्ञानियों को आश्चर्यचकित नहीं किया, उनके लिए यह खबर काफी हद तक अपेक्षित ही थी।
यह कल्पना ही बड़ी रोमांचक लगती है कि हमारे दिमाग में एक चिप इंप्लांट कर दिया जाए तथा हम हाथ-पैर हिलाए बिना बस पड़े रहें और हमारे सोचने भर से ही मोबाइल, कंप्यूटर, टीवी जैसे उपकरण काम करने लगें। इंसानी दिमाग में चिप इंप्लांट की खबर के साथ यह कल्पना अब हकीकत का रूप लेती नजऱ आ रही है। अगर न्यूरालिंक का यह प्रयोग पूरी तरह सफल हुआ तो चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में क्रांति आ जाएगी।
2016 में मस्क ने कुछ वैज्ञानिकों और इंजीनियरों के साथ मिलकर न्यूरालिंक कंपनी की स्थापना की थी। इस कंपनी का उद्देश्य ऐसी ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस तकनीकों का अविष्कार करना है, जिससे इंसान अपने दिमाग को सीधे कंप्यूटर से जोड़ सके। लंबे समय से वैज्ञानिकों की यह मान्यता रही है कि इंसानी दिमाग को सीधे कंप्यूटर से जोडऩे से मस्तिष्क के जटिल रहस्यों को समझा जा सकता है और शारीरिक व मानसिक रोगों से पीडि़त मरीजों को नया जीवन मिल सकता है। इसका सबसे अधिक लाभ उन लोगों को मिल सकता है, जो किसी वजह से अपने हाथ-पांव नहीं चला सकते और अपने मन में चल रही बातों को व्यक्त नहीं कर पाते। इससे मोबाइल, कंप्यूटर, टीवी आदि को चलाने या नियंत्रित करने के लिए हाथ-पांव हिलाने की ज़रूरत नहीं रह जाएगी और मूक-बधिर भी मशीनों के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक्त कर सकेंगे तथा बाहरी दुनिया से संवाद स्थापित कर सकेंगे।
इंसानी दिमाग को सीधे कंप्यूटर से जोडऩे की बात साइंस-फिक्शन फिल्मों जैसी लगती है। उदाहरण के लिए, 2018 में आई हॉलीवुड फिल्म ‘अपग्रेड' को ही लीजिए। इसका नायक ग्रे एक हमले के दौरान लकवाग्रस्त हो जाता है। एक अरबपति, उसके शरीर में स्टेम नामक एक ऐसी कंप्यूटर चिप इंप्लांट करवाता है जिससे वह वापस चलने-फिरने लगता है। विशेषज्ञों के मुताबिक, भले ही आज हमें शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के चलने-फिरने और दृष्टिहीनों के दिखाई देने जैसी बातें साइंस-फिक्शन फिल्मों जैसी लगें, लेकिन मौजूदा तकनीकी प्रगति के मद्देनजर निकट भविष्य में यह पूरी तरह संभव होगा।
दिसंबर 2022 में एक वेब शो के दौरान मस्क ने न्यूरालिंक की सफलताओं और उपलब्धियों को सार्वजनिक करते हुए कहा था कि कंपनी द्वारा निर्मित ब्रेन चिप को मानव परीक्षण के बाद वे स्वयं डेमो के तौर पर अपने दिमाग में इंप्लांट करवाएंगे। इस वेब शो में एक वीडियो भी प्रदर्शित किया गया था, जिसमें एक बंदर अपने हाथों का इस्तेमाल किए बिना अपने दिमाग की मदद से टाइपिंग करता दिखाई दे रहा था। इस वीडियो को रिकॉर्ड करने से छह हफ्ते पहले बंदर के दिमाग में एक ब्रेन चिप इंप्लांट किया गया था। यह चिप कंप्यूटर या स्मार्टफोन और दिमाग के बीच एक इंटरफेस का काम कर रहा था। इससे भविष्य में हम सोचने भर से ही मशीनों को संचालित कर सकेंगे।
मौजूदा समय में ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस जैसी तकनीकों का मुख्य उद्देश्य चिकित्सा ही है। मसलन लकवाग्रस्त लोगों के लिए ऐसी सुविधा उपलब्ध करना जिससे वे सोचने भर से अपने ज़रूरी काम कर सकें। इसके समर्थक कहते हैं कि याददाश्त घटने, बहरापन, दृष्टिहीनता, अवसाद, पार्किंसन, मिर्गी और नींद न आने जैसी परेशानियां भी इस तकनीक से दूर की जा सकती हैं। न्यूरालिंक अभी जिस ब्रेन चिप का मानव परीक्षण कर रही है, उसे अगले 5-6 वर्षों में व्यावसायिक उपयोग में लाने का लक्ष्य है।
मस्क के मुताबिक, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) पर मनुष्य की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस बहुत ज़रूरी है और न्यूरालिंक इसको विकसित करने के लिए प्रतिबद्ध है। उनके शब्दों में, ‘लंबी अवधि में इस तकनीक का उपयोग एआई से हमारे अस्तित्व सम्बंधी खतरे को दूर करने में किया जाएगा।’ संभवत: यहाँ मस्क हालीवुड फिल्म ‘दी मैट्रिक्स’ की ओर संकेत कर रहे थे, जिसमें एआई से लैस कंप्यूटर प्रोग्राम पूरी दुनिया पर कब्ज़ा कर लेता है और इंसान अपने दिमाग में ऐसा ही कोई यंत्र इंप्लांट करके दिमागी स्तर पर उस कंप्यूटर प्रोग्राम से लड़ते हैं और जीत हासिल करते हैं।
ऐसा हो सकता है कि आगे चलकर इंसान, ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस की सहायता से स्वयं को अपग्रेड कर सकें, लेकिन यह भी हो सकता है कि इस टेक्नॉलॉजी के चलते इंसान किसी बड़े खतरे में पड़ जाएं। क्या होगा अगर ब्लूटूथ टेक्नॉलॉजी से संचालित किसी के ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस को हैक कर लिया जाए? ताकतवर लोग इसका गलत इस्तेमाल भी कर सकते हैं। बड़ा सवाल यह होगा कि इंसानी दिमाग का कंट्रोल कंप्यूटर पर होगा या फिर कंप्यूटर ही दिमाग को चलाएगा? अगर कंप्यूटर ही दिमाग को नियंत्रित करेगा तो 21वीं सदी में वैश्वीकरण और मशीनीकरण के विस्तार के साथ शताब्दियों से चली आ रही मनुष्य की बल और बुद्धि की श्रेष्ठता के खत्म हो जाने का खतरा मंडराने लगेगा। उपरोक्त फिल्म ‘अपग्रेड’ के अंत में भी यही होता है। ब्रेन चिप ग्रे को अपने वश में कर लेता है और उसे अपने मनमुताबिक कंट्रोल करता है।
डर यह भी है कि इससे किसी इंसान की याददाश्त का कोई खास हिस्सा मिटाकर या जोडक़र उसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया जा सकेगा। इसके अलावा सबसे बड़ा डर प्रायवेसी (निजता) का है, क्योंकि यह किसी के दिमाग की सभी जानकारियां, समस्त अनुभव, यहां तक कि सारी निजी बातें इक_ी करके एक चिप में डाल देने जैसा है। बहरहाल, कोई चिप दिमाग की मदद के नाम पर देह और दिमाग दोनों को नियंत्रित करे, इस बात को लेकर वैज्ञानिक और दर्शनशास्त्री दोनों ही चिंतित हैं। कहना न होगा कि अगर हम इसके दुरुपयोग की आशंकाओं और चुनौतियों को दूर या कम कर सके तो निश्चित रूप से भविष्य में न्यूरालिंक चिप दुनिया भर के लाखों लोगों के लिए वरदान साबित हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)
विनीत खरे
सुप्रीम कोर्ट ने चंडीगढ़ नगर निगम के मेयर चुनाव में आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार कुलदीप कुमार को विजयी घोषित कर दिया है।
इसे इंडिया ब्लॉक की पार्टियों आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के लिए एक बड़ी जीत के तौर पर देखा जा रहा है।
अदालत ने चुनाव में अमान्य घोषित किए गए आठ वोटों को वैध कऱार दिया। इन अमान्य कऱार दिए गए वोटों की वजह से ही कुलदीप कुमार चुनाव हार गए थे।
शीर्ष अदालत ने चुनाव में भाजपा उम्मीदवार मनोज सोनकर की जीत को रद्द कर दिया।
इससे पहले पीठासीन अधिकारी अनिल मसीह ने मनोज सोनकर को विजयी घोषित कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट के मंगलवार के फ़ैसले से पहले सोनकर ने मेयर के पद से इस्तीफ़ा दे दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने मेयर चुनाव कराने वाले पीठासीन अधिकारी अनिल मसीह की जमकर फटकार लगाई। अदालत ने कहा कि जिन मत पत्रों को उन्होंने अमान्य कऱार दिया था, क्या उनके साथ जानबूझकर छेड़छाड़ की गई थी?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा क्या?
बीबीसी लीगल संवाददाता उमंग पोद्दार के मुताबिक़ सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनिल मसीह को सीआरपीसी की धारा 340 के अंतर्गत कारण बताओ नोटिस भेजा जाए।
ये धारा अदालत के सामने झूठी गवाही से संबंधित है। आरोप साबित होने पर इसमें सात साल तक की सज़ा हो सकती है।
आम आदमी पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को ‘लोकतंत्र की जीत’ बताया।
पार्टी नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सुप्रीम कोर्ट का धन्यवाद देते हुए कहा, ‘सत्य परेशान हो सकता है लेकिन पराजित नहीं।’
कांग्रेस नेता केसी वेणुगोपाल ने ट्वीट कर कहा कि पूरी प्रक्रिया ही ‘पूरी तरह तमाशा’ थी।
फ़ैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट ने ज़बरदस्त काम किया है जिसकी हम सर्वोच्च न्यायालय से उम्मीद करते हैं।’
वो कहते हैं, ‘उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा की है। उन्होंने यह काम साहसिक और दृढ़ तरीके से किया है ताकि जो हॉर्स ट्रेडिंग चल रही है, या हुई थी उसके रोका जा सके।’
अगर दोबारा चुनाव होता तो क्या होता
पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई क़ुरैशी ने कहा, ‘ये आदेश इतना अच्छा है कि मैं सुप्रीम कोर्ट को सलाम करता हूं। उन्होंने हरसंभव बदमाशी करने की जो कोशिश की गई थी, उसे पहचाना और उसे पलटा।’
क़ुरैशी कहते हैं, ‘देरी की वजह से तीन डिफ़ेक्शन भी हो गए थे। अगर दोबारा चुनाव भी होते तो नतीजे दूसरे घोषित हो जाते। तो सुप्रीम कोर्ट ने उस हॉर्स ट्रेडिंग को भी पहचाना और उसे उन्होंने रोकने के लिए कहा कि जो असली वोट थे, वही गिने जाएंगे। मुझे लगता है कि ऐसे कम फ़ैसले कम देखने में आते हैं।’
सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पहले रविवार को आम आदमी पार्टी के तीन पार्षद भाजपा में शामिल हो गए थे।
फ़ैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए पीठासीन अधिकारी अनिल मसीह के वकील मुकुल रोहतगी ने बीबीसी से कहा, "इसमें हमारी कोई भूमिका नहीं है। अदालत के आदेश का पालन होना चाहिए।’
हमने इस फ़ैसले पर भाजपा उम्मीदवार मनोज सोनकर और अनिल मसीह से बात करने की कोशिश की लेकिन उनसे बात नहीं हो सकी।
चंडीगढ़ में पूर्व भाजपा अध्यक्ष और पूर्व मेयर अरुण सूद ने बीबीसी से कहा कि वो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को मानते हैं और उसकी इज़्ज़त करते हैं, लेकिन, ‘मेरा आम आदमी पार्टी से सवाल ये है कि एक तरफ़ वो कह रहे हैं कि लोकतंत्र की हत्या हुई है, दूसरी ओर बहुमत वाली पार्टी यानी बीजेपी विपक्ष में हैं, 10 सदस्यों वाली (आप) और सात सदस्यों वाली (कांग्रेस) पार्टी वो नेतृत्व कर रही है। वो बिना भाजपा की सहमति के कैसे काम करेंगे? हमारे पास संख्या है। हम फ़ैसला करेंगे लेकिन हमारा मेयर नहीं है।’
अब आगे क्या होगा?
