विचार/लेख
हर हफ्ते काम कम, छुट्टी ज्यादा, लेकिन सैलरी पूरी मिलेगी. कई जानकार कहते हैं कि दफ्तरों में ऐसा नियम शुरू हो जाए, तो लोग ज्यादा प्रोडक्टिव हो जाएंगे. कई जर्मन कंपनियां 'फोर-डे वीक' का प्रयोग शुरू कर रही हैं.
डॉयचे वैले पर क्रिस्टी प्लैडसन | इंसा व्रेडे का लिखा-
जर्मनी भी कई और देशों की तरह कामगारों की कमी झेल रहा है। एक ओर जहां उद्योग-धंधों में काम करने के लिए लोगों की सख्त कमी है, वहीं दर्जनों कंपनियां अब कर्मचारियों के काम के घंटे और कम करने का एक प्रयोग शुरू कर रही हैं। इसमें कर्मचारी हफ्ते में पांच दिन की जगह चार दिन ही काम करेंगे। इसमें जर्मनी की 45 कंपनियां और संगठन शामिल हैं।
फरवरी से शुरू हो रहे इस प्रयोग में कर्मचारी करीब आधा साल ‘फोर-डे वीक’ काम करेंगे। इसके कारण वेतन में कोई कटौती नहीं होगी। यह अभियान ‘इंट्राप्रेनॉर’ नाम की एक कंसल्टिंग फर्म के नेतृत्व में हो रहा है और इसमें ‘फोर डे वीक ग्लोबल’ नाम का गैर-लाभकारी संगठन भी शामिल है।
समर्थकों का तर्क है कि हफ्ते में चार दिन काम करने पर कामगारों की उत्पादकता बढ़ेगी और इसके कारण देश में कुशल श्रमिकों की कमी घटाई जा सकेगी। मेहनत और योग्यता के मामले में जर्मनी की साख रही है। फिर भी हालिया सालों में यहां उत्पादकता घटी है।
उत्पादकता क्या है?
इसका सीधा सा मतलब यह नहीं है कि काम करने वाले आलसी हैं। आर्थिक उत्पादन को काम करने के घंटों के आधार पर बांटकर उत्पादकता मापी जाती है। पिछले कुछ साल से ऊर्जा की बढ़ती कीमतों के कारण कंपनियों और साथ-साथ देश का उत्पादन प्रभावित हुआ है। अगर कर्मचारियों के काम के कम घंटों के साथ कंपनियां अपना मौजूदा उत्पादन बरकरार रख पाती हैं, तो स्वाभाविक तौर पर इससे उत्पादकता का स्तर बढ़ेगा। लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा?
इस नई योजना के समर्थकों का तो ऐसा ही मानना है। वे कहते हैं कि हफ्ते में पांच की जगह चार दिन काम करने वाले कर्मचारियों का मनोबल बढ़ता है और वो ज्यादा उत्पादक साबित होते हैं। यह व्यवस्था शायद और भी लोगों को आकर्षित करे, ऐसे लोग जो हफ्ते में पांच दिन काम करने को राजी नहीं हैं। इस तरह श्रमिकों की कमी की समस्या दूर करने में मदद मिलेगी।
कम दिन काम करने से तनाव घटता है
इस सिद्धांत को जर्मनी से बाहर भी जांचा जा चुका है। 2019 से ही ‘फोर डे वीक ग्लोबल’ दुनियाभर में ऐसे अभियान चला रहा है। इनमें ब्रिटेन, दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, आयरलैंड और अमेरिका शामिल हैं। 500 से ज्यादा कंपनियां इस प्रयोग में हिस्सा ले चुकी हैं और शुरुआती नतीजे पक्ष में जाते दिखते हैं।
ब्रिटेन में ऐसा ही एक प्रयोग हुआ था, जिसमें करीब 3,000 लोग शामिल थे। इसकी समीक्षा कर केम्ब्रिज और बॉस्टन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने पाया कि लगभग 40 फीसदी प्रतिभागियों ने प्रयोग के दौरान कम तनाव में होने की बात कही। साथ ही, इस दौरान इस्तीफों में भी 57 फीसदी तक की कमी आई।
बीमारी की छुट्टी में 26 अरब यूरो का नुकसान
लोग बीमार पडऩे पर जो छुट्टी लेते हैं, उसमें भी दो-तिहाई तक की कमी आई। डीएके, जर्मनी की एक स्वास्थ्य बीमा कंपनी है। इसका हालिया डाटा बताता है कि पिछले साल जर्मनी में काम करने वालों ने औसतन 20 दिन बीमारी की छुट्टी ली। जर्मन एसोसिएशन ऑफ रिसर्च बेस्ड फार्मासूटिकल कंपनीज (वीएफए) के मुताबिक, इसके कारण आमदनी में करीब 2,600 करोड़ यूरो का नुकसान हुआ। यह सिर्फ पिछले साल का आंकड़ा है। जाहिर है, इससे आर्थिक उत्पादन पर भी असर पड़ा।
ब्रिटेन में हुए प्रयोग में शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि हिस्सा लेने वाली 61 कंपनियों में से 56 का औसत रेवेन्यू करीब 1।4 फीसदी बढ़ गया। ज्यादातर कंपनियों ने प्रयोग की अवधि पूरी होने के बाद भी फोर-डे वीक की व्यवस्था जारी रखने में दिलचस्पी दिखाई।
रचनात्मक काम पर असर पड़ सकता है
क्या यह व्यवस्था जर्मनी में भी काम करेगी? श्रम बाजार के विशेषज्ञ एन्सो वेबर बहुत आश्वस्त नहीं हैं। वह यूनिवर्सिटी ऑफ रेगेन्सबुर्ग और इंस्टीट्यूट फॉर एंप्लॉयमेंट रिसर्च में शोध करते हैं। उन्हें पहले हुए कुछ प्रयोगों के नतीजों में दिक्कत दिखती है। उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि केवल वही कंपनियां जिनका काम फोर-डे वीक के माकूल है, ऐसे प्रयोग के लिए आवेदन करेंगी। इसलिए इनके नतीजे पूरी अर्थव्यवस्था के संदर्भ में नहीं देखे जा सकते हैं।
वेबर सकारात्मक नतीजों को भी संशय से देखते हैं क्योंकि काम के घंटे कम करने के कारण काम में एकाग्रता बढ़ सकती है। छोटी शिफ्ट के कारण काम के सामाजिक और रचनात्मक पक्ष पर असर पड़ सकता है। इन पक्षों पर पडऩे वाला असर फौरन महसूस नहीं होगा, खासतौर पर तब जबकि प्रयोग केवल छह महीने ही चलने वाला हो।
कई उद्योग इस दायरे में नहीं आएंगे
कुछ अन्य जानकार उत्पादकता मापने की चुनौतियों की ओर ध्यान दिलाते हैं। काम के कम घंटे ऐसे व्यवस्थागत बदलावों की ओर ले जा सकते हैं, जिनका उत्पादकता पर ज्यादा असर होगा। होल्गर शेफर, कोलोन के जर्मन इकनॉमिक इंस्टीट्यूट में शोधकर्ता हैं। उनका कहना है कि काम के घंटों में 20 फीसदी कमी के बदले में 25 फीसदी उत्पादकता बढऩे की उम्मीद करना कोरी कल्पना है।
अर्थशास्त्री बैर्न्ड फित्सेनबैर्ग कहते हैं कि फोर-डे वीक के कारण कंपनियों की लागत बढ़ेगी। उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, ‘यह उन क्षेत्रों में चुनौतीपूर्ण होगा, जिनमें ग्राहकों या देखभाल के जरूरतमंद लोगों के लिए तयशुदा समय पर सेवाएं उपलब्ध करवानी होती हैं।’ फित्सेनबैर्ग यह भी कहते हैं कि नर्सिंग, सुरक्षा सेवाओं या परिवहन जैसे क्षेत्रों में फोर-डे वीक लागू करना ज्यादा मुश्किल होगा। वह जोड़ते हैं, ‘अगर हम यह नियम एक ही तरह से सभी क्षेत्रों में लागू करते हैं, तो इससे प्रतिद्वंद्विता को नुकसान पहुंचेगा।’
जवाबी दलीलों के बावजूद फोर-डे वीक लोगों को आकर्षित कर रहा है। यहां तक कि बड़ी स्थापित कंपनियां भी दिलचस्पी दिखा रहा है। जर्मनी की ट्रेड यूनियन आईजी मेटाल पिछले कुछ समय से काम के घंटे कम करने का समर्थन कर रही है। स्टील उद्योग में तो अभी ही हफ्ते में केवल 35 घंटे की शिफ्ट है।
(dw.com)
-शुमाइला जाफरी
लाहौर के मंसूरा में स्थित जमात-ए-इस्लामी के मुख्यालय की मस्जिद में एक ठंड और धुंध से भरे दोपहर में सैकड़ों लोग असर की नमाज़ के लिए जमा हुए हैं। इनमें जमात-ए-इस्लामी के सचिव अमीर-उल-अज़ीम भी शामिल हैं।
नमाज़ के बाद ये लोग कारों, मोटरसाइकिलों और रिक्शे पर सवार होकर एक जुलूस से रूप में पास के बाज़ार में चुनाव प्रचार करने चले गए।
जमात-ए-इस्लामी आठ फरवरी को होने वाला आम चुनाव लड़ रही है। उसने संसद और विधानसभाओं के लिए 774 उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं।
अमीर उल अज़ीम ने चुनाव प्रचार पर निकलने से पहले बीबीसी से कहा, ‘लोगों में हमारी पकड़ है, हम उनके अच्छे-बुरे में शामिल रहे हैं। महामारी, बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के दौरान लोगों ने हमारे कामकाज को देखा है। मुझे विश्वास है वो हमें वोट देंगे।’ वो कहते हैं, ‘हमारे दरवाज़े सभी के लिए खुले हैं। हम सांप्रदायिक पार्टी नहीं हैं, हम नहीं चाहते हैं कि इस्लाम शादी-ब्याह, अंतिम संस्कार और तलाक के मामलों तक ही सीमित रहे। हम चाहते हैं कि देश इस्लामिक राजनीतिक सिस्टम से चले। अगर हम सरकार में आए तो यही वो चीज़ें हैं जिन्हें हम बदलने वाले हैं।’
जमात-ए-इस्लामी की राजनीति
जमात-ए-इस्लामी की स्थापना 1941 में इस्लामिक विद्वान और धर्मशास्त्री सैयद अब्दुल आला मौदूदी ने की थी। स्थापना के बाद से ही जमात-ए-इस्लामी एक सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन रहा है।
वह पहली बार चुनाव नहीं लड़ रहा है। इससे पहले वह अलग-अलग राजनीतिक दलों से गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ चुका है। वह संघीय और प्रांतीय सरकारों में भी शामिल रहा है। लेकिन वो कभी भी बड़ा नहीं बना पाया, इसलिए इस बार वो अकेले ही चुनाव मैदान में है।
अमीर उल अज़ीम कहते हैं, ‘पहले जमात-ए-इस्लामी की अलग-अलग प्राथमिकताएं थीं, शुरू में हमने दावत-ए-इस्लामी पर ध्यान दिया, हमने साहित्य तैयार किया और इस्लाम के संदेश को मिस्र से लेकर अफ्रीका तक पहुंचाया। अगले चरण में हम निचले स्तर तक लोगों की सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।’
‘हमने जमात-ए-इस्लामी की परोपकारी शाखा के रूप में अल-खिदमत फाउंडेशन की स्थापना की। इस फील्ड में हमने इसे स्वच्छ विरासत के रूप में आकार दिया। अब हमारा ध्यान जमात-ए-इस्लामी को राजनीति की मुख्यधारा में लाने पर है, हो सकता है कि शुरुआत में हमें बहुत अधिक सफलता न मिले, लेकिन देर-सबेर हम इसे हासिल करके रहेंगे।’
बाज़ार में जमात-ए-इस्लामी का प्रतिनिधिमंडल अमीर उल अज़ीम के नेतृत्व में हर दुकान पर गया। उन्होंने दुकानदारों को अपने पर्चे सौंपकर जमात के उम्मीदवारों के लिए वोट करने की अपील की। इस दौरान कुछ लोगों ने उनके साथ सेल्फी ली और कुछ लोगों ने उनसे महंगाई की शिकायत की।
अपने पास जमा मतदाताओं और लोगों से अमीर उल अज़ीम कहते हैं कि हम देश से भ्रष्टाचार मिटाकर विशेषाधिकार और प्रोटोकॉल की संस्कृति को हतोत्साहित करेंगे। हम देश को वर्तमान आर्थिक संकट से बाहर निकालेंगे।
जमात-ए-इस्लामी की विचारधारा
जमात-ए-इस्लामी एक भारत विरोधी पार्टी है। वह अफगानिस्तान और कश्मीर में जिहाद में शामिल रही है। उसका मानना है कि कश्मीर और फलस्तीन जैसी समस्याओं का समाधान का एकमात्र यही तरीका है।
जमात-ए-इस्लामी ने गज़़ा के लोगों के समर्थन में कई रैलियां आयोजित कीं और उसने चुनाव के लिए रखे पैसे का एक बड़ा हिस्सा वहां भेजा।
हालांकि कई विश्लेषकों का मानना है कि जमात-ए-इस्लामी अपनी कट्टरवादी छवि को बदल कर उदार राजनीतिक ताकत के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहा है।
इसके बारे में सवाल पूछ जाने पर अमीर उल अज़ीम ने अपना नजरिया बताया।
वो कहते हैं, ‘लोगों को लगता था कि हम कट्टरपंथी हैं और अगर सत्ता में आए तो हाथ काट लेंगे। कुछ लोगों को लगता था कि हमें अमेरिका का समर्थन हासिल है और हम सेना की बी टीम हैं।’
उन्होंने कहा, ''लोगों ने मीडिया के ज़रिए हमारे बारे में यह धारणा बनवाई। लेकिन अब सोशल मीडिया ने हमें एक प्लेटफॉर्म दिया है, जहां हम अपने बारे में और अपने विचार लोगों को बता सकते हैं।’
किसने बनाया था टीएलपी और एमएमएल
लाहौर के मुल्तान रोड पर मंसूरा से कुछ दूरी पर मस्जिद रहमतुल-लिल-आलेमीन स्थित है। यह तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान के संस्थापक खादिम हुसैन रिज़वी की दरगाह है। यहां पर उनके शिष्यों का एक समूह जमा था। वे हाथ उठाकर नारे लगा रहे थे, ‘लब्बैक लब्बैक लब्बैक या रसूल अल्लाह।’ करीब 83 साल पुरानी जमात-ए-इस्लामी से अलग तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (टीएलपी) एक नई पार्टी है। इसकी स्थापना खादिम हुसैन रिज़वी ने 2015 में की थी।
राजनीतिक टिप्पणीकार सलमान गनी का मानना है कि टीएलपी स्वाभाविक तौर पर नहीं बनी थी। इसे 2015 में लाहौर में एक उपचुनाव से पहले एक दूसरी धार्मिक राजनीतिक पार्टी मिल्ली मुस्लिम लीग (एमएमएल) के साथ शुरू किया गया था।
मिल्ली मुस्लिम लीग हाफिज़ सईद की जमात-उद-दावा की राजनीतिक शाखा थी। सलमान कहते हैं, ‘इसका मकसद पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की पत्नी कुलसुम नवाज के वोटों का बंटवारा करना था। वो लाहौर उपचुनाव में उम्मीदवार थीं। टीएलपी और एमएमएल को 15-15 हज़ार वोट लाने का लक्ष्य दिया गया था। लेकिन वो ऐसा नहीं कर पाए। कुलसुम नवाज़ चुनाव जीत गईं। लेकिन इन दोनों दलों ने पहला चुनाव होने के बाद भी अच्छा प्रदर्शन किया।’
इन दोनों दलों को लांच किसने किया, इस सवाल पर गनी सीधे सेना का नाम नहीं लेते हैं। वो इशारे में ही कहते हैं कि जिन लोगों ने इस तरह की परियोजना शुरू की थी, वही इसके पीछे थे।
मिल्ली मुस्लिम लीग चुनाव आयोग में अपना रजिस्ट्रेशन नहीं करा पाई। हाफिज़ सईद समेत जेयूडी के कई नेता जेल में थे। एमएमएल कभी आगे नहीं बढ़ पाई और सीन से गायब हो गई।
वहीं दूसरी ओर टीएलपी सालों तक फलती-फूलती रही। यह पैगंबर मोहम्मद के सम्मान के मुद्दे पर समर्थन जुटाता है। इसने कई बार अपने धरना-प्रदर्शनों से सरकारों को घुटने टेकने पर मजबूर किया। पैगंबर मोहम्मद का कार्टून छापने पर फ्रांस के साथ संबंध तोडऩे की मांग उसकी विवादास्पद मांगों में रही है।
टीएलपी ने 2017 में तत्कालीन पीएमएल-एन सरकार में एक संघीय मंत्री को इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया था।
अपनी स्थापना के तीन साल बाद 2018 में टीएलपी ने अपना पहला आम चुनाव लड़ा था। उसे करीब 22 लाख वोट मिले थे। हालांकि इससे उसे कोई बड़ी चुनावी सफलता नहीं मिली। वो सिंध की असेंबली में केवल तीन सीटें जीत पाई। इस चुनाव में टीएलपी देश में पांचवीं सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। वहीं वोटों के मामले में वह पंजाब प्रांत में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी थी। यह बहुत से राजनीतिक पंडितों और चुनाव लडऩे वाले दलों के लिए सदमे की तरह था।
टीएलपी में युवाओं की भरमार
टीएलपी के मीडिया मैनेजर सद्दाम बुखारी कहते हैं कि इस बार के चुनाव में उनकी पार्टी पर्याप्त सीटें जीतेगी। वो कहते हैं, ‘पीएमएल-एन और पाकिस्तान तहरीके इंसाफ के वो नेता जिन्हें टिकट नहीं मिला है, वो हमारे संपर्क में हैं। उम्मीदवार तय करने में हमें महीनों लगे। हमने उनका इंटरव्यू लिया। हमने ऐसे अच्छे उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, जो न केवल हमारी पार्टी की विचारधारा को समझते हैं बल्कि उनमें जीतने की क्षमता भी हैं।’
टीएलपी ने नेशनल असेंबली की 223 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं। यह पीएमएल-एन और पीटीआई की संख्या से अधिक है। यह उन पार्टियों में भी सबसे आगे हैं, जिन्होंने 18-35 साल के लोगों को टिकट दिए हैं। टीएलपी ने इस आयु वर्ग के लोगों को 36 फीसदी टिकट दिए हैं।
नेशनल असेंबली के इसके उम्मीदवारों में से एक आबिद हुसैन ने बीबीसी से कहा है कि टीएलपी का प्रभाव पूरे देश में है।
वो कहते हैं, ‘हमारी पहुंच संघीय परिषद तक है। हम इमामों और उलेमाओं के संपर्क में हैं। हमें उनके समर्थन का आश्वासन मिला है। वे ज़मीनी स्तर पर हमारा अभियान चलाएंगे।’
अपने आंदोलनकारी अतीत के सवाल पर आबिद हुसैन कहते हैं, ‘लोग समझते हैं कि टीएलपी ने पैगंबर मोहम्मद के सम्मान के लिए सडक़ों पर धरना दिया है। हमारे विरोधी हमें चरमपंथी कहते हैं, लेकिन निष्पक्ष मतदाता यह समझते हैं कि हम देशहित में प्रदर्शन कर रहे हैं।’
मौलाना फज़लुर रहमान की जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम
मौलाना फज़लुर रहमान की जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम या जेयूआई-एफ का मामला थोड़ा अलग है। मौलाना उस गठबंधन में सबसे आगे थे जिसने इमरान खान की सरकार को गिराया था। वो इमरान खान के सत्ता से हटने के बाद सत्तारूढ़ हुए पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट गठबंधन का हिस्सा थे।
जेयूआई-एफ का प्रभाव खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान प्रांत में अधिक है। पंजाब में उनका चुनाव के बाद पीएमएल-एन से गठबंधन होने की संभावना है। मौलाना फज़लुर रहमान और उनकी पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती दाएश (आईएस) से सुरक्षा खतरा है।
पिछले साल जुलाई में बाजौर जि़ले में हुए एक धमाके में करीब 50 लोग मारे गए थे और 100 से अधिक लोग घायल हुए थे। यह धमाका उस जगह पर हुआ था, जहां जेयूआई-एफ की रैली हो रही थी।
जेयूआई-एफ के कई उम्मीदवारों और नेताओं को चुनाव से पहले निशाना बनाया गया। इसे देखते हुए मौलाना फज़लुर रहमान ने चुनाव स्थगित करने की मांग कर रहे थे, लेकिन इसको लेकर वो अन्य दलों का समर्थन नहीं जुटा पाए।
कार्यवाहक सरकार का हिस्सा होने की वजह से जेयूआई-एफ उसके प्रदर्शन की आलोचना नहीं कर सकता। इसलिए वह अपने रूढि़वादी वोटरों का समर्थन हासिल करने के लिए इसराइल-फलस्तीन युद्ध को मुद्दा बना रहा है।
खैबर पख्तूनख्वा के लक्की मारवार्ट इलाके में आयोजित एक रैली में मौलाना ने कहा, ‘अल्लाह ने हमें ताकत दी। कतर जाकर हमास के प्रतिनिधियों से बिना किसी झिझक के मिलने वाला मैं अकेला था। हमने दुनिया को बताया कि हम यहूदियों के खिलाफ मुसलमानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं। इसका हमें खेद नहीं है। क्या हमारे राजनीतिक विरोधियों में से किसी के पास मुसलमान भाइयों के साथ खड़ा होने का साहस है।’
छोटे-छोटे दलों की सियासत
इन तीनों प्रमुख दलों के अलावा अलग-अलग संप्रदायों में बंटे कई छोटे-बड़े धार्मिक समूह भी चुनाव लड़ रहे हैं। अपने वैचारिक मतभेदों के बाद भी वो शरिया के मुताबिक शिक्षा, न्याय और आर्थिक प्रणाली स्थापित करने के वादे पर वोट मांग रहे हैं।
सलमान गनी का मानना है कि इनमें से किसी के सत्ता में आने की संभावना बहुत कम है। उनका मानना है कि ये राजनीतिक दल मुख्यधारा के राजनीतिक दलों खासकर पीएमएल-एन का वोट काट सकते हैं। इनमें से किसी को भी सरकार बनाने के लिए ज़रूरी बहुमत मिलने की संभावना नहीं है।
वो कहते हैं, ‘पहले धार्मिक समूह राजनीतिक रूप से अधिक प्रासंगिक थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है। वे सरकार का हिस्सा तभी बन सकते हैं जब वे चुनाव के बाद किसी गठबंधन में शामिल हो जाएं। अन्यथा उनके पास कोई अवसर नहीं है।’
पाकिस्तान में जब लोगों के लिए धार्मिक पहचान इतनी महत्वपूर्ण है, तो लोग धार्मिक पार्टियों को वोट क्यों नहीं देते हैं?
