विचार/लेख
डॉ. आर.के. पालीवाल
हमारे संविधान में सरकारी कर्मचारियों की कल्पना ऐसे लोक सेवक के रुप में की गई है जो किसी राजनीतिक विचारधारा से अलग रहकर स्थाई रुप से जनता की सेवा करेंगे। आज़ादी के बाद से दो दशक पहले तक अधिकांश कर्मचारी ऐसा करते भी थे। इधर जब से जन प्रतिनिधियों का दखल सरकारी कर्मचारियों के ट्रांसफर और पोस्टिंग में बढ़ा है तब से कर्मचारियों का एक वर्ग अपने राजनीतिक आकाओं के प्रति इतना निष्ठावान हो गया है कि वह अपने मूल कर्तव्य को भूलकर अपने राजनीतिक आकाओं के कार्यकर्ता के रुप में काम करने लगा है। सरकारी कर्मचारियों के आचरण में यह बदलाव सरकारी दफ्तरों में हद दर्जे की अनुशासन हीनता को बढ़ावा दे रहा है। कई सरकारी कर्मचारी अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए और बहुतेरे जन प्रतिनिधियों को अपने भ्रष्ट आचरण की ढाल बनाने के लिए ऐसा करते हैं। कुछ दिन पहले रेलवे के उस रक्षक दल की घटना जेहन से भूली नहीं थी जिसने धार्मिक विचारधारा की कट्टरता के कारण धर्म विशेष के यात्री की हत्या कर दी थी। कुछ दिन पहले देश की राजधानी दिल्ली की पुलिस के दरोगा की करतूत सामने आई है जो सडक़ पर नमाज अदा करते युवाओं और बुजुर्गों को बूट से ठोकर मार रहा है। किसी सरकारी कर्मचारी का ऐसा आचरण अत्यंत शर्मनाक है।
चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव में मतदान अधिकारी का जिम्मा संभाल रहे अनिल मसीह किस हद तक जाकर आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार को हराने और भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार को जिताने के लिए मतपत्रों से खिलवाड़ कर रहे थे यह भी पूरी दुनिया ने देखा है। वह तो हाई प्रोफाइल होने के कारण यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया जिस पर न्यायालय ने उनके दुराचरण पर तुरंत कड़ी प्रतिक्रिया की अन्यथा लोकसभा और विधानसभा चुनावों में न जाने इस तरह के कितने अधिकारी पोलिंग अफसर के रुप में तैनात होते हैं और मनमानी करते हैं। यही कारण है कि विपक्षी दल ई वी एम पर विश्वास नहीं करते जिसे अनिल मसीह जैसे अधिकारी और ज्यादा आसानी से मैनिपुलेट कर सकते हैं।
सरकारी कर्मचारियों का यही ट्रेंड आजकल सोशल मीडिया पर भी सामने आ रहा है।प्राइमरी स्कूलों के शिक्षक से लेकर सरकारी डॉक्टर और इंजीनियर आदि फेसबुक और व्हाट्स एप समूहों पर अपने राज्य की सरकार के नेताओं की तारीफ में कसीदे पढ़ते हैं और विपक्षी दलों के नेताओं को अभद्र भाषा का प्रयोग कर गलियाते दिखाई देते हैं। सरकारी कर्मचारियों का यह गलत आचरण कुछ वर्षों से निरंतर बढ़ रहा है। कुछ साल पहले तक इस तरह का आचरण जन प्रतिनिधियों तक सीमित था लेकिन उनकी देखा देखी यह प्रवृत्ति जन सेवकों में भी तेजी से बढ़ रही है जो अत्यन्त घातक है। जन प्रतिनिधि किसी विशेष विचारधारा से जुड़े राजनीतिक दल से प्रतिबद्ध होते हैं। उन्हें कई मामलों में संसद और विधानसभाओं में बोलने के लिए संवैधानिक सरंक्षण प्राप्त है और विभिन्न दल अपने दलों के ऐसे नेताओं को अनुशासन में रखने की कोशिश भी नहीं करते। इसके बरक्स सरकारी कर्मचारियों के लिए बहुत कड़ी आचरण नियमावली है। सरकारी कर्मचारी इस तरह की हरकत करते हुए अक्सर यह भूल जाते हैं कि संवैधानिक पदों पर आसीन विभूतियों के बारे में अनर्गल लिखना उनकी आचरण नियमावली का उल्लंघन है। इसके लिए किसी खास विचारधारा के राजनीतिक दल की सरकार बदलने पर उन पर कड़ी कार्यवाही हो सकती है। जनसेवकों में धार्मिक या राजनीतिक वैचारिक कट्टरता लोकसेवा की विरोधी है। सिविल सोसाइटी के संगठनों को ऐसे जनसेवकों पर कड़ी नजर रखनी चाहिए ताकि उन्हें चिन्हित कर उचित सजा दिलाई जा सके अन्यथा यह बीमारी बेकाबू हो जाएगी।
आभा शुक्ला
मैं खाने में मांस मछली नहीं लेती, और ये मेरा धार्मिक या जातीय मसला नहीं है। ये सिर्फ मेरी फूड हैबिट है। मंै नॉनवेज नहीं खाती क्योंकि मैंने कभी खाया नहीं। मेरे घर में कभी बना नहीं। बाकी ऐसा नहीं है कि मेरे खानदान और रिश्तेदारो मे भी कोई नहीं खाता। लगभग 60 फीसदी लोग खाते हैं। गांव परिवार में जो पुराने और बुजुर्ग आज भी गांव में हैं वो नहीं खाते, जो नई जनरेशन बाहर निकल गई है वो दबा कर खाती है।
ऐसे में अगर जोमैटो की प्योर वेजिटेरियन स्कीम की बात करूँ तो समाज में फैलती जा रही प्योर बेवकूफी की एक और मिसाल होने के साथ ही देश में बहुसंख्यक नॉन वेजिटेरियंस के प्रति नफरत बढ़ाने की कोशिश भी है।बाकी प्योर वेज कोई नहीं होता ये आप भी समझते हैं।कौन ऐसा है जिसने कभी दही नहीं खाया।दही में लैक्टोबैसिलस नामक जीवाणु पाया जाता है। जबकि दही तो लोग व्रत में भी खा लेते हैं। दूध में भी यही जीवाणु पाया जाता है। जब मानव की आंत में पाया जाने वाला जीवाणु एशररीशिया कोलाई है तो कोई प्योर वेज है तो कैसे है।
प्योर वेज का कांसेप्ट सही है ही नहीं। मैंने कभी मांस मछली नहीं खाया था पर अभी जब बीमार हुई तो फिश ऑइल यानी मछली के तेल कैप्सूल खूब दिए मुझे डॉक्टर ने। वो इलाज का हिस्सा था। अब अगर मछली के तेल कैप्सूल डकार कर कहूँ कि मैं प्योर वेज हूँ तो ये कितना झूठ होगा। और इलाज के दौरान ऐसा बहुत लोगों के साथ होता है पर फिर भी वो प्योर वेज पता नहीं कैसे कहते रहते हैं अपने आपको।
और फिर अगर आप साइंस में घुस जाईये तो साइंस तो पेड़ पौधो में भी जीवन मानती है। साइंस तो पानी में भी कई तरह के बैक्टीरिया होने की पुष्टि करती है। इसका है कोई जवाब क्या जोमैटो के पास।
जोमैटो वालों पर तो कायदे से मुकदमा होना चाहिए। क्या नाटक पसार कर रखा है प्योर वेज का। अगर लॉजिकली साइंस में घुस जायेंगे तो कैसे प्रूव करेंगे ये प्योर वेज का कांसेप्ट।
आपका मांसाहार छोड़ देने का फैसला पर्यावरण हितैषी हो सकता है, जैसा कि आज कल की नई रिसर्च बताती हैं। लेकिन अगर ऐसा कोई आदमी आपको कभी मिले जो साइंस के सारे कांसेप्ट को मानते हुए भी खुद को प्योर वेज बता सके जो उससे मेरी भी बात कराइयेगा एक बार।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को ईडी ने गुरुवार रात नई दिल्ली स्थित उनके आवास से गिरफ्तार किया था।
लोकसभा चुनाव से ठीक पहले आम आदमी पार्टी के प्रमुख की गिरफ़्तारी को लेकर कई लोग सवाल उठा रहे हैं।
समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार, उन्हें आबकारी नीति से जुड़े मनी लॉन्ड्रिग के मामले में गिरफ्तार किया गया है। गिरफ्तारी के बाद उन्हें देर रात ईडी के दफ़्तर ले जाया गया है।
आम आदमी पार्टी ने गुरुवार देर रात ही सुप्रीम कोर्ट में इस गिरफ़्तारी को चुनौती दी थी। संभव है कि आज केजरीवाल की याचिका पर आज सुनवाई हो।
55 साल के केजरीवाल की गिरफ्तारी दिल्ली हाई कोर्ट के उस फै़सले के बाद हुई, जिसमें कोर्ट ने ईडी के ख़िलाफ़ उन्हें गिरफ्तारी से सुरक्षा देने से इनकार कर दिया था।
केजरीवाल गिरफ्तारी के बाद से ही सुर्खियों में बने हुए हैं। सोशल मीडिया पर पत्रकार, राजनीतिक पार्टियों के नेता, वकील और आम लोग केजरीवाल और ईडी की कार्रवाई को लेकर चर्चा कर रहे हैं। कुछ लोग इस मामले को चुनावी बॉन्ड्स से भी जोडक़र देख रहे हैं।
किसने क्या कहा?
जानेमाने पत्रकार रवीश कुमार ने सोशल मीडिया पर सवाल किया कि क्या इस बार विपक्ष रहित चुनाव होने वाला है।
उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, ‘क्या 2024 का रिजल्ट घोषित हो चुका है? अब कोई भी सर्वे लाइये, कोई भी डेटा लाइये, सब सही हो जाएगा। कहीं से फिट कर दीजिए, सब सही हो जाएगा। 400 की जगह 543 लिख दीजिए, सही हो जाएगा।’
उन्होंने तंज कसते हुए लिखा, ‘विपक्ष का मुख्यमंत्री भी सुरक्षित नहीं है। हेमंत सोरेन गिरफ़्तार हो चुके हैं, केजरीवाल भी गिरफ़्तार हुए। कांग्रेस का खाता बंद हो चुका है विपक्ष रहित चुनाव। जनता तय करेगी या जाँच एजेंसी।’
एक और पत्रकार रोशन किशोर ने 2013 से 2024 में दिल्ली में कांग्रेस, बीजेपी और आम आदमी पार्टी के वोटशेयर का डेटा साझा करते हुए लिखा, ‘दिल्ली में वोटरों की एक बड़ी संख्या विधानसभा के स्तर पर केजरीवाल का समर्थन करती है लेकिन लोकसभा के लिए बीजेपी के समर्थन में है।’
उन्होंने सवाल किया, ‘अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद बड़ा राजनीतिक सवाल खड़ा हुआ है। क्या उनकी गिरफ्तारी से 2024 में वोटर बीजेपी से नाराज होगा? या फिर मोदी के प्रति प्यार इस ग़ुस्से को खत्म कर देगा?’
वहीं पत्रकार पूजा प्रसन्ना ने लिखा, ‘इलेक्टोरल बॉन्ड में सामने आई जानकारी में एक मुख्य अभियुक्त जो बाद में शराब घोटाले में गवाह बन गए, उन्होंने बॉन्ड्स के जरिए 52 करोड़ रुपये राजनीतिक पार्टियों को चंदे में दिए। इसमें से 34।5 करोड़ रुपये बीजेपी के खाते में गए।’
पूजा प्रसन्ना ने द न्यूज मिनट की एक रिपोर्ट के हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि अरविंदो फार्मा के निदेशकों में से एक हैदराबाद के रहने वाले पी शरत चंद्र को 11 नवंबर 2022 को ईडी ने शराब घोटाले में गिरफ्तार किया था।
15 नवंबर को उनकी कंपनी ने पांच करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे। 21 नवंबर को ये बॉन्ड बीजेपी ने भुनाए।
जून 2023 में शरत चंद्र इस मामले में गवाह बन गए और फिर नवंबर 2023 में अरविंदो फ़ार्मा ने बीजेपी के 25 करोड़ रुपये चुनावी बॉन्ड के जरिए चंदे में दिए।
रिपोर्ट के अनुसार कंपनी ने कुल 52 करोड़ रुपये के बॉन्ड खऱीदे, जिसमें से 34.5 करोड़ रुपये बीजेपी के पास गए, 15 करोड़ भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के पास और 2.5 करोड़ रुपये तेलूगु देशम पार्टी (टीडीपी) के पास गए।
वहीं जाने माने पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने लिखा अरविंद केजरीवाल के गिरफ्तार होने की खबरें हर तरफ छाई हुई हैं, लेकिन कुछ और है जिसकी तरफ ध्यान जाना चाहिए।
वो लिखते हैं, ‘स्टेट बैंक ने इलेक्टोरल ब़ॉन्ड्स देने वालों के नामों और आंकड़ों का मिलान राजनीतिक पार्टी से करने के लिए जून के आखऱि तक का, यानी चुनाव ख़त्म होने तक का वक्त मांगा था। सोचिए क्या मामला है? मेरे इंटर्न दोस्त और कई अख़बारों ने चुछ घंटों में ही आंकड़ों का मिलान कर दिया।’
‘ये एसबीआई के बारे में और देश की संस्थाओं की ईमानदारी के क्या बताता है? ये ऊटपटांग टाइमलाइन किसके आदेश पर दी गई थी? शुक्र है कि सुप्रीम कोर्ट को ये नाटक दिख गया।’
जाने माने राजनीतिक विश्लेषक और पत्रकार सुहास पलशीकर ने लिखा, ‘क्या ये चुनाव आयोग के क्षेत्र में नहीं आता कि वो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करवाए और आईटी विभाग के अधिकारियों से कहे कि वो चुनाव के वक़्त किसी राजनीतिक पार्टी का अकाउंट फ्रीज़ न करें?’
स्वराज इंडिया के संस्थापक योगेन्द्र यादव ने लिखा, ‘राजनीतिक सहमति असहमति अपनी जगह है, लेकिन लोकतांत्रिक मर्यादा सर्वोपरि है। अरविंद केजरीवाल की गिरफ़्तारी इस मर्यादा का चीरहरण है। इस हिसाब से तो इलेक्टोरल बॉन्ड घोटाले में पूरी केंद्रीय कैबिनेट को जेल में होना चाहिए। लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर भारतीय को इसके विरोध में खड़ा होना चाहिए।’
योगेन्द्र यादव आम आदमी पार्टी के संस्थापकों में से एक रहे हैं लेकिन अब आम आदमी पार्टी में नहीं हैं।
दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे और ईस्ट दिल्ली लोकसभा सीट से दो बार कांग्रेस सांसद रहे संदीप दीक्षित ने कहा, ‘ये कोई बात होती है क्या कि आप रात को ये क़दम उठा रहे हैं। रात ते नौ बजे और सवेरे नौ बजे के बीच में क्या पहाड़ टूट जाएगा?’
इसे लेकर एक सोशल मीडिया यूजर ने लिखा, ‘ये शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित हैं। जब वो दिल्ली की मुख्यमंत्री थीं तब केजरीवाल ने उनकी टीम पर आरोप लगाए थे, उन्हें बदनाम किया था। लेकिन आज केजरीवाल गिरफ्तार किए गए हैं तो इन्होंने जाकर उनके परिवार से मुलाकात की। यही है कांग्रेस पार्टी।’
सुप्रीम कोर्ट में वकील संजय हेगड़े ने लिखा, ‘अगर अरविंद केजरीवाल को ईडी ने उसी तरह गिरफ्तार किया जैसे हेमन्त सोरेन को किया और न्यायिक प्रक्रिया उन्हें बिना सुनवाई के लंबे वक्त तक क़ैद में रखने की इजाज़त देती है तो हमें ये सवाल करना चाहिए कि क्या ये क़ानून का शासन है या फिर ये शासक का क़ानून है जो यहां पर लागू है।’
फैक्ट चैकिंग वेबसाइट ऑल्टन्यूज़ के संस्थापक प्रतीक सिन्हा लिखते हैं, ‘सत्ता में मौजूद वो सभी वयस्क चाहे वह राजनेता हों, पत्रकार, नौकरशाह, पुलिसकर्मी, वकील, जज या किसी और पेशे से जुड़े हों। जो तानाशाही की स्थापना करने और उसे बढ़ाने में किसी तरह से योगदान देता है, उसने सोच समझकर वो विकल्प चुना है। ऐसे लोगों के साथ कभी सहानुभूति न रखें।’
बीजेपी के संस्थापक लालकृष्ण आडवाणी के करीबी रहे सुधीन्द्र कुलकर्णी ने लिखा है, ‘चुनावों की तारीखों की घोषणा के बाद मौजूदा मुख्यमंत्री की गिरफ्त्तारी निदंनीय है। ये गैर-लोकतांत्रिक है और साफ तौर पर चुनावों में बीजेपी को अनुचित तरीके से फायदा पहुँचाने के लिए है।’
थिंकटैंक सेंटर फॉर पॉलिसी रीसर्च में सीनियर फेलो और राष्ट्रीय सुरक्षा मामलो के जानका सुशांत सिंह ने तंज कसा, ‘जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।’
गुरुराज अनजान नाम के एक यूजर ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का 10 साल पुराना एक वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट किया।
साल 2014 के इस वीडिया में मनमोहन सिंह देश को चेतावनी देते हैं, ‘नरेंद्र मोदी की काबिलियत पर चर्चा किए बिना अगर वो भारत के प्रधानमंत्री के पद तक पहुंच गए तो यह देश के लिए घातक सिद्ध होगा।’
2014 में एक संवाददाता सम्मेलन में मनमोहन सिंह ने कहा था कि वो लगातार तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री का पदभार नहीं संभालेंगे।
इस दौरान उन्होंने नरेंद्र मोदी को लेकर चेताया था और कहा था, ‘अगर आप अहमदाबाद की गलियों में बेगुनाह लोगों के नरसंहार को प्रधानमंत्री बनने की क्षमता नापने का पैमाना मानते हैं तो मैं इसमें विश्वास नहीं करता।’
बीजेपी और आम आदमी पार्टी के आरोप प्रत्यारोप
बीजेपी का कहना है कि ईडी का कार्रवाई के बाद केजरीवाल को नैतिक आधार पर मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे देना चाहिए।
बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा, ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाए, करें घोटाला शराब का तो आराम कहां से पाए। ये शराब के घोटाले का विषय है और किस अदालत तक ये घोटाला नहीं पहुंचा है।’
‘कौन सी ऐसी एजेंसी है, जिसने इसकी जांच नहीं की है? और कौन सा ऐसा दिल्लीवासी है, जो इस मामले के तथ्यों से अनभिज्ञ है?’
वहीं आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता राघव चड्ढा ने सोशल मीडिया पर लिखा, ‘भारत में अघोषित आपातकाल है, हमारा गणतंत्र ख़तरे में है। चुनावों से ठीक पहले अरविंद केजरीवाल को गिरफ्तार किया गया है। वो दूसरे विपक्षी नेता हैं, जो गणतांत्रिक तरीक़े से चुने गए हैं। हम किस ओर जा रहे हैं?’
‘देश ने कभी एजेंसियों का इस तरह से खुले तौर पर ग़लत इस्तेमाल नहीं देखा। ये कायराना हरकत है और विपक्ष की आवाज़ को दबाने का साजि़श है।’
आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव संदीप पाठक ने लिखा, ‘भारतीय जनता पार्टी और मोदी जी को ये दांव उल्टा और बहुत महँगा पड़ेगा।’
पार्टी ने गुरुवार रात को कहा था कि ‘केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बने रहेंगे चाहे उन्हें जेल से ही सरकार क्यों न चलानी पड़े।’
कांग्रेस और दूसरी पार्टियों ने क्या कहा?
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ट्वीट किया, ‘मीडिया समेत सभी संस्थाओं पर कब्ज़ा, पार्टियों को तोडऩा, कंपनियों से हफ़्ता वसूली, मुख्य विपक्षी दल का अकाउंट फ्रीज़ करना भी ‘असुरी शक्ति’ के लिए कम था, तो अब चुने हुए मुख्यमंत्रियों की गिरफ्तारी भी आम बात हो गई।’
कांग्रेस नेता संदीप दीक्षित ने गुरुवार रात को केजरीवाल के परिवार से मुलाक़ात की और आरोप लगाया कि मोदी सरकार पर एजेंसियों का ग़लत इस्तेमाल कर रही है।
उन्होंने कहा, ‘चाहे हमारे अकाउंट फ्रीज़ करने की बात हो या फिर हेमन्त सोरेन की गिरफ्तारी बात हो या फिर केजरीवाल की गिरफ्तारी की बात की, ईडी चुनावों के साथ जोड़ कर ये कार्रवाई कर रही है। आप चुनाव से पहले किसी भी पार्टी का गला थोड़े घोंट सकती है।’
कांग्रेस के पूर्व नेता और जानेमाने वकील कपिल सिब्बल ने तंज कसते हुए लिखा, ‘मदर ऑफ़ डेमोक्रेसी ने ये दिखा दिया कि ईडी उसका सबसे वफ़ादार बेटा है।’
कांग्रेस नेता और जानेमाने वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने लिखा, ‘घबराइए, आप फासीवाद में प्रवेश कर चुके है। तानाशाही सरकार सारे विपक्षी नेताओं को जेल में डाल रही। संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या की जा रही है। जैसे-जैसे लोक सभा चुनाव करीब आ रहे है देश में सिर्फ नाममात्र का लोकतंत्र रह गया है असल मे यहाँ फासीवाद चल रहा है।’
नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के शरद पवार ने इसकी कड़ी आलोचना की और लिखा कि इंडिया गठबंधन अरविंद केजरीवाल के ख़िलाफ़ इस असंवैधानिक कार्रवाई का विरोध करती है।
उन्होंने लिखा, ‘आम चुनाव सिर पर हैं और विपक्ष को निशाना बनाने के लिए केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल किया जा रहा है। ये गिरफ्तारी दिखाती है कि सत्ता के लिए बीजेपी किस हद कर नीचे गिर सकती है।’
क्या है मामला?
