विचार/लेख
सुनीता नारायण
कुछ वर्ष पहले जब हम बेंगलुरु में अपनी रिपोर्ट ‘एक्सरीटा मैटर्स’ का विमोचन कर रहे थे, उसी वक्त शहर के पानी और सीवेज प्रबंधकों से मेरी एक उत्साही चर्चा हुई। यह चर्चा शहर में जल प्रबंधन के बारे में थी, क्योंकि हमारे शोध से यह पता चला कि शहर में जल प्रबंधन अवहनीय और अस्थिर था।
हालांकि, इस बात से अभियंता असहमत थे। उनके अनुसार वे लगभग 100 किमी दूर कावेरी से पाइपलाइनों के माध्यम से पानी सुरक्षित करने में कामयाब रहे थे और इसलिए चिंता का कोई कारण नहीं था। अब जबकि यह हाई-टेक शहर गंभीर जल संकट की ओर बढ़ रहा है, तो हो सकता है, शायद वे बुद्धिमान लोग पुनर्विचार करेंगे और आगे बढऩे के लिए अपने विकल्पों पर फिर से काम करेंगे।
सच तो यह है कि बेंगलुरु एक ऐसा शहर है जिसे आईना दिखाया जा रहा है, जहां पर ऊंची लागत वाले इंजीनियरिंग समाधान के जरिए उत्तम जलापूर्ति के सपने चकनाचूर हो रहे हैं और ये सपने जलवायु जोखिम के उस युग में टूट रहे हैं जहां वर्षा अधिक चरम और अधिक परिवर्तनशील होती जाएगी।
यदि अतीत को देखें तो बेंगलुरु को झीलों के विशाल नेटवर्क से पानी मिलता था, जिसे बारिश इक_ा करने और बाढ़ को कम करने के लिए डिजाइन किया गया था। फिर इस खोज का विस्तार हुआ और पहली आधिकारिक जल आपूर्ति शहर से 18-20 किमी दूर अर्कावती नदी पर हेसरघट्टा झील से हुई और फिर 35-40 किमी दूर टीजी हल्ली जलाशय से जल आपूर्ति हुई। लेकिन यह सब पर्याप्त नहीं था और 1974 के आसपास, महत्वाकांक्षी कावेरी जल आपूर्ति योजना की कल्पना की गई, जहां पानी को 490 मीटर की ऊंचाई तक पंप करने और 100 किमी तक पहुंचाने की बात हुई।
शहर के अभियंताओं के साथ बातचीत के दौरान पता चला कि वे अपने इंजीनियरिंग चमत्कार के चौथे चरण में थे, और जैसा कि मैंने कहा, उन्हें चिंता का कोई कारण नहीं दिख रहा था। मैंने लंबी दूरी तक पानी पहुंचाने की लागत के बारे में बात की थी। लगभग एक दशक पहले शहर को पानी पंप करने के लिए भारी बिजली की आवश्यकता होती थी, जो इसके पानी और सीवेज बोर्ड की नाजुक अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं थी। इसके अलावा जैसे-जैसे दूरी बढ़ती गई, वैसे-वैसे पानी का नुकसान भी बढ़ा, जो आधिकारिक सूत्रों के अनुसार 40 प्रतिशत तक था। इसका मतलब यह हुआ कि जल आपूर्ति की लागत बढ़ रही थी।
मैंने यह भी बताया कि इंजीनियर अहम तथ्यों को नजरअंदाज कर रहे थे। पहला तथ्य था कि शहर और उसके आसपास के क्षेत्रों में भूजल का उपयोग बढ़ रहा था, जो यह बताता था कि पानी की आपूर्ति इतनी सही नहीं थी। दूसरा तथ्य था कि शहर का विस्तार हो रहा था और यह विस्तारित जल-सीवेज का बुनियादी ढांचा विकास के साथ गति नहीं बनाए रखेगा। तीसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी, जिसमें उनकी अपनी स्वीकारोक्ति भी थी कि शहर में पैदा होने वाले अधिकांश सीवेज का उपचार नहीं किया जा रहा था और इसके परिणामस्वरूप इसकी झीलों और जलधाराओं में प्रदूषण का भार बढ़ रहा था। इसके बावजूद इंजीनियर भविष्य को लेकर आशान्वित थे। उन्होंने दावा किया कि हर उपलब्ध तकनीक का उपयोग करते हुए लगभग 720 मिलियन लीटर प्रति दिन (एमएलडी) सीवेज उपचार क्षमता पहले ही बना ली है, जो उत्पन्न लगभग सभी सीवेज का तकनीकी रूप से उपचार करने में सक्षम होगी।