इस सवाल पर सलमान गनी कहते हैं कि जब मतदान की बारी आती है तो लोग ऐसे उम्मीदवारों को चुनना चाहते हैं, जिसके बारे में उन्हें लगता है कि वह संसद पहुंच सकता है। जहां तक धार्मिक समूहों की बात है, लोग उनका सम्मान करते हैं, लेकिन जब यह धारणा बन जाती है कि वे जीत नहीं पाएंगे तो वे मुख्यधारा के अन्य दलों की ओर चले जाते हैं। (bbc.com/hindi)
-डॉ आर के पालीवाल
आर्थिक मामलों की गहरी जानकारी रखने वाले प्रबुद्धजन यह मानकर चल रहे थे कि यह बजट अंतरिम है इसलिए इसमें दूरगामी फैसले नहीं होंगे। हालांकि प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी को चौंकाने वाले निर्णय लेने के लिए जाना जाता है इसलिए कुछ लोग यह उम्मीद भी पाले थे कि लोकसभा चुनाव पूर्व के बजट में व्यक्तिगत आयकर छूट की सीमा या टैक्स की दर में परिर्वतन कर करदाताओं को खुश किया जा सकता है। हकीकत जबकि इसके एकदम विपरित है। कभी व्यापार से जुड़ा आयकरदाताओं का मध्यम वर्ग जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी का सबसे विश्वसनीय वोट कैडर हुआ करता था। इन दिनों भारतीय जनता पार्टी की नजऱ पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बड़े वोट बैंक पर सबसे ज्यादा टिकी है इसलिए अपने पुस्तैनी वोट बैंक की कोई पूछ नहीं है। हास्य के रुप में कह सकते हैं कि इस वर्ग की दशा मार्गदर्शक मंडल जैसी हो गई है। यही कारण है कि कॉरपोरेट सेक्टर की तुलना में अन्य वर्ग के आयकर दाताओं को विगत वर्षों में लाभ के बजाय नुकसान ही हुआ है। अधिकतम कॉरपोरेट टैक्स तीस से घटकर बाइस प्रतिशत हुआ है लेकिन व्यक्तिगत कर वही तीस प्रतिशत रहा है।
यह भी तय माना जा रहा था कि चुनावी साल के बजट में कम से कम आम जनता पर ज्यादा भार नहीं डाला जाएगा इसीलिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों की दरों को जस का तस रखा गया है। जहां तक सरकार के खजाने की स्थिति का प्रश्न है वह कोविड संकट से उबरने के बाद लगातार समृद्ध हो रहा है। जीएसटी अच्छी खासी गति से बढ़ रहा है और आयकर भी लगभग उसी तर्ज पर बढ़ रहा है। राजस्व संग्रह की मजबूत स्थिति से सरकार के पास धन की कोई कमी नहीं है। ऐसी स्थिति में कुछ राहत घोषणाएं की जा सकती थीं।
कुल मिलाकर अंतरिम बजट उदासीन बजट है। हालांकि सत्ता पक्ष हमेशा बजट की तारीफ में अतिश्योक्ति अलंकार का प्रयोग करता है और विपक्ष हमेशा मीन मेख निकालता है, लेकिन तटस्थ भाव से देखने पर यह बजट अति साधारण ही कहा जाएगा। न कुछ खास छीनने वाला और न कुछ खास देने वाला। अंतरिम बजट होने के बावजूद अपने दल के मंत्रियों और सांसदों से सदन में ताली बजवाने के लिए वित्तमंत्री ने पिछ्ले दस साल के अपने दल के शासन की तारीफों के खूब पुल बांधे थे, मसलन पिछ्ले दस साल से अर्थव्यवस्था में बहुत सुधार हुआ है और 2047 में विकसित भारत बन जाएगा आदि आदि।
वित्तमंत्री ने कर दाताओं को धन्यवाद जरूर दिया है क्योंकि वे ही चालू वित्त वर्ष में सरकार को खुले हाथ से खर्च करने के लिए 23 लाख करोड़ रुपया टैक्स के रुप में सौंपेंगे जो अगले वित्त वर्ष में लगभग दस प्रतिशत बढक़र छब्बीस लाख करोड़ रुपए से ज्यादा होने की संभावना है। टैक्स का यह आंकड़ा भले ही अमेरिका और चीन आदि की तुलना में काफी कम है लेकिन अस्सी करोड़ गरीब जनता को मुफ़्त राशन देने वाले अति गरीब देश के लिए आश्चर्चकित करने वाला है। इसके बावजूद भी हमारे देश में मध्यम वर्गीय आयकरदाताओं का कोई सम्मान नहीं है। वित्तमंत्री की इस बात में जरूर दम है कि टैक्स रिफंड देने में बहुत प्रगति हुई है और अब अधिकांश मामलों में एक सप्ताह में रिफंड मिल जाता है। इसके अलावा आयकरदाताओं के उस वर्ग को बजट प्रावधान से जरूर लाभ प्राप्त होगा जिनकी वर्ष 2009-10 से पहले की पच्चीस हजार रूपए तक की डिमांड लंबित हैं, या 2009-10 से 2014-15 के बीच की दस हजार रूपए तक की डिमांड लंबित हैं। ऐसी डिमांड माफ की गई हैं। यह प्रावधान केवल पुरानी और तय सीमा से कम राशि के लिए लागू होने से अधिकांश मतदाता इससे अप्रभावित रहेंगे। वित्तमंत्री के भाषण का साइज भी तुलनात्मक रूप से काफी कम रहा। कुछ राजनीतिक विश्लेषकों के इस मत में भी जान है कि श्री राम मय माहौल में सत्ताधारी दल को चुनाव जीतने के लिए बजट के सहारे की जरुरत ही नहीं है।
-शिल्पा शर्मा
आज से तरकऱीब 11 वर्ष पहले मुझे स्वतंत्रता दिवस पर एक आलेख तैयार करना था, जिसका विषय था- ‘‘प्रवासी भारतीय अपने देश को क्यों करते हैं इतना प्यार’’। पर इसमें एक पेंच भी था। उन्हें ‘मेरा जन्म यहां हुआ है, मातृभूमि से प्रेम है, मेरे माता-पिता और परिवार यहां रहता है’ जैसे कारणों से इतर कोई कारण बताना था।
मेरे अपने कई दोस्त, भाई-बहन विदेशों में रहते हैं और मेरे कई कलीग्स के भी। जब मैंने उनसे इस बाबत जानना चाहा तो सारे ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो गए, लेकिन जब मैंने उन्हें बताया कि इन कुछ कारणों को छोडक़र आपको कोई कारण बताना हैज् तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि उनमें से किसी के पास भी कोई एक ऐसा कारण नहीं था, जिसकी वजह से वे अपने देश को प्यार करते हों या यहां वापस लौट आना चाहते हों। ये सभी वे लोग थे, जो पढ़ाई या नौकरी के सिलसिले में भारत से बाहर गए थे। ये कुछ एक सालों के अंतराल पर या फिर हर वर्ष भी भारत लौटते तो हैं, लेकिन रहना विदेशों में ही चाहते हैं।
इस बात से मुझे कोई गुरेज़ भी नहीं और किसी को भी क्यों होना चाहिए? उन्होंने अपनी मेहनत से, अपने पैसे से विदेश का रुख़ किया है और वहां अपना अच्छा मुकाम हासिल किया है। विदेशी धरती पर उन्हें अच्छी रोज़ी-रोटी मिल रही है, उनके बच्चों को अच्छी तालीम मिल रही है, वे चार पैसे बचाकर अपने माता-पिता या रिश्तेदारों को भेज रहे हैं और अपने देश में निवेश भी कर रहे हैं। जब वे उच्चस्तरीय और सुकूनभरा जीवन जी रहे हैं तो भला वे वापस क्यों लौटें?
अब सीधे वर्तमान पर आ जाते हैं। चूंकि पहले के भारतीय नेताओं को अपनी छवि से बहुत प्यार नहीं था, बल्कि देश की छवि से प्रेम था, वे विदेशी धरती पर जाते और वहां मौजूद भारतीय नागरिकों से मिलते तो थे, लेकिन कभी इसे किसी इवेंट का रूप नहीं देते थे। पिछले 10 वर्षों में जो सरकार आई है उसने प्रधानमंत्री के विदेश दौरे को हर उस जगह एक इवेंट का रूप दिया, जहां कहीं वे सरकारी दौरे पर जाते। विदेशों में बसे भारतीय लोगों को बाकायदा आमंत्रित करके इन इवेंट्स में बुलाया जाने लगा। ज़ाहिर है, हर बरस भारत का दौरा करने वाले ये प्रवासी भारतीय भारत आकर, चाहें तब भी प्रधानमंत्री से नहीं मिल सकते (यहां पिछले वर्ष इंदौर में आयोजित प्रवासी भारतीय सम्मेलन में अव्यवस्था से नाराज़ इन विदेश में जा बसे लोगों को याद करना न भूलें), लेकिन यह मौक़ा उन्हें विदेश की धरती पर, जहां वे रह रहे हैं, आसानी से मिल जाए तो वे क्यों न ख़ुश हों?
यह दौर है भी इंटरनेट और सोशल मीडिया वाला, जिसमें किसी बड़े आदमी के साथ खींची गई सेल्फ़ी का भी अपना टशन है और उसे सब के साथ साझा करके ख़ुद के बड़े आदमी होने के ऐलान का भी। तो ये इवेंट सफल क्यों न होते? इन जगहों पर विदेश में रह रहे इन भारतीयों को यह जताने में बड़ा फ़ख्र महसूस होता है कि वे भारत से कितना प्यार करते हैं, तभी तो प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में दौड़े-दौड़े चले आए, भले ही अपनी धरती से इसलिए विदेश का रुख़ किया, ताकि अदद अच्छी नौकरी पाकर अपना और परिवार वालों का जीवन संवार सकें।
मौजूदा सरकार ने विदेश में बसे भारतीयों के बीच अपनी ऐसी छवि भी बनाई कि जैसे इससे पहले तो भारत कुछ था ही नहीं, केवल उनके आने मात्र से 10 बरसों में भारत की इतनी पूछ-परख बढ़ी है और देश में भी सब कुछ हरा ही हरा हो रहा है। इस हरियाली के दिखावे में इन प्रवासी भारतीयों के पास देश की सामाजिक समरसता में किए जा रहे छेद की ख़बरें पहुंची भी होंगी तो उन्होंने तवज्जो नहीं दिया, क्योंकि मनुष्य की स्वाभाविक आदत है कि वह तवज्जो उसी घटना को देता है, जब उसके साथ या उसके किसी अपने के साथ वह घटना घटी हो। लेकिन ये प्रवासी भारतीय ये भूल जाते हैं कि जिन देशों में ये रह रहे हैं, अपना जीवन सुखपूर्वक बिता रहे हैं, वहां इन्हें सामाजिक समरसता, सद्भावना और सहिष्णुता के चलते ही स्वीकार किया गया है। तब क्या इनका यह कर्तव्य नहीं हो जाता कि अपने देश में यदि सामाजिक सौहार्द बिगड़ रहा हो तो वे इसके विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद करें? पर इस मामले में वे उतने मुखर नजऱ नहीं आते, जितने कि अपने लिए देश में आयोजित प्रवासी सम्मेलन में अव्यवस्था पर कुपित दिखाई देते हैं। तो आखऱि इसे इनका दोहरा मापदंड क्यों न कहा जाए?
बात आर्थिक हालात की करें तो यह तो हो ही नहीं सकता कि विदेश में बसे भारतीयों को इस बात की ख़बर न हो कि भारत की अर्थव्यवस्था गिरती जा रही है। और कुछ हो न हो, इन्हें यह तो मालूम ही होगा कि डॉलर की तुलना में रुपया गिर रहा है। हालांकि यह भी इन प्रवासी भारतीयों के लिए कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, क्योंकि ये ख़ुद डॉलर या उस देश की करेंसी में वेतन पाते हैं, जहां ये रहते हैं। यदि रुपए का मूल्य गिर रहा है तो डॉलर का तुलनात्मक रूप से बढ़ रहा है यानी भारतीय मुद्रा, जो ये अपने परिजनों को भेजते हैं या जिसे ये बचाते हैं, वह भी बढ़ रही है तो भला इन्हें वर्तमान सरकार से कोई समस्या क्यों हो?
प्रवासी भारतीयों में से अधिकतर उन सरकारी विभागों और उपक्रमों में काम करने वाले माता-पिता की संतानें हैं, जिन्हें पुरानी सरकारों द्वारा निर्धारित पेंशन योजना के तहत पेंशन मिल रही है। अब चूंकि माता-पिता को पेंशन मिल रही है और उनके ख़ुद के अकाउंट में पैसों की बढ़ोतरी हो रही है तो वे धर्म के नाम पर बरगलाने वालों का साथ क्यों न दें? आखऱि अपनी मौजूदा संपत्ति को बचाने के नाम पर उनके धर्मभीरू होने में उन्हें कोई बुराई क्यों नजऱ आए? उनका इहलोक तो सुधरा ही हुआ है और सुधर ही रहा है तो परलोक सुधारने के नाम पर वे धर्म की जय बोलने से क्यों बाज़ आएं? आखऱि सही बात पर स्टैंड लेना हर एक के बस की बात तो नहीं होती!
बीच में आंकड़े आए कि वर्ष 2022 में देश से तकरीबन सात लाख स्टूडेंट पढ़ाई के लिए देश से बाहर गए। यदि देश में इतनी तरक्की हुई है और शिक्षा की इतनी ही अच्छी सुविधाएं हैं तो विद्यार्थियों को पढऩे के लिए बाहर क्यों जाना पड़ रहा है? इस सवाल से भी प्रवासी भारतीयों को कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि बहुत पहले उन्होंने भी यही क़दम उठाया था।
अंग्रेज़ी की एक कहावत है- यू कान्ट हैव केक ऐंड ईट इट टू, जिसे भारतीय कहावत आपके ‘दोनों हाथों में लड्डू’ नहीं हो सकता से रिलेट किया जा सकता है। लेकिन फि़लहाल तो प्रवासी भारतीयों के तो दोनों हाथों में लड्डू है और वे इसे खा भी रहे हैं। देश में तो मिलता ही था, विदेश की धरती पर भी अब उन्हें इवेंट कराके सम्मान मिल रहा है और रुपया गिर रहा है सो गिरता रहे, वे स्वयं व्यक्तिगत रूप से धनी ही हो रहे हैं। और उनके पास दुनिया को दिखाने के लिए अपने प्रधानमंत्री के साथ ली गई सेल्फ़ी तो है ही! फिर भला प्रवासी भारतीय मौजूदा सरकार का जयकारा क्यों न करें?
पर मेरा सवाल प्रवासी भारतीयों से फिर वही है- बताइए कि आप अपने देश को इतना प्यार क्यों करते हैं? ‘मेरा जन्म यहां हुआ है, मातृभूमि से प्रेम है, मेरे माता-पिता और परिवार यहां रहता है’ जैसे कारणों से इतर कोई कारण बताइए। और यह भी बताइए कि क्या आप भारत वापस लौट आना चाहते हैं? चलिए आपको यह छूट भी दे दी कि आप इसके साथ जुड़े हुए ‘लेकिन, यदि’ (if and but) के साथ भी अपने देश को प्यार करने का कारण बता सकते हैं। तो बताएं? आपके जवाब का इंतज़ार है। (oyeaflatoon.com/)
-दीपक मंडल
एक फरवरी को पेश किए गए मोदी सरकार के अंतरिम बजट में मालदीव को दी जाने वाली मदद में कटौती कर दी गई है।
साल 2023 के बजट में सरकार ने मालदीव के लिए 400 करोड़ रुपये आवंटित किए थे लेकिन बाद में ये मदद बढ़ाकर 770 करोड़ रुपये कर दी गई थी।
लेकिन इस साल पेश किए गए अंतरिम बजट में ये मदद घटा कर 600 करोड़ रुपये कर दी गई है। इसका मतलब ये कि भारत की ओर से मालदीव को जारी की जाने वाली विकास सहायता राशि को 22 फीसदी घटा दिया गया है।
भारत मालदीव में इन्फ्रास्ट्रक्चर और विकास परियोजना में मदद करता रहा है। लेकिन मौजूदा राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्ज़ू के सत्ता में आते ही मालदीव के भारत से रिश्ते बिगडऩे लगे।
माना जाता है कि राष्ट्रपति मुइज्ज़़ू की पार्टी का झुकाव चीन की ओर रहा है। राष्ट्रपति चुनाव अभियान के दौरान उनकी पार्टी ने ‘इंडिया आउट’ का नारा दिया था। इसके बाद पीएम मोदी के लक्षद्वीप जाने और फिर इसके बाद हुए विवाद से भारत और मालदीव के रिश्तों में आया तनाव औ गहरा गया। इसी तनाव के बीच मुइज्ज़़ू ने चीन का दौरा किया था। वहां से लौटने के बाद उन्होंने कहा था उनका देश छोटा है लेकिन इससे किसी को इस पर धौंस जमाने का अधिकार नहीं मिल जाता। उनका इशारा भारत की ओर था।
मालदीव में भारतीय सेना की मौजूदगी को लेकर दोनों देशों के बीच पहले ही विवाद चल रहा है। मुइज्ज़ू ने सत्ता संभालते ही अपना पहला आदेश भारतीय सैनिकों की वापसी का दिया था। उन्होंने कहा था कि 15 मार्च तक भारतीय सैनिकों को वापस भेज दिया जाएगा। मालदीव शुक्रवार को भारत के साथ इस मुद्दे पर बातचीत के लिए दूसरी कोर ग्रुप की बैठक करने वाला है।
इस समय 77 भारतीय सैनिक मालदीव में मौजूद हैं। यहां भारतीय सेना के दो हेलीकॉप्टर और एक विमान है, जिन्हें प्राकृतिक आपदा के दौरान लोगों की मदद पहुंचाने में कई बार इस्तेमाल किया गया है। लेकिन मालदीव की मुइज्ज़़ू सरकार इसे देश की संप्रभुता के लिए खतरा मानती है।
क्या है मामला?
मालदीव को मिलने वाले 600 करोड़ रुपये भारत की ओर से किसी देश को दी जाने वाली तीसरी सबसे बड़ी मदद है। भारत ने साल 2023-24 के लिए मालदीव के लिए 770 करोड़ आवंटित करने का फै़सला किया था।
ये 2022-23 के लिए की गई 183।16 करोड़ रुपये की मदद से 300 फीसदी ज्यादा है। लेकिन अंतरिम बजट में भारत ने मालदीव की मदद घटाकर श्रीलंका, मॉरीशस, सेशेल्स और अफ्रीकी देशों की मदद बढ़ा दी है।
इंडियन काउंसिल ऑफ वल्र्ड अफेयर्स में सीनियर रिसर्च फेलो डॉ. फ़ज़्ज़ुर रहमान सिद्दीकी कहते हैं, ‘मुइज्ज़़ू सरकार ने जिस तरह से भारत का विरोध किया है, उसने भारत को चौंकाया है। भारत को इतने कड़े तेवर की उम्मीद नहीं थी। मुइज़्ज़ू ने न सिर्फ भारत के खिलाफ कड़े कदम उठाए बल्कि राष्र्टपति बनने के बाद ही तुर्की और चीन की यात्रा कर उन्होंने भारत विरोधी भावनाओं को और भडक़ाया।’
‘मुइज्ज़़ू सिर्फ देश के अंदर अपने समर्थकों को खुश करने के लिए ऐसा कर रहे थे। लिहाज़ा भारत के लिए प्रतिक्रिया करना स्वाभाविक है। भारत ने मदद में कटौती कर इसका संकेत दे दिया है।’
मालदीव में भारत विरोधी भावनाओं का उभार किस कदर बढ़ा है वो इस साल की शुरुआत में उस वक्त दिखा जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत के छोटे से द्वीपसमूह लक्षद्वीप की तस्वीरें सोशल मीडिया पर शेयर की।
इसके बाद कुछ भारतीयों ने लक्षद्वीप की तस्वीरें शेयर कर पर्यटकों से मालदीव छोडक़र यहां की यात्रा करने की अपील की। लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में मालदीव के कुछ लोगों ने पीएम मोदी के खिलाफ कथित तौर पर दुर्भावनापूर्ण टिप्पणी की और लक्षद्वीप को घटिया जगह बताया। इसमें मालदीव सरकार के तीन जूनियर मंत्री भी शामिल थे। हालांकि उन्हें बाद में हटा दिया गया। लेकिन इस घटना से जाहिर हो गया है कि मुइज्ज़़ू की पार्टी के भारत विरोधी अभियान का वहां व्यापक असर है।
भारत विरोध का नुकसान क्या है?
मुइज्ज़़ू सरकार ने सत्ता संभालते ही भारत से वहां मौजूद भारतीय सैनिकों को वापस बुलाने के लिए कहा था। इसके बाद इस मुद्दे को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाने के लिए भारत और मालदीव के बीच कोर ग्रुप की एक बैठक हो चुकी है। दूसरी बैठक शुक्रवार को होने वाली है। कोर ग्रुप की बैठक के ज़रिये भारत क्या संदेश देना चाहता है?
नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में चीनी अध्ययन केंद्र में एसोसिएट प्रोफेसर अरविंद येलेरी कहते हैं, ‘भारत सरकार का रुख़ एकदम नहीं बदला है। भारत ये संकेत नहीं देना चाहता कि उसने मालदीव के साथ संबंधों को लेकर कोई विपरीत कदम उठाए। मोदी सरकार थोड़ा रुककर कदम उठाना चाहती है। इसलिए हो सकता है कि अंतरिम बजट में मालदीव की सहायता में कटौती की गई है लेकिन पूर्ण बजट में इसमें बढ़ोतरी हो सकती है। तब तक संबंधों में थोड़े सुधार हुए तो मदद बढ़ाई जा सकती है।’
लेकिन वो ये भी कहते हैं, ‘मालदीव के रुख को देखते हुए भारत की ओर से इस तरह के संकेत देना जरूरी है। भारत ये बताना चाहता है कि मालदीव भारत का विरोध भी करे और उससे आर्थिक मदद की भी उम्मीद रखे, ये नहीं चलेगा।’
‘इसलिए उसने श्रीलंका, सेशेल्स और मॉरीशस जैसे देशों की मदद बढ़ाई है। ये बताने के लिए मालदीव को भारत विरोध का नुक़सान झेलना ही होगा।’
क्या है भारत का मौजूदा रूख?
चीन दौरे से लौटने के बाद मुइज़्ज़ू का रवैया भारत पर नरम नहीं दिखा। उन्होंने कहा था कि छोटा देश होने की वजह से किसी देश को मालदीव पर धौंस जमाने का अधिकार नहीं है।
इस पर भारत के विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा था, ‘चीन भारत के पड़ोसियों को प्रभावित करेगा, लेकिन भारत को ऐसी प्रतिस्पर्धी राजनीति से डरना नहीं चाहिए। सब पड़ोसियों के बीच दिक़्क़तें आती हैं लेकिन आखिरकार पड़ोसियों को पड़ोसियों की ज़रूरत होती है।’
जयशंकर ने कहा था कि चीन के प्रभाव को लेकर प्रतिद्वंद्विता बढ़ी है लेकिन इसे भारतीय कूटनीति का फेल होना कहना ग़लत है।
जयशंकर ने कहा था, ‘हमें समझना होगा कि चीन भी हमारा पड़ोसी है और कई मायनों में प्रतिस्पर्धी राजनीति के रूप में इन देशों को प्रभावित करेगा। मुझे नहीं लगता कि हमें चीन से डरना चाहिए। मुझे लगता है कि हमें कहना चाहिए- ठीक है, वैश्विक राजनीति एक प्रतिस्पर्धी खेल है। आप अपनी सर्वश्रेष्ठ कोशिश करें, हम अपनी सर्वश्रेष्ठ कोशिश करेंगे।’
‘आज के समय में हमें प्रतिस्पर्धा से घबराना नहीं चाहिए। हमें इसका स्वागत करना चाहिए और कहना चाहिए कि हमारे पास प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता है।’
जयशंकर जहां अपने बयान में चीन की ओर निशाना साध रहे थे, वहीं चीन को लेकर ऐसी ही आक्रामकता मालदीव के अंदर भी सुनाई दे रही थी।
मालदीव में भारत के पक्ष में विपक्ष
मालदीव के विपक्षी दल जम्हूरी पार्टी के नेता गासिम इब्राहिम ने राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज़्ज़ू से अपील की है कि वो औपचारिक तौर पर भारत और पीएम मोदी से माफ़ी मांगें।
इब्राहिम ने द्विपक्षीय संबंधों को बेहतर करने के लिए राजनयिक सुलह करने के लिए भी मुइज़्ज़ू से अपील की है। इब्राहिम के बयान को मुइज़्ज़ू की उस प्रतिक्रिया से जोडक़र देखा जा रहा है, जिसमें उन्होंने भारत को निशाने पर लिया था।
पीएम मोदी से माफी मांगने की ये मांग तब उठी है, जब मोहम्मद मुइज़्ज़ू को देश की संसद में विरोध का सामना करना पड़ा है।
इब्राहिम ने कहा, ‘पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने इंडिया आउट अभियान की शुरुआत की थी, जिसके कारण भारत और मालदीव के बीच तनाव बढ़ा। पूर्व राष्ट्रपति इब्राहिम सोलिह ने भी इस अभियान का विरोध करने में देर की।’
चीन से लौटने के बाद मुइज़्ज़ू ने दवाओं के मामले में भारत पर निर्भरता कम करने की बात कही।
भारत मालदीव को दवाओं की सप्लाई करता रहा है। कोरोना महामारी के दौर में भारत ने मालदीव को वैक्सीन पहुंचाई थीं। (bbc.com/hindi)
द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
हमारी गाइड रिहब ने हमें चेताया कि पिरामिड का व्यास बहुत बड़ा है, यदि हमने उसकी परिक्रमा की तो एक घंटा लग जाएगा इसलिए हम उसे चारों तरफ जाकर न देखें। हम सब बस-स्टाप के सामने ही रहे। बहुत भीड़ थी। मिस्र के स्थानीय निवासियों के अतिरिक्त अन्य देशों के लोग भी उत्सुकता के साथ पिरामिड को निहार रहे थे, उसके ऊपर चढऩे की कोशिश कर रहे थे।
हम दोनों तलहटी में थे, एक सुमुखी बाला हमें देखकर मुस्कुराई और हमसे पूछा- ‘इंडिया?’