गुरुवार को हाई कोर्ट का फ़ैसला आने के बाद ईडी के अतिरिक्त डायरेक्टर के नेतृत्व में 10 सदस्यों की ईडी की एक टीम दिल्ली के सिविल लाइन्स में मौजूद केजरीवाल के आधिकारिक आवास पर पहुंची।
वहां तलाशी अभियान चलाया गया। ईडी की टीम के उनके आवास पर पहुंचने के कऱीब दो घंटे बाद केजरीवाल को गिरफ्तार कर लिया गया।
केजरीवाल की गिरफ्तारी के मुद्दे को लेकर आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिए जिसके बाद उनके आवास के बाहर धारा 144 लागू की गई।
इस मामले में ये ईडी की ये 16वीं गिरफ्तारी है। ईडी ने अब तक इस मामले में छह चाजऱ्शीट दाखिल की है और 128 करोड़ रुपये मूल्य की संपत्ति ज़ब्त की है।
इससे पहले ईडी ने पूछताछ के लिए पेश होने के लिए कई बार केजरीवाल को समन भेजे थे, लेकिन केजरीवाल ये पेश होने से इनकार कर दिया था। उन्होंने ईडी के ख़िलाफ़ कोर्ट का रुख़ किया था।
ईडी और सीबीआई का आरोप है कि दिल्ली सरकार ने अपनी आबकारी नीति के ज़रिए लाइसेंसधारी शराब कारोबारियों से घूस लेकर उन्हें अनुचित लाभ पहुंचाया गया। आम आदमी पार्टी अब तक इन आरोपों से इनकार किया है। (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
सरकार ने आनन फानन में केंद्रीय चुनाव आयोग में चुनाव आयुक्त के दो खाली पदों पर दो सेवानिवृत आई ए एस सुखबीर सिंह संधू और ज्ञानेश कुमार की नियुक्ति कर दी। अक्सर सरकार की दो कारणों से ही सबसे ज्यादा आलोचना होती है, एक तब जब वह अपने पसंदीदा कामों को बिजली की गति से करती है और एक तब जब वह अपनी अरुचि के कामों को हजार कुतर्क देकर सालों साल टालती रहती है। इन्हीं दो कारणों से सरकार के कामों की विपक्ष और उससे भी ज्यादा प्रबुद्ध जन एवम जन सरोकारी मीडिया द्वारा आलोचना की जाती है।
भ्रष्टाचार के मामलों की जांच की निगरानी करने वाली शीर्ष संस्था केंद्रीय सतर्कता आयोग का भी यही सिद्धांत है कि जब कोई काम या तो सामान्य से बहुत तेज गति से सम्पन्न किया जाता है या बहुत दिनों तक लटकाया जाता है तो उसमें भ्रष्टाचार की प्रबल संभावना मानी जाती है। चुनाव आयुक्तों की यह दो नियुक्तियां भी इसी परिपेक्ष्य में विवादित हो गई हैं। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए सरकार द्वारा गठित समिती के सदस्य और लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी ने इस मामले में अपनी कड़ी असहमति दर्ज की है। उनका कहना है कि जब सर्वोच्च न्यायालय 15 मार्च को केंद्रीय चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति संबंधी याचिका की सुनवाई करने जा रहा था, ऐसे में आनन फानन में दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ती की बैठक रखने का क्या मतलब है। उनका यह भी मानना है कि यह बैठक मात्र औपचारिकता पूरी करने के लिए लिए रखी गई थी।
एक तरफ सरकार ने आयुक्तों की नियुक्ती की समिती से सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश को अलग रखा है और दूसरे उनकी जगह गृह मंत्री को रखकर सरकार ने समिती में अपना बहुमत बनाकर अपनी पसंद के चुनाव आयुक्त नियुक्त कर लिए। उन्होंने यह भी कहा कि नियुक्ति समिती की प्रस्तावित बैठक से पहले उन्होने नियुक्ति के शॉर्ट लिस्ट किए गए लोगों की जानकारी मांगी थी ताकि वे उन लोगों की योग्यता और प्रशासनिक छवि के बारे में कुछ जानकारी जुटा सकें लेकिन शॉर्टलिस्ट नामों की जगह सरकार ने उन्हें दो सौ से ज़्यादा नामों की सूची थमा दी। इतने लोगों की योग्यता और क्षमता का निरीक्षण किसी भी व्यक्ति के लिए एक दिन में कर पाना संभव नहीं है। अधीर रंजन चौधरी के इन तर्कों को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता। चुनाव आयुक्त की नियुक्तियों पर विगत में भी विवाद हुए हैं जिससे केंद्रीय चुनाव आयोग की निष्पक्ष छवि पर प्रश्न चिन्ह खड़े हुए हैं इसलिए सरकार का दायित्व बनता है कि उसकी कार्यशैली पूरी तरह पारदर्शी और विवेक सम्मत हो।
विगत में पूर्व चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति का विवाद सर्वोच्च न्यायालय में गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी ऐच्छिक सेवानिवृति के तुरंत बाद चुनाव आयुक्त के पद पर नियुक्ति पर आश्चर्य जताया था हालांकि उनकी नियुक्ति को निरस्त नहीं किया था। अरुण गोयल की नियुक्ति जैसा ही आश्चर्य उनके अचानक हुए त्यागपत्र से हुआ है क्योंकि वह लोकसभा चुनाव से मात्र चंद दिनों पहले हुआ था। अभी वह विवाद थमा नहीं था दो नए चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का विवाद खड़ा हो गया। हालाकि सर्वोच्च न्यायालय ने इन नियुक्तियों को भी निरस्त करने की मांग स्वीकार नहीं की फिर भी इस तरह के विवाद संवैधानिक पदों और संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा को ठेस पहुंचाते हैं। इससे सरकार और सरकार के राजनीतिक दल की प्रतिष्ठा भी धूमिल होती है। अब जब राजनीति से नैतिकता की लगभग विदाई सी हो चुकी है तब संवैधानिक संस्थाओं की नियुक्तियों में निष्पक्षता आवश्यक है और वह तभी संभव है जब नियुक्तियों की तीन सदस्यीय समिति में किसी का बहुमत नहीं होगा। इसके लिए नियुक्ति समिती में प्रधानमन्त्री, नेता विपक्ष और सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश का होना ही सर्वोत्तम विकल्प लगता है।
पल्लवी त्रिवेदी
जब मैं 30 बरस की थी तब सारा संसार मिलकर मेरा ब्याह कराने पर तुला था ।
जब मैं मना करती तो अंत में हरेक के पास अंत में एक अकाट्य ( उनके हिसाब से) तर्क होता कि अभी पता नहीं चलेगा, 40 के बाद साथी की जरूरत महसूस होती है ,जब सारे दोस्त अपने जीवन में व्यस्त हो जाएंगे, तब अकेलापन काटने को दौड़ेगा। फिर बुढ़ापे में शरीर साथ नहीं देगा तो देखभाल करने के लिए पति और बच्चों की जरूरत होगी...।
मैं हमेशा इस बात की शुक्रगुजार रही हूँ कि हमको दो कान मिले हैं। एक से सुनकर दूसरे से निकालने के लिए। सो दोनों कानों का भरपूर इस्तेमाल करते हुए ‘एकला चलो रे’ की धुन पर हम आगे बढ़ते गए।
और अब जबकि मैं 44 साल की हो गई हूं, उन सभी अकाट्य तर्कों की चटनी बनाते हुए कहना चाहती हूं कि-
1- शादी तब करो जब किसी से मिलकर महसूस हो कि इसके साथ एक घर में रहे बिना जीवन जीना असंभव है और शादी ही एकमात्र तरीका है ।
2- शादी की कोई उम्र नहीं होती, अगर आपको शादी से बच्चे पैदा न करने हों। 80 की उम्र में भी किसी के साथ रहने के लिए शादी की जरूरत महसूस होती हो तो जरूर शादी करो।
3- किसी से अपनी देखभाल कराने के लिए शादी मत करो। उल्टा भी हो सकता है। इसलिए अपनी देखभाल आप करने लायक स्वस्थ रहो। अगर पैसा होगा तो नर्स भी लग जायेगी। और पैसा न होगा तो आपने जो रिश्ते कमाए होंगे वे काम आएंगे। शादी बुढ़ापे में देखभाल की गारंटी नहीं है।
4- शादी न करना प्रेम रहित जीवन जीना नहीं है जैसा लोग अक्सर सिंगल लोगों के बारे में धारणा बना लेते हैं।
5- अगर आपको अकेले रहने में आनंद आता है और खुद का साथ सबसे अच्छा लगता है तो शादी आपके लिए नहीं है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ेगी, अकेले रहना और सुखद लगने लगेगा।
तो चालीस के बाद वाली परीक्षा को अव्वल दर्जे से पास करने के बाद अब बुढ़ापे वाली परीक्षा की मार्कशीट भी अवश्य शेयर की जाएगी।
चलते-चलते अंतिम बात यह कि जीवन का लक्ष्य शांति और खुशी है। शादी करना या न करना इस लक्ष्य प्राप्ति का एक मार्ग मात्र है।
गोकुल सोनी
साथियों, प्रकृति ने हमें बोलने की क्षमता प्रदान कर हमारे साथ बड़ा उपकार किया है। हम कभी भी, कहीं भी और किसी भी परिस्थिति में बोलकर यानी अपनी बात रखकर अपना काम चला सकते हैं। लेकिन हमेशा यह काम में नहीं आता। कभी-कभी मौन रहकर या फिर सांकेतिक भाषा में अपनी भावना व्यक्त कर काम चलाना पड़ता है। सांकेतिक भाषा का इस्तेमाल खास मौके पर किसी संस्था विशेष द्वारा अपना काम निकालने के लिए किया जाता है। एक सांकेतिक भाषा का इस्तेमाल मैंने भी कभी किया था जो एक खास वर्ग के लोगों के लिए बनाया गया था।
मेरा पैतृक गांव मचान्दूर रायपुर-जगदलपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर मुख्य सडक़ से 2 किलोमीटर अंदर था। था इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि गंगरेल बांध के डुबान क्षेत्र में आने के बाद अब हमारा गांव सडक़ किनारे बस गया है। उस समय गांव के लोगों को जब कभी कांकेर-जगदलपुर, सुकमा-कोंटा, बारसूर-बैलाडीला या धमतरी-रायपुर जाना होता था तो बस पकडऩे के लिए गांव से पैदल मुख्य सडक़ तक आना पड़ता था। उस समय निजी कंपनी की बसें नहीं चलती थीं। सिर्फ मध्यप्रदेश सडक़ राज्य परिवहन निगम की बसें चलती थीं। अलबत्ता धमतरी-चारामा-कांकेर के बीच लोकल सवारियों के लिए जीप-टैक्सी भी बहुत कम संख्या में चला करती थीं।
खैर, सडक़ पर आने के बाद राज्य परिवहन की बस को हाथ दिखाकर रोकना पड़ता था। हाथ दिखाने पर बस कभी रुकती थी तो कभी नहीं रुकती थी। लेकिन मेरे पिताजी के साथ ऐसा नहीं था। वे जब भी किसी बस को हाथ दिखाते थे तो बस जरूर रुक जाती थी। गांव वाले इस बात को समझ नहीं पाते थे कि मानसिंह यानी मेरे पिता के हाथ दिखाने से बस क्यों रुक जाती है?
एक बार मेरी मां को रायपुर जाना था। मैं भी उनके साथ था। मैं बहुत छोटा था। मां बस को हाथ दिखाती थी लेकिन कोई बस रुकती ही नहीं थी। मुझे लगा कि अब मुझे कुछ करना चाहिए। मैंने आगे बढक़र एक बस को हाथ दिखाया और बस रुक गई। हम बस में बैठ गए। बस ड्राइवर ने मुझे अपने पास बुलाया और बोनट पर प्यार से बिठा दिया। बस में बोनट उसे कहते हैं जहां इंजन होता है जो एक पेटी जैसे लोहे की चादर से ढंका होता है। ड्राइवर ने मुझसे पूछा कि तुम्हें बस रोकने की यह तकनीक किसने बताई? मैंने बताया कि अपने पिताजी से सीखा हूं। ड्राइवर हंसे और बोले कि अब किसी को मत बताना।
दरअसल मेरे पिताजी सेना की सेवा से आने के बाद कुछ वर्षों तक राज्य परिवहन की बस चलाया करते थे। उन दिनों बस चालक कुछ कोडवर्ड का उपयोग किया करते थे। जैसे कहीं टिकट चेकिंग हो रही है तो ड्राइवर अपनी बस की लाइट दिन में भी जला दिया करते थे। विपरीत दिशा से आ रही बस का ड्राइवर-कंडक्टर उस लाइट को देखकर समझ जाते थे कि आगे चेकिंग हो रही है। कंडक्टर अपना हिसाब ठीक कर लेता था और पकड़े जाने से बच जाता था। रात को ठीक इसके विपरीत लाइट बुझा दिया करते थे। इसी तरह किसी बस को रोकने के लिए स्टाफ द्वारा एक कोड का उपयोग किया जाता था। सडक़ पर खड़ा स्टाफ अपने हाथ में कोई थैला, गमछा या अन्य कपड़ा लेकर हवा में लहराता था। ड्राइवर समझ जाता था यह हमारा स्टाफ है और बस रोक देता था। पिताजी भी बस रोकने के लिए हाथ में थैला या कपड़ा लेकर हवा में लहरा दिया करते थे। उस दिन मां के साथ मैं भी हाथ में थैला लेकर हवा में लहराया था और बस रुक गई थी।
मैंने ड्राइवर से किया अपना वादा निभाया और कभी भी इस सांकेतिक भाषा के बारे में किसी अन्य को नहीं बताया। आज जब परिवहन निगम की बसें बंद हो गई हैं तब इसका खुलासा कर रहा हूं।
तो कैसी लगी मेरी टेक्निक, आप जरूर बताइएगा।
‘प्योर वेज फ़्लीट’ या ‘शुद्ध शाकाहारी फ्लीट’ के लॉन्च होने के बाद हुई आलोचना के बीच ज़ोमैटो के सीईओ दीपेन्द्र गोयल ने इसमें बदलाव की घोषणा की है।
इससे पहले कंपनी ने कहा था कि 100 फ़ीसदी शाकाहारी खाना पसंद करने वाले अपने ग्राहकों के लिए वो ‘शुद्ध शाकाहारी’ डिलिवरी की सुविधा लॉन्च कर रही है। इसे उन्होंने ‘शुद्ध शाकाहारी मोड’ कहा था।
इसमें डिलिवरी पार्टनर को हरे रंग की पोशाक में होना था। लेकिन सोशल मीडिया पर बढ़ती आलोचना के बीच ज़ोमैटो ने ड्रेस के रंग में बदलाव की योजना वापस ले ली है।
ज़ोमैटो के सह-संस्थापक और सीईओ दीपेन्द्र गोयल ने शुरू में दावा किया था कि शाकाहारी खाने की अलग से डिलिवरी की योजना को लेकर लोगों की सकारात्मक प्रतिक्रिया मिल रही है। लेकिन 11 घंटे के भीतर ही दीपेन्द्र गोयल को प्लान में बदलाव लाना पड़ा।
वापस लिए बदलाव
दीपेन्द्र गोयल ने अब से कुछ वक़्त पहले अपने सोशल मीडिया हैंडल पर पोस्ट किया, ‘हमने फ़ैसला किया है कि वेजिटेरियन खाने की डिलिवरी करने वाले अपने राइडरों की टोली को हम बरकऱार रखेंगे लेकिन उन्हें दूसरों से अलग करने वाले हरे रंग की ड्रेस का इस्तेमाल नहीं करेंगे। हमारे नियमित राइडर और शाकाहारी डिलिवरी वाले राइडर लाल रंग के ही कपड़े पहनेंगे।’
उन्होंने लिखा, ‘शाकाहारी खाना डिलिवरी करने वाले हमारे राइडर्स को ज़मीनी स्तर पर दूसरों से अलग नहीं किया जा सकेगा, लेकिन व्यक्ति को उसके मोबाइल ऐप में ये दिखेगा कि वेजिटेरियन ऑर्डर की डिलिवरी केवल वेजिटेरियन राइडर कर रहे हैं।’
उन्होंने कहा कि कंपनी अपने राइडर्स की सुरक्षा को प्राथमिकता देती है। उन्होंने कहा, ‘इससे ये सुनिश्चित होगा कि लाल रंग के कपड़े पहने हमारे राइडर्स को नॉन-वेज खाने के साथ जोड़ कर नहीं देखा जाएगा, और उन्हें किसी ख़ास दिन आरडब्ल्यूए नहीं रोकेगी।’
‘हमें इस बात का अहसास है कि इस कारण किराए पर रह रहे लोगों के लिए भी जोखिम पैदा हो सकता है।’
अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस से इंडियन फेडरेशन ऑफ ऐप-बेस्ड ट्रांसपोर्ट वर्कर्स (आईएफ़एटी) के अध्यक्ष शेख़ सलाउद्दीन ने कहा, ‘पिछली बार ज़ोमैटो से किसी ने ख़ास धर्म के ही डिलिवरी पार्टनर को भेजने का अनुरोध किया था तब दीपेन्द्र गोयल ने कहा था कि फूड का मज़हब नहीं होता है। अब लग रहा है कि वह अपनी इस सोच से पीछे हट रहे हैं। मैं उनसे सीधा पूछा रहा हूँ कि क्या वह डिलिवरी पार्टनर्स को जाति, समुदाय और धर्म की लाइन पर श्रेणी बना रहे हैं?’
ज़ोमैटो पहले भी अपने विज्ञापन के कारण विवाद में रही है। पिछले साल ज़ोमैटो ने एक विज्ञापन को लेकर माफ़ी मांगी थी।
इस विज्ञापन में लगान फि़ल्म के दलित किरदार ‘कचरा’ को ‘रीसाइक्लड’ रूप में दिखाया गया था। इस विज्ञापन में लगान के दलित किरदार को निर्जीव वस्तु के रूप में दिखाया गया था। ज़ोमैटो को इस विज्ञापन के कारण नेशनल कमिशन फोर शेड्यूल कास्ट से नोटिस मिला था।
क्या था पूरा मामला?