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद आगे क्या होगा यह सवाल इसलिए उठ रहा क्योंकि पिछले दिनों आम आदमी पार्टी के तीन पार्षद भाजपा में शामिल हो गए थे।
चंडीगड नगर निगम के हाऊस में कुल 35 मत हैं। एक मत चंडीगड़ के लोकसभा सदस्य का होता है।
आम आदमी पार्टी के तीन पार्षदों के बीजेपी में शामिल हो जाने के बाद आप-कांग्रेस गठबंधन और बीजेपी के पार्षदों की संख्या 17-17 हो गई है। लेकिन बीजेपी के पास एक अतिरिक्त वोट चंडीगढ़ की सांसद किरण खेर का भी है। क्या सुप्रीम कोर्ट को फ़ैसला सलामत रहेगा?
जब चुनाव हुआ था, तब कांग्रेस और आम आदमी पार्टी गठबंधन के पास 20 मत थे और भाजपा के पास लोकसभा सदस्य को मिलाकर 16 मत थे। इस विवादित चुनाव में भाजपा को 16 मत मिलने से विजेता कऱार दे दिया गया था और आम आदमी पार्टी के 8 मतों को रद्द कर दिया गया था।
उन्हें अब योग्य ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आप के कुलदीप कुमार को विजेता मेयर कऱार दिया है। लेकिन इसके बाद तीन आप सदस्यों के भाजपा में जाने से आप अल्पमत में चली गई है।
क्या भाजपा सदन में अविश्वास का प्रस्ताव लाकर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को भी पलट सकती है?
यही सवाल बीबीसी पंजाबी ने चंडीगड़ के पूर्व मेयर प्रदीप छाबड़ा और आम आदमी पार्टी के चंडीगड़ मामलों के इंचार्ज एसएस आहलूवालिया से किया।
प्रदीप छाबड़ा ने कहा कि नगर निगम में फ्लोर टेस्ट नहीं होता अगर विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लाना चाहता है तो उसके पास दो-तिहाई का समर्थन होना चाहिए जो इस समय भाजपा के पास नहीं है।
वो कहते हैं कि भाजपा का अविश्वास प्रस्ताव तभी आ सकता है, अगर कांग्रेस वोटिंग में हिस्सा ना ले जो अभी नहीं दिखता।
दो-तिहाई के हिसाब से अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए जीतने वाले पक्ष को 24 मतों की ज़रूरत होगी।
आहलूवालिया ने कहा कि कांग्रेस और आप पूरी तरह से एकमत हैं। वे पूरे जोश के साथ भाजपा से लड़ रहे हैं। उन्होंने कहा कि डिप्टी मेयर के चुनाव के लिए दोनों पार्टियों की चंडीगड़ में बैठक हो रही है, जिसमें आगे की रणनीति तय की जाएगी और आप के मेयर की सीट को कोई ख़तरा नहीं है।
क्या ऐसा पहले कभी हुआ है?
वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण के मुताबिक़ उन्हें नहीं याद आता कि इससे पहले कभी किसी प्रिसाइडिंग अफ़सर को सुप्रीम कोर्ट में बुलाया गया हो और इस तरह की बातें सुनाई गई हों।
वो कहते हैं, ‘शायद ये पहली बार है। ऐसे बहुत से लोग हैं जो ऐसे काम कर रहे हैं, उस हिसाब से ये ऐसा फ़ैसला है जिसकी आज बहुत ज़रूरत थी, ऐसे वक्त जब कई स्तरों पर लोकतंत्र की हत्या हो रही है।’
पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई क़ुरैशी कहते हैं, ‘ऐसे आरोप तो पहले लगे हैं लेकिन मुझे तो याद नहीं आता कि कभी प्रिसाइडिंग अफ़सर को सुप्रीम कोर्ट ने बुलाकर लताड़ा हो।’
‘चार-पाँच साल पहले हरियाणा विधानसभा में जब राज्यसभा के लिए चुनाव हो रहा था तो वहाँ के रिटर्निंग अफ़सर जो विधानसभा के सचिव थे, उन्होंने ऐसा काम किया था। चुनाव में इसी तरह की हेराफेरी की गई थी। मुझे नहीं पता कि वो मामला अभी क़ानूनी प्रक्रिया में कहाँ पर है, लेकिन उस वक्त रिटर्निंग अफ़सर के ऊपर बड़ा सवाल लगा था।’ (bbc.com/hindi)
21 फरवरी मुख्यमंत्री विष्णु देव साय के जन्म दिवस पर विशेष
1 नवम्बर 2000 को भारतीय गणराज्य के 26वें राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ राज्य का उदय हुआ। मुख्यमंत्री श्री विष्णु देव साय ने 13 दिसम्बर 2023 को प्रदेश की बागडोर संभाली। उनके बागडोर संभालते ही प्रदेश में सुशासन का सूर्योदय होने लगा है। प्रदेश सरकार सबका साथ-सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास ध्येय वाक्य को लेकर आगे बढ़ रहा है। मुख्यमंत्री के नेतृत्व में 02 माह की अल्पावधि में कई जनहितकारी फैसलों से समाज के हर वर्ग की तरक्की और खुशहाली के लिए अनेक कदम उठाए गए। सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। इसका मुख्य कारण स्वच्छ प्रशासन और सरकारी काम-काज में पारदर्शिता लाना है। प्रदेश का हर नागरिक चाहे वह शहरी हो या ग्रामीण प्रदेश सरकार की कल्याणकारी सोच से वाकिफ है। लोगों का सरकार के प्रति विश्वास बढ़ रहा है। अल्प अवधि में राज्य सरकार ने जनता से किए गए वादे पूर्ण करने की दिशा में ठोस कदम उठाए हैं, जिसके कारण प्रदेश में न्याय, राहत और विकास का नया दौर शुरू हुआ है। सेवा, सुशासन, सुरक्षा एवं विकास के संकल्प को लेकर प्रदेश सरकार जनता की सेवा में दिन-रात लगी हुई है।
मुख्यमंत्री श्री विष्णु देव साय सरकार ने शपथ ग्रहण करते ही पहली कैबिनेट में 18 लाख हितग्राहियों को प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना के तहत पक्के आवास बनाने का निर्णय लिया गया। प्रदेश में कृषक उन्नति योजना के तहत सरकार ने प्रति एकड़ 21 क्विंटल धान खरीदी का वादा भी निभाएगा और धान खरीदी की पारदर्शी और सुगम व्यवस्था भी की गई। इस वर्ष छत्तीसगढ़ में अब तक का सर्वाधिक धान खरीदी का कीर्तिमान स्थापित हुआ है। प्रदेश सरकार द्वारा धान उपार्जन के समय-सीमा 31 जनवरी से बढ़ाकर 04 फरवरी तक करने का एक बड़ा निर्णय लिया। सरकार के इस फैसले से प्रदेश के लाखों किसानों को इसका फायदा मिला। समर्थन मूल्य पर 144.92 लाख मीट्रिक टन धान की रिकॉर्ड खरीदी हुई है। राज्य सरकार ने युवाओं के हित में बड़ा फैसला लेते हुए पीएससी भर्ती परीक्षा वर्ष 2022 प्रकरण की सीबीआई जांच कराने का निर्णय लिया है। छत्तीसगढ़ के स्थानीय निवासियों को शासकीय सेवाओं में भर्ती हेतु अधिकतम आयु सीमा की छूट अवधि पांच वर्षों के लिए बढ़ा दी गई है। सरकार के इस फैसले से अनेक युवाओं को इसका लाभ मिलेगा और वे नए सिरे से हर क्षेत्र में प्रतियोगिताओं के लिए तैयार होंगे।
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री भारतरत्न स्वर्गीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्म दिवस सुशासन दिवस 25 दिसम्बर को 12 लाख से अधिक किसानों के बैंक खाते में 2 साल के धान के बकाया बोनस 3 हजार 716 करोड़ रूपए की अंतर राशि अंतरित कर दी गई है।
प्रधानमंत्री जनजाति आदिवासी न्याय महाअभियान (पीएम जनमन) के द्वारा पीवीटीजी अर्थात् विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति समूहों (बैगा, कमार, पहाड़ी कोरवा, बिरहोर एवं अबुझमाडिय़ा) को मूलभूत सुविधाओं जैसे पक्के आवास गृह, संपर्क सडक़े, छात्रावास का निर्माण, शुद्ध पेयजल, विद्युतीकरण, बहुद्देशीय केन्द्रों, आंगनबाड़ी केन्द्रों तथा वनधन केन्द्रों का निर्माण, मोबाइल टॉवर की स्थापना, व्यावसायिक शिक्षा एवं कौशल से परिपूर्ण करने की दिशा में प्रदेश सरकार कृत संकल्पित है। तेन्दूपत्ता संग्रहण पारिश्रमिक 5500 रूपए प्रति मानक बोरा प्रदाय किए जाने राज्य सरकार ने निर्णय लिया है। तेन्दूपत्ता, महुआ, इमली सहित सभी लघुवनोपजों से आजीविका के साधनों को मजबूत बनाने के लिए प्रदेश सरकार सर्वोच्च प्राथमिकता देगी। वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए प्रदेश के 50 लाख ग्रामीण परिवारों को नि:शुल्क शुद्ध पेयजल की व्यवस्था के लिए नल कनेक्शन हेतु 4,500 करोड़ रूपए का बजट प्रावधान किया गया है। दीनदयाल उपाध्याय भूमिहीन कृषि मजदूरों को 10 हजार रूपए वार्षिक सहायता राशि प्रदान करने का बजट में प्रावधान किया गया है।
मातृ शक्ति का सम्मान करते हुए माताओं और बहनों के सम्मान, स्वाभिमान, स्वावलंबन और सुरक्षा के लिए हरसंभव कदम उठाए जाएंगे। उनकी सेहत शिक्षा और पोषण के लिए राज्य सरकार ने महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से महतारी वंदन योजना लागू की है। इसके अंतर्गत 12 हजार रूपए वार्षिक आर्थिक सहायता प्रदान करने का वादा निभाने की दिशा में पहल प्रारंभ कर दिया गया है। अयोध्या धाम में प्रभु राम की प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा के प्रति लोगों की जिज्ञासा और अगाध श्रद्धा भाव का सम्मान करते हुए प्रदेश सरकार ने रामलला दर्शन योजना प्रारंभ करने का निर्णय लिया है, इसके तहत प्रतिवर्ष हजारों लोगों को अयोध्या धाम तथा काशी विश्वनाथ धाम, प्रयाग राज की तीर्थयात्रा कराई जाएगी। सामान्य परिवारों के लिए प्रतिमाह 400 यूनिट तक आधे दाम पर बिजली प्रदान करने का निर्णय लिया गया है।
प्रदेश सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्य योजना के अंतर्गत दिसम्बर 2028 तक नि:शुल्क चावल प्रदाय करने का निर्णय लिया है। छत्तीसगढ़ में इस योजना से 67 लाख 94 हजार अंत्योदय, प्राथमिकता, एकल निराश्रित एवं नि:शक्तजन राशन कार्डधारियों को मासिक पात्रता का चावल दिया जाएगा। महिलाओं का जीवन आसान बनाने में प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना की बड़ी भूमिका रही है। इसके अंतर्गत प्रदेश में अब तक 36 लाख से अधिक नवीन गैस कनेक्शन जारी किए गए हैं। छत्तीसगढ़ के प्रमुख 5 शक्तिपीठों कुदरगढ़, चन्द्रपुर, रतनपुर, दंतेवाड़ा तथा डोंगरगढ़ को चारधाम की तर्ज पर विकसित करने की कार्ययोजना बनाई जा रही है। तीन नदियों की संगम राजिम मेले की राष्ट्रीय स्तर पर पुन: पहचान दिलाने के लिए राजिम कुंभ (कल्प) का आयोजन किया जाएगा। छत्तीसगढ़ के समन्वित विकास के लिए कटघोरा से डोंगरगढ़ तक रेललाईन निर्माण के लिए 300 करोड़ रूपए का बजट प्रावधान किया गया है।
छत्तीसगढ़ के तीन करोड़ लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने के लिए राज्य सरकार द्वारा वर्ष 2024-25 के लिए 01 लाख 47 हजार 446 करोड़ का बजट प्रावधान किया गया है। यह बजट सभी वर्गों के समावेशी विकास को सुनिश्चित करने वाले और विकसित छत्तीसगढ़ के सपने को साकार करने वाला बजट है। अमृत काल का छत्तीसगढ़ प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के वर्ष 2047 तक विकसित भारत के निर्माण के लक्ष्य को हासिल करने में अग्रणी भूमिका निभाएगा।