‘यस, इंडिया।’ माधुरी ने स्वीकारोक्ति की।
‘आई लव इंडिया। आय एम फातिमा...पेलेस्टाइन।’
‘यासर अराफात वाज़ अवर फ्ऱेंड, सो यू आर आल्सो अवर फ्रेंड।’ मैंने कहा। वह खुश हो गई। उसने हमसे कहा- ‘मे आई टेक योर फोटो ?’
‘श्योर।’ हम सबने एक-दूसरे के चित्र लिए।
भाषा की समस्या थी, अधिक बात न हो सकी लेकिन हम सब इस तरह मिलकर भावविभोर थे। करीना कपूर जैसी खूबसूरत लडक़ी के बगल में खड़े फोटो खिंचवाने का सुख केवल काले-कलूटों को ही समझ में आ सकता है। वैसे एक बात आपको ऐसी बता सकता हूँ कि हिन्दुस्तानी युवतियाँ जल-भुन जाएंगी, पक्का। अपने देश में तो उँगलियों में गिनने लायक करीना कपूर हैं, इजिप्त और आसपास के देशों की हर लडक़ी करीना कपूर है। फक्क-गोरा रंग, मदहोश करने वाली आँखें, आँखों में मोटा कजरा, गुलाब के फूल जैसे होंठ, और भी बहुत सी खूबियाँ लेकिन सबसे ऊपर उनका गुण है, अपरिचितों के संग भी मधुर-संभाषण। हमारे देश की लड़कियों से बात करो तो खूबसूरत हों न हों, ऐसा भाव खाती हैं कि मत पूछो !
अचानक एक युवक ने मेरी पीठ थपथपाई- ‘इंडिया ?’
‘यस, इंडिया।’ मैंने जवाब दिया, वह खुशी के मारे उछलने लगा-‘इंडिया... शारुख्खान, रितिक, अमिताभ ?’
‘यू सी इंडियन फिल्म ?’
‘यस, आई लव शारुख्खान।’ वह बहुत देर तक हम लोगों से भारतीय फिल्मों के बारे में बात करता रहा और हमें अपनी माँ और छोटी बहन से मिलवाने ले गया। वे स्थानीय निवासी थे, सत्तर किलोमीटर दूर से पिकनिक मनाने आए थे।
इजिप्त में हमारी फिल्में बहुत लोकप्रिय हैं, ये फिल्में हमारे देश की पहचान है। मुझे ऐसा लगा कि शाहरुख खान की लोकप्रियता वहाँ चरम पर है, मैंने कई युवतियों से बात की तो शाहरुख खान का जिक्र आते ही नाम सुनकर सम्मोहित हो जाती थी। कुछ लड़कियों ने तो झूमते हुए ‘शारुख्खान’ का नाम लिया और आसमान की ओर देखकर ‘फ्लाइंग किस’ भेजने लगी, एक बार नहीं, कई बार ! सच में।
(फोटो सोशल मीडिया से)
चैतन्य नागर
खान एकेडेमी अमेरिका से काम करती है। बहुत नाम कमाया है इसने। इसमें छोटे बच्चे भी दाखिला ले सकते हैं। कोचिंग संस्थानों पर शिक्षा मंत्रालय ने हाल में यह नियम लगाया गया है कि वह सोलह साल से कम उम्र के बच्चों को दाखिला न दे। क्या यह नियम खान एकेडेमी पर लागू होगा? कोटा में सक्रिय कोचिंग संस्थानों में निरीक्षण के लिए शिक्षा विभाग का इंस्पेक्टर टाइप कोई अधिकारी जायेगा। कुछ पैसे लेगा और इस बात को छिपा ले जायेगा कि वहां 16 साल के कम उम्र के बच्चे पढ़ते हैं। रिश्वत लेगा और यथास्थिति बनी रहेगी। जैसे बिना नक़्शे के मकान बनते हैं, बगैर पार्किंग की व्यवस्था के व्यापार चलते हैं, छोटे-छोटे बच्चे उद्योग धंधों में काम करते हैं, वैसे ही कोचिंग केंद्र एक नए किस्म के भ्रष्टाचार को जन्म देंगे। जो लोग ऑनलाइन कोचिंग चलाते हैं, उन पर किस तरह के नियम लागू होंगे? यह सोलह साल वाला नियम उन पर कैसे लागू किया जायेगा? ये तो बहुत थोड़े सवाल हैं जो कोचिंग संस्थानों पर लगी सीमित रोक के बारे में उठते हैं।
सबसे पहले सोचा जाए कि कोचिंग संस्थान खुलते क्यों हैं और वहां क्यों बच्चों को भेजा जाता है? सबसे अधिक इसके जिम्मेदार होते हैं माता-पिता और अभिभावक। देश के हर मध्यमवर्गीय माता-पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा डॉक्टर, इंजिनियर या आईएएस ही बने। उनकी अपनी अधूरी इच्छाएं पूरी हों, और बच्चों की सफलता की धूप में वे अपनी बूढी होती देह को सेंक सकें। इस महत्वाकांक्षा और ‘लोभ’ का फायदा उठा कर कोचिंग संस्थान पैदा हो जाते हैं। इन दिनों क्लैट (कॉमन लॉ एडमिशन टेस्ट) या कानून की पढ़ाई के लिए भी नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में प्रवेश को लेकर बड़ी तादाद में कोचिंग संस्थान खुल रहे हैं। आपको ताज्जुब होगा कि नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में दाखिले के लिए कहीं-कहीं हर रोज़ 1000 रूपये के हिसाब से कोचिंग संस्थान फीस लेते हैं। यानी एक साल की कोचिंग के लिए तीन लाख साठ हज़ार रूपये के आस पास! और इसके लिए भी आपा-धापी मची रहती है। कोचिंग सेंटर का धंधा बहुत फायदेमंद है। कई स्कूल हैं जो अपने खुद के कोचिंग सेंटर भी खोलते हैं। स्कूल के बाद वही शिक्षक उनकी कोचिंग में जाकर पढ़ाते हैं। जो शिक्षक स्कूल में गणित ठीक से नहीं पढ़ा पाया वह कोचिंग में जाते ही गणित बच्चों के दिमाग में घुसा देता है। कैसे? इसके पीछे होता है धन का प्रलोभन। गणित, फिजिक्स और जीवविज्ञान जैसे विषय मेडिकल और इंजीनियरिंग की प्रतियोगी परीक्षाओं में जरूरी होते हैं। इन विषयों के बारे में बच्चों के मन में शुरू से ही भय पैदा कर दिया जाता है, ताकि भविष्य में वे कोचिंग सेंटर में जाने की जरूरत को समझ सकें। इसमें शिक्षक और अभिभावकों की एक गोपनीय, अचेतन साजिश होती है। बच्चों को सेल्फ स्टडी या खुद से पढने की कला नहीं सिखाई जाती। स्कूलों में ठीक से नोट्स बनाना तक नहीं बताया जाता। दसवीं तक पहुँचते-पहुँचते बच्चे और उसके माता पिता को लगता है कि कोचिंग सेंटर की पनाह में जाना एकमात्र उपाय है। हर मोहल्ले में बच्चों और उनके माता पिता को निगलने के लिए दो-चार कोचिंग सेंटर तैयार खड़े रहते हैं। इस तरह कोचिंग एक आवश्यक बुराई की तरह हो गई है। हमारी अवास्तविक, बासी और अनुपयोगी शिक्षा प्रणाली की एक ऐसी नाजायज संतान है जिसे स्वीकारना भी मुश्किल है और अपनाना भी।
पिछले कुछ दशकों में शिक्षा प्रणाली में भारी बदलाव आया है। एक समय था जब सिर्फ उन छात्रों को ट्यूशन और कोचिंग की आवश्यकता होती थी जो अपनी पढ़ाई नहीं कर पाते थे। ऐसे बच्चों को ‘कमज़ोर’ समझा जाता था। यदि कोई बच्चा स्कूल के बाद ऐसी कक्षाओं में जाता था तो यह उसके लिए अपमान की बा त थी। पर आज चलन बदल गया है और मेधावी छात्र भी विभिन्न कोचिंग कक्षाओं के बीच इधर से उधर पढ़ते-भिड़ते, संघर्ष करते देखे जाते हैं। इसके अलावा, तथ्य यह भी है कि स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्रणाली छात्रों की कई आवश्यकताओं पर ध्यान देने में विफल रही है।
गौरतलब है कि हम सभी छात्रों से उच्च बौद्धिक लब्धि की उम्मीद नहीं कर सकते हैं, और यह नहीं कह सकते हैं कि वे अपने दम पर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर सकते हैं। माता-पिता अपने बच्चों को अपनी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर केवल स्कूली शिक्षा तक ही मदद कर सकते हैं। माता-पिता के लिए प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में अपने बच्चों की मदद करना काफी कठिन होता है। यह भी कारण है कि इन कोचिंग सेंटरों में शामिल होने की संस्कृति गति पकड़ रही है क्योंकि जब किसी छात्र को उसके अंतिम लक्ष्य तक मार्गदर्शन करने की बात आती है तो यह कोचिंग संस्थान कुछ हद तक सफल रहे हैं। कम से कम इन कोचिंग केन्द्रों के विराट विज्ञापन तो यही भरोसा दिलाते हैं। ये बच्चों को सेलेब्रिटी बना देते हैं और उनकी तस्वीरें सडक़ के बड़े चौराहों पर, अखबारों पर छापते हैं। बाकी बच्चे इससे प्रेरित होते हैं। उनके माता-पिता भी।
यदि हम तथ्यों और आँकड़ों के आधार पर चलें, तो हम उन अभ्यर्थियों के कितने उदाहरण सामने रख पाएंगे जो मेधावी हैं और जिन्होंने बिना कोचिंग के कठिन से कठिन परीक्षाएँ उत्तीर्ण की हैं? दूसरी तरफ हमें ऐसे कई औसत उम्मीदवारों के उदाहरण मिलेंगे जो इन कोचिंग सेंटरों की मदद से सफलता की ऊंचाइयों तक पहुंचे हैं। कोचिंग सेंटर इसलिए बने हैं और इसलिए सफल हैं क्योंकि उनकी भारी मांग है। यह भी सच है कि सभी स्कूल छात्रों को बोर्ड परीक्षाओं में उच्च अंक प्राप्त करने या कठिन प्रतियोगी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के लिए तैयार नहीं कर सकते हैं। इसलिए कोचिंग कक्षाओं पर पूर्ण प्रतिबंध एक उपयुक्त समाधान नहीं हो सकता है। इसके बजाय, उन्हें नियंत्रित और नियमित किया जाना चाहिए।
कोचिंग सेंटरों द्वारा ली जाने वाली अधिकतम फीस पर एक सीमा तय की जा सकती है। इस तरह हम उन छात्रों से अनावश्यक रूप से अधिक फीस वसूलने से रोक सकते हैं जिन्हें अतिरिक्त कोचिंग की आवश्यकता है। फीस के नियमितीकरण और ग्रेडिंग प्रणाली के कार्यान्वयन के अलावा, कोचिंग सेंटरों को छात्रों से कहा जाना चाहिए कि वे केवल अपने नोट्स के बजाय पाठ्य पुस्तकें पढऩे पर अधिक ध्यान केंद्रित करें। आम तौर पर, यह देखा जाता है कि कोचिंग कक्षाएं केवल बने बनाये नोट्स देने पर ध्यान केंद्रित करती हैं जिन्हें छात्र बुनियादी अवधारणाओं को समझे बिना आसानी से याद कर लेते हैं। उन्हें परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए न्यूनतम अंक प्राप्त करने के बजाय सीखने की प्रक्रिया पर अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए। ऐसा करने का सबसे अच्छा तरीका छात्रों को पाठ्य पुस्तकों से सब कुछ पढऩे और पाठ्य पुस्तकों की सामग्री के आधार पर नोट्स तैयार करने के महत्व का एहसास कराना है। साथ ही, शिक्षण के नवीन तरीकों से छात्रों को पाठ्य सामग्री को बेहतर तरीके से समझने में मदद मिलेगी। कोचिंग क्लास एक सप्ताह में छात्रों को कितने घंटे पढ़ा सकती है, इसकी भी सीमा होनी चाहिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि छात्रों पर पढ़ाई का बोझ न पड़े (क्योंकि उन्हें स्कूल, कॉलेज आदि भी जाना पड़ता है)। उन्हें पाठ्येतर गतिविधियों और मनोरंजन के लिए भी कुछ अतिरिक्त समय मिलना चाहिए।
नए नियम क्या इस बात की गारंटी देंगे कि हमारे शहरों में ढेर सारे कोचिंग सेंटर नहीं होंगे और सिर्फ वे ही अस्तित्व में रहेंगे जो सबसे अच्छे हैं। स्कूलों और कॉलेजों में छात्रों पर शायद ही व्यक्तिगत ध्यान दिया जाता है। छात्रों की संख्या बहुत अधिक होती है और कुछ धीमी गति से सीखने वाले लोग पिछड़ जाते हैं। इसके अलावा, शिक्षकों/व्याख्याताओं के कम वेतन के कारण कभी-कभी शिक्षण मानक भिन्न होते हैं। इसलिए, कोचिंग कक्षाएं ऐसे स्कूलों/कॉलेजों के छात्रों को अच्छी शिक्षा पाने और अधिक चीजें सीखने का एक और अवसर देती हैं। इन फायदों के बावजूद उन्हें बगैर किसी नियंत्रण के खुली छूट नहीं दी जानी चाहिए।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कई कोचिंग सेंटर ऐसे भी हैं जो मानक से नीचे हैं और छात्रों और अभिभावकों की भावनाओं और मेहनत की कमाई से खेलते हैं। यदि कोचिंग केन्द्रों को उपरोक्त दिशानिर्देशों के मानदंडों को तोडऩे का दोषी पाया जाता है, तो उन्हें सजा दी जानी चाहिए। कोचिंग सेंटर अवश्य ही इच्छुक छात्रों का मार्गदर्शन और समर्थन करके एक महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं, और यही छात्रों के लिए मायने जरूर रखता है। इसलिए, हमें उन पर पूर्ण प्रतिबंध के बारे में नहीं सोचना चाहिए। बल्कि हमारा दृष्टिकोण उचित दिशा-निर्देशों के साथ उनकी कमियों को दूर करने का होना चाहिए। शिक्षा की दुनिया में बहुत गहराई में कुछ है जो सड़ गया, सड़ता जा रहा है। हम वहां तक पहुँच नहीं पा रहे। टहनियां और पत्तियां काट-छांट रहे हैं। इससे कुछ नहीं होना। समस्या की जड़ तक जाना होगा। धैर्य, समझ, अनुभव और अंतर्दृष्टि के आधार पर। अधूरे समाधान दुगुनी समस्याओं को जन्म देंगे।
-विष्णु नागर
केरल की बात है। एक फ्लैट शहर की मुख्य जगह पर था, अच्छा था, सुविधाजनक था। उसके मालिक विदेश सेवा एक भूतपूर्व बड़े अधिकारी थे। वह इस फ्लैट को बेचना चाहते थे। एक खरीदार आए। उन्हें फ्लैट पसंद आया मगर एक बात पसंद नहीं आई कि उसमें कामवाली बाई के लिए अलग शौचालय नहीं है। बाद में वह फ्लैट भी बिक ही गया होगा। वह बहुमंजिला इमारत थी और उसके सभी फ्लैट भरे हुए थे। वहां से मुख्य बाजार भी आसपास था। भाजपा के एक बड़े नेता भी उसी बिल्डिंग में कहीं रहते थे।
मगर इस बात ने मुझे चौंकाया, खासकर केरल जैसे राजनीतिक- सामाजिक रूप से जागरूक राज्य में यह स्थिति है कि कामवाली बाई के लिए अलग शौचालय न हो तो फ्लैट कुछ लोगों के लिए काम का नहीं भी हो सकता है!
मगर पत्नी ने ध्यान दिलाया कि हमारे उत्तर भारत में मध्यवर्गीय समाज की हालत तो और भी बुरी है? यहां न केवल कामगारों के लिए अलग लिफ्ट है बल्कि घर में काम करने आने वाली स्त्री को अपने शौचालय में हगने- मूतने तक नहीं दिया जाता। उससे तो यह कहीं बेहतर स्थिति है। कम से कम वहां उनके लिए इन कामों के लिए अलग व्यवस्था की सोचा तो जाता है!
निश्चित रूप से इस अर्थ में केरल की स्थिति बेहतर है मगर फिर भी शोचनीय है और इससे पता चलता है कि हमारे समाज में एक किस्म की क्रूरता, भेदभाव का एक स्तर यह भी है।
जिन कामवाली बाइयों के बगैर मध्यवर्गीय एक कदम आगे नहीं बढ़ सकते,उनके प्रति इस तरह का व्यवहार समझ से बाहर है।बताइए उनके पेट से जो बाहर आता है, उससे तुम्हारे- हमारे पेट से जो बाहर प्रकट होता है,वह क्या उत्तम कोटि का होता है?उससे क्या सुगंध आती है,क्या छूत लग जाती है?हमारे घर में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है,हमें तो आजतक छूत नहीं लगी? हमारा शौचालय तो संक्रमित नहीं हुआ!और मेरा ख्याल है कि मेरे फेसबुक मित्रों के घर में भी ऐसा भेदभाव नहीं होता होगा।
इस समाज में आर्थिक- सामाजिक भेदभाव जितना गहरा होता जाएगा-और उसे गहरा होने दिया जा रहा है- ऐसे भेदभाव नीचता के और भी निचले स्तर तक गिरते जाएंगे।
- डॉ. आर.के. पालीवाल
इण्डिया के रायते में सबसे बड़े कंकड़ ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस थे। ममता बनर्जी का अहंकार, नितीश कुमार की पलटनी खाने की प्रवृति, अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षा और कांग्रेस का बिखरापन शुरु से ही आशा नहीं जगा रहे थे। सबसे पहले इसे सबसे बड़ा धक्का नीतीश कुमार ने ही लगाया है।
यह वही नीतीश कुमार हैं जिन्होने भारतीय जनता पार्टी की सरकार के खिलाफ सबसे बड़ा मोर्चा खोला था जब वे लालू प्रसाद यादव के सुपुत्र तेजस्वी यादव के साथ अलग अलग दलों के नेताओं से बात कर रहे थे। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि इस गठबंधन की दल उन्हें उसी तरह संयोजक चुन लेंगे जैसे कभी वे राजग के संयोजक रहे थे। इस मामले में निराशा हाथ लगने पर उन्होंने ऐसी पलटी मारी कि इंडिया गठबंधन को ही अलविदा कह दिया। आया राम गया राम के मुहावरे में नीतीश कुमार विचारधारा को ताक पर रखकर इसी तरह गठबंधन बदलने का रिकॉर्ड बना रहे हैं जैसे वे सर्वाधिक बार मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड बना रहे हैं।
1977 में जनता पार्टी को एकजुट करने में तीन मुख्य बातें थी, एक आपात काल का खौफ वर्तमान दौर से कहीं ज्यादा था, दूसरे जयप्रकाश नारायण ऐसे वरिष्ठ नेता थे जिनकी छवि त्यागी, सेवाभावी और स्वाधीनता आंदोलन के अग्रणी नेता की थी और तीसरे उन दिनों मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम जैसे राजनीति की भट्टी में तपे हुए कई नेता थे जिनके अपने सिद्धांत थे और अपनी विचारधारा थी। वर्तमान दौर में इंडिया गठबंधन में सीमेंट का काम करने वाले इन तीनों तत्वों का नितांत अभाव है इसीलिए आगे आगे इण्डिया गठबंधन का रायता और ज्यादा खट्टा होने की प्रबल संभावना है। नीतीश कुमार को बड़ा झटका तब लगा था जब ममता बनर्जी ने संयोजक के मल्लिकार्जुन खडग़े का नाम आगे बढ़ाया था, अरविन्द केजरीवाल ने भी ममता बनर्जी का समर्थन किया था।
ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल ने एक तीर से कई शिकार करने की कोशिश की है, सबसे ज्यादा यह कि संयोजक के रुप में राहुल गांधी स्वीकार्य नहीं है का स्पष्ट संकेत, दूसरे मलिकार्जुन खडगे को आगे कर दलित वोट बटोरने की कवायद और नीतीश कुमार को किनारे करने की जुगत।
मल्लिकार्जुन खडगे जानते हैं कि कांग्रेस ने उन्हें सीताराम केसरी की तरह अध्यक्ष तो बना दिया है लेकिन पार्टी की कमान सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के हाथ में ही रहेगी। इसीलिए उन्होंने यह कहकर टाल दिया कि पहले लोकसभा चुनाव में जीत सुनिश्चित कर लें तब प्रधानमन्त्री कौन हो यह निर्णय हो जाएगा।इण्डिया गठबंधन की अगले छह महीने के सफर में और भी बहुत सी बाधाएं हैं। करीब ढाई दर्जन छोटे बड़े दलों को साधना, कांग्रेस की भूमिका तय करना उनमें सबसे प्रमुख हैं। जम्मू कश्मीर में फारुख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती के बीच सीटों का समन्वय और उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में सीटों का तालमेल भी आसान नहीं है।
बिहार में कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के बीच सीटों का बंटवारा मुश्किल होगा और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच।ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को कोई रियायत नहीं देंगी इसके संकेत उन्होंने पहले ही दे दिए हैं।समाजवादी पार्टी और कांग्रेस में मध्य प्रदेश में विधान सभा चुनाव में भी काफी तनातनी हो चुकी है। इसका दुष्प्रभाव उत्तर प्रदेश में सीटों के बंटवारे को लेकर दिखना स्वाभाविक है। इससे कांग्रेस को ज्यादा नुकसान होना है। वह मध्य प्रदेश में पहले ही काफी पिछड़ गई है और उत्तर प्रदेश में तो उसकी स्थिती अत्यंत दयनीय है। राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद बढते धार्मिक ध्रुवीकरण का भी सबसे ज्यादा लाभ भाजपा और समाजवादी पार्टी को ही होगा। ऐसे में कांग्रेस के लिए वहां की जमीन और ज्यादा सिकुड़ेगी। कुल मिलाकर इंडिया गठबंधन का रायता समेटना टेढ़ी खीर लगता है।
-आलोक जोशी
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बहुत से अरमानों पर पानी फेर दिया। मध्यवर्ग को उम्मीद थी कि टैक्स में राहत मिलने वाली है, वो नहीं मिली।
उपभोक्ताओं को उम्मीद थी कि महंगाई से मुकाबले के लिए कुछ सीधा उपाय दिखेगा, वो नहीं दिखा।
शेयर बाज़ार को उम्मीद थी कि चुनाव के पहले कुछ चमत्कारिक एलान होंगे जिनसे बाज़ार में जान आ जाएगी, सीधे-सीधे वैसा भी कुछ नहीं दिखा।
भाजपा समर्थकों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को उम्मीद थी कि चुनाव के पहले सरकार कुछ ऐसा एलान करेगी जिसका ढोल पीटकर वो अपने राजनीतिक विरोधियों की बोलती बंद कर देंगे, वो भी नहीं हुआ।
आखिर ऐसा क्यों हुआ?