जब मैंने यह बिंदु अभियंताओं के सामने रखा कि आधी से भी कम क्षमता का उपयोग किया जा रहा है, तो उन्होंने मुझसे कहा, बहुत जल्द पाइपलाइन नेटवर्क का विस्तार होगा और सब कुछ ठीक हो जाएगा।
यदि वर्तमान की बात करें तो 2010 में, शहर की पानी की आवश्यकता 1,125 एमएलडी आंकी गई थी, जो अब दोगुनी से भी अधिक होकर 2,600 एमएलडी हो गई है। जबकि कावेरी से अभी भी आधी जल आपूर्ति होती है, बाकी भूजल से आती है। दूसरे शब्दों में, मांग पूरी नहीं हुई है और लोगों के पास पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए गहरी खुदाई करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। वर्षा की बढ़ती परिवर्तनशीलता के कारण, ये स्रोत तेजी से सूख रहे हैं। लेकिन पाइपड्रीम विक्रेताओं ने संकट को नहीं समझा है। शहर के मुख्य जल प्रबंधक अब कावेरी परियोजना के चरण 5 पर निर्भर हैं, उनका कहना है, यह बहुत जल्द चालू हो जाएगा।
सीवेज की कहानी भी ऐसी ही है। उपचार के लिए नया हार्डवेयर बनाया गया है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की 2021 इन्वेंटरी के अनुसार, शहर में अब 1,167.50 एमएलडी सीवेज उपचार क्षमता है। सीवेज की कहानी भी ऐसी ही है। क्षमता उपयोग भी कुछ हद तक सुधरकर 75 प्रतिशत हो गई है। हालांकि, सीवेज उत्पादन और उपचार क्षमता के बीच अंतर बढ़ गया है। वर्तमान में पानी की मांग के साथ, सीवेज उत्पादन 2,000 एमएलडी के करीब होगा और इसलिए अनुपचारित सीवेज आधे से अधिक होगा। शहर व्यर्थ में घूमता रहा लेकिन असल में उसने पाया कि वह अब भी वहीं खड़ा है, जहां एक दशक पहले था।
यह हमारी जल योजना का वास्तविक संकट है जो परिवर्तन की आवश्यकता और अवसर को समझने में असमर्थता को जाहिर करता है। सच तो यह है कि बेंगलुरु में पर्याप्त बारिश होती है। इसमें झीलें हैं जो इस बारिश के पानी का संचय कर सकती हैं और भूजल को रिचार्ज कर सकती हैं, ताकि अत्यधिक बारिश की घटनाओं के समय, अमीर और शक्तिशाली निवासियों को बाढ़ में डूबने से बचने के लिए तैरना न पड़े।
हर बूंद का इस्तेमाल आने वाले अभावग्रस्त समय के लिए किया जा सकता है। फिर वह अपने सीवेज का प्रबंधन अलग तरीके से कर सकता है। यह मानने के बजाय कि पाइपलाइनों के माध्यम से सीवेज का परिवहन किया जा सकता है, यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि मल की प्रत्येक बूंद को टैंकरों द्वारा एकत्र किया जाए और फिर उपचारित और दोबारा उपयोग किया जाए। लेकिन इसके लिए जल अभियंताओं को धरातल पर उतरना होगा, दोबारा काम करना होगा, पुनर्विचार करना होगा। अन्यथा यह आज बेंगलुरु की कहानी है और कल आपके शहर की कहानी होगी। (डाउन टू अर्थ)
कुमार सिद्धार्थ
साल 2024 में ‘मतदाता’ फिर केंद्र में आ गया है। देश में लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गई है। राजनीतिक दल अपने वादे, दावे और नये संकल्पों को बुनने में लगे है। राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र भी सामने आने लगे है। लेकिन आजादी के 76 साल बीत जाने के बाद भी चुनावी समर में कोई नयापन दिखाई नहीं दे रहा है। भारतीय सामाजिक व राजनीतिक परिदृश्य में ‘पर्यावरण’ मुद्दा नहीं होता है, क्योंकि राजनीतिक तंत्र को इसमें ‘वोट बैंक’ नजर नहीं आता है।
