सेहत-फिटनेस
नई दिल्ली, 8 नवंबर | किसी को ठंड का मौसम पसंद होता है तो कोई इस मौसम को बिलकुल पसंद नही करता है। इस मौसम में हम सभी जानते हैं कि सर्दियों की अलमारी कपास, ऊन और कश्मीरी जैसे प्राकृतिक कपड़ों से भरी होनी चाहिए। इस मौसम का एक नकारात्मक पहलू भी होता है। इस मौसम में फैशनेबल दिखने के लिए बहुत दिक्कत होती है। तो ऐसे में न्यूमेरो यूएनओ के मार्केटिंग मैनेजर संतोष श्रीवास्तव ने तीन अलग-अलग विंटर फैशन स्टाइल शेयर किए हैं जो आपको इस सीजन में मिलेंगे।
1. द जॉगर-
जॉगर, यह एक पैंट होता है जो कि ढीली फिटिंग का होता है, और काफी आरामदायक आपको महसूस कराता है। जबकि जींस अक्सर सर्दियों के दौरान पहनने के लिए बहुत भारी होती है, हल्के कपड़े जैसे कपास, और लिनन, या सिंथेटिक सामग्री जैसे पॉलिएस्टर या स्पैन्डेक्स से बने जॉगर्स आपको वजन कम किए बिना गर्म रखेंगे।
यदि आप किसी अन्य औपचारिक पोशाक में एक आकस्मिक स्पर्श जोड़ना चाहते हैं तो जॉगर्स भी एक बढ़िया विकल्प हैं। उदाहरण के लिए, आप एक ढीली-ढाली शर्ट के साथ काले जॉगर्स की एक जोड़ी और एक कैजुअल शीतकालीन पोशाक को पूरा करने के लिए स्नीकर्स की एक जोड़ी पहन सकते हैं।
2. फर-लाइन वाली हूडि-
यदि आप ऐसे परिधान की तलाश में हैं जो आपको बहुत भारी या भारी न होने के कारण गर्म रखेगा, तो एक फर-लाइन वाला हुडी सही विकल्प हो सकता है। एक नियमित हुडी के विपरीत, एक फर-लाइन वाला संस्करण सुनिश्चित करेगा कि आप सबसे ठंडे दिनों में भी गर्म रहें।
3. फॉक्स फर कोट-
फॉक्स फर कोट आपको पूरे सर्दियों के मौसम में गर्म रहने में मदद करेगा। असली फर के विपरीत, फॉक्स फर क्रूरता-मुक्त है और शेड नहीं करता है - जिसका अर्थ है कि यह उन लोगों के लिए एक बढ़िया विकल्प है जो असली फर नहीं पहनना चाहते हैं, फिर भी एक ही समय में गर्म और स्टाइलिश रहना चाहते हैं। फर एक बहुत ही आकर्षक दिखने वाला कपड़ा है, इसलिए एक फॉक्स फर कोट तुरंत किसी भी शीतकालीन पोशाक में एक स्टाइलिश स्पर्श जोड़ देगा।
ये कोट विभिन्न रंगों में आते हैं, इसलिए आप एक ऐसा कोट चुन सकते हैं जो आपके बाकी अलमारी के पूरक हो। यदि आप ठंडे दिनों में पहनने के लिए एक स्टाइलिश लेकिन कार्यात्मक परिधान की तलाश में हैं तो फॉक्स फर कोट एक अच्छा विकल्प है। (आईएएनएस)|
वैज्ञानिकों का कहना है नाक में उंगली डालना अच्छी बात नहीं है. सिर्फ इसलिए नहीं कि अन्य लोगों को यह अच्छा नहीं लगता, बल्कि इसलिए भी कि इससे डिमेंशिया या अल्जाइमर्स हो सकता है.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
नाक में उंगली डालना एक ऐसी क्रिया है, जो करने वाले अनायास ही कर बैठते हैं और देखने वाले घिना जाते हैं. यह तो इस क्रिया का सामाजिक और व्यवहारिक पक्ष है. वैज्ञानिकों ने इसका एक स्वास्थ्यगत पक्ष भी खोजा है, जो डरावना हो सकता है.
एक शोध में पता चला है कि नाक में उंगली डालने की आदत से लोगों को अल्जाइमर्स और डिमेंशियाका भी खतरा हो सकता है. ऑस्ट्रेलिया की ग्रिफिथ यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं की एक टीम ने यह रिसर्च की है. शोधकर्ताओं ने चूहों पर की रिसर्च में पाया कि बैक्टीरिया नाक की नली से होता हुआ चूहों के मस्तिष्क में पहुंच गया, जहां उसने ऐसे बदलाव पैदा किए जो अल्जाइमर्स के संकेत थे.
विज्ञान पत्रिका साइंटिफिक रिपोर्ट्स में छपा यह अध्ययन कहता है कलामीडिया न्यूमेनिए नाम का एक बैक्टीरिया मनुष्यों को संक्रमित कर सकता है. यही बैक्टीरिया न्यूमोनिया के लिए जिम्मेदार होता है. हालांकि अधिकतर डिमेंशिया रोगियों के मस्तिष्क में भी यही बैक्टीरिया पाया गया है.
शोधकर्ताओं ने नाक की नली और मस्तिष्क को जोड़ने वाली नस को नर्वस सिस्टम में पहुंचने के रास्ते के तौर पर प्रयोग किया. ऐसा होने पर मस्तिष्क की कोशिकाओं ने एमिलॉएड बीटा प्रोटीन का उत्पादन कर प्रतिक्रिया दी. यही प्रोटीन अल्जाइमर्स के मरीजों के मस्तिष्क में बनता है.
नाक और मस्तिष्क को जोड़ने वाली यह नस हवा के संपर्क में होती है. यानी बाह्य वातावरण से मस्तिष्क के भीतरी हिस्सों की दूरी बहुत कम होती है. वायरस और बैक्टीरिया इस रास्ते से बहुत आराम से मस्तिष्क तक पहुंच सकते हैं.
कैसे हुआ अध्ययन?
चूहों पर हुआ यह अध्ययन क्लेम जोंस सेंटर फॉर न्यूरोबायोलॉजी और स्टेम सेल रिसर्च सेंटर में किया गया. सेंटर के प्रमुख प्रोफेसर जेम्स सेंट जॉन ने बताया, "हमने इसे एक मॉडल के तौर पर चूहों में होते देखा और यह मनुष्यों में संभावना का एक डरावना प्रमाण है.”
इस शोध का अगला चरण सिद्धांत का इंसानी मस्तिष्क पर परीक्षण करना है. प्रोफेसर सेंट जॉन कहते हैं, "हमें इसे मनुष्यों पर जांचना होगा और देखना होगा कि वहां भी यह रास्ता ऐसा ही प्रभाव डाल सकता है या नहीं. इस शोध का प्रस्ताव तो बहुत से लोगों ने दिया है लेकिन अभी तक किसी ने इसे पूरा नहीं किया है.”
शोधकर्ता प्रोफेसर जेम्स सेंट जॉन कहते हैं, "नाक में उंगली डालना और नाक के बाल तोड़ना अच्छी आदत नहीं है.” वह कहते हैं कि अगर ऐसा करते हुए कोई अपनी नाक की परत को नुकसान पहुंचा देता है तो बैक्टीरिया के मस्तिष्क में पहुंचने का खतरा बढ़ जाता है.
शोधकर्ताओं ने कहा कि सूंघने की शक्ति खो बैठने को अल्जाइमर्स रोग का शुरुआती संकेत माना जा सकता है. इसलिए वह सुझाव देते हैं कि 60 साल से ऊपर के लोगों का सूंघने की शक्ति का टेस्ट अल्जाइमर्स के शुरुआती संकेत के तौर पर होना चाहिए.
क्या है अल्जाइमर्स रोग?
अल्जाइमर्स मस्तिष्क की एक बीमारी है जिसमें याद्दाश्त कमजोर या पूरी तरह नष्ट हो जाती है. इसका असर सोचने-समझने की क्षमता पर भी पड़ता है और एक वक्त ऐसा आता है जब इंसान रोजमर्रा के सामान्य काम करने की क्षमता भी खो बैठता है. अधिकतर लोगों में यह बीमारी उम्र के दूसरे हिस्से में नजर आने लगती है लेकिन 65 वर्ष की आयु के बाद इसका खतरा ज्यादा माना जाता है.
एक अनुमान के मुताबिक भारत में 40 लाख से ज्यादा लोगों को किसी ना किसी तरह का डिमेंशिया है जबकि पूरी दुनिया में साढ़े चार करोड़ लोग इससे पीड़ित हैं. इस बीमारी में मस्तिष्क का सीखने वाला हिस्सा यानी हिपोकैंपस सबसे पहले प्रभावित होता है. इसलिए याद रखना मुश्किल होता जाता है.
विज्ञान के मुताबिक आयु के अलावाकुछ और कारक भी हैं जो अल्जाइमर्स रोग की वजह बन सकते हैं. इनमें अनुवांशिकी सबसे अहम है. यानी, अगर माता-पिता या पूर्वजों में अल्जाइमर्स रोग रहा हो तो व्यक्ति को इसके होने की संभावना हो जाती है. कुछ शोध बताते हैं कि हृदय रोगों से पीड़ित लोग भी डिमेंशिया और अल्जाइमर्स का शिकार होने की ज्यादा संभावना के साथ जीते हैं. मस्तिष्क पर चोट लगने से भी ऐसा हो सकता है. (dw.com)
(सैंड्रा हेस, ग्रिफिथ विश्वविद्यालय, केली डी'कुन्हा, कैरोलिन ओलिविया टेरानोवा और मरीना रीव्स क्वींसलैंड विश्वविद्यालय)
क्वींसलैंड, 21 अक्टूबर। हर साल, 20,000 से अधिक ऑस्ट्रेलियाई, जिनमें ज्यादातर महिलाएं होती हैं, में स्तन कैंसर पाया जाता है। यदि आप उनमें से एक हैं या किसी को जानते हैं, तो अच्छी खबर यह है कि हर 100 में से 92 महिलाएं स्तन कैंसर के निदान के बाद पांच साल या उससे अधिक समय तक जीवित रह पाती हैं।
लेकिन महिलाएं अक्सर अपने कैंसर के इलाज से होने वाले जीवन-परिवर्तनकारी दुष्प्रभावों से इतना अधिक हैरान और तकलीफ में होती हैं, जिसका असर कई वर्षों तक जारी रह सकता है और कई लोग ऐसे भी होते हैं जो दोबारा कैंसर होने के डर के साथ जीते हैं, भले ही वे पांच साल तक जीवित रहने की सीमा से आगे निकल गए हों।
तो, स्तन कैंसर के निदान के बाद आप लंबा, स्वस्थ जीवन जीने की संभावनाओं को बेहतर बनाने के लिए क्या कर सकते हैं?
1. शारीरिक रूप से सक्रिय रहें
ज्यादा चलें फिरें और कम बैठें। आदर्श रूप से, कम से शुरूआत करके धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए सप्ताह में लगभग 150 मिनट (ढाई घंटे) नियोजित, नियमित व्यायाम करें। इसमें एरोबिक व्यायाम (जैसे चलना) और प्रतिरोध अभ्यास (जो विशिष्ट मांसपेशी समूहों को लक्षित करते हैं) का मिश्रण शामिल है, जो आपको थोड़ा मजबूत बनाने के लिए मध्यम या उच्च तीव्रता पर किया जाता है।
अध्ययन से पता चला है कि लंबे समय तक जीने और कैंसर की पुनरावृत्ति की रोकथाम का व्यायाम के साथ गहरा संबंध है। और इसका समर्थन करने के लिए नैदानिक परीक्षणों के कुछ प्रारंभिक साक्ष्य भी हैं।
स्तन कैंसर से पीड़ित जो महिलाएं व्यायाम करती हैं और अधिक सक्रिय हैं, उनके जीवन की गुणवत्ता, ताकत और फिटनेस बेहतर होती है, और बीमारी के सक्रिय उपचार के दौरान उनपर कम और कम गंभीर दुष्प्रभाव होते हैं।
2. उच्च गुणवत्ता वाला आहार लें
ऐसा देखा गया है कि बेहतर आहार - जिनमें सब्जियां, फल, फलियां, नट्स, साबुत अनाज और मछली का अधिक सेवन शामिल है - ग्रहण करने वाली महिलाएं स्तन कैंसर के निदान के बाद उन लोगों के मुकाबले लंबे समय तक जीवित रहती हैं, जो परिष्कृत या प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ और रेड मीट जैसा आहार लेते हैं।
यह मुख्य रूप से स्तन कैंसर से मरने के जोखिम पर प्रत्यक्ष प्रभाव होने के बजाय अन्य स्वास्थ्य स्थितियों, जैसे हृदय रोग के जोखिम को कम करने पर एक अच्छे आहार के लाभ के कारण है।
कई महिलाओं, विशेष रूप से वृद्ध महिलाओं या प्रारंभिक चरण के स्तन कैंसर वाले लोगों को वास्तव में उनके स्तन कैंसर की तुलना में हृदय रोग से मरने का अधिक जोखिम होता है। एक उच्च गुणवत्ता वाला आहार स्वस्थ शरीर के वजन और हृदय स्वास्थ्य को बनाए रखने में मदद कर सकता है।
कैंसर के उपचार के दौरान विशिष्ट आहार (जैसे कि केटोजेनिक या कम कार्बोहाइड्रेट वाले आहार) और उपवास में रुचि बढ़ रही है। लेकिन सबसे हालिया दिशानिर्देशों में कहा गया है कि अभी तक ऐसे कोई सबूत नहीं है, जो यह बताते हों कि इनसे महत्वपूर्ण लाभ होते हैं।
2020 के एक अध्ययन के निष्कर्षों के बाद और अधिक शोध किया जा रहा है, जिसमें कीमोथेरेपी से पहले के दिनों में ‘‘उपवास जैसे आहार’’ (कम कैलोरी, कम प्रोटीन) का सुझाव दिया गया था, जिसने उपचार के प्रति बेहतर प्रतिक्रिया उत्पन्न की। हालांकि, आहार का अनुपालन मुश्किल था - अध्ययन में पांच में से केवल एक महिला अपने सभी कीमोथेरेपी उपचारों के दौरान यह उपवास जैसा आहार खाने में सक्षम थी।
3. स्वस्थ वजन बनाए रखें
शरीर के अतिरिक्त वजन को भी स्तन कैंसर के निदान के बाद खराब माना गया है। लेकिन अभी तक इसके विपरीत दिखाने के लिए कोई नैदानिक परीक्षण नहीं हुआ है कि स्तन कैंसर के निदान के बाद वजन घटाने से इसके उपचार में अधिक फायदा हो सकता है। इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए परीक्षण चल रहे हैं।
ब्रेस्ट कैंसर के इलाज के बाद वजन बढ़ना आम बात है। इसके कारण जटिल हैं और अतिरिक्त वजन से उपचार के कुछ दुष्प्रभाव बदतर हो सकते हैं।
स्तन कैंसर के उपचार के बाद महिलाओं के हमारे हालिया अध्ययन में पाया गया कि जब उन्हें मामूली मात्रा में वजन (उनके शरीर के वजन का 5%) कम करने में मदद दी गई, तो उन्होंने अपने जीवन की शारीरिक गुणवत्ता में सुधार किया और उनके दर्द के स्तर को कम किया। उन्होंने हृदय रोग और मधुमेह के अपने जोखिम को भी कम किया।
इन सुस्थापित युक्तियों के अलावा, शोध का एक छोटा निकाय हमारे शरीर की घड़ी से संबंधित दो और व्यवहारों का सुझाव देता है, जो स्तन कैंसर के निदान के बाद स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं।
4. अच्छी नींद लें
नींद में खलल की प्रवृत्ति- स्तन कैंसर से पीड़ित महिलाओं में आम - आपके उपचार की अवधि समाप्त होने के बाद भी वर्षों तक बनी रह सकती है।
स्तन कैंसर से पीड़ित ऐसी महिलाएं, जिन्हें नींद कम आती है या मुश्किल से आती है, उन महिलाओं की तुलना में कम जीती हैं, जो आराम से अपनी नींद पूरी करती हैं।
हालांकि ज्यादा सोना हमेशा फायदेमंद हो, ऐसा भी नहीं है। प्रति रात नौ घंटे से अधिक सोना - सात से आठ घंटे की तुलना में - स्तन कैंसर के 48% बढ़े हुए जोखिम से जुड़ा है। लेकिन, अध्ययन अभी तक इसके संभावित कारणों का खुलासा नहीं कर पाए हैं।
5 जब आप खाते हैं तो सावधान रहें
प्रारंभिक शोध से पता चलता है कि आप कब खाते हैं, इसका भी असर पड़ता है। दिन के अंतिम भोजन (रात का खाना) और अगले दिन के पहले भोजन (नाश्ते) के बीच के समय में दूरी रखने से स्तन कैंसर की वापसी की संभावना कम हो सकती है।
ऐसी महिलाएं जिन्होंने 13 घंटे से कम समय तक रात भर उपवास किया अर्थात जिन्होंने रात के भोजन और अगले दिन के नाश्ते के बीच में 13 घंटे से कम का अंतर रखा, उन्हें 13 या अधिक घंटों का अंतर रखने वाली महिलाओं की तुलना में - स्तन कैंसर के निदान के बाद, इसके वापस आने का जोखिम 36% अधिक देखा गया। लेकिन अध्ययन के लेखकों ने उल्लेख किया कि यादृच्छिक परीक्षणों से इस बात की जांच करने की आवश्यकता है कि क्या रात में उपवास की मात्रा बढ़ाने से बीमारी का खतरा कम हो सकता है।
बड़े बदलाव के लिए छोटे कदम
विश्व कैंसर अनुसंधान कोष ने कैंसर के जोखिम को कम करने और कैंसर के वापस आने के जोखिम को कम करने के लिए सिफारिशों की एक सूची विकसित की है। लेकिन हमारे शोध में पाया गया है कि ज्यादातर महिलाएं अपने स्तन कैंसर के निदान के बाद इन सिफारिशों को पूरा नहीं कर रही हैं। स्तन कैंसर के बाद आदतों को बदलना भी कठिन हो सकता है, मुख्यतः थकान और तनाव के कारण।
उपचार के बाद व्यायाम शुरू करना डराने वाला और परेशान करने वाला भी हो सकता है। छोटे से शुरुआत करना एक अच्छा विचार है, उदाहरण के लिए: हर हफ्ते व्यायाम को 10 से 15 मिनट तक बढ़ाने का लक्ष्य रखें। व्यायाम के दौरान एक दोस्त के साथ होने से वास्तव में मदद मिलती है और जिन लोगों को स्तन कैंसर हुआ है उनके लिए बहुत सारे व्यायाम कार्यक्रम हैं।
स्तन कैंसर के निदान के बाद व्यायाम करने के बारे में सामान्य प्रश्नों में शामिल हैं कि लिम्फोएडेमा की सूजन और परेशानी से कैसे बचा जाए, जो लगभग 20% स्तन कैंसर से बचे लोगों में विकसित होता है, जिनके लिम्फ नोड्स हटा दिए गए है। लोग व्यायाम के दौरान विग से होने वाली असुविधा या विकिरण से जलन के बारे में भी चिंता करते हैं। इस संबंध में विशिष्ट सलाह उपलब्ध है।
व्यायाम लक्ष्यों के समान, एक संपूर्ण आहार के लिए प्रयास करने के बजाय, आप प्रत्येक सप्ताह अधिक सब्जियां खाने का लक्ष्य बना सकते हैं।
यदि आप कैंसर के निदान या उपचार के बारे में चिंतित हैं, तो नींद चुनौतीपूर्ण हो सकती है, लेकिन हर रात अनुशंसित सात से नौ घंटे की नींद लेने के सुझावों में दिन में पहले व्यायाम करना, सोने से पहले कुछ खाने से बचना और अच्छी नींद शामिल है। (द कन्वरसेशन)
अमेरिका के एरिजोना में कुछ लोगों के लिए समय और मौत "ठहर" गई है. तकनीक बेहतर होगी तो उनकी बीमारियां ठीक होंगी और वो दोबारा जिंदा होंगे. इस उम्मीद में लोगों ने अपने शव सुरक्षित रखवाये हैं.