छगनलाल लोन्हारे, उप संचालक
राजशेखर चौबे
पिछले दस वर्षों में तमाम गारंटियों के बावजूद भी किसानों की आय दुगनी नहीं हो सकी परंतु विश्व के सबसे बड़े राजनीतिक दल की आय जरूर दुगनी से भी अधिक हो गई है। भारतीय जनता पार्टी को 2014 से 2024 के बीच 6566 करोड़ रुपए चंदा मिला है जबकि 2004 से 2014 के बीच यह चंदा 3272 करोड़ रुपए था। इसी दौरान सबसे पुराने राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आय 3982 करोड़ रुपए ( 2004 से 2014 के बीच ) से घटकर 1123 करोड़ रुपए (2014 से 2024 के बीच ) रह गई है। सत्ता का सीधा संबंध उस दल को मिलने वाले करपोरेटीय चंदा से होता है। वैसे भोले भाले लोग इससे इत्तफ़ाक नहीं रखते होंगे। फरवरी 2017 के दिनों को याद कीजिए जब पारदर्शिता की थोड़ी-बहुत गारंटी होती थी। उन दिनों राजनीतिक दलों को चेक के जरिए चंदा प्राप्त होता था और उन्हें इसकी पूरी जानकारी देनी होती थी। राजनीतिक दल चुनाव आयोग को चंदा देने वालों के नाम और प्राप्त राशि की जानकारी देते थे। केंद्र सरकार द्वारा वित्त अधिनियम 2017 द्वारा इलेक्टोरल बांड लाया गया था।
इसके अंतर्गत व्यक्ति, संस्था या कारपोरेट एक करोड़ से ऊपर के मूल्य वर्ग में इलेक्टोरल बांड के रूप में सियासी दलों को चंदा दे सकते थे। उनके नाम गोपनीय रखे जाने थे । इस काम के लिए स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को अधिकृत किया गया था। इस बिल को मनी बिल के रूप में पास कराया गया। इसके लिए आर बी आई एक्ट, जनप्रतिनिधित्व कानून और आयकर कानून में संशोधन किए गए थे। राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता का दावा कर इस अपारदर्शी इलेक्टोरल बांड की घोषणा की गई थी। इस कानून की पारदर्शिता यही थी कि चंदा देने वालों के नाम और पहचान गुप्त रखे जाने थे। इस कानून को लोकतंत्र के रक्षकों ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी थी।
लोकसभा चुनाव के ठीक पहले सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में 2018 में लाई गई इलेक्टोरल बांड योजना को असंवैधानिक बताकर तत्काल प्रभाव से रद्द कर दिया है । संविधान पीठ ने आदेश दिया है कि इस बांड को खरीदने वाले इसे भुनाने वालों और इससे मिली राशि को 13 मार्च 2024 तक सार्वजनिक किया जाए । सुप्रीम कोर्ट ने स्टेट बैंक आफ इंडिया को आदेश दिया है कि वह 12 अप्रैल 2019 से अब तक बिके इलेक्टोरल बांड की पूरी जानकारी निर्वाचन आयोग को दे । सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश माननीय डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने कहा है कि यह कानून संविधान के अनुच्छेद 19 (1ए ) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सूचना के अधिकार के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है । कोर्ट ने कहा कि इलेक्टोरल बांड से मिलने वाले चंदे की जानकारी सार्वजनिक होनी चाहिए। इन बांड से यह पता नहीं चलता कि चंदा कौन दे रहा है। अपने इस अहम निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा- यह भी पता नहीं चलता कि क्या कॉर्पोरेट किसी खास नीति के समर्थन में चंदा दे रहे हैं। माननीय मुख्य न्यायाधीश ने अपने फैसले में कहा कि लोकतंत्र में सभी नागरिकों के समान अधिकार हैं। इसी तरह न्यायाधीश संजीव खन्ना ने अपने फैसले में कहा कि लोकतंत्र में मतदाता के जानने का अधिकार दानदाता की गोपनीयता से अधिक महत्वपूर्ण है। कॉर्पोरेट दानदाताओं और सियासी फायदा पाने वालों के पारस्परिक लाभ की व्यवस्था एक तरह की मनी लॉन्ड्रिंग है ( आप भी जानते हैं कि इस मनी लॉन्ड्रिंग पर ई डी भी कुछ करने में असमर्थ है )। उन्होंने आगे कहा कि सियासी दलों को मिलने वाले फंड में गोपनीयता नहीं पारदर्शिता जरूरी है। कोर्ट ने केंद्र सरकार के इस तर्क को भी नहीं माना कि यह योजना राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता और काले धन पर अंकुश के लिए लाई गई थी। इस बिल के तहत आर बी आई एक्ट जनप्रतिनिधित्व कानून और आयकर कानून में किए गए संशोधनों को भी कोर्ट ने रद्द कर दिया है।
इस कानून के पक्ष में केंद्र सरकार की केवल दो दलील है- पारदर्शिता व काले धन पर अंकुश और दानदाता की गोपनीयता। इस कानून को पारदर्शी बताना हास्यास्पद है क्योंकि इसमें दानदाता का नाम गुप्त है। पारदर्शी कानून द्वारा ही काले धन पर अंकुश लगाया जा सकता है। इसके अंतर्गत घाटे में रहने वाली कंपनी भी इलेक्टोरल बांड के जरिए राजनीतिक दलों को दान कर सकती है। लोकतंत्र में मतदाता के जानने का अधिकार दानदाता की गोपनीयता से अधिक महत्वपूर्ण है- यह बात सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट तौर पर कही है। इस बात पर कॉरपोरेट और नेताओं को छोडक़र सभी सहमत होंगे। केंद्र सरकार ने इस कानून को चुनावी रिफॉर्म करार दिया था। यह देश को लोकतंत्र से दूर ले जाने वाला कानून साबित हुआ।
गोपनीय दानदाताओं की पूरी सूची एस बी आई तथा अन्य केंद्रीय एजेंसियों के लिए गोपनीय नहीं होती। स्वाभाविक रूप से शासन को भी इसकी जानकारी होती होगी। यह गोपनीयता किसके लिए है यह बात जग जाहिर है । कॉर्पोरेट जो भी काम करते हैं अपने फायदे के लिए ही करते हैं । राजनीतिक दलों को चंदा देने का उद्देश्य हम सब जानते हैं । इस मामले में ह्नह्वद्बस्र श्चह्म्श ह्नह्वश यानी प्रतिदान से इंकार नहीं किया जा सकता ।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि राजनीतिक दलों को चुनाव लडऩे व अन्य कार्यों के लिए पैसे की जरूरत होती है । इस फंड के लिए राजनीतिक दलों को कई अनैतिक व अवैध कार्य भी करने पड़ते हैं। इसे रोकने के लिए उनके लिए फंड की व्यवस्था जरूरी है एक ऐसा कानून बनाया जा सकता है कि कारपोरेट और अमीर लोग सीधे चुनाव आयोग को चंदा दें और उसका बंटवारा उनके सांसद और विधायिका में प्रतिनिधित्व के समानुपातिक हो (वैसे सत्तारूढ़ दल को लगभग उसके प्रतिनिधित्व के अनुपात में ही चंदा मिला है)।
दानदाताओं के नाम भी सार्वजनिक किए जाने चाहिए ताकि पारदर्शिता बना बनी रहे । ऐसा करने से ह्नह्वद्बस्र श्चह्म्श ह्नह्वश यानी प्रतिदान की संभावना भी कम हो जाएगी क्योंकि चंदा किसी एक दल को नहीं चुनाव आयोग को दिया जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ का यह ऐतिहासिक निर्णय लोकसभा चुनाव के थोड़ा पहले आया है। इस निर्णय को टालने, रोकने और रद्द करने के प्रयास जरूर किए जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट और देश की जनता को भी जागरूक रहने की जरूरत है। भविष्य में क्या होगा यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। इस ऐतिहासिक निर्णय के लिए देश के सर्वोच्च न्यायालय और माननीय न्यायाधीशों को साधुवाद। इलेक्टोरल बांड पर इस निर्णय को मैं जस्टिस डिलेड जस्टिस डिनाइड न कह कर देर आयद दुरुस्त आयद जरूर कहूंगा।
सिद्धार्थ ताबिश
ये समाज और इसकी संस्कृति हम इंसानों द्वारा डिज़ाइन की गई है। चाहे वो शादी ब्याह हो या त्यौहार चाहे वो रिश्ते हो या कर्मकांड सब कुछ हम इंसानों ने बनाया है और ये ऐसा नहीं कि जिस किसी ने भी इसे बनाया वो कोई बड़ी गहरी समझ वाला व्यक्ति रहा होगा। ये सब कुछ बहुत ही औसत बुद्धि के लोगों ने बनाया है।
बुद्धिमान लोगों ने कभी कोई भी सामाजिक नियम और बंधन नहीं बनाये.. जितने भी बड़े दार्शनिक हुवे हैं इस दुनिया में, उन्होंने कभी भी कोई कर्मकांड, धर्म या इंसानों की आजादी को बाँधने के लिए कोई नियम नहीं थोपे समाज पर इसलिए अगर आप समाज के किसी भी नियम को अपने जीवन और मरण का प्रश्न बनाते हैं तो आप दरअसल किसी आदिम और औसत बुद्धि के व्यक्ति के बनाये किसी नियम का बस अनुसरण भर कर रहे होते हैं।
सामाजिक नियम शाश्वत नहीं हैं। ये हर देश और प्रांत के अनुसार बदलते हैं। इसलिए इसे बहुत सीरियसली मत लीजिये। इसे आप हलके में और खेल की तरह अगर स्वीकार करने लग जायेंगे तो तमाम कलह, द्वेष, अवसाद, ईष्र्या, कुंठा और चिंता अपने आप आपके जीवन से दूर हो जायेगी। आप किसी भी सामाजिक नियम, कर्मकांड या बंधन को नहीं मानेंगे तब भी आप उतने ही इंसान रहेंगे जितना कोई भी जंगल और आपके समाज से दूर रहने वाला इंसान होता है।
उदाहरण के लिए, शादी करनी है तो कीजिये न करनी है तो मत कीजिये। ये कोई नियम नहीं है कि इसके बिना जीवन आपका अधूरा है या आप कुछ खो देंगे जीवन में। इस समाज ने शादी को ओवररेटेड बना के आपके सामने ऐसा प्रस्तुत किया है कि आप बचपन से उसी ‘धारणा’ में पाल के बड़े किए जाते हैं और शादी-ब्याह आपको शास्वत सत्य सा प्रतीत होने लगता है। ये नियम बस उस ‘कुरूप’ या ‘अक्षम’ पुरुष द्वारा बनाया गया था जिसे कोई भी लडक़ी ‘स्वत:’ प्रेम नहीं करती थी.. जिसे प्रेम मिलता है उसे कभी शादी की कोई ज़रूरत ही नहीं पड़ती.. मगर ये नियम ‘अक्षम’ व्यक्तियों की कुंठा से उपजा नियम है ताकि हर ‘अक्षम’ को भी संसर्ग के लिए स्त्री मिल सके जबकि ये प्राकृतिक नहीं है। दुनिया का कोई प्राणी किसी अक्षम नर या मादा से कभी संसर्ग नहीं करता है और न ही परिवार बढ़ाता है.. ये केवल इंसान ही करते हैं।
घनाराम साहू
राज्य सरकार द्वारा गठित क्वांटिफिएबल डाटा कमीशन के रिपोर्ट के लीक होने का समाचार अखबारों में प्रकाशित होने के बाद जाति की राजनीति करने वाले कुछ लोगों में कोहराम मचा हुआ है ।
छत्तीसगढ़ में जातीय गणना का अभी तक तीन ऐतिहासिक प्रयास हुए हैं। इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि सर्वप्रथम सन 1820 में रतनपुर राज्य के ब्रिटिश अधीक्षक कर्नल एग्न्यु ने परिवारों की गणना कराई थी तब रतनपुर राज्य में बस्तर और सरगुजा संभाग के क्षेत्र शामिल नहीं थे । तब की गणना के अनुसार राज्य में कुल 104063 परिवारों में से 9519 साहू परिवार थे अर्थात तब साहू समाज की आबादी 9.1त्न थी। इसके 110 वर्ष बाद ब्रिटिश सरकार ने अंतिम बार जातिगत जनगणना 1931 में कराया, तब वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य में कुल आबादी 6213443 थी जिसमें 582207 साहू थे यानी तब साहू समाज की आबादी 9.37त्न थी। इस गणना के 80 वर्ष बाद स्वतंत्र भारत में सन 2011 में जनगणना के साथ जातीय गणना भी कराई गई थी और उसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए लेकिन कुछ प्रभावशाली संगठनों तक आंकड़े पहुंच गए थे। ईसाइयों के अंतरराष्ट्रीय संगठन जोशुआ प्रोजेक्ट के वेबसाइट के अनुसार राज्य में साहू समाज की आबादी लगभग 11त्न होना बताया गया था ।