इस चुनाव में राजनीतिक दलों के तो वहीं मुद्दे होंगे, जिनसे उन्हें ‘वोट’ मिल सकें। जल, जंगल, जमीन, प्रदूषण जैसी समस्याओं से कोई सरोकार ही नहीं दिखता है। चुनावी वर्ष में यह सवाल फिर उभरने लगा है कि क्या चुनावी विमर्श और बहस में प्रकृति और पर्यावरण के मुद्दों को कोई स्थान मिल पाएंगा? क्या पर्यावरण के मुद्दे 2024 के चुनाव अभियान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होंगे? क्या पार्टियां जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए नई नीतियों को पेश करेंगी? अब तक के अनुभव बताते है कि वर्तमान परिस्थिति में बाजारवाद इतना हावी हो गया है कि पर्यावरण से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दे ‘गौण’ से हो गए हैं।
कई बड़े-छोटे राजनीतिक दलों ने पिछले चुनावों में अपने घोषणापत्रों में ‘जलवायु परिवर्तन’ को मुद्दा बनाया थी, इसमें टिकाऊ कृषि, पर्यावरण-पर्यटन और नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया गया था।
हम सब की चिंताओं में है कि दुनिया में जलवायु परिवर्तन का संकट लगातार गहराता जा रहा है और लोगों के जन-जीवन एवं आजीविका पर इसका बहुत ही मारक प्रभाव पड़ रहा है। आंकड़े देखें तो पता चलता हैं कि देश के 9 शहर प्रदूषण के मामले में दुनिया के शीर्ष 10 शहरों में शामिल हैं। वहीं विश्व के शीर्ष 50 प्रदूषित शहरों में से 43 शहर तो भारत के ही हैं। प्रदूषण की स्थिति को लेकर हम दुनिया में 9वें नंबर पर हैं।
देश में बढ़ती आबादी के साथ तेजी से जल संकट बढ़ रहा है। कई बड़ी नदियां मौजूदा समय में अबतक के सबसे खराब हालात से गुजर रही हैं। देश भर के प्रमुख शहरों और नदियों में प्रदूषण की बड़ी चिंताएं बनी हुई हैं। पानी की कमी जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहा है।
दूसरी ओर विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि अकेले प्रदूषण से भारत में हर साल लगभग 15 लाख लोगों की मौतें होती हैं। अकेले दिल्ली के 50 फीसदी बच्चों के फेफड़े प्रदूषण के कारण प्रभावित हो रहे हैं जिससे न सिर्फ उनकी पढऩे-लिखने की क्षमता प्रभावित हो रही है, बल्कि वे खतरनाक बीमारियों के शिकार भी हो रहे हैं। ऐसे तमात आंकड़े डराते हैं। आखिर हम किस प्रकार के ‘विकास’ की दिशा में बढ़ रहे हैं?
यह भी सही है कि प्रकृति और पर्यावरण के प्रति उदासीनता के लिए राजनीतिक दलों के साथ आम जन भी बराबर के भागीदार प्रतीत होते है। सच यह है कि समाज भी आज प्रकृति और पर्यावरण के मुद्दों से परे हटकर अन्य मुद्दों को ज्यादा महत्वपूर्ण मानता है। इसीलिए राजनैतिक दलों के घोषणापत्रों में पर्यावरण के मुद्दों को तवज्जो नहीं दी जाती है। जब तक आम जनता प्रदूषण, जंगल, बांध, विस्थापन आदि के प्रति जागरूक नहीं होगी, तब तक पर्यावरण के मुद्दे चुनावी मुद्दे नहीं बन सकते।
इसी संदर्भ में लोकसभा चुनाव 2024 से पहले कई राज्यों की सैकड़ों पर्यावरण संस्थाओं ने घोषणा पत्र बनाकर मांग पत्र (डिमांड चार्टर) जारी किया है। ताकि, हिमालय के पारिस्थिकी (इकोलॉजी) को बचाया जा सके। इसके लिए पीपल फॉर हिमालय अभियान शुरू किया गया है, जिसके तहत आपदा मुक्त हिमालय की दिशा में मांग पत्र जारी किया गया है।