डॉयचे वैले पर निखिल रंजन की रिपोर्ट-
टैंकों के भीतर तरल नाइट्रोजन भरी है और साथ में रखे हैं शव और सिर. एक दो नहीं पूरे 199. ये वो लोग हैं जिनके दोबारा जिंदा होने की उम्मीद ने इस हाल में रखा है. इस तरह शवों को रखने वाले उम्मीद कर रहे हैं कि भविष्य में विज्ञान इतना विकास कर लेगा कि ये लोग फिर से जिंदा होंगे.
शवों को इस तरह रखने का प्रबंध करने वाली एल्कोर लाइफ एक्सटेंशन फाउंडेशन इन लोगों को "मरीज" कहती है. इन लोगों की जान कैंसर, एएएलएस या फिर इसी तरह की किसी बीमारी से गई जिसका आज इलाज मौजूद नहीं है. इस तरीके से सुरक्षित रखे शवों क्रायोप्रिजर्व्ड कहा जाता है.
इन मरीजों में सबसे कम उम्र की हैं माथेरिन नाओवारातपोंग. 2 साल की उम्र में इस थाई बच्ची की ब्रेन कैंसर से 2015 में मौत हो गई. एल्कोर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी मैक्स मूर बताते हैं, "उसके मां बाप डॉक्टर थे और उसके दिमाग की कई बार सर्जरी की गई लेकिन दुर्भाग्य से कुछ काम नहीं आया. तो उन लोगों ने हमसे संपर्क किया. गैरलाभकारी फाउंडेशन का दावा है कि वह क्रायोनिक्स की दुनिया में सबसे आगे है. बिटकॉइन के अगुआ हल फिने भी एल्कोर के मरीज हैं. 2014 में उनकी मौत के बाद उनका शव भी इसी तरह यहां रखा गया है.
ममियों से अलग
मिस्र में हजारों साल पहले मृत्यु के बाद लोगों के शवों को सुरक्षित रखने की परंपरा रही है. राजा, राजपरिवार के सदस्य और दूसरे प्रमुख लोगों के शवों की ममी बना कर उन्हें सुरक्षित रखा जाता था. इसके पीछे धारणा यह थी कि इन लोगों की आत्मा को मृत्यु के बाद अच्छा जीवन मिल सके. ममी बनाने के लिए दिल को छोड़ कर शरीर के अंदरूनी अंगों को बाहर निकाला जाता था. बाहर निकाले जाने वाले अंगों में दिमाग भी शामिल था. इसके बाद शव को सोडियम कार्बोनेट, सोडियम बाइ कार्बोनेट, सोडियम क्लोराइड और सोडियम सल्फेट के एक घोल की मदद से सुखा दिया जाता. इसके बाद बारी आती थी इसके अंदर कई तरह के मसाले भर कर उन्हें सुरक्षित करने की.
कायोप्रिजर्वेशन की प्रक्रिया इससे बहुत अलग है. यह प्रक्रिया किसी व्यक्ति की कानूनी रूप से मौत की घोषणा के बाद शुरू होती है. मरीज के शरीर से खून और दूसरे तरल निकाल दिये जाते हैं और उनकी जगह एक खास रसायन भर दिया जाता है. यह रसायन खासतौर से इसलिए तैयार किया गया है कि वह नुकसान पहुंचाने वाले बर्फ के कणों का बनना रोके. बेहद ठंडे तापमान पर शरीर को कांच जैसा बनाने के बाद मरीजों को एरिजोना के केंद्र में टैंकों के अंदर रख दिया जाता है. मूर का कहना है "उन्हें यहां तब तक रखा जायेगा जब तक कि तकनीक विकसित नहीं हो जाती."
लाखों डॉलर का खर्च
इस तरह यहां रखने पर पूरे शरीर के लिए कम से कम 2 लाख डॉलर का खर्च आता है. केवल दिमाग के लिए यह खर्च 80,000 डॉलर है. एल्कोर के 1,400 जीवित सदस्य इसका भुगतान जीवन बीमा की योजनाओं में कंपनी को बेनिफिशियरी बना कर करते हैं. कंपनी को सिर्फ उतने ही पैसे मिलते हैं जितना इसका खर्च है. मूर की पत्नी नताशा विटा मूर इस प्रक्रिया को पसंद करती हैं और इसे भविष्य की यात्रा मानती हैं. उनका कहना है, "बीमारी या चोट का इलाज होता है या उन्हें ठीक किया जाता है और आदमी को नया शरीर या फिर पूरा नकली शरीर मिलता है या फिर उनके शरीर को दोबारा तैयार किया जाता है जिसके बाद वो अपने दोस्तों से फिर मिल सकते हैं."
मेडिकल क्षेत्र में काम करने वाले बहुत से लोग इस बात से सहमत नहीं हैं. न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी के ग्रोसमान स्कूल ऑफ मेडिसिन के मेडिकल एथिक्स डिविजन के प्रमुख आर्थर काप्लान भी उनमें शामिल हैं. काप्लान का कहना है, "भविष्य के लिए खुद को जमा देने का ख्याल किसी साइंस फिक्शन जैसा है और यह बहुत भोलापन है. सिर्फ एक ही ऐसा समूह है जो इसकी संभावना को लेकर बहुत उत्साहित है, ये वो लोग हैं जो सुदूर भविष्य को पढ़ते हैं या फिर वो जिनकी इस बात में दिलचस्पी है कि आप इसके लिए पैसा दें." (dw.com)
क्या खाना सेहतमंद है और क्या नहीं इस पर आये दिन नये रिसर्च सामने आते हैं. कभी खबर आती है कि रेड मीट स्वास्थ्य के लिए बढ़िया है तो अगले हफ्ते कहा जाता है कि इससे स्ट्रोक का खतरा है. लोग इन खबरों से उलझन में पड़ जाते हैं.
हाल ही में एक बड़ी रिसर्च की समीक्षा प्रकाशित हुई जो ना सिर्फ ताजा रिसर्च के नतीजों और सबूतों के आधार पर सेहत के लिए बेहतर चीजों को परखती है बल्कि उन्हें स्टार रेटिंग भी देती है. अमेरिका का इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैलुएशन यानी आईएचएमई सेहत से जुड़े आंकड़ों का अब ग्लोबल रेफरेंस बन गया है.
180 क्षेत्रों में अब तक हुए रिसर्चों का विश्लेषण कर इसने यह पता लगाने की कोशिश की गई है कि कोई खास जोखिम का कारण किस तरह की बीमारी से जुड़ा है. उदाहरण के लिए धूम्रपान का सेहत पर क्या असर हो सकता है और फेफड़े के कैंसर से यह किस तरह जुड़ा है.
स्टार रेटिंग
धूम्रपान और फेफड़े के कैंसर के बीच संपर्क को सबसे अधिक पांच सितारा रेटिंग दी गई है. इसी तरह हाई ब्लड प्रेशर और दिल की बीमारियों के बीच संबंध को भी यही रेटिंग मिली है. इसका मतलब है कि सबूत पक्के हैं और भविष्य में इनके बदलने के आसार नहीं के बराबर हैं.
हालांकि खतरे वाली लगभग दो-तिहाई चीजों या बीमारियों से उनके संबंध को केवल एक या दो स्टार ही दिये गये हैं. इसका मतलब है कि ऐसा माने जाने के पीछे जो सबूत है वो जितना समझा गया था उससे कमजोर हैं. जैसे कि बिना प्रॉसेस किया हुआ रेड मीट (बकरा, भेड़, सूअर या गाय का मांस) खाने वालों में स्ट्रोक के खतरे को केवल एक स्टार दिया गया है. इसका मतलब है कि इन दोनों के बीच संबंध का कोई सबूत मौजूद नहीं है. रेड मीट और कोलन कैंसर, स्थानीय खून की कमी से होने वाली दिल की बीमारियों और मधुमेह यानी डायबिटीज के संबध को दो स्टार दिये गये हैं.
हर ताजा रिपोर्ट को मानते हैं लोग
आईएचएमई के निदेशक और नेचर मेडिसिन जर्नल में "बर्डेन ऑफ प्रूफ" नाम से छपी कई रिसर्च रिपोर्टों के लेखक क्रिस्टोफर मर्रे का कहना है कि वह, "इस बात से बहुत हैरान हुए कि कई खाने पीने की चीजें और उनसे होने वाले खतरों के बीच रिश्ता तुलनात्मक रूप से काफी कमजोर है." मर्रे ने एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान बताया कि यह विश्लेषण इस चिंता की वजह से किया गया क्योंकि, "हर कोई ताजा छपी रिसर्च रिपोर्ट को मानता है," जबकि अकसर नतीजे, "एक रिसर्च से दूसरे रिसर्च के बीच बदलते रहते हैं."
मर्रे का कहना है कि रिसर्चरों ने उस विषय पर हुए सभी मौजूदा रिसर्चों को देखा और खंगाला है और आंकड़ों के जरिये उनकी निरंतरता को परखा है उसके बाद पूछा है, "इस सबूत की सबसे संकुचित व्याख्या क्या है?"
रिसर्चरों ने इस बात की छानबीन की है कि ज्यादा सब्जियां खाने से सेहत पर क्या असर पड़ता है. इसके लिए 50 रिसर्चों को खंगाला गया. ये रिसर्च 34 देशों के 46 लाख लोगों पर किये गये थे. खाने में सब्जियों की मात्रा हर दिन 0 से चार तक बढ़ाने पर शरीर के किसी खास हिस्सों में रक्त की कमी के कारण होने वाले स्ट्रोक का जोखिम 23 फीसदी घट गया. इस विश्लेषण के बाद इसे तीन स्टार दिये गये. इसी तरह सब्जी खाने और टाइप2 डायबिटिज के बीच जो रिश्ता मिला उसे सिर्फ एक ही स्टार दिया गया. रिसर्च रिपोर्ट के सह लेखक जेफ्री स्टैनवे का कहना है, "बहुत संकुचित व्याख्या के आधार पर भी देखें तो सब्जियों का इस्तेमाल लंबे समय की बीमारियों में कमी से प्रमुखता के साथ जुड़ा है."
स्टार रेटिंग के खतरे
इस रिसर्च में शामिल नहीं रहे विशेषज्ञों का कहना है कि यह दिलचस्प है लेकिन इसे जरूरत से ज्यादा सरल करके नहीं देखना चाहिए. ब्रिटेन की ओपन यूनिवर्सिटी में सांख्यिकी विज्ञानी केविन मैककॉनवे ने चिंता जताई है कि जब जटिल रिसर्चों को साथ मिला कर स्टार रेटिंग दी जाती है तो उसका "एक बड़ा हिस्सा जाहिर तौर पर नष्ट हो जाता है." ब्रिटेन की ही एस्टन यूनिवर्सिटी के डायटीशियन डुआने मेलर का कहना है कि रेड मीट पर हुई रिसर्च हैरान नहीं करती क्योंकि इसमें बिना प्रॉसेसिंग वाले मीट के उत्पाद पर ध्यान दिया गया है. उनका कहना है, "भोजन में शामिल प्रोसेस्ड रेड मीट जैसे कि बेकन और सॉसेज बीमारी के ज्यादा जोखिम से जुड़े हुए हैं जिसके बारे में इन पेपरों में रिपोर्ट नहीं दी गई है."
आईएचएमई का कहना है कि उसकी योजना अपनी खोजों को नई रिसर्च आने पर अपडेट करने की है. उन्हें उम्मीद है कि नया तरीका लोगों और नीतियां बनाने वालों को रास्ता दिखायेगा. जल्दी ही कई और चीजों के सेहत से संबंधों पर अपनी खोज संस्थान जारी करेगा इनमें अल्कोहल, वायु प्रदूषण और दूसरी चीजों के बारे में जानकारी होगी.