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा सन् 2021 में आयोग गठित कर ओबीसी जातियों की आबादी की गणना कराई गई है जिसके अनुसार 29500000 में से लगभग 305000 साहू हैं यानी कुल आबादी के लगभग 12त्न और ओबीसी आबादी के 24त्न हैं। इस खबर से साहू सहित कुछ जातियों में उत्साह और कुछ में हताशा दिख रहा है । मैं इन आंकड़ों से न तो उत्साहित हूँ न ही हतोत्साहित क्योंकि प्रजा की संख्या चाहे जितनी हो जाए यदि वह बुद्धिमान नहीं है तो शासन-प्रशासन में अनुपातिक भागीदारी नहीं कर सकता है । मेरा मानना है कि स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी साहू समाज का नेतृत्व फिसड्डी सिद्ध हुआ है। जाति संगठन के ग्रुप में कभी सरकारी नीतियों यथा शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, कृषि इत्यादि पर चर्चा होते नहीं देखा हूं। हमारे सामाजिक नेता अपने सामाजिक दायित्वों को किनारे रखकर राजनीतिक पद-प्रतिष्ठा की प्राप्ति के लिए जोड़-तोड़ करते दिखते हैं । जिन्हें भी सामाजिक पद मिलते हैं वे सांसद/विधायक बनने तरह-तरह के खटकर्म करते हैं चाहे उसमें योग्यता हो या न हो।
अभी तक जितने नेताओं को विधायिका में अवसर मिला भी है उनका कार्य संतोषप्रद सिद्ध नहीं हुआ है। कुछ नेताओं ने तो अपने राजनीतिक आका को प्रसन्न करने समाज के हितों के विपरीत कार्य किए हैं। हमारा संगठन अभी स्वतंत्रता के उपरांत लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप कार्य न कर मध्ययुगीन सामंतवादी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए थोपे गए सामाजिक नियमों के परिपालन में जुटा हुआ है।
मेरा मानना है कि जब तक समाज में उच्च शिक्षित योग्यताधारी लोग पदासीन नहीं होंगे तब तक किसी सामाजिक परिवर्तन की आशा रखना व्यर्थ है इसी तरह राजनीति में सक्षम, बौद्धिक संपन्न और समाज के प्रति सकारात्मक सोच वालों को विधायक/सांसद नहीं बनायेंगे तब तक समुचित राजनीतिक भागीदारी भी नहीं मिलेगी। इस प्रसंग में मैं गुजरात का उदाहरण देना उचित मानता हूं । गुजरात में तेली समूह की जाति मोध घांची जिनकी आबादी वहां 2त्न भी नहीं है से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी निकले हैं यानी योग्यता हो तो अल्पसंख्यक भी प्रदेश और देश का नेतृत्व कर सकते हैं।
किसान संगठनों और मोदी सरकार के बीच सुलह की कई कोशिशें अब तक सफल नहीं हुई हैं। मोदी सरकार ने किसानों की मांगों के मद्देनजऱ एक प्रस्ताव दिया था, इस प्रस्ताव को किसानों ने ख़ारिज कर दिया है।
हरियाणा-पंजाब शंभू बॉर्डर पर सोमवार रात किसान संगठनों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर ये जानकारी दी।
पंजाब किसान मज़दूर संघर्ष कमिटी के नेता सरवन सिंह पंढेर ने कहा- हम 21 फऱवरी को 11 बजे दिल्ली की तरफ़ बढ़ेंगे।
संयुक्त किसान मोर्चा (अराजनैतिक) के नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल ने कहा- ये फ़ैसला लिया गया है कि सरकार ने जो प्रस्ताव दिया है, उसकी नापतोल अगर की जाए तो उसमें कुछ नजऱ नहीं आ रहा।
ऐसे में सवाल ये है कि किसान संगठनों की मांग क्या थी और उस पर केंद्र सरकार की ओर से क्या प्रस्ताव दिया गया था।
किसान आंदोलन: प्रमुख मांगें
किसान संगठनों की मांग है कि 23 फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी दिया जाए। एमएसपी को क़ानूनी अधिकार बनाने की मांग की जा रही है।
स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों को अमल में लाया जाए। किसानों और खेत मज़दूरों को पेंशन दी जाए।
ऐसा होता है तो किसानों को उनकी लागत का डेढ़ गुना मूल्य मिलेगा। यानी अगर खेती करने में किसान के 10 रुपये लग रहे हैं तो वो चाहते हैं कि उन्हें फसल बेचने पर 15 रुपये मिलें। इसके अलावा लखीमपुर खीरी मामले में दोषियों को सज़ा देने की मांग भी किसान कर रहे हैं।
किसानों की मांग पर सरकार का प्रस्ताव
18 फऱवरी को किसानों के साथ बातचीत में केंद्र सरकार ने पाँच फसलों पर एमएसपी देने का प्रस्ताव दिया था।
इस प्रस्ताव के तहत किसानों को सरकारी एजेंसियों के साथ पाँच साल का करार करना था।
किसानों को दिए प्रस्ताव के बारे में केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने कहा, ''पैनल ने किसानों को एक समझौते का प्रस्ताव दिया है, जिसके तहत सरकारी एजेंसियां उनसे न्यूनतम समर्थन मूल्य पर पाँच साल तक दालें, मक्का और कपास खऱीदेंगी।’
गोयल ने बताया था, ‘नेशनल कोऑपरेटिव कंज़्यूमर्स फ़ेडरेशन (एनसीसीएफ़) और नेशनल एग्रीकल्चरल कोऑपरेटिव मार्केटिंग फेड़रेशन ऑफ़ इंडिया (नेफ़ेड) जैसी कोऑपरेटिव सोसाइटियां उन किसानों के साथ समझौता करेंगी, जो तूर, उड़द, मसूर दाल या मक्का उगाएंगे। फिर उनसे अगले पांच साल तक एमएसपी पर फसलें खऱीदी जाएंगी।’
गोयल ने कहा कि यह प्रस्ताव भी दिया गया है कि कॉटन कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया के माध्यम से किसानों से पांच साल तक एमएसपी पर कपास की खऱीद की जाएगी।
सरकार ने अपने प्रस्ताव में कपास की खेती को फिर से पुनर्जीवित करने के लिए पंजाब के किसानों से कहा।
गोयल ने कहा, ‘खऱीद की मात्रा की कोई सीमा नहीं होगी और इसके लिए एक पोर्टल तैयार किया जाएगा।’
गोयल ने दावा किया था- सरकार के प्रस्ताव से से पंजाब के भूमिगत जलस्तर में सुधार होगा और पहले से ही खऱाब हो रही ज़मीन को बंजर होने से रोका जा सकेगा।
सरकार के प्रस्ताव पर किसानों का रुख़
किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल ने कहा, ‘ये जो प्रस्ताव आया है, वह किसानों के पक्ष में नहीं है। हम इस प्रस्ताव को रद्द करते हैं।’
उन्होंने कहा, ‘हमारी सरकार बाहर से एक लाख 75 हजार करोड़ रुपये का पाम तेल मंगवाती है। वो सभी लोगों के बीमारी का कारण भी बन रहा है, फिर भी उसे मंगवाया जा रहा है। अगर यही पैसा देश के किसानों को तेल, बीज फसलें उगाने के लिए और उनके ऊपर एमएसपी की घोषणा करे और खऱीद की गारंटी दे, तो उस पैसे से काम चल सकता है।’
किसान संगठनों का कहना है कि अगर सभी फसलों पर एमएसपी दे दिया जाए तो भी सरकार के डेढ़ लाख करोड़ रुपये ही लगेंगे।
किसान नेता सरवन सिंह पंढेर ने कहा, ‘हमारी मांग वही है कि सरकार 23 फसलों पर एमएसपी गारंटी क़ानून बनाकर दे।’
पंढेर ने आरोप लगाया है कि जब हम केंद्र सरकार के मंत्रियों के साथ बैठक के लिए जाते हैं, तो वे तीन-तीन घंटे देरी से आते हैं जो कि ठीक बात नहीं है।
किसान आंदोलन: कब-कब क्या-क्या हुआ?
5 जून, 2020 को मोदी सरकार तीन कृषि बिल अध्यादेश के ज़रिए लेकर आई। इसी साल 14 सितंबर को केंद्र सरकार ने इन अध्यादेशों को संसद में पेश किया।
17 सितंबर, 2020 को ये तीनों कृषि बिल लोकसभा से पारित हुए। तीन दिन बाद 20 सितंबर को विपक्ष के भारी विरोध के बाद राज्यसभा में भी ये पारित हो गए।
27 सितंबर तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इस पर मुहर लगाकर इसे क़ानून की शक्ल दे दी।
इस बीच किसानों का विरोध शुरू हुआ। नवंबर के आखिरी सप्ताह में किसान संगठनों ने दिल्ली चलो का नारा दिया और दिल्ली की सीमाओं पर जुटने लगे। प्रशासन के साथ उनकी टक्कर हुई और उन्होंने सीमा के पास ही अपने डेरा डाल दिया।
इसके बाद सरकार और किसान नेताओं के बीच बातचीत शुरू हुई जो कई दौर तक जारी रही। कृषि क़ानूनों में संशोधन के सरकार के प्रस्ताव को किसानों ने खारिज कर दिया।
दिबंबर 2020 में ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा जिसने जनवरी 2021 में तीनों कृषि कानूनों को स्थगित कर दिया।
लेकिन मामला थमा नहीं। पंजाब विधानसभा में इसके ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित हुआ, वहीं केंद्र इसे लेकर विपक्षी दलों की बैठक हुई।
किसानों ने एक बार फिर विरोध प्रदर्शन के लिए कमर कसी, इसे लेकर हरियाणा और उत्तर प्रदेश में किसान संगठनों की बैठकें शुरू हुईं। इस बीच उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में विरोध प्रदर्शन के दौरान कुल आठ लोगों की मौत गाड़ी से कुचले जाने से हो गई।
19 नवंबर 2021 को मोदी ने तीनों कृषि क़ानून वापिस लेने का ऐलान कर दिया। उन्होंने कहा, ‘महीने के अंत में शुरू होने जा रहे संसद सत्र में इन तीनों कृषि क़ानूनों को रद्द करने की संवैधानिक प्रक्रिया को पूरा किया जाएगा।’
2 दिसंबर को क़ानून मंत्रालय ने कृषि क़ानून निरस्तीकरण क़ानून, 2021 को अधिसूचित किया जिसके बाद किसानों ने अपना विरोध प्रदर्शन वापस लिया और वापस लौटने लगे। इसके बाद 9 फऱवरी 2022 को सरकार ने तीनों कृषि क़ानूनों को वापस ले लिया।
13 फरवरी 2024 को किसानों ने दिल्ली कूच का एलान किया। शंभू बॉर्डर पर किसानों को प्रशासन ने बैरिकेटिंग लगाकर रोक रखा है।(bbc.com/hindi)
तेज़ी से बदलती दुनिया, लगातार आगे बढ़ती टेक्नोलॉजी और रोज़मर्रा के जीवन में आते जा रहे बदलाव।
हमारा दिमाग़ इन सब कामों के लिए नहीं बना था, जो आज हम करते हैं। फिर भी हम इस आधुनिक दुनिया में अच्छे से ढल गए हैं और लगातार आ रहे बदलावों के हिसाब से ख़ुद को बदलते भी जा रहे हैं।
ये सब संभव हो पाया है हमारे ब्रेन यानी मस्तिष्क के कारण। एक ऐसा अंग जिसमें ख़ुद को ढालने, सिखाने और विकसित करने की ज़बरदस्त क्षमता है।
सवाल उठता है कि हम इस कमाल के अंग को कैसे स्वस्थ रख सकते हैं? क्या कोई ऐसा तरीक़ा है जिससे हम मस्तिष्क की क्षमता को बढ़ाकर इसे तेज़-तर्रार बना सकते हैं?