हाल ही में लद्दाख में सोनम वांगचुक के 21 दिन की भूख हड़ताल ने पूरे देशभर के पर्यावरणविदों और पर्यावरण से जुड़ी समाज सेवी संस्थाओं का ध्यान खींचा है। उत्तराखंड में भी लगातार लंबे समय से जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति और यूथ फॉर हिमालय इस तरह के अभियान चलाते आ रहे हैं तो वहीं, अब अलग-अलग हिमालय राज्यों में एक तरह की समस्याओं का सामना कर रहे सभी लोग एकजुट होकर अपनी आवाज मजबूत कर रहे हैं। यह सभी संस्थाएं ‘पीपल फॉर हिमालय अभियान’ के तहत अपनी मांगों को लोकसभा चुनाव से पहले सभी राजनीतिक दलों के सामने रख रहे हैं।
यह सही है कि अब पर्यावरण के प्रति सजग होना समय की मांग है। जनता के बीच से गिने-चुने लोग ही पर्यावरण की बात उठाते हैं। सत्ता की धुंध ने आमजनों के मस्तिष्क को इतना प्रदूषित कर दिया है कि लोगों को अब वास्तविक बिगड़ते पर्यावरण के पहलु नजर ही नहीं आ रहे है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जल, जंगल, जमीन ही जीवन का आधार हैं। कहीं-कहीं चुनावों में राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्रों में पर्यावरण संरक्षण को शामिल तो करते हैं, लेकिन कोई चुनाव ऐसा नहीं रहा, जब पर्यावरण के मुद्दे पर वोट मांगे गए हों। असल में पर्यावरण से जुड़े तीन सबसे अहम बिंदु हवा, मिट्टी व पानी प्रकृति की देन हैं। इनकी बिगड़ती सेहत को लेकर मु_ीभर लोग आवाज तो उठाते हैं, आंदोलन करते है, लेकिन जनता की आवाज आज भी चुनावी मुद्दे का रूप नहीं ले पाती है।
वर्तमान में हम सभी पर्यावरणीय संकट का सामना कर रहे हैं। कभी भी हमारी हवा और पानी इतने खराब नहीं हुए, जितने आज हैं। पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रहे विशेषज्ञों का कहना था कि प्रदूषण की वजह से लोगों की जिंदगी को भारी नुकसान पहुंच रहा है। लोग बीमार पड़ते हैं, इससे न सिर्फ उनका स्वास्थ्य खराब होता है, बल्कि उन्हें भारी आर्थिक नुकसान भी होता है। ऐसे में राजनीतिक दलों के साथ साथ सिविल सोसायटी की भी जिम्मेदारी बनती है कि ‘पर्यावरण’ को एक राजनीतिक मुद्दा बनाने के लिए जमीनी स्तर पर पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के साथ विकास के संतुलन के संदेश को लेकर जाये। लोगों को अब स्वच्छ सांसों के लिए प्रदूषण के खिलाफ जागरूक होना होगा।
देश में राजनीतिक नेतृत्व को न केवल अपने घोषणापत्रों और कार्यों में सामान्य उपायों को मजबूत करने की जरूरत है, बल्कि लोगों के सामने आ रही दुशवारियों को भी को कम करने के लिए जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन और लचीलेपन पर भी निर्माण लेने की जरूरत है। शुद्ध हवा, पानी व भोजन की जरूरत इस समय हर किसी की जरूरत है। सभी राजनीतिक पार्टियों को मुफ्त सुविधाएं देने के बजाय पर्यावरण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर गंभीर होना चाहिए।
आमजन को चाहिए कि राजनीतिक दलों की पहल का इंतजार न कर स्थानीय स्तर पर पर्यावरण से जुडे पहलुओं को चुनावी मुद्दा बनाया जाए, तभी सभी में पर्यावरण संरक्षण के प्रति नई ऊर्जा का संचार होगा।
डॉयचे वैले पर यूलियन रयाल की रिपोर्ट-