इस सवाल का जवाब आसान है और वित्तमंत्री ने दे भी दिया। उन्होंने कहा कि परंपरा है कि चुनाव के ठीक पहले के अंतरिम बजट में ऐसा कोई बड़ा फेरबदल या एलान नहीं किया जाता है, यह सिर्फ लेखा-जोखा रखने और अगली सरकार बनने तक के खर्च का इंतजाम करनेवाला बजट होता है।
उनके बजट को देखकर कोई यह इलजाम नहीं लगा सकता है कि चुनाव पर असर डालने के इरादे से यहां कुछ किया गया है।
वित्त मंत्री के बजट भाषण का राजनीतिक संदेश
भाषण भी लंबा नहीं था। जैसे ही खत्म हुआ बहुत से लोग चौंक गए। लेकिन इस बजट में कुछ ऐसा ज़रूर है जिसपर ध्यान दिया जाना चाहिए।
सबसे बड़ी बात यह है कि वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री को इस बात की कोई ज़रूरत महसूस नहीं हो रही है कि उन्हें अगला चुनाव जीतने के लिए इस बजट का इस्तेमाल करना है। हालांकि बजट एक आर्थिक दस्तावेज होता है, लेकिन परंपरा है कि सरकारें बजट का इस्तेमाल राजनीतिक संदेश देने के लिए करती रही हैं।
वित्तमंत्री ने बताया कि परंपरा से अंतरिम बजट में बड़े फैसले या बड़े एलान नहीं होते, लेकिन इसी सरकार के पिछले कार्यकाल में एकदम उल्टा हो चुका है।
अंतरिम वित्तमंत्री पीयूष गोयल ने 2019 में चुनाव के ठीक पहले अंतरिम बजट पेश किया था।
उन्होंने न सिर्फ टैक्स दरों में बदलाव किया था बल्कि 'प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना' का एलान भी किया था। यानी हर किसान के खाते में छह हज़ार रुपए डालने की योजना।
साफ है कि तब सरकार को चुनाव के लिए बजट की ज़रूरत दिख रही थी, आज नहीं दिख रही है। हालांकि आज के बजट में राजनीति की झलक नहीं दिख रही है। लेकिन राजनीति की नजऱ से यही इस बजट का सबसे बड़ा राजनीतिक बयान है कि सरकार अब अपनी जीत के प्रति आश्वस्त नजऱ आ रही है।
मध्य वर्ग की निराशा
मध्यवर्ग को सबसे बड़ी निराशा इस बात से है कि इनकम टैक्स के मोर्चे पर उन्हें कोई राहत नहीं मिली।
लेकिन याद रखना चाहिए कि वित्तमंत्री ने उनका और उनकी उम्मीद का जिक्र किया, यानी अभी चुनाव के बाद वाले बजट में कुछ होने की उम्मीद बनी रह सकती है।
मध्यवर्ग को राहत इस बात से भी मिलनी चाहिए कि अर्थशास्त्रियों की नजऱ में यह बजट महंगाई से मुकाबले की ज़मीन बना रहा है।
हो सकता है कि ग्रोथ के मोर्चे पर कुछ ढील दिखे लेकिन सरकारी खर्च और सरकारी घाटे पर जिस तरह से लगाम कसती दिख रही है वो बहुत कुछ कहता है।
इनकम टैक्स के दसियों साल पुराने मामलों में 25 हज़ार रुपए तक का बकाया माफ करने का एलान बड़ी संख्या में लोगों के लिए राहत ही नहीं लाएगा, इनकम टैक्स विभाग और उसके सिस्टम की सफाई में भी मददगार होगा। इसी तरह विदेश घूमने जाने वालों को राहत की खबर है कि सात लाख तक के खर्च पर अब पहले टैक्स नहीं भरना होगा।
किराए के घर में रह रहे लोगों का फायदा
शहरों में किराए के घरों में जिंदगी बिता रहे परिवारों के लिए राहत देने वाली स्कीम का सिर्फ नाम लिया गया है, लेकिन जब इस स्कीम का ब्योरा आएगा तो हो सकता है कि बजट में जिस राजनीतिक रेवड़ी का इंतजार हो रहा था, वो यहीं छिपी हो।
यह स्कीम चुनावी कार्ड भी साबित हो सकती है। इसी तरह मुफ्त बिजली के दौर में अपनी छत पर सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने वालों को तीन सौ यूनिट मुफ्त बिजली का एलान उस राजनीति की काट भी बन सकता है।
दो एलान ऐसे हैं जिनपर नजऱ रखनी चाहिए और जो लंबे दौर में भारत के लिए बड़े फायदे का कारण बन सकते हैं।
एक इन्नोवेशन के लिए कंपनियों को पचास साल का ब्याजमुक्त कर्ज देने के लिए एक लाख करोड़ रुपए देने का एलान और दूसरा राज्य सरकारों को पर्यटन सुविधाएं बढ़ाने के लिए ब्याजमुक्त कर्ज देने की योजना।
यह दोनों योजनाएं कुछ वैसी दूरंदेशी वाली योजनाएं हैं जैसा आज़ादी के बाद भारत में अंतरिक्ष और परमाणु अनुसंधान का काम शुरू करने का फैसला था। इनका असर दिखने में उतना तो नहीं मगर काफी वक्त लगेगा। लेकिन फिर यह बहुत लंबे समय तक फल देने वाला पेड़ रोपने जैसा काम है। (bbc.com/hindi)
द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
‘आज मैं आपको पश्चिम में फैले रेगिस्तान में बने प्राचीनतम पिरामिड को दिखाने ले जा रही हूँ जो सक्कारा में स्थित है।’ हमारी गाइड ने बताया।
सक्कारा नील नदी के पश्चिम में है जो मिस्र की राजधानी काहिरा से लगभग 20 किलोमीटर के दूरी पर है। यहां के पिरामिड का प्रवेश-द्वार चूना-पत्थर से बना हुआ, दस मीटर ऊंचा यह द्वार चिकना और अत्यंत आकर्षक है। अंदर हम घूम-घूम कर उसकी दीवारें देख रहे थे, मोबाइल से तस्वीरें ले रहे थे, तभी एक खूबसूरत लडक़ी हमारे सामने पड़ी। हम लोग एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराए। उसने हमसे पूछा- ‘आप कहाँ से आए हैं ?’
‘अरे, आप हिन्दी जानती हैं ? हम लोग भारत से आए हैं।’ मैंने उत्तर दिया और पूछा- ‘आप कहाँ से आई हैं ?’
‘हम आपके दुश्मन हैं, पाकिस्तान से हूँ।’ उसकी आवाज़ में थोड़ा तल्खी, थोड़ी मुस्कान और थोड़ी जिज्ञासा थी।
‘अरे, हम आपके दुश्मन कैसे हो गए ? दुश्मन हों हमारे दुश्मन।’ मैंने कहा। मेरी बात सुनकर वह खुश हो गई। उसने चेहरे में प्रसन्नता के अद्भुत भाव उभर गए। वह बोली- ‘सच में?’
‘हां, सच में। हमारी-तुम्हारी क्या दुश्मनी?’
‘आप सही कह रहे हैं, हम दोनों में कैसी दुश्मनी ?’
‘तुम्हारा नाम क्या है?’
‘मेरा नाम इसरा है, मेरे पापा आगरा के हैं और मम्मी सहारनपुर की।’
‘ऐसा क्या?’
‘हूँ।’ वह खुशी में झूम रही थी।
‘तुम्हारी शादी हो गई क्या?’
‘अभी नहीं, कुछ दिन और जी लूँ।’
‘अरे, क्या शादी के बाद जि़ंदगी नहीं होती?’
‘सुना है, जि़ंदगी होती है लेकिन जि़ंदादिली नहीं होती।’ वह बोली।
‘तुम्हारी फोटो ले लूँ ?’ मैंने पूछा।
‘श्योर।’ उसने मुस्कान फेंकी और मिस्र की यात्रा में पहली मिसरी के डली हमारे मुंह में घुल गई।
यह चित्र पाकिस्तानी युवती इसरा का है जो हमें मिस्र में मिली।
अपूर्व भारद्वाज
1 मार्च से Paytm पर डिपॉजिट, ट्रांजेक्शन, वॉलेट और FASTag बंद हो जाएंगे लेकिन एक बार भारत की सबसे बड़ी फिनटेक कम्पनी के चीन कनेक्शन के बारे में तो जान लीजिए ! चीनी कंपनी अलीबाबा की होल्डिंग वाली पेटीएम देश की सबसे बड़ी ई पेमेंट कंपनी है, कुछ भोले भाले लोग पेटीएम का मालिक विजय शेखर शर्मा को समझते है क्योंकि वही इस कंपनी के मुख्य प्रबंधक निदेशक भी हैं। लेकिन क्या आप जानते है कि उनके पास कंपनी की कितनी हिस्सेदारी है ?उनके पास कंपनी की मात्र 15.7 फीसदी हिस्सेदारी ही है। पेटीएम की मुख्य कंपनी का नाम है ह्रठ्ठद्ग 97 कम्युनिकेशन लिमिटेड. यह सिंगापुर की कम्पनी है। अब यही से सारा कन्फ्यूजन शुरू होता है क्योंकि अलीबाबा ने भी अपना निवेश चीन की अपनी मूल कंपनी के जरिए नहीं किया है. बल्कि उसने पेटीएम में निवेश अपनी एक सहयोगी कंपनी, जो सिंगापुर में रजिस्टर्ड है, उसके जरिए किया है। पेटीएम में निवेश करने वाली कंपनी का नाम है ‘अलीबाबा सिंगापुर होल्डिंग्स प्राइवेट लिमिटेड’ अलीबाबा ने 2015 में पेटीएम में 41 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने की घोषणा की थी। दरअसल तभी अलीबाबा के जैक मा भारत मे आये थे और मोदी जी से भी मिले थे पेटीएम का असली उभार नोटबंदी के बाद से ही शुरू हुआ था, पेटीएम जो चीन के अलीबाबा की फंडिंग हासिल कर चुकी थी मोदी जी नोटबंदी के दूसरे दिन उसके पोस्टर बॉय बने हुए थे। दरअसल पेटीएम के मॉडल को अलीबाबा कंपनी के पेमेंट गेटवे अलीपे की ही तरह ही डेवलप किया गया था, 2018 में पेटीएम ई-कॉमर्स में अलीबाबा सिंगापुर की हिस्सेदारी कम होकर 36.31त्न हो गयी मायासोशि सोन की सॉफ्टबैंक ने भी अपनी हिस्सेदारी प्रत्यक्ष तौर पर कंपनी में 20 प्रतिशत कर ली थी लेकिन चीन में भी दोनों कंपनियों की एक दूसरे में हिस्सेदारी है इसलिए यह मामला उलझा हुआ है, पेटीएम के बाकी के शेयर एसएपी वेंचर्स, सिलिकॉन वैली बैंक, पेटीएम की मैनेजमेंट टीम और अन्य इन्वेस्टर्स के पास हैं। एसएआईएफ पार्टनर्स इंडिया की हिस्सेदारी 4.66त्न है 2017 में अनिल अंबानी के पास जो एक प्रतिशत शेयर पेटीएम का था उसे भी अलीबाबा ने खरीद लिया था, एक बड़ा हिस्सा अलीबाबा की ऐंट फाइनेंशियल के पास भी है यानी अगर स्पष्ट रूप से देखा जाए तो 2020 में भी चीनी अलीबाबा ग्रुप और उसकी सहयोगी ऐंट फाइनेंशियल के पास वन97 कम्युनिकेशंस के सबसे ज्यादा शेयर है। केवल दिखावे के लिए एक भारतीय को कंपनी का मुख्य चेहरा बना रखा है। अलीबाबा की टीम ही पेटीएम के ऑपरेशन के रिस्क कंट्रोल कैपेसिटी को डेवलप करती है। और जानकार लोग बताते हैं कि रिस्क कंट्रोल कैपेसिटी ही किसी भी ऑनलाइन कंपनी की बैक बोन यानी रीढ़ की हड्डी होती है। क्कड्ड4ञ्जद्व कोई छोटी मोटी कंपनी नहीं है पिछले दिनों विजय शेखर शर्मा का एक साक्षात्कार प्रकाशित हुआ. इसमें उन्होंने दावा किया कि देश के ऑनलाइन भुगतान में अब भी पेटीएम की हिस्सेदारी 70 से 80 फीसदी हो गई है, रेलवे की टिकट बेचने की जिम्मेदारी के लिए सिर्फ पेटीएम के पेमेंट गेटवे को ही अधिकृत किया है रेलवे के टिकट बिक्री में रोज करोड़ों नहीं अरबों का ट्रासिक्शन होता है इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी चीनी होल्डिंग वाली क्क्रङ्घञ्जरू को क्यों दी गई सवाल तो खड़ा होता ही है ? कैसे चीनी कंपनियों से जुड़ी क्क्रङ्घञ्जरू देश की सबसे बड़ी फिनटेक कम्पनी बन गयी सवाल तो खड़ा होता है और सवाल तो ये भी खड़ा होता है कि यह सब जानते बुझते हुए आज सरकार क्क्रङ्घञ्जरू पर कैसे ओर किस प्रकार की कार्यवाही करेगी?
प्रियदर्शन
1. कविता लिखना कोई मुश्किल काम नहीं है। हर व्यक्ति के हिस्से कुछ स्मृतियां होती हैं, रिश्ते होते हैं, टूटने और जुडऩे के अनुभव होते हैं, किसी से धोखा खाने या किसी के समय पर काम आने की यादें होती हैं, कुछ सपने होते हैं। कविता इन्हीं के बीच तो बनती है।
2. बेशक, अनुभव का होना और उसे अभिव्यक्त करने का कौशल होना दो अलग-अलग बातें हैं। लेकिन अनुभव और अभिव्यक्ति के बीच एक अपरिहार्य रिश्ता भी है। अनुभव जहां अभिव्यक्ति को अधिकतम प्रामाणिक और विश्वसनीय भाषा अर्जित करने का यत्न करने को मजबूर करता है वहीं अभिव्यक्ति भी कई बार अनुभव की नई खिड़कियां खोलने की प्रेरणा देती है।
3. अनुभव की भी की परतें होती हैं। एक ही दृश्य से- समंदर या पहाड़ या सूर्योदय या सूर्यास्त या तारों जड़ी रात या कोहरे में डूबीं सुबह से- अलग-अलग लोगों के भीतर अलग-अलग अनुभव पैदा होते हैं। उस दृश्य या स्थिति से जुड़ाव हमारे भीतर जितनी तीव्रता पैदा करता है, हमारी अभिव्यक्ति उतनी ही गहन होती जाती है।
4. हम बहुत सारे लोग लगभग एक सी कविता लिखते हैं - प्रेम की स्मृति की, बीते हुए दुखों की, न आए सुखों की, प्रतीक्षा, उम्मीद और स्वप्न की- इसलिए कि हम सबके अनुभव और अभ्यास का लगभग एक प्रकार होता है- कई बार वह बिल्कुल प्राथमिक अनुभव होता है।
5. लेकिन यह बिल्कुल एक जैसी, लगातार दुहराई जा रही कविता एक जड़ क्लीशे में बदल जाती है। हमें पता रहता है कि हम क्या पढऩे जा रहे हैं, वह हमें स्पंदित नहीं करता।
6. किसी कवि की वास्तविक चुनौती यहीं से शुरू होती है - वह अपनी कविता को अलग कैसे करे। बल्कि यह काम भी इस तरह प्रयत्नपूर्वक नहीं किया जा सकता। इसके लिए अपने देखने, सुनने, महसूस करने का ढंग बदलना पड़ता है, दृश्य में छुपा जो अदृश्य है, शब्दों के बीच छुपा जो मौन है, सुनाई पडऩे के बीच पड़ा जो अनसुना है, सुंदरता के पीछे छुपी जो कुरूपता है, शालीनता के पीछे छुपी जो फूहड़ता है, उन सबको देखना-सुनना और महसूस करना होता है। कविता लिखने की कोशिश मजबूर करती है कि हम मनुष्य के रूप में भी बदलें, ज़्यादा संवेदनशील हों।
7. हालांकि इतने भर से काम नहीं चलता। बहुत लोग यह सब महसूस करने के बावजूद उसे लिख नहीं पाते। यहां अभिव्यक्ति की चुनौती सामने आती है। उसे साधना पड़ता है। इस काम में धैर्य भी चाहिए होता है, निर्मम ईमानदारी भी और अपने अनुभव से एक तरह की तटस्थ दूरी भी- ताकि उसे संपूर्णता में देखा-रचा जा सके।
8. किसी बड़े कवि की पंक्तियां हम क्यों उद्धृत करते हैं? इसलिए कि हमें लगता है कि हम जो अनुभव करते हैं, जो कहना चाहते हैं वह उसने बहुत सुंदर ढंग से कह दिया है। प्रेम, जीवन, संघर्ष या स्वप्न की जो कविता हम रचना चाहते हैं वह किसी और के शब्दों में हमारे पास है।
9. लेकिन कई बार यह भी होता है कि कोई कवि हमें अचरज में डाल देता है- कि जिस तरह उसने देखा-सोचा, वह हमें पहले क्यों नहीं दिखा। यहां अनुभव करने की प्रक्रिया पर ध्यान जाता है। दरअसल अनुभव करना भी अनायास कुछ महसूस कर लेना नहीं है। अनुभव को ठहर कर और बार-बार जीना पड़ता है, उसमें निहित वास्तविक अर्थ समझने होते हैं, उसमें न दिखने वाली विडंबनाओं को पहचानना पड़ता है। इस काम में स्मृति भी हमारी मदद करती है और अध्ययन भी। जो रचना में ढल सके, जिसका मर्म हमें छू सके, जो जीवन को देखने के लिए नई दृष्टि दे सके, वह अनुभव लेखन का असली कच्चा माल होता है। उससे लिखना सार्थक भी लगता है और सुखद भी?।
10 क्या अनुभव की इस प्रक्रिया से गुजऱे बिना भी अभिव्यक्ति को साध कर कविता लिखी जा सकती है? निश्चय ही। लेकिन ऐसी कविता बस चमकदार पंक्तियों का खेल लगती है, कभी-कभी इससे सूक्तियों का जादू भी निकल सकता है, लेकिन वह असली कविता छूट जाती है जो मर्म को छू ले, हमें इस तरह जकड़ ले कि हम उससे मुक्त भी होना चाहें और फिर लौट कर उसी के पास जाना चाहें।
फरहत जावे-फ्लोरा ड्रूरी
पाकिस्तान में राजनीति ऐसे दौर से गुजऱ रही है, जैसा पहले कभी नहीं देखा गया।
देश के लोगों में सियासत को लेकर ग़ुस्सा और निराशा है लेकिन वो उम्मीद के किरण के बारे में भी बातें करते हैं।
24 करोड़ की आबादी वाले पाकिस्तान में लगातार तीसरी बार आम चुनाव हो रहे हैं। सैन्य शासन और तानाशाही के इतिहास के लिहाज से देखें तो देश के लिए ये एक बड़ी उपलब्धि हो सकती है।
हालांकि, आठ फऱवरी का चुनाव कथित सैन्य हस्तक्षेप के साये में हो रहा है। पाकिस्तान के इतिहास में ऐसा कोई भी चुनाव नहीं रहा है, जो विवादों के घेरों में न हो।
मौजूदा समय में देश के एक पूर्व पीएम जेल में हैं तो दूसरे पूर्व पीएम स्वघोषित निर्वासन के बाद वतन वापस लौट आए हैं।
पाकिस्तान की राजनीति में पिछले काफ़ी समय से सियासी उथल-पुथल चल रहा है। ऐसे हालात में जानिए ये चुनाव पाकिस्तान के भविष्य के लिए क्यों अहम है।
भारत के चीर प्रतिद्वंद्वी देश पाकिस्तान की सीमा ईरान और तालिबान नियंत्रित अफग़़ानिस्तान से लगती है। पाकिस्तान का अमेरिका के साथ लव एंड हेट (प्यार और तकरार) का संबंध रहता है और वो चीन का कऱीबी है।
पाकिस्तान में पिछले साल से ही सत्ता को लेकर नेताओं के बीच टकराव चल रहा है। 2022 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान को सत्ता से बाहर कर गठबंधन की सरकार आई।
इसके बाद पिछले साल अनिर्वाचित केयर टेकर सरकार ने सत्ता संभाली, जिसे नवंबर तक देश में चुनाव करा लेने थे लेकिन चुनाव में देरी होती चली गई।
पाकिस्तान में कई लोगों का मानना है कि देश में सबसे ज़्यादा जरूरत स्थिर सरकार की है ताकि सुरक्षा से लेकर आर्थिक मसलों पर मजबूत निर्णय हो सके। हालांकि चुनावी दौड़ में शामिल नेताओं पर नजऱ डालने से लगता है कि स्थिरता दूर की कौड़ी है।
नवाज शरीफ, पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) - पीएमएल-एन
नवाज शरीफ एक बार फिर पाकिस्तान में चर्चा के केंद्र में हैं। 2018 के चुनाव में वो उम्मीदवार नहीं थे।
वो जेल में थे। उन्हें करोड़ों रुपये के भ्रष्टाचार के मामले में दोषी कऱार दिया गया था और इसकी वजह से वो चुनाव नहीं लड़ सकते थे।
तबियत बिगडऩे के बाद 2019 में वो इलाज के लिए लंदन गए और फिर वहीं रहने लगे।
पिछले साल उनकी वतन वापसी हुई है। 2022 में इमरान ख़ान के सत्ता से बाहर होने के बाद नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ़ ने नेतृत्व संभाला।
2024 के चुनाव से कुछ महीने पहले ही नवाज शरीफ को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया और उनके चुनाव लडऩे पर लगी आजीवन रोक को भी असंवैधानिक बताया गया।
पाकिस्तान में कई लोग ये कयास लगाते हैं कि सेना और इमरान खान के बीच बढ़ी दूरी ने नवाज शरीफ के लिए रास्ते तैयार किए और वो चौथी बार प्रधानमंत्री बनने की रेस में आ गए।
हालांकि, शरीफ को पता है कि सेना पाला बदल सकती है। सेना और शरीफ के बीच उनके तीसरे कार्यकाल (2013) से ही खूब तनातनी रही और बाद में शरीफ़ सत्ता से बाहर भी हुए।
1999 में उनके कार्यकाल के दौरान सैन्य तख़्ता पलट हुआ था।
क्रिकेटर से नेता बने पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) के इमरान ख़ान जेल में बंद हैं। ख़ान अपने ऊपर लगे आरोपों को ‘राजनीतिक प्रतिशोध’ और ‘षडयंत्र’ बता रहे हैं।
इमरान ख़ान के सत्ता में आने और जाने की कहानी दोनों सेना से जुड़ी है।
2018 में उनके आलोचकों ने उन्हें ‘सेना का मुखौटा’ बताया था और अब जब वो जेल में बंद हैं तो उनके समर्थकों का आरोप है कि पूर्व पीएम के जेल में होने के पीछे सेना प्रमुख वजह हैं।
2018 में ख़ान की छवि पाकिस्तान का भविष्य बदलने वाले नेता के रूप में बन रही थी।
वो अपने भाषणों में वंशवाद की राजनीति ख़त्म करने, भ्रष्ट नेताओं को जेल में डालने, न्यायपालिका में बदलाव करने और युवाओं को नौकरी देने के साथ ही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की बात कर रहे थे।
लेकिन उनके कार्यकाल में पाकिस्तान में आर्थिक हालात खऱाब होते गए, महंगाई बढ़ती गई और कई विपक्षी नेता जेल गए, मीडिया पर पाबंदी लगी और मानवाधिकार के उल्लंघन समेत पत्रकारों पर हमले की ख़बरें आती रहीं।
पाकिस्तान तालिबान के साथ शांति वार्ता पर हस्ताक्षर हो या अफग़़ानिस्तान में तालिबान की सत्ता का समर्थन, इन मामलों के लिए ख़ान की व्यापक आलोचना हुई।
पाकिस्तान में कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का तर्क है कि हाल के वर्षों में इमरान खान की लोकप्रियता कम होती गई है।
इन विश्लेषकों का कहना है कि वो जेल से बाहर होते तब भी 2023 में उनकी हार तय थी।
लेकिन सर्वे करानी वाली कंपनी गैलप ने जनवरी 2024 में एक सर्वे में बताया कि खान अब भी पाकिस्तान के सबसे लोकप्रिय नेता हैं।
हालांकि, पिछले छह महीने में शरीफ की लोकप्रियता बढ़ी है।
पाकिस्तान में ऐसी चिंताएं हैं कि पीटीआई को चुनाव प्रचार का निष्पक्ष मौक़ा नहीं दिया जा रहा है। पार्टी के कई बड़े नेता जेल में हैं या पार्टी से संबंध तोड़ चुके हैं।
पीटीआई के नेताओं को अब स्वतंत्र उम्मीदवार की तरह चुनाव में आना पड़ रहा है। यहां तक कि पार्टी के हाथ से क्रिकेट बैट का चुनावी चिह्न भी जा चुका है।