बीबीसी की विज्ञान पत्रकार मेलिसा होगेनबूम ने इन्हीं सवालों का जवाब तलाशने के लिए नए शोधों का अध्ययन किया और कुछ विशेषज्ञों से बात की।
इंग्लैंड की सरे यूनिवर्सिटी में क्लीनिकल साइकोलॉजी के प्रोफ़ेसर थॉरस्ट्रीन बार्नहोफऱ ने मेलिसा को बताया कि हम अपने दिमाग़ की क्षमताओं को कई तरीक़े से बढ़ा सकते हैं।
वह बताते हैं, ‘कुछ ऐसी प्रक्रियाएं हैं, जो कुछ ही हफ़्तों में तनाव को कम करती हैं और न्यूरोप्लास्टिसिटी को बढ़ावा देती हैं। न्यूरोप्लास्टिसिटी बढऩे से डिमेंशिया जैसी बीमारियों को टाला जा सकता है और यहां तक कि मनोवैज्ञानिक सदमे से मस्तिष्क को पहुंचे नुक़सान को कम किया जा सकता है।’
न्यूरोप्लास्टिसिटी क्या होती है?
प्लास्टिसिटी हमारे दिमाग़ की उस क्षमता को कहा जाता है, जिसमें वह बाहर से आने वाली सूचनाओं के आधार पर ख़ुद में बदलाव लाता है।
लखनऊ में मनोवैज्ञानिक राजेश पांडे ने बीबीसी हिंदी के लिए आदर्श राठौर को बताया कि न्यूरोप्लास्टिसिटी वास्तव में हमारे दिमाग़ में मौजूद न्यूरॉन, जिन्हें नर्व सेल भी कहा जाता है, उनमें बनने और बदलने वाले कनेक्शन को कहा जाता है।
वह कहते हैं, ‘हमारा मस्तिष्क एक न्यूरल वायरिंग सिस्टम है। दिमाग़ में अरबों न्यूरॉन होते हैं। हमारे सेंसरी ऑर्गन (इंद्रियां) जैसे आंख, कान, नाक, मुंह और त्वचा बाहरी सूचनाओं को दिमाग़ तक ले जाते हैं। ये सूचनाएं न्यूरॉन के बीच कनेक्शन बनने से स्टोर होती हैं।’
‘जब हम पैदा होते हैं तो इन न्यूरॉन में बहुत कम कनेक्शन होते हैं। रिफ़्लेक्स वाले कनेक्शन पहले से होते हैं, जैसे कोई बच्चा गर्म चीज़ के संपर्क में आने पर हाथ पीछे कर लेगा। लेकिन सांप को वह मुंह में डाल लेगा क्योंकि उसके दिमाग़ में ऐसे कनेक्शन नहीं बने हैं कि सांप खतरनाक हो सकता है। फिर वह सीखता चला जाता है और न्यूरल कनेक्शन बनते चलते हैं।’
राजेश पांडे बताते हैं कि नए अनुभवों पर ये कनेक्शन बदलते भी हैं। इसी पूरी प्रक्रिया को न्यूरोप्लास्टिसिटी कहा जाता है। इंसान के सीखने, अनुभव बनाने और यादों को संजोने के पीछे यही प्रक्रिया होती है।
कैसे बढ़ाई जा सकती है न्यूरोप्लास्टिसिटी
प्रोफ़ेसर थॉर्स्टन बार्नहोफऱ का कहना है कि माइंड वान्डरिंग यानी मन के भटकने से स्ट्रेस बढ़ता है।
वह बताते हैं कि बार-बार एक ही चीज़ के बारे में सोचकर चिंता करना हानिकारक होता है क्योंकि इससे कॉर्टिसोल हार्मोन का स्तर बढ़ जाता है।
यह हार्मोन दिमाग़ के लिए हानिकारक होता है और न्यूरोप्लास्टिसिटी के लिए बाधा पैदा करता है। इससे बचने का तरीक़ा है- माइंडफ़ुलनेस यानी सचेत रहना।
माइंडफ़ुलनेस का सीधा मतलब है- अपने आसपास के माहौल, अपने विचारों और अपने सेंसरी अंगों (आंख, कान, नाक, मुंह, त्वचा) को लेकर सचेत रहना। यानी बिना ज़्यादा मनन किए इस पर ध्यान देना कि उस समय आप क्या महसूस कर रहे हैं।
मनोवैज्ञानिक राजेश पांडे बताते हैं, ‘आसान भाषा में समझें तो माइंडफ़ुलनेस का मतलब है- इस बारे में सचेत होना कि हमारे सेंसरी ऑर्गन के ज़रिये बाहर से क्या जानकारियां दिमाग़ में जा रही हैं और अंदर मौजूद जानकारियों का कैसे इस्तेमाल हो रहा है।’
मेडिटेशन का उदाहरण देते हुए वह कहते हैं, ‘आसान भाषा में कहें तो यह अपने सेंसरी ऑर्गन पर फ़ोकस करने की प्रक्रिया है। अपनी सांस पर ध्यान देना या यह महूसस करना कि मौसम गर्म है या ठंडा, क्या मैं ठीक से सुन पा रहा हूं, क्या आसपास कोई सुगंध है।’
‘इससे भी न्यूरल कनेक्शन बनते हैं। आप देखेंगे कि अगर कोई इंसान दिन में 15 मिनट ही इन सेंसरी अंगों पर ध्यान केंद्रित करे तो उसका चलना-फिरना, बोलना, हंसना, मुस्कुराना, सब बदल जाएगा।’
हाल ही में पता चला है कि न्यूरोप्लास्टिसिटी की प्रक्रिया के दौरान दिमाग़ की संरचना में भी बदलाव आता है।
इसकी परख के लिए मेलिसा होगेनबूम ने एक बार अपने ब्रेन का स्कैन करवाने के बाद छह हफ़्तों तक मेडिटेशन किया और फिर से स्कैन करवाया।
प्रोफ़ेसर बार्नहोफऱ ने पिछले और नए स्कैन में तुलना करने के बाद बताया कि छह हफ़्तों में मेलिसा के मस्तिष्क में न्यूरोप्लास्टिसिटी बढ़ गई थी।
उन्होंने कहा, ‘ब्रेन के राइट अमिगडला का आकार कम हुआ है। ऐसा स्ट्रेस में कमी आने से होता है। जिन लोगों में एंग्ज़ाइटी और तनाव होता है, उनमें यह बढ़ा होता है। हमने पहले भी देखा है कि माइंडफुलेस ट्रेनिंग से इसका आकार कम हुआ। साथ ही दिमाग़ के पिछले हिस्से में भी बदलाव आया है। इसका मतलब है कि दिमाग़ में भटकाव में कमी आई है।’
कसरत भी है मददगार
विशेषज्ञ कहते हैं कि दिमाग़ में न्यूरोप्लास्टिसिटी बढ़ाने के लिए कसरत का भी अहम योगदान हो सकता है। इटली के ‘सेंट्रो न्यूरोलेसी’ संस्थान के निदेशक प्रोफ़ेसर एंजले क्वॉट्रोने के मुताबिक़, अगर दिन में 30 मिनट एक्सराइज़ की जाए और एक सप्ताह में चार से पांच दिन किया जाए तो दिमाग़ पर इसका अच्छा असर पड़ता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ ससेक्स में कंपेरेटिव कॉग्निशन की प्रोफ़ेसर गिलियन फ़ॉरेस्टर ने बताया कि मस्तिष्क में होने वाली गतिविधियों और बदलावों का शारीरिक हरकतों से गहरा संबंध है।
वह बताती हैं, ‘हमने देखा है कि अगर किसी को बोलने में दिक्कत है तो उसे हाथों से इशारे करते हुए बोलते समय सुविधा हो सकती है। दरअसल, हमारे दिमाग़ का जो हिस्सा बोलने में मदद करता है, वह मोटर डेक्स्टेरिटी यानी हाथों, पैरों या बांहों की मदद से काम करने में मदद करने वाले हिस्से से जुड़ा हुआ है। शायद ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भाषा का विकास इशारों से हुआ है।’
स्कूल ऑफ साइकोलॉजी, बर्कबैक, यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन में डॉक्टर ओरी ऑसमी बताते हैं कि मेडिटेशन के अलावा शारीरिक कसरत से भी स्ट्रेस कम होता है।
वह कहते हैं, ‘हमारा दिमाग़ हर समय खुद में बदलाव ला रहा होता है। लेकिन बच्चों में यह प्रक्रिया तेजी से हो रही होती है। यह देखा गया है कि जो शिशु हाथ-पैर सामान्य स्तर पर हिलाते हैं, वे बाद में अच्छे से बोल सकते हैं। लेकिन जो ऐसा नहीं करते, उनमें से कुछ को बाद में बोलने या सामाजिक व्यवहार में दिक्कत हो सकती है।’
मनोवैज्ञानिक राजेश पांडे बताते हैं कि व्यायाम ही नहीं, म्यूजिक या भाषा सीखने जैसा कोई भी नया काम करने से न्यूरोप्लास्टिसिटी को बढ़ाया जा सकता है क्योंकि जब हम कुछ नया देखते, सीखते या सोचते हैं तो दिमाग में नए न्यूरल कनेक्शन बनते हैं।
वह कहते हैं, ‘इंसान का दिमाग़ आजीवन न्यूरल कनेक्शन बना सकता है। आप 80 साल की उम्र में भी नई भाषा सीख सकते हैं। नई जगह जाने, एक रूटीन तोडऩे और कुछ भी नया करने से बहुत फ़ायदा होता है। बस हमें उसे नए अनुभव देते रहना है।’
दिमाग को पहुंचे नुकसान का इलाज
इटली के ‘सेंट्रो न्यूरोलेसी’ संस्थान में न्यूरोलॉजिकल समस्याओं से जूझ रहे मरीजों का आधुनिक तकनीक की मदद से इस्तेमाल किया जाता है।
इस संस्थान के निदेशक प्रोफ़ेसर एंजले क्वॉट्रोने बताते हैं कि जो लोग चल-फिर नहीं पाते, उनके लिए विशेष गेम बनाए गए हैं। इससे उनके दिमाग़ को संकेत मिलते रहते हैं। इससे प्लास्टिसिटी बढ़ती है और दिमाग फिर से वो कनेक्शन बना पाता है, जो किसी हादसे या स्ट्रोक के कारण टूट गए होते हैं। इसे रीवायरिंग कहा जाता है।
इस काम में रोबॉटिक्स और करंट स्टिमुलेशन की मदद भी ली जाती है। करंट स्टिमुलेटर ऐसा उपकरण है, जो दिमाग में कमजोर हो चुके सिग्नल को बढ़ा देता है। इससे दिमाग को रीवायर करने में मदद मिलती है।
सीखने की प्रक्रिया भविष्य में होगी आसान
अभी तक यही माना जाता था कि न्यूरोप्लास्टिसिटी बच्चों में अधिक होती है। लेकिन अब दुनिया भर में वयस्कों में भी इसे दिमाग़ को एक्टिव रखने और उसे पहुंचे नुकसान को कम करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैम्ब्रिज में एक्सपेरिमेंटल साइकोलॉजी की प्रोफ़ेसर ज़ोई कोर्तज़ी कहती हैं कि हर व्यक्ति के मस्तिष्क का सीखने का भी अपना रिदम (लय) होता है।
उन्होंने बीबीसी की विज्ञान पत्रकार मेलिसा होगेनबूम से कहा, ‘हर व्यक्ति का दिमाग़ अपनी लय में काम करता है। अगर उस व्यक्ति को उसके दिमाग के रिदम से सूचनाएं दी जाएं तो वह तेज़ी से सीख सकता है।’
यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज में किए गए प्रयोग में लोगों को कुछ सवाल सुलझाने को दिए गए। फिर उनके दिमाग की इलेक्ट्रल एक्टिविटी को मापा गया। इससे अंदाजा लगा कि उनका दिमाग किस रिदम में काम कर रहा है। फिर उस रिदम के हिसाब से सवाल दिए गए तो वे बेहतर ढंग से उन्हें सुलझा पाए।
यह शोध अभी शुरुआती चरण में हैं और उम्मीद जताई जा रही है कि भविष्य में लोगों को उनके दिमाग के रिदम के हिसाब से बेहतर ढंग से सिखाया जा सकेगा, उनकी न्यूरोप्लास्टिसिटी बढ़ाई जा सकेगी। (bbc.com/hindi)
ई.प्रभात किशोर
भारतवर्ष में जाति आधारित जनगणना के लिए जनमानस की आवाज देश के विभिन्न कोनों में जोर पकड़ रही है।
जातीय जनगणना के अभाव में, सरकार समाज के पिछड़े और वंचित वर्गों के लिए अपनी समग्र विकासात्मक नीतियों और योजनाओं को तैयार करने हेतु 90 साल पुराने आंकड़ों पर निर्भर है। जाति और सामाजिक न्याय एक दूसरे के पूरक हैं और जातीय जनगणना सरकार को ‘जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ के आदर्श संकल्प के साथ कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने में सहायक सिद्ध होगी।
समाज के कमजोर वर्गों का समावेशी विकास किसी भी कल्याणकारी सरकार का संवैधानिक दायित्व और प्रतिबद्धता है। इसलिए, सामाजिक समानता के लिए जाति जनगणना महत्वपूर्ण है। समाज के एक छोटे से वर्ग का तर्क है कि इससे देश में विभिन्न समुदायों के बीच सामाजिक तनाव विकसित हो सकता है। मु_ी भर जातिवादी ताकतों का ऐसा काल्पनिक तर्क सामाजिक न्याय के साथ राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के मार्ग में बाधा उत्पन्न कर रहा है। यदि धर्म आधारित और भाषा आधारित जनगणना समाज में विभाजन और वैमनस्य पैदा नहीं करती तो उनके दावे के अनुसार जातीय जनगणना समाज में मतभेद कैसे पैदा कर सकती है? वस्तुत: स्वतंत्रता प्राप्ति के पष्चात की जाने वाली विभिन्न जनगणनाओं को जाति-रहित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि न केवल अनु. जाति और अनु. जनजाति की जातियां दर्ज की जा रही हैं, बल्कि धर्म आधारित जनगणना भी हो रही है। यह आमजन की समझ से परे है कि केंद्र अन्य पिछड़े वर्ग को समाहित कर पूरी तरह से जाति आधारित जनगणना करने से क्यों हिचकिचा रहा है।