मंगलवार को दीपेंद्र गोयल ने कहा था कि कंपनी ‘शुद्ध शाकाहारी मोड’ लॉन्च कर रहा है, जिसमें वेजिटेरियन खाना ऑर्डर करने वालों को ऐप पर केवल शुद्ध शाकाहारी रेस्त्रां दिखेंगे और उन्हें नॉन-वेज खाना देने वाले रेस्त्रां नहीं दिखेंगे।
‘हमारे शुद्ध शाकाहारी राइडरों की टोली शुद्ध शाकाहारी रेस्त्रां से खाना लेकर ग्राहकों तक पहुंचाएगी। इसके लिए हरे रंग के डिब्बे होंगे।’
‘ऐसे में शुद्ध वेजिटेरियन खाना और नॉन-वेजिटेरियन खाना कभी एक ही बक्से में नहीं पहुंचाया जाएगा।’
इसे लेकर सोशल मीडिया पर जमकर लोगों ने आलोचना की थी। कई लोगों का कहना था कि वेजिटेरियन खाने वालों को शुद्ध कऱार देना ज़ोमैटो के भेदभाव करने की नीति को बताता है।
सोशल मीडिया पर छिड़ी बहस
ज़ोमैटो के प्योर वेज मोड लॉन्च करने के बाद और इसकी यूनिफ़ॉर्म को वापस लेने के बाद सोशल मीडिया पर इसकी तारीफ़ और आलोचनाएं की जा रही हैं।
जब शुरुआत में इस मोड को लॉन्च किया गया तो यूनिफ़ॉर्म के साथ-साथ प्योर वेज मोड लाने की आलोचना की गई।
रश्मिलता नामक यूजऱ ने ट्वीट किया कि ‘इस तरह के भेदभाव को रोकिए। हमने इसके नाम पर बहुत कुछ देखा है। मैं शुद्ध मांसाहारी हूं। इस शाकाहारी वर्चस्व वाली बात को बंद कीजिए।’
वहीं श्रेया नामक एक यूजऱ ने लिखा है कि ‘ग्रीन फ़्लीट क्या मदद करेगी मेरे समझ से बाहर है, अगर मेरा ऑर्डर सही से पैक है तो ग्रीन फ़्लीट क्या मदद करेगी? अच्छे पैकिंग मैटेरियल से काम चल जाता है।’
आकाश शाह नाम के यूजऱ ने एक्स पर लिखा कि ‘मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूं जो ऑनलाइन ऑर्डर नहीं करते हैं क्योंकि वो शुद्ध शाकाहारी हैं। मैं उम्मीद करता हूं कि ये उनके लिए फ़ायदेमंद होगा। ज़ोमैटो को बधाई जो वो हमेशा यूज़र्स की सुनता है।’
तीन बार ग्रैमी पुरस्कार जीतने वाले संगीतकार रिकी केज ने ट्वीट करके यूनिफ़ॉर्म को वापस लेने के फ़ैसले की तारीफ़ की है।
उन्होंने लिखा, ‘अलग यूनिफ़ॉर्म को वापस लेने का फ़ैसला अच्छा है लेकिन कृपया वेज फ़्लीट जारी रखें। ये बेहद ज़रूरी सेवा है जिसकी तारीफ़ की जानी चाहिए।’ ज़ोमैटो ने ग्रीन यूनिफ़ॉर्म के फ़ैसले को वापस लिया है लेकिन प्योर वेज मोड चलता रहेगा। इस मोड को लेकर अभी भी बहस जारी है। (bbc.com/hindi)
-दयानिधिे
निम्न और मध्य आय वाले देशों में कई बच्चों को विभिन्न सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय कारणों से पर्याप्त पौष्टिक भोजन तक पहुंचने में भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जिसके कारण अल्पपोषण और सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए भारी चिंता के रूप में उभर रही है।
जेएएमए नेटवर्क ओपन, पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है कि नवजात शिशुओं को छह महीने की उम्र तक केवल स्तनपान पर निर्भर रहना चाहिए। छह महीने की उम्र के बाद, शिशुओं और छोटे बच्चों की बढ़ती पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अकेले स्तन का दूध पर्याप्त नहीं है।
अध्ययन के दौरान भारत में लगभग 67 लाख बच्चे ऐसे पाए गए, जिन्होंने 24 घंटों के दौरान कुछ नहीं खाया। इन बच्चों को जीरो फूड की श्रेणी में रखा गया। जीरो फूड चिल्ड्रन का आशय है कि 6 से 23 माह की उम्र के वे बच्चे जिन्होंने पिछले 24 घंटों में कोई दूध, या भोजन नहीं खाया हो।
अध्ययन के मुताबकि भारत में जीरो फूड चिल्ड्रन की संख्या अब तक की सबसे अधिक है। यह अध्ययन 92 देशों पर किया गया था और भारत में पाए गए जीरो फूड चिल्ड्रन की संख्या इन 92 देशों के बच्चों की संख्या के मुकाबले लगभग आधी है। भारत की यह दर गिनी, बेनिन, लाइबेरिया और माली जैसे पश्चिम अफ्रीकी देशों में प्रचलित दर के बराबर है।
जीरो-फूड चिल्ड्रन यानी बिना भोजन के बच्चों की संख्या के मामले में नाइजीरिया दूसरे स्थान पर है (962000), इसके बाद पाकिस्तान (849000), इथियोपिया (772000) और कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य (362000) हैं।
जनसंख्या स्वास्थ्य और भूगोल के प्रोफेसर सुब्रमण्यम और हार्वर्ड सेंटर फॉर पॉपुलेशन एंड डेवलपमेंट स्टडीज के वैज्ञानिक रॉकली किम ने 92 निम्न और मध्यम आय वाले देशों के छह से 23 महीने की उम्र के 276,379 बच्चों का विश्लेषण किया, जिनकी देखभाल करने वालों ने उनके भोजन के बारे में जानकारी दी थी।
शोधकर्ताओं ने 92 निम्न और मध्यम आय वाले देशों में 2010 और 2022 के बीच एकत्र किए गए राष्ट्रीय आंकड़ों का उपयोग किया।
अध्ययन में पाया गया कि बिना भोजन वाले बच्चे अध्ययन आबादी का 10.4 फीसदी थे।
शून्य-भोजन वाले बच्चों का प्रचलन देशों के बीच व्यापक रूप से फैला हुआ है। कोस्टा रिका में, प्रसार 0.1 फीसदी था, गिनी में, 21.8 फीसदी।
भारत में, जहां अध्ययन के लगभग आधे बिना भोजन वाले बच्चे थे, जिनका प्रसार 19.3 फीसदी था।
अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, बिना भोजन वाले बच्चों की व्यापकता विकास की इस महत्वपूर्ण अवधि के दौरान शिशु और छोटे बच्चों के आहार प्रथाओं में सुधार और अधिकतम पोषण सुनिश्चित करने के लिए लक्षित हस्तक्षेप की आवश्यकता को उजागर करती है। यह मुद्दा पश्चिम और मध्य अफ्रीका और भारत में विशेष रूप से जरूरी है।
6 से 23 माह के उम्र के बच्चों के लिए निरंतर स्तनपान के अलावा पर्याप्त खाद्य पदार्थों की शुरुआत अधिकतम पोषण सबसे महत्वपूर्ण है।
शोध में पर्याप्त भोजन के कम अवधि और लंबे समय के फायदों को भी उजागर किया है, जैसे मृत्यु दर, कुपोषण, बौनापन, कम वजन और सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी के खतरों का कम होना शामिल है। साथ ही बच्चों का मानसिक विकास तेजी से होता है, जो बच्चों के भविष्य की नींव रखता है।
हार्वर्ड द्वारा किए गए अध्ययन में पाया गया कि कुछ देशों में बिना भोजन के बच्चों की प्रचलन दर 21 फीसदी तक है। (डाऊन टू अर्थ)
डॉ. आर.के. पालीवाल
निर्वाचन आयोग द्वारा लोकसभा चुनावों की घोषणा अभी हाल ही में हुई है। कुछ दिन पहले तक निर्वाचन आयोग में चुनाव आयुक्तों की दो तिहाई पोस्ट रिक्त थी जो हाल ही में भरी गई हैं। लेकिन इस सबके बरक्स 2024 का लोकसभा चुनाव इस मायने में खास है कि चुनाव आयोग द्वारा चुनाव घोषित होने के पहले ही भाजपा और उसकी देखादेखी अन्य राजनीतिक दलों ने चुनावी बिगुल काफी पहले फूंक दिया था। केन्द्रीय सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी ने विभिन्न राज्यों की काफी लोकसभा सीटों पर काफी पहले अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए थे। भाजपा की देखादेखी कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस ने भी काफी सीटों पर उम्मीदवार घोषित कर दिए। विगत कुछ माह से केंद्र सरकार की तरफ से प्रधानमन्त्री और राज्यों में विभिन्न दलों के मुख्यमंत्री चौतरफा लोकार्पण, भूमि पूजन और विविध जन उपयोगी योजनाओं की घोषणाएं कर रहे थे। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की तरफ से आए दिन अखबारों में पूरे पेज के सरकारी विज्ञापन जारी हो रहे थे।
प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी वैसे तो अपने भाषणों से हर वक्त चुनावी मोड़ में ही दिखाई देते हैं लेकिन विगत कुछ माह से वे विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न तबकों के वोटरों को आकर्षित करने के लिए चुनावी रैलियों में व्यस्त हो गए थे। उनकी केंद्र सरकार ने पहले रसोई गैस सिलेंडर के दाम में सौ रुपए की कमी की और हाल में डीजल पेट्रोल के दाम दो रूपए लीटर कम करके मतदाताओं के ऊंट के मुंह में जीरा डाल कर मतदाताओं के ऊंट को अपनी पार्टी की तरफ करवट दिलाने का भी प्रयास किया है। यह दूसरी बात है कि मतदाता चुनाव पूर्व दी गई चुटकी भर राहत को मान का पान मानकर वोट देंगे या इतनी कम राहत देने से नाराज़ हो जाएंगे। भारतीय मतदाताओं का मिजाज भांपना खुद को तीसमारखा राजनीतिक विश्लेषक समझने वालों के भी वश में नहीं है। केंद्र सरकार की तरह राज्यों की सरकारों ने भी अपने राज्यों के मतदाताओं को लुभाने के लिए नई नई राहत दी हैं, जैसे,उत्तर प्रदेश सरकार ने अन्नदाताओं के लिए सिंचाई की बिजली मुफ्त करने की होली गिफ्ट का विज्ञापन जारी किया है।
पिचहत्तर साल से वोट डालते डालते मतदाता राजनीतिक दलों और नेताओं के सब जाल बट्टे समझने लगे हैं। कुछ दिन पहले जो उत्तर प्रदेश सरकार केन्द्र सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अन्नदाताओं को दिल्ली में घुसने से रोकने के लिए बार्डर पर मोर्चा संभाले हुए थी वह चुनाव की पूर्व संध्या पर सिंचाई की मुफ़्त बिजली से किसानों की आहत आत्मा पर मरहम लगा रही है। इधर जितनी भी छूट की घोषणाएं की गई हैं वे चुनाव के पहले मतदाताओं को लुभाने के लिए हैं। अब जब चुनावों की विधिवत घोषणा हो गई है, अब विभिन्न राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र जारी करेंगे। यह आम चुनाव इस अर्थ में भी खास है कि इस बार चुनावी घोषणापत्र भी काफी हद तक चुनाव पूर्व ही घोषित हो चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी ने मोदी की गारंटी शीर्षक से अपनी घोषणाएं की हैं और कांग्रेस ने युवाओं, महिलाओं और किसानों के लिए अलग अलग पांच पांच गारंटी की घोषणा की है।
2024 के चुनाव से पहले केंद्रीय जांच एजेंसियों द्वारा विपक्ष के बड़े नेताओं की गिरफ्तारी और छापों ने भी विगत कुछ वर्षों में एक रिकॉर्ड बनाया है जिसमें कुछ प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, उनके नजदीकी परिजनों, मित्रों और नौकरशाहों की गिरफ्तारियां हुई हैं या उन पर मुकदमे और एफ आई आर दर्ज हुई हैं। केंद्रीय जांच एजेंसियों की बढ़ती कार्यवाहियों के सामुहिक विरोध ने कई राजनीतिक दलों को आपसी मतभेद भुलाकर इंडिया गठबंधन की छतरी के नीचे आने के लिए बाध्य किया है । इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप भाजपा भी छोटे छोटे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को एन डी ए में लाने के लिए मजबूर हुई है। नतीजा चाहे जो हो 2024 के लोकसभा चुनाव में सत्ता पक्ष और विपक्ष में कांटे का मुकाबला होगा।
दिनेश उप्रेती
‘आजकल हमारे देश में मुफ्त की रेवड़ी बाँटकर वोट बटोरने का कल्चर लाने की भरसक कोशिश हो रही है। ये रेवड़ी कल्चर देश के विकास के लिए बहुत घातक है। रेवड़ी कल्चर वालों को लगता है कि जनता जनार्दन को मुफ्त की रेवड़ी बाँटकर उन्हें खरीद लेंगे। हमें मिलकर रेवड़ी कल्चर को देश की राजनीति से हटाना है।’
साल 2022 में दिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस बयान पर काफी चर्चा हुई थी।
‘कोई और (राजनीतिक दल) बाँटे तो रेवड़ी और वो (मोदी सरकार) बाँटे तो विटामिन की गोलियां...’
लोगों को मुफ्त में चीज़ें या पैसे देने से सियासी दलों के वादों पर मीडिया में बहस के दौरान अक्सर विपक्षी नेता ये तर्क देते हुए देखे-सुने जा सकते हैं।
यहाँ तक कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुँचा था और उच्चतम न्यायालय ने इसे गंभीर मुद्दा बताते हुए कहा था कि वेलफ़ेयर स्टेट होने के नाते मुफ्त चीजें जरूरतमंदों को मिलनी चाहिए, लेकिन अर्थव्यवस्था को हो रहे नुकसान और वेलफेयर में संतुलन बिठाने की जरूरत है।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने फरवरी 2024 में अपने बजट भाषण में बताया था कि मुफ्त राशन योजना पर चालू वित्त वर्ष में दो लाख करोड़ रुपये खर्च किया जाएगा।
नरेंद्र मोदी सरकार ने नवंबर 2023 में ही घोषणा कर दी थी कि इस योजना को अगले पाँच साल तक यानी 2028 तक जारी रखा जाएगा।
वित्त मंत्री के बजट अनुमान को आधार बनाया जाए तो इस योजना से सरकारी खजाने का बोझ तकरीबन 10 लाख करोड़ रुपये होता है।
इस योजना को जून 2020 में शुरू किया गया था, इसके बाद से इसकी समय सीमा को कई बार आगे बढ़ाया गया है। अब इसकी डेडलाइन दिसंबर 2028 तक बढ़ाई गई है।
लाखों करोड़ कहाँ से जुटा रही सरकार?
पर सवाल ये उठता है कि आखिर सरकार के पास इन मुफ्त की चीजों के लिए पैसा आता कहाँ से है।
जब 2014 में मनमोहन सरकार को हटाकर नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई तो सब्सिडी बिल में उसे सबसे अधिक राहत मिली पेट्रोल-डीज़ल और फर्टिलाइज़र्स की कम होती अंतरराष्ट्रीय कीमतों से।
मोदी सरकार के पहले कार्यकाल यानी 2014-15 से लेकर 2018-19 तक भारतीय रिफाइनरी कंपनियों ने 60.84 प्रति बैरल की दर से कच्चा तेल आयात किया जबकि इससे पहले के पाँच वित्त वर्षों (मनमोहन सरकार 2.0) में ये दर औसतन 96.05 डॉलर प्रति बैरल थी।
रिसर्च एनालिस्ट आसिफ इकबाल कहते हैं, ‘मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में कच्चे तेल की सस्ती आयातित दर ने सरकारी खजाने में संतुलन साधने में अहम भूमिका निभाई। मोदी सरकार इस मायने में भी चतुर रही कि उन्होंने सस्ते आयातित तेल का पूरा फायदा भारतीय उपभोक्ताओं को नहीं दिया। यानी पेट्रोल, डीजल के दाम नहीं घटाए। उलटे पेट्रोल, डीज़ल के अलावा दूसरे फ्यूल प्रोडक्ट्स पर एक्साइज़ ड्यूटी भी बढ़ा दी।’
साल 2012-13 में पेट्रोलियम उत्पादों पर जहाँ केंद्र सरकार 96,800 करोड़ रुपये की सब्सिडी दे रही थी, लेकिन उसे एक्साइज़ के रूप में सिर्फ 63,478 करोड़ रुपये का राजस्व मिल रहा था।
साल 2013-14 में भी फ्यूल सब्सिडी जहाँ 85,378 करोड़ रुपये रही, वहीं इससे मिला एक्साइज राजस्व 67,234 करोड़ रुपये रहा।
लेकिन इसके बाद की स्थिति उलट गई। साल 2017-18 और 2018-19 में जहाँ फ्यूल सब्सिडी 24,460 करोड़ रुपये और 24,837 करोड़ रुपये रही, वहीं इन पर एक्साइज कलेक्शन 2 लाख 29,716 करोड़ और 2 लाख 14,369 करोड़ रुपये हो गया।
तेल की धार पर शुरुआत से नजर
मोदी सरकार जब पहली बार 2014 में सत्ता में आई थी तो पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी 9 रुपये 48 पैसे प्रति लीटर थी, जबकि डीज़ल पर 3 रुपये 56 पैसे प्रति लीटर।
इसके बाद सरकार ने नवंबर 2014 से लेकर जनवरी 2016 तक नौ बार पेट्रोल और डीज़ल की एक्साइज ड्यूटी में बढ़ोतरी की।
यानी इन 15 महीनों में पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी में 11 रुपये 77 पैसे की बढ़ोतरी की गई जबकि डीजल पर एक्साइज़ ड्यूटी 13 रुपये 47 पैसे बढ़ाई गई।
इससे सरकारी खजाने में जमकर पैसा आया। साल 2014-15 में जहाँ पेट्रोल, डीजल से एक्साइज कमाई 99 हज़ार करोड़ रुपये थी वहीं 2016 में ये तकरीबन ढाई गुना (2 लाख 42 हज़ार करोड़ रुपये) हो गई।
आसिफ कहते हैं, ‘आंकड़ों से साफ है कि मोदी सरकार ने सस्ते इंपोर्टेड क्रूड से न केवल फ्यूल सब्सिडी घटाई, बल्कि दूसरे वित्तीय खर्चों के लिए भी इससे होने वाली कमाई का इस्तेमाल किया। पेट्रोलियम सब्सिडी ले-देकर रसोई गैस सिलिंडर तक ही सीमित रह गई और कुछ हद तक उज्ज्वला स्कीम की सब्सिडी तक। दूसरी ओर पेट्रोल-डीज़ल से एक्साइज की कमाई में कई गुना का उछाल आ गया है।’
अब आलम ये है कि मोदी सरकार पेट्रोल, डीज़ल क़ीमतों को हाथ भी नहीं लगाती, चुनावी मौसम को छोडक़र। अभी मई में लोकसभा चुनाव होने हैं, उससे पहले 15 मार्च को पेट्रोल, डीजल की कीमतों में कटौती की गई है। इससे पहले आखिरी बार 22 मई 2022 को पेट्रोल, डीज़ल कीमतें घटाई गईं थीं।
पाँच जुलाई 2013 को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू होने के बाद पीडीएस के तहत गेहूं की कीमत दो रुपये प्रति किलो और चावल की कीमत तीन रुपये प्रति किलो तय की गई थी।
मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद इन दरों में इजाफा नहीं किया बल्कि एक जनवरी 2023 से कीमतें ही शून्य कर दी। मतलब पीडीएस के तहत अब गेहूं और चावल मुफ़्त मिल रहा है।
फ्रीबीज के ऐलान में लगी होड़
मुफ़्त योजनाओं की घोषणाएं करने में केंद्र से कहीं आगे राज्य सरकारें हैं। सत्ता में आने के लिए राजनीतिक दल बड़ी-बड़ी घोषणाएं कर देते हैं और सत्ता में आने के बाद इनका सीधा असर सरकारी खजाने और दूसरी योजनाओं पर दिखने लगता है।
पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च ने अक्टूबर 2023 में एक रिसर्च रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें कम से कम 11 राज्यों का राजस्व घाटा बहुत अधिक था।
इनमें पंजाब, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और हरियाणा का राजस्व घाटा बहुत अधिक है, जबकि इसके उलट खनन से अच्छी खासी कमाई करने वाले झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों की आर्थिक हालत इनसे बेहतर थी।
सब्सिडी का बोझ इतना अधिक है कि राज्यों की कमाई का एक बड़ा हिस्सा सब्सिडी पर खर्च होता है। रिपोर्ट के मुताबिक साल 2022-23 में राज्यों ने अपनी राजस्व प्राप्तियों का औसतन 9 फीसदी सब्सिडी पर खर्च किया।
कुछ राज्यों में तो सब्सिडी का भी एक बड़ा हिस्सा बिजली सब्सिडी पर खर्च हो रहा है। मसलन राजस्थान ने कुल सब्सिडी का 97 फीसदी बिजली पर खर्च किया जबकि पंजाब ने 80 फीसदी।
मुफ़्त की रेवड़ी कहना ठीक है?
सवाल ये उठता है कि सरकारों की किन योजनाओं को ज़रूरी जन-कल्याणकारी योजना कहा जा सकता है और किन्हें ‘फ्रीबीज’ या मुफ्त की रेवड़ी कहना ठीक रहेगा?
मनी नाइन के संपादक और आर्थिक मामलों के जानकार अंशुमन तिवारी?बताते हैं, ‘हमारे पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जिसके जरिए ये बताया जा सके कि क्या चीज फ्रीबीज हैं और क्या नहीं हैं। क्या आप मुफ्त अनाज बाँटने को फ्रीबीज कहेंगे। और कहीं किसी राज्य में पहाड़ों पर पानी नहीं पहुंच रहा है और वहां सरकार फ्री में पानी उपलब्ध करवा रही है तो क्या उसे आप फ्रीबीज कहेंगे या नहीं। ऐसे में इस पूरे विचार-विमर्श में तथ्यों का भारी अभाव है।’
वह कहते हैं, ‘हमारे पास इसे देखने का सिर्फ एक ही तरीका है। अब से दस साल पहले तक भारत में तथ्यों के आधार पर चर्चा होती थी, जिसमें मेरिट और डिमेरिट सब्सिडी को परिभाषित किया जाता था। हमारे पास इसे देखने का यही एक तरीका है जो भारतीय वित्तीय व्यवस्था के अनुरूप है।’
‘इस आधार पर फ्री राशन और फ्री शिक्षा मेरिट सब्सिडी है। लेकिन अगर किसी छात्र को शिक्षा देना मेरिट सब्सिडी है तो क्या उसे लैपटॉप देना डिमेरिट सब्सिडी है, ये कहना मुश्किल है।’
लेकिन सब्सिडी चाहे मेरिट की श्रेणी में आए अथवा डिमेरिट की श्रेणी में, दोनों सूरत में टैक्सपेयर का पैसा खर्च होता है।
लोग गरीबी से बाहर या गरीबी बढ़ी?