बिलावल भुट्टो जऱदारी की पाकिस्तान पीपल्स पार्टी (पीपीपी) पिछले चुनाव में तीसरे नंबर पर रही थी। जऱदारी ही पार्टी के अध्यक्ष भी हैं।
बिलावल पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो और पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के बेटे हैं। बेनज़ीर की 2007 में हत्या हो गई थी। बिलावल भुट्टो देश के मंत्री रह चुके हैं।
बिलावल की पार्टी चुनावों में लंबे-चौड़े वादे के साथ उतरी है। इसमें वेतन दोगुना करना, सरकारी खर्च में कटौती कर बजट बढ़ाना समेत कई चीज़ें शामिल हैं।
मौजूदा समय में ये असंभव ही लग रहा है कि पार्टी को ये नीतियां अपनाने का मौक़ा मिलेगा। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अगर गठबंधन की सरकार बनती है तो वो किंगमेकर बन सकते हैं।
बीबीसी से बातचीत में भुट्टो ने कहा था कि पीएमएलएन और पीटीआई के बीच किसी को चुनना काफ़ी मुश्किल फ़ैसला होगा।
पाकिस्तान की राजनीति पर जो लोग नजऱ रख रहे हैं, उन्हें ये लग रहा है कि पिछले छह साल की तुलना में मौजूदा समय भी कुछ ज़्यादा बदला नहीं है।
इस बार भी दर्जनों उम्मीदवार अयोग्य घोषित किए गए हैं, वो या जेल में हैं या फिर मजबूरी में चुनाव ही नहीं लड़ रहे हैं।
पाकिस्तान में जनता एक ऐसी सरकार की उम्मीद लगा रही है जो स्थिर हो और उन्हें बढ़ती महंगाई, पटरी से उतरती अर्थव्यवस्था और खऱाब सुरक्षा हालात से छुटकारा दे। (bbc.com/hindi)
फरहत जावे-फ्लोरा ड्रूरी
पाकिस्तान में राजनीति ऐसे दौर से गुजऱ रही है, जैसा पहले कभी नहीं देखा गया।
देश के लोगों में सियासत को लेकर ग़ुस्सा और निराशा है लेकिन वो उम्मीद के किरण के बारे में भी बातें करते हैं।
24 करोड़ की आबादी वाले पाकिस्तान में लगातार तीसरी बार आम चुनाव हो रहे हैं। सैन्य शासन और तानाशाही के इतिहास के लिहाज से देखें तो देश के लिए ये एक बड़ी उपलब्धि हो सकती है।
हालांकि, आठ फऱवरी का चुनाव कथित सैन्य हस्तक्षेप के साये में हो रहा है। पाकिस्तान के इतिहास में ऐसा कोई भी चुनाव नहीं रहा है, जो विवादों के घेरों में न हो।
मौजूदा समय में देश के एक पूर्व पीएम जेल में हैं तो दूसरे पूर्व पीएम स्वघोषित निर्वासन के बाद वतन वापस लौट आए हैं।
पाकिस्तान की राजनीति में पिछले काफ़ी समय से सियासी उथल-पुथल चल रहा है। ऐसे हालात में जानिए ये चुनाव पाकिस्तान के भविष्य के लिए क्यों अहम है।
भारत के चीर प्रतिद्वंद्वी देश पाकिस्तान की सीमा ईरान और तालिबान नियंत्रित अफग़़ानिस्तान से लगती है। पाकिस्तान का अमेरिका के साथ लव एंड हेट (प्यार और तकरार) का संबंध रहता है और वो चीन का कऱीबी है।
पाकिस्तान में पिछले साल से ही सत्ता को लेकर नेताओं के बीच टकराव चल रहा है। 2022 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान को सत्ता से बाहर कर गठबंधन की सरकार आई।
इसके बाद पिछले साल अनिर्वाचित केयर टेकर सरकार ने सत्ता संभाली, जिसे नवंबर तक देश में चुनाव करा लेने थे लेकिन चुनाव में देरी होती चली गई।
पाकिस्तान में कई लोगों का मानना है कि देश में सबसे ज़्यादा जरूरत स्थिर सरकार की है ताकि सुरक्षा से लेकर आर्थिक मसलों पर मजबूत निर्णय हो सके। हालांकि चुनावी दौड़ में शामिल नेताओं पर नजऱ डालने से लगता है कि स्थिरता दूर की कौड़ी है।
नवाज शरीफ, पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) - पीएमएल-एन
नवाज शरीफ एक बार फिर पाकिस्तान में चर्चा के केंद्र में हैं। 2018 के चुनाव में वो उम्मीदवार नहीं थे।
वो जेल में थे। उन्हें करोड़ों रुपये के भ्रष्टाचार के मामले में दोषी कऱार दिया गया था और इसकी वजह से वो चुनाव नहीं लड़ सकते थे।
तबियत बिगडऩे के बाद 2019 में वो इलाज के लिए लंदन गए और फिर वहीं रहने लगे।
पिछले साल उनकी वतन वापसी हुई है। 2022 में इमरान ख़ान के सत्ता से बाहर होने के बाद नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ़ ने नेतृत्व संभाला।
2024 के चुनाव से कुछ महीने पहले ही नवाज शरीफ को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया और उनके चुनाव लडऩे पर लगी आजीवन रोक को भी असंवैधानिक बताया गया।
पाकिस्तान में कई लोग ये कयास लगाते हैं कि सेना और इमरान खान के बीच बढ़ी दूरी ने नवाज शरीफ के लिए रास्ते तैयार किए और वो चौथी बार प्रधानमंत्री बनने की रेस में आ गए।
हालांकि, शरीफ को पता है कि सेना पाला बदल सकती है। सेना और शरीफ के बीच उनके तीसरे कार्यकाल (2013) से ही खूब तनातनी रही और बाद में शरीफ़ सत्ता से बाहर भी हुए।
1999 में उनके कार्यकाल के दौरान सैन्य तख़्ता पलट हुआ था।
क्रिकेटर से नेता बने पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) के इमरान ख़ान जेल में बंद हैं। ख़ान अपने ऊपर लगे आरोपों को ‘राजनीतिक प्रतिशोध’ और ‘षडयंत्र’ बता रहे हैं।
इमरान ख़ान के सत्ता में आने और जाने की कहानी दोनों सेना से जुड़ी है।
2018 में उनके आलोचकों ने उन्हें ‘सेना का मुखौटा’ बताया था और अब जब वो जेल में बंद हैं तो उनके समर्थकों का आरोप है कि पूर्व पीएम के जेल में होने के पीछे सेना प्रमुख वजह हैं।
2018 में ख़ान की छवि पाकिस्तान का भविष्य बदलने वाले नेता के रूप में बन रही थी।
वो अपने भाषणों में वंशवाद की राजनीति ख़त्म करने, भ्रष्ट नेताओं को जेल में डालने, न्यायपालिका में बदलाव करने और युवाओं को नौकरी देने के साथ ही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की बात कर रहे थे।
लेकिन उनके कार्यकाल में पाकिस्तान में आर्थिक हालात खऱाब होते गए, महंगाई बढ़ती गई और कई विपक्षी नेता जेल गए, मीडिया पर पाबंदी लगी और मानवाधिकार के उल्लंघन समेत पत्रकारों पर हमले की ख़बरें आती रहीं।
पाकिस्तान तालिबान के साथ शांति वार्ता पर हस्ताक्षर हो या अफग़़ानिस्तान में तालिबान की सत्ता का समर्थन, इन मामलों के लिए ख़ान की व्यापक आलोचना हुई।
पाकिस्तान में कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का तर्क है कि हाल के वर्षों में इमरान खान की लोकप्रियता कम होती गई है।
इन विश्लेषकों का कहना है कि वो जेल से बाहर होते तब भी 2023 में उनकी हार तय थी।
लेकिन सर्वे करानी वाली कंपनी गैलप ने जनवरी 2024 में एक सर्वे में बताया कि खान अब भी पाकिस्तान के सबसे लोकप्रिय नेता हैं।
हालांकि, पिछले छह महीने में शरीफ की लोकप्रियता बढ़ी है।
पाकिस्तान में ऐसी चिंताएं हैं कि पीटीआई को चुनाव प्रचार का निष्पक्ष मौक़ा नहीं दिया जा रहा है। पार्टी के कई बड़े नेता जेल में हैं या पार्टी से संबंध तोड़ चुके हैं।
पीटीआई के नेताओं को अब स्वतंत्र उम्मीदवार की तरह चुनाव में आना पड़ रहा है। यहां तक कि पार्टी के हाथ से क्रिकेट बैट का चुनावी चिह्न भी जा चुका है।
बिलावल भुट्टो जऱदारी की पाकिस्तान पीपल्स पार्टी (पीपीपी) पिछले चुनाव में तीसरे नंबर पर रही थी। जऱदारी ही पार्टी के अध्यक्ष भी हैं।
बिलावल पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो और पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के बेटे हैं। बेनज़ीर की 2007 में हत्या हो गई थी। बिलावल भुट्टो देश के मंत्री रह चुके हैं।
बिलावल की पार्टी चुनावों में लंबे-चौड़े वादे के साथ उतरी है। इसमें वेतन दोगुना करना, सरकारी खर्च में कटौती कर बजट बढ़ाना समेत कई चीज़ें शामिल हैं।
मौजूदा समय में ये असंभव ही लग रहा है कि पार्टी को ये नीतियां अपनाने का मौक़ा मिलेगा। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अगर गठबंधन की सरकार बनती है तो वो किंगमेकर बन सकते हैं।
बीबीसी से बातचीत में भुट्टो ने कहा था कि पीएमएलएन और पीटीआई के बीच किसी को चुनना काफ़ी मुश्किल फ़ैसला होगा।
पाकिस्तान की राजनीति पर जो लोग नजऱ रख रहे हैं, उन्हें ये लग रहा है कि पिछले छह साल की तुलना में मौजूदा समय भी कुछ ज़्यादा बदला नहीं है।
इस बार भी दर्जनों उम्मीदवार अयोग्य घोषित किए गए हैं, वो या जेल में हैं या फिर मजबूरी में चुनाव ही नहीं लड़ रहे हैं।
पाकिस्तान में जनता एक ऐसी सरकार की उम्मीद लगा रही है जो स्थिर हो और उन्हें बढ़ती महंगाई, पटरी से उतरती अर्थव्यवस्था और खऱाब सुरक्षा हालात से छुटकारा दे। (bbc.com/hindi)
ध्रुव गुप्त
पिछली सदी के चौथ-पांचवे दशक की स्टार अभिनेत्री और दिलकश गायिका सुरैया के बारे में यह बहस होती रही है कि वे उनके अभिनेत्री और गायिका रूपों में बेहतर रूप कौन सा था। अभिनेत्री के रूप में उन्हें हिंदी सिनेमा की पहली 'ग्लैमर गर्ल’ माना जाता है जिन्होंने अपने चुंबकीय व्यक्तित्व, शालीन सौंदर्य और दिलफरेब अदाओं से करोड़ों के दिल जीते थे। अपनी सीमित अभिनय प्रतिभा के बावज़ूद उस दौर की कई बेहतरीन अभिनेत्रियों- नूरजहां, नरगिस, कामिनी कौशल, निम्मी और मधुबाला के बीच भी उनकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ी। अपने दो दशक लंबे कैरियर में सुरैया की कुछ चर्चित फिल्मे थीं- उमर खैयाम, विद्या, परवाना, अफसर, प्यार की जीत, शमा, बड़ी बहन , दिल्लगी, वारिस, माशूका, जीत, खूबसूरत, दीवाना, डाकबंगला, अनमोल घडी, मिर्जा गालिब और रुस्तम सोहराब। इन फिल्मों में अभिनेत्री के तौर पर सुरैया में नया और अलग कुछ भी नहीं था। सीधे-सादे अभिनय के बावजूद परदे पर उनकी शालीन उपस्थिति, ग्लैमर, मीडिया द्वारा बनाए गये उनके रहस्यमय आभामंडल और अभिनेता देव आनंद के साथ चर्चित लेकिन असफल प्रेम-संबंधों की वजह से ही लोग उनकी फिल्मों तक खींचे चले आते थे।
ज्यादातर लोगों का मानना है कि सुरैया अभिनेत्री से बेहतर एक गायिका थी जिनकी खनकती, महीन, सुरीली आवाज के लाखों मुरीद आज भी हैं। उन्होंने हालांकि संगीत की कभी विधिवत शिक्षा नहीं ली, लेकिन उनका रूझान बचपन से ही संगीत की ओर था। वे पाश्र्वगायिका ही बनना चाहती थी। उनके गायन की शुरुआत आकाशवाणी से हुई थी। संगीतकार नौशाद ने आकाशवाणी के एक कार्यक्रम में जब सुरैया को गाते सुना तो उनकी आवाज और अंदाज से प्रभावित हुए। उन्होने पहली बार सुरैया को फिल्म ‘शारदा’ में गाने का मौका दिया। उसके बाद जो हुआ वह इतिहास है। उनके कुछ बेहद लोकप्रिय गीत हैं- तू मेरा चांद मैं तेरी चांदनी, जब तुम ही नहीं अपने दुनिया ही बेगानी है, तुम मुझको भूल जाओ, ओ दूर जानेवाले वादा न भूल जाना, धडक़ते दिल की तमन्ना हो मेरा प्यार हो तुम, नैन दीवाने एक नहीं माने, सोचा था क्या क्या हो गया, वो पास रहे या दूर रहे नजरों में समाए रहते हैं, मुरली वाले मुरली बजा, तेरे नैनो ने चोरी किया मेरा छोटा सा जिया, नुक्ताचीं है गमे दिल उसको सुनाए न बने, दिले नादां तुझे हुआ क्या है, ये न थी हमारी कि़स्मत कि विसाले यार होता, ये कैसी अजब दास्तां हो गई है, ऐ दिलरुबा नजरे मिला। ‘मिर्जा गालिब’ में गुलाम मोहम्मद के संगीत में गालिब की कुछ गजलों को जिस बारीकी और ख़ूबसूरती से उन्होंने गाया है, उन्हें सुनना आज भी एक विलक्षण अनुभव है। उनकी आवाज़ की खनक, गहराई और भंगिमाएं सुनने वालों को एक दूसरी ही दुनिया में ले जाती थी। लता के उत्कर्ष के पूर्व सुरैया ने ही हिंदी सिनेमा में गीत को गरिमा और ऊंचाई दी थी। राष्ट्रपति का स्वर्ण कमल पुरस्कार प्राप्त फिल्म ‘मिर्जा गालिब’ में सुरैया की गायिकी से प्रभावित होकर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उनसे कहा था- ‘तुमने मिर्जा गालिब की रूह को जिंदा कर दिया।’ आज उनके अभिनय का अंदाज़ पुराना पड़ गया है, लेकिन उनकी दिलकश गायिकी का असर संगीत प्रेमियों पर कई सदियों तक हावी रहेगा।
आज सुरैया की पुण्यतिथि पर खिराज-ए-अकीदत!
ऊपर की तस्वीर देखिए। फेसबुक तब ऐसा ही दिखता था और उस समय इसका नाम था ‘द फेसबुक’। ये 20 साल पुरानी बात है जब मार्क जुकरबर्ग ने अपने चंद दोस्तों के साथ इसे लॉन्च किया था।
दुनिया के सबसे लोकप्रिय सोशल नेटवर्क प्लेटफॉर्म को तब से दर्जनों बार रिडिजाइन किया जा चुका है।
लेकिन, इसका मकसद वही है, लोगों को ऑनलाइन कनेक्ट करना यानी उनके बीच संपर्क बनाना और विज्ञापन के जरिए पैसों का पहाड़ खड़ा करना।
फेसबुक की शुरुआत को 20 साल हो गए हैं। आइए, फ़ेसबुक से जुड़ी उन चार अहम बातों पर नजऱ डालते हैं, जिनके जरिए इसने दुनिया को बदल दिया।
1. फेसबुक ने बदला सोशल मीडिया का खेल
माइस्पेस पर टॉम हर किसी के पहले दोस्त होते थे। इस सोशल नेटवर्क को टॉम एंडरसन ने फेसुबक की शुरुआत से एक साल पहले लॉन्च किया था।
फेसबुक की शुरुआत के पहले ‘माइस्पेस’ जैसे सोशल नेटवर्क मौजूद थे लेकिन मार्क जुकरबर्ग की साइट ने साल 2004 में लॉन्च होने के साथ ही रफ्तार पकड़ ली और साबित किया कि इस किस्म की ऑनलाइन साइट किस तरह दबदबा बना सकती है।
एक साल से कम वक्त में फेसबुक के 10 लाख यूजर्स थे। चार साल के अंदर इसने माइस्पेस को पीछे छोड़ दिया। इस तरक्की के पीछे, फेसबुक की कई ख़ूबियों की भूमिका थी, जैसे कि फोटो में लोगों का ‘टैग’ करने का विकल्प देना।
नाइट आउट के वक्त डिजिटल कैमरा का साथ होना, तमाम तस्वीरों में अपने दोस्तों को ‘टैग करना’, 2000 के दशक के आखिरी सालों में टीनएजर्स के जिंदगी का हिस्सा था। शुरुआती यूजर्स को लगातार फीड बदलना भी लुभाता था।
साल 2012 आते आते फेसबुक के एक अरब से ज़्यादा यूजर्स हो चुके थे। साल 2021 के आखिरी महीनों में पहली बार फेसबुक के एक्टिव यूजर्स की संख्या 1.92 अरब तक गिर गई। अगर इसे छोड़ दें तो बाकी वक्त ये प्लेटफॉर्म लगातार बढ़ता ही रहा है।
जो देश कनेक्टिविटी के मामले में पिछड़े हैं, फेसबुक ने वहां भी पैर फैलाए और मुफ्त इंटरनेट का ऑफर दिया। ये कंपनी फेसबुक यूजर्स की संख्या लगातार बढ़ाने में कामयाब रही। साल 2023 के अंत में फेसबुक ने जानकारी दी कि उसके पास दो अरब से ज़्यादा ऐसे यूजर्स हैं, जो हर दिन इस सोशल प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करते हैं।
ये तथ्य है कि युवाओं के बीच फेसबुक पहले की तरह लोकप्रिय नहीं है लेकिन फिर भी ये दुनिया की सबसे लोकप्रिय सोशल नेटवर्क साइट है और इसने ऑनलाइन सोशल एक्टिविटी के नए युग का दरवाजा खोला है।
कुछ लोग फेसबुक और इससे मुकाबला कर रहे दूसरे सोशल प्लेटफॉर्म को कनेक्टिविटी को सशक्त बनाने वाले औजार के तौर पर देखते हैं तो बाकी लोग इन्हें लत का शिकार बना देने वाले विध्वंस का एजेंट मानते हैं।
2. निजी डेटा को बनाया कीमती
लेकिन निजता में दिया दखल
फेसबुक ने साबित किया कि हमारी पसंद और नापसंद की जानकारी जुटाना, बहुत फ़ायदे की बात है।
इन दिनों, फेसबुक की पैरेंट कंपनी, मेटा ‘एडवर्टाइजि़ंग जायंट’ यानी विज्ञापन की दुनिया की सरताज जैसी हैसियत रखती है।
मेटा और गूगल जैसी कंपनियां दुनिया भर में विज्ञापन पर ख़र्च होने वाली रकम का सबसे बड़ा हिस्सा हासिल करती हैं।
मेटा ने बताया कि 2023 की तीसरी तिमाही में 34 अरब डॉलर यानी करीब 28 खरब 25 अरब से ज़्यादा रुपये कमाए। इसमें से 11।5 अरब डॉलर यानी करीब नौ खरब 55 अरब रुपये ज़्यादा मुनाफा था। कमाई का ज़्यादातर हिस्सा टार्गेटेड एड सर्विसेज़ के जरिए आया।
लेकिन, फ़ेसबुक ने ये भी दिखाया है कि डेटा इक_ा करने का किस तरह दुरुपयोग हो सकता है। मेटा पर निजी डेटा की मिसहैंडलिंग (सही तरह से इस्तेमाल नहीं करने) के लिए कई बार जुर्माना लगाया जा चुका है।
सार्वजनिक तौर पर जिस मामले को सबसे ज़्यादा चर्चा मिली वो साल 2014 का कैंब्रिज एनालिटिका स्कैंडल था। फेसबुक ने इस मामले में सेटलमेंट के लिए 72 करोड़ डॉलर से ज़्यादा रकम चुकाने को तैयार हो गया।
साल 2022 में फ़ेसबुक ने ईयू की ओर से लगाया गया 2650 लाख यूरो का जुर्माना भरा। ये जुर्माना फ़ेसबुक की साइट से निजी डेटा निकालने की वजह से लगाया गया था।
बीते साल इस कंपनी पर आयरिश डेटा प्रोटेक्शन कमीशन ने रिकॉर्ड 1।2 अरब यूरो का जुर्माना लगाया। ये जुर्माना यूरोप के यूजर्स के डेटा को जूरिडिक्शन (क्षेत्राधिकार) से बाहर ट्रांसफऱ करने के लिए लगाया गया था। फेसबुक ने जुर्माने के खिलाफअपील की है।
3. फेसबुक ने किया इंटरनेट का राजनीतिकरण
फेसबुक टार्गेटिंग विज्ञापन की सुविधा देता है। इससे ये दुनिया भर में चुनाव प्रचार का प्रमुख प्लेटफ़ॉर्म बन गया है।
उदाहरण के लिए, साल 2020 में जब अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में सिफऱ् पांच महीने बाकी थे, तब तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की टीम ने फेसबुक विज्ञापन पर 400 लाख डॉलर से ज़्यादा रकम खर्च की। ये आंकड़ा स्टेटिस्टा रिसर्च ने जारी किया है।
फेसबुक की भूमिका जमीनी स्तर की राजनीति को बदलने में भी रही है। ये समूहों को इकट्टा होने, अभियान चलाने और वैश्विक स्तर पर कदम उठाने से जुड़ी योजना बनाने की सहूलियत देता है।
अरब स्प्रिंग यानी अरब क्रांति के दौरान विरोध प्रदर्शन आयोजित करने और जमीन पर हो रही घटनाओं की खबर प्रसारित करने में फेसबुक और ट्विटर की भूमिका अहम मानी गई।
लेकिन, कुछ नतीजों को लेकर फेसबुक के राजनीतिक इस्तेमाल की आलोचना भी होती है। मानवाधिकारों पर असर भी इसमें शामिल है।
साल 2018, में फेसबुक ने संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट से सहमति जाहिर की थी। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि म्यामांर में रोहिंग्या लोगों के खिलाफ ‘हिंसा के लिए उकसाने’ के वक्त फेसबुक यूजर्स को अपना प्लेटफॉर्म इस्तेमाल करने से रोकने में नाकाम रहा।
4. फेसबुक के जरिए मेटा का दबदबा
फेसबुक की बेशुमार कामयाबी के जरिए मार्क जुकरबर्ग ने सोशल नेटवर्क बनाया और तकनीकी साम्राज्य खड़ा कर लिया। यूजर्स की संख्या और इसके जरिए मिली ताकत अतुलनीय है।
उभरती कंपनियों मसलन व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम और ऑकुलस को फेसबुक ने खरीद लिया। इस को फेसबुक के तहत लाया गया और बाद में साल 2022 में इस कंपनी का नाम मेटा कर दिया गया।
मेटा का कहना है कि आज तीन अरब से ज़्यादा लोग हर दिन उसका कम से कम एक प्रॉडक्ट इस्तेमाल करते हैं।
मेटा जब अपनी प्रतिस्पर्धी कंपनी को खरीद नहीं पाता है तो कई बार उन पर अपनी नकल करने का आरोप लगा देता है। ताकि वो अपना दबदबा बनाए रख सके।
फेसबुक और इंस्टाग्राम का ‘डिस्एपीयरिंग स्टोरीज’ का फीचर स्नैपचैट के अहम फीचर की ही तरह है।
इंस्टाग्राम रील्स मेटा की ओर से वीडियो शेयरिंग ऐप टिकटॉक का जवाब है। मेटा का थ्रेड्स सोशल प्लेटफ़ॉर्म एक्स (पहले ट्विटर) जैसा विकल्प देने का प्रयास है।
अब रणनीति की भूमिका कहीं ज़्यादा अहम हो गई है। इसकी वजह बढ़ता मुकाबला और निगरानी रखने वाली संस्थाओं की बढ़ती सख्ती है।
साल 2022 में मेटा घाटा सहकर भी जीआईएफ़ मेकर जिफी को बेचने पर मजबूर हो गई। ब्रिटेन के रेगुलेटर ने मार्केट में इसके जरूरत से ज़्यादा दबदबे के डर से इसकी सेवाओं पर स्वामित्व रखने से रोक दिया।
अगले 20 साल में क्या होगा?