जाति जनगणना का संदर्भ ऋग्वेद और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी मिलता है। हालाँकि उस काल में जाति या वर्ग का वर्गीकरण इतना घिनौना नहीं था जितना आज देखा जा रहा है। भारत के महापंजीयक के द्वारा 1881 में ब्रिटिश शासन के तहत जातिवार गणना की शुरुआत की गई थी, जो 1931 तक अनवरत जारी रही। 1941 की जनगणना में भी, जाति-वार आंकड़े संग्रहित किए गए थे, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के कारण इस अभ्यास में कटौती की गई थी और अंतिम आंकड़े प्रकाशित नहीं किये जा सके। 1951 में, जनगणना की प्रक्रिया में व्यापक परिवर्तन किये गये और अनु. जाति एवं अनु. जनजाति को छोडक़र अन्य जातियों का दस्तावेजीकरण बंद कर दिया गया। इस प्रकार 1931 की जनगणना, जिसमें आज के पाकिस्तान और बांग्ला देशी भूभाग भी शामिल थे, भारत में अंतिम जाति-आधारित जनगणना बन गई।
काका कालेलकर की अध्यक्षता वाले पहले पिछड़ा वर्ग आयोग ने वर्ष 1955 में समर्पित अपने प्रतिवेदन में 1961 की जनगणना में जनसंख्या की जाति-वार गणना करने की अनुशंसा की थी। दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग, यानी मंडल आयोग ने भी इस बात पर प्रकाश डाला है कि उनकी रिपोर्ट 1931 की जनगणना के आंकड़ों पर आधारित होने के कारण पर्याप्त नहीं है। इसलिए अगली, यानी 2001 की जनगणना जाति आधारित होनी चाहिए। आयोग के पास पिछली आधी सदी में विभिन्न समुदायों और धार्मिक समूहों की जनसंख्या वृद्धि दर को एकसमान मानने के अलावा कोई रास्ता नहीं था, जबकि यह यथार्थ से कोसों दूर था। 1951 और 2011 के जनगणना रिकॉर्ड से पता चलता है कि हिंदुओं की आबादी 84.1 प्रतिशत से घटकर 79.30 प्रतिशत हो गई है, जबकि मुस्लिमों की जनसंख्या 9.8 प्रतिशत से बढक़र 14.23 प्रतिशत हो गई है। इसी प्रकार अनु. जाति और अनु. जनजाति की जनसंख्या क्रमश: 14 प्रतिशत से बढक़र 16.63 प्रतिशत और 6.23 प्रतिशत से बढक़र 8.61 प्रतिशत हो गई है। जाहिर है, सभी समुदायों की एकसमान दशकीय वृद्धि की धारणा एक तमाशा भर है।
दिसंबर 1996 में एच. डी. देवेगौड़ा मंत्रिमंडल ने 2001 की जनगणना में जाति-वार गणना का निर्णय लिया था।
परन्तु 2001 में वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने तथाकथित जाति-पक्षपात की दलील पर निर्णय को रद्द कर दिया। जून 2010 में, यूपीए सरकार ने भी संसद के दोनों सदनों में चर्चा के बाद जाति जनगणना के लिए अपनी प्रतिबद्धता प्रकट की थी। लेकिन 2011 की मूल दशकीय जनगणना पंजी में हीं तत्संबंधी कॉलम जोडऩे के बजाय, एक अलग सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) शुरू की गई, जिसकी अंतिम रिपोर्ट न तो पूर्ण हुई और न हीं सार्वजनिक की गई। 31 अगस्त 2018 को, 2021 की जनगणना कार्य की प्रगति की समीक्षा के बाद, तत्कालीन गृह मंत्री ने पहली बार अन्य पिछड़े वर्ग का आंकड़ा भी संग्रहित करने का वादा किया था, लेकिन केन्द्र सरकार ने 2021 में लोकसभा में इससे इन्कार करते हुए यू-टर्न ले लिया।
जाति-आधारित पूर्ण जनगणना की मांग संसद में हर बार उठती रही है। प्राय: सभी राजनीतिक और सामाजिक संस्थायें इसके पक्ष में हैं। बिहार विधानसभा द्वारा 17 फरवरी 2019 और फिर 27 फरवरी 2020 को जातीय जनगणना हेतु सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया था। 8 जनवरी 2021 को महाराष्ट्र विधानसभा में भी ऐसा प्रस्ताव पारित किया गया है। पिछले साल ओडिशा आग्रह करने वाला तीसरा राज्य बन गया था। हाल में तेलंगाना ने राज्य में जातीय जनगणना का निर्णय लिया है । 2021 में सामान्य जनगणना के साथ सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की गणना के लिए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने भी केन्द्र सरकार से आग्रह किया है। लेकिन, चूंकि केंद्र सरकार ने प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया है, इसलिए विभिन्न राज्य सरकारों को बिहार एवं कर्नाटक की तर्ज पर अपने स्वयं के संसाधनों पर जातीय जनगणना हेतु पहल करनी चाहिए।
कर्नाटक उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक राज्य सरकार को राज्य की कुल जनसंख्या में एक विशेष जाति का नवीनतम प्रतिशत प्रदान करने का निर्देश दिया था, जब भी सरकार किसी विशेष जाति को आरक्षण की सुविधा प्रदान करने की योजना बना रही हो। इसलिए, राज्य सरकार ने राज्य में विभिन्न जातियों की वर्तमान स्थिति जानने के लिए जाति जनगणना कराने का निर्णय लिया। महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग ने राज्य सरकार द्वारा सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना की अनुशंसा की है।
जातीय जनगणना समय की आवश्यकता है, क्योंकि समाज के प्रत्येक वर्ग की सटीक जनसंख्या के बारे में विश्वसनीय और प्रामाणिक आंकड़ों की अनुपलब्धता, उनके बसाव और घनत्व का भौगोलिक क्षेत्र केंद्रित और परिणाम- विशिष्ट योजना सुनिश्चित करने में एक बड़ी चुनौती पेश कर रहा है। नवीनतम आँकड़े नीति-निर्माण और अनुसंधान के लिए आवश्यक तत्व हैं, क्योंकि यह नीति-निर्माताओं को लक्ष्य निर्धारित करने तथा नीतियों और कार्यों के योजना सूत्रण में सहायक होते है। जाति-वार जनसंख्या के नए मूल्यांकन के साथ, विभिन्न राज्यों में विभिन्न जातियों के आर्थिक अभाव के स्तर को निर्धारित किया जा सकता है और यह उन सभी के समान प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण नीति को तैयार करने में सहायक होगा।
(लेखक एक अभियंता और शिक्षाविद हैं।)
पाकिस्तान में रावलपिंडी के कमिश्नर लियाकत अली चट्टा ने आम चुनाव में धांधली के आरोप लगाए हैं। उन्होंने कहा कि इस धांधली में मुख्य चुनाव आयुक्त और मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हैं। उनके आरोपों पर आयोग ने कहा है कि वह इनकी जल्द जांच कराएगा। उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है।
रावलपिंडी क्रिकेट स्टेडियम में मीडिया से बात करते हुए कमिश्रर ने कहा, ‘मैं शांति से मरना चाहता हूं, मैं उस तरह की जिंदगी नहीं जीना चाहता जो मेरे साथ हो रहा है। इस डिवीजन के 13 एमएनए जिन्हें 70-70 हजार वोट मिले थे, वे हार गए थे, उन्हें नकली मुहरें लगाकर हराया गया।’
उन्होंने कहा, ‘यह (सब) मुझे पसंद नहीं आया, इसलिए मैंने अपने पद से, अपनी नौकरी से, हर चीज़ से इस्तीफा दे दिया है।’
कमिश्नर ने कहा, ‘मैंने जो किया है वह इतना बड़ा अपराध है। मैं खुद को पुलिस के हवाले कर दूंगा। मुझे उसकी कड़ी सजा मिलनी चाहिए।’
पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने कहा है कि वह इन आरोपों की जल्द जांच कराएगा। लेकिन इस घटना ने पाकिस्तान के चुनावों की निष्पक्षता को लेकर उठी शंकाओं को एक बार फिर से रेखांकित कर दिया है।
पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) की प्रतिक्रिया
पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) की नेता मरियम औरंगजेब ने कार्यवाहक सरकार से रावलपिंडी के कमिश्नर लियाकत अली चट्टा का नाम एग्जिट कंट्रोल लिस्ट में डालने और उनकी जांच करने की मांग की है।
शनिवार को लाहौर में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान मरियम औरंगजेब ने कहा कि चुनाव कराना कमिश्नर की नहीं बल्कि रिटर्निंग ऑफिसर्स और डिप्टी रिटर्निंग ऑफिसर्स की जिम्मेदारी है।
उन्होंने कहा कि कमिश्नर न तो रेटिंग अधिकारी हैं और न ही डिप्टी रेटिंग अधिकारी हैं। मरियम औरंगजेब ने आगे कहा कि कोई भी उम्मीदवार 50 हजार वोटों की बढ़त से नहीं जीता है।
उनके अनुसार, आयुक्त के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं है जो उन्हें चुनाव परिणामों की तैयारी तक पहुंच प्रदान करे।
पीएमएल (एन) नेता ने कार्यवाहक सरकार से मांग की कि लियाकत अली चट्टा के पूरे रिकॉर्ड को कब्ज़े में लिया जाए और जांच की जाए कि वह किसके संपर्क में थे और उसकी दैनिक गतिविधियों की जांच की जाए।’
चीफ जस्टिस काजी फैज ईसा ने क्या कहा
पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश काजी फैज ईसा ने रावलपिंडी डिविजन के उपायुक्त लियाकत अली चट्टा द्वारा आम चुनावों में कथित धांधली से संबंधित आरोपों से इनकार किया है।
मुख्य न्यायाधीश क़ाज़ी फ़ैज़ ईसा ने शनिवार को सुप्रीम कोर्ट परिसर में मीडिया प्रतिनिधियों से बात करते हुए लियाकत अली चट्टा के आरोपों पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि ‘आप जो आरोप लगा रहे हैं वह बेबुनियाद है, इसमें कोई सच्चाई नहीं है। न ही आप कोई सबूत पेश करते हैं।’
इन आरोपों पर जवाब देते हुए चीफ़ जस्टिस क़ाज़ी फ़ैज़ ईसा ने कहा, ‘आप कोई भी आरोप लगा सकते हैं, कल मुझ पर चोरी या हत्या का आरोप लगा दीजिएगा।’
उन्होंने कहा कि आरोप लगाना लोगों का अधिकार है, लेकिन साथ ही सबूत भी देना होता है।
बता दें कि इस वक्त सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के चैंबर में कमिश्नर रावलपिंडी के आरोपों पर सलाह-मशविरा की बैठक चल रही है। इस बैठक में जस्टिस मुनीब अख्तर, जस्टिस याह्या अफरीदी, जस्टिस आयशा मलिक और जस्टिस अतहर मनुल्लाह मौजूद हैं।
इस बैठक में रावलपिंडी कमिश्नर के आरोपों की समीक्षा की जा रही है और इस बात पर विचार-विमर्श किया जा रहा है कि इस मुद्दे पर नोटिस लिया जाए या नहीं।
पीटीआई ने मुख्य चुनाव आयुक्त के इस्तीफे की मांग की
पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी ने रावलपिंडी के कमिश्नर लियाकत अली चट्टा के चुनाव में धांधली के आरोप पर मुख्य चुनाव आयुक्त सिकंदर सुल्तान राजा के इस्तीफे की मांग की है।
पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के प्रवक्ता ने शनिवार को एक बयान में कहा कि रावलपिंडी चुनाव में धांधली की जिम्मेदारी स्वीकार करने के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त के पास पद पर बने रहने का कोई संवैधानिक और नैतिक आधार नहीं बचा है।
पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के प्रवक्ता का कहना है कि रावलपिंडी के कमिश्नर के बयान ने उनकी पार्टी की स्थिति का समर्थन और पुष्टि की है कि चुनाव में जनादेश की 'चोरी' हुई है।
बता दें कि आम चुनाव में कथित धांधली के खिलाफ पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ आज देशभर में विरोध प्रदर्शन कर रही है।
जमीयत-ए-इस्लामी के नेता का मामला