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नईदिल्ली, 15 सितम्बर | डिजाइनर रिद्धि मेहरा ने इण्ड्या के साथ मिलकर एक बहुत ही प्यारा सा कपड़ों का कलेक्शन पेश किया। जिसमें कई अलग अलग तरह के कपड़े, अलग अलग फैशन के शूट और अलग अलग त्यौहारों के लिए डिजाइनर ड्रेस उपलब्ध हैं।
पहले से सिले हुए साड़ी, फ्रिल्ड ब्लाउज, चंचल जंपसूट, केप जैकेट और शरारा सेट, अन्य हवादार और स्त्री डिजाइनों में से हैं, जो विशिष्ट रूप से फैशनेबल बोहेमियन रूपांकनों, बंधनी प्रिंट, फूलों के धागे के काम और टोनल सेक्विन के साथ कवर किए गए हैं।
रंग योजना उत्सव के स्वरों का एक जीवंत संयोजन है। रंग आगामी त्यौहारी सीजन के लिए मूड सेट करते हैं, ड्यूवी आइवरी और जेंटल पेस्टल पिंक से लेकर सुस्वादु गुलाबी टोन और ब्राइट शाइनिंग येलो तक।
इन आउटफिट्स के तामझाम, रफल्स और फ्लेयर्स जैसे सॉफ्ट रोमांटिक एम्बेलिशमेंट के साथ ड्रेसिंग करना आसान हो गया है।
यह संग्रह 20 सितंबर 2022 को ऑनलाइन और स्टोर में लॉन्च होगा और इसकी कीमत1400-5600 से के बीच में होगी।
यह डब्लूय डब्लूय डब्लूय हाउलोफीडो डॉट कॉम, एक्सक्लूसिव इंड्या आउटलेट, शोपर्स टॉप, लाइफस्टार, अमेजन,जैसे कई सारे फैशन ऐप पर उपलब्ध होगा।(आईएएनएस)|
नई दिल्ली, 13 सितंबर| पिछले कुछ हफ्तों में युवा से लेकर मध्यम आयु वर्ग तक के लोगों को अचानक दिल का दौरा पड़ने के कई चौंकाने वाले वीडियो वायरल हुए हैं। बड़ी संख्या में युवा भारतीयों में दिल का दौरा, कार्डियक अरेस्ट और अन्य हृदय रोग चिंता का एक प्रमुख कारण बनता जा रहा है।
हृदय रोग विशेषज्ञों के अनुसार, पिछले एक दशक में 20 और 30 की उम्र में दिल के दौरे से पीड़ित लोगों की संख्या में इजाफा हुआ है।
निष्कर्ष बताते हैं कि भारतीयों को अपने पश्चिमी समकक्षों की तुलना में 10 साल पहले हृदय रोग हो जाता है। इंडियन हार्ट एसोसिएशन के निष्कर्षो के अनुसार, अन्य जनसांख्यिकी की तुलना में हृदय रोग भारतीयों को कम उम्र (लगभग 33 प्रतिशत पहले) में होता है।
सीवोटर नेशनल मूड ट्रैकर ने युवा भारतीयों में हृदय रोग में अचानक वृद्धि के बारे में लोगों के विचारों को समझने के लिए आईएएनएस की ओर से एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण किया।
सर्वेक्षण में पाया गया कि 31 प्रतिशत भारतीयों का सबसे बड़ा हिस्सा यह मानता है कि तनाव युवा दिलों के टूटने का प्रमुख कारण है।
वहीं, जहां 25 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने खराब जीवनशैली को मुख्य कारण बताया, वहीं 8 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि यह कोविड-19 के दुष्प्रभावों से संबंधित है।
शहरी और ग्रामीण दोनों उत्तरदाताओं द्वारा समान भावनाओं को साझा किया गया था।
सर्वेक्षण के दौरान, सबसे बड़े शहरी उत्तरदाताओं, 35 प्रतिशत और ग्रामीण उत्तरदाताओं, 29 प्रतिशत ने युवा भारतीयों में हृदय रोगों में वृद्धि के लिए तनाव को जिम्मेदार ठहराया।
तनाव के बाद, शहरी उत्तरदाताओं का दूसरा सबसे बड़ा अनुपात, 25 प्रतिशत और ग्रामीण उत्तरदाताओं, 25 प्रतिशत ने कहा कि खराब जीवन शैली को दोष देना है।
सर्वेक्षण के दौरान, विभिन्न आयु वर्ग के उत्तरदाताओं द्वारा युवा भारतीयों में दिल के दौरे के मामलों में वृद्धि के मुख्य कारण के रूप में तनाव का हवाला दिया गया था।
विशेष रूप से, 35-44 वर्ष के आयु वर्ग के उत्तरदाताओं की अधिकतम संख्या ने दावा किया कि तनाव युवा दिलों को मार रहा है।
यहां तक कि 18-24 वर्ष की आयु वर्ग के 25 प्रतिशत युवा उत्तरदाताओं का सबसे बड़ा अनुपात तनाव को जिम्मेदार ठहराता है।
तनाव के बाद, विभिन्न आयु समूहों के उत्तरदाताओं के सबसे बड़े अनुपात ने कहा कि खराब जीवनशैली युवा भारतीयों में हृदय रोग के बढ़ने का प्रमुख कारण है।
कई लोगों का मानना है कि यह घातक कोरोनावायरस के दुष्प्रभावों से संबंधित है। (आईएएनएस)|
अमृता गद्दाम
नई दिल्ली, 21 अगस्त (आईएएनएस लाइफ)। हर किसी को बालों के बुरे दिनों का अनुभव होता है, है ना? इससे भी ज्यादा दूसरों की तुलना में कुछ हैं। जैसे-जैसे आपकी उम्र बढ़ती है और आपका शरीर नियमित रूप से बदलता है, बालों का झड़ना, रूसी, दोमुंहे बाल, घुंघराले बाल और गंजापन हो सकता है।
क्या इन मुद्दों का कोई समाधान है? जी हां, आयुर्वेद की मदद से इन सभी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।
लेकिन इससे पहले कि आप इसे आजमाएं, अपने बालों के प्रकार को जानना बहुत जरूरी है।
आयुर्वेद के अनुसार, हमारे शरीर के कार्य तीन महत्वपूर्ण ऊर्जाओं द्वारा नियंत्रित होते हैं : वात, पित्त और कफ। प्रत्येक व्यक्ति में एक 'त्रिदोष' संयोजन होता है। आपके बालों के स्वास्थ्य और प्रकार की स्थिति इस संयोजन से निर्धारित होती है।
बालों का वात प्रकार :
यदि आपकी प्रकृति वात प्रधान है तो आपके बाल वात प्रकार के होंगे। जब आपके शरीर में वात दोष बढ़ जाता है, तो आपकी स्कल और बाल सूख जाते हैं, क्योंकि परिणामस्वरूप आपका शरीर कम सीबम का उत्पादन करता है। इसके परिणामस्वरूप स्प्लिट एंड्स, घुंघराले, सूखे बाल और बालों का झड़ना होता है।
बालों का पित्त प्रकार :
पित्त प्रकार के बाल एक ऐसी प्रकृति की विशेषता है जो पित्त प्रधान है। पित्त बालों में प्रोटीन, रंग और चयापचय गतिविधि के उत्पादन का प्रभारी है। पित्त के बाल अक्सर लहराते हैं और मोटाई में औसत होते हैं। समय से पहले सफेद होना, खोपड़ी में खुजली, बालों का झड़ना, रोम छिद्रों में बैक्टीरिया जमा होना और पित्त असंतुलन के अन्य संकेत।
बालों का कफ प्रकार :
कफ में कोई भी असंतुलन आपके स्कैल्प को बहुत अधिक सीबम का उत्पादन करने का कारण बनता है, जिसके परिणामस्वरूप हमेशा चिकना डैंड्रफ, एक तैलीय खोपड़ी, खुजली, बालों का झड़ना और अन्य समस्याएं होती हैं।
हर व्यक्ति की अनूठी जरूरतें होती हैं। इसलिए, सबसे कुशल आयुर्वेदिक बालों की देखभाल के नियम को लागू करने के लिए अपने बालों के प्रकार और अपने दोष स्तरों की स्थिति को समझना महत्वपूर्ण है।
आयुर्वेदिक बालों की देखभाल तकनीकों को यहां सूचीबद्ध किया गया है। ये दिनचर्या आपको आंतरिक दोष संतुलन के साथ-साथ लंबे, स्वस्थ बालों को प्राप्त करने में मदद करेगी :
पौष्टिक भोजन :
मजबूत और लंबे बालों के लिए हेल्दी खाना बहुत जरूरी है। स्वस्थ आहार में पोषक तत्व होने चाहिए जो बालों के रोम को भीतर से पोषण और मजबूत करते हैं।
बालों में तेल लगाना और धोना :
बालों के तेल नमी बनाए रखने में सहायता करते हुए रोम और खोपड़ी की भरपाई करते हैं, जो बालों के झड़ने से बचने के लिए महत्वपूर्ण है।
स्कल की मालिश :
आयुर्वेद के अनुसार, बालों को धोने से पहले हमेशा बालों में गर्म तेल से सिर की मालिश करनी चाहिए। हर्बल तेल से स्कैल्प की धीरे से मालिश करने से बालों का विकास होता है और बाल जड़ से सिरे तक मजबूत होते हैं।
वैज्ञानिकों ने स्तन कैंसर के लिए एक दवा बनाई है जो मरीजों की जीने की अवधि बढ़ा रही है. इस दवा का असर जिन मरीजों पर हो रहा है, उन्हें नई श्रेणी में रखा जाएगा.
पहली बार वैज्ञानिकोंको एक ऐसी दवा बनाने में कामयाबी मिली है, जो स्तन कैंसर की वजह बनने वाले प्रोटीन को निशाना बनाती है. यह दवा ट्यूमर के खिलाफ काम करती प्रतीत हुई है. वैज्ञानिकों ने कहा है कि यह दवा स्तन कैंसर का इलाज नहीं है लेकिन कैंसर थेरेपी की प्रक्रिया में यह दवा इलाज की नई संभावनाएं खोल सकती है.
अबर तक स्तन कैंसर को दो श्रेणियों में बांटा जाता रहा है. एक है HER2-positive, जिसमें कैंसर कोशिकाओं में प्रोटीन सामान्य से ज्यादा होता है. दूसरी श्रेणी को HER2-negative कहा जाता है. रविवार को डॉक्टरों ने कहा अब एक नई श्रेणी HER2-low बनाई जाएगी जो कि स्तन कैंसर के इलाज में मार्गदर्शक होगी.
कैंसर की नई श्रेणी
डॉक्टरों का मानना है कि HER2-negative श्रेणी के वे मरीज जिन्हें स्तन कैंसर के प्राथमिक से बाद के चरणों में सर्जरी की जरूरत पड़ती है, संभव है कि वे HER2-low श्रेणी के मरीज हों और इस दवा के योग्य हों.
यह दवा असल में एक एनहर्तु है, यानी एक एंटीबॉडी कीमोथेरेपी इंजेक्शन जिसे आईवी के जरिए दिया जाता है. वैज्ञानिकों का कहना है कि यह कैंसर कोशिकाओं में मौजूद HER2 प्रोटीन कोशिकाओं को खोजकर उन्हें ब्लॉक कर देती है. इसके लिए यह कैंसर कोशिकाओं के भीतर एक ताकतवर रसायन छोड़ती है, जो कैंसर को खत्म करता है. यह नई तरह की दवाओं की श्रेणी में आती है जिन्हें एंटीबॉडी-ड्रग कहा जाता है.
इस दवा को मान्यता तो पहले ही मिल चुकी थी लेकिन अप्रैल में अमेरिका की फूड ऐंड ड्रग अथॉरिटी ने इसे नई श्रेणी के मरीजों के महत्वपूर्ण खोज का भी दर्जा दिया. नया अध्ययन कहता है कि इस दवा के कारण मरीजों की कैंसर के बिना जीने की अवधि लंबी हुई है और उनके कैंसर की प्रगति की रफ्तार धीमी हुई जिससे उनके जीने की संभावना सामान्य कीमोथेरेपी लेने वाले मरीजों की तुलना में बढ़ी.
कैसे हुआ अध्ययन?
अध्ययन में HER2-low स्तन कैंसर की श्रेणी वाले 500 मरीजों में कीमोथेरेपी की तुलना एनहर्तु से की गई. इन मरीजों में कैंसर फैल चुका था या फिर उस स्टेज पर पहुंच गया था, जहां उसे सर्जरी से ठीक नहीं किया जा सकता था. दवा लेने वाले मरीजों में कैंसर का प्रसार लगभग 10 महीने तक थमा रहा जबकि सामान्य इलाज कराने वाले मरीजों में यह साढ़े पांच महीने ही रुका. दवा ने जीने की अवधि को भी औसतन छह महीने बढ़ा दिया.
न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के लैंगोन हेल्थ सेंटर में स्तन कैंसर के मरीजों की देखभाल करने वाले विभाग की निदेशिका डॉ. सिल्विया एडम्स ने बताया कि यह खोज इलाज को नई दिशा दे सकती है. उन्होंने कहा, "यह अभ्यास बदलने वाला अध्ययन है. यह ऐसे मरीजों की जरूरत पूरी करती है जिन्हें मेटास्टैटिक ब्रेस्ट कैंसर है.”
भारत और पाकिस्तान में गर्म हवाएं यानी लू आम बात है लेकिन इस बार लू की गर्मी पिछले कुछ सालों से कहीं ज्यादा है. लू की चपेट में आने से तबियत बिगड़ने की आशंका रहती है. कुछ उपाय हैं जिन पर अमल करके इनसे बचा जा सकता है.
भारत और पाकिस्तान में इन दिनों तापमान कई बार 50 डिग्री सेल्सियस के करीब पहुंच रहा है और अब तक की सबसे ज्यादा गर्मी का रिकॉर्ड बना रहा है. दिन में गर्मी के वक्त लोग काम करना बंद कर दे रहे हैं और स्कूलों में छुट्टी से पहले ही बच्चों को घर भेज दिया जा रहा है. भीषण गर्मी की वजह से मवेशियों की मौत हो रही है और पानी ना मिलने के कारण पक्षी आकाश से नीचे गिर रहे हैं.
नई दिल्ली में मौजूद डीडब्ल्यू संवाददाता मुरलीकृष्णन कहते हैं, "यह वास्तव में एक तरह से असहनीय गर्मी है. दिन में सड़कों पर लोग नहीं दिख रहे हैं. यह गर्मी बेहद कष्टदायक है.”
हमने जब कृष्णन से बात की, उस वक्त वो गुजरात में थे जो कि भारत में सबसे ज्यादा गर्म रहने वाले राज्यों में से एक है. वो उस वक्त एक दुकान में पहुंचे ही थे जहां एसी लगा हुआ था. वो कहते हैं, "मैं यहां यही पता करने आया था कि लोगों के लिए यह गर्मी कितनी बुरी है और यह वास्तव में बहुत बुरी है.”
प्यास लगने से पहले ही पानी पियें
स्वास्थ्य विशेषज्ञ अभियंत तिवारी कहते हैं कि लू से बचाव के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपाय है कि खूब पानी पियें. तिवारी कहते हैं कि गर्मी में हर वक्त पानी पीते रहना चाहिए, यहां तक कि आपको प्यास ना लगी हो तब भी. सामान्य पानी और नारियल पानी जैसे ठंडे पेय, गर्म पेय की तुलना में गर्मी के लिए ज्यादा ठीक रहते हैं.
तिवारी कहते हैं, "प्यास लगने का इंतजार मत कीजिए. गर्मी के मौसम में प्यास लगना डिहाइड्रेशन का लक्षण है. इसलिए प्यास लगने से पहले ही पानी पीजिए.”
एक और विशेषज्ञ जॉन हॉपकिंस स्कूल ऑफ नर्सिंग में प्रोफेसर केथरीन लिंग कहती हैं कि ज्यादातर पेय अच्छे होते हैं लेकिन कैफीन युक्त पेय पदार्थों से बचना चाहिए क्योंकि उनकी वजह से डिहाइड्रेशन होता है. उनके मुताबिक, गर्मी के मौसम में अल्कोहल के सेवन से भी बचना चाहिए.
जहां तक संभव हो घर पर ही रहें
इस मौसम में जहां तक संभव हो, घर के भीतर ही रहना चाहिए, खासकर उस समय जब दिन के वक्त गर्म हवाएं ज्यादा चलती हैं और तापमान ज्यादा रहता है. इस समय घर पर आराम करना बेहतर होता है.
भारत में लू से बचने के लिए ज्यादातर लोग इन्हीं नुस्खों को आजमाते हैं.
मुरलीकृष्णन कहते हैं, "गुजरात में जिन स्कूलों में बच्चों को चार बजे शाम तक रहना पड़ता था, अब उनकी दोपहर में एक बजे ही छुट्टी कर दी जा रही है. लोग घरों में ही रहकर खुद को ठंडा रखने की कोशिश कर रहे हैं और बाहर नहीं निकल रहे हैं. लेकिन सभी के लिए ऐसा करना संभव नहीं है. गर्मी की मार सबसे ज्यादा मजदूरों को झेलनी पड़ रही है.”
वो बताते हैं, "भारत जैसे देश में जहां बड़ी संख्या में गरीब लोग रहते हैं, खासकर ऐसे लोग जो कि निर्माण क्षेत्र में नौकरी करते हैं, उन लोगों को वास्तव में लू के गर्म थपेड़ों को सहना पड़ता है. उन्हें काम करना पड़ता है क्योंकि घर चलाने के लिए पैसे चाहिए और काम नहीं करेंगे तो पैसे कहां से आएंगे.”
छाया में रहें और अपने सिर को ढककर रखें
पाकिस्तान के जैकबाबाद जिले में परवीन सिकंदर की स्थिति ऐसी नहीं है कि वो भीषण गर्मी के चलते अपना काम छोड़ दें और घर पर आराम करें. सिकंदर एक कृषि मजदूर हैं और दिहाड़ी पर काम करती हैं. सिकंदर जिस दिन काम पर नहीं जाएंगी, उन्हें उस दिन का पैसा नहीं मिलेगा.
डीडब्ल्यू से बातचीत में सिकंदर कहती हैं, "मेरा 14 साल का बेटा पिछले हफ्ते भीषण लू की चपेट में आ गया और बेहोश हो गया. मेरा बेटा भी मेरे साथ काम करता है और गधा गाड़ी पर फसल लादकर उसे पहुंचाता है.”
जैकबाबाद में तापमान 51 सेल्सियस तक पहुंच चुका है. सिकंदर कहती हैं कि वो और उनके साथ काम करने वाली दूसरी मजदूर औरतें खुद को ‘असुरक्षित' महसूस करती हैं और अपने कपड़ों को बार-बार गीला करके गर्मी से बचने की कोशिश करती हैं.
सिकंदर कहती हैं, "इस मौसम में तो ऐसा लगता है जैसे हम नरक में रह रहे हों. हम बच्चे थे तब इतनी गर्मी नहीं पड़ती थी.”
अभियंत तिवारी सलाह देते हैं कि इस मौसम में लोग जब भी किसी काम से बाहर जाएं तो अपने सिर को ढककर रखें. लिंग कहती हैं कि मजदूरों को भी जहां तक संभव हो, छाया में ही रहना चाहिए.
हवा लेते रहें
स्वास्थ्य विशेषज्ञ बुजुर्ग लोगों को सलाह देते हैं कि यदि हो सके तो उन्हें एसी कमरों में ही रहना चाहिए. भारत में एसी आसानी से सबको मिलने वाली चीज नहीं है. पहली बात तो गरीब लोग एसी में रह नहीं सकते और दूसरी बात यह है कि भारत में बिजली की बहुत समस्या है और बार-बार बिजली चली जाती है, कई बार तो तीन-चार घंटे तक नहीं आती.
कृष्णन कहते हैं कि जिनके पास एसी है, वो भी इसका बहुत फायदा नहीं ले पाते क्योंकि बार-बार बिजली कटौती की वजह से कई बार एसी जैसे उपकरण भी खराब हो जाते हैं.
बिना एसी के इमारतों को ठंडा रखना
तिवारी कहते हैं कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोग कुछ परंपरागत तकनीकों का प्रयोग करते हैं जिससे कि उनके घर ठंडे रहें. मसलन, गांवों में लोग घरों को ठंडा रखने के लिये छतों पर गोबर का लेप कर देते हैं. शहरों में कुछ लोग अपने घरों में ‘कूल रूफ्स' लगवा रहे हैं जो कि हल्के रंग के होते हैं और गाढ़े रंग की छतों की तुलना में गर्मी कम सोखते हैं.