फ़ेसबुक का उभार और इसका लगातार दबदबा बनाए रखना मार्क जुकरबर्ग की क्षमता दिखाता है जो इस साइट को लगातार प्रासंगिक बनाए हुए हैं।
लेकिन अगले 20 साल के दौरान इसे सबसे लोकप्रिय सोशल नेटवर्क प्लेटफॉर्म बनाए रखना पहाड़ जैसी चुनौती साबित हो सकती है।
मेटा अब मेटावर्स के आइडिया के इर्द-गिर्द बिजनेस खड़ा करने की पुरज़ोर कोशिश में जुटा है, वो एपल जैसे प्रतिस्पर्धी से आगे निकलने की कोशिश में है।
मेटा के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस भी बड़ी प्राथमिकता में शुमार है। और अब जब कंपनी फेसबुक की जड़ों से कटती जा रही है, ये देखना दिलचस्प होगा कि दुनिया भर में मौजूद इस सोशल नेटवर्क साइट का भविष्य कैसा रहता है।(bbc.com)
(इमान मोहम्मद के इनपुट के साथ)
डॉ. आर.के. पालीवाल
ऐसा लगता है कि रेल प्रशासन आम जनता से केवल तरह तरह से धन वसूली में ही लगा है इसीलिए जिन लोगों को जरूरी काम से यात्राएं करनी पड़ती हैं उनकी मजबूरी का लाभ उठा कर पहले उसने महंगी तत्काल सेवा शरू की थी और अब हवाई यात्रा की तरह कम सीट रहने पर बहुत महंगी डायनेमिक प्राइसिंग भी शरू हुई है जिससे कभी कभी रेल का किराया हवाई यात्रा से भी महंगा हो गया है।
दूसरी तरफ यात्रियों की सुविधाओं के नाम पर वैसा ही शून्य पसरा हुआ है जैसा कई दशक से चल रहा है। यदि रेल प्रशासन लोगों से ज्यादा से ज्यादा धन वसूली में पूरी तरह से सजग है तब उसे यात्रियों की सुविधाओं के प्रति भी उसी तरह से सजग होना चाहिए। यात्रियों की सुविधाओं के नाम पर रेल प्रशासन कुंभकरण की नींद सोया लगता है।
उत्तर भारत में सर्दियों के मौसम में दिसंबर और जनवरी माह में हर साल कोहरा पड़ता है जिसकी वजह से अधिकांश ट्रेनों का विलंब से चलना स्वाभाविक है। इस दौरान बहुत सी फ्लाइट भी विलंब से चलती हैं और निरस्त भी होती हैं। ऐसी स्थिति में अधिकांश एयरलाइंस यात्रियों को गंतव्य स्थान तक पहुंचाने के लिए कनेक्टिंग फ्लाइट की व्यवस्था के साथ-साथ भोजन आदि की भी व्यवस्था करती हैं। एयरपोर्ट पर वातानुकूलन के कारण भी यात्रियों और विशेष रूप से महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को परेशान नहीं होना पड़ता क्योंकि वहां काफी संख्या में टॉयलेट, खाद्य पदार्थों की दुकानें, और चलने के लिए व्हीलचेयर और स्वचालित सीढिय़ों आदि की व्यवस्था है। एयरलाइंस विलंब की स्थिति में समय-समय पर एसएमएस आदि से सूचना भी देती हैं। इस मामले में रेल प्रशासन में हद दर्जे की लापरवाही है।
रेल प्रशासन की हद दर्जे की लापरवाही का ताजा उदाहरण आजकल दिल्ली से भोपाल की तरफ आने वाली ट्रेनों को लेकर समझा जा सकता है जिसका खामियाजा हाल ही में हमने भी भुगता है। दिल्ली से आगरा की लगभग दो सौ किलोमीटर की दूरी अमूमन ट्रेन दो से तीन घंटे में पूरी करती हैं लेकिन आजकल इस रूट की अधिकांश ट्रेनों को मथुरा में ट्रेक रिपेयर के कारण अलीगढ़ होकर आगरा भेजा जा रहा है जिससे दिल्ली आगरा की दो-तीन घंटे की यात्रा बारह घंटे में पूरी हो रही है। टिकट बुक करते समय रेल प्रशासन यह सूचना यात्रियों से छिपा रहा है जिससे यात्रियों के दस दस घंटे बर्बाद हो रहे हैं।
हर दिन लाखों लोग इस ट्रैक से यात्रा करते हुए रेल प्रशासन की अपारदर्शिता और लापरवाही को कोस रहे हैं। महिलाओं के लिए यह मुसीबत और भी ज्यादा खतरनाक है। यदि उन्होंने अपनी यात्रा इस तरह प्लान की है कि वे शाम को दिल्ली से चलकर दिन में भोपाल पहुंच जाएं तो उन्हें दिल्ली में भी आधी रात के बाद ट्रेन पकडऩी पड़ रही है और भोपाल भी आधी रात को पहुंचकर परेशानी झेलनी पड़ रही है। उदाहरण के तौर पर 23 जनवरी की शाम आठ बजकर चालीस मिनट पर दिल्ली के निजामुद्दीन स्टेशन से चलकर सुबह छह बजे भोपाल पहुंचने वाली ट्रेन को दिल्ली से आधी रात के बाद सुबह चार बजे चलाया गया। पहले सूचित किया कि यह ट्रेन रात साढ़े ग्यारह बजे चलेगी। फिर बताया गया कि सुबह तीन बजे चलेगी। सुबह तीन बजे दिल्ली की कडक़ड़ाती ठंड में प्लेटफार्म पर पहुंचे हजारों यात्रियों को सही सूचना बताने के लिए रेलवे का कोई व्यक्ति मौजूद नहीं था।
प्लेटफार्म की दुकानें भी बंद हो चुकी थी। रेलवे की तरफ से संवेदनहीन अनाउंसमेंट में यह कहा जा रहा था कि ट्रेन तकनीकी देखरेख में यार्ड में खड़ी है यात्री अगली सूचना को ध्यान से सुनें। रेल प्रशासन का इस तरह का व्यवहार निकृष्टतम श्रेणी का है। प्लेटफार्म पर महिला यात्रियों के लिए न कोई सुरक्षा थी और न टॉयलेट आदि की सुविधा रहती है। यह ट्रेन सुबह चार बजे चलकर अठारह घंटे विलंब से रात साढ़े बारह बजे भोपाल पहुंची। विशेष रूप से महिला यात्रियों के लिए दो रात भयानक बीती। डायनेमिक प्राइसिंग से यात्रियों से धन वसूली करने वाला रेल प्रशासन कितना संवेदनहीन हो गया यह रेल से यात्रा करने वाले लाखों लोग आए दिन भुगत रहे हैं।
चंदन कुमार जजवाड़े
अगस्त 2022 में एनडीए से रिश्ता तोडऩे के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि वो मरना पसंद करेंगे लेकिन उनके (बीजेपी) के साथ लौटना पसंद नहीं करेंगे।
दूसरी तरफ़ केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि नीतीश कुमार के लिए एनडीए के दरवाज़े हमेशा के लिए बंद हो चुके हैं।
बीजेपी के कई अन्य नेता भी इस बात को दोहराते रहे हैं। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह तो पिछले हफ्ते तक बोलते रहे हैं कि नीतीश कुमार के लिए एनडीए का रास्ता बंद हो चुका है।
नीतीश ने पिछली बार एनडीए छोड़ते वक़्त बीजेपी पर जेडीयू को कमजोर करने का आरोप लगाया था। जेडीयू के नेता कई बार ‘चिराग मॉडल’ की बात करके भी बीजेपी पर अपनी नाराजग़ी ज़ाहिर करते रहे हैं।
साल 2000 के विधानसभा चुनावों में एनडीए का हिस्सा होते हुए भी लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान ने बिहार में जेडीयू के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतारे थे। इससे जेडीयू को सीटों का बड़ा नुकसान हुआ था और बिहार में तीसरे नंबर की पार्टी हो गई थी।
जेडीयू ने अपने नेता और उस वक़्त अध्यक्ष रह चुके आरसीपी सिंह पर भी बीजेपी के साथ मिलीभगत का आरोप लगाया था। बाद में आरसीपी सिंह पार्टी से बाहर हो गए और अब वो बीजेपी में शामिल हो गए हैं।
विपक्ष को एक करने की कोशिश
नीतीश कुमार ने इस साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने की पहल की थी।
इस तरह से 18 विपक्षी दलों की पहली बैठक बिहार की राजधानी पटना में ही 23 जून 2023 को हुई थी।
इस बैठक के बाद बिहार में महज 45 विधायकों के सहारे मुख्यमंत्री कुर्सी पर बैठे नीतीश कुमार राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आ गए थे। इस तरह से पहली बार बीजेपी और नरेंद्र मोदी के लिए एक संगठित विपक्ष की चुनौती तैयार हो रही थी। लेकिन अब कहानी पूरी तरह से बदल गई है।
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं, ‘नीतीश को भी राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा के बाद लगने लगा था कि बीजेपी का मुकाबला करना आसान नहीं होगा। दूसरी तरफ़ भले ही बिहार के बीजेपी नेता न चाहते हों लेकिन बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व नीतीश को अपने साथ जोडऩा चाहता था ताकि विपक्षी एकता की नींव ही कमज़ोर हो जाए।’
कभी नीतीश के करीबी रहे आरजेडी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘नीतीश के बारे में राजनीतिक विशेषज्ञ कुछ नहीं बता सकता, उनके बारे में मनोचिकित्सक बता सकता है। उन्होंने ख़ुद विपक्ष के लोकतंत्र बचाने के प्रस्ताव पर दस्तख़त किए थे। उनको शर्म आनी चाहिए, यह धोखा देना है। अगर उन्हें कोई शिकायत थी तो बात कर सकते थे।’
नीतीश कुमार पर धोखा देने और रंग बदलने का आरोप कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने भी लगाया है, जबकि समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने कहा है कि एक भावी प्रधानमंत्री को बीजेपी ने षडय़ंत्र कर मुख्यमंत्री तक सीमित कर दिया है।
किसने बनाया एनडीए में वापसी का रास्ता
बीजेपी के साथ रिश्ते तल्ख़ होने के बाद भी नीतीश कुमार ने विपक्ष का साथ क्यों छोड़ा और उनकी एनडीए में वापसी की पहल किसने की?
विपक्षी धड़े में रहकर नीतीश मुख्यमंत्री होने साथ ही राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी और सक्रिय भूमिका में दिख रहे थे।
वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी कहते हैं, ‘नीतीश ने विपक्ष के गठबंधन का साथ छोडऩे की जो वजह बताई है, वह तलाक़ लेने का केवल बहाना है। इसकी असली वजह वह नहीं है जो बताई जा रही है या जो दिख रही है। इसकी वजह अदृश्य है।’
कन्हैया भेलारी के मुताबिक़, ‘जेडीयू के नेताओं और कुछ के कऱीबियों के उपर जाँच एजेंसियों का कसता शिकंजा इसकी सबसे बड़ी वजह है। कुछ मामलों में नीतीश के कुछ कऱीबी अधिकारियों तक जाँच की आँच पहुँच सकती थी और नीतीश के मन में यह डर भी होगा कि कहीं उनसे भी पूछताछ न शुरू हो जाए।’
इससे पहले प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी ने पिछले साल सितंबर महीने में जेडीयू एमएलसी राधा चरण सेठ को गिरफ़्तार किया था। राधा चरण सेठ की गिरफ़्तारी आरा के उनके घर से हुई थी।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक राधा चरण सेठ को मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में गिरफ्तार किया गया था। ख़बरों के मुताबिक़ जलेबी बेचने के व्यवसाय से शुरुआत करने वाले राधा चरण सेठ बाद में कई तरह के कारोबार से जुड़े, जिनमें माइनिंग, होटल और रेस्टोरेंट का कारोबार भी शामिल है।
नीतीश की वापसी में बड़ी भूमिका किसकी?
पिछले साल नीतीश कुमार के करीबी माने जाने वाले जेडीयू विधायक और मंत्री विजय चौधरी के साले अजय सिंह उर्फ कारू सिंह के आवास पर भी आयकर विभाग ने छापेमारी की थी।
बेगूसराय में बिल्डर कारू सिंह के आवास पर यह छापेमारी पटना में जून में विपक्षी दलों की मीटिंग के एक दिन पहले हुई थी।
पिछले साल ही अक्टूबर के महीने में जेडीयू के करीबी माने जाने वाले ठेकेदार गब्बू सिंह के ठिकानों पर भी आयकर विभाग ने छापेमारी की थी।
कन्हैया भेलारी के मुताबिक़, ‘राधाचरण सेठ के यहाँ ईडी को एक लाल डायरी मिली थी, बताया जाता है कि इसमें बहुत कुछ पाया गया है। इसलिए नीतीश के उपर अपने नेताओं का भी दबाव रहा होगा कि वो एनडीए में वापस चले जाएँ। इसकी पहल जेडीयू विधायक संजय झा की हो सकती है, जो पहले बीजेपी में ही थे।’
इसके अलावा नीतीश की एनडीए में वापसी की पहल करने वालों में नीतीश के करीबी माने जाने वाले विधान परिषद सदस्य अशोक चौधरी और नीतीश के करीबी कुछ अधिकारियों की भी इसमें अहम भूमिका मानी जाती है।
शिवानंद तिवारी आरोप लगाते हैं, ‘नीतीश कुमार के करीबी अधिकारी क्या कर रहे हैं, उनको भी पता है। नीतीश खुद चौबीसों घंटे ऐसे नेताओं से घिरे रहते हैं जो ‘मंडल’ विरोधी हैं। आप उनके नाम देख लीजिए। इन सबने नीतीश को एनडीए में वापस जाने की सलाह दी होगी और खुद नीतीश ने परोक्ष रूप से बीजेपी से संपर्क किया होगा।’
इसमें विजय चौधरी, संजय झा और जेडीयू एमएलसी ललन सिंह जैसे नेताओं नाम लिया जाता है। पिछले साल दिसंबर में ललन सिंह के मुद्दे पर चल रही अटकलों के दौरान विजय चौधरी ‘इंडिया’ को ‘इंडी’ गठबंधन कहते नजऱ आए थे। यह नाम आमतौर पर बीजेपी और उनके सहयोगी लेते हैं।
जेडीयू के भीतर मंदिर और मंडल खेमा
वरिष्ठ पत्रकार फैजान अहमद का मानना है कि जेडीयू में बीजेपी के करीबी और बीजेपी के विरोधी दोनों तरह के लोग हैं, मसलन संजय झा नीतीश कुमार के बेहद कऱीबी हैं और बीजेपी के भी। इसलिए दोनो के बीच डोर के तौर पर संजय झा की भूमिका हो सकती है।
फैजान अहमद कहते हैं, ‘लालू और नीतीश के बीच मतभेद राजनीति के बहुत शुरुआती दिनों में ही हो गया था। नीतीश कुमार भी लालू से ज़्यादा बीजेपी के साथ रहे हैं और वहीं सहज भी दिखते हैं। लेकिन इस बार गठबंधन छोडऩे के पीछे नीतीश ने लालू की जगह कांग्रेस पर आरोप लगाया है।’
दअसल नीतीश कुमार का यह फ़ैसला अचानक का फैसला भी नहीं दिखता है। पिछले कई हफ्तों से कई कार्यक्रमों में नीतीश और तेजस्वी यादव को एक साथ नहीं देखा गया था। नीतीश कई बार बिहार के राज्यपाल से भी मिले लेकिन तेजस्वी से उनकी दूरी बनी रही।
बिहार में निजी निवेश को बढ़ावा देने के लिए पिछले महीने यानी दिसंबर हुए ‘इन्वेस्ट बिहार’ कार्यक्रम में भी तेजस्वी यादव नजर नहीं आए थे। इसमें अदानी ग्रुप ने बिहार में अपने कारोबार के विस्तार के लिए 8700 करोड़ रुपये का निवेश की घोषणा की थी।
वहीं नीतीश ने खुद पटना में पिछले साल नवंबर महीने में सीपीआई की रैली में पहुँचकर गठबंधन के प्रति कांग्रेस के रुख पर सवाल उठाया था। पिछले साल मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान चुनाव में हार के बाद तो जेडीयू ने कांग्रेस को सहयोगी दलों को उचित सम्मान देने की सलाह भी दी थी।
कौन ले गया नीतीश को दूर
कांग्रेस के साथ नीतीश के मोहभंग की शुरुआत भोपाल में महागठबंधन की रैली रद्द होने के दौरान मानी जाती है। पिछले साल मध्य प्रदेश चुनाव के दौरान भोपाल में विपक्षी दलों की एक बड़ी रैली होनी थी, जिसे कांग्रेस नेता कमलनाथ ने रद्द करा दिया था।
पटना में विपक्ष की मीटिंग के बाद बेंगलुरु, मुंबई या विपक्ष की बाक़ी मीटिंग को लेकर नीतीश कुमार बहुत उत्साहित नजर नहीं आ रहे थे। बीजेपी की तरफ से यह दावा किया जा रहा था कि नीतीश ‘इंडिया’ के संयोजक नहीं बनाए जाने से नाराज हैं, हालाँकि नीतीश कुमार और जेडीयू इससे इनकार करते रहे।
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं, ‘नीतीश ख़ुद को विपक्षी गठबंधन का संयोजक देखना चाहते थे, भले ही वो स्वीकार न करें, लेकिन सबकी अपनी महत्वाकांक्षा होती है। फिर भी कांग्रेस उन्हें यह पद क्यों दे? नीतीश एक राज्य में सहयोगियों से भरोसे मुख्यमंत्री हैं और कांग्रेस विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है।’
नीतीश कुमार को लेकर कांग्रेस की दुविधा की एक और वजह मानी जाती है। नीतीश ख़ुद को लेकर कांग्रेस या बाकी कई दलों का भरोसा नहीं जीत पाए और सबके मन में यह सवाल हो सकता है कि जिम्मेदारी सौंपने के बाद नीतीश विपक्षी गठबंधन से दूर हो गए तो यह विपक्ष के लिए ज़्यादा बुरी स्थिति होती।
हालाँकि गठबंधन को लेकर कांग्रेस के रुख़ पर भी कई लोग सवाल उठाते हैं। तीन विधानसभा चुनावों में हार के बाद काँग्रेस ने अचानक विपक्ष की मीटिंग बुला ली थी, जिस पर ममता बनर्जी ने तीखी प्रतिक्रिया दी थी। (bbc.com)
-नलिन वर्मा
नीतीश कुमार रविवार को पाला बदलकर भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में शामिल हो गए।
उनके इस कदम से 2024 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़ा हो रहे इंडियन नेशनल डिवेलपमेंट इनक्लूसिव अलायंस (इंडिया) को तगड़ा झटका लगा है।
मुख्यमंत्री और उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के नेताओं के मुताबिक़ ‘इंडिया’ गठबंधन के आर्किटेक्ट नीतीश कुमार ही थे।
यह इसलिए भी महत्वूर्ण था कि उन्होंने दिल्ली और पश्चिम बंगाल में अपने समकक्ष अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी के साथ-साथ उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव से मुलाकात कर उन्हें कांग्रेस के साथ इस गठबंधन में शामिल किया।
नीतीश कुमार के पाला बदलने का समय
नीतीश कुमार का यह क़दम उस दिन सामने आया, जब एक दिन बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ बंगाल से लगे किशनगंज के रास्ते बिहार में प्रवेश कर रही है।
शायद बीजेपी के रणनीतिकारों ने एनडीए को और अधिक फायदा पहुंचाने के लिए नीतीश की एंट्री का दिन तय किया।
इससे उसे कई राज्यों में सीट बँटवारे में फँसे ‘इंडिया’ गठबंधन पर मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल होगी।
बीजेपी का अनुमान है कि अयोध्या में राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीसरी बार सत्ता में लौटने के लिए उत्तर भारत में उनके लिए जबरदस्त माहौल तैयार किया है।
बीजेपी ने अभी हाल ही में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान का विधानसभा चुनाव जीता है। इससे हिंदी भाषी राज्यों में उसकी ताकत बढ़ी है।
अगस्त 2022 में नीतीश कुमार के महागठबंधन में शामिल हो जाने से बीजेपी बिहार में असुरक्षित महसूस कर रही थी।
विधानसभा की 79 सीटों के साथ राष्ट्रीय जनता दल बिहार की सबसे बड़ी पार्टी है। इसके नेता लालू प्रसाद यादव सामाजिक न्याय की लड़ाई के सबसे बड़े योद्धा और हिंदुत्व विरोधी राजनीति के सबसे बड़े प्रतीक हैं।
हालांकि बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 2019 के लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 39 पर जीत दर्ज की थी।
लेकिन उसके रणनीतिकारों को इस बात का डर था कि नीतीश कुमार के महागठबंधन में रहते हुए वे शायद 2019 के चुनाव परिणाम को दोहरा न पाएं।
बिहार में कैसा प्रदर्शन करेगी बीजेपी?
क्या बीजेपी 2024 के लोकसभा चुनाव में 2019 के चुनाव परिणाम को दोहरा पाएगी? नीतीश के साथ आने से भाजपा के रणनीतिकार अब अपनी संभावनाओं को लेकर आशावादी हो सकते हैं।
लेकिन इस सवाल का असली जवाब जानने के लिए हमें तब तक इंतजार करना होगा, जब तक कि चुनाव परिणाम नहीं आ जाते हैं।
नीतीश कुमार की जेडीयू ने 2014 का लोकसभा चुनाव अकेले के दम पर लड़ा था। उसे करीब 15 फ़ीसदी वोट और दो सीटें मिली थीं। इसके बाद वो राजद और कांग्रेस के महागठबंधन में शामिल हो गए, जिसने भाजपा के 53 सीटों के मुकाबले 178 सीटों पर जीत दर्ज की।
नीतीश 2017 में महागठबंध को छोडक़र एनडीए में शामिल हो गए। साल 2019 के चुनाव में जेडीयू ने 17 सीटों पर चुनाव लडक़र 16 सीटें जीतीं और भाजपा ने 17 सीटें जीतीं।
साल 2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू को बड़ा घाटा हुआ। उसकी सीटें घटकर 42 रह गईं। 76 सीटें जीतने वाली भाजपा ने चुनाव पूर्व किए वादे के मुताबिक नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनवाया।
लेकिन चुनाव परिणाम साफ तौर पर मतदाताओं के बीच नीतीश की घटती लोकप्रियता को दिखा रहे थे।
उनकी पार्टी के नेताओं ने बीजेपी पर रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान को आगे कर जेडीयू की जीत की संभावनाओं को कम करने का आरोप लगाया।
उनका आरोप था कि चिराग की लोक जनशक्ति पार्टी ने जेडीयू के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा किए।
जेडीयू के बयान के मुताबिक़ लोजपा ने भले ही अधिक सीटें न जीती हों, लेकिन उसके उम्मीदवारों ने 32 सीटों पर उसके उम्मीदवारों को हराने के लिए पर्याप्त वोट काटे।
संभव है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले हिंदुत्व और विपक्षी दलों के कथित समावेशी राजनीति के बीच नीतीश कुमार की आवाजाही से अच्छे प्रशासक वाली उनकी छवि प्रभावित नहीं हुई होगी। इसके अलावा नीतीश कुमार भ्रष्टाचार और वंशवादी राजनीति के आरोपों से भी मुक्त हैं।
साल 2024 के लोकसभा चुनाव पर क्या असर पड़ेगा?
लेकिन बार-बार इधर-उधर करने से नीतीश कुमार की वैचारिक प्रतिबद्धता को नुकसान जरूर हुआ है। भाजपा के रणनीतिकार यह जरूर कह सकते हैं कि उन्होंने ‘इंडिया’ गठबंधन के पायलट को ही हटाकर, गठबंधन तोड़ दिया है।
नीतीश के पाला बदकर बीजेपी की ओर जाने का बिहार से बाहर बहुत कम प्रभाव पड़ेगा।
छह बार सांसद और लंबे समय तक केंद्र सरकार में मंत्री रहने के बाद भी नीतीश एक ऐसे राष्ट्रीय नेता के रूप में नहीं उभर पाए, जो दूसरे राज्यों की राजनीति को प्रभावित कर सके।
अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश, ममता बनर्जी को बंगाल और कांग्रेस को राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में बीजेपी के खिलाफ लड़ाई में नीतीश कुमार की बहुत कम जरूरत है।
राजद, कांग्रेस और वाम दलों के महागठबंधन की सरकार की ओर से बिहार में जाति सर्वेक्षण कराने, अति पिछड़ा वर्ग, अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति-जनजाति का आरक्षण 65 फीसदी तक बढ़ाने और युवाओं को करीब चार लाख नौकरियां देने की पृष्ठभूमि में नीतीश कुमार ने पाला बदला है।
साल 2020 के चुनाव में राजद नेता और लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव ने 10 लाख नौकरियां देने का वादा किया था।
उनकी पार्टी जाति आधारित जनगणना और हाशिए के समाज को आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी देने के लिए दवाब डाल रही थी। तेजस्वी यादव ने नौकरी देने का जो वादा किया था, महागठबंधन सरकार ने कम से कम उसे पूरा किया है।
इतने बड़े आधार पर नौकरियां देने और वंचित तबके का आरक्षण बढ़ाने का श्रेय तार्किक रूप से लालू प्रसाद यादव की राजद को ही जाता है।
ईसीबी, ओबीसी और एससी-एसटी का बढ़ा हुआ आरक्षण बीजेपी के आक्रामक हिंदुत्व के मुक़ाबले वंचित समाज और अल्पसंख्यकों को राजद के पीछे लामबंद कर सकता है।
राजद के साथ सीपीआई-एमएल भी है, जिसका बिहार के कुछ इलाकों के गऱीबों में अच्छा प्रभाव है। नीतीश कुमार के डिप्टी के रूप में तेजस्वी यादव ने अच्छा काम किया है। युवाओं में उन्होंने अच्छी साख भी कमाई है।
नीतीश कुमार ने क्यों बदला पाला?