बहस इस बात पर भी है कि अक्सर गरीबों को आगे रखकर मुफ्त योजनाओं या फ्रीबीज का ऐलान किया जाता है। साथ ही सरकार ये भी दावा करती है कि उसके कार्यकाल के दौरान देश ने खूब तरक्की की है और करोड़ों लोग गरीबी रेखा से बाहर आए हैं।
पिछले दिनों मोदी सरकार के इस दावे के बाद कि 25 करोड़ लोग गऱीबी रेखा से बाहर आए हैं, कई राजनीतिक दलों के अलावा सोशल मीडिया पर कुछ लोग सवाल पूछने लगे कि 25 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आए हैं तो 80 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन क्यों?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ुद राज्यसभा में इस सवाल को कुतर्क बताया और इसका जवाब कुछ इस तरह दिया, ‘हम जानते हैं कोई बीमार व्यक्ति हॉस्पिटल से बाहर आ जाए ना तो भी डॉक्टर कहता है कुछ दिन इसको ऐसे-ऐसे संभालिए, खाने में परहेज रखिए। क्यों...कभी दोबारा वहां मुसीबत में ना आ जाए। ’
‘जो गरीबी से बाहर निकला है ना उसको ज्यादा संभालना चाहिए ताकि कोई ऐसा संकट आकर के फिर से गरीबी की तरफ लपक ना जाए। इसलिए उसको मजबूती देने का समय देना चाहिए। ताकि वो फिर से वापिस उस नर्क में डूब न जाए।’ (bbc.com/hindi)
जय सुशील
किसी भी विदेशी भाषा मसलन जर्मन, रूसी, स्पैनिश से अंग्रेजी में किए गए अनुवाद से किसी तीसरी भाषा में अनुवाद करना आलस्य का प्रतीक है। यह काम भारत में कम से कम हिंदी और उर्दू में तो होता ही है। संभवत बांग्ला या अन्य भाषाओं में भी होता होगा।
अनुवादक यह नहीं समझते कि एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद होते ही कई चीज़ें छूटती और बदलती हैं लेकिन वो यह सोचे बगैर अंग्रेजी से उठा कर अनुवाद कर देते हैं और वाह-वाही बटोरते रहते हैं।
क्या आपने कभी सुना है कि अंग्रेजी जानने वाले ने किसी तीसरी भाषा से स्पैनिश उपन्यास का अनुवाद किया हो। पश्चिम के देशों में आम तौर पर किसी भाषा से अनुवाद करना हो तो लोग वो भाषा सीखते हैं मसलन डेजी रॉकवेल हिंदी और उर्दू से अनुवाद करती हैं। इसी तरह और भी लोग हैं। एक अनुवादक हैं (जिनका नाम भूल रहा हूं) वो पोलिश और स्पैनिश से अंग्रेजी में अनुवाद करती हैं। अनुवादकों ने पूरा जीवन लगाया है भाषा सीखने में तब अनुवाद करते हैं और इसी कारण अच्छा अनुवाद होता है अंग्रेजी में।
बहुत साल पहले महाश्वेता देवी की एक किताब का अनुवाद हिंदी में पढ़ते हुए बहुत ही खराब लगा। वही किताब बाद में अंग्रेजी में ठीक लगी। मेरा अनुमान है कि हिंदी अनुवादक ने अंग्रेजी अनुवाद से हिंदी में किया था जबकि बांग्ला से हिंदी बोलने समझने वाले बहुत लोग हैं भारत में। मैंने तमिल से अंग्रेजी में हुए अनुवाद का हिंदी अनुवाद भी देखा है और यह आलस्य भरा रास्ता है।
हिंदी भाषी लोगों को तो चाहिए कि वो अंग्रेजी के अलावा एक और भाषा जानें और उससे अनुवाद करें। पूरी दुनिया में अंग्रेजी की द्धद्गद्दद्गद्वशठ्ठ4 को चुनौती दी जा रही है लेकिन ये चुनौती दूसरी भाषाएं सीखकर ही दी जा सकती है। हवा हवाई नहीं होता है काम।
सनियारा खान
बोलनेवाले लोगों के लिए लिखे गए कुछ तथ्यों के बारे में पढऩे का मौका मिला। काफी रोचक भी लगा और खतरनाक भी। पैथोलॉजिकल झूठ को माइथोमेनिया और स्यूडोलोजिया फैंटाका नाम से भी जाना जाता है। इसे एक प्रकार से असामाजिक व्यक्तित्व विकार के रूप से भी माना जाता है। ऐसे लोग अपने बारे में गलत इतिहास गढ़ कर दूसरों को प्रभावित करते हैं। पैथोलॉजिकल झूठ बोलने वाले लोग अत्याधिक आत्मकेंद्रित, वाकपटु और रचनात्मक होने के साथ साथ कुछ ज्यादा ही मंझे हुए कलाकार होते हैं। इसे एक बड़ा रहस्यमय रोग भी कहा जा सकता है। क्यों कि वे लोग कई बार तथ्य और कल्पना के बीच का फर्क समझ ही नहीं पाते हैं या फिर समझना ही नहीं चाहते हैं। अगर उनसे कुछ सवाल पूछ लिया जाए तो वे उस खास सवाल के बारे में खामोश रह कर भी लगातार बोलकर सवाल पूछने वाला व्यक्ति को ही बूरी तरह से भ्रमित कर देते हैं। एक अध्ययन से ये पता चला है कि पैथोलॉजिकल झूठ बोलने वाला एक व्यक्ति जितना अधिक झूठ बोलते जाता है, उसके लिए आगे झूठ बोलना उतना ही आसान होता जाता है। ये अलग बात है कि पैथोलॉजिकल झूठ को हमेशा पकड़ पाना मुश्किल होता है। वे लोग इस बात में पारंगत होते हैं कि कैसे एक झूठ को सशक्त कहानी बना कर और कह कर लोगों को आसानी से आश्वस्त करके प्रभावित किया जाए। वाशिंगटन पोस्ट के कार्टूनिस्ट टॉम टॉल्स ने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को भी एक बार पैथोलॉजिकल झूठा कहा था।
पैथोलॉजिकल झूठ बोलने वाले लोगों को थोड़ी मुश्किल से ही सही, लेकिन पहचाना जा सकता है। कुछ जगह पर अपनी बनाई कहानियों से वे खुद को वीर और अत्यंत साहसी दिखा कर लोगों को मोहित करने की कोशिश करते हैं। और कुछ अन्य जगह पर कुछ अलग कहानियां बना कर खुद को पीडि़त और सताया हुआ दिखाकर सहानुभूति बटोरने में व्यस्त रहते हैं। कभी कभी ये भी देखा गया कि वे लोग एक ही कहानी को बदल बदल कर पेश करते करते कई बार पहले कही बातें बाद में भूल भी जाते हैं।
चिकित्सा साहित्य में 100 साल पहले ही पैथोलॉजिकल झूठ के बारे में बताया गया था। 1891 में मनोचिकित्सक एंटोन डेलब्रूक ने पहली बार चिकित्सा साहित्य में पैथोलॉजिकल झूठ के बारे में बताया था। इसे एक जटिल विषय माना जाता है। लेकिन इस बात से सभी सहमत हैं कि इस विषय पर और ज़्यादा व्यवस्थित शोध होना चाहिए। क्यों किपैथोलॉजिकल झूठ समाज को साधारण मानवीय झूठ से ज़्यादा भ्रमित करता है। ऐसे बीमार लोगों से प्रभावित समाज कई बार झूठ और सच में अंतर समझने लायक ही नहीं रहता हैं। तब ऐसे समाज की बुनियाद हिलने लगती है।
डॉ. आर.के. पालीवाल
इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को असंवैधानिक करार कर और लोकतंत्र में चुनावी पारदर्शिता के लिए इन बॉन्ड का तमाम ब्यौरा केंद्रीय चुनाव आयोग की वेबसाईट पर अपलोड कराने का आदेश देकर सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने देर आए दुरुस्त आए का मुहावरा चरितार्थ करते हुए एक धीर गंभीर फैसला कर ऐतिहासिक काम किया है। एक तरफ सरकार पारदर्शिता की बात करती है और भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की वकालत करती है और दूसरी तरफ़ चुनावी चंदे को उस आम जनता की नजरों से छिपाने की तरफदारी करती है जिसने अपना कीमती वोट देकर उसे इतना शक्तिशाली बनाया है।
सर्वोच्च न्यायालय की सख्ती के बावजूद अभी तक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की तरफ से इलेटोरल बॉन्ड की आधी अधूरी सूचनाएं ही बाहर आई हैं। लोकतंत्र और चुनावी प्रक्रिया को साफ सुथरी देखने के लिए प्रयास करने वाले संगठनों और पत्रकारों ने इसी आधी अधूरी सूचना के आधार पर जो विश्लेषण प्रस्तुत किए हैं वह चौंकाने वाले हैं। इन विश्लेषणों से जो निष्कर्ष निकल रहे हैं वह इंगित करते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड की कालीन के नीचे कितनी ज्यादा गंदगी छिपी है। यही कारण है कि केंद्र सरकार इन बॉन्ड की सूचना को सार्वजनिक करने के खिलाफ थी और भारतीय जनता पार्टी के अधिकांश नेता इस मुद्दे पर मुखर नहीं हो पा रहे हैं। जहां तक विपक्षी दलों का सवाल है उनमें भी काफी राजनीतिक दल ऐसे हैं जिन्हें इलेक्टोरल बॉन्ड का भारतीय जनता पार्टी से काफी कम ही सही लेकिन अच्छा खासा लाभ मिला है। जहां विपक्षी दलों की सरकार थी वहां की कंपनियों ने उन्हें भी चंदा दिया है इसलिए सारे विपक्षी दल भी इस मुद्दे पर सरकार को जोशो खरोस से नहीं घेर सकते। उदाहरण के तौर पर तृणमूल कांग्रेस जैसे पश्चिम बंगाल तक सीमित क्षेत्रीय राजनीतिक दल को भाजपा के बाद सबसे अधिक चंदा मिला है और उसकी चंदा राशि कांग्रेस से भी अधिक है।
इस मुद्दे पर अब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को भी कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। कपिल सिब्बल ने इस विवादित मुद्दे पर संघ की चुप्पी को आश्चर्यजनक बताया है। हाल ही में दुबारा संघ के सर कार्यवाह चुने गए दत्तात्रेय होसबोले ने इलेक्टोरल बॉन्ड को एक प्रयोग कहकर पल्ला झाड़ लिया। बडी चतुराई से उन्होने इसके पक्ष या विपक्ष में कुछ नहीं कहकर संघ की मु_ी बंद रखी है। संघ की चुप्पी से यह आभास होता है कि वह भी इसके पक्ष में खुलकर बोलने से कतरा रहा है। दूसरी तरफ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी इस मुद्दे पर सबसे ज्यादा मुखर है। केंद्रीय चुनाव आयोग के उस पत्र के जवाब में जिसमें राजनीतिक दलों से इलेक्टोरल बॉन्ड से प्राप्त धन की जानकारी मांगी है पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी ने लिखा है कि हमारा दल शुरु से इस योजना के खिलाफ था और सर्वोच्च न्यायालय में इसके खिलाफ हमने भी एक याचिका दायर की थी। हमारी पार्टी ने इसके लिए न कोई अकाउंट खोला और न इलेक्टोरल बॉन्ड से कोई चंदा लिया है। शायद मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी ही ऐसी प्रमुख पार्टी है जिसने इलेक्टोरल बॉन्ड को सिरे से खारिज किया है इसीलिए उसे इस योजना के खिलाफ पूरी मुखरता से बोलने का नैतिक अधिकार है। जहां तक अन्य राजनीतिक दलों की स्थिति है उनको इलेक्टोरल बॉन्ड से परहेज नहीं रहा और न उन्होंने कभी राजनीतिक चंदे की पवित्रता पर जोर दिया। उनके पेट का दर्द यह है कि केन्द्र में सत्ता पर काबिज दल भाजपा ने उनसे कई गुणा ज्यादा चंदा वसूल लिया। उदाहरण के तौर पर भाजपा को कांग्रेस से पांच गुणा ज्यादा चंदा मिला। यदि कांग्रेस को भी भाजपा के लगभग बराबर चंदा मिल जाता तो उसके पेट में मरोड़ नहीं उठती और उसका चेहरा भी भाजपा की तरह चमक जाता। चंदे की यह स्थिति केवल भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों की ही नहीं है। यही हालत क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की भी है। उदाहरण के तौर पर तमिलनाडु में सत्ताधारी दल डी एम के को जो चंदा मिला है उसकी तुलना में विपक्षी दल ए ई ए डी एम के को नगण्य चंदा मिला है। इस परिपेक्ष्य में अधिकांश राजनीतिक दलों का रूदन नकली है। चंदे के इस धंधे पर मतदाताओं और विशेष रूप से प्रबुद्ध वर्ग को सबसे कड़ा प्रहार करना चाहिए क्योंकि यह हमारे लोकतंत्र को खोखला और बेहद प्रदूषित कर देगा।
प्रियदर्शन
अशुद्ध भाषा ऐसी चीज नहीं है जिस पर किसी लेखक को बहुत शर्मिंदा होना चाहिए। कई बड़े लेखक व्याकरण के हिसाब से अशुद्ध भाषा लिखते रहे हैं। लेकिन उनके लेखन को मापे जाने की कसौटी उसके साहित्यिक मूल्य से बनती रही। भाषिक अशुद्धियां या असावधानियां दूर करने के लिए प्रकाशन गृहों के संपादक होते हैं।
भाषाओं के रूप बदलते रहते हैं। हिंदी में चन्द्रबिन्दु धीरे-धीरे गुम होता जा रहा है। कवर्ग-चवर्ग का पांचवा वर्ण लगभग विलुप्त हो चुके हैं। पांचवें वर्ण की जगह बिंदी का इस्तेमाल चल पड़ा है। व्याकरण के पुराने विशेषज्ञ इस परिवर्तन पर दुखी होते हैं और कुछ लोग अब भी जि़द की तरह गंगा या आंचल जैसे शब्दों में बिंदी की जगह पांचवें वर्ण का इस्तेमाल करते हैं। अब आप इस पर बहस करते रहिए कि शुद्ध रूप क्या है।
इसी तरह नुक्तों का इस्तेमाल हिंदी में एक नया अभ्यास है। 25 साल पहले तक हिंदी के सार्वजनिक व्यवहार में नुक्ते नहीं थे। लेकिन अब तमाम अखबारों, समाचार चैनलों और यहां तक की किताबों में भी नुक्ते का इस्तेमाल दिखाई पड़ता है। मेरी तरह के लेखक को भी ग़ालिब की जगह गालिब लिखना गालिब का अपमान लगता है और जिंदगी को जिंदगी बना देना उसकी तौहीन।
बेशक नुक्ते हिंदी व्याकरण का हिस्सा नहीं हैं लेकिन वे हिंदी की शोभा बढ़ाते हैं। भाषाएं अंतत: ध्वनियों से बनती हैं और किसी भाषा में जितनी ध्वनियां होंगी, वह अपने वाचन में उतनी ही समृद्ध लगेगी।
वैसे भी शुद्धतावाद भाषाओं का शत्रु होता है। भाषाएं मेलजोल से जीवित रहती हैं और समृद्ध होती हैं। अंग्रेज़ी में न जाने कितनी भाषाओं के शब्द चले आए और हिंदी में भी न जाने कितनी नदियों का पानी मिलता चला गया। जो लोग शुद्धतावाद के आग्रही होते हैं वे भाषा को संकीर्ण और संकुचित छोड़ देते हैं। उनका सांस लेना मुश्किल हो जाता है।
6 मगर व्याकरण में धीरे-धीरे होने वाला बदलाव एक चीज है और व्याकरण न जानने की वजह से होने वाली गलतियां एक दूसरी बात है। यह गलतियां इस ओर इशारा करती हैं कि आप अपनी भाषा के प्रति संवेदनशील नहीं हैं।
व्याकरण के नियम इसलिए नहीं होते हैं कि वह भाषा को जकड़ दें, बल्कि वे इसलिए बनते जाते हैं कि उनके दायरे में रहते हुए भाषा अपने सबसे सुंदर रूप में खिलती है। उन्हें परंपरा भी बनाती है और स्मृति भी। ‘उसकी नाक सुंदर है’ की जगह ‘उसका नाक सुंदर है’ लिखना चाहें तो यह सुस्वादु भोजन में कंकड़ मिलने जैसा लगता है।
कई बार लेखक जानबूझकर व्याकरण को? तोड़ते भी हैं- यह दरअसल व्याकरण नहीं, भाषा का शिल्प तोडऩा है। क्योंकि भाषा से जो नया अर्थ वे अर्जित करना चाहते हैं, वह शब्दों या वाक्यों के प्रचलित अर्थ के बाहर जाकर ही संभव होता है। लेकिन लेखक को गलत भाषा लिखने की छूट मिल सकती है, संपादक या प्राध्यापक को नहीं। बेशक, अनजाने में ग़लत भाषा लिखने वाले लेखक खऱाब भाषा भी लिखते हैं- अच्छी भाषा लिखने की कोशिश में नकली भाषा लिखते हैं। इस नकलीपन को पकडऩा, एक लेखक की असावधानी या सीमा को पहचानना और सुधारना संपादक का काम होता है। अगर संपादक खुद भाषा न जाने तो यह काम कैसे करेगा?
हिंदी का सबसे बड़ा दुर्भाग्य भाषा और व्याकरण के प्रति सजग और सतर्क संपादकों और प्राध्यापकों का अभाव है। दिल्ली विश्वविद्यालय के नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा हिंदी-प्राध्यापक शुद्ध और साफ-सुथरी भाषा नहीं लिख सकते। दिल्ली के निन्यानबे फीसदी पत्रकारों को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। इनमें से कई लोग आलोचक और संपादक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। अब वे पुरस्कार भी बांटते हैं। क्या ही अच्छा हो कि वे कुछ काम अपनी भाषा पर भी करें।
पॉल किर्बी
व्लादिमीर पुतिन का पांचवीं बार राष्ट्रपति बनना हमेशा से तय था। उनके सामने तीन उम्मीदवार थे और वो तीनों ही क्रेमलिन की ओर से खड़े किए गए लोग थे।
लेकिन जब उनकी जीत हुई और कुल वोट का 87 फीसदी हिस्सा पुतिन को मिला तो उन्होंने कहा कि रूस का लोकतंत्र कई पश्चिमी देशों के लोकतंत्र से कई ज़्यादा मजबूत है।
लेकिन सच ये है कि इस चुनाव में एक भी ऐसा उम्मीदवार नहीं था, जिसकी विश्वसनीयता हो।
पुतिन के विरोधी एलेक्सी नवेलनी के समर्थकों ने प्रतीकात्मक रूप से विरोध-प्रदर्शन दर्ज किया।
‘नून अगेन्स्ट पुतिन’ मुहिम के तहत रूस के मॉस्को और सेंट पीटर्सबर्ग सहित कई रूसी शहरों और कई देशों के रूसी दूतावासों से सामने लोग जुटे और विरोध दर्ज कराते हुए वोटिंग की जिसे- ‘प्रोटेस्ट वोटिंग’ कहा जा रहा है। हालांकि इन प्रदर्शनों का चुनाव पर कोई असर ना होने वाला था और ना ही हुआ।
मॉनिटरिंग ग्रुप ओवीडी-इन्फो ने कहा है कि रूस में कम से कम 80 लोगों को गिरफ्तार किया गया। शुक्रवार को कुछ पोलिंग बूथ पर हमले की खबरें भी सामने आईं।
पश्चिमी देशों ने रूस के चुनाव की निंदा करते हुए कहा है, ‘ये चुनाव ना तो स्वतंत्र थे ना ही निष्पक्ष।’
जर्मनी ने इस चुनाव को सेंसरशिप, दमन और हिंसा के बीच का ‘छद्म चुनाव’ कहा है।
ब्रिटेन के विदेश मंत्री डेविड कैमरून ने रूस के चुनाव की निंदा करते हुए कहा है, ‘यूक्रेन के क्षेत्र में गैर कानूनी तरीके से चुनाव कराए गए।’
यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की ने कहा, ‘रूसी तानाशाह एक और चुनाव करा रहे हैं।’
नेवेलनी के साथी लियोनिड वोल्कोफ जो लिथुआनिया में शरण लेकर रह रहे हैं, उन्हें एक हफ्ते पहले बुरी तरह हथौड़े से मारा गया था।
उन्होंने इस चुनाव पर कहा है कि ‘पुतिन को जिस प्रतिशत में वोट मिले हैं, उसका वास्तिवकता से कोई ताल्लुक नहीं है।’
घरों तक बैलेट बॉक्स लेकर पहुँचे
रूस में तीन दिन तक चुनाव चले और रूस के कब्जे वाले यूक्रेनी इलाकों में और भी लंबी अवधि तक चुनाव चले। कोशिश थी कि लोगों को घरों से बाहर निकाला जाए और चुनाव में हिस्सा लेने के लिए राजी किया जाए।
रविवार को रूस के कब्जे वाले शहर बर्डियांस्क में चुनाव आयोग के एक अधिकारी के मारे जाने की खबर सामने आई।
स्थानीय लोगों का कहना है कि रूस के समर्थक जिनके साथ सेना के लोग भी थे वो बैलेट बॉक्स लेकर लोगों के घरों तक जा रहे थे और वोट ले रहे थे।
लेकिन जब नतीजे आए तो रूस के टीवी चैनल ने पुतिन की जीत को बहुत बड़ी जीत बताया।
रूस के एक चैनल पर एक पत्रकार ने कहा, ‘व्लादिमीर पुतिन के लिए ये बड़ा समर्थन है और पश्चिमी देशों को एक बड़ा संदेश हैं।’
जब जीत के बाद पुतिन ने पत्रकारों से बात की तो उन्होंने रूसी राष्ट्रपति कैंपेन की जमकर तारीफ की और कहा कि ये अमेरिका से भी बेहतर है। रूस ने ऑनलाइन वोटिंग सिस्टम का इस्तेमाल किया। अधिकारियों का कहना है कि उसे इस प्रक्रिया के तहत 80 लाख वोट मिले।
उन्होंने कहा, ‘ये पारदर्शी और बिल्कुल सही है। अमेरिका की तरह नहीं जहाँ 10 डॉलर में वोट खरीदा जा सकता है।’
स्वतंत्र वॉचडॉग गोलोज को वोटिंग प्रक्रिया के पर्यवेक्षण से रोक दिया गया था। लेकिन कई रिपोर्ट्स सामने आई हैं, जिसमें चुनाव में गड़बड़ी की बात कही जा रही है। यहां तक कि ये भी कहा गया कि सरकारी क्षेत्र में काम कर रहे कर्मचारियों पर दबाव था कि वो वोटिंग में हिस्सा लें या तो वो पोलिंग बूथ पर जाकर वोट दें या तो ऑनलाइन वोट दें, लेकिन वोट जरूर करें।
पहली बार पुतिन ने लिया नवेलनी का नाम
पुतिन ने चुनाव में अपने प्रतिद्वंद्वियों की भी भी तारीफ की और कहा कि उन्होंने ज़्यादा से ज़्यादा वोटर्स को चुनावी प्रक्रिया में हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित किया।
पहली बार उन्होंने एलेक्सी नवेलनी का खुलकर नाम लिया। वो भी तब जब एक महीने पहले उनकी ऑर्कटिक की जेल में मौत हो गई है।
संभवत: वो आरोपों का जवाब देना चाह रहे थे, जिसमें कहा जा रहा था कि पुतिन ने नवेलनी की हत्या कराई है।
नवेलनी पर बात करते हुए उन्होंने उन रिपोर्ट्स पर मुहर लगाई, जिसमें कहा गया था कि उन्होंने पश्चिमी देशों में बंद रूसी क़ैदियों के बदले नवेलनी को विदेश जाने के विकल्प के बारे में विचार किया था लेकिन शर्त थी कि वह वापस रूस नहीं लौटेंगे।
पुतिन ने कहा, ‘मैंने कहा था कि मैं इसके लिए तैयार हूं लेकिन दुर्भाग्य से जो हुआ वो हुआ। क्या कर सकते हैं। यहीं जिंदगी है।’
प्रोटेस्ट वोट और इसके मायने
यूलिया नवेलनाया बर्लिन में रूसी दूतावास के बाहर छह घंटे तक खड़ी रहीं और प्रोटेस्ट वोटिंग यानी चुनाव के विरोध में वोटिंग में हिस्सा लिया।
उन्होंने कहा कि उन्होंने अपने बैलेट पेपर पर अपने पति नवेलनी का नाम लिखा। उन्होंने विरोध में शामिल होने आए लोगों की तारीफ़ करते हुए कहा, ‘इससे उम्मीद जगती है कि सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है।’
लंदन में एक प्रदर्शनकारी मतदाता ने कहा कि मतदान करने से पहले वह सात घंटे से अधिक समय तक कतार में खड़ी रहीं।
कार्यकर्ता और वकील लियोबोफ सोबोल ने वॉशिंगटन डीसी में कहा कि विरोध में जो वोट किए जा रहे हैं वो क्रेमलिन के नतीजों में दिखाई नहीं देंगे। लेकिन यह एकजुटता का प्रतीक है और इसलिए ये जरूरी है।’
रूस का चुनाव कभी भी ‘लेवल प्लेइंग फील्ड’ नहीं होने वाला था। यानी ऐसा नहीं होने वाला था, जिसमें सबको समान अवसर मिल सके।
कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार निकोलाई खारितोनोफ़ को चार फीसदी से थोड़ा अधिक वोट मिला और उनके साथी उम्मीदवारों को इससे भी कम वोट मिला।
तीनों ही उम्मीदवार गंभीर नहीं थे और खारितोनोफ़ तो पुतिन की अपने कैंपेन में तारीफ़ करते हुए कह चुके हैं कि ‘पुतिन सभी क्षेत्रों में देश को एकजुट करने और जीत दिलाने के लिए काम कर रहे हैं।’
लाखों लोगों ने इसलिए पुतिन को उनके पांचवे कार्यकाल के लिए वोट दिया क्योंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं था।
इसकी सबसे बड़ी वजह है, क्रेमलिन ने पूरे राजनीतिक परिदृश्य से कोई भी क्रेडिबल प्रतिद्वंद्वी रहने ही नहीं दिया, या तो पुतिन के विरोधियों को जेल में डाल दिया जाता है या तो निर्वासन में रह रहे हैं।