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और विशेषज्ञ राधिका खोसला कहती हैं कि घरों की छतों पर पानी से भरे बर्तन भी रखे जा सकते हैं जिसकी वजह से वाष्पन होगा और छतें कम गर्म होंगी और कमरे ठंडे रहेंगे.
इसके अलावा, खिड़कियों को बंद रखकर भी धूप को सीधे कमरों में आने से रोका जा सकता है और पंखे से हवा ली जा सकती है. कलाइयों, सिर और गले पर ठंडे कपड़े लपेटकर भी शरीर को गर्म हवा से बचाया जा सकता है.
सावधानी ही बचाव है
लू जैसी गर्म हवाएं यूं तो भारत और पाकिस्तान में बहुत आम हैं लेकिन दुनिया के अन्य हिस्सों में भी ये चलती हैं. हालांकि इस बार की लू काफी परेशान कर रही है.
इस बार भारत और पाकिस्तान में हवाएं पिछले कई सालों के मुकाबले सबसे ज्यादा गर्म रहीं. यही नहीं, आमतौर पर इन हवाओं के चलने का जो समय होता है, इस बार करीब दो महीने पहले यानी मार्च से ही चलने लगीं.
तिवारी कहते हैं, "ऐसा शायद जलवायु परिवर्तन की वजह से है. लेकिन गनीमत है कि 2015 की तरह इस बार भारत और पाकिस्तान में लू की वजह से लोगों को बीमार होकर अस्पताल नहीं जाना पड़ रहा है. 2010 में अहमदाबाद में भी बड़ी संख्या में लोगों को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था.”
तिवारी कहते हैं कि उस समय स्थिति बहुत ही खराब थी, अस्पताल मरीजों से भर गए थे और कई लोगों की मौत भी हो गई थी.
इस बार लू की वजह से मरने वालों का कोई आंकड़ा जारी नहीं हुआ है लेकिन 2010 या 2015 जैसी स्थिति नहीं दिख रही है. 2015 में करीब तीन हजार और 2010 में 1300 लोगों की मौत गर्म हवाओं यानी लू लगने की वजह से हुई थी. इस साल अब तक सिर्फ 90 लोगों की लू लगने से मौत की खबर है.
तिवारी कहते हैं कि यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसा क्यों है. उनके मुताबिक, हालांकि गर्म हवाओं का दौर अभी खत्म नहीं हुआ है, लेकिन इसके पीछे एक यह वजह हो सकती है कि इसके बारे में जागरूकता अभियान खूब चलाए जा रहे हैं और लोग खुद भी सावधानी बरतने लगे हैं.
फ्रैंक डॉयल, आरसीएसआई मेडिसिन एंड हेल्थ साइंसेज विश्वविद्यालय
डबलिन, 15 अप्रैल। पीढ़ियों से लोग मन और शरीर के बीच की कड़ियों को जोड़कर देखते रहे हैं। उदाहरण के लिए, क्या लोग सचमुच दिल टूटने से मर जाते हैं? क्या स्वस्थ दिमाग ण्क स्वस्थ शरीर की ओर इशारा करता है?
वैज्ञानिक कुछ समय से मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के बीच संबंधों का अध्ययन कर रहे हैं। ऐसा ही एक संबंध है अवसाद और हृदय रोग के बीच। शोध से पता चला है कि सामान्य लोगों की तुलना में हृदय रोग वाले लोगों में अवसाद से पीड़ित हो जाना अधिक आम है।
इसके अलावा, जो लोग शारीरिक रूप से स्वस्थ हैं, जब उनपर कई वर्षों तक नजर रखी गई, तो यह पाया गया कि अवसाद के उच्च लक्षणों वाले लोगों में हृदय रोग विकसित होने की संभावना उन लोगों की तुलना में अधिक होती है, जिन्हें अवसाद नहीं होता है।
हम यह भी जानते हैं कि जिन्हें पुराना हृदय रोग होता है (उदाहरण के लिए, जिन्हें दिल का दौरा पड़ा है), उन्हें यदि अवसाद भी हो तो उनके न केवल हृदय रोग से, बल्कि किसी भी कारण से दिल के दौरे और मृत्यु की आशंका अधिक होती है।
हालांकि, इस बात को लेकर बहुत कम अध्ययन हुए हैं कि क्या इसका उलट होने पर भी ऐसा ही होता है - यानी, क्या हृदय संबंधी जोखिम कारक अवसाद के विकास की उच्च संभावना से जुड़े हैं। लेकिन अब, पीएलओएस वन जर्नल में प्रकाशित एक नए अध्ययन ने इसका पता लगाने की कोशिश की गई है।
शोधकर्ताओं ने क्या किया
स्पेन में ग्रेनाडा विश्वविद्यालय के सैंड्रा मार्टिन-पेलेज़ और उनके सहयोगियों ने 55 से 75 वर्ष की आयु के लोगों में हृदय संबंधी जोखिम कारकों और अवसाद के बीच की कड़ी का पता लगाने के लिए चयापचय सिंड्रोम वाले लोगों पर ध्यान केंद्रित किया।
मेटाबोलिक सिंड्रोम एक साथ होने वाली स्थितियों का एक समूह है - जिसमें उच्च रक्तचाप, उच्च रक्त शर्करा, कमर के आसपास शरीर की अतिरिक्त चर्बी और अधिक कोलेस्ट्रॉल शामिल है - और जो व्यक्ति के हृदय रोग, स्ट्रोक और टाइप 2 मधुमेह के जोखिम को बढ़ाता है। कुछ शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि चयापचय सिंड्रोम भी अवसाद में भूमिका निभा सकता है।
इस अध्ययन में भाग लेने वालों को अधिक वजन या मोटापे से ग्रस्त लोगों और जिन्हें चयापचय सिंड्रोम है पर मेडिटेरेनियन डाइट अर्थात पेड़ पौधों पर आधारित आहार के प्रभावों का विश्लेषण करने वाले व्यापक परीक्षण से तैयार किया गया था, । चल रहे औचक परीक्षण में एक समूह कैलोरी-प्रतिबंधित मेडिटेरेनियन डाइट और एक शारीरिक गतिविधि कार्यक्रम का पालन करता है, और दूसरा समूह एक शारीरिक गतिविधि कार्यक्रम के बिना एक अप्रतिबंधित मेडिटेरेनियन डाइट का पालन करता है।
पीएलओएस वन अध्ययन के लिए बेसलाइन विश्लेषण में 6,500 से अधिक प्रतिभागियों को शामिल किया गया था, जिसमें दो साल बाद 4,500 से अधिक प्रतिभागियों का अध्ययन किया गया। शोधकर्ताओं ने इस अध्ययन में फ्रामिंघम जोखिम स्कोर का उपयोग किया, जिसे हृदय रोग के प्रमुख जोखिम कारकों को निर्धारित करने के लिए समय के साथ स्वस्थ लोगों का अनुसरण करके विकसित किया गया था। उन्होंने लोगों को दस वर्षों के भीतर दिल का दौरा पड़ने या हृदय रोग से मरने के निम्न-, मध्यम- या उच्च जोखिम वाले लोगों के रूप में वर्गीकृत किया।
प्रतिभागियों से शुरूआत या बेसलाइन में प्रश्नावली का उपयोग करके उनके अवसादग्रस्त लक्षणों के बारे में पूछा गया (जब उन्होंने आहार और शारीरिक गतिविधि कार्यक्रमों का पालन करना शुरू किया) और फिर दो साल बाद।
हैरानी की बात है कि शुरूआत में या फॉलो-अप में हृदय जोखिम और अवसाद के बीच कोई महत्वपूर्ण संबंध नहीं पाया गया। तो, कुल मिलाकर, हृदय रोग के उच्च जोखिम वाले प्रतिभागियों में अवसाद होने या इसके विकसित होने की अधिक संभावना नहीं थी।
जब लेखकों ने लिंग के आधार पर डेटा का विश्लेषण किया, तो उन्होंने पाया कि शुरूआत में, उच्च हृदय जोखिम वाली महिलाओं में अवसाद के लक्षण प्रदर्शित होने की अधिक संभावना थी। लेकिन दो बरस बाद पुरुषों में ऐसा नहीं था, और न ही पुरुषों या महिलाओं में ही ऐसा पाया गया।
औसतन, सभी प्रतिभागियों का अवसाद स्कोर दो साल में कम हो गया। कम कार्डियोवैस्कुलर जोखिम वाले लोगों के लिए और दूसरे समूह (प्रतिबंधित आहार और शारीरिक गतिविधि कार्यक्रम का पालन करने वाले प्रतिभागियों) के लिए अवसाद स्कोर अधिक गिर गया।
इस अध्ययन के निष्कर्षों की स्पष्ट रूप से व्याख्या करना कठिन है। डेटा का कई अलग-अलग तरीकों से विश्लेषण किया गया है, और कुछ मिश्रित परिणाम हैं। उदाहरण के लिए, लेखकों ने विभिन्न चयापचय सिंड्रोम कारकों द्वारा डेटा का विश्लेषण किया, जिसमें पाया गया कि मधुमेह और कुछ कोलेस्ट्रॉल के स्तर के परिणामस्वरूप फॉलो-अप में कम अवसाद स्कोर हुआ।
लेकिन हम अन्य शोधों से जानते हैं कि हृदय रोग वाली महिलाओं में हृदय रोग वाले पुरुषों की तुलना में अवसाद का स्तर अधिक होता है। यह भी अच्छी तरह से स्थापित है कि सामान्य परिस्थितियों में, महिलाओं को पुरुषों की तुलना में अवसाद की उच्च दर का अनुभव होता है। तो यह पता लगाना कि महिलाओं में हृदय रोग के जोखिम और अवसाद के बीच एक संबंध हो सकता है, इन प्रवृत्तियों के साथ जुड़े है।
अवसाद और हृदय रोग क्यों जुड़े हुए हैं?
यद्यपि हम इस अध्ययन से यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते हैं कि हृदय रोग का जोखिम अवसाद के विकास के एक उच्च जोखिम से जुड़ा है, यह पहले से ही मजबूत उन सबूतों को पुख्ता करता है, जो यह कहते हैं कि हृदय रोग और अवसाद एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।
हम जानते हैं कि स्वस्थ जीवनशैली कारक, जैसे शारीरिक गतिविधि करना, धूम्रपान न करना और स्वस्थ आहार बनाए रखना, हृदय रोग और अवसाद दोनों के खिलाफ सुरक्षा देते हैं। इसके विपरीत भी सच है - अस्वास्थ्यकर जीवनशैली हृदय रोग और अवसाद के बढ़ते जोखिम से जुड़ी है।
दुर्भाग्य से, अवसाद से ग्रस्त लोगों के लिए इस प्रकार की आदतों को बदलना अधिक कठिन होता है, उदाहरण के लिए, धूम्रपान छोड़ना। तो शायद इस अध्ययन की सबसे दिलचस्प खोज यह है कि समूह में अवसाद के स्कोर कम हो गए थे, जिन्हें एक स्वस्थ जीवन शैली अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया था, जिसमें अधिक प्रतिबंधात्मक आहार और बढ़ी हुई शारीरिक गतिविधि शामिल थी।
हालांकि इस बात के अच्छे प्रमाण हैं कि हृदय रोग वाले लोगों में अवसाद के लिए व्यायाम एक बहुत प्रभावी उपचार है, लेकिन अवसाद के उपचार में आहार की भूमिका कम स्पष्ट है। यह अध्ययन हृदय रोग से ग्रस्त और जोखिम वाले लोगों में संभावित अवसाद उपचार के रूप में आहार और जीवन शैली की अधिक जांच के लिए एक आशाजनक प्रोत्साहन प्रदान करता है। (द कन्वरसेशन)
रायपुर, 10 जनवरी। डॉ. जूली पांडे ने बताया कि हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए हेल्थ कैप्सूल। कोरोना से बचाव के लिए जनता को अपील की और कहा है कि दिन भर गर्म पानी पीने की दी सलाह और प्रतिदिन आधा घंटा होगा योगासन, प्राणायाम या ध्यान, सूर्य की किरणें 10 मिनट तक रहती हैं यह विटामिन डी का अच्छा स्रोत खाने में हल्दी, जीरा, अदरक, नींबू धनिया और लहसुन का प्रयोग करें।
डॉ. पांडे ने बताया कि तुलसी को 40 ग्राम + काली मिर्च 20 ग्राम+ सुखदायक 20 ग्राम + दालचीनी 20 ग्राम सुखाकर चूर्ण बना लें और इसे एक एयरटाइट कंटेनर में रखें और 03 ग्राम चूर्ण को 150 एमएल पानी में उबालें और दिन में एक या दो बार इसका सेवन करें।तुलसी के 3 से 5 पत्ते पूरे दिन में 01 लीटर पानी में उबाल लें। गोल्डन मिल्क-150 मिलीलीटर गर्म दूध में आधा चम्मच हल्दी पाउडर मिलाकर दिन में एक या दो बार लें।
डॉ. पांडे ने बताया कि कोविड पॉजिटिव मरीज के लिए सैंपल मेन्यू डाइट प्लान। सुबह-सुबह बादाम 8 + 2 डार्क डेट्स + चाय/कॉफी/अदरक के साथ हरबल चाय। नाश्ता साबुत मूंग डोसा (प्याज अदरक मिर्च जीरा डालें) + अदरक टमाटर की चटनी + 1 साबुत अंडा / इडली / उत्तपम / सेवई उपमा + 1 कप शुद्ध संतरे का रस (100त्न ट्रोपिकाना ले सकते हैं) या नींबू पानी या नींबू मीठा चूना और संतरे मिलाएं रस ।
डॉ. पांडे ने बताया कि मध्य सुबह कोई भी साफ सूप/रस/नारियल पानी/छाछ/खट्टे फलों का रस दोपहर का भोजन: 1/2 कप ब्राउन राइस/सफेद चावल + 2 रोटी + (कोई भी साग) दाल + 1 कप दही +1 प्रो वेज 1 हरी पत्तेदार सब्जी + सलाद। शाम की चाय मेवे (कद्दू + सूरजमुखी + मूंगफली) का मिश्रण बना लें, काली मिर्च नमक डालकर भून लें, इस मिश्रण को दो मु_ी + चाय / कॉफी लें।
डॉ. पांडे ने बताया कि शाम का नाश्ता अनार/गौवा/पपीता/खरबूजा कोई एक मौसमी फल रात का खाना: ओट्स या रागी/दलिया एक बड़ा कप + हरी मटर की सब्जी या बीन्स करी या कोई अन्य बीन्स करी या दोपहर के भोजन के समान। सोने का समय- 150 मिली दूध चुटकी भर हल्दी या इलायची पाउडर के साथ। इसे रोगी के लक्षणों और रक्त जांच और रोगी के शरीर की आवश्यकताओं के अनुसार बदला जा सकता है।
रायपुर, 10 जनवरी। शहर की प्रख्यात न्यूट्रिशनिस्ट, मधुमेह शिक्षिका एवं प्रमाणित जीन प्रेक्टिश्नर डॉ. श्वेता छाबड़ा ने बताया कि हर साल 10 जनवरी को वल्र्ड डाइटेटिक्स दिवस मनाया जाता है। इस साल की थीम है आहार विविधीकरण। समय की मांग आहार विविधीकरण सुनने में नया या अजीब लगता है परंतु इससे ही हमारे शरीर में पोषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा भोजन से मिल पाएगी।
डॉ. छाबड़ा ने बताया कि इस करोना काल में यह बहुत जरूरी है कि हम अपने भोजन को ऐसे लें जिससे हमें दवाइयों की जरूरत न हो। वर्षों से हम सब इम्यूनिटी बढ़ाने की बातें कर रहे हैं परंतु अब समय आ गया है आहार विविधीकरण कर आप अपने शरीर के भोजन द्वारा बीमारियों से बचाएं व स्वस्थ रहें। भिन्न-भिन्न भोजन भिन्न-भिन्न तरीकों से लेना होगा, जैसे सभी प्रकार के अनाज-बाजरा, ज्वार, गेहूं, मक्का, कोदो, मिलेट, रागी, दालों में कुलथी, मसूर, मूंग साबुत दालें, सब्जियों में सभी हरी पत्तेदार सब्जियां, सभी प्रकार के फल, सीड्स, तिल, अलसी, सनफ्लावर, पंपकिन।
डॉ. छाबड़ा ने बताया कि अक्सर लोग सालों से एक ही प्रकार की दाल, अनाज व सब्जियां खाते हैं और वह एक ही प्रकार से बनाते हैं, तो अब आपको अपने रोजमर्रा के जीवन में यह सभी इस्तेमाल करने होंगे और बनाने की विधि को बदलना होगा ज्यादा पकाना नहीं है और अनाज जयादा नहीं पीसना है। यह सब बदलाव से आपको आपके भोजन से अधिक व सभी प्रकार के पोषक तत्व मिलेंगे और यह बदलाव आप बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक सबके भोजन में करें। बच्चों में आहार विविधीकरण के सबसे ज्यादा लाभ होते हैं। उनमें मानसिक शारीरिक विकास में फायदा मिलता है।
डॉ. छाबड़ा ने बताया कि अर्थात अपने भोजन में पांचों फूड ग्रुप शामिल करिए अनाज, दालें, फल, सब्जियां दूध व दूध से बनी चीजें, अंडा और जो सबसे कम इस्तेमाल करना है वह है मीठा और वसा। इन फूड ग्रुप के अलग-अलग प्रकार के कॉन्बिनेशन अपने भोजन में लें जैसे कि बाजरे और दाल की खिचाई, कोदो व अन्य की मिलेट की खिचड़ी, चना और गेहूं का रोटी, पनीर की रोटी, जितने फूड रूप में मिलाकर अपने भोजन में इस्तेमाल करेंगे उतने ज्यादा आपको पोषक तत्व मिलेंगे।
डॉ. छाबड़ा ने बताया कि अब समय आ गया है कि आप अपने भोजन की क्वांटिटी के साथ-साथ उसकी गुणवत्ता पर भी ध्यान दें। आपके भोजन में प्रोटीन की मात्रा तभी बढ़ेगी जब आप अलग-अलग दालों का इस्तेमाल मिलेट के साथ करेंगे और इन सब के साथ-साथ फल सब्जियां और पानी का सेवन करना न भूलें।
कोविड-19 के जिन मरीजों को अस्पताल से छुट्टी मिल गई, उनमें से लगभग आधे मरीज अभी भी कम से कम एक लगातार लक्षण से पीड़ित हैं.