उत्तर कोरिया अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का अनुपालन कर रहा है या नहीं, इसकी निगरानी के लिए गठित संयुक्त राष्ट्र पैनल की एक नई रिपोर्ट का दावा है कि उत्तर कोरिया के ‘दुर्भावनापूर्ण’ साइबर हमले जारी हैं जिनकी वजह से 2023 तक छह सालों में हुकूमत को करीब 3 अरब डॉलर की शुद्ध बचत हुई है।
बताया जाता है कि ये रकम सामूहिक विनाश के हथियारों (वेपंस ऑफ मास डिस्ट्रक्शन) की 40 फीसदी कीमत को भरने में काम आए।
विश्लेषकों ने डीडब्ल्यू को बताया कि क्रिप्टो इंडस्ट्री इस बारे में ‘अत्यधिक चिंतित’ है कि उत्तर कोरियाई निजाम असरदार ढंग से क्रिप्टो करेंसी की चोरी कर रहा है और सजा के दायरे से भी बाहर है। इस सेक्टर में विकास की गति इतनी तेज है कि अंतरराष्ट्रीय कानून भी पीछे रह जाते हैं।
उनके मुताबिक इसी तरह उत्तर कोरिया से किए जा रहे साइबर हमलों की सबसे ज्यादा चपेट में आ रहे देशों - दक्षिण कोरिया, जापान और अमेरिका - के नेता गंभीर राजनीतिक चुनौतियों में फंसे हुए हैं जिनकी वजह से उनका समय और ऊर्जा उन्हीं कामों में खर्च हो रही है।
20 मार्च को संयुक्त राष्ट्र पैनल ने उत्तर कोरिया की साइबर गतिविधियों का ताजा आकलन जारी किया। वह 2017 से 203 के बीच क्रिप्टो करंसी से जुड़ी कंपनियों के खिलाफ 58 साइबर हमलों की जांच कर रहा है। पैनल को लगता है कि वे हमले उत्तर कोरिया की ओर से किए गए थे।
रिपोर्ट का कहना है कि उत्तर कोरिया की ओर से दुनिया भर के वित्तीय संस्थानों पर हमले जारी हैं। उसकी कोशिश है कि संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंधों से बचते हुए एटमी हथियार और लंबी दूरी की मिसाइलें तैयार करने में खर्च हो रहा पैसा इस तरीके से निकाल सके।
हथियार कार्यक्रम के लिए फंडिंग
आधिकारिक नाम से उत्तर कोरिया का उल्लेख करते हुए और एक संयुक्त राष्ट्र के एक अनाम सदस्य देश के हवाले से मिली जानकारी के आधार पर रिपोर्ट के मुताबिक, ‘डेमोक्रेटिक पीपल्स रिपब्लिक ऑफ कोरिया (डीपीआरके) अपनी हैकिंग साइबर गतिविधियों की बदौलत अंदाजन 50 फीसदी विदेशी मुद्रा आय पैदा कर लेता है। ये पैसा उसके हथियार कार्यक्रम में लगा दिया जाता है।’
रिपोर्ट का कहना है कि ‘दूसरे सदस्य देश ने बताया कि डीपीआरके के सामूहिक विनाश के 40 फीसदी हथियारों की फंडिंग अवैध साइबर तरीकों से मिली है।’
न्यूजीलैंड के ऑकलैंड में क्रिप्टोकरंसी में रिसर्च करने वाली कंपनी न्यू कॉइन में एनालिस्ट आदित्य दास कहते हैं कि उद्योग, लजारस समूह की क्रिप्टो हैकिंग कोशिशों की ‘पहुंच और पेचीदगी’ को देखते हुए खासा स्तब्ध है। माना जाता है कि यही लजारस समूह उत्तर कोरिया की सरकारी हैकिंग टीम का चेहरा है।
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, ‘लजारस समूह का नाम वर्चुअल करंसी की जिन चोरियों में आया है, उनका आकार और मात्रा अविश्वसनीय है- रोनिन नेटवर्क के साढ़े 61 करोड़ डॉलर (56 करोड़ 80 लाख यूरो), हॉराइजन के 10 करोड़ डॉलर, और एटॉमिक वॉलेट के 10 करोड़ डॉलर। लगता है बड़ी मात्रा में क्रिप्टो से जुड़ी जो भी बड़ी कंपनी रही होगी, वह उनके रेडार पर थी।’
दास कहते हैं कि इन बड़ी चोरियों के अलावा, अपने व्यापक नेट और लगातार हमला करते रहने के तरीकों के जरिए लगता है, लजारस ने अपेक्षाकृत छोटे समूहों और व्यक्तियों को भी नहीं बख्शा।