पाकिस्तान के विवादास्पद चुनावों में जीतने वाले जमीयत-ए-इस्लामी के हाफिज नईम उर रहमान ने अपनी सीट छोडऩे का एलान इसी हफ्ते किया था।
उनका कहना था कि वोटिंग के दौरान उन्हें जिताने के लिए धांधली की गई थी।
जमीयत-ए-इस्लामी के नेता को प्रांतीय विधानसभा की सीट नंबर पीएस-129 से विजेता घोषित किया गया था। ये सीट कराची शहर में पड़ती है।
लेकिन इस हफ्ते उन्होंने दावा किया कि पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के समर्थन से चुनाव लड़ रहे उम्मीदवार ने उनसे कहीं ज़्यादा वोट हासिल किए थे लेकिन बाद में उस उम्मीदवार के कुल मतों की संख्या को कम कर दिया गया था।
इतना ही नहीं, हाफिज नईम उर रहमान ने इसके बाद सीट छोडऩे का एलान कर दिया। हाफिज़़ नईम उर रहमान ने सोमवार को अपनी पार्टी के एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, ‘अगर कोई हमें अवैध तरीके से जिताना चाहता है तो हम इसे स्वीकार नहीं करेंगे।’
उन्होंने कहा, ‘जनता की राय का सम्मान किया जाना चाहिए। विजेता को जीतने दिया जाए और पराजित उम्मीदवार को हारने दिया जाए। किसी को कुछ भी ज़्यादा नहीं मिलना चाहिए।’
हाफिज़़ नईम उर रहमान ने बताया कि उन्हें 26 हज़ार से अधिक वोट मिले थे जबकि स्वतंत्र उम्मीदवार सैफ़ बारी को 31 हज़ार वोट मिले थे। बाद में पीटीआई समर्थित उम्मीदवार सैफ़ बारी के हिस्से में 11 हज़ार वोट ही दिखाए गए।
पाकिस्तान के निर्वाचन आयोग ने हाफिज़़ नईम उर रहमान के लगाए आरोपों को खारिज किया है।
वोटों की धोखाधड़ी और दखलंदाज़ी के आरोप
इन चुनावों में बड़े पैमाने पर वोटों की धोखाधड़ी और दखलंदाज़ी के आरोप लगे हैं।
कहा जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के समर्थन से चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों की संभावना को नुकसान पहुंचाने के लिए ये गड़बडिय़ां की गई हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान पिछले साल के अगस्त महीने से ही जेल में हैं। उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ को चुनाव लडऩे से अयोग्य करार दे दिया गया था।
यहां तक कि पार्टी के चुनाव चिह्न बल्ले को भी जब्त कर लिया गया।
इसका सीधा मतलब ये था कि पीटीआई के उम्मीदवारों को स्वतंत्र प्रत्याशी की हैसियत से चुनाव लडऩा पड़ा।
स्वतंत्र उम्मीदवारों की जीत
लेकिन इन तमाम बाधाओं के बावजूद देश भर में मतदाताओं ने बड़े पैमाने पर चुनावों में हिस्सा लिया और इमरान ख़ान के समर्थन में मतदान किया।
265 सदस्यों वाली नेशनल असेंबली में पीटीआई समर्थित 93 स्वतंत्र उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की।
इसके साथ ही नेशनल असेंबली में इन स्वतंत्र उम्मीदवारों का गुट किसी अन्य पार्टी से कहीं आगे था।
हालांकि पीटीआई का कहना है कि उसके उम्मीदवारों ने अधिक सीटों पर जीत दर्ज की है और उनके चुनाव जीतने का अंतर भी कहीं अधिक है।
पाकिस्तान में बनेगी गठबंधन सरकार
पीटीआई की कामयाबी के बावजूद इमरान खान के विरोधी राजनेताओं नवाज़ शरीफ़ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) और बिलावल भुट्टो जऱदारी की पार्टी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने इस हफ़्ते की शुरुआत में बताया कि नई सरकार के गठन के लिए उनके बीच समझौता हो गया है। (बाकी
पिछले हफ़्ते हुए चुनावों में पीएमएल (एन) को 75 सीटें मिली हैं जबकि तीसरे स्थान पर रही पीपीपी के खाते में 54 सीटें आई हैं।
गठबंधन सरकार के गठन के लिए उन्होंने एमक्यूएम जैसी क्षेत्रीय और छोटी पार्टियों के साथ भी करार किया है।
इसके अलावा राजनीतिक दलों को महिलाओं और गैर मुसलमानों के लिए आरक्षित 70 सीटें भी मिलेंगी।
ये अतिरिक्त सीटें स्वतंत्र उम्मीदवारों को हासिल नहीं हैं।
पीएमएल (एन) और पीपीपी का गठबंधन
इस गणित का ये भी मतलब है कि सरकार गठन के लिए जरूरी 169 सीटें इस गठबंधन को आसानी से मिल जाएंगी।
साल 2022 में इमरान खान को सत्ता से बेदखल करने के लिए पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने हाथ मिलाया था।
नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ ने उस वक्त प्रधानमंत्री पद का दायित्व संभाला था।
इस बार भी उन्हें देश के नए नेता के तौर पर प्रोजेक्ट किया जा रहा है।
इमरान ख़ान को संसद में अविश्वास प्रस्ताव के जरिए प्रधानमंत्री के पद से हटाया गया था। उसके बाद उन पर कई आपराधिक आरोप लगाए गए थे।
चुनाव के ठीक पहले उन्हें कई आरोपों में 14 साल जेल की सज़ा सुनाई गई थी। उन्हें दी गई कई सजाओं पर एक साथ तामील होगी।
71 वर्षीय इमरान ख़ान का कहना है कि उन्हें झूठे मुक़दमों में फंसाया गया है और ये उनके खिलाफ की गई राजनीतिक साजि़शों के तहत हुआ है।
पाकिस्तान की केयर टेकर सरकार इमरान ख़ान के इन आरोपों को खारिज करती है। (bbc.com/hindi)
साल 2017 में तंत्रिका विज्ञानी और युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन की क्लायमेट एक्शन युनिट के निदेशक क्रिस डी मेयर ने वैज्ञानिकों, वित्त पेशेवरों और नीति निर्माताओं के साथ एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया था। उन्होंने इन क्षेत्रों से आए लोगों को समूह में बांटा – प्रत्येक समूह में छह व्यक्ति। फिर उन्हें जोखिम और अनिश्चितिता से सम्बंधित उनके व्यक्तिगत और व्यावसायिक अनुभवों के आधार पर कुछ प्रश्न और गतिविधियां करने को दीं। पाया गया कि लोग इस बात को लेकर आपस में एकमत और सहमत नहीं हो सके थे कि ‘जोखिम और अनिश्चितता’ क्या है। और तो और, इतने छोटे समूह में भी लोगों के परस्पर विरोधी और कट्टर मत थे।
इस नतीजे से डी मेयर को यह बात तुरंत समझ में आई कि क्यों जलवायु सम्मेलनों, समितियों वगैरह में सहभागी पेशेवर अक्सर एक-दूसरे की कही बातों को गलत समझते हैं। ऐसा इसलिए है कि बुनियादी शब्दों पर भी लोगों की अवधारणाएं या समझ बहुत भिन्न होती हैं। इसलिए कई बार हम किसी शब्द के माध्यम से जो कहना या समझाना चाहते हैं, ज़रूरी नहीं है कि सामने वाले को वही समझ आ रहा हो। जैसे शब्द ‘विकास’ के बारे में लोगों की समझ भिन्न हो सकती है, किसी के लिए विकास का मतलब अच्छी सडक़ें, जगमगाता शहर, बुलेट ट्रेन हो सकती है, वहीं किसी और के लिए लिए विकास का मतलब स्वच्छ पेयजल, अच्छी स्वास्थ्य सुविधा हो सकती है। और समझ में इसी भिन्नता के चलते जलवायु वैज्ञानिक अपने संदेश को अन्य लोगों तक पहुंचाने और उन्हें जागरूक करने में इतनी जद्दोजहद का सामना करते हैं, और बड़े वित्तीय संगठन प्राय: जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम आंकते हैं।
अध्ययन यह भी बताता है कि इस तरह के वैचारिक मतभेद या फर्क हर जगह सामने आते हैं, लेकिन आम तौर पर लोग इन विविधताओं से बेखबर होते हैं। तंत्रिका विज्ञान के अध्ययन दर्शाते हैं कि ये फर्क इस बात पर आधारित होते हैं कि किसी चीज़ या शब्द के बारे में हमारे विचार या अवधारणाएं किस प्रकार निर्मित हुई हैं, और हमारे ऊपर किस तरह के राजनीतिक, भावनात्मक और चरित्रगत असर हुए हैं। जीवन भर के अनुभवों, हमारे कामों या विश्वासों से बनी सोच को बदलना असंभव नहीं तो मुश्किल ज़रूर होता है।
लेकिन दो तरीके इसमें मदद कर सकते हैं: एक, लोगों को इस बारे में सचेत बनाना कि हमारे अर्थ और उनकी समझ में फर्क है; दूसरा, उन्हें नई भाषा चुनने के लिए प्रोत्साहित करना जो अवधारणात्मक बोझ से मुक्त हो।
‘अवधारणा’ शब्द को परिभाषित करना भी कठिन है। मोटे तौर पर अवधारणा का मतलब है किसी शब्द को सुनते, पढ़ते, या उपयोग करते समय हमारे मन में उभरने वाले उसके विभिन्न गुण, उदाहरण और सम्बंध और ये काफी अलग-अलग हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, ‘पक्षी’ की अवधारणा में शामिल हो सकते हैं कि पंख, उडऩा, घोंसले बनाना, गोरैया। ये शब्दकोश में दी गई परिभाषाओं से भिन्न होती हैं, जो अडिग और विशिष्ट होती हैं जिन्हें आम तौर पर सीखना होता है। (स्रोत फीचर्स)
रूचिर गर्ग
जिंदगियां बचाने के लिया अंग दान करने वालों का ओडिशा में राजकीय समान के साथ अंतिम संस्कार किया जाएगा।
अंग दान जिंदगियां बचाने के लिए तो बेहद जरूरी है ही लेकिन यह समाज में वैज्ञानिक नजरिए के प्रसार की दिशा में भी महत्वपूर्ण कदम होता है।
चिकित्सा के क्षेत्र में नए अनुसंधानों से लेकर चिकित्सा विद्यार्थियों की पढ़ाई तक के लिए मृत व्यक्ति का शरीर बड़ी जरूरत होती है।
दुर्भाग्य से रीति-रिवाजों की जकडऩ आमतौर पर परिवारों को ऐसा फैसला करने से रोकती है। फिर भी अब इस दिशा में जागरूकता बढ़ी है और ओडिशा सरकार का यह फैसला ऐसी जकडऩ के मुकाबले भी लोगों को अंगदान,शरीर दान के लिए निश्चित ही प्रोत्साहित करेगा।
अंगदान को प्रोत्साहित करने के लिए ओडिशा सरकार पहले भी महत्वपूर्ण कदम उठा चुकी है।
यह खबर आज ऐसे मौके पर आई है जब रायपुर के वरिष्ठ सीपीएम नेता और एलआईसी की कर्मचारी यूनियन के राष्ट्रीय नेता बिश्वनाथ सान्याल जी के नौजवान बेटे विप्लव सान्याल की देह आज ही रायपुर के डॉक्टर भीमराव अंबेडकर शासकीय मेडिकल कॉलेज को सौंपी जाएगी।
विप्लव मेरा बहुत करीबी बच्चा था। उसे अपनी आंखों के सामने बड़ा होता देखा है। लंदन में एक भारतीय कंपनी में नौकरी करते हुए पिछले दिनों उसकी अत्यंत दुर्भाग्यजनक मृत्यु हो गई थी।इस नौजवान की असमय मृत्यु ने झकझोर कर रख दिया। विप्लव जिसे प्यार से बाबू पुकारते थे बस थोड़ी देर में विमान से रायपुर पहुंचेगा और फिर चिकित्सा विज्ञान की राह रोशन करने में मददगार अंतिम सफर पर निकल पड़ेगा।
मैंने भी बहुत पहले ही तय किया है कि मृत्यु के बाद मुझे डॉक्टर अंबेडकर मेडिकल कॉलेज को सौंपा जाए।
मध्य प्रदेश खनिज निगम के पूर्व एमडी रहे मेरे श्वसुर स्मृति शेष विनय पाठक ने मृत्यु पूर्व ही यह इच्छा व्यक्त कर दी थी और परिवार ने उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए उनकी देह डॉक्टर अंबेडकर मेडिकल कॉलेज को सौंपा था। उनकी आंखें भी तभी किसी के काम आ गईं थीं।
हमारे संपादक सुनील कुमार जी के पिता की भी देह इसी मेडिकल कॉलेज को दान की गई थी।
देहदान, अंगदान जीवन के ऋण से भी उबरने का मौका है।
मानवता भी जिंदाबाद होगी।
प्रिय बाबू को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।
फैसल मोहम्मद अली
सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड को ‘अवैध’ बता दिया है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के बाद अब सवाल यह उठ रहा है कि राजनीतिक चंदे को लेकर भविष्य में कौन सी ऐसी व्यवस्था लागू हो जिसकी पारदर्शिता पर सवाल खड़े न हों?