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल द लांसेट फ्राइडे में प्रकाशित शोध में कहा गया है कि कोविड-19 के लिए अस्पताल से छुट्टी मिलने वाले लगभग आधे मरीज अभी भी कम से कम एक लगातार लक्षण से पीड़ित हैं. एक साल बाद भी उनमें थकान या मांसपेशियों में कमजोरी रहती है.
महामारी के दीर्घकालिक स्वास्थ्य प्रभावों की बेहतर समझ के लिए किए गए चीनी शोध के मुताबिक कोविड-19 के जिन मरीजों को अस्पताल में भर्ती कराया गया था, उनमें से आधे के करीब एक साल बाद भी थकान और सांस की तकलीफ से जूझ रहे हैं.
द लांसेट फ्राइडे में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है कि कोविड-19 के लगभग आधे मरीजों को अस्पताल से छुट्टी मिलने के एक साल बाद भी वे लगातार कम से कम एक लक्षण से पीड़ित हैं. शोध में कहा गया- मरीजों में सबसे अधिक बार थकान या मांसपेशियों में कमजोरी के लक्षण पाए गए.
एक साल बाद भी गंभीर असर
गंभीर कोविड इंफेक्शन होने के बाद हफ्तों या महीनों तक उसका असर झेलने वाले लाखों लोग हैं. ऐसे लोगों को सुस्ती और थकान से लेकर ध्यान भटकने या सांस लेने में तकलीफ जैसे लक्षण हो सकते हैं. लॉन्ग कोविड के रूप में जानी जाने वाली स्थिति पर अब तक के सबसे बड़े शोध में कहा गया है कि निदान के एक साल बाद भी तीन रोगियों में से एक को सांस की तकलीफ है. बीमारी से अधिक गंभीर रूप से प्रभावित रोगियों में यह संख्या और भी अधिक है.
द लांसेट ने अध्ययन के साथ प्रकाशित एक संपादकीय में कहा, "बिना किसी सिद्ध उपचार या पुनर्वास मार्गदर्शन के लंबे समय तक कोविड मरीजों की सामान्य जिंदगी को यह फिर से शुरू करने और काम करने की क्षमता को प्रभावित करता है."
संपादकीय में कहा गया, "अध्ययन से पता चलता है कि कई मरीजों के लिए कोविड-19 से पूरी तरह से ठीक होने में एक साल से अधिक समय लगेगा."
मध्य चीनी शहर वुहान में जनवरी और मई 2020 के बीच कोरोना वायरस के लिए लिए अस्पताल में भर्ती लगभग 1,300 लोगों पर यह शोध किया गया. कोरोना महामारी वुहान से ही फैला था जिसने करोड़ों लोगों को संक्रमित किया और जो कि 40 लाख से अधिक लोगों की मौत का जिम्मेदार है.
शोध के मुताबिक कम से कम एक लक्षण वाले रोगियों की हिस्सेदारी छह महीने के बाद 68 प्रतिशत से घटकर 12 महीने के बाद 49 प्रतिशत हो गई.
लॉन्ग कोविड एक और चुनौती
शोध कहता है कि छह महीने के बाद 26 प्रतिशत रोगियों में सांस लेने में तकलीफ 12 महीने के बाद बढ़कर 30 प्रतिशत हो गई. शोध में पाया गया कि प्रभावित पुरुषों की तुलना में प्रभावित महिलाओं में थकान या लगातार मांसपेशियों में कमजोरी से पीड़ित होने की संभावना 43 प्रतिशत अधिक है.
लेकिन शोध ने कहा कि रोग निर्णय से पहले काम करने वाले 88 प्रतिशत रोगी एक साल बाद अपनी नौकरी पर लौट आए थे.
संपादकीय में लिखा गया है, "लॉन्ग कोविड पहले क्रम की एक आधुनिक चिकित्सा चुनौती है." इस स्थिति को समझने और इससे पीड़ित रोगियों की बेहतर देखभाल के लिए और अधिक शोध करने की जरूरत है.
एए/वीके (एएफपी)
1964 के टोक्यो ओलंपिक खेलों के बाद एक घड़ी निर्माता ने बड़ी मात्रा में कदम गिनने वाली मशीनों का निर्माण किया. यहीं से रोजाना 10 हजार कदम चलने का लक्ष्य पैदा हुआ, जो अब ग्लोबल सोच और फिटनेस ट्रैकिंग का हिस्सा बन गया है.
डॉयचे वैले पर अविनाश द्विवेदी की रिपोर्ट
ज्यादातर फिटनेस ट्रेकिंग डिवाइस में एक पैमाना होता है, जो बताता है कि स्वस्थ रहने के लिए रोजाना 10 हजार कदम चलना जरूरी है. लेकिन हाल ही में आई एक रिपोर्ट से पता चलता है कि इसके पीछे कोई वैज्ञानिक वजह नहीं है बल्कि यह पैमाना संयोग और विज्ञापन का नतीजा मात्र है.
हार्वर्ड के टीएच चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ में महामारी विज्ञान के प्रोफेसर डॉ आई-मिन ली ने गिनकर कदम चलने और इसके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया है. वह इसके पीछे की पूरी कहानी बताते हैं.
उनके मुताबिक 10 हजार कदम चलने का लक्ष्य 1960 के दशक में जापान में प्रचलित हुआ. 1964 के टोक्यो ओलंपिक खेलों के बाद जापान में फिटनेस के प्रति लोगों की रुचि बढ़ गई थी और इसी का फायदा उठाने के लिए यहां एक घड़ी निर्माता ने बड़ी मात्रा में पीडोमीटर (कदम गिनने वाली मशीन) की निर्माण किया, जिसमें जापानी भाषा में इस तरह नाम लिखा था कि जैसे कोई टहलते हुए आदमी की कलाकृति हो.
मशीन का जो नाम था, उसका एक मतलब 10 हजार कदम भी होता है. यहीं से एक ऐसा लक्ष्य पैदा हुआ, जो न सिर्फ दशकों से चला आ रहा है बल्कि अब ग्लोबल सोच और फिटनेस ट्रैकिंग का हिस्सा भी बन गया है.
भारत में चर्चित है 10 हजार कदम का फॉर्मूला
ऐसा नहीं है कि टहलने का अच्छे स्वास्थ्य से संबंध नहीं है. जानकार मानते हैं कि टहलना स्वस्थ दिल, स्वस्थ हड्डियों और पूरे शरीर की फिटनेस से जुड़ा हुआ है. बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में फिजियोलॉजी डिपार्टमेंट में प्रोफेसर डॉ कुमार सर्वोत्तम कहते हैं, "अगर कोई हफ्ते में 5 दिन 10 हजार कदम चलता है तो इसे 30 मिनट की सामान्य वर्जिश के बराबर माना जा सकता है. हालांकि यह बात सभी लोगों के शरीर पर एक ही तरह से लागू नहीं होती है क्योंकि शरीर की बनावट, खान-पान की आदतें और अन्य शारीरिक क्रियाएं भी मायने रखती हैं."
वहीं भारतीय न्यूट्रीशियनिस्ट निधि पांडेय कहती हैं, "मैं इस धारणा का समर्थन करती हूं और अपने क्लाइंट्स को 10 हजार कदम चलने के लिए प्रेरित करती हूं. कम से कम इससे लोगों के दिमाग में काम के दौरान अपनी कुर्सियों से उठकर चलने का खयाल बना रहता है. इस लक्ष्य के चलते वे थोड़ा कम लक्ष्य हासिल कर पाते हैं."
8 हजार कदम तक ही स्वास्थ्य को फायदा
साल 2019 में ली और उनके सहकर्मियों ने अपनी एक स्टडी में पाया कि एक महिला जो अपनी उम्र के 70वें दशक में है, वह अगर मात्र 4400 कदम भी चलती है, तो एक महिला जो प्रतिदिन मात्र 2700 कदम चलती है, उसके मुकाबले उसकी मौत की संभावना 40 फीसदी कम हो जाती है.
इसी तरह उन महिलाओं की मौत की संभावना अपेक्षाकृत और कम रही, जो 5 हजार कदम से ज्यादा चल रही थीं लेकिन यह फायदे 7500 कदम प्रतिदिन से ज्यादा चलने पर नहीं बढ़े. यानी वे बुजुर्ग महिलाएं जो करीब 5 हजार कदम ही चल रही थीं, उनके बहुत कम चलने वाली महिलाओं के मुकाबले ज्यादा जीवित रहने की संभावना थी.
कदमों की संख्या के प्रभाव को लेकर एक ऐसी ही स्टडी पिछले साल 5 हजार मध्य उम्र के पुरुषों और महिलाओं पर की गई. अलग-अलग समुदायों से आने वाले लोगों पर की गई इस स्टडी में पाया गया कि अधिक जीने के लिए 10 हजार कदम चलने की कोई बाध्यता नहीं है.
इस स्टडी में सिर्फ यह साबित किया जा सका कि रोजाना 8 हजार कदम चलने वाले लोगों की समय से पहले मौत की संभावना, उन लोगों से आधी हो जाती है, जो रोजाना सिर्फ 4 हजार कदम चलते हैं. इसी स्टडी में पता चला कि 10 हजार या उससे ज्यादा चलने का कोई शारीरिक नुकसान नहीं है लेकिन इससे कोई फायदा भी नहीं है.
रोजाना 10 हजार कदम चलना नामुमकिन
वैसे भी शायद ही हम कभी 10 हजार कदम के लक्ष्य को पूरा कर पाते हैं. एक हालिया स्टडी में पता चला है कि अमेरिका और कनाडा सहित कई पश्चिमी देशों में औसतन लोग रोजाना 5 हजार कदम से भी कम चलते हैं.
मान लेते हैं कि हम रोजाना 10 हजार कदम चलने भी लगें तो यह प्रक्रिया लंबे समय तक जारी नहीं रहेगी. बेल्जियम के गेंट में साल 2005 में स्थानीय लोगों पर इस लक्ष्य से जुड़ी एक चर्चित स्टडी की गई.
660 लोगों पर की गई इस स्टडी में लोगों को 1 साल तक रोजाना 10 हजार कदम चलने का लक्ष्य दिया गया था. इस स्टडी में सिर्फ 8% लोग ही रोजाना 10 हजार कदम चलने में सफल रहे.
वहीं चार साल बाद जब स्टडी का फॉलोअप लिया गया तो पता चला कि कोई भी अब इतना नहीं चल रहा था. ज्यादातर लोग चलने में उसी स्तर पर लौट चुके थे, जितना वे स्टडी शुरू होने से पहले चला करते थे.
टहलना संपूर्ण व्यायाम नहीं
अमेरिका जैसे कुछ देश जो स्वास्थ्य से जुड़े दिशा-निर्देश जारी करते हैं, वे कदमों के बजाए समय को पैमाना बनाते हैं. मसलन अमेरिकी सरकार सलाह देती है कि एक व्यक्ति को हफ्ते भर में 150 मिनट यानी ढाई घंटे व्यायाम करना चाहिए. रोजाना के हिसाब से देखें तो करीब 20-25 मिनट.
स्पष्ट कर दें कि यह व्यायाम दिन के कामों से अलग होना चाहिए. कदमों को लेकर स्टडी करने वाले ली कहते हैं, "इस समय को कदमों में बदलें तो हफ्ते में कुल 16 हजार कदम होते हैं यानी रोज के करीब 2000-3000 कदम. इसे दूरी में बदलें तो करीब 1 मील या 1.6 किमी की दूरी."
ली कहते हैं कि एक सामान्य व्यक्ति अपने दिन भर के काम-काज के लिए करीब 5 हजार कदम रोजाना चलता है. अगर वह 2-3 हजार कदम और चलने लगे तो यह उसके स्वस्थ रहने के लिए अच्छा होगा. यानी किसी इंसान के लिए दिन भर में 7-8 हजार कदम चलना सबसे बेहतर है.
वैसे, ज्यादातर फिटनेस एक्सपर्ट सिर्फ टहलने को ही संपूर्ण व्यायाम नहीं मानते हैं लेकिन यह जरूर कहते हैं कि जब आप बाकायदा व्यायाम न कर पा रहे हों तो इतना भी काफी है. (dw.com)
नई दिल्ली, 11 जुलाई | बारिश का मौसम बारिश के साइडिफेक्ट ला सकता है, यह उच्च आद्र्रता के स्तर को भी साथ लाता है जो त्वचा के स्वास्थ्य के लिए बुरा हो सकता है। बेसिक क्लींजिंग टोनिंग और मॉइस्चराइजिंग कभी-कभी विशेष रूप से इस मौसम में पर्याप्त नहीं होते हैं क्योंकि नमी और नीरसता हमारे संकट को बढ़ा देती है। कोलकाता में साल्ट लेक स्थित काया क्लिनिक की सलाहकार और त्वचा एक्सपर्ट डॉ सोहम भट्टाचार्य ने स्वस्थ और चमकती त्वचा के लिए कुछ त्वचा देखभाल सुझाव दिए है।
नियमित रूप से त्वचा की देखभाल विशेष रूप से मानसून के दौरान, आद्र्र मौसम में बहुत महत्वपूर्ण है।
आप क्लीन्जर और फेस वॉश का उपयोग कर सकते हैं जो साबुन मुक्त होते हैं, जिनमें आपकी त्वचा के लिए कोमल तत्व होते हैं। अल्कोहल मुक्त टोनर के साथ इसका पालन करें। मानसून के लिए जोजोबा तेल युक्त मॉइस्चराइजर का उपयोग कर सकते हैं।
अपनी त्वचा के प्रकार के अनुसार 15 से 50 तक के एसपीएफ वाले सनस्क्रीन को कभी न भूलें। सनस्क्रीन हमेशा बाहरी या हल्के एक्सपोजर से 20 मिनट पहले लगाना चाहिए।
इस मौसम के लिए क्लींजिंग और टोनिंग के बाद रात में हमेशा विट सी फॉमूर्ला वाला सीरम लगाएं और उसके बाद हल्की नाइट क्रीम लगाएं।
हमेशा आंखों के नीचे के क्षेत्र पर विशेष ध्यान दें और रात में इसे हाइड्रेट और पोषित रखें, जिसमें सक्रिय सोया और राइस पेप्टाइड्स युक्त ब्राइटनिंग और फमिर्ंग आई सीरम हो।
जैसा कि हम में से अधिकांश लोगों को इस मौसम में थोड़ा अधिक पसीना आता हैं, अपनी त्वचा और शरीर को हाइड्रेट रखने की कोशिश करें। एंटीऑक्सिडेंट, सलाद, फल, सब्जियों के रस से भरपूर खाद्य पदार्थों का सेवन करें। एक स्वस्थ कसरत व्यवस्था बनाए रखें।
आरामदायक कपड़े अधिमानत सूती या लिनन पहनें।
एल ऑकिटेन के राष्ट्रीय प्रशिक्षक देबाबनी गुहा सुझाव देते हैं,
छूटना कुंजी है। - हफ्ते में कम से कम दो बार एक्सफोलिएट करें और उसके बाद जेल बेस्ड मास्क लगाएं। मेरी प्राथमिकता हमेशा रात में स्क्रब और मास्क का उपयोग करना है क्योंकि तब त्वचा आराम करती है और उसके बाद सुबह प्रभाव शानदार होता है!
साथ ही दिन में दो बार स्किनकेयर रेजिमेंट का इस्तेमाल करना न भूलें।
एक प्राकृतिक फेस उयाल (तेल) का प्रयोग करें जो त्वचा की कोशिकाओं को पोषण देता है और कोशिकाओं को नरम चमकदार दिखने के लिए मोटा होने में मदद करता है। (आईएएनएस)
• यह एक दुर्लभ फंगल इन्फेक्शन है जो कोरोना काल में ज्यादा हो रहा है
• कोविड-19 से ठीक हुए मरीजों में यह इन्फेक्शन दिखने को मिल रहा है
• डायबिटीज के मरीजों के लिए खतरनाक, शुगर लेवल नियंत्रित रखें
रायपुर 10 मई| कोविड-19 की दूसरी लहर के बीच कई लोग म्यूकोरमाइकोसिस नाम के फंगल इन्फेक्शन की चपेट में आ रहे हैं। यह दुर्लभ फंगल इन्फेक्शन है जो किसी व्यक्ति की प्रतिरोधक क्षमता कम होने पर होती है| कोविड-19 और डायबिटीज के मरीजों के लिए यह इन्फेक्शन और ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है। इस संक्रमण को `ब्लैक फंगस’ के नाम से भी जाना जाता है|
क्या है म्यूकोरमाइकोसिस?