पूर्व चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने नीतीश कुमार के साथ 2015 के विधानसभा चुनाव में काम किया था।
वो कहते हैं, ‘साल 2022 में नीतीश कुमार के पाला बदलकर महागठबंधन में शामिल होने का कारण जेडीयू थी, उन्हें डर था कि 45 विधायकों वाली उनकी पार्टी को बीजेपी तोड़ कर उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटा सकती है।’
‘वह मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी बचाने के लिए महागठबंधन में शामिल हुए थे। अब मुख्यमंत्री बने रहने के लिए बीजेपी के साथ गए हैं। लेकिन यह कोई नहीं जानता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद वो क्या करेंगे। नीतीश ख़ुद नहीं जानते हैं कि वो क्या करेंगे। वह वही करेंगे जो उस समय उन्हें अच्छा लगेगा।’
जेडीयू ने ‘इंडिया’ गठबंधन से नीतीश के अलग होने का दोष कांग्रेस पर मढ़ दिया है।
जेडीयू के मुख्य प्रवक्ता केसी त्यागी ने कहा, ‘हमारे नेता (नीतीश) ने ‘इंडिया’ गठबंधन को बनाने के लिए कठिन परिश्रम किया। वो इसमें कांग्रेस के साथ ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल को लेकर आए, लेकिन कांग्रेस हमेशा घमंड में रही।’
‘उसने अपनी मज़बूत पकड़ वाले क्षेत्रों में क्षेत्रीय दलों को जगह नहीं दी, लेकिन उनकी बदलौत वह उन क्षेत्रों में बढ़त बनाना चाहती थी, जहाँ उसका अस्तित्व नहीं है। कांग्रेस की जि़द ने नीतीश को उसे छोडऩे पर मजबूर किया।’
हालांकि नीतीश कुमार ने इस बात से हमेशा इनकार किया कि वो ‘इंडिया’ गठबंधन का संयोजक या प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनना चाहते हैं। लेकिन जेडीयू के नेता चाहते थे कि ‘इंडिया’ गठबंधन उन्हें अपना संयोजक या प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए।
इस बात की चर्चा थी कि ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल ने मुंबई में हुई ‘इंडिया’ की बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के नाम का प्रस्ताव प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में किया था और ये दोनों नेता नीतीश कुमार को ‘इंडिया’ का संयोजक बनाए जाने के ख़िलाफ़ थे।
अभी हाल में हुई ‘इंडिया’ गठबंधन की ऑनलाइन बैठक में माकपा महासचिव सीताराम येचुरी ने नीतीश का नाम संयोजक के रूप में प्रस्तावित किया था।
उनके इस प्रस्ताव का कांग्रेस और राजद समेत अन्य दलों ने समर्थन किया था। लेकिन नीतीश ने यह जि़म्मेदारी लेने से इंकार कर दिया था। बैठक में ममता बनर्जी शामिल नहीं हुई थीं।
कई दलों को ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल कराने के प्रयासों के बाद भी नीतीश शायद पाला बदल राजनीति की वजह से गठबंधन के संयोजक के रूप में स्वीकार किए जाने के लिए राजनीतिक दलों का विश्वास नहीं जीत पाए थे। वे विश्वास की कमी से पीडि़त थे। (bbc.com/hindi)
(नलिन वर्मा वरिष्ठ पत्रकार, मीडिया शिक्षक और लोककथाओं के स्वतंत्र शोधार्थी हैं)
-गोकुल सोनी
छुरा से कोमाखान की ओर जाते हुए कल मैंने चरोदा गांव में यह दृश्य देखा। राजस्थान से आए ये लोहार परिवार बरसात को छोडक़र शेष समय छतीसगढ़ में ही बिताते हैं।
राजस्थान में इन्हें लोहपीट्टा कहा जाता है। खुले आसमान के नीचे कोयले की भट्ठी जलाकर लोहार लोहे को गर्म कर रहा था। गर्म होने पर लोहे को वह ‘निहई’ पर रखता था। लोहार की पत्नी उस लोहे पर घन से प्रहार करती थी। लोहे को आकार देने के लिए लोहार गर्म लोहे को संसी की मदद से निहई के ऊपर घुमाता था। धीरे-धीरे साधारण लोहा कुदाली, कुल्हाड़ी, हंसिया का आकार ले रहा था। इनकी तस्वीर लेकर मैं आगे बढ़ गया। कार में बैठे-बैठे मुझे लोहा और उससे जुड़ी बातें याद आ रही थी।
करीब 50 साल पहले अपने स्कूल की पाठ्यपुस्तक बाल भारती में एक कविता थी। उस कविता के माध्यम से समाज में अलग-अलग तरह के काम करने वालों को इंगित किया गया था। उसमें लोहारों के लिए एक पंक्ति थी-
वह लोहे को लाल तपाकर कौन पीटता घन दिन-रात।
इसी तरह सोशल मीडिया के स्टार खान सर कहते हैं कि इंसान को कभी क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोधी व्यक्ति अपनी शक्ति खो देता है। वे कहते हैं कि लोहा बहुत सख्त होता है लेकिन उसे जब आग में गर्म किया जाता है यानी गुस्सा दिलाया जाता है तो वह अपनी शक्ति खो देता है और तब लोहार उसे मोड़ देता है या झुका देता है।
हरिवंशराय बच्चन जी कहते हैं कि गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
वे कहते हैं कि जब लोहा गर्म हो तभी उस पर वार करो। अर्थात परिस्थितियां जब अनुकूल हो तब किसी कठिन काम को कर लो।
बात जब लोहा और कवियों की हो रही है तो महान क्रांतिकारी कवि पाश को भी सुन लीजिए। वे कहते हैं-आप लोहे की बात करते हैं, मैंने लोहा खाया है।
उन्हीं के तेवर के प्रसिद्ध कवि धूमिल को भी पढ़ लीजिए। उन्होंने लिखा है- लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है।
वैसे लोहे की खोज के बाद मानव सभ्यता का बहुत तेजी से विकास हुआ है। आज भी हम उसी लोहे के कल-पुर्जों के सहारे इक्कीसवीं सदी को पार करने जा रहे हैं।
भारत में आधिकारिक रूप से यह जानकारी दी गई है कि देश भर में करीब 25 करोड़ लोगों को बहुआयामी गरीबी से बाहर निकाला गया है। हालांकि, विशेषज्ञों ने इन आंकड़ों पर कई तरह के संदेह जताए हैं।
डॉयचे वैले पर मुरली कृष्णन का लिखा-
कागज पर, भारत के पास जश्न मनाने के लिए बहुत कुछ है। सरकारी थिंक टैंक नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले नौ वर्षों में देश में रहने वाले लगभग 24.8 करोड़ लोग ‘बहुआयामी गरीबी’ से बाहर आ गए।
रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले नौ वर्षों में बहुआयामी गरीबी में 18 फीसद की गिरावट आई है और इस स्थिति में रहने वाले लोगों की संख्या 29 फीसद से घटकर 11 फीसद हो गई है।
आंकड़े दिखाते हैं कि बहुआयामी गरीबी को एक फीसद से कम करने के सरकार के लक्ष्य की दिशा में काफी प्रगति हुई है, लेकिन कुछ अर्थशास्त्रियों ने इन दावों के पीछे बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) के उपयोग पर कुछ गंभीर संदेह उठाए हैं और कहा है कि रिपोर्ट में जो बातें कही गई हैं वो वास्तव में गरीबी की पूरी तस्वीर पेश नहीं करतीं।
यूनिवर्सिटी ऑफ बाथ के सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज में विकास अर्थशास्त्र के विजिटिंग प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा कहते हैं कि ‘इन आंकड़ों की गणना का तरीका यानी कार्यप्रणाली संदिग्ध है।’
गरीबी का सही आंकलन
बहुआयामी गरीबी स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर पर आधारित है, जिनमें से प्रत्येक को समान महत्व दिया जाता है। इन तीनों श्रेणियों को 12 संकेतकों में विभाजित किया गया है।
भारत में प्रत्येक परिवार को 12 मापदंडों के आधार पर एक अंक दिया जाता है और यदि किसी परिवार का अभाव स्कोर 33 फीसद से ज्यादा है तो उसे बहुआयामी रूप से गरीब के रूप में पहचाना जाता है।
एमपीआई को अल्किरे-फोस्टर विधि भी कहा जाता है। इसे गरीबी के स्तर और गरीबी की तीव्रता को मापने के लिए ऑक्सफोर्ड गरीबी और मानव विकास पहल द्वारा विकसित किया गया था।
भारत ने अपने राष्ट्रीय एमपीआई में दो नए पैरामीटर्स- मातृ स्वास्थ्य और बैंक खाते भी जोड़े हैं। कुछ अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि रिपोर्ट के निष्कर्षों में गरीबी पर कोविड के विनाशकारी प्रभावों को नजरअंदाज कर दिया गया है। जबकि दूसरे विशेषज्ञों का कहना है कि इस विधि में वैश्विक स्तर पर गरीबी का आकलन करने की पारंपरिक विधि का पालन नहीं किया गया है, जिसमें उपभोग गरीबी रेखा के नीचे की आबादी की संख्या और हिस्सेदारी महत्वपूर्ण होती है।
‘उपयुक्त आंकड़ों का अभाव’
मेहरोत्रा कहते हैं कि साल 2014 और 2022 के बीच उपभोग व्यय सर्वेक्षण की अनुपस्थिति के बावजूद, भारत में गरीबी संकेतक के रूप में राष्ट्रीय एमपीआई का उपयोग करना, राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है।
मेहरोत्रा के मुताबिक, ‘वास्तविक मजदूरी छह साल से स्थिर थी जिसका उपभोग मांगों पर गंभीर प्रभाव पड़ा। जाहिर है, गरीबी के स्तर में जो गिरावट दिखाई जा रही है, ये उसके अनुरूप नहीं हो सकती। क्या आकलन की प्रक्रिया और उसके परिणाम बारीकी से जांच करने लायक हैं? क्या एमपीआई गरीबी की पूरी तस्वीर खींचने में सक्षम है?’
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर और अध्यक्ष लेखा चक्रवर्ती का कहना है कि किसी भी समग्र सूचकांक की सीमाएं होती हैं क्योंकि यह प्रभावित करने वाले कारकों की विशिष्ट पसंद के साथ-साथ उपयोग की जाने वाली पद्धति के आधार पर अत्यधिक विषम होती हैं।
डीडब्ल्यू से बातचीत में लेखा चक्रवर्ती कहती हैं, ‘यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा हर साल बनाया जाने वाला मानव विकास सूचकांक भी वैचारिक रूप से और प्रणाली के स्तर पर आलोचनाओं से मुक्त नहीं है क्योंकि यह केवल चयनित तीन संकेतकों और प्रत्येक वैरियेबल को महत्व देने के तरीके पर आधारित है।’
उनके मुताबिक, आंकड़ों के दबाव कई बार ऐसे समग्र संकेतकों के सार्थक निर्माण को विफल कर देते हैं और अर्थशास्त्री हमेशा ‘प्रॉक्सी वेरिएबल्स’ का उपयोग करते हैं यानी डेटा को ‘एक्सट्रापोलेट’ करते हैं। वो कहती हैं, ‘गरीबी गतिशील है। बिल्कुल उसी तरह जैसे किसी गतिशील लक्ष्य का पीछा करना। नीतिगत निर्णयों के लिए एमपीआई का उपयोग करना बहुत ज्यादा विवादास्पद होगा।’
गरीबी आंकलन से जुड़े विवाद
नीति आयोग की रिपोर्ट यह भी दावा करती है कि विभिन्न सरकारी प्रयासों और कल्याणकारी योजनाओं ने विभिन्न प्रकार के अभाव को कम करने में प्रमुख भूमिका निभाई है।
दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे अरुण कुमार ने डीडब्ल्यू को बताया कि सरकार की रिपोर्ट की दोबारा व्याख्या की जरूरत है।
देश भर में परिवारों के प्रतिनिधि नमूने में बड़े पैमाने पर बहु स्तरीय सर्वेक्षण का जिक्र करते हुए अरुण कुमार कहते हैं, ‘कुछ खामियां हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा संकेतक जिनका एमपीआई में सबसे ज्यादा योगदान है, उन पर कोविड के दौरान यानी 2020-21 में सबसे ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
2019-21 के पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के डेटा का उपयोग करने से सर्वेक्षण के आधार पर अभाव सूचकांक में काफी त्रुटियां हुई होंगी, जिससे नीति आयोग की रिपोर्ट के निष्कर्ष संदेह के घेरे में आ गए हैं।’
भारत में गरीबी के अनुमान को लेकर विवाद नए नहीं हैं और पहले भी अनुमान और अपनाई गई पद्धतियों को लेकर इन पर बहस होती रही है।
क्या कहता है भुखमरी सूचकांक
किसी देश की आर्थिक प्रगति का आकलन करने के लिए गरीबी के आंकड़े महत्वपूर्ण हैं और सरकार को गरीबी उन्मूलन के लिए लोगों को भोजन उपलब्ध कराने के मकसद से सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसी योजनाओं के लाभार्थियों की संख्या का अनुमान लगाने के लिए भी इन आंकड़ों की जरूरत होती है।
विश्व बैंक ने अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा को 2017 की क्रय शक्ति समानता (पीपीपी) के आधार पर परिभाषित किया है। इस आधार पर गरीबी रेखा को 2.15 डॉलर प्रति दिन के रूप में तय किया गया है। पीपीपी विभिन्न देशों में विशिष्ट वस्तुओं की कीमत का एक माप है और इसका उपयोग विभिन्न देशों की मुद्राओं की पूर्ण क्रय शक्ति की तुलना करने के लिए किया जाता है।
पिछले साल अक्तूबर में, ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) 2023 में भारत कुल 125 देशों में से 111वें स्थान पर था। साल 2015 के बाद से भूख के खिलाफ इसकी प्रगति लगभग रुकी हुई थी, जो एक वैश्विक प्रवृत्ति को दर्शाता है।
जीएचआई चार घटक संकेतकों पर विभिन्न देशों के प्रदर्शन को मापता है- अल्पपोषण, बच्चों में वेस्टिंग, स्टंटिंग और बाल मृत्यु दर। हालांकि, सरकार ने त्रुटिपूर्ण कार्यप्रणाली का हवाला देते हुए इस सूचकांक में भारत के प्रदर्शन का विरोध किया था। जारी सूचकांक में भारत का स्कोर 28,7 है, जो भुखमरी के गंभीर स्तर को दर्शाता है। (dw.com)
जर्मनी के लिए 27 जनवरी एक अहम तारीख है. यह दिन 'होलोकॉस्ट स्मृति दिवस' के तौर पर मनाया जाता है. होलोकॉस्ट मानव इतिहास का एक जघन्य अध्याय है, जब 1933 से 1945 के बीच नाजी शासन में लाखों यहूदी कत्ल कर दिए गए.
डॉयचे वैले पर स्वाति मिश्रा का लिखा-
‘होलोकॉस्ट स्मृति दिवस’ के लिए 27 जनवरी की तारीख चुने जाने का संदर्भ आउशवित्स यातना शिविर से जुड़ा है। यह यातना शिविर नाजी जर्मनी के कब्जे वाले पोलैंड में था। 27 जनवरी 1945 को सोवियत संघ की सेना ने आउशवित्स को आजाद कराया था। साल 2005 में संयुक्त राष्ट्र ने होलोकॉस्ट के शिकार हुए 60 लाख यहूदियों की याद और नाजियों द्वारा सताये गए अन्य पीडि़तों के सम्मान में अंतरराष्ट्रीय होलोकॉस्ट स्मृति दिवस के लिए 27 जनवरी की तारीख चुनी।
क्या है आउशवित्स का इतिहास?
दूसरे विश्व युद्ध के समय आउशवित्स, दक्षिणी पोलैंड का एक छोटा सा शहर था। सितंबर 1939 में दूसरा विश्व युद्ध शुरू होने के बाद जल्द ही नाजी जर्मनी की सेना ने यहां कब्जा कर लिया और इसे थर्ड राइष में मिला लिया गया। 1940 में सबसे क्रूर नाजी नेताओं में से एक हाइनरिष हिमलर के नेतृत्व में नाजी सेना ने यहां एक यातना शिविर बनाया। यह जगह हत्या के कारखाने जैसी थी। यहां लाए जाने वाले नए लोगों में से करीब 80 फीसदी को बतौर कैदी रजिस्टर तक नहीं किया जाता था, बल्कि लाए जाने के साथ ही सीधे गैस चैंबरों में भेज दिया जाता था।
अनुमान है कि आउशवित्स में करीब 11 लाख लोगों की हत्या की गई। इनमें लगभग 90 फीसदी यहूदी थे, जो मुख्य रूप से हंगरी, पोलैंड, इटली, बेल्जियम, फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, नीदरलैंड, ग्रीस, सोवियत संघ और क्रोएशिया से थे। यहूदियों के अलावा नाजियों की क्रूरता का शिकार बने समूहों में रोमा और सिंती, समलैंगिक, कैथोलिक, यहोवा विटनेस, विकलांग और राजनैतिक विरोधी शामिल थे। 1947 में इसे स्मारक स्थल बना दिया गया।
होलोकॉस्ट क्या है?
1945 में दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद जब नाजी जर्मनी की क्रूरताओं के ब्योरे सामने आए, यातना शिविरों में औद्योगिक स्तर पर की गई जघन्य हत्याओं का विस्तार पता चला, तो दुनिया सन्न रह गई। तब से ही नाजी जर्मनी के शासन में यूरोपीय यहूदियों की हत्याओं के लिए बतौर अभिव्यक्ति ‘होलोकॉस्ट’ एक पर्याय बन गया।
1933 में नाजियों के सत्ता में आने के बाद से ही यहूदी समेत कई अन्य समूहों के साथ भेदभाव शुरू हो गया था। उन्हें सताने की एक सुनियोजित और विस्तृत कवायद शुरू हुई। यहूदियों को ‘कमतर नस्ल’ बताकर कलंकित किया गया। उनसे संपत्ति का अधिकार छीन लिया गया। उन्हें ‘चिह्नित’ और अपमानित किया गया। उन्हें अलग-थलग कर घेटो में रहने के लिएमजबूर किया गया। लाखों यहूदी यातना शिविरों में कत्ल कर दिए गए। ये नरसंहार और व्यवस्थागत नृशंसता होलोकॉस्ट इतिहास का हिस्सा है।
‘नेवर फॉरगेट, नेवर अगेन’
नाजी शासन के दौरान यूरोपीय यहूदियों के साथ हुई नृशंसताओं को याद करना जर्मनी की स्मरण संस्कृति का एक अहम हिस्सा है। अक्सर इसकी अभिव्यक्ति के लिए ‘नेवर फॉरगेट, नेवर अगेन’ शब्द इस्तेमाल किया जाता है। यानी, नाजियों के अपराध और उनकी क्रूरता का इतिहास ना तो कभी भुलाया जाए और ना ही फिर कभी दोहराया जा सके।
असल में इस इतिहास का सबक आधुनिक जर्मनी को आधार देता है। जर्मनी मानता है कि एक देश और समाज के तौर पर होलोकॉस्ट की याद को जिंदा रखना और इस अतीत से सबक लेना उसका कर्तव्य है। जर्मनी के सभी राज्यों में नाजी इतिहास और होलोकॉस्ट, पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा हैं।
स्टाट्सरेजॉं: देश का विवेक
यह इतिहास जर्मनी की विदेश नीति का भी एक अहम हिस्सा है। यहूदियों की सुरक्षा को जर्मनी अपनी एक खास ऐतिहासिक जिम्मेदारी मानता है। इसी ऐतिहासिक भूमिका के मद्देनजर इस्राएल की सुरक्षा को जर्मनी अपना ‘स्टाट्सरेजॉं’ कहता है, यानी देश का विवेक। पूर्व जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल ने 2008 में इस्राएली संसद को संबोधित करते हुए इस शब्द का इस्तेमाल किया था।
जर्मनी में कई स्मारक और संग्रहालय हैं, जो नाजियों के अपराध के शिकार हुए समूहों को समर्पित हैं। इनके अलावा नाजी शासन के शिकार बने लोगों को श्रद्धांजलि देते हुए जर्मनी समेत कई अन्य यूरोपीय देशों में फुटपाथ पर पीतल की पट्टियां भी लगी हैं। जर्मन भाषा में ‘श्टोल्परश्टाइन’ कही जाने वाली इन पट्टियों की संख्या 90,000 से ज्यादा है।
स्मृति दिवस की शुरुआत साल 1996 में हुई, जब तत्कालीन राष्ट्रपति रोमान हैरत्सोग ने 27 जनवरी को नाजी यातना के पीडि़तों की याद में समर्पित किया। स्मृति की इस परंपरा का मकसद नाजी अपराधों के इतिहास से सबक लेना है। इस रोज जर्मनी में कई खास कार्यक्रम होते हैं, ताकि नाजियों के अपराध की याददाश्त बनी रहे। यातनाओं की आपबीतियों से आने वाली पीढिय़ां भी वाकिफ रहें और लोगों की चेतना को आकार देती रहें।
क्यों जरूरी है याद रखना, याद दिलाना
होलोकॉस्ट का दौर बीते लंबा वक्त हो गया है। उन क्रूरताओं के चश्मदीद, ऐसे लोग जिन पर होलोकॉस्ट गुजरी है, वो अकल्पनीय यातनाएं जिनकी आपबीतियों का वे हिस्सा हैं, वो हमेशा दुनिया में नहीं रहेंगे। बीते दिनों ‘ज्यूइश क्लेम्स कॉन्फ्रेंस’ ने एक रिपोर्ट जारी की। इसमें बताया गया कि 1941 से 1945 के बीच नाजी शासन के दौरान हुए नरसंहार और अत्याचारों से बचे करीब 245,000 लोग अब भी दुनिया में हैं।
इनमें लगभग 14,000 जर्मनी में रहते हैं। सर्वाइवर्स की औसत उम्र 86 साल है। इनमें से 95 फीसदी ‘चाइल्ड सर्वाइवर’ की श्रेणी में हैं, जो दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के समय औसतन सात साल के थे। 1933 में जब हिटलर ने जर्मनी में सत्ता संभाली, तब देश में रह रहे यहूदियों की संख्या लगभग 560,000 थी।
1945 में जब विश्व युद्ध खत्म हुआ, तब जर्मनी में केवल 15,000 यहूदी बचे थे।
ज्यूइश क्लेम्स कॉन्फ्रेंस ने कहा कि होलोकॉस्ट से जिंदा बचे 5।8 फीसदी लोगों ने जर्मनी को अपना घर बनाया, यह तथ्य ‘जर्मन लोकतंत्र की स्थिरता का एक संकेत था, जिसकी हमें हिफाजत करनी चाहिए और सहेजना चाहिए।’ कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष गिडियन टेलर ने कहा, ‘ज्यादातर सर्वाइवर उम्र के ऐसे दौर में पहुंच गए हैं, जहां उन्हें ज्यादा मदद और देखभाल की जरूरत है। यह वक्त है कि हम ऐसे लोगों पर पहले से दोगुना ज्यादा ध्यान दें, जिनकी संख्या नाटकीय रूप से कम हो रही है। उन्हें अब हमारी सबसे ज्यादा जरूरत है।’
कॉन्फ्रेंस के उपाध्यक्ष ग्रेग श्नाइडर का कहना है, ‘ये ऐसे यहूदी थे, जो उस दुनिया में पैदा हुए जो उन्हें कत्ल होते हुए देखना चाहता था। उन्होंने अपने बचपन में होलोकॉस्ट की क्रूरताएं झेलीं। उन्हें उन यातना शिविरों और घेटो की राख से अपनी आगे की पूरी जिंदगी नए सिरे से बनानी पड़ी, जिसने उनके परिवारों और समुदायों को खत्म कर दिया था।’
दशकों बाद जर्मनी में यहूदी विरोधी भावना फिर से बढ़ रही है। 7 अक्टूबर को इस्राएल पर हमास के हमले और गाजा में शुरू हुए संघर्ष के बाद से जर्मनी में यहूदियों को निशाना बनाने वाले अपराधों की संख्या बढ़ी है। 7 अक्टूबर के बाद से अब तक ऐसी 1,200 से ज्यादा घटनाएं हुई हैं। दूसरी ओर यहूदियों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए कई शहरों में प्रदर्शन भी हुए हैं। (dw.com)