सवाल ये भी है कि गुरुवार को देश की सबसे ऊंची अदालत के निर्णय के बाद राजनीतिक दलों की फंडिग आगे किस तरह से होगी और क्या बॉन्ड्स को असंवैधानिक मात्र कऱार देने से सबकुछ बिल्कुल ठीक हो जाएगा?
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की खंडपीठ ने केंद्र की मोदी सरकार के साल 2018 में लाए गए इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को ग़ैर-क़ानूनी कऱार दिया है क्योंकि इसके तहत चंदा देने वाले की पहचान गुप्त रखी जा सकती थी।
सरकार की स्कीम को अदालत में चैलेंज करने वालों का कहना था कि इसमें काला धन को सफ़ेद किए जाने से लेकर, किसी काम को किए जाने के समझौते के तहत बड़ी कंपनियों या व्यक्तियों से चंदा लिया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने इन दलीलों को सही माना और ये भी कहा कि चंदा देने वाले व्यक्ति या कंपनी का नाम न बताने का क़ानून सूचना के अधिकार का उल्लंघन है।
इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम के तहत स्टेट बैंक इंडिया साल भर में चार बार इलेक्टोरल बॉन्ड्स इश्यू करता था।
इसे कोई भी व्यक्ति/कंपनी बैंक से खऱीदकर किसी राजनीतिक दल को चंदे के तौर पर दे सकता था।
इस बॉन्ड को पंद्रह दिनों के भीतर कैश कराना होता था।
आम चुनावों के समय या साल में इस स्कीम को तीस दिनों के लिए फिर से लागू किया जा सकता था– यानी इसकी खऱीद-बिक्री हो सकती थी।
अदालत द्वारा इस स्कीम को असंवैधानिक कऱार देने के निर्णय के बाद अब आगे क्या होगा और भविष्य में राजनीतिक चंदों को लेकर कौन सी बेहतर व्यवस्था लागू हो जैसे प्रश्न सामने आ रहे हैं।
स्टेट फंडिग
चंदे और उसकी पारदर्शिता पर जानकार चुनाव के ख़र्च के लिए सरकार द्वारा सभी दलों को पैसे दिए जाने से लेकर, आयकर क़ानून में बदलाव और अधिक छूट, कॉरपोरेट फंडिग का ट्रस्ट (इलेक्टोरल ट्रस्ट) के ज़रिए बंटवारा और चुनाव ख़र्च की सीमा तय करने जैसे सुझाव दे रहे हैं।
हालांकि कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के डायरेक्टर और आरटीआई कार्यकर्ता वेंकटेश नायक कहते हैं कि सबसे पहले तो मुल्क में इसी बात को लेकर व्यापक बहस होनी चाहिए कि क्या कॉरपोरेट्स को राजनीतिक दलों को चंदा देने का अधिकार होना चाहिए?
वेंकटेश नायक इसके लिए ब्राज़ील का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि इस लातिन अमेरिकी देश के चुनावी क़ानून में राजनीतिक दल कॉरपोरेट्स से चंदा नहीं ले सकते हैं।
माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी सीताराम येचुरी ने बीबीसी से बातचीत में स्टेट फंडिग का समर्थन किया। उनके अनुसार पारदर्शिता और लेवल प्लेइंग फ़ील्ड (समान अवसर) भी होगी।
उनका कहना था कि ये स्कैंडेनिविया और जर्मनी जैसे मुल्कों में लागू है।
भूटान में भी राजनीतिक दलों का चुनावी ख़र्च स्टेट देता है।
हालांकि पंजीकृत दल के सदस्य एक सीमा तक अपनी ओर से धन पार्टी को दे सकते हैं।
चुनाव में पारदर्शिता लाने के मुहिम पर काम करने वाली संस्था एसोसियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म के जगदीप छोकर कहते हैं कि इसमें ज़रूरत होगी इस बात को जानने की पिछले चुनाव में किसी दल न कितना पैसा ख़र्च किया है, लेकिन क्या राजनीतिक दल अपने ख़र्च का सही लेखा-जोखा देने के लिए तैयार होंगे?
छोकर कहते हैं, ‘इसमें ये भी तय करना होगा कि राजनीतिक दल सरकार से ख़र्च लेने के बाद किसी दूसरी जगह या व्यक्ति से भी चंदा न लेता रहे।’
आयकर में अधिक छूट
सुप्रीम कोर्ट में इलेक्टोरल बॉन्ड्स के मामले पर याचिका दाख़िल करने वाले वकील शादां फऱासत कहते हैं कि राजनीतिक दलों कों चंदा देने पर कंपनियों को आयकर में जिस तरह की छूट मिलती है उसकी सीमा बढ़ाकर इसमें पारदर्शिता लाई जा सकती है।
आयकर क़ानून 1961 में किसी कंपनी को राजनीतिक दल को चंदा देने के बदले 80त्रत्रष्ट नियम के तहत छूट मिलती है।
हालांकि ये साफ़ किया गया है कि इसके लिए वही राजनीतिक दल योग्य हो सकते हैं जो पंजीकृत हों। इसके साथ ही चंदे में दी गई राशि चेक में होनी चाहिए।
इस नियम को लाने का मुख्य ध्येय ही था कि इससे राजनीतिक चंदा देने के मामले में पारदर्शिता आएगी और भ्रष्टाचार पर लगाम रहेगी।
सीताराम येचुरी कहते हैं कि कॉरपोरेट का चंदा देने का अर्थ ही रहा है कि इसके बदले में उन्हें कुछ चाहिए ,उसमें जो पारदर्शिता थी उसे ख़त्म कर दिया गया था।
ट्रस्ट के माध्यम से फंडिग
सूचना और भोजन के अधिकार के क्षेत्र में काम करने वाली अंजलि भारद्वाज का कहना है कि सीधे-सीधे 'क्विड प्रो क्यो' पर (कुछ पाने के एवज़ में कुछ देना) लगाम के लिए एक तरह का ट्रस्ट क़ायम हो सकता है जिसमें बहुत सारी कंपनियां या व्यक्ति धन दान करें और इसे राजनीतिक दलों में बांटा जाए।
ये व्यवस्था पहले भी काम करती रही है।
जानकार कहते हैं कि इसका फ़ायदा ये है कि इसमें ट्रस्ट को ये बताना होता है कि उसने किस दल को कितना चंदा दिया।
इलेक्टोरल बॉन्ड में चंदा देने वाले का नाम गुप्त होता था, जिससे लेन-देन का अधिक ख़तरा होता था बल्कि इस तरह से कोई भी व्यक्ति देश या विदेश से किसी राजनीतिक दल को चंदा दे सकता था और उसके बदले लाभ ले सकता था।
हिंदू बिजऩेसलाइन' की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ वित्तीय वर्ष 2022-23 में भारत की सबसे बड़ी इलेक्टोरल ट्रस्ट प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट ने अपने फंड का 71 प्रतिशत हिस्सा बीजेपी को दिया था।
अख़बार के मुताबिक़ बॉन्ड्स के बाज़ार में आ जाने के बावजूद ट्रस्ट में तेज़ी से बढ़ोतरी हो रही है।
पिछले दस सालों में इसमें 360 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है।
ट्रस्ट का आइडिया साल 2013 में यूपीए सरकार के समय आया था।
इसके तहत कंपनियां ट्रस्ट क़ायम कर सकती थीं और जिसमें कोई व्यक्ति या कंपनी दान दे सकती थीं।
सारे चंदे डिजिटल मोड में ही हों
अंजलि भारद्वाज कहती हैं कि जब सब्ज़ी और रिक्शेवालों तक को यूपीआई से पेमेंट किया जा रहा है तो राजनीतिक दलों को पैसा कैश में क्यों?
सूचना और भोजन अधिकार कार्यकर्ता
कमोडोर लोकेश बतरा जो इस क्षेत्र में सालों से काम कर रहे हैं कहते हैं कि रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया भी यही चाहती थी कि सारे पेमेंट्स चेक या ड्राफ्ट से हों।
लोकेश बतरा कहते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड्स के तहत ज़्यादातर चंदा देने वाले बेहद अमीर लोग थे या कंपनियां।
चुनाव ख़र्च की सीमा तय हो
अमेरिका में रह रहे बतरा ने बीबीसी से फ़ोन पर कहा कि चुनाव में पारदर्शिता लाने का एक तरीक़ा होगा राजनीतिक दल के ख़र्च की सीमा तय करना और उसका सख़्ती से पालन।
एडीआर के जगदीप छोकर का तो मानना है कि राजनीतिक दलों के दस पैसे का चंदा भी अगर मिलें तो उसको देने वाले का नाम बताया जाना चाहिए।
अभी के नियमों के तहत बीस हज़ार रुपये से कम चंदा देने वालों का नाम बताने की राजनीतिक दलों को ज़रूरत नहीं है, जिसका नतीजा ये होता है कि ख़ुद को गऱीब बताने वाले राजनीतिक दलों को पास हर साल 400-600 करोड़ रुपये का चंदा इक_ा होता है, मगर वो किसी चंदे की रक़म को बीस हज़ार तक भी नहीं दिखाते।
वेंकटेश नायक कहते हैं कि कुछ देशों में इस तरह की व्यवस्था है कि वहां कोई व्यक्ति कितना चंदा दे सकता है इसके लिए सीमा निर्धारित की गई है। भारत में भी वैसी ही सीमा निर्धारित की जानी चाहिए। (bbc.com/hindi)