इंडियन काउन्सल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) द्वारा जारी अड्वाइज़री के अनुसार म्यूकोरमाइकोसिस फंगल इंफेक्शन है जो शरीर में बहुत तेजी से फैलता है। म्यूकोरमाइकोसिस इंफेक्शन नायक, आँख, दिमाग, फेफड़े या फिर स्किन पर भी हो सकता है। इस बीमारी में कई लोगों की आंखों की रौशनी चली जाती है वहीं कुछ मरीजों के जबड़े और नाक की हड्डी गल जाती है।
कोरोना के मरीजों को ज्यादा खतरा
म्यूकोरमाइकोसिस आम तौर पर उन लोगों को तेजी से अपना शिकार बनाती है जिन लोगों में रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत कम होती है। कोरोना के दौरान या फिर ठीक हो चुके मरीजों का इम्यून सिस्टम बहुत कमजोर होता है इसलिए वो आसानी से इसकी चपेट में आ रहे हैं। खासतौर से कोरोना के जिन मरीजों को डायबिटीज है। शुगर लेवल बढ़ जाने पर उनमें म्यूकोरमाइकोसिस खतरनाक रूप ले सकता है।
यह संक्रमण सांस द्वारा नायक से व्यक्ति के अंदर चला जाता है| जिन लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता काम होती है उनको यह जकड़ लेता है|
लक्षण
• नाक में दर्द हो, खून आए या नाक बंद हो जाए
• नाक में सूजन आ जाए
• दांत या जबड़े में दर्द हो या गिरने लगें
• आंखों के सामने धुंधलापन आए या दर्द हो, बुखार हो
• सीने में दर्द
बुखार, सिर दर्द, खांसी, सांस लेने में दिक्कत, खून की उल्टियाँ होना, कभी दिमाग पर भी असर होता है
किन रोगियों में ज्यादा पाया गया है:
· जिनका शुगर लेवल हमेशा ज्यादा रहता है
· जिन रोगियों ने कोविड के दौरान ज्यादा स्टेरॉइड लिया हो
· काफी देर आय सी यू में रहे रोगी
· ट्रांसप्लांट या कैंसर के रोगी
कैसे बचें
• किसी निर्माणधीन इलाके में जाने पर मास्क पहनें
• बगीचे में जाएं तो फुल आस्तीन शर्ट, पैंट व गलब्स पहनें
• ब्लड ग्लूकोज स्तर को जांचते रहें और इसे नियंत्रित रखें
स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा है हल्के लक्षण दिखने पर जल्दी से डॉक्टर से संपर्क करें| कोविड के रोगियों में अगर बार-बार नाक बंद होती हो या नाक से पानी निकलता रहे, गालों पर काले या लाल चकते दिखने लगें, चेहरे के एक तरफ सूजन हो या सुन्न पद जाए, दांतों और जबड़े में दर्द, कम दिखाई दे या सांस लेने में तकलीफ हो तो यह ब्लैक फंगस हो सकता है|
दांतों का ख्याल रखते हैं, दो बार ब्रश भी करते हैं, फिर भी सुबह जब सो कर उठे तो सांस की बदबू आती है. क्यों होता है ऐसा?
डॉयचे वैले पर ऋतिका पाण्डेय रिपोर्ट
सुबह सोकर उठने पर सबके मुंह से किसी ना किसी तरह की अलग सी गंध आती है. रात को तो ऐसा नहीं था फिर रात भर में मुंह में ऐसा क्या हो जाता है, जिससे बदबू पैदा होती है. पहली बात तो यह कि मुंह में हमेशा ही कुछ बैक्टीरिया रहते हैं. रात को जब हमारी लार वाली ग्रंथियां कम मात्रा में लार निकालती हैं तो इसके चलते मुंह थोड़ा सूख जाता है. इस माहौल में मुंह के कुछ बैक्टीरिया खूब फलते फूलते हैं. यह खास बैक्टीरिया सल्फर-वाले व्यर्थ पदार्थ निकालते हैं और इन्हीं के कारण मुंह से बदबू आती है.
असल में बैक्टीरिया को ऊर्जा मिलती है अमीनो एसिड और प्रोटीन के पाचन से. कुछ अमीनो एसिड में सल्फर पाया जाता है, जो बैक्टीरिया के इस्तेमाल करने के बाद मुक्त हो जाता है. बैक्टीरिया के इस पाचन की प्रक्रिया में सल्फर के अलावा कुछ बदबूदार गैसें भी निकलती हैं. रिसर्च में पाया गया है कि सांस की दुर्गंध में कई चीजों का मिश्रण होता है. यह चीजें हो सकती हैं - कैडावरीन (लाश की गंध), हाइड्रोजन सल्फाइड (सड़े अंडे की गंध), आइसोवैलेरिक एसिड (पसीने वाले पैर की गंध), मिथाइलमेर्काप्टेन (मल की गंध), पट्रीशाइन (गलते मांस की गंध) और ट्राइमिथाइलअमीन (सड़ती मछली जैसी गंध).
रात को सोने से पहले ब्रश करने और जीभ को साफ करने से अगली सुबह सांस की दुर्गंध में कमी लायी जा सकती है. लेकिन मुंह के बैक्टीरिया रात को जब बंद जगह में नमी पाते हैं तो तेजी से अपनी संख्या बढ़ाते हुए 600 से भी ज्यादा तरह के कंपाउंड बनाते हैं.
कई लोग माउथवॉश का भी इस्तेमाल करते हैं. असल में माउथवॉश में पाये जाने वाले जाइलिटॉल, ट्रिकलोजान और इसेंशियल ऑयल जैसे पदार्थ बैक्टीरिया को पसंद नहीं आते. लेकिन सच यह है कि थोड़े ही समय बाद यह भी बैक्टीरिया पर बेअसर हो जाते हैं. इसलिए सुबह मुंह से ऐसी गंध आना आम बात है और इसके लिए बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं. लेकिन अगर बदबू बहुत तेज हो तो जरूर डॉक्टर के पास जाना चाहिये क्योंकि यह हेलीटोसिस की स्थिति हो सकती है. दांतों में कैविटी, मसूडों में सड़न और टॉन्सिल होने पर भी दुर्गंध बढ़ जाती है. (dw.com)
कोरोना इंफेक्शन के बाद बहुत से मरीजों की स्वाद लेने और सूंघने की क्षमता चली जाती है और देर तक वापस नहीं आती. यदि लंबे समय तक स्वाद और गंध महसूस न हो तो लोग परेशान हो जाते हैं. क्या स्वाद और गंध वापस लाने की कोई तरकीब है?
डॉयचे वैले पर टीना रोथ की रिपोर्ट-
कारेन और हाइनर रीजे को मछली वाली ब्रेड पसंद है, प्याज मिली हुई. लेकिन जब से उन्हें कोविड हुआ है, दोनों की जीभ में कोई स्वाद नहीं रहा. कारेन रीजे बताती हैं कि थोड़ा बेस्वाद है. वैसे उन्हें खट्टा सा स्वाद तो आ रहा है, लेकिन सही में बिस्मार्क ब्रेड जैसा नहीं है. वहीं हाइनर रीजे बताते हैं कि वे प्याज को उसकी आवाज से पहचान रहे हैं, उसका स्वाद उन्हें नहीं आ रहा. कोरोना के मरीजों पर अब तक जो रिसर्च हुए हैं उसके अनुसार स्वाद न आने की वजह जीभ का तंत्र नहीं है. दरअसल कोरोना बीमारी के बाद सूंघने की क्षमता बिगड़ जाती है और उसका असर स्वाद पर भी पड़ता है.
इंफेक्शन की हालत में कोरोना वायरस नाक के मेम्ब्रेन में गंध लेने वाली कोशिकाओं को नष्ट कर देता है. आम तौर पर वे फिर से पैदा हो जाती हैं. लेकिन कुछ मरीजों में सूंघने की क्षमता लंबे समय तक वापस नहीं आती या स्थायी रूप से चली जाती है. डॉ. मार्टिन लॉडियन कील मेडिकल कॉलेज में पढ़ाते हैं. वे बताते हैं, "ऐसा लगता है कि सूंघने की क्षमता में करीब 10 प्रतिशत की कमी जारी रहती है." ये पूरी कमी नहीं है लेकिन कोविड बीमारी के बाद सूंघने की क्षमता में बदलाव जरूर होता है.
गंध को महसूस करने में गड़बड़ी के कारण का पता लगाना आसान नहीं है. हर खुशबू सुगंध के अलग अलग मॉलिक्यूल से पैदा होती है, और हर मॉलिक्यूल के लिए एक खास रिसेप्टर जरूरी होता है जो उसे उचित सुगंध देता है. जब कोरोना वायरस के कारण सूंघने वाली कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं तो सुगंध वाले कुछ मॉलिक्यूलों को उनका रिसेप्टर नहीं मिलता. इस तरह दिमाग तक सुगंध का पूरा प्रभाव पहुंच नहीं पाता और इसकी वजह से सुगंध का पता नहीं चलता और उलझन की स्थिति पैदा होती है.
ऐसा ही अनुभव हाइनर रीजे को भी हुआ. उनके घर में ताजा ताजा रोस्ट की गई कॉफी की बींस थीं. कॉफी के दानों को भूना जाए तो वह अच्छी सोंधी सी खुशबू देती है. लेकिन हाइनर रीजे ने बताया कि वे जब अपने ड्रॉइंग रूम से निकल कर किचन की तरफ पहुंचे तो उन्हें "अजीब सी गंध आई गैस जैसी." संभव है कि घ्राण शक्ति में इस गड़बड़ी की वजह सिर्फ वायरस से इंफेक्ट हुए नाक के मेम्ब्रेन में कोशिकाओं का नष्ट होना नहीं है. जानवरों पर किए गए टेस्ट में साबित किया जा सका है कि कोरोना वायरस सूंघने वाली कोशिकाओं और तंत्रिका से होता हुआ दिमाग तक चला जाता है. वहां वह गंध के लिए इंपल्स देने वाले हिस्सों को नष्ट कर देता है.
दिमाग की कोशिकाएं इंपल्स ही न दें तो नाक गंध को सूंघे कैसे. ऐसी स्थिति में रास्ता क्या बचता है? कई स्टडी से पता चला है कि सूंघने की आसान ट्रेनिंग करने से सूंघने की क्षमता फिर से बेहतर हो सकती है. इसके लिए मरीजों को चार अलग तरह की परफ्यूम सुंघाई जाती हैं. डॉ. लॉडियन बताते हैं, "इसके लिए मरीज उन्हें खुद अपनी नाक के नीचे रखते हैं, सूंघते हैं और पहचानने की कोशिश करते हैं." यह दो बार किया जाता है, एक बार सुबह और एक बार शाम में. दस से पंद्रह सेकंड के लिए.
सूंघने के अभ्यास के लिए पेंसिल वाले परफ्यूम इस्तेमाल किए जाते हैं जिनमें गुलाब, यूकेलिप्टस, नींबू और लौंग की गंध होती है. खुशबू के इन नमूनों को खुद तैयार किया जा सकता है. या तो खुशबू वाले तेल हों या तेज गंध वाले मसाले. कोई खास सुगंध लेना जरूरी नहीं. सुगंध को जानना और उसे पता करना जरूरी नहीं होता, अहम है उसे महसूस करना. डॉ. लॉडियन बताते हैं, "पहले महसूस करने की कोशिश कीजिए, फिर दिमाग को ट्रेन कीजिए, फिर संभव है कि नए सर्किट बनेंगे और आप रोजमर्रा में फिर से सूंघने की क्षमता विकसित कर लेंगे."
ट्रेनिंग से थोड़ी मदद मिली है. कारेन और हाइनर को अब उम्मीद है कि वे जल्द ही चीजों को बेहतर सूंघ पाएंगे और उनकी स्वाद की क्षमता भी बेहतर होगी. (dw.com)
एमजे
जर्मन शोधकर्ता स्ट्रोक या दिल के दौरे का जल्दी पता लगाने के लिए वायरलेस रडार सिस्टम का इस्तेमाल कर रहे हैं.
डॉयचे वैले पर अलेक्जांडर फ्रॉएंड का लिखा
जर्मनी की टेक्निकल यूनिवर्सिटी ऑफ हैम्बर्ग के प्रोफेसर अलेक्सांडर कोएल्पिन का विचार है कि अगर किसी रडार का इस्तेमाल समुद्री जहाज का पता लगाने, हाइवे पर गाड़ियों की रफ्तार का पता लगाने और हवाई जहाज की ऊंचाई का पता लगाने के लिए किया जा सकता है, तो संपर्क-रहित इस टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल मेडिसिन और चिकित्सा के क्षेत्र में भी किया जा सकता है. वे कहते हैं, "रेडियो सेंसर में मेडिकल और चिकित्सा से जुड़े परीक्षणों को अधिक सुविधाजनक, सुरक्षित और अधिक कुशल बनाने की काफी संभावनाएं हैं.”
उदाहरण के तौर पर, रडार के जरिए सांस लेने की दर और दिल की धड़कन का पता लगाकर ऐसे लोगों को खोजने का विचार नया नहीं है, जिन्हें जिंदा दफन किया गया है. हालांकि, यूरोप में पहली बार कोएल्पिन और उनकी टीम ने मेडिसिन के क्षेत्र में इस्तेमाल के लिए रडार सिस्टम को विकसित किया है. साथ ही, अस्पताल में भर्ती रोगियों पर परीक्षण करके दिखाया है.
इंस्टीट्यूट ऑफ हाई फ्रीक्वेंसी टेक्नोलॉजी में इस टीम ने रोगियों की मेडिकल मॉनिटरिंग के लिए काफी ज्यादा संवेदनशील सेंसर सिस्टम को विकसित किया है. इस नई रडार टेक्नोलॉजी की मदद से दिल की धड़कन और सांस दोनों का लगातार विश्लेषण किया जा सकता है.
क्लासिक इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम की मदद से दिल की धड़कन का पता इलेक्ट्रोड और केबल के जरिए लगाया जाता है जो रोगी के शरीर और मशीन से जुड़े रहते हैं. वहीं, रडार टेक्नोलॉजी के जरिए बिना किसी संपर्क के और रिमोट की मदद से, रोगी की निगरानी की जा जाती है.
कोएल्पिन ने जिस रडार सिस्टम को विकसित किया है वह कपड़ों, बेड कवर और यहां तक कि गद्दों के माध्यम से दिल की धड़कन और सांस लेने की दर का पता लगा सकता है और उन्हें निगरानी वाले उपकरणों तक पहुंच सकता है. वे कहते हैं, "हमारे रडार सेंसर इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेब छोड़ते हैं जो शरीर से रिफ्लेक्ट होते हैं. यह कुछ इस तरह से काम करता है: हृदय से पंप किया गया खून, पल्स वेब के तौर पर नसों से गुजरता है जिससे शरीर में कंपन होती है. हम इसे सेंसर की मदद से माप सकते हैं. साथ ही, इससे हृदय प्रणाली के चिकित्सा से जुड़े कई पहलुओं को तय कर सकते हैं.”
जब ह्रदय, नसों के जरिए खून को पंप करता है, तो शरीर की त्वचा में हल्का खिंचाव होता है और वह बढ़ जाती है. इसकी वजह से ही कलाई पर ऊंगली रखकर पल्स को मापा जाता है. नया रडार सिस्टम त्वचा में होने वाले इस खिंचाव का पता लगा सकता है और उसका विश्लेषण कर सकता है.
यह सेंसर इतने सटीक हैं कि वे हृदय की गति, हृदय के तनाव और पल्स वेव वेलॉसिटी को सटीक तौर पर माप सकते हैं. इसका इस्तेमाल धमनियों को सख्त होने और इस तरह के स्ट्रोक के खतरों का पता लगाने के लिए किया जा सकता है. अगर दिल नियमित तौर पर धड़कना बंद कर देता है या इसमें किसी तरह की समस्या होती है, तो नया डिवाइस इसकी चेतावनी देता है. इसका मतलब यह है कि हार्ट अटैक जैसे संभावित खतरों से बचने और जिंदगी को बचाने के लिए, पहले से ही इलाज शुरू किए जा सकते है.
फिलहाल इस रिसर्च प्रोजेक्ट में समय से पहले जन्में बच्चों और नवजात शिशुओं की मेडिकल निगरानी के लिए ध्यान दिया जा रहा है. कोएल्पिन कहते हैं, "अभी हम मुख्य तौर पर मिर्गी के दौरे की बीमारी पर ध्यान दे रहे हैं. माना जाता है कि अचानक होने वाली मौत में 20 प्रतिशत मौत मिर्गी के दौरे की वजह से होती है. समस्या यह है कि बच्चों को आने वाले इन दौरों का इलाज नहीं हो पाता क्योंकि इसे पता लगाने का कोई उपकरण नहीं है.”
दूर से मापने के लिए सेंसर का इस्तेमाल करके बच्चों की लगातार निगरानी की जाती है. इससे उन्हें किसी तरह की परेशानी नहीं होती है. इस तरह से दौरे का पता लगाया जा सकता है और समय रहते उसका इलाज किया जा सकता है.
कोएल्पिन कहते हैं कि कोराना वायरस महामारी के दौर में भी इस टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल काफी उपयोगी साबित हो सकता है, "हम दिल की धड़कन, सांस लेने की दर के साथ-साथ शरीर के तापमान को भी दूर से माप सकते हैं. इसका मतलब यह है कि कोरोना वायरस के संभावित संक्रमण के संबंध में किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य की पूरी जांच की जा सकती है.” वे कहते हैं कि इस तरीके से संपर्क में आए बिना जांच हो सकती है और स्वास्थ्य कर्मियों के बीच संक्रमण फैलने का खतरा कम हो सकता है.