-सौतिक बिस्वास
बीते सप्ताह की एक सुबह सैंकड़ों की संख्या में युवा देश के उत्तरी राज्य हरियाणा में एक यूनिवर्सिटी कैंपस के सामने एकत्र हुए।
कड़ाके की ठंड में ख़ुद को गर्म कपड़ों और कंबल में लपेटे ये युवा भारत के बाहर नौकरी करने की तलाश में यहाँ जमा हुए थे। ये युवा अपने घर से दोपहर का खाना लेकर निकले थे, जो उनकी पीठ पर मौजूद बैकपैक में रखा था। ये सभी युवा भारत से दूर इसराइल में प्लास्टरिंग, स्टील फिक्सिंग या टाइल लगाने जैसे कंस्ट्रक्शन के काम के लिए प्रैक्टिकल परीक्षा देने के लिए आए थे।
युनिवर्सिटी से अपनी शिक्षा पूरी कर चुके रंजीत कुमार एक योग्यता प्राप्त टीचर हैं लेकिन अब तक उन्हें कोई पक्की नौकरी नहीं मिल सकी। उन्होंने कभी पेन्टर, तो कभी स्टील फिक्सर, कभी मज़दूर, कभी गाडिय़ों के वर्कशॉप में बतौर तकनीशियन तो कभी ग़ैर-सरकारी संगठन में बतौर सर्वेयर काम किया है। उनके लिए ये ऐसा मौक़ा है, जिसे वो हाथ से जाने नहीं दे सकते।
31 साल के रंजीत कुमार के पास दो-दो डिग्रियां हैं और वो ‘डीज़ल मकैनिक’ के तौर पर काम करने के लिए सरकार की तरफ़ से कराए जाने वाले ‘ट्रेड टेस्ट’ को पास कर चुके हैं, लेकिन वो रोज़ का 700 रुपये से अधिक कभी कमा नहीं सके हैं।
वहीं इसके मुक़ाबले इसराइल में नौकरी करने पर उन्हें हर महीने 1,37,000 रुपये की (1,648 डॉलर) तनख़्वाह के साथ-साथ रहने का ठिकाना भी मिलेगा और मेडिकल सुविधाएं मिलेंगी।
रंजीत कुमार का पासपोर्ट बीते साल ही बना है। सात सदस्यों वाले अपने परिवार की आर्थिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए के वो इसराइल जाकर स्टील फिक्सर के तौर पर नौकरी करने के लिए तैयार हैं। वो कहते हैं, ‘यहां पर कोई सुरक्षित नौकरी नहीं है। चीज़ों की क़ीमतें बढ़ रही हैं। नौ साल पहले मैंने ग्रैजुएशन की पढ़ाई ख़त्म की थी लेकिन अब तक आर्थिक तौर पर स्थायित्व नहीं हासिल कर सका हूं।’
रोजग़ार की कमी से परेशान हैं युवा
अधिकारियों के हवाले से मिल रही ख़बरों के अनुसार, इसराइल चीन और भारत से कऱीब 70 हज़ार युवाओं को अपने यहां कंस्ट्रक्शन सेक्टर में नौकरी देना चाहता है।
बीते साल सात अक्तूबर को हुए हमास के हमले के बाद से ये सेक्टर बुरी तरह प्रभावित हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार, इसराइल ने अपने यहां आकर काम करने वाले फ़लस्तीनियों पर पाबंदी लगा दी है, जिससे वहां कामग़ारों की भारी कमी हो गई है। हमास के हमले से पहले तक कऱीब 80,000 फ़लस्तीनी इस सेक्टर में काम कर रहे थे।
कहा जा रहा है कि भारत से कऱीब 10,000 कामग़ारों को नौकरी पर रखा जाने वाला है। इसके लिए हरियाणा और उत्तर प्रदेश में युवाओं से नौकरी की दरख़्वास्त ली जा रही है।
हरियाणा के रोहतक शहर में मौजूद महर्षि दयानंद युनिवर्सिटी में इसके लिए टेस्ट का आयोजन किया गया था, जिसमें देश भर से कई हज़ार युवा शामिल हुए। (दिल्ली में मौजूद इसराइली दूतावास ने इस मामले पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया है।)
इस रेस में रंजीत कुमार अकेले नहीं है, उनके साथ कतार में लगकर अपनी बारी का इंतज़ार करने वाले हज़ारों युवा भारत के विशाल और अस्थायी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं, जहाँ उन्हें बिना औपचारिक कॉन्ट्रैक्ट और सुविधाओं के काम करना पड़ता है।
रंजीत की ही तरह इनमें से कइयों के पास कॉलेज की डिग्री है लेकिन वो अपने लिए एक स्थायी नौकरी का इंतज़ार कर रहे हैं। इनमें से अधिकतर युवा कंस्ट्रक्शन सेक्टर में रोजग़ार जैसे अनौपचारिक काम कर रहे हैं, जिसमें उन्हें महीने में 15-20 दिनों के काम के बदले 700 रुपये मिलते हैं। हर युवा अपने साथ अपना रेज़्यूमे लेकर आए हैं। इनमें से एक युवा ने हमें बताया कि ‘मैं अपनी टीम के साथ तालमेल बैठाकर काम करता हूं।’
‘नोटबंदी और कोरोना महामारी की दोहरी मार’
इनमें से कई युवा अपनी कमाई बढ़ाने के लिए एक वक़्त में दो या दो से ज़्यादा काम करते हैं।
कई अपनी आर्थिक परेशानियों के लिए साल 2016 में मोदी सरकार की लगाई नोटबंदी और फिर 2020 में कोरोना महामारी को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन को जि़म्मेदार मानते हैं।
कई युवा सरकारी परीक्षाओं में प्रश्नपत्र लीक होने की भी शिकायत करते हैं। कई कहते हैं कि उन्होंने अवैध तरीके से अमेरिका या कनाडा जाने के लिए एजेंटों को पैसे देने की कोशिश भी की, लेकिन इसके लिए पैसे जमा नहीं कर पाए। वो कहते हैं कि इन सभी वजहों से वो विदेश जाकर कोई सुरक्षित और अधिक कमाई वाली नौकरी करना चाहते हैं और इसके लिए ‘वार ज़ोन में भी काम करने को तैयार हैं।’
संजय वर्मा ने साल 2014 में ग्रैजुएशन किया जिसके बाद उन्होंने टेक्नीकल एजुकेशन में डिप्लोमा किया। बीते छह सालों से वो पुलिस, अर्धसैनिक बल और रेलवे में सरकारी नौकरी के लिए कोशिशें कर रहे हैं और दर्जनों परीक्षाएं दे चुके हैं। वो कहते हैं, ‘नौकरियां कम हैं और मांग उससे 20 गुना अधिक।’ वो कहते हैं कि 2017 में एक एजेंट ने उन्हें इटली में खेत में काम करने के लिए 600 यूरो प्रति महीने की नौकरी का वादा किया था, लेकिन इसके लिए वो 1,40,000 रुपये की व्यवस्था नहीं कर पाए।
नोटबंदी और कोरोना लॉकडाउन की तरफ इशारा करते हुए प्रभात सिंह चौहान कहते हैं कि अर्थव्यवस्था को एक के बाद एक दो झटके लगे और उनकी माली हालत अस्थिर हो गई।
35 साल के प्रभात राजस्थान से हैं और इमर्जेंसी एंबुलेंस चलाने वाले ड्राइवर के रूप में काम करते हैं। रोज़ाना 12 घंटों के काम के लिए उन्हें 8,000 रुपये प्रतिमाह मिलते हैं।
वो कहते हैं कि उन्होंने अपने गांव में कंस्ट्रक्शन से जुड़े ठेके लेने शुरू किए और किराए पर चलाने के लिए छह कार खरीदीं।
कई अन्य युवाओं की तरह प्रभात सिंह ने भी हाई स्कूल ख़त्म करने के बाद से ही कमाई के ज़रिए तलाशने शुरू कर दिए। उन्होंने स्कूल में अख़बार बेचे और महीने में 300 रुपये तक की कमाई की। अपनी मां की मौत के बाद उन्होंने कपड़ों की एक दुकान में काम किया। जब उन्हें कोई स्थायी नौकरी नहीं मिली तो उन्होंने मोबाइल रिपेयरिंग की पढ़ाई की। वो कहते हैं ‘इससे कुछ ज़्यादा फ़ायदा नहीं हुआ।’
कऱीब पांच से सात तक उनके नसीब ने उनका साथ दिया और उन्होंने अच्छी कमाई की। एक तरफ वो खुद एंबुलेंस चलाते थे और गांव में कंस्ट्रक्शन का काम ठेके पर लेते थे तो दूसरी तरफ़ उनकी टैक्सियां किराए पर चल रही थीं। लेकिन 2016 से पहले ये सिलसिला भी ख़त्म हो गया। वो कहते हैं, ‘2020 के लॉकडाउन ने मुझे तबाह कर दिया। मुझे अपनी कारें बेचनी पड़ी क्योंकि मैं उनकी किस्त नहीं दे पाया। अब मैं एक बार फिर एंबुलेंस चला रहा हूं और गांव में ठेके पर काम ले रहा हूं।’
‘युद्ध से डर नहीं लगता’
हरियाणा के रहने वाले 40 साल के राम अवतार टाइल लगाने के काम करते हैं। उनहें इसका 20 साल का तजुर्बा है। वो लगातार बढ़ रही महंगाई के बीच कमाई में उस तरह से इज़ाफा न होने से परेशान हैं। वो कहते हैं कि उनके लिए बच्चों की पढ़ाई पूरी करवा पाना बड़ी चुनौती बन गया है। उनकी बेटी विज्ञान में ग्रैजुएशन कर रही है जबकि बेटा चार्टर्ड अकाउंटेन्ट बनना चाहता है।
उन्होंने दुबई, इटली, कनाडा जैसे मुल्कों में काम करने के मौक़े तलाश किए लेकिन इसके लिए एजेंट बड़ी फीस मांगते हैं जो दे पाना उनके लिए असंभव है। वो कहते हैं खाना और रोज़मर्रा की ज़रूरतों के साथ-साथ घर का किराया और कोचिंग का खर्च जुटाना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है। वो कहते हैं, ‘हम जानते हैं कि इसराइल में युद्ध चल रहा है। मैं मौत से नहीं डरता। हम यहां भी मर सकते हैं।’
इन सबके बीच हर्ष जाट जैसे उम्मीदों से भरे कुछ युवा भी हैं। 28 साल के हर्ष ने 2018 में ह्यूमैनिटीज़ में डिग्री हासिल की थी। शुरुआत में उन्होंने एक मकैनिक के तौर पर कार फैक्ट्री में काम किया जिसके बाद दो साल तक वो पुलिस गाड़ी में ड्राइवर के तौर पर काम करते रहे। वो कहते हैं ‘नशे में डूबे लोगों के इमर्जेंसी फ़ोन लाइन के इस्तेमाल से’ वो थक गए और उन्होंने ये नौकरी छोड़ दी।
इसके बाद हर्ष ने गुडग़ांव के संपन्न इलाक़े में एक पब में बतौर बाउंसर काम किया, जहां उन्हें हर महीने 40,000 रुपये मिलते थे। वो कहते हैं, ‘इस तरह के काम में वो दो साल बाद आपको निकाल फेंकते हैं और ये नौकरियां सुरक्षित नहीं हैं।’
अब हर्ष जाट बेरोजग़ार हैं अपने परिवार के आठ एकड़ की ज़मीन पर खेती का काम करते हैं। वो कहते हैं ‘आज के वक्त में खेती का काम कोई नहीं करना चाहता।’ वो कहते हैं उन्होंने क्लर्क और पुलिसकर्मी जैसी सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन किया लेकिन उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली। वो बताते हैं कि उनके गांव के कुछ युवाओं ने अवैध तरीक़े से अमेरिका और कनाडा जाने के लिए एजेंटों को 60 लाख रुपये तक दिए हैं। ये लोग अब विदेश से भारत में अपने घर पैसे भेज रहे हैं और महंगी गाडिय़ां खरीदने में उनकी मदद कर रहे हैं।
हर्ष कहते हैं, ‘मैं भी विदेश जाना चाहता हूं और अच्छी कमाई वाली नौकरी करना चाहता हूं। मैं नहीं चाहता कि कल को मेरे बच्चे मुझसे ये सवाल करें कि हमारे पड़ोसियों के पास जब अच्छी गाडिय़ां और एसयूवी हैं तो हमारे पास क्यों नहीं है?
वो कहते हैं, ‘मैं युद्ध ने नहीं डरता।’
भारत में रोजग़ार की तस्वीर
भारत में रोजग़ार के अवसर को लेकर तस्वीर मिलीजुली दिखती है। पीरियॉडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे (पीएलएफ़एस) में बरोजग़ारी को लेकर जो आंकड़े दिए गए हैं वो बेरोजग़ारी में कमी दिखाते हैं। जहां साल 2017-18 में बोरोजग़ारी दर 6 फ़ीसदी थी, वहीं 2021-22 में 4 फ़ीसदी थी।
डेवेलपमेन्ट इकोनॉमिस्ट और बाथ यूनिवर्सिटी में विजि़टिंग प्रोफ़ेसर संतोष महरोत्रा कहते हैं कि ??अवैतनिक काम को भी सरकारी डेटा में शामिल करने की वजह से ऐसा दिखता है। वो कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि नौकरियां नहीं आ रही हैं। मामला ये है कि एक तरफ औपचारिक सेक्टर में नौकरियां बढ़ नहीं रहीं तो दूसरी तरफ नौकरी की तलाश कर रहे युवाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है।’
अज़ीम प्रेमजी युनिवर्सिटी की स्टेट ऑफ़ वर्किंग इंडिया की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार बेरोजग़ारी कम तो हो रही है लेकिन ये अभी भी काफी ज़्यादा है।
इस रिपोर्ट के अनुसार 1980 के दशक में आए ठहराव के बाद 2004 में अर्थव्यवस्था में रेगुलर वेतन या वेतनभोगी कामग़ारों की हिस्सेदारी बढऩे लगी। 2004 में ये पुरुषों के लिए 18 से 25 फ़ीसदी तक हुई और महिलाओं में 10 से 25 फ़ीसदी तक। लेकिन 2019 के बाद से, ‘विकास मंदी और महामारी’ के कारण रेलुलर वेतन वाली नौकरियों में कमी आई है।
इस रिपोर्ट के अनुसार कोरोना महामारी के बाद देश के 15 फ़ीसदी से अधिक ग्रैजुएट और 25 साल से कम उम्र के 42 फ़ीसदी ग्रैजुएट्स के पास नौकरियां नहीं हैं।
अज़ीम प्रेमजी युनिवर्सिटी में लेबर इकोनॉमिस्ट रोज़ा अब्राहम कहती हैं, ‘ये वो तबका है जिसे अधिक कमाई चाहिए और ये छोटे-मोटे अस्थायी काम करने में दिलचस्पी नहीं रखता। यही वो समूह है अधिक कमाई और नौकरी में स्थायित्व की उम्मीद में जान का जोखिम लेने के लिए (इसराइल जाने के लिए) तैयार है।
इन युवाओं में से एक हैं उत्तर प्रदेश के अंकित उपाध्याय। वो कहते हैं कि उन्होंने एक एजेंट को पैसे दिए, अपना वीज़ा बनवाया और कुवैत जाकर स्टील फिक्सर के तौर पर आठ साल काम किया।
वो कहते हैं क महामारी ने उनकी नौकरी छीन ली। वो कहते हैं, ‘मुझे किसी बात की डर नहीं है। मैं इसराइल में काम करने के लिए तैयार हूं। वहां मौजूद ख़तरों से मुझे फर्क नहीं पड़ता। देश के भीतर भी नौकरियों में सुरक्षा नहीं है।’ (bbc.com/hindi)
-शमाइल जाफरी
तीर्थ सिंह मेघवार सिंध के उमरकोट में अपने समर्थकों के एक छोटे दल के साथ डिप्टी कमिश्नर के दफ़्तर में पहुंचते हैं। उनके समर्थक उनके लिए नारे लगा रहे हैं।
ये लोग फॉर्म भरते हैं और फिर अंदर अपना चुनाव चिह्न लेने चले जाते हैं। नोटिस बोर्ड पर चुनाव चिन्ह लगे हुए हैं। तीर्थ सिंह अपनी मर्जी से स्लेट चुनाव चिह्न ले लेते हैं।
तीर्थ सिंह हिंदू हैं और आठ फऱवरी को पाकिस्तान में हो रहे आम चुनाव में उमरकोट से एक निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर खड़े हैं।
उमरकोट भारतीय सीमा से लगभग 60 किलोमीटर दूर पूर्वी सिंध का एक छोटा सा शहर है।
पाकिस्तान का दक्षिणी प्रांत सिंध देश के ज्यादातर हिंदुओं का ठिकाना है। मुस्लिम बहुल पाकिस्तान में इस्लामी अतिवाद के उभार के बावजूद सिंध ने अपने ऐतिहासिक हिंदू खासियतों और परंपराओं को बचा रखा है।
उमरकोट का नाम पहले अमरकोट हुआ करता था। इसका नाम एक स्थानीय हिंदू राजा पर रखा गया था।
11वीं सदी में बने अमरकोट किले में ही 1542 में मुगल बादशाह अकबर का जन्म हुआ था।
शहर का इतिहास काफी समृद्ध रहा है। लेकिन एक चीज़ की वजह से इस शहर की अपनी अलग पहचान है। उमरकोट में आज भी हिंदू बहुसंख्यक हैं।
स्थानीय लोगों का दावा है कि बँटवारे के वक्त यहां की 80 फीसदी आबादी हिंदू थी। हालांकि हिंदुओं में सबसे ज्यादा अमीर ठाकुर बिरादरी के लोग धीरे-धीरे भारत चले गए।
लेकिन अनुसूचित जाति के लोगों के पास इतने संसाधन नहीं थे वो यहां से कहीं जा सके। लिहाजा वो यहीं रह गए। यहां रहने वाले हिंदुओं में 90 फीसदी लोग अनुसूचित जाति के हैं।
उमरकोट में बड़ी हिंदू आबादी लेकिन राजनीतिक ताकत नहीं
तीर्थ मेघवार भी उनमें से एक है। तीर्थ कहते हैं कि यहाँ अनुसूचित जाति के हिंदुओं की काफ़ी बड़ी आबादी है लेकिन देेश के राजनीति में उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। इसके लिए वो धनी ऊंची जातियों के लोगों को जि़म्मेदार ठहराते हैं।
तीर्थ सिंह कहते हैं, ‘‘सत्ता हासिल करके ही हम इस व्यवस्था में बदलाव ला सकते हैं। इसीलिए हम चुनाव लड़ रहे हैं। इस असंतुलन को ख़त्म करने और अपने समुदाय को प्रतिनिधित्व दिलाने के लिए हम मैदान में उतर रहे हैं।’’
वो कहते हैं, ‘पिछले कई सालों से प्रमुख राजनीतिक पार्टियां हमारी रिजर्व सीटें ऊंची जाति के बड़े जमींदारों, कारोबारियों और सेठों को बेचती आ रही हैं। इससे हमारी राजनीतिक ताकत खत्म हो रही है। हमें इसका प्रतिरोध करना ही होगा। तभी हम ख़ुद को सामाजिक तौर पर ऊपर उठा सकते हैं।’’
पहले पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के लिए अलग निर्वाचन मंडल हुआ करते थे लेकिन साल 2000 में पूर्व सैनिक शासक परवेज मुशर्रफ ने अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा में लाने के लिए ये व्यवस्था खत्म कर दी।
अल्पसंख्यकों के लिए अब भी राष्ट्रीय और प्रांतीय असेंबलियों में सीटें रिजर्व हैं लेकिन वे दूसरे अन्य नागरिकों की तरह देश के किसी भी हिस्से से चुनाव लड़ सकते हैं।
हालांकि उमरकोट के हिंदू समुदाय के लोगों को लगता है कि संयुक्त निर्वाचन मंडल ने उनकी राजनीतिक ताक़त कम की है।
ये पहली बार नहीं है जब अनुसूचित जाति का कोई हिंदू स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ रहा है।
2013 से अनुसूचित जाति के कई उम्मीदवार चुनाव में अपनी किस्मत आजमा चुके हैं। हालांकि वो जीत से दूर ही रहे हैं।
ऊंची जातियों के हिंदुओं का दबदबा
इस समुदाय से आने वाले कार्यकर्ता शिवराम सुथार कहते हैं,‘‘इसकी वजह पैसा है लेकिन ये भरोसे की भी बात है।’’
शिवराम बताते हैं अनुसूचित जाति के उम्मीदवार अमूमन चुनाव के कुछ दिन पहले मैदान छोड़ देते हैं। इससे उनके समर्थक हताश हो जाते हैं।
शिवराम कहते हैं, ‘‘इसलिए स्थानीय हिंदू आबादी के लोग भी उन भर भरोसा करने को तैयार नहीं होते। इसके बजाय वो उन मुस्लिम उम्मीदवारों को वोट देते हैं, जिनके बारे में वो ये सोचते हैं कि वे ज्यादातर ताक़तवर हैं और उनका काम करवा सकते हैं।’’
हालांकि उमरकोट की समस्याएं गिनाते हुए शिवराम कहते हैं कि यहाँ हिंदू और मुसलमानों दोनों की समस्याएं एक जैसी हैं
वो कहते हैं, ‘‘ऐसा नहीं है कि अलग धर्म की वजह से हमें मुश्किल हो रही है। दरअसल आपकी आर्थिक स्थिति क्या है, इस पर काफ़ी कुछ निर्भर करता है। गरीबों की समस्या एक जैसी है। स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सुविधाएं तक उनकी पहुंच काफ़ी कम है। उनके पास सामाजिक सुविधाएं और आगे बढऩे के सीमित अवसर हैं। गरीब हिंदू है या मुसलमान इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सबके सामने एक जैसी समस्याएं हैं।’’
पाकिस्तान पीपल्स पार्टी और हिंदू उम्मीदवार
लाल चंद वकील हैं। वो एमक्यूएम पाकिस्तान के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। यहां पार्टी की ओर से खड़े किए गए अनुसूचित जाति के तीन उम्मीदवारों में से वो एक हैं।
उन्होंंने बीबीसी से कहा पाकिस्तान पीपल्स पार्टी ने उमरकोट में सामान्य सीट पर कभी भी किसी हिंदू उम्मीदवार को खड़ा नहीं किया। जबकि शहर की आबादी में 52 फीसदी हिंदू हैं।
लाल चंद कहते हैं, ‘‘मुख्यधारा की पार्टियों ने हमें हमारे हक़ से वंचित रखा है। वो सिर्फ पूंजीपतियों और जमींदारों को बढ़ावा देते हैं। मैं इस बात का बहुत आभारी हूं कि एमक्यूएम पाकिस्तान ने हमारे समुदाय पर भरोसा जताया है।’’
वो कहते हैं, ‘यहां भील, कोली, मेघवार मल्ही और योगी जैसी जातियों के लोग बड़े जमींदारों के खेतों में काम करते हैं। लिहाजा जमींदार उन्हें जिस उम्मीदवार को वोट देने के लिए कहते हैं, उन्हें ही वोट देना पड़ता है। ऊंची जाति के हिंदू हमारा दर्द नहीं समझते हैं। वो सत्ता में बैठे लोगों के साथ हैं। जबकि हम जैसे बहुसंख्यक हिंदू नाइंसाफ़ी के शिकार हो रहे हैं।’’
लाल ने बीबीसी से कहा कि ज्यादातर राजनीतिक दलों को पता है कि राजनीति महंगा कारोबार है। इसलिए वो ऐसे उम्मीदवारों पर दांव नहीं लगाना चाहते, जिनकी जीत की संभावना कम हो। हालांकि कामगारों में से अब ज्यादा से ज्यादा लोग आगे आ रहे हैं। लेकिन फिर भी असेंबली (संसद) पहुंचने की उनकी संभावना बहुत ही कम है।
इमरान खान की पार्टी और हिंदू उम्मीजवाक
इमरान खान की तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी ने राष्ट्रीय और प्रांतीय असेंबली के लिए उमरकोट में मल्ही समुदाय को दो धनी भाइयों को मैदान में उतारा है।
चूंकि पार्टी को सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव लडऩे से रोक दिया गया है। लिहाजा वो अब स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतरेंगे।
पार्टी के उम्मीदवार लेखराज मल्ही ने बीबीसी को बताया कि सरकार जिस तरह से पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के नेतृत्व और उम्मीदवारों को जिस तरह से निशाना बना रही है, उसी तरह से उनके परिवार को भी परेशान किया जा रहा है।
वो कहते हैं, ‘‘हमारे घरों पर छापे मारे गए। हम पर आतंकवाद को बढ़ावा देने के केस ठोके गए। मेरे बड़े भाई को गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन तमाम धमकियों और बदला लेने की कार्रवाई के बावजूद हम इमरान ख़ान की विचारधारा के साथ खड़े हैं। वही उमरकोट को पाकिस्तान पीपल्स पार्टी की गिरफ्त से बाहर निकाल सकते हैं।’’
लेकिन विशेषज्ञों को नहीं लगता है कि निकट भविष्य में ऐसा होने जा रहा है। उनका मानना है कि पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पंजाब और उत्तर पश्चिमी प्रांत खैबर पख़्तूनख़्वा तक ही सीमित है। वो अभी तक सिंध में सेंध नहीं लगा पाई है।
इसके बावजूद अनुसूचित जातियों के हिंदुओं का चुनाव में उतरना एक बदलाव का प्रतीक तो है ही। (bbc.com/hindi)