कुछ हफ्तों तक ये भी खबर चलती रही कि एक युद्ध-विरोधी नेता बोरिस नादेज़दीन को चुनाव में खड़े होने की इजाजत मिल सकती है।
लेकिन पिछले महीने चुनाव आयोग ने उनकी उम्मीदवारी खारिज कर दी क्योंकि ऐसा लग रहा था कि बड़ी संख्या में रूसी अपना समर्थन उनके लिए दर्ज करा सकते हैं। (bbc.com/hindi)
मोहर सिंह मीणा
पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से विस्थापित होकर भारत आए गैर मुसलमानों को नागरिकता देने के लिए नागरिकता संशोधित कानून (सीएए) देश में लागू कर दिया गया है।
यह कानून न सिर्फ भारत बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चाओं में बना हुआ है।
पाकिस्तान से सटे राजस्थान में बड़ी संख्या में विस्थापित हिंदू परिवार रहते हैं। सीएए लागू होने के बाद इनमें से कुछ परिवारों में खुशी है। लेकिन, अधिकतर परिवार परेशान हैं।
‘हमारे कई परिचित लोगों को सीएए के तहत भारतीय नागरिकता मिलने से राहत मिलेगी। लेकिन, अंदरूनी रूप से मैं बहुत परेशान हूं।’
‘मैं अपने परिवार को लेकर 11 जनवरी, 2015 को भारत आया था। सीएए के मुताबिक़, मैं 11 दिन की देरी से भारत आया हूं, सिफऱ् इसलिए मेरे परिवार को भारतीय नागरिकता नहीं मिलेगी। जबकि, हम भी हिंदू हैं, हम भी पाकिस्तान से प्रताडि़त होकर ही भारत आए हैं।’
यह कहना है हेम सिंह का। वे अपने परिवार के साथ पाकिस्तान से भारत आए थे। वो और उनका परिवार जोधपुर की आंगणवा सेटलमेंट में रह रहा है।
सीएए कानून के तहत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के ऐसे अल्पसंख्यक जो 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले भारत में आए वो भारत की नागरिकता पाने के पात्र हैं।
सीएए से खुशी भी और गम भी
जोधपुर जि़ला मुख्यालय से करीब 13 किलोमीटर दूर आंगणवा सेटलमेंट है, जहां करीब ढाई सौ परिवारों के आठ सौ लोग रहते हैं।
इनमें से अधिकतर लोग मूल रूप से गुजरात से हैं, जिनके बुजुर्ग दशकों पहले पाकिस्तान जा बसे थे।
यहां रहने वाले करीब चालीस लोगों को सीएए के नियमानुसार नागरिकता मिल सकती है।
बस्ती की एक झोपड़ी के अंदर कऱीब बीस लोग बैठे हुए सीएए पर चर्चा कर रहे थे। इनमें से एक रामचंद्र सोलंकी हैं। जो दो बेटी, दो बेटे और पत्नी के साथ 31 दिसंबर 2014 को भारत आए थे।
बीबीसी से वो कहते हैं, ‘बहुत खुशी का माहौल है क्योंकि अब हम आधिकारिक रूप से भारत के नागरिक हो जाएंगे।’
वह झोपड़ी में बैठे दूसरे लोगों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, ‘सीएए के बाद हमें जितनी खुशी है, उतना गम भी है। हमारी बस्ती में अगर दो घरों में खुशी का माहौल है तो तीन सौ घरों में गम भी है। क्योंकि सीएए के तहत 31 दिसंबर 2014 के बाद भारत आए लोगों को नागरिकता नहीं मिलेगी।’
इसी बस्ती में रहने वाले हेम भील अपने भाई, चार बच्चों और पत्नी के साथ 2014 में भारत आए हैं।
हेम भील कहते हैं, ‘हमने सुना है कि सरकार ने कानून बनाया है कि अब हमें नागरिकता मिल जाएगी। हमारा तो वैसे ही भविष्य निकलने वाला था मजदूरी में। लेकिन सुनकर अच्छा लगा अब कि बच्चों का भविष्य सुधरेगा।’
हेम भील की पत्नी अमर बाई कहती हैं, ‘पाकिस्तान में रहकर मज़दूरी करने वाले रिश्तेदारों से आज बात हुई तो वह भी कह रहे थे कि तुम लोगों को नागरिकता मिल जाएगी।’
विस्थापितों के पढऩे वाले बच्चों को उम्मीद
हेम भील और अमर बाई की आठवीं कक्षा में पढऩे वाली बेटी कविता को पासपोर्ट के आधार पर स्कूल में दाखिला मिला था।
वो कहती हैं, ‘कल ही पिता ने बताया था कि हम 2014 में भारत आए हैं इसलिए हमें नागरिकता मिल जाएगी। अब हम भारत के हो जाएंगे।’
‘हमें उम्मीद है कि नागरिकता के मिलने के बाद पढ़ाई और नौकरी में लाभ मिलेगा। पढ़ाई करके आईपीएस अधिकारी बनना चाहती हूं।’
इसी बस्ती में हेमी बाई का घर है जिनकी बीते साल सितंबर में शादी हुई थी। वह अपने परिवार के साथ सितंबर, 2014 में भारत आई थीं।
वह कहती हैं, ‘मुझे बीते दिन ही जानकारी मिली कि भारत सरकार ने सीएए लागू किया है।’
जोधपुर के सरकारी गर्ल्स कॉलेज से वो बीए की पढ़ाई कर रही हैं।
वह कहती हैं, ‘पाकिस्तान में पांचवीं तक ही पढ़ी थी। भारत आने के बाद कोर्ट के जरिए स्कूल में दाखिला हुआ था। नागरिकता मिलने से उम्मीद है कि हमारे भविष्य में काफी सुधार होगा। इससे ज्यादा खुशी की बात नहीं हो सकती है कि हम भारत के हो जाएंगे। नागरिकता मिल जाएगी तो नौकरी भी लग जाएगी। मैं बीए के बाद बीएड करूंगी और शिक्षिका बनना चाहती हूं।’
‘हमें भी मिलनी चाहिए नागरिकता’
सीएए कानून के तहत हेम सिंह को भारत की नागरिकता नहीं मिलेगी क्योंकि वो इसके लिए जरूरी डेडलाइन के 11 दिन बाद भारत आए।
वो कहते हैं, ‘हमें जो सुविधा मिलनी चाहिए अभी तक नहीं मिली है। हमें भारत आए नौ साल हो गए हैं। मैं चाहता हूं कि मेरे माता-पिता और बच्चों को सुविधा मिलनी चाहिए। जो भारत के अन्य लोगों को सुविधाएं मिल रही हैं, हमें भी मिलनी चाहिए।’
रामचंद्र सोलंकी उन लोगों में शामिल हैं जिन्हें नागरिकता मिल सकती है।
वह कहते हैं, ‘हम चाहते हैं कि हमारे साथ सबकी नागरिकता हो जाए तो और अच्छा है। साल 2015, 2016 या बाद में भी जो आए हैं उन सबको इसमें शामिल किया जाए।’
‘अस्सी साल की उम्र के बुज़ुर्ग चाह रहे हैं कि हम भी नागरिकता देख लें और भारत का बनकर मरें। इसी आस में जी रहे हैं।’
पाकिस्तान विस्थापित परिवारों के लिए काम कर रही संस्था सीमांत लोक संगठन के अध्यक्ष हिंदू सिंह सोढा भी सीएए में 2014 की डेडलाइन के खिलाफ हैं।
वह कहते हैं, ‘2014 से 2024 तक दस साल का सफर है, इन्हें भी सीएए के तहत नागरिकता की श्रेणी में रखना चाहिए। जिसने भी भारत में छह साल पूरे कर लिए हैं उन्हें उन्हें नागरिकता मिलनी चाहिए।’
नागरिकता से क्या होगा बदलाव?
राजस्थान हाई कोर्ट में अधिवक्ता अखिल चौधरी कहते हैं, ‘भारतीय नागरिकता प्राप्त होने के बाद अन्य भारतीयों की तरह ही सभी सुविधाएं, सरकारी योजनाओं का लाभ और कानूनी हक़ इन्हें प्राप्त होंगे।’
जोधपुर की काली बेरी सैटलमेंट में रहने वाले गोविंद भील 1997 में पाकिस्तान से भारत आए थे। उन्हें 2005 में नागरिकता भी मिल गई।
वह कहते हैं, ‘नागरिकता मिलने से पहले सब परेशान करते थे। लेकिन, नागरिकता मिलने के बाद से जीवन आसान हो गया। हालाँकि नागरिकता मिलने के बाद भी खुद की छत नहीं है।’
वहीं हेम भील कहते हैं, ‘अभी हमें बहुत परेशानी हो रही है। स्कूलों और अस्पताल में जो सुविधाएं भारतीय लोगों को मिलती है, वो अभी हम पाकिस्तानी विस्थापितों को नहीं मिलती है। नागरिकता मिलने के बाद हमें भी मिलेगी।’
सोढ़ा कहते हैं, ‘प्रताडि़त होकर भारत आए इन लोगों को सिर्फ नागरिकता ही नहीं बल्कि उनके पुनर्वास की व्यवस्था भी की जानी चाहिए।’
वह कहते हैं, ‘इनके पास अभी बिजली नहीं है, पानी नहीं है, स्कूल नहीं हैं, शौचालय नहीं हैं, रोड नहीं हैं। जब यह सभी सुविधाएं मिलेंगी तो ही बदलाव आएगा।’
पाक विस्थापितों की एक और बस्ती
जोधपुर जिला मुख्यालय से करीब बारह किलोमीटर दूर काली बेरी है। जोधपुर किले के बगल से गुजऱ रही सडक़ सूरसागर से होते हुए काली बेरी पहुंचती है।
काली बेरी के नजदीक इलाकों में पत्थर की खदानें हैं। इनमें पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए बहुत से लोग मजदूरी करते हैं।
काली बेरी में डॉ अंबेडकर नगर कॉलोनी से होते हुए एक पक्का रास्ता भील बस्ती के लिए जाता है। यह करीब 2,800 लोगों की भील बस्ती चार सौ पाकिस्तान विस्थापित परिवारों की है।
मुख्य सडक़ के बाईं ओर इस भील बस्ती में कच्ची-पक्की सडक़ें हैं, एक सरकारी स्कूल है। उसके बोर्ड पर लिखा है ‘राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय पाक विस्थापित।’
स्कूल के बगल में माया का घर है। वो 2013 में अपने दस सदस्यों के परिवार के साथ भारत आईं थीं।
वह कहती हैं, ‘नागरिकता के लिए बहुत प्रयास किया। खूब भाग-दौड़ी की। लेकिन नागरिकता नहीं मिली। थक गए।’
जब हमने ये पूछा कि क्या उन्हें सीएए के बारे में कुछ पता है तो माया कहती हैं, ‘फोन पर देखा था कि सरकार नागरिकता देने जा रही है। हमें खुशी हुई। अच्छा है यह हमारा मुल्क है।’
वह कहती हैं, ‘नागरिकता मिल जाए तो बच्चों की कोई नौकरी लग जाएगी। कहीं आने-जाने पर रोक नहीं होगी।’
माया के छह बेटों में से बड़े बेटे की मौत हो गई है, उनके पति और दो बच्चे भी माया के साथ रहते हैं। पांच में से तीन बेटे पत्थर की खदानों में काम करते हैं और दो पढ़ाई करते हैं।
इसी बस्ती में रहने वाली गुड्डी अपने परिवार के साथ मार्च 2014 में भारत आईं।
बात करने में हिचकिचाते हुए वह कहती हैं, ‘दीपावली की तरह ख़ुशी हो रही है। परिवार में चार बेटे दो बेटी और मेरे पति हैं।’
‘एक पढ़ता है और तीन काम करते हैं पत्थर खदानों में। अपनी जमीन खरीद सकते हैं, गाड़ी ले सकते हैं। सरकारी लाभ नागरिकता वालों को मिलता है। हमें कुछ लाभ नहीं मिलता है।’
माया के पति मनु राम कहते हैं, ‘नागरिकता के लिए दो साल पहले आवेदन किया था। एनओसी भी मिल गई है लेकिन अभी तक नागरिकता का प्रमाण पत्र नहीं मिला है।’
‘अब सरकार कानून लाई है तो हमें नागरिकता मिल जाएगी। सरकारी योजनाओं का लाभ मिल जाएगा, गाड़ी खरीद पाएंगे, बिना नागरिकता के सिर्फ मजदूरी के अलावा कोई काम नहीं कर सकते हैं।’
वह कहते हैं, ‘पासपोर्ट और लॉन्ग टर्म वीजा के आधार पर आधार कार्ड तो बन गया था।’
सीएए कानून की खामियां
सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय ने बीबीसी से कहा, ‘मुझे लगता है कि यह कानून ही संविधान में दिए गए हमारी समानता के प्रावधान का विरोध करता है। यह एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है इस कानून के ऊपर।’
अरुणा रॉय कहती हैं, ‘इसमें न किसी से कंसल्ट किया गया है, न कानून के बारे में बातचीत हुई हैं।’
‘आरटीआई, नरेगा और खाद्य सुरक्षा जैसे कानून में सार्वजनिक भागीदारी रही है। जहां लोगों से बातचीत हुई, लोगों के विचार सुने गए और फिर लागू किया गया। लेकिन सीएए में किसी से बातचीत नहीं की गई है।’
वहीं, हिंदू सिंह सोढा कहते हैं, ‘हमें अफसोस है कि सरकार ने सीएए में 31 दिसंबर, 2014 की डेड लाइन रखी है।’
वो कहते हैं, ‘जो भी धार्मिक उत्पीडऩ के बाद आ रहा है सभी को नागरिकता देनी चाहिए। सीएए में सीमित लोगों को ही नागरिकता देने का नियम है। सीएए के तहत भी टाइम बेस्ड प्रोसेस होना चाहिए, नहीं तो इस प्रक्रिया में समय बहुत लगेगा।’
क्या विस्थापित मुसलमान को भी नागरिकता मिलनी चाहिए।
इस सवाल पर हिंदू सिंह सोढ़ा कहते हैं, ‘वो इस्लामिक देश से आ रहे हैं तो उनका धार्मिक उत्पीडऩ नहीं हो सकता है। लेकिन, भारत में और पाकिस्तान के बॉर्डर के पास दोनों देशों के बीच शादी होती है। इसलिए मैंने 2004 में भी प्रशासन को बोला था कि इन्हें भी नागरिकता मिलनी चाहिए।’
प्रशासन क्या कहता है?
सीएए के तहत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से विस्थापित गैर मुसलमानों को नागरिकता देने का प्रावधान है।
राजस्थान गृह विभाग के डिप्टी सेक्रेटरी राजेश जैन ने बीबीसी को बताया कि राजस्थान में 27,674 विस्थापित लोग लॉन्ग टर्म वीजा पर रह रहे हैं।
अब तक कितने विस्थापितों को नागरिकता दी गई है, इस सवाल पर वह कहते हैं, ‘साल 2016 से अब तक 3,648 विस्थापितों को नागरिकता दी जा चुकी है। जबकि, 1,926 विस्थापितों ने नागरिकता के लिए आवेदन किया हुआ है, जो प्रक्रियाधीन है।’
राजस्थान में पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए लोग ही रहते हैं। इसमें भी सबसे अधिक 18 हज़ार लोग जोधपुर में रहते हैं।
सीएए के नियमों के तहत भारत आने के डेडलाइन की वजह से बेहद कम विस्थापितों को ही नागरिकता मिलती नजर आ रही है।
जोधपुर के कलेक्टर गौरव अग्रवाल ने बताया, ‘जोधपुर जि़ले में करीब 18 हजार पाकिस्तान विस्थापित परिवार रहते हैं। इनमें से करीब 3300 लोगों को नागरिकता मिल चुकी है।’
‘नए संशोधित क़ानून के तहत तीन से चार हज़ार अन्य लोगों को नागरिकता मिल जाएगी। जोधपुर के गंगाणा, काली बेरी, बासी तंबोलियान, जवर रोड़, आंगणवा के आसपास यह लोग रहते हैं।’
सीएए लागू होने के बाद सरकार ने नागरिकता देने के लिए रजिस्ट्रेशन पोर्टल शुरू किया है।
क्या राज्य सरकार को केंद्र से निर्देश मिले हैं, इस सवाल पर राजस्थान गृह विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव आनंद कुमार ने बीबीसी से कहा कि केंद्र सरकार से फिलहाल हमें कोई निर्देश प्राप्त नहीं हुआ है।
फॉर्नर रजिस्ट्रेशन ऑफिसर (एफआरओ) एडिशनल एसपी रघुनाथ गर्ग भी कहते हैं कि ‘हमें भी कोई गाइडलाइंस नहीं मिली है। निर्देश प्राप्त होने पर जो भी प्रक्रिया होगी उसी अनुसार प्रॉसेस को आगे बढ़ाएंगे।’
सीएए से पहले कैसे मिलती थी नागरिकता
सीएए से पहले नागरिकता अधिनियम 1955 के तहत पाकिस्तान से आए विस्थापितों को नागरिकता दी जाती रही है। अधिनियम के अंदर 51 (ए) से 51(ई) तक में इनकी नागरिकता के संबंध में विस्तार से बताया गया है।
इस अधिनियम में हुए संशोधन के बाद केंद्र सरकार ने जयपुर, जोधपुर और जैसलमेर के कलेक्टरों को नागरिकता देने के लिए अधिकृत किया हुआ है।
जिलाधिकारियों के स्तर पर योग्य विस्थापित लोगों को प्रक्रिया अनुसार नागरिकता प्रदान की जाती रही है। गृह विभाग के अनुसार नवंबर 2009 में अंतिम बार नागरिकता देने के लिए कैंप लगाया गया था। (bbc.com/hindi)
भारत ने चार यूरोपीय देशों के साथ एक मुक्त व्यापार समझौता किया है। कहा जा रहा है कि इस समझौते से अगले 15 सालों में 10 लाख नौकरियां पैदा होंगी।
देश के वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने समझौते के बारे में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर बताया कि भारत में ये चार यूरोपीय देश 100 अरब डॉलर का निवेश करेंगे।
इन यूरोपीय देशों में स्विट्जऱलैंड, नॉर्वे, आइसलैंड और लिनसेस्टाइन शामिल हैं। ये चारों ही देश यूरोपीय संघ का हिस्सा नहीं है।
इस ट्रेड समझौते लिए साल 2008 में बातचीत शुरू की गई थी और फिर नवंबर 2018 में ये बातचीत रुक गई थी। इसके बाद अक्टूबर 2016 में फिर इस पर चर्चा शुरू हुई।
समझौते पर फाइनल मुहर लगने से पहले कुल 21 दौर की बातचीत हुई। अब इस समझौते पर हस्ताक्षर हो चुका है।
ये समझौता एफ़टीए (फ्री टेड असोसिएशन) के लिहाज से एक बड़ा समझौता है क्योंकि इसमें निवेश को अनिवार्य किया गया है।
इस समझौते के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बयान जारी कर कहा कि इस ऐतिहासिक समझौते से देश के युवाओं के लिए नौकरियां पैदा होंगी।
समझौते पर नॉर्वे के व्यापार मंत्री जेन क्रिस्टियन वस्त्रे ने कहा, ‘भारत और नॉर्वे के संबंध अब तक के सबसे अच्छे दौर में हैं।’
इस सौदे से जहाँ भारत को बड़ा निवेश मिलेगा वहीं बदले में यूरोपीय देशों के प्रॉसेस्ड फूड, ब्रेवरेज और इलेक्ट्रॉनिक मशीनरी को दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक भारत के 140 करोड़ लोगों के बाज़ार तक आसान पहुँच मिलेगी।
ऐतिहासिक समझौते
पीयूष गोयल ने इस समझौते पर कहा कि इससे फार्मा, मेडिकल उपकरण, फूड, रिसर्च एंड डिवेलपमेंट जैसे बिजनेस को बड़ा फ़ायदा होगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने बयान में इस समझौते को भारत और ईएफ़टीए देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्तों के लिहाज से एक ऐतिहासिक पल बताया है।
उन्होंने अपने बयान में कहा, ‘10 मार्च 2024 भारत और ईएफटीए देशों के बीच रिश्ते का एक ऐतिहासिक क्षण है।’
‘कई पहलुओं में संरचनात्मक विविधताओं के बावजूद, हमारी अर्थव्यवस्थाओं में समनताएं हैं, जो सभी देशों के लिए फायदेमंद स्थिति पैदा करेंगी।’
पीएम मोदी वे कहा, ‘चारों देश अलग-अलग मामलों में वैश्विक लीडर है। वित्तीय सेवा, बैंकिंग, ट्रांसपोर्ट, लॉजिस्टिक, फार्मा, मशीनरी सहित अलग-अलग क्षेत्रों में इन देशों के अग्रणी होने से हमारे लिए सहयोग के नए दरवाजे खुलेंगे।’
नॉर्वे के व्यापार मंत्री जेन क्रिस्टियन वस्त्रे ने प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा, ‘आज का दिन ऐतिहासिक है’- ये बात उन्होंने हिंदी में कही।
वस्त्रे ने कहा, ‘ये वास्तव में इतिहास की किताबों में दर्ज होने वाला दिन है। ये टिकाऊ व्यापार करने का नया तरीक़ा है। निवेश बढ़ाना और नौकरियों का सृजन करना हमारी प्रतिबद्धता है ताकि हम इस समझौते के तय उद्देश्यों को हासिल कर सकें।’
भारत को क्या फ़ायदा होगा
जिन चार देशों के साथा समझौते हुए हैं, उसमें से स्विट्जरलैंड भारत का सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है।
साल 2022-23 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 17.14 अरब डॉलर का रहा जबकि इन चारों देशों के साथ मिला कर व्यापार 18.66 अरब डॉलर का था।
स्विस सरकार ने समझौते को ‘मील का पत्थर’ कहा है।
इस समझौते के बाद भारत कुछ समय के लिए उच्च गुणवत्ता वाले स्विस उत्पादों जैसे स्विस घड़ी, चॉकलेट, बिस्कुट जैसी चीजों पर कस्टम ड्यूटी हटा देगा।
डील के अनुसार, भारत सोने को छोडक़र, स्विट्जरलैंड से लगभग 95त्न औद्योगिक आयात पर कस्टम ड्यूटी तुरंत या समय के साथ हटा देगा।
इससे सीफूड जैसे टूना, सॉलमन, कॉफ़ी, तरह-तरह के तेल, कई तरह की मिठाइयां और प्रोसेस्ड फूड की कीमत भारत में कम होगी।
इसके अलावा स्मार्टफोन, साइकिल के सामान, मेडिकल के उपकरण, डाई, कपड़ा, स्टील के सामान और मशीनरी भी सस्ते होंगे।
ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव के प्रमुख अजय श्रीवास्तव ने समाचार एजेंसी पीटीआई से कहा, ‘भारत में स्विट्जरलैंड के सामानों की क़ीमत सस्ती होने वाली है क्योंकि इन पर लगने वाले टैरिफ हटा दिए जाएंगे। वाइन जो पाँच डॉलर से 15 डॉलर के बीच की कीमत की हैं, इन पर लगभग 150 फीसदी से घटा कर ड्यूटी 100 फीसदी कर दी जाएगी।’
श्रीवास्तव के अनुसार, आने वाले सालों में में कट-पॉलिस डायमंड पर पाँच फीसदी की ड्यूटी घटा कर 2.5 फीसदी कर दी जाएगी।
निवेश और नौकरियों को लेकर कितनी प्रतिबद्धता
इस समझौते को ऐतिहासिक इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि आने वाले 15 सालों में ये चार देश 100 अरब डॉलर का निवेश भारत में करेंगे और 10 लाख नौकरियां पैदा की जाएंगी। इन देशों ने इसे लेकर प्रतिबद्धता जतायी है।
द हिंदू को दिए गए एक इंटरव्यू में स्विट्जऱलैंड की आर्थिक मामलों की मंत्री हेलेन बडलिगर अर्टिडा ने बताया है, ‘मैं आपको बता सकती हूं कि स्विट्जरलैंड की कंपनियों और जिन अन्य कंपनियों से हमने बात की है, उनकी भारत में व्यापक रुचि है।’
‘हम एक अनुमान के ज़रिए 100 अरब डॉलर के आँकड़े पर पहुंचे हैं। इसके लिए हमने 2022 में एफडीआई का आँकड़ा देखा है, जो 10.7 अरब अमेरिकी डॉलर है और भारत के जीडीपी अनुमान और यहाँ का बड़ा बाज़ार हमारे इस निवेश की राशि पर पहुँचने का आधार है।’
‘ईएफटीए ब्लॉक हमारे यूरोपीय पड़ोसी (ईयू) से पहले ही इस सौदे पर मुहर लगाने में कामयाब रहा, जिससे भारत में बाकियों की रुचि और बढ़ गई है। लेकिन मैं बहुत स्पष्ट तौर पर ये बताना चाहती हूँ कि यह निवेश स्विस सरकार नहीं है करेगी बल्कि प्राइवेट कंपनियां करेंगी।’
‘अगर हम किन्हीं कारणों से 100 अरब डॉलर के निवेश नहीं कर सके तो हम वापस चले जाएंगे।’
समझौते पर स्विट्जरलैंड के अर्थव्यवस्था मंत्री गाइ पार्मेलिन ने कहा, भारत ‘व्यापार और निवेश के लिए अपार अवसर’ देने वाला देश है। इस सौदे से भारत की तकनीक तक पहुँच होगी।
इस समझौते से फार्मा और मेडिकल डिवाइस के क्षेत्र में भी फायदा होगा। भारतीय निर्यातकों को इन देशों के बाजार में भी अच्छी पहुँच मिलेगी।
इस समझौते में कुल 14 चैप्टर हैं, जिसमें सरकारी खरीद, निवेश प्रोत्साहन और सहयोग, व्यापार में छूट, इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी की सुरक्षा शामिल हैं।
इस समझौते के प्रभावी होने के दो साल बाद इसकी समीक्षा का प्रावधान है। पहली समीक्षा के बाद, दोनों पक्ष, ईएफटीए और भारत इस सौदे की हर दो साल में समीक्षा करेंगे।
ये समझौता प्रभावी कब से होगा?