हाल ही में विकसित हुआ हार्ट रडार चार दिन पहले मरीजों की मौत के बारे में पता लगा सकता है. इस तरह से मरीजों और उनके रिश्तेदारों को पता चल सकता है कि एक दूसरे को अलविदा कहने का समय कब आने वाला है.
एक नए अध्ययन के अनुसार मोटापा मानसिक स्वास्थ्य पर अतिरिक्त बोझ डालता है. भारत में भी डिमेंशिया का खतरा बढ़ता जा रहा है. स्वास्थ्य के प्रति आम भारतीय परिवार का नजरिया भी इसके बढ़ते कदमों की वजह बन रहा है.
डॉयचे वैले पर स्वाति बक्षी का लिखा-
अमरीका के बेहद मशहूर हास्य अभिनेता रॉबिन विलियम्स की पत्नी ने उनकी मौत से जुड़े अनसुलझे सवालों और अटकलों का जवाब देने की अपनी कोशिश को एक डॉक्यूमेंट्री की शक्ल दी है, रॉबिन्स विश. ये कहानी रॉबिन विलियम्स की मौत से पहले गुजरे कुछ महीनों को समेटते हुए, डिमेंशिया से जूझ रहे एक बेहद फुर्तीले दिमाग वाले इंसान के बिखरते दिमाग की कहानी बयां करती है. कई महीनों तक डिमेंशिया से पैदा हुई दिक्कतों से जूझते हुए विलियम्स ने 2014 में, तिरसठ साल उम्र में आत्महत्या कर ली और उनकी मौत के बाद ही ये पता चल पाया कि उनका दिमाग किस कदर इस बीमारी की चपेट में था.
दरअसल ये कहानी किसी की भी हो सकती है. खासकर भारत में जहां साठ बरस से ऊपर के करीब चालीस लाख लोग डिमेंशिया से जूझ रहे हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2035 में ये आंकड़ा दोगुना हो जाएगा. डिमेंशिया बढ़ती उम्र से जुड़ा हुआ रोग है लेकिन इसके लक्षणों को बुढ़ापे का असर मान लेना ही एक ऐसी गलतफहमी है जो रोगी के जीवन को धीरे-धीरे निगलती जाती है. खास बात ये है कि भारत समेत दुनिया भर में पुरुषों के मुकाबले औरतों में ये बीमारी ज्यादा पाई जाती है. सबसे बड़ी चुनौती तो इस बात को समझने की है कि आखिर ये बीमारी है क्या? न्यूरोलॉजिस्ट यानी तंत्रिका तंत्र विशेषज्ञों की राय में इस बीमारी से निपटने में दवाओं से ज्यादा बीमारी को पहचानने की समझ और सेहत की तरफ हमारा नजरिया अहम भूमिका निभा सकते हैं. साथ ही भारतीय जीवन के कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक पहलू हैं जो इस बीमारी के बढ़ते शिकंजे की जड़ में हैं.
क्या है डिमेंशिया
डिमेंशिया किसी एक बीमारी का नाम नहीं है बल्कि ये कई बीमारियों या यूं कहें कि कई लक्षणों के समूह को दिया गया एक नाम है. अल्जाइमर इस तरह की सबसे प्रमुख बीमारी है जो बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित करती है. डिमेंशिया के लक्षणों का मूल संबंध इंसानी दिमाग की ज्ञान या सूचनाओं संबंधी प्रक्रियाओं जैसे याददाश्त, रोजमर्रा के सामान्य काम करने की शारीरिक क्षमता, भाषा-ज्ञान, सोचना-समझना, हिसाब-किताब और सामान्य बर्ताव से है. आम-तौर पर डिमेंशिया को सिर्फ याददाश्त से जोड़ कर देखा जाता है लेकिन ये इस बीमारी का सिर्फ एक स्वरूप है. यहां समझने वाली बात ये है कि इंसानी दिमाग का काम सिर्फ यादें संजोने तक सीमित नहीं है.
अभी तक इलाज नहीं
रोजमर्रा की जिंदगी में जो चीजें हमें बहुत सामान्य लगती हैं वो सब दिमागी करामात ही है. मसलन चाय का एक कप बनाने की पूरी प्रक्रिया सही तरह से पूरी करना - पानी उबालना, चायपत्ती, चीनी और दूध डालना और अपने स्वाद के मुताबिक चाय बनाना. ये आसान लगने वाली जटिल दिमागी प्रक्रियाएं है जिसमें चीजों को पहचानने के अलावा उनकी माप और चाय में क्रमानुसार डालना भी शामिल है. अगर किसी को डिमेंशिया हो तो वो ये बेहद छोटा लगने वाला काम नहीं कर सकेगा.
दिल्ली के भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान (एम्स) के न्यूरोलॉजी विभाग में प्रोफेसर डॉ एमवी पद्मा श्रीवास्तव बताती हैं कि "दिमाग ऐसी छह मानसिक प्रक्रियाओं का घर है जिनसे हमारी जिंदगी चलती है. यादाश्त इनमें से सिर्फ एक प्रक्रिया है. रोजमर्रा के जीवन में हम जो भी करते हैं उनकी क्रमवार समझ, दिमागी गतिविधियों का दूसरा अहम पहलू है जैसे चाय बनाने या बर्तन धोने का तरीका. तीसरी मानसिक प्रक्रिया है भाषा. बोली जा रही भाषा को समझना, सही शब्दों का चुनाव कर उसका सटीक जवाब देना, सोचिए ये दिमाग का कितना बड़ा काम है. इसी तरह हमारा सामान्य व्यवहार जैसे सोना, उठना, काम पर जाना किसी को चकित नहीं करता लेकिन दरअसल उसका हर दिन सामान्य होना ही हमारे दिमाग के सही तरह से काम करने की पहचान है.'
यहां पर ये समझना भी जरूरी है कि डिमेंशिया का खतरा बढ़ती उम्र के साथ ही बढ़ता है. यानी अगर आप युवा हैं, तनाव और दबाव में बातें भूल जाते हैं तो ये खतरे की घंटी भले ही ना हो लेकिन साठ बरस के पार अगर किसी व्यक्ति में, रोज के काम-काज या रास्ता भूलने, रुचियों और लोगों से मिलने-जुलने के सामान्य व्यवहारों में बदलाव दिखने लगे तो उसकी वजह जानने के लिए डॉक्टर के पास जाना जरूरी है. हालांकि डिमेंशिया को एक डीजेनेरेटिव यानी लगातार बिगड़ने वाली बीमारी कहा जाता है जिसको रोक सकने वाले इलाज मौजूद नहीं हैं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि ये लक्षण हमेशा एक ही स्थिति की तरफ इशारा कर रहे हों. इसका मतलब ये भी है कि ये बदलाव शायद किसी और वजह से हों जैसे किसी दवाई का बुरा प्रभाव या फिर शरीर में किसी विटामिन की कमी हो, जिन्हें वक्त रहते ठीक किया जा सकता हो.
वजहें क्या हैं
अनिंद्य सेनगुप्ता, लंबे समय तक भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी रहे हैं और तीन साल पहले उनके पिता में डिमेंशिया के शुरूआती लक्षणों का पता चला था. अपने दिवंगत पिता के बारे में वो बताते हैं, "मेरे पिताजी सरकारी नौकरी में थे और रिटायरमेंट के बाद उन्होने सोचा कि अब जिंदगी में बहुत काम कर लिया इसलिए बस आराम ही किया जाए. धीरे धीरे उन्होंने अपनी पसंद की चीजें जैसे किताबें पढ़ना या लोगों से मिलने जाना भी बहुत कम कर दिया. उन्होंने खुद को काफी अलग-थलग सा कर लिया. मेरी मां को भी लगा कि बस ये उम्र का तकाजा है लेकिन ऊपर से स्वस्थ दिखने वाले मेरे पिताजी दिमागी तौर पर बिखर रहे थे. हमें अंदाजा ही नहीं था कि ये डिमेंशिया की शुरुआत हो सकती है लेकिन सच यही था.'
एक पढ़े-लिखे सजग मध्यमवर्गीय परिवार के शख्स से ये बातें सुनकर स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है. डिमेंशिया में मामला सिर्फ बीमारी का नहीं है, क्योंकि बीमारी अपनी पकड़ बनाने के रास्ते में बहुत से निशान छोड़ती है, उन निशानों को ना पहचान पाना, पीड़ित और परिवार दोनों के लिए मुश्किलें कहीं ज्यादा बढ़ा देता है. एक बात खास तौर पर समझने की है कि ये अचानक पैदा होने वाली बीमारी नहीं है. ये एक धीमी प्रक्रिया है और वृद्धावस्था में लक्षण दिखने की वजह से इसे उम्र बढ़ने की सामान्य प्रक्रिया मान लिया जाता है. इसका अर्थ है कि एक तरफ तो बीमारी के मेडिकल कारण हैं लेकिन स्वास्थ्य के प्रति आम भारतीय परिवार का नजरिया भी इसके बढ़ते कदमों की वजह बन रहा है.
डॉक्टर पद्मा श्रीवास्तव कहती हैं कि डिमेंशिया के दो मुख्य रूप हैं. एक, वैस्क्युलर डिमेंशिया जिसकी वजह ब्रेन सेल यानी दिमाग की कोशिकाओं में रक्त संचार में आई रुकावटों से होने वाला नुकसान है. ये भारत जैसे दक्षिण एशियाई देशों में बड़ा कारण है क्योंकि ब्लड प्रेशर या रक्त संचार को प्रभावित करने वाली दूसरी बीमारियां यहां काफी सामान्य हो गई हैं. दूसरा रूप है, मिक्सड यानी मिश्रित डिमेंशिया जिसमें रक्त संचार में रुकावट से हुए नुकसान के साथ ही दिमाग में प्रोटीन का जमाव होता है जो दिमाग की प्रक्रियाओं में गड़बड़ी पैदा करता है.” हालांकि किस व्यक्ति पर इसका असर कैसा होगा ये बता पाना मुश्किल है क्योंकि इसका गहरा संबंध बीमारी से पहले के जीवन से जुड़ा हुआ है. यानी लोग अपने जीवन में कितना स्वस्थ और सक्रिय हैं व दिमाग को चुस्त रखने के लिए कुछ करते हैं या नहीं.
पुरुषों से ज्यादा महिलाएं चपेट में
इसी से जुड़ी हुई बात ये है कि ना सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया भर में मर्दों के मुकाबले औरतें इस बीमारी की चपेट में ज्यादा हैं. सवाल लाजमी है कि क्या इसकी वजह सिर्फ मेडिकल ही है या सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचा भी इसमें अपनी भूमिका निभाता है. ये बात तो छिपी नहीं है कि आमतौर पर भारतीय परिवारों में सेहत, प्राथमिकता में नीचे रहती है और बात महिलाओं की सेहत से जुड़ी हो तो उस पर बात करना किसी क्रांति से कम नहीं. इस बीमारी के लक्षण आने की वजहें शरीर के अंदर भी मौजूद हैं, जिन पर काबू कर सकते हैं और बाहरी माहौल में भी, जो शायद हमारे बस में ना हों. इसीलिए जितनी समझ पैदा की जाए, उतना ही अपने को और अपनों को इससे दूर रखने की कोशिश की जा सकती है.
बंगलुरू के मेडिकल कॉलेज एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट के न्यूरोलॉजी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. मनोज कहते हैं कि "महिलाओं में डिमेंशिया होने के कारणों में शारीरिक के साथ सामाजिक ढांचे की बड़ी भूमिका है. एक राय ये भी है कि महिलाओं की लाइफ स्पैन यानी जीवन-अवधि ज्यादा है इसलिए उनमें उम्र बढ़ने के साथ होने वाली बीमारियों का खतरा ज्यादा होता है. हालांकि दूसरे प्रमुख कारणों में हॉर्मोन, जेनेटिक ढांचा और महिलाओं की सामाजिक भूमिका भी है. इसके साथ ही औरतों को पढ़ने लिखने और काम-काज के अवसर कम मिलते रहे हैं जो दिमाग में कॉगनिटिव रिजर्व या ज्ञान और सूचनाओं का भंडार जमा करते हैं. पढ़े-लिखे लोगों के मुकाबले गैर-पढ़े लिखे लोगों में डिमेंशिया के लक्षण कहीं ज्यादा प्रभावी रूप में सामने आते हैं.'
कम किया जा सकता है खतरा
बढ़ती उम्र के साथ जोड़कर देखे जाने वाली बीमारियों को नियति मानने वाली मानसिकता से बाहर निकलना शायद दिमाग को डिमेंशिया से बचाने की ओर पहला कदम होगा. हर बूढ़े होते इंसान के लिए याददाश्त की दिक्कतों या रिटायरमेंट के बाद का वक्त अकेले बिताने की मजबूरियों से भरा होता है, ये मानना सबसे बड़ी दिक्कत है. दूसरी बात है, सेहतमंद खान-पान और दिनचर्या जिससे लोग वाकिफ हैं लेकिन शायद तब तक गंभीरता से नहीं लेते जब तक परेशानियां शुरू ना हो जाएं. डॉ. पद्मा कहती हैं कि बेहिसाब शराब और सिगरेट नहीं पीनी चाहिए, ये तो सबको पता है लेकिन मोटापा, पूरी नींद ना लेना और दिमाग को आराम देने की जरूरत, इन सबकी भी बेहद अहम भूमिका है. आप कसरत करें, दिमाग को शांत करने की कोशिश करें, कुछ हासिल करने की दौड़ में खुद को इतना तनाव ना दें कि शरीर में बीमारियां पैदा होने लगें. अगर ख्याल रखेंगे तो रोग के लक्षणों को ठीक से समझने में भी मदद मिलेगी.'