इस सवाल के जवाब में अर्टिडा ने द हिंदू को बताया, ‘हर देश का अलग-अलग समय है। स्विट्जरलैंड में हम ऑटम सेशन में संसद पेश करेंगे।उम्मीद है कि इस साल के अंत तक इसे लागू किया जा सकेगा। मुझे लगता है कि बाकी के ईएफटीए देश भी तब तक अपनी प्रक्रियाएं पूरी कर लेंगे।’ (bbc.com/hindi)
-रिचर्ड महापात्रा
राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) ने 12 साल के अंतराल के बाद अगस्त 2022 से लेकर जुलाई 2023 के दौरान पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण (एचसीईएस) किया। 4 फरवरी 2024 को सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने इस सर्वेक्षण के आंकड़े जारी किए।
नए सर्वेक्षण के निष्कर्ष के मुताबिक, ग्रामीण क्षेत्रों में मासिक प्रति व्यक्ति उपयोग व्यय (एमपीसीई) 3,773 रुपए (वर्तमान मूल्य) और शहरी क्षेत्रों में यह 6,459 रुपए है।
इसका अर्थ यह है कि ग्रामीण क्षेत्र का एक भारतीय अपने दैनिक खर्च जैसे भोजन, दवा, शिक्षा, बच्चों की देखभाल, यातायात, कपड़ों और अन्य जरूरतों पर प्रतिदिन 126 रुपए और शहरी व्यक्ति प्रतिदिन 215 रुपए खर्च करता है।
सबसे निचले पायदान पर खड़े पांच प्रतिशत ग्रामीण भारतीय प्रतिदिन 45 रुपए खर्च करते हैं जबकि शहरी भारतीय का यह आंकड़ा 67 रुपए है। इतना ही नहीं, ग्रामीण क्षेत्रों में ऊपरी पायदान पर खड़े पांच प्रतिशत परिवार निचले पायदान पर खड़े पांच प्रतिशत ग्रामीण परिवारों की तुलना में करीब आठ गुणा अधिक खर्च करते हैं।
पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण देश में आय की गरीबी निर्धारित करने का आधार है। हालांकि, वर्तमान में इस सर्वेक्षण के आधार पर गरीबी के आकलन का कोई आधिकारिक अनुमान मौजूद नहीं है। पूर्व में योजना आयोग सर्वेक्षण के आंकड़ों का इस्तेमाल गरीबी का अनुमान लगाने में करता था, लेकिन उसका स्थान लेने वाले नीति आयोग ने इस काम को आगे नहीं बढ़ाया। और न ही राष्ट्रीय गरीबी रेखा का निर्धारण किया।
इसे देखते हुए ताजा सर्वेक्षण गरीबी निर्धारण के लिए एक चुनौती पेश करता है, क्योंकि यह 1972 से 2012 तक हुए पहले के नौ सर्वेक्षणों से अलग है। अलग इसलिए भी क्योंकि सर्वेक्षण में शामिल वस्तुएं, प्रश्नों का तरीका, आंकड़ों की संग्रहित करने की अवधि और उसका तरीका बदल गया है।
नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बीवीआर सुब्रमण्यम अब भी पुराने ‘व्यक्तिगत अनुमान’ ही जारी कर रहे हैं, जो बताते हैं कि नए उपभोग व्यय के आंकड़ों के आधार पर गरीबी का स्तर 10 प्रतिशत से नीचे है।
सुब्रमण्यम का यह अनुमान 2011-12 में प्रकाशित 32 रुपए प्रतिदिन की गरीबी रेखा के मद्देनजर है। इसमें अगर मुद्रास्फीति समायोजित कर दी जाए तो वह राशि 60 रुपए होगी। अगर इस संशोधित गरीबी रेखा को ताजा उपभोग व्यय के आंकड़ों पर लागू किया जाए तो सुब्रमण्यम के मुताबिक, गरीबी रेखा 10 प्रतिशत से नीचे दिखेगी।
हाल के महीनों में आय की गरीबी के विभिन्न अनुमान जारी हुए हैं। ये मुख्यत: व्यक्तिगत अर्थशास्त्रियों के हैं। ये अनुमान बताते हैं कि चरम गरीबी लगभग शून्य के स्तर पर है। इस अनुमान का एक अहम पहलू है मुफ्त की सेवाएं और सब्सिडी, जो सरकार ने प्रदान की हैं। इन सेवाओं और सब्सिडी के मूल्य को आय की गणना में शामिल किया गया है।
सुब्रमण्यम अपने आकलन में समझाते हैं कि अगर मुफ्त के अनाज और परिवार को मिलने वाली सब्सिडी का मूल्य जोड़ा जाए तो गरीबी का स्तर पांच प्रतिशत से नीचे होगा। यह संकेत है कि लोगों के जीवन में अभाव तेजी से कम हुए हैं।
एनएसएसओ के सर्वेक्षण में मुख्यत: दो प्रकार के एमपीसीई आंकड़े शामिल रहते हैं। पहले में एक घर में उत्पादित उपभोग योग्य वस्तुओं के मूल्य की गणना अथवा उत्पादित स्टॉक, उपहार, कर्ज, मुफ्त का संग्रहण और सेवा के बदले वस्तुओं के आदान-प्रदान का मूल्य शामिल रहता है।
एमपीसीई के रूप में यह आंकड़े व्यापक रूप से स्वीकार्य हैं। दूसरे आंकड़े में सरकारी योजनाओं जैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत प्राप्त मुफ्त राशन और गैर खाद्य पदार्थ जैसे लैपटॉप व मोबाइल फोन का मूल्य शामिल रहता है। बहुत से अर्थशास्त्री मानते हैं कि दूसरे आंकड़े परिवार की आय में ठीक-ठाक बढ़ोतरी कर देते हैं, जिससे अंतत: गरीबी घट जाती है।
उपर्युक्त स्रोतों से प्राप्त लाभ और उपभोग व्यय पर उनके प्रभाव की जांच से पता चलता है कि ऐसी सभी मुफ्त या सब्सिडी वाली वस्तुओं के कारण नवीनतम सर्वेक्षण में ग्रामीण क्षेत्रों का एमपीसीई 3,860 रुपए और शहरी क्षेत्रों का 6,521 रुपए (वर्तमान कीमतों पर) पहुंच गया है।
यह इंगित करता है कि ग्रामीण व्यक्तियों को केवल 87 रुपए प्रति माह और शहरी व्यक्तियों को 62 रुपए फ्रीबीज (मुफ्त या सब्सिडी में दी जाने वाली चीजें) के रूप में मिलते हैं।
यह बढ़ोतरी ग्रामीण उपभोग व्यय का केवल 2.25 प्रतिशत और शहरी उपभोग व्यय का 1.33 प्रतिशत ही है। ऐसे में सवाल उठता है कि फ्रीबीज के नाम पर मचने वाले हो हल्ले की कोई ठोस वजह है या इसे बेमतलब में ही तूल दिया जा रहा है? (downtoearth.org.in/hindistory/)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
हमारी भोगवादी पाश्चात्य जीवन शैली और सरकारों के अंधाधुंध भौतिक विकास का काला चेहरा अब आए दिन और भयावह होता जा रहा है। यह चेहरा कभी हमारे महानगरों के जीवन को कठिनाई में डाल रहा है और कभी गांव देहात की खेती किसानी को मौसम का कहर बनकर बर्बाद कर रहा है।गत वर्ष दिल्ली में जब सर्दी और धुंए ने मिलकर सांस लेने में तकलीफ पैदा कर दी थी तब सर्वोच्च न्यायालय को आगे आकर कहना पड़ा था कि केन्द्र और राज्य की सरकारें इस समस्या पर एक दूसरे पर दोषारोपण करने की बजाय एक साथ मिलकर काम करें।
दिल्ली की यह हालत तब हुई थी जब एक तरफ वहां उन नरेंद्र मोदी की केन्द्र सरकार थी जिनकी गारंटी के विज्ञापन हम आए दिन अखबारों के पहले पन्ने पर देखते हैं और जो भारत को शीघ्र विश्व गुरु बनाने की गर्जना हर रोज करते हैं। इसी दिल्ली की आम आदमी पार्टी की राज्य सरकार मुफ्त में पानी देने के लिए वाहवाही तो लूटती है लेकिन यमुना जल सफाई और दिल्ली में जल सरंक्षण पर उसने भी उल्लेखनीय कार्य नहीं किया। दिल्ली में यमुना विश्व की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में शुमार है।
हमे याद रहना चाहिए कि पिछली गर्मियों में चेन्नई नगर निगम ने किस तरह एक दिन अचानक हाथ खड़े कर दिए थे कि उसके पास केवल कुछ दिन के लिए ही पानी उपलब्ध है। इस साल कर्नाटक की राजधानी बैंगलोर से कुछ कुछ इसी तरह के गंभीर जल संकट की खबरें आ रही हैं। भू जल स्तर बहुत ज्यादा गिरने से अधिकतर बोरवेल सूख गए।कई कॉलोनी के लोग पानी के टैंकर मंगाने पर मजबूर हैं। टैंकरों के मालिकों ने आपदा में अवसर खोजकर पानी के दाम काफी बढ़ा दिए हैं।कोई भी सरकार, चाहे वह स्थानीय निकाय प्रशासन हो या राज्यों की सरकारें, यहां तक कि केंद्र सरकार भी अपने दम पर जल संकट से निजात नहीं दिला सकती। इसका समाधान केवल और केवल जन जागरूकता और जन सहयोग से ही संभव है। जब भी कोई प्राकृतिक या मानव जनित आपदा आती है सरकारी तंत्र की सजगता की पोल खुल जाती है। जल संकट हमारे समय का बड़ा संकट है जिसके दो प्रमुख आयाम हैं। जल संकट का जो दृश्य हमें सबसे पहले दिखाई देता है वह गर्मी की शुरुआत होते ही सूखती नदियों, झीलों, तालाबों और बॉरवेलों की वजह से पानी की चौतरफा कमी है। जल संकट का दूसरा उतना ही महत्त्वपूर्ण आयाम है शुद्ध पेयजल की कमी। हमें जिस पानी की आपूर्ति की जा रही है वह खेती की जमीन में डाले जाने वाले रासायनिक खादों और कीटनाशकों के जल स्रोतों तक पहुंचने से अत्यंत प्रदूषित हो चुका है। शहरों से निकले गंदे नालों का सीवेज भी इन्हीं जलस्रोतों में मिलकर प्रदूषण में इजाफा कर रहा है। जल और वायु के प्रदूषण से गंभीर बीमारियों में भी विगत दो तीन दशक में तेज वृद्धि हुई है। पंजाब में हरित क्रांति के दौरान पेस्टीसाइड के अंधाधुंध प्रयोग से खाद्य पदार्थों से लेकर जल, वायु और जमीन में इतना प्रदूषण हुआ कि कुछ इलाकों में घर घर कैंसर की दस्तक पड़ गई। सिंचाई के लिए अत्यधिक पानी लेने के कारण भूजल स्तर तेजी से सिकुड़ गया। धीरे धीरे पंजाब सिंड्रोम भी देश भर मे पैर पसार रहा है।
पंजाब का नाम तो पांच जल भरी सदानीरा नदियों के नाम पर पड़ा है इसलिए वहां वैसा जल संकट अभी दूर है जैसा चेन्नई और बैंगलोर एवम देश के पानी की कमी वाले कुछ अन्य क्षेत्रों में है, लेकिन देर सवेर बैंगलोर जैसा जल संकट भी हर जगह दस्तक देने की तैयारी कर रहा है। समझदारी इसी में है कि सरकारों और स्थानीय निकायों के भरोसे न रहकर हम सबको अपने अपने स्तर पर जल संसाधन को बचाने और बढ़ाने के प्रयास करने चाहिए।बोतलबंद पानी का कारोबार हर साल दुत्र गति से बढ़ रहा है। यदि जल संकट का यही हाल रहा तो शुद्ध पानी दूध से महंगा हो जाएगा क्योंकि दूध के बगैर जीवन संभव है लेकिन पानी के बगैर नहीं।
-डॉ. आर.के. पालीवाल
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया भारत सरकार के अधीन ठीक उसकी नाक के नीचे काम करने वाला सार्वजनिक उपक्रम है जिसे देश और देश की सरकार का बैंक नंबर वन भी कहा जाता है। अब यह साबित हो गया है कि सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद बैंक ने इलेक्टोरल बॉन्ड की जो जानकारी मात्र चौबीस घंटे में उपलब्ध करा दी आखिर उसे देने में तीस जून तक का लम्बा समय मांगकर बैंक यह सूचना उपलब्ध कराने में जान बूझकर इतनी हीलाहवाली कर रहा था। इसीलिए इस नाटकीय घटनाक्रम पर विपक्षी दल सीधे सीधे मोदी सरकार को कटघरे मे खड़ा कर रहे हैं और कह रहे हैं कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया केंद्र की मोदी सरकार के इलेक्टोरल बॉन्ड घोटाले पर लोकसभा चुनाव तक पर्दा डालने के लिए ऐसी हरकत कर रहा था। यह तो स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के आला अफसरान या भगवान श्री राम ही जानते हैं कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया पर किस तरह का दबाव था।
क्या उसके डायरेक्टर्स अपनी तरफ से ही सरकार को खुश करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को गुमराह करने की कोशिश कर रहे थे या उन पर ऐसा करने का ऊपर से दबाव था। बैंक ने जिस सूचना को सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद चौबीस घंटे में केंद्रीय सूचना आयोग को सौंप दिया उस पर वह पंद्रह दिन से कुंडली मारे बैठा था और आगे भी तीन महीने कुंडली मारकर बैठना चाहता था। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया सार्वजनिक बैंक है इसलिए भारत की जनता के प्रति उसकी जवाबदेही बनती है। जिन परिस्थितियों में इस बैंक की छवि धूमिल हुई है उसके कारणों को बैंक द्वारा प्रेस विज्ञप्ति जारी कर स्पष्ट किया जाना चाहिए। यदि इस पूरे घटनाक्रम में सरकार यह मानती है कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया पर उसका कोई दबाव नहीं तो वित्त मंत्रालय या प्रधानमन्त्री कार्यालय को आगे आकर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के निदेशक मंडल पर बैंक की छवि खराब करने के लिए कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए। यदि सरकार इस मामले में कोई कड़ा कदम नहीं उठाती तो यही निष्कर्ष निकाला जाएगा कि बैंक सरकार के दबाव में सर्वोच्च न्यायालय को गुमराह कर रहा था। सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को अक्षरस : मानना हम सबकी जिम्मेदारी है।क्योंकि अभी संसद स्थगित है और लोकसभा के आम चुनाव सर पर खड़े हैं इसलिए सरकार को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए अन्यथा तमाम विपक्षी दल इस मुद्दे को प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाएंगे और स्थिति स्पष्ट नहीं होने की स्थिति में अफवाहों का बाज़ार गर्म होगा जिसकी शुरुआत सोशल मीडिया पर हो चुकी है।
जो सूचना स्टेट बैंक ने केंद्रीय चुनाव आयोग को उपलब्ध कराई है उसे चुनाव आयोग ने तय समय सीमा के अंदर अपनी वेबसाइट पर अपलोड कर दिया है। इस बात के लिए भी केन्द्रीय चुनाव आयोग की सराहना बनती है कि उसने बाकायदा प्रेस विज्ञप्ति जारी कर मीडिया के माध्यम से जनता को यह सूचित किया है कि बैंक से प्राप्त इलेक्टोरल बॉन्ड की सूचना जिस फार्म में उपलब्ध कराई गई है वह जस की तस अपलोड कर दी है। इस विज्ञप्ति में चुनाव आयोग ने यह भी स्पष्ट किया है कि चुनाव आयोग चुनावों में हर तरह की पारदर्शिता के प्रति कृत संकल्पित है। बेहतर होगा कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया भी इसी तरह की विज्ञप्ति जारी करता तो उसकी साख को लगा बट्टा कुछ कम अवश्य होता। अभी भी बैंक की तरफ से यह जानकारी उपलब्ध नहीं कराई गई है कि कि विभिन्न कंपनियों और व्यक्तियों द्वारा खरीदे गए बॉन्ड किन किन पार्टियों को गए हैं। केंद्रीय चुनाव आयोग को भी सभी राजनितिक दलों को यह घोषणा करने के लिए बाध्य करना चाहिए कि उन्हें किन किन कंपनियों और व्यक्तियों ने इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से चंदा दिया है। क्योंकि सबसे ज्यादा चंदा भारतीय जनता पार्टी को मिला है और उसकी ही केन्द्र में सरकार है। ऐसे में उसकी जिम्मेदारी सर्वाधिक है। जब तक बैंक से पूरी जानकारी सामने नहीं आएगी तब तक केन्द्र सरकार और भाजपा पर विपक्षी दलों के आरोप लगते रहेंगे।
भारत के निर्वाचन आयोग ने गुरुवार को अपनी वेबसाइट पर चुनावी बॉन्ड के आंकड़े सार्वजनिक कर दिए. देश की बड़ी कंपनियों के अलावा ऐसी कई छोटी कंपनियों ने इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे जिनका नाम कम ही सुना गया है.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी का लिखा-
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद निर्वाचन आयोग ने चुनावी बॉन्ड से जुड़ी जानकारी अपनी वेबसाइट पर डाल दी है। कोर्ट ने यह जानकारी साझा करने के लिए आयोग को 15 मार्च तक की समय सीमा दी थी, आयोग ने एक दिन पहले ही जानकारी साझा की है। यह जानकारी भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) द्वारा दी गई है। बैंक ने ही चुनावी बॉन्ड जारी किए थे।
चुनाव आयोग की वेबसाइट पर दो लिस्ट हैं। पहली सूची में उन कंपनियों के नाम हैं जिन्होंने मूल्य और तारीखों के साथ चुनावी बॉन्ड खरीदे। दूसरी लिस्ट में राजनीतिक दलों के नाम के साथ-साथ बॉन्ड के मूल्य और उन्हें भुनाए जाने की तारीखें शामिल हैं।
चुनावी बॉन्ड खरीदने वाले कौन
अंग्रेजी अखबार द इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है कि 2019 और 2024 के बीच राजनीतिक दलों को शीर्ष पांच चुनावी बॉन्ड डोनर्स में से तीन ऐसी कंपनियां हैं जिन्होंने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और आयकर जांच का सामना करने के बावजूद बॉन्ड खरीदे हैं।
इनमें लॉटरी कंपनी फ्यूचर गेमिंग, इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनी मेघा इंजीनियरिंग और खनन दिग्गज कंपनी वेदांता शामिल हैं। चुनाव आयोग की ओर से जारी डाटा के मुताबिक चुनावी बॉन्ड का नंबर 1 खरीदार सैंटियागो मार्टिन द्वारा संचालित फ्यूचर गेमिंग एंड होटल्स प्राइवेट लिमिटेड है। इस लॉटरी कंपनी ने 2019 से 2024 के बीच 1,368 करोड़ रुपये के बॉन्ड खरीदे हैं।
चुनावी बॉन्ड के विवादित खरीदार
अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक ईडी ने 2019 की शुरुआत में फ्यूचर गेमिंग के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग जांच शुरू की थी। उस साल जुलाई तक उसने कंपनी से संबंधित 250 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति जब्त कर ली थी। 2 अप्रैल, 2022 को ईडी ने मामले में 409।92 करोड़ रुपये की चल संपत्ति कुर्क की थी।
इन संपत्तियों की कुर्की के पांच दिन बाद 7 अप्रैल को फ्यूचर गेमिंग ने 100 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड खरीदे। कथित तौर पर फ्यूचर गेमिंग के मालिक दक्षिण भारत के ‘लॉटरी किंग’ सैंटियागो मार्टिन हैं। रिपोर्टों के मुताबिक उन्होंने लॉटरी का कारोबार 13 साल की उम्र में शुरू किया था।
ईडी के मुताबिक मार्टिन और अन्य ने लॉटरी विनियमन अधिनियम, 1998 के प्रावधानों का उल्लंघन करने और सिक्किम सरकार को धोखा देकर गलत लाभ प्राप्त करने के लिए एक आपराधिक साजिश रची थी।
दूसरे नंबर पर कौन
बांध और बिजली प्रोजेक्ट्स बनाने वाली कंपनी मेघा इंजीनियरिंग एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (एमईआईएल) ने साल 2019 और 2024 के बीच 1,000 करोड़ रुपये के बॉन्ड खरीदे हैं। यह कंपनी हैदराबाद में स्थित है और इसके मालिक हैं कृष्णा रेड्डी।
मेघा इंजीनियरिंग तेलंगाना सरकार की प्रमुख परियोजनाओं में शामिल है जिसमें कालेश्वरम बांध परियोजना भी शामिल है। कंपनी जोजिला सुरंग और पोलावरम बांध का भी निर्माण कर रही है।
अक्टूबर 2019 में आयकर विभाग ने कंपनी के दफ्तरों पर छापेमारी की थी। इसके बाद प्रवर्तन निदेशालय की ओर से भी जांच शुरू की गई। संयोग से उसी साल 12 अप्रैल को एमईआईएल ने 50 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे थे।
अनिल अग्रवाल का वेदांता समूह पांचवां सबसे बड़ा दानकर्ता है, जिसने 376 करोड़ रुपये के बॉन्ड खरीदे हैं, जिसकी पहली किश्त अप्रैल 2019 में खरीदी गई थी।
गौरतलब है 2018 के मध्य में ईडी ने दावा किया था कि उसके पास वीजा के बदले रिश्वत मामले में वेदांता समूह की कथित संलिप्तता से संबंधित सबूत हैं, इस मामले में आरोप है कुछ चीनी नागरिकों को नियमों को कथित रूप से तोडक़र वीजा दिया गया था।
जिंदल स्टील एंड पावर भी शीर्ष 15 दानदाताओं में से एक है, कंपनी ने इस अवधि में बॉन्ड के माध्यम से 123 करोड़ रुपये का दान दिया है। जबकि कंपनी को कोयला ब्लॉक आवंटन मामले में केंद्रीय एजेंसियों द्वारा जांच का सामना करना पड़ा है। ईडी ने अप्रैल 2022 में विदेशी मुद्रा उल्लंघन के एक ताजा मामले के संबंध में कंपनी और उसके प्रमोटर नवीन जिंदल के परिसरों पर छापे मारे थे।
किस पार्टी ने भुनाए कितने रुपये के बॉन्ड
निर्वाचन आयोग द्वारा जारी चुनावी बॉन्ड के डाटा से पता चला है कि बीजेपी ने राजनीतिक दलों के बीच अब तक के सबसे अधिक बॉन्ड को भुनाया है।
पिछले पांच वर्षों में राजनीतिक दलों द्वारा भुनाए गए 12,769 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड में से लगभग आधा सत्तारूढ़ बीजेपी को मिला और इसका एक तिहाई हिस्सा 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान आया।
यही नहीं बीजेपी ने 2024 के महत्वपूर्ण लोकसभा चुनावों से पहले इस साल जनवरी में 202 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड भुना भी लिए।
बॉन्ड से जुड़े डाटा के मुताबिक राजनीतिक दलों के बीच बीजेपी ने सबसे अधिक (कुल 6,060।52 करोड़ रुपये) के बॉन्ड भुनाए। इसके बाद टीएमसी को 1,609।53 करोड़ रुपये मिले। कांग्रेस के खाते में 1,421।87 करोड़ के बॉन्ड गए। बीआरएस को 1,214।71 करोड़ के बॉन्ड मिले और बीजेडी को 775।50 करोड़ रुपये बॉन्ड के जरिए मिले।
15 फरवरी 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड योजना पर रोक लगा दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह योजना असंवैधानिक है। कोर्ट ने अपने फैसले में भारतीय स्टेट बैंक को 12 अप्रैल 2019 से खरीदे गए बॉन्ड की जानकारी निर्वाचन आयोग को सौंपने को कहा था। एसबीआई चुनावी बॉन्ड जारी करने के लिए अधिकृत संस्थान है। (dw.com)
-जुगल पुरोहित
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद चुनाव आयोग ने गुरुवार शाम अपनी वेबसाइट पर इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ा डेटा जारी किया।
यह डेटा स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने उसे 12 मार्च को उपलब्ध करवाया था। हालांकि अभी भी बैंक ने इलेक्टोरल बॉन्ड के यूनिक (अल्फान्यूमेरिक) नंबरों की जानकारी नहीं दी है।
यह जानकारी देने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एसबीआई को 17 मार्च का समय दिया है।
इलेक्टोरल बॉन्ड का डेटा सामने आने के बाद राजनीतिक फंडिंग को लेकर बहस एक बार फिर से तेज हो गई है।
देश के पूर्व वित्त और वरिष्ठ कांग्रेस नेता मंत्री पी। चिदंबरम मानते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड ने बीजेपी को गलत तरीके से फायदा पहुंचाया है।
वहीं दूसरी तरफ गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि इलेक्टोरल बॉन्ड को राजनीति से काले धन की भूमिका ख़त्म करने के लिए लाया गया था और सुप्रीम कोर्ट को इस बॉन्ड को असंवैधानिक कऱार देने के बजाय इसमें सुधार लाने की कोशिश करनी चाहिए।
बीबीसी के साथ एक ख़ास बातचीत में चिदंबरम ने कहा कि इलेक्टोरल बॉन्ड लोकसभा में बीजेपी को दूसरी राजनीतिक पार्टियों के मुकाबले बेहतर स्थिति में रखेगा क्योंकि वो प्रचार पर ज्यादा पैसा खर्च कर सकेगी।
चिदंबरम ने कहा कि इलेक्टोरल बॉन्ड के आंकड़े सार्वजनिक होने के बाद सामने आई जानकारी से उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ।
उन्होंने कहा, ‘जिन्होंने बॉन्ड खऱीदे हैं, उन सबके सरकार के साथ नज़दीकी रिश्ते रहे हैं। खनन, फ़ार्मा, कंस्ट्रक्शन और हाइड्रोइलेक्ट्रिक कंपनियों के केंद्र सरकार से नज़दीकी रिश्ते होते ही हैं। कई बार कुछ मामलों में ऐसा राज्य सरकारों के साथ भी होता है।’
उन्होंने कहा, ‘लेकिन सवाल ये है कि सरकार ने ऐसी कपट भरी योजना बनाई ही क्यों? जिसमें राजनीतिक चंदा किसको दिया जा रहा है, इसे जाहिर नहीं किया जा रहा है।
सरकार को तो ऐसी योजना बनानी चाहिए थी, जिसमें कोई भी राजनीतिक दलों को चेक, ड्राफ्ट और पे ऑर्डर से भुगतान कर सकता था।’
वे कहते हैं, ‘राजनीतिक दलों और चंदा देने वालों को अपनी-अपनी बैलेंस शीट में इसे ज़ाहिर करना चाहिए था।’
चिदंबरम ने कहा, ''पहले कॉरपोरेट घराने राजनीतिक दलों को खुले और पारदर्शी तरीक़े से चंदा दे रहे थे, लेकिन वे अपने मुनाफे का कुछ निश्चित प्रतिशत रकम ही चंदा दे रहे थे।’
‘घाटा उठाने वाली कंपनी चंदा नहीं दे पा रही थी। हमें वापस वही तरीक़ा अपनाना चाहिए कि खुले और पारदर्शी तरीके से कोई भी चंदा दे पाए।’
बीबीसी ने चिदंबरम से पूछा कि क्या इलेक्टोरल बॉन्ड ने बीजेपी को आने वाले लोकसभा चुनावों में गलत तरीके से फायदे की स्थिति में पहुंचा दिया है। इस पर उन्होंने कहा कि हां बीजेपी को इससे गैरवाजिब फायदा हुआ है।
चिदंबरम ने कहा, ''देखिए सवाल तो उठेगा कि आखऱि इलेक्टोरल बॉन्ड की कुल रकम का 57 प्रतिशत हिस्सा बीजेपी को ही क्यों मिला? तमाम पार्टियों को मिलाकर भी कम रकम मिली है। दूसरा सवाल यह भी उठेगा कि कहीं ये मिलीभगत का मामला तो नहीं था।’
‘अगर आप इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये पैसा देने और सरकार के कुछ फैसलों को मिलाते हैं तो कोई यह अनुमान लगा सकता है या मान सकता है कि यह मिलीभगत का मामला होगा।’
इलेक्टोरल बॉन्ड की कहानी जिस से तरह से सामने आई है उससे क्या आने वाले लोकसभा चुनाव में बीजेपी फायदे में दिख रही है?
बीबीसी के इस सवाल के जवाब में चिदंबरम ने कहा, ‘निश्चित तौर पर उनको फ़ायदा है। पिछले पांच छह सालों में उन्होंने भारी संसाधन जमा कर लिया है। इलेक्टोरल बॉन्ड को इस तरह से डिज़ाइन ही किया गया था जिससे उनको मदद मिले। उन्होंने इसका पूरा फ़ायदा उठाया, इसके चलते वो बेहतर स्थिति में हैं।’
‘चुनाव के वित्तीय प्रबंधन के पहलू में वे दूसरों से काफ़ी बेहतर स्थिति में है, कोई उनको चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। वे अपने उम्मीदवारों की फंडिंग के मामले में दूसरों से कहीं अच्छी स्थिति में हैं।’
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की भूमिका पर क्या कहा?
इस पूरे मामले में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की भूमिका पर बोलते हुए चिदंबरम ने कहा, ‘इसे ही संस्थानों पर कब्जा करना कहा जाता है। एसबीआई को सरकार के इशारों पर काम करने की क्या ज़रूरत थी?’
‘मैं पहले दिन से कह रहा हूं। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से पहले से कह रहा हूं कि अगर वो आंकड़े सार्वजनिक करने का निर्देश देता है तो एसबीआई 24 घंटे में ऐसा कर सकता है।’
उन्होंने कहा, ‘दरअसल प्रत्येक बॉन्ड का एक यूनिक नंबर होता है। इसलिए आपको यूनिक नंबर के हिसाब से ये आंकड़े जारी करने थे कि किस नंबर का बॉन्ड किसने खरीदा। इसके साथ ही ये सूची भी जारी करनी थी कि किस यूनिक नंबर के बॉन्ड को किस पार्टी ने इनकैश किया। बाक़ी इसे मिलाकर हम, आप और आम जनता देख लेती। एसबीआई ने चार महीने का समय मांगा था। उसके इस रवैये ने मुझे खासा निराश किया।’
कुछ लोग कहेंगे कि एसबीआई के सामने क्या विकल्प रहा होगा? वो तो बस जहां से आदेश आ रहा था उसका पालन कर रहा था।
बीबीसी के इस सवाल पर चिदंबरम बोले, ‘कौन से आदेश?, उन्हें सुप्रीम कोर्ट से आदेश मिला था। देश में सुप्रीम कोर्ट से भी बड़ी कोई अथॉरिटी है क्या? मेरी तो एसबीआई को सलाह है कि वे हर बॉन्ड का अल्फा न्यूमेरिक यूनिक नंबर जारी कर दे। वो इससे पीछे ना हटे, नहीं तो उनका और मजाक़ बनेगा और आलोचनाओं का सामना करना पड़ेगा।
इलेक्टोरल बॉन्ड प्रकरण के सबक
बीबीसी ने चिदंबरम से पूछा कि उनकी नजऱ में इलेक्टोरल बॉन्ड प्रकरण के क्या सबक हैं? क्योंकि इस पूरे मामले की जड़ में राजनीतिक दलों और उनके चुनावी कैंपेन की फंडिंग है। इस पर उन्होंने कहा, ''पूरी दुनिया में चुनाव प्रचार काफी महंगे हो गए हैं। चुनाव खर्च आगे बढ़ते जाएंगे और हमें इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए। चुनावी प्रचार के तौर-तरीक़ों ने छिपी हुई शक्ल अख्तियार कर ली है। अब तो ये पार्टी कार्यकर्ताओं और वोटरों को पैसा बांटने तक जा पहुंचा है।’
चिदंबरम ने कहा, ‘चुनाव लोकतंत्र का उत्सव है। सबसे पहले हमें इसमें खुलापन लाना होगा। नंबर दो, हमें व्यावहारिक तौर पर हर उम्मीदवार के खर्च की सीमा को भी बढ़ाना होगा। उम्मीदवार को वह पैसा ख़र्च करने देना चाहिए।’
उन्होंने कहा, ‘तीसरे नंबर पर हमें चुनाव के लिए राज्यों की ओर से फंड जारी करने यानी स्टेट फंडिंग के बारे में सोचना होगा।''उन्होंने कहा, ‘लोगों को पार्टियों के लिए चेक या ड्राफ्ट के ज़रिए खुले तौर पर पार्टियों को पैसे देने की इज़ाज़त मिलनी चाहिए। हां ये जरूरी है कि वो अपने वित्तीय स्टेटमेंट में इसका खुलासा करें। साथ ही चंदा लेने वाली पार्टी को भी अपने रिटर्न में इसका जि़क्र करना होगा।’
बीबीसी ने पूछा कि क्या कांग्रेस स्वेच्छा से चुनावी चंदा देने वालों के नाम सार्वजनिक करेगी?
इसके जवाब में चिदंबरम ने कहा, ‘अगर सुप्रीम कोर्ट या चुनाव आयोग ऐसा चाहेगा तो हमें ऐसा करना चाहिए।’
क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड
इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने का एक वित्तीय ज़रिया है। यह एक वचन पत्र की तरह है जिसे भारत का कोई भी नागरिक या कंपनी भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खऱीद सकता है और अपनी पसंद के किसी भी राजनीतिक दल को गुमनाम तरीक़े से दान कर सकता है।
भारत सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की घोषणा 2017 में की थी। इस योजना को सरकार ने 29 जनवरी 2018 को क़ानूनन लागू कर दिया था। इस योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक राजनीतिक दलों को धन देने के लिए बॉन्ड जारी कर सकता था।
केवाईसी की जानकारियों के साथ कोई भी खाताधारक इस बॉन्ड को खरीद सकता था। इलेक्टोरल बॉन्ड में भुगतानकर्ता का नाम नहीं होता था।
योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक की निर्दिष्ट शाखाओं से 1,000 रुपये, 10,000 रुपये, एक लाख रुपये, दस लाख रुपये और एक करोड़ रुपये में से किसी भी मूल्य के इलेक्टोरल बॉन्ड खऱीदे जा सकते थे।
भारत सरकार ने इस योजना की शुरुआत करते हुए कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड देश में राजनीतिक फ़ंडिंग की व्यवस्था को साफ़ कर देगा। हालांकि 15 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड की वैधता पर अपना फ़ैसला सुनाते हुए इस पर रोक लगा दी थी। सर्वोच्च अदालत ने इसे असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया था। (bbc.com/hindi)
निशा साहनी
दांपत्य जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिए होते हैं। जिस तरह एक पहिया के नहीं रहने से गाड़ी नहीं चल सकती ठीक उसी प्रकार पति या पत्नी के अभाव में जीवन पहाड़ बन जाता है। पुरुष प्रधान समाज में पत्नी के गुजर जाने पर पुरुष की दूसरी शादी करने का प्रस्ताव आने लगते हैं। मगर पति के मर जाने के बाद आज भी समाज विधवा के पुनर्विवाह की इजाजत नहीं देना चाहता है। उसे ताउम्र बच्चों के लालन-पालन व सास-ससुर की देखभाल करना ही जीवन का उद्देश्य समझाया जाता है। जबकि जीवनसाथी के बिछडऩे का दुख स्त्री और पुरुष दोनों का एक जैसा होता है। संवेदनाएं पुरुष की तरफ और सारी जिम्मेदारियां व पाबंदियां स्त्री के हिस्से हो जाती हैं। समाज विधुर पुनर्विवाह के लिए गाजे-बाजे तक की व्यवस्था करता है, वहीं स्त्रियों के हिस्से वेदना, परिवार की देखभाल और कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का हवाला दिया जाता है।
प्रश्न यह उठता है कि आखिर समाज में विधवाओं को अशुभ क्यों माना जाता है? उसके लिए जीवन इतना कठिन क्यों हो जाता है? सदियों से विधवा को उसके पति की मृत्यु का जिम्मेदार माना जाता है। विधवा महिलाओं को शारीरिक व मानसिक हिंसा का भी सामना करना पड़ता है। उसपर सामाजिक परंपरा के नाम पर रहन-सहन, खान पान, उठना-बैठना, हंसना-बोलना यहां तक कि उसके कहीं आने-जाने पर भी पाबंदी लगा दी जाती है।
रूढि़वादी विचारों में जकड़े ग्रामीण इलाकों में विधवा के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है। सुबह-सुबह विधवा स्त्री का मुंह देखना अशुभ माना जाता है। उसके लिए श्रृंगार करना, सजना-संवरना, किसी पुरुष से बातचीत करना, शुभ कार्यों व अनुष्ठानों में शामिल होना आदि घोर पाप माना जाता है। इतना ही नहीं, कम उम्र में पति के गुजर जाने के बाद विधवा महिलाओं को यौन हिंसा का भी शिकार होना पड़ता है। हालांकि शहरी परिवेश में लोगों की धारणा धीरे-धीरे बदली है। पढ़े-लिखे परिवार में इक्का-दुक्का पुनर्विवाह भी कराया जा रहा है। इसका व्यापक असर टीवी सीरियल, फिल्मों व सोशल मीडिया पर आये दिन विधवा पुनर्विवाह की सकारात्मक खबरों से हुआ है। लेकिन देश का अधिकतर ग्रामीण क्षेत्र आज भी विधवा पुनर्विवाह पर अपनी संकुचित मानसिकता से बाहर नहीं निकला है।
बिहार के मुजफ्फरपुर जिला मुख्यालय से करीब 25 किमी दूर कुढऩी प्रखंड का छाजन गांव इसका एक उदाहरण है। पूर्वी और पश्चिमी, दो भागों में बंटे इस गांव की कुल आबादी करीब बारह हजार है। पूर्वी छाजन जहां अनुसूचित जाति (मल्लाह और मुसहर) बहुल है, वहीं पश्चिमी छाजन पिछड़ा और अति पिछड़ा बहुल गांव है। यहां उच्च वर्गों की संख्या सीमित है। दोनों ही गांव में विधवा महिलाओं की जिंदगी चारदीवारी में कैद रहती है। घर से बाहर निकलने या आवश्यकता वश किसी पराये लोगों से बात करने पर पूरा गांव चारित्रिक लांछन लगा कर उसे बदनाम करने का प्रयास करता है।
इस संबंध में गांव की एक 35 वर्षीय महिला सविता देवी (बदला हुआ नाम) बताती है कि ‘मेरी शादी 23 वर्ष की उम्र हुई थी। पति शराब का आदि था। शादी के कुछ साल बाद ही शराब के अत्यधिक सेवन के कारण पति की मौत हो गई। लेकिन समाज उसकी मौत का कारण मुझे ठहराने लगा और मुझे कुलटा, कुलक्षणी, अभागिन आदि कहा जाने लगा। लोगों ने कहा कि यह पापिन है जिसके कारण पति की मौत हुई है।’ दरअसल पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं का दर्जा उसके पति से होता है। ऐसे में विधवाओं को हमेशा कठिन भाग्य का पात्र माना जाता है।
इसी गांव की 49 वर्षीय एक अन्य महिला कविता (नाम परिवर्तित) कहती है कि ‘मेरी शादी 15 साल की आयु में हो गई थी। शादी के 8 साल बाद ही मेरे पति की बीमारी के कारण मौत हो गई। पति के मौत के बाद मेरे ऊपर दुखों का पहाड़ तोड़ा गया। समाज में मुझे हेय दृष्टि से देखा जाने लगा। पति की मौत का कारण बता कर मुझे घर की चारदीवारी में कैद कर दिया गया। घर से लेकर समाज तक किसी भी शादी या उत्सव में भाग लेने पर मुझे पाबंदी लगा दी गई। पूरी जिंदगी मैंने अरमानों का गला घोट कर जीया है। मैं आज तक समझ नहीं सकी कि मेरे पति की मृत्यु जब बीमारी से हुई तो इसके लिए मैं कहां से जिम्मेदार हो गई? मुझे क्यों अभागन माना गया?’ वहीं 45 वर्षीय संजू देवी कहती हैं कि ‘मेरा विवाह 19 वर्ष की आयु में हुआ था। शादी के 15 साल बाद अत्यधिक शराब पीने के कारण मेरे पति की मृत्यु हो गई। आज मैं मजदूरी करके अपने बच्चों का पालन-पोषण कर रही हूं। लेकिन मेरी किसी प्रकार की मदद की जगह समाज पति के मौत के लिए मुझे ही जिम्मेदार ठहराता है।’
2011 की जनगणना क अनुसार देश में लगभग साढ़े पांच करोड़ से अधिक महिलाएं विधवा की जि़ंदगी व्यतीत कर रही हैं। इसमें 58 प्रतिशत महिलाओं की उम्र 60 वर्ष से अधिक है, जबकि 32 प्रतिशत 40-59 आयु वर्ग की और 9 प्रतिशत 20 से 39 आयु वर्ग की विधवा महिलाएं हैं। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि बाल विवाह निषेध अधिनियम के बावजूद 2011 की जनगणना में देश भर में लगभग 1।94 लाख बाल विधवाओं (10-19 वर्ष) की संख्या भी दर्ज की गई है। इनमें ग्रामीण क्षेत्रों की संख्या अधिक है। जिन्हें कई प्रकार की रूढि़वादी विचारधारा के कारण बंदिशों वाली जि़ंदगी व्यतीत करनी पड़ रही है। वास्तव में, समाज का दोहरा चरित्र महिलाओं को वर्षों से प्रताडि़त और शोषित करता रहा है। समाज और परंपरा के नाम पर महिलाओं की दुर्दशा होती रही है।
पहले बाल विवाह फिर कम उम्र में मां बनना और फिर पति की मौत से सामाजिक बंदिशों व कुत्सित परंपराओं में जकडक़र जीवन की आशा, आकांक्षा, स्वतंत्रता, समानता से महरूम रहना यही नारी की नियति बन जाती है। आजादी से कई साल पहले समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवाओं के पुनर्विवाह कानून को लागू करवा कर इस दिशा में पहल तो की, लेकिन इसके बावजूद समाज रूढिय़ों में जकड़ा रहा। शिक्षा और जागरूकता के कारण शहरी क्षेत्रों में विधवाओं के जीवन में परिवर्तन तो आया लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी यह बुराई अपनी जड़ें जमाए हुई है। (चरखा फीचर)
नासिरुद्दीन
दिल्ली के इंद्रलोक में सजदे में झुके इंसान को पुलिसकर्मी ने ठीक उसी अंदाज में किक किया था जैसे कि फुटबॉल को मारते हैं।
फर्क इतना था कि फुटबॉल की जगह इंसान का बदन था, जो इबादत कर रहा था।
किक तो एक या दो लोगों को लगा लेकिन धक्के कइयों ने खाए। इसकी तस्वीर के वायरल होने के बाद दिल्ली पुलिस ने जिम्मेदार पुलिस वाले पर कार्रवाई कर एक बेहतर संदेश जरूर दिया।
लेकिन ये पूरा वाकया किसी भी सभ्य समाज को कमतर करने के लिए काफी था।
गलती क्या थीज् मस्जिद में जगह नहीं थी तो अनेक लोग सडक़ के किनारे नमाज के लिए बैठ गए। मुमकिन है, पहले भी ऐसा हुआ हो। इन्हें रोका भी गया हो।
मगर रोकने का यह तरीका काफी वायरल हो गया। वजह साफ थी- इंसान से इंसान का सुलूक कैसे होगा?