यहां जरूरत इस बात पर जोर देने की भी है कि अगर घर में कोई बुजर्ग हैं तो उनकी सेहत का ख्याल कैसे रखा जा रहा है. डिमेंशिया में रोगी से ज्यादा, आस-पास के लोगों की भूमिका है क्योंकि शायद इंसान को खुद अहसास ना हो लेकिन साथ में रहने वाले लोग या नजदीकी दोस्त, उनकी दिनचर्या को बारीकी से देखकर उसमें आए बदलाव को महसूस कर सकते हैं. डॉ. मनोज मानते हैं कि "कुछ बातें जो बचाव में मदद कर सकती हैं वो है अपने रक्तचाप और डायबिटीज पर कड़ी नजर, धूम्रपान और शराब पर लगाम की जरूरत तो है ही लेकिन असल में मसला लोगों में जागरूकता बढ़ाने का भी है.' (dw.com)
विवेक त्रिपाठी
गोरखपुर, 27 जनवरी | सुनहरे शकरकंद के साथ अब गोरखपुर में लाल पत्ता गोभी आपकी सेहत के लिए कारगर साबित हो सकती है। गोरखपुर से 40 किलोमीटर दूर जानीपुर कस्बे के प्रगतिशील किसान इंद्रप्रकाश सिंह इसकी खेती कर रहे हैं। सिर्फ रंगीन होना ही इस गोभी की खूबी नहीं है। इसमें पाए जाने वाले तत्व खून की कमी के खिलाफ सुरक्षा कवच प्रदान करते हैं। कैंसर जैसे रोगों से सुरक्षा देते हैं। इसमें विटामिन, कैल्शियम, मैग्नीशियम आदि पोषक तत्व पाए जाते हैं।
इंद्रपकाश सिंह राज्य के प्रगतिशील किसानों में शुमार हैं। सब्जियों की खेती में नवाचार के लिए वह जिले और प्रदेश स्तर के कई सम्मान भी पा चुके हैं। उन्होंने अपने एक मित्र से लाल गोभी के बारे में सुना। आदतन उन्होंने इसके बाजार के बारे में जानकारी इकट्ठा की। मंडी के कारोबारियों ने बताया कि रंगीन होने के कारण लगन सलाद के रूप में इसकी ठीक-ठाक मांग निकल सकती है। इसके बाद उन्होंने नर्सरी के लिए बीज की तलाश शुरू की। काफी प्रयास के बाद उनको वाराणसी से यह उपलब्ध हो सका।
फिलहाल उनकी नर्सरी के पौधे शीघ्र ही गोभी की तरह आकार लेने लगेंगे। वह बताते हैं कि जब उन्होंने इसके बारे में पढ़ा तो लगा कि इसकी खेती के लिए पूर्र्वाचल की कृषि जलवायु अनुकूल है। लिहाजा इस साल उन्होंने करीब एक बीघे में इसकी खेती की है। उनकी फसल जिस समय अप्रैल में तैयार होगी, उस समय लगन का समय होगा। ऐसे में उनको उम्मीद है कि उनकी गोभी की मांग और भाव दोनों ठीक रहेंगे। अगर ऐसा हुआ तो अगले साल वह इसकी खेती को और विस्तार देंगे।
इंद्र प्रकाश सिंह सब्जियों की खेती करते हैं। आलू उनकी विशेष फसल है। इसी से उनकी पहचान बनी है। गेंहू, धान वह खाने भर का ही उगाते हैं। इस साल वह पत्ता गोभी की एक ऐसी किस्म भी लगाने जो रहे हैं जो मई में तैयार होगी। आकार में यह गोल की बजाय चौकोर होगी।
कृषि वैज्ञानिक केंद्र , गोरखपुर के वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक, उद्यान, डॉ. एसपी सिंह ने बताया, "सामान्य पत्ता गोभी में एक कीड़ा होता है, जो छेद कर देता है। सब्जी खराब कर देता है। लेकिन इस लाल पत्ता गोभी में अभी यह देखने को नहीं मिला। इसमें भरपूर मात्रा में एंटीऑक्सिडेंट कैल्शियम और आयरन की मात्रा भी ज्यादा है। यह अन्य बीमारियों के लिए भी लाभकारी है। आने वाले समय में इसका बाजार धीरे-धीरे बढ़ रहा है।"
कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि इसमें मुख्य रूप से फाइटोकेमिकल्स, एंटीऑक्सिडेंट पाया जाता है, जो पोषक तत्वों का खजाना है। इसमें थायमिन, राइबोफ्लेविन, फोलेट, कैल्शियम, मैंगनीज, मैग्नीशियम, लोहा और पोटेशियम के अलावा विटामिन सी, ए, ई, बी और फाइबर मिलते हैं। स्वाभाविक है कि इसके सेवन से कई तरह की विटामिंस, मिनिरल्स की कमीं की भरपाई होती है। शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। (आईएएनएस)
दिल की बीमारी आज भी बहुत बड़ी संख्या में लोगों की जानें ले रही है, इस बीमारी के बारे में कुछ काम की बातें
ज्ञान विज्ञान में चिकित्सा विज्ञान जितनी मानव समाज की सेवा करता है उतना शायद ही कोई अन्य क्षेत्र कर सकता हो। चिकित्सा के क्षेत्र में वैकसीन और नयी नयी दवाएं बनीं जिसकी वजह से बहुत से रोगों से लड़ना संभव हुआ है।
इसी तरह नये ज़माने में नयी नयी दवाओं की वजह से महामारियों और रोगों के कारण मृत्यु दर में कमी आयी है और पूरी दुनिया में आयु की औसत दर में वृद्धि हुई है। संक्रमण से पैदा होने वाली बीमारियों को क़ाबू करना आसान है क्योंकि उसकी वजह स्पष्ट होती है लेकिन संक्रमण के अलावा जो बीमारियां होती हैं उनका इलाज काफी मुश्किल होता है क्योंकि उसकी वजहें कई होती हैं। इस प्रकार की बीमारियों की जो वजह होती हैं अगर उनकी पहचान कर ली जाए और उन्हें खत्म कर दिया जाए तो फिर बीमारी को 80 प्रतिशत तक खत्म किया जा सकता है। हार्ट अटैक, ब्रेन हैमरेज और शुगर जैसे रोग इसी श्रेणी में हैं। खान पान का सही न होना, मोटापा, व्यायाम से दूरी, धूम्रपान, ब्लड प्रेशर और इसी प्रकार के कई कारक, मनुष्य में ह्रदय रोग का कारण बनते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार सन 2015 में पूरी दुनिया में 56.4 मिलयन लोग जो हर साल मरते हैं उनमें से 15 मिलयन लोग दिल की बीमारियों और ब्रेन हैमरेज से मरते हैं। इस तरह से यह पता चलता है कि दिल की बीमारी की वजह से सब से अधिक लोग मरते हैं। दिल की भूमिका शरीर में इतनी महत्वपूर्ण है कि अगर वह स्वस्थ न हो तो फिर जीवन मुश्किल हो जाता है। दिल की बीमारी के लिए न कोई आयु होती है और न ही स्त्री पुरुष होने की वजह से कोई फर्क़ पड़ता है। किसी को भी किसी भी आयु में दिल की बीमारी हो सकती है। इस लिए अगर सतर्क रहा जाए और स्वास्थ्य पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाए तो इस बीमारी से बचा जा सकता है या कम से कम उसका ख़तरा काफी कम किया जा सकता है। इस से बचने के लिए सब से ज़रूरी यह है कि हमें इस बीमारी के कारणों के बारे में सटीक और सही मालूमात हो।
दिल की बीमारी में सब से अधिक और प्रचलित समस्या, रगों का बंद हो जाना है। दिल तक खून पहुंचाने वाली अस्ली रग बंद हो जाती है तो अचानक ही सीने में दर्द शुरु होता है और फिर हार्ट अटैक हो जाता है। इसी तरह दिल की धड़कन में समस्या पैदा हो जाती है। यह भी एक प्रकार की दिल की बीमारी है। इन्सान का दिल एक मिनट में 60 से 100 बार धड़कता है और इस प्रकार से पूरे शरीर में खून पहुंचता है। कभी कभी एसा होता है कि उसकी धड़कन में समस्या पैदा हो जाती है, अर्थात कभी धड़कन तेज़ तो कभी कम होने लगती है। जब दिल शरीर के हर हिस्से में पर्याप्त खून और आक्सीजन नहीं पहुंचा पाता तो इसका मतलब यह है कि दिल सही रूप से काम नहीं कर पा रहा है और जब वह सही रूप से काम नहीं करता तो खून दिल में जमने लगता है और धीरे धीरे दिल का साइज़ बढ़ने लगता है। इस बीमारी में ग्रस्त लोगों के चेहरे, आंखों के आस पास और पैरों में सूजन होती है और उन्हें आराम करते और सोते समय भी सांस लेने में तकलीफ होती है।
कभी कभी दिल के वाल्व खराब हो जाते हैं यह भी एक प्रकार की दिल की बीमारी है। यह वाल्व खून को निर्धारित दिशा में भेजते हैं लेकिन अगर उसमें खराबी हो जाती है तो फिर रक्त प्रवाह में विघ्न पैदा हो जाता है।अगर इस बीमारी का इलाज न हो तो धीरे धीरे खून पंप करने की दिल की क्षमता प्रभावित होती है। इस बीमारी का कारण कभी जीन्स हो सकते हैं या फिर हाई ब्लड प्रेशर, शुगर, मोटापा और संक्रमण आदि इस बीमारी की वजह बन सकता है।
दिल की कुछ बीमारियां एसी भी हैं जो पैदाइशी होती हैं लेकिन अच्छी बात यह है कि हालिया दशकों में ह्रदय के जन्मजात रोगों में कमी आयी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि जीन्स के अलावा , संक्रमण, शराब और कुछ दवाएं इस बात का कारण बनती हैं कि बच्चा मां की कोख में दिल की बीमारी में ग्रस्त होकर पैदा हो।
दिल की बहुत सी बीमारियों को सही समय पर उनकी पहचान करके और सही रूप से उपचार करके ठीक किया जा सकता है। बेहोशी, तेज़ या धीरे धीरे दिल की धड़कन, पैरों, कलाइयों और पेट में अचानक सूजन दिल की बीमारियों के लक्षण होते हैं। अगर किसी को इस प्रकार की कोई समस्या आती है तो उसे तत्काल रूप से डाक्टर के पास जाना चाहिए क्योंकि दिल की बहुत सी बीमारियां सही समय पर उपचार से ठीक हो जाती हैं। अनुमति दें खुदा हाफिज। (parstoday)
-अनंत प्रकाश
भारतीय मौसम विभाग ने दिल्ली समेत उत्तर भारत के कई इलाक़ों में बुधवार से लेकर अगले कुछ दिनों तक शीत लहर चलने और तापमान काफ़ी कम रहने की सूचना दी है.
इन इलाक़ों में दिल्ली एनसीआर, हरियाणा, पंजाब और चंडीगढ़ शामिल हैं जहां बीते कुछ दिनों से तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस के आसपास दर्ज किया जा रहा है.
मौसम विभाग ने सुबह के समय खुली जगहों पर न जाने की सलाह दी है.
इसके साथ ही स्पष्ट शब्दों में कहा है कि ऐसा करने पर हाइपोथर्मिया और फ्रॉस्टबाइट जैसी गंभीर समस्याएं हो सकती हैं.
हाइपोथर्मिया होने पर आपका शरीर एक असामान्य रूप से कम तापमान पर पहुंचने के बाद काम करना बंद कर देता है. वहीं, फ्रॉस्टबाइट यानी ठंड से शरीर के कुछ हिस्से जैसे कि पैर की उंगलियां, हाथों की उंगलियां, चेहरा और पलकें आदि सुन्न हो सकती हैं.
मौसम विभाग की ख़ास चेतावनी
मौसम विभाग ने अपनी निर्देशिका में शराब नहीं पीने की सलाह भी दी है. क्योंकि मौसम विभाग के मुताबिक़, शराब पीने से शरीर का तापमान गिरता है.
बीबीसी ने इस बारे में भारतीय मौसम विभाग के क्षेत्रीय पूर्वानुमान केंद्र के प्रमुख कुलदीप श्रीवास्तव से बात करके ऐसी चेतावनी जारी करने की वजह पूछी.
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श्रीवास्तव बताते हैं, “दिल्ली एनसीआर क्षेत्र में अभी शीत लहर की समस्या चल रही है. ऐसे में तापमान चार डिग्री या उससे कम दर्ज किया जा रहा है. इस स्थिति में आपको सुबह के समय घर से बाहर निकलने से बचना चाहिए. वहीं, अगर सफ़र कर रहे हैं तो सुबह के समय धुंध की वजह से विज़िबिलिटी भी कम रहती है. ऐसे में फॉग लाइट का इस्तेमाल करें और गाड़ियां धीमे चलाएं. और इस दौरान शराब न पिएं क्योंकि वो शरीर का तापमान और गिराता है.”
शराब न पीने की चेतावनी क्यों?
मौसम विभाग इससे पहले 25 तारीख़ को जारी अपनी निर्देशिका में भी शराब न पीने की हिदायत दे चुका है.
ऐसे में सवाल उठता है कि आख़िर मौसम विभाग ऐसी चेतावनी क्यों दे रहा है.
बीबीसी ने जब ये सवाल पूछा तो कुलदीप श्रीवास्तव ने बताया, “इस पहलू पर मेडिकल क्षेत्र के विशेषज्ञों ने शोध किया है. और उसके आधार पर ही आईएमडी ये चेतावनी जारी कर रहा है.”
दुनिया में कई मुल्क ऐसे हैं जहां तापमान बेहद कम मतलब दस डिग्री से लेकर माइनस बीस से तीस डिग्री के बीच रहता है लेकिन वहां शराब का उपभोग कहीं ज़्यादा रहता है. इनमें रूस, बेलारूस और लिथुआनिया जैसे देश आते हैं जहां तामपान बेहद कम रहता है. ये देश दुनिया में शराब उपभोग के मामले में सबसे ऊपर हैं.
इसके साथ ही एक आम धारणा ये है कि शराब पीने से शरीर में गर्माहट आती है.
ऐसे में सवाल उठता है कि आईएमडी की इस चेतावनी में कितना दम है कि सर्दियों में शराब पीने से बचना चाहिए.
बीबीसी ने इस मामले की तह में जाने के लिए मेडिकल क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञों से बात की ताकि ये समझा जा सके कि सर्दियों में शराब पीने पर आपके शरीर में क्या होता है.
क्या कहता है विज्ञान?
इंसानी शरीर का मूल तापमान 37 डिग्री सेल्सियस होता है. लेकिन जब आपके आसपास का तापमान घटने लगता है तो शरीर ऊर्जा का इस्तेमाल अपने मूल तापमान को बनाए रखने के लिए करता है.
लेकिन जब शरीर का तापमान तय सीमा से नीचे गिरने लगता है तो आप हाइपोथर्मिया के शिकार होते हैं.
मौसम विभाग की चेतावनी के मुताबिक़, दिल्ली एनसीआर, पंजाब, हरियाणा में इस वक़्त जो तापमान है, उसमें ज़्यादा देर तक रहने पर हाइपोथर्मिया के शिकार हो सकते हैं.
सरल शब्दों में कहें तो जब शरीर का कोर टेंपरेचर एक सीमा से ज़्यादा गिरने लगता है तो आप हाइपोथर्मिया के शिकार होने लगते हैं.
अब बात करते हैं कि कम तापमान वाली जगह पर शराब पीने का शरीर पर क्या असर पड़ता है.
दिल्ली के एलएनजेपी अस्पताल की सीएमओ डॉ ऋतु सक्सेना शराब और सर्दी के कनेक्शन को कुछ इस तरह समझाती हैं.
वो कहती हैं, “जब आप शराब पीते हैं तो शराब के आपके शरीर में जाने के बाद वेजो डायलेशन होता है. इसकी वजह से आपके हाथ, पैरों की रक्त वाहिकाओं का विस्तार होता है, उनमें पहले से ज़्यादा खून का प्रवाह होने लगता है. इसकी वजह से आपको गर्माहट का अहसास होता है. इसीलिए लोगों को लगता है कि पश्चिमी देशों में लोग शराब इसलिए ज़्यादा पीते हैं, क्योंकि वहां ठंड ज़्यादा पड़ती है."
"लेकिन असल में शराब की वजह से हाथ पैरों में खून की मात्रा बढ़ती है तो ऐसा लगता है कि गर्मी लग रही है. इस अहसास के आधार पर ही लोग सर्दियों के कपड़े जैसे मफ़लर, जैकेट, हैट, स्वेटर आदि उतार देते हैं. लेकिन जब वे ऐसा कर रहे होते हैं तभी उनकी बॉडी का कोर टेंपरेचर गिर रहा होता है. और हमें उस बारे में जानकारी नहीं मिलती है जो कि हमारे शरीर के लिए बेहद ख़तरनाक साबित हो सकता है.”
लेकिन अगर शराब से गर्मी पैदा नहीं होती है तो गर्माहट लगती क्यों है.
मैक्स हेल्थकेयर में इंटरनल मेडिसिन विभाग में सह निदेशक, डॉ. रोमेल टिक्कू इस गुत्थी को सुलझाते हुए कहते हैं, “अक्सर आपने देखा होगा कि जो लोग ज़्यादा शराब पीते हैं, उनका चेहरा लाल-लाल सा रहता है. क्योंकि शराब की वजह से उनके बाहरी अंगों जैसे कि चेहरे, हाथ, पैर की रक्त धमनियों में ख़ून का प्रवाह बढ़ जाता है. इससे गर्मी लगती है क्योंकि ख़ून शरीर के आंतरिक हिस्सों से बाहर की ओर जाता है जिससे कोर बॉडी टेंपरेचर कम हो रहा होता है."
"इसलिए, ठंड के मौसम में जब आप शराब पीते हैं, और ज़्यादा पीते हैं तो आपके शरीर का कोर बॉडी टेंपरेचर कम होता जाता है. खून का प्रवाह बढ़ने से आपके शरीर में पसीना आता है जिससे शरीर का तापमान और कम होता जाता है. ऐसे में ठंड के मौसम में अगर आप शराब पीते हैं तो आपको दिक्कत हो सकती है.”
जानलेवा हो सकती है शराब?
डॉ. ऋतु सक्सेना की मानें तो सर्दियों के मौसम में शराब पीने और ज़्यादा शराब पीने से आपकी जान भी जा सकती है.
वो कहती हैं, “अगर सर्दियों में आपने बहुत ज़्यादा शराब पी ली तो सबसे पहली बात ये होगी कि आप ठीक से कपड़े नहीं पहनेंगे. शराब की वजह से आपके दिमाग़ पर जो असर होगा, उससे ये होगा कि आपको पता नहीं चलेगा कि आप किस हालत में हैं. और इसी स्थिति में जब आपके शरीर का कोर टेंपरेचर 37 डिग्री सेल्सियस से नीचे जाता रहेगा तो धीरे-धीरे हाइपोथर्मिया का असर दिखना शुरू हो जाएगा. हाइपोथर्मिया से व्यक्ति कोमा में जा सकता है और उसकी जान भी जा सकती है.”
वहीं, अगर उन मुल्कों की बात की जाए जहां कम तापमान है और शराब ज़्यादा पीने का चलन है तो रूस ऐसे ही देशों में से एक है.
और ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी की एक रिसर्च कहती है कि रूस में जहां वोदका का सेवन काफ़ी सामान्य है, वहां शराब के अधिक उपभोग की वजह से जीवन प्रत्याशा में कमी आई है. (bbc.com)
नई दिल्ली, 10 दिसंबर | रूसी अधिकारियों द्वारा स्पुतनिक-5 वैक्सीन की खुराक मिलने के बाद दो महीने तक शराब के सेवन से परहेज करने की सलाह दिए जाने के बाद अब भारत में भी स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने गुरुवार को कहा कि यह कोविड-19 के मरीजों के लिए एक निवारक उपाय है। विशेषज्ञों के मुताबिक, एल्कोहल के सेवन के खिलाफ जारी किए गए निषेधाज्ञा का मकसद प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाए रखने से है।
गुरुग्राम में फोर्टिस अस्पताल में न्यूरोलॉजी के प्रमुख और निदेशक डॉ. प्रवीण गुप्ता ने आईएएनएस को बताया, "रूसी अधिकारियों ने कोविड का टीका लेने वाले मरीजों के लिए कुछ अजीबोगरीब सुझाव दिए हैं, जिससे शायद कोविड के संक्रमण से अधिक बचा जा सकेगा।"
उन्होंने आगे कहा, "या तो उनका मानना है कि वैक्सीन दो महीने बाद जाकर अपना काम शुरू करेगा या फिर इसकी कोई सटीक व्याख्या नहीं है कि क्यों लोग टीकाकरण के बाद भी इतने लंबे समय तक सावधानी बरत कर रखेंगे।"
रूस में शराब का सेवन लोग आमतौर पर किया करते हैं, ऐसे में इस तरह के किसी निवारक उपाय को अपनाने से यहां की आबादी तो प्रभावित होगी ही और साथ में आर्थिक दृष्टिकोण से भी यह देश को काफी प्रभावित करेगा और इससे वैक्सीन के प्रति लोग की राय भी बदलेगी।(आईएएनएस)