अगर सडक़ पर नमाज पढऩा गलत है तो उस गलत काम को रोकने का तरीका क्या यही होगा?
नमाज में खड़े लोगों को धकियाना, गिराना, सजदे में बैठे लोगों को ठोकर मारनाज्यह तो छोटे से वीडियो में जो दिख रहा था उसकी झलक है।
नमाज और अजान पिछले दिनों काफी विवाद का मुद्दा रहे हैं। मुसलमानों के खिलाफ नफरती अभियान का भी यह आधार रहा है।
पिछले साल इसी रमजान के दौरान कई जगहों पर नमाज को लेकर विवाद हुआ था। कई जगह रमज़ान के दौरान पढ़ी जाने वाली विशेष नमाज तरावीह पर लोगों ने एतराज़ किया।
मगर सवाल है कि किन्हें और क्यों इबादत से एतराज है?
अफवाह और नफरत के बीच बँटा समाज
देश में मुसलमानों के बारे में पिछले दिनों अफवाहों की तरह बातें ज्यादा होने लगी हैं।
सोशल मीडिया और खासकर व्हाट्सऐप जैसे मंच मुसलमानों के खिलाफ प्रचार में ख़ूब इस्तेमाल हो रहे हैं।
मुसलमानों के बारे में समाज के बड़े तबके में नफऱत अब आम विचार की तरह पसरता जा रहा है।
खासतौर पर हिन्दू और मुसलमानों के बीच दूरी बढ़ाने या नफरत की खाई चौड़ी करने के लिए मीडिया और खासकर सोशल मीडिया पर कुछ न कुछ लगातार चलता रहता है।
इसमें मीडिया की भूमिका भी काफी अहम है।
मीडिया पर होने वाली बहसें दूरी पाटने या नफरत की खाई को कम करने का काम नहीं करतीं बल्कि वे तो समुदायों के बीच अफवाह को और विस्तार देती हुई देखी जा सकती हैं।
संविधान के रक्षकों पर भी पड़ा है असर
सवाल है, जिनके हाथ में कानून की हिफाजत की जिम्मेदारी है, उनका व्यवहार ऐसा क्यों है? इन सबसे हमारे समाज का हर तबका प्रभावित हुआ है।
इसमें पढ़े-लिखे या बुद्धिजीवी माने जाने वाले लोग भी शामिल हैं। इसलिए इसके असर से किसी वर्दी वाले का बचा रहना कैसे मुमकिन है।
हालाँकि, वर्दी वाले ने जो शपथ ली है, वह संविधान को बचाने की है। सडक़ पर वह राज्य का प्रतिनिधि है और संविधान के मूल्यों की हिफाजत उसका धर्म।
मगर जब वह वर्दी पहनकर किसी को इबादत के दौरान ठोकर मारता है, तो देखने की बात है कि क्या यह महज प्रशासनिक ठोकर है या इससे इतर भी कुछ है।
अगर यह प्रशासनिक किक या ठोकर है तो सब पर एक जैसा चलेगा। हालाँकि, अगर यह चयनित तौर पर कुछ लोगों के खिलाफ उठता है तो यह नफरती कदम है।
दिल्ली में जो हुआ, वह प्रशासनिक ठोकर नहीं दिखता। अगर प्रशासनिक ठोकर होता तो वह सबको ऐसा ही दिखता। मगर ऐसा हुआ नहीं।
कुछ लोगों ने किक को सही ठहराया। बल्कि वे उस पुलिस वाले के पक्ष में दलील देते देखे गए। बल्कि यहाँ तक कहते पाए गए कि जो किया सो सही किया।
इसका मतलब है कि वह किक कुछ संदेश दे रहा है। संदेश भी तीन तरह के हैं। एक, जिन्हें किक मारा गया उनके सम्मान को भी ठोकर मारी गई।
जिन्होंने देखा और अपने को इस घटना से जोड़ा। उन्हें भी यह कहीं न कहीं बुरा लगा या सम्मान को ठेस पहुँचाने वाला लगा।
लेकिन एक तीसरा तबका भी है, जिसे इस ठोकर में किसी के अपमान का मज़ा दिखा। इसीलिए यह कहना बेमानी है कि पुलिस वाला महज अपनी ड्यूटी निभा रहा था।
यह ड्यूटी के दौरान की कार्रवाई है। सवाल है, उसकी यह ड्यूटी किस तरह का संदेश दे रही है।
एक और महत्वपूर्ण बात है कि कानून व्यवस्था का पालन कराने का यह कौन सा तरीका है?
किसी को इस तरह पैर से ठोकर मारना, मानवीय तरीका नहीं है। यह मानवाधिकार के दायरे में नहीं आता है।
सडक़ पर नमाज और पूजा
इस तर्क में दम है कि सडक़ पर नमाज नहीं पढऩी चाहिए। सडक़ पर आने-जाने में असुविधा होती है। मगर सडक़ पर आमतौर पर रोजाना नमाज़ नहीं पढ़ी जाती है।
नमाज रोजाना पाँच वक़्त होती है। रोजाना के नमाज और शुक्रवार यानी जुमे की नमाज में फर्क होता है।
अनेक लोग हफ्ते में एक दिन जुमे के रोज खास नमाज पढ़ते हैं। इसलिए उस दिन बहुत ज्यादा भीड़ होती है।
ठीक उसी तरह जैसे बहुत सारे लोग मंगलवार या शनिवार को खास पूजा करने मंदिरों में जाते हैं। उस दिन मंदिरों में और आसपास काफी भीड़ होती है।
कई मौक़ों पर विशेष पंडाल लगते हैं। भंडारा लगता है। बड़े-बड़े जुलूस निकलते हैं। रास्ते रोके और बदले जाते हैं। आना-जाना दुश्वार होता है। परेशानी होती है।
मगर हम इसी के साथ जीते हैं। पुलिस तब कैसी व्यवस्था में लगी रहती है।
क्या हमें उस दिन यानी मंगलवार या शनिवार या विशेष पूजा के दिन लगने वाली भीड़ से यह लगता है कि सडक़ पर किसी ने कब्जा कर लिया है?
या तब हमारी प्रतिक्रिया किस तरह की होती है? पुलिस किस तरह व्यवहार करती है?
जिस दिन दिल्ली में जुमे के दौरान यह घटना हुई, उस दिन महाशिवरात्रि के मौके पर कई जगह जुलूस निकले थे।
क्या कहीं से कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए ऐसी किसी घटना की जानकारी मिलती है। बल्कि ज्यादातर जगहों पर तो पुलिस के सहयोग से ही जुलूस निकले होंगे।
विशेष इंतजाम किए जाएं
विशेष दिनों की पूजा-अर्चना या नमाज के लिए विशेष व्यवस्था होनी जरूरी है। इन दिनों में भीड़ रोजाना से ज़्यादा होगी, यह भी तय है। नमाज घंटों या दिन भर चलने वाली प्रक्रिया नहीं है। ज़्यादा से ज़्यादा से दस-पंद्रह मिनट।
कई मस्जिदों ने भीड़ को देखते हुए कई दौर में नमाज शुरू कर दी है। मगर शहरों में जहाँ इंसान की तुलना में मंदिरों-मस्जिदों में जगह नहीं है, वहाँ तो भीड़ बढ़ रही है।
सवाल है, इस भीड़ को काबू में कैसा रखा जाए। यही नहीं, पूजा करने वाले हों या नमाजी दोनों के साथ एक जैसा सुलूक कैसे किया जाए।
कोई नियम बने तो सब पर एक जैसे कैसे लागू हों ताकि किसी को यह न लगे कि उसके साथ भेदभाव या ज़्यादती हो रही है।
राज्य का काम नागरिक व्यवस्था का बेहतर इंतजाम करना है। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष राज्य में वह इंतजाम भी धर्म से निरपेक्ष होकर ही किया जा सकता है।
ऐसा नहीं हो कि कहीं तो फूल बरसे और कहीं डंडा। राज्य का काम जिसमें पुलिस शामिल है, व्यवस्था को सुचारू बनाना है और कानून का पालन कराना है। अराजकता न फैले यह देखना है।
कोई कानून तोड़ता नजऱ न आए, यह देखना है। धर्मनिरपेक्ष राज्य में अगर एक धर्म के कार्यक्रम के लिए सुचारू रूप से चलने की पूरी निष्ठा, गंभीरता और बिना किसी दुराव के व्यवस्था की जा सकती है तो बाकी धर्मों के लिए भी ऐसा किया जा सकता है।
यही बेहतर तरीका है। अगर ऐसा नहीं होगा तो एक समुदाय को हमेशा अपने साथ भेदभाव नजर आएगा। (bbc.com/hindi)
भारत ने चार यूरोपीय देशों के साथ एक मुक्त व्यापार समझौता किया है। कहा जा रहा है कि इस समझौते से अगले 15 सालों में 10 लाख नौकरियां पैदा होंगी।
देश के वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने समझौते के बारे में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर बताया कि भारत में ये चार यूरोपीय देश 100 अरब डॉलर का निवेश करेंगे।
इन यूरोपीय देशों में स्विट्जऱलैंड, नॉर्वे, आइसलैंड और लिनसेस्टाइन शामिल हैं। ये चारों ही देश यूरोपीय संघ का हिस्सा नहीं है।
इस ट्रेड समझौते लिए साल 2008 में बातचीत शुरू की गई थी और फिर नवंबर 2018 में ये बातचीत रुक गई थी। इसके बाद अक्टूबर 2016 में फिर इस पर चर्चा शुरू हुई।
समझौते पर फाइनल मुहर लगने से पहले कुल 21 दौर की बातचीत हुई। अब इस समझौते पर हस्ताक्षर हो चुका है।
ये समझौता एफ़टीए (फ्री टेड असोसिएशन) के लिहाज से एक बड़ा समझौता है क्योंकि इसमें निवेश को अनिवार्य किया गया है।
इस समझौते के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बयान जारी कर कहा कि इस ऐतिहासिक समझौते से देश के युवाओं के लिए नौकरियां पैदा होंगी।
समझौते पर नॉर्वे के व्यापार मंत्री जेन क्रिस्टियन वस्त्रे ने कहा, ‘भारत और नॉर्वे के संबंध अब तक के सबसे अच्छे दौर में हैं।’
इस सौदे से जहाँ भारत को बड़ा निवेश मिलेगा वहीं बदले में यूरोपीय देशों के प्रॉसेस्ड फूड, ब्रेवरेज और इलेक्ट्रॉनिक मशीनरी को दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक भारत के 140 करोड़ लोगों के बाज़ार तक आसान पहुँच मिलेगी।
ऐतिहासिक समझौते
पीयूष गोयल ने इस समझौते पर कहा कि इससे फार्मा, मेडिकल उपकरण, फूड, रिसर्च एंड डिवेलपमेंट जैसे बिजनेस को बड़ा फ़ायदा होगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने बयान में इस समझौते को भारत और ईएफ़टीए देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्तों के लिहाज से एक ऐतिहासिक पल बताया है।
उन्होंने अपने बयान में कहा, ‘10 मार्च 2024 भारत और ईएफटीए देशों के बीच रिश्ते का एक ऐतिहासिक क्षण है।’
‘कई पहलुओं में संरचनात्मक विविधताओं के बावजूद, हमारी अर्थव्यवस्थाओं में समनताएं हैं, जो सभी देशों के लिए फायदेमंद स्थिति पैदा करेंगी।’
पीएम मोदी वे कहा, ‘चारों देश अलग-अलग मामलों में वैश्विक लीडर है। वित्तीय सेवा, बैंकिंग, ट्रांसपोर्ट, लॉजिस्टिक, फार्मा, मशीनरी सहित अलग-अलग क्षेत्रों में इन देशों के अग्रणी होने से हमारे लिए सहयोग के नए दरवाजे खुलेंगे।’
नॉर्वे के व्यापार मंत्री जेन क्रिस्टियन वस्त्रे ने प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा, ‘आज का दिन ऐतिहासिक है’- ये बात उन्होंने हिंदी में कही।
वस्त्रे ने कहा, ‘ये वास्तव में इतिहास की किताबों में दर्ज होने वाला दिन है। ये टिकाऊ व्यापार करने का नया तरीक़ा है। निवेश बढ़ाना और नौकरियों का सृजन करना हमारी प्रतिबद्धता है ताकि हम इस समझौते के तय उद्देश्यों को हासिल कर सकें।’
भारत को क्या फ़ायदा होगा
जिन चार देशों के साथा समझौते हुए हैं, उसमें से स्विट्जरलैंड भारत का सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है।
साल 2022-23 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 17.14 अरब डॉलर का रहा जबकि इन चारों देशों के साथ मिला कर व्यापार 18.66 अरब डॉलर का था।
स्विस सरकार ने समझौते को ‘मील का पत्थर’ कहा है।
इस समझौते के बाद भारत कुछ समय के लिए उच्च गुणवत्ता वाले स्विस उत्पादों जैसे स्विस घड़ी, चॉकलेट, बिस्कुट जैसी चीजों पर कस्टम ड्यूटी हटा देगा।
डील के अनुसार, भारत सोने को छोडक़र, स्विट्जरलैंड से लगभग 95त्न औद्योगिक आयात पर कस्टम ड्यूटी तुरंत या समय के साथ हटा देगा।
इससे सीफूड जैसे टूना, सॉलमन, कॉफ़ी, तरह-तरह के तेल, कई तरह की मिठाइयां और प्रोसेस्ड फूड की कीमत भारत में कम होगी।
इसके अलावा स्मार्टफोन, साइकिल के सामान, मेडिकल के उपकरण, डाई, कपड़ा, स्टील के सामान और मशीनरी भी सस्ते होंगे।
ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव के प्रमुख अजय श्रीवास्तव ने समाचार एजेंसी पीटीआई से कहा, ‘भारत में स्विट्जरलैंड के सामानों की क़ीमत सस्ती होने वाली है क्योंकि इन पर लगने वाले टैरिफ हटा दिए जाएंगे। वाइन जो पाँच डॉलर से 15 डॉलर के बीच की कीमत की हैं, इन पर लगभग 150 फीसदी से घटा कर ड्यूटी 100 फीसदी कर दी जाएगी।’
श्रीवास्तव के अनुसार, आने वाले सालों में में कट-पॉलिस डायमंड पर पाँच फीसदी की ड्यूटी घटा कर 2.5 फीसदी कर दी जाएगी।
निवेश और नौकरियों को लेकर कितनी प्रतिबद्धता
इस समझौते को ऐतिहासिक इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि आने वाले 15 सालों में ये चार देश 100 अरब डॉलर का निवेश भारत में करेंगे और 10 लाख नौकरियां पैदा की जाएंगी। इन देशों ने इसे लेकर प्रतिबद्धता जतायी है।
द हिंदू को दिए गए एक इंटरव्यू में स्विट्जऱलैंड की आर्थिक मामलों की मंत्री हेलेन बडलिगर अर्टिडा ने बताया है, ‘मैं आपको बता सकती हूं कि स्विट्जरलैंड की कंपनियों और जिन अन्य कंपनियों से हमने बात की है, उनकी भारत में व्यापक रुचि है।’
‘हम एक अनुमान के ज़रिए 100 अरब डॉलर के आँकड़े पर पहुंचे हैं। इसके लिए हमने 2022 में एफडीआई का आँकड़ा देखा है, जो 10.7 अरब अमेरिकी डॉलर है और भारत के जीडीपी अनुमान और यहाँ का बड़ा बाज़ार हमारे इस निवेश की राशि पर पहुँचने का आधार है।’
‘ईएफटीए ब्लॉक हमारे यूरोपीय पड़ोसी (ईयू) से पहले ही इस सौदे पर मुहर लगाने में कामयाब रहा, जिससे भारत में बाकियों की रुचि और बढ़ गई है। लेकिन मैं बहुत स्पष्ट तौर पर ये बताना चाहती हूँ कि यह निवेश स्विस सरकार नहीं है करेगी बल्कि प्राइवेट कंपनियां करेंगी।’
‘अगर हम किन्हीं कारणों से 100 अरब डॉलर के निवेश नहीं कर सके तो हम वापस चले जाएंगे।’
समझौते पर स्विट्जरलैंड के अर्थव्यवस्था मंत्री गाइ पार्मेलिन ने कहा, भारत ‘व्यापार और निवेश के लिए अपार अवसर’ देने वाला देश है। इस सौदे से भारत की तकनीक तक पहुँच होगी।
इस समझौते से फार्मा और मेडिकल डिवाइस के क्षेत्र में भी फायदा होगा। भारतीय निर्यातकों को इन देशों के बाजार में भी अच्छी पहुँच मिलेगी।
इस समझौते में कुल 14 चैप्टर हैं, जिसमें सरकारी खरीद, निवेश प्रोत्साहन और सहयोग, व्यापार में छूट, इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी की सुरक्षा शामिल हैं।
इस समझौते के प्रभावी होने के दो साल बाद इसकी समीक्षा का प्रावधान है। पहली समीक्षा के बाद, दोनों पक्ष, ईएफटीए और भारत इस सौदे की हर दो साल में समीक्षा करेंगे।
ये समझौता प्रभावी कब से होगा?
इस सवाल के जवाब में अर्टिडा ने द हिंदू को बताया, ‘हर देश का अलग-अलग समय है। स्विट्जरलैंड में हम ऑटम सेशन में संसद पेश करेंगे।उम्मीद है कि इस साल के अंत तक इसे लागू किया जा सकेगा। मुझे लगता है कि बाकी के ईएफटीए देश भी तब तक अपनी प्रक्रियाएं पूरी कर लेंगे।’ (bbc.com/hindi)