दास का कहना है कि ब्लॉकचेन में एप्लीकेशंस और टोकंस की तैनाती सुरक्षा संसाधनों तक बेहतर पहुंच मुहैया कराती है। और हाल के वर्षों में विकेंद्रीकृत एप्लीकेशन ऑडिट और स्टैंडर्ड की क्वॉलिटी भी काफी सुधर गई है। हालांकि कॉन्ट्रैक्ट सुरक्षा विशेषज्ञता अभी भी सीमित है और इसलिए महंगी भी।
दास ने जोर देते हुए कहा, ‘साइबर हमले का दूसरा प्रमुख वेक्टर है मानवीय चूक और फिशिंग, इस पर भी ध्यान देना होगा।’
‘लजारस अपनी सोशल इंजीनियरिंग और फिशिंग अभियानों के लिए जाना जाता है और वे बड़े संगठनों के कर्मचारियों को टार्गेट करते हैं, उन्हें ई-मेल भेजते हैं और ट्रैपडोर अटैचमेंट के साथ लिंक्डइन मेसेज भी।’
क्रिप्टो कंपनी से चुराए साढ़े 61 करोड़ डॉलर
अप्रैल 2022 में हैकरों ने रोनिन नेटवर्क को इसी तरह चूना लगाया। ब्लॉकचेन गेम एक्सी इंफिनिटी से जुड़ी एक साइडचेन के जरिए। कंपनी का अनुमान है कि फर्जी निकासी से उसे करीब साढ़े 61 करोड़ डॉलर की चपत लगी। और कर्मचारियों की कामकाज की सुरक्षा की अहमियत पर जोर देने के बावजूद क्रिप्टोकरेंसी कंपनियों पर हैकरों का हमला सफल रहा।
इस सेक्टर की सुरक्षा क्रिप्टो करंसी की विकेंद्रीकृत, फ्रीव्हीलिंग और वैश्विक प्रकृति की वजह से भी बाधित होती है, यूजर्स को ये सही तो लगता है लेकिन सरकारों के लिए इसे नियमित करना मुश्किल भी हो जाता है।
दास कहते हैं, ‘अगर संभव हो तो एप्लीकेशंस पर कार्रवाई करने के बजाय वास्तविक अपराधियों पर मुकदमा चलना चाहिए। लेकिन हम जानते हैं कि उत्तर कोरिया अपने निशान छिपाने और हैकिंग से इंकार करने में कितना माहिर है। इसलिए फिलहाल अगर अभियोजन संभव नहीं तो रोकथाम ही सबसे सही विकल्प है।’
दास को आशंका है इसी तरह के कामयाब हमले और होते रहेंगे। उत्तर कोरिया हैकिंग टीमों के लिए और संसाधन झोंकता रहेगा क्योंकि फंड जुटाने का एक अहम स्रोत उसके लिए वही हैं।
दक्षिण कोरिया की डानकूक यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय कानून के प्रोफेसर पार्क जुंग-वॉन कहते हैं कि हैकिंग, वित्तीय कंपनियों को बरबाद करने का सिर्फ खतरा ही नहीं है, खतरे के अलावा उससे और भी बातें जुड़ी हैं।
उत्तर कोरिया की साइबर टीमें नियमित रूप से दक्षिण कोरिया की सरकारी एजेंसियों के रक्षा उपायों, बैकिंग सिस्टम, रक्षा कॉन्ट्रैक्टर और बुनियादी ढांचे का टेस्ट भी करती हैं। इनमें देश का एटमी ऊर्जा सेक्टर भी शामिल है।
वह कहते हैं, ‘हम लोग उत्तर की गैरकानूनी गतविधियों से बखूबी वाकिफ हैं लिहाजा सरकार और सेना हाल के वर्षों में इस ओर ज्यादा ध्यान देने लगी हैं और राष्ट्र की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए अतिरिक्त संसाधन झोंक रही हैं।’
इस सेक्टर को वैश्विक स्तर पर नियमित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कोशिशें जारी हैं। हालांकि ऐसा होने से पहले कुछ गंभीर अवरोधों से निपटना जरूरी होगा।
साइबर हमले से जुड़े कानून
पार्क कहते हैं, ‘हम लोग ऐसा कानून लाने की कोशिश कर रहे हैं जो साइबर चोरी, साइबर आतंकवाद और इसी तरह के अन्य उल्लंघनों से निपट सके। लेकिन इस मामले में विशिष्ट मानक हासिल कर पाना मुश्किल है क्योंकि इसमें शामिल सभी राज्यों की सहमति जरूरी है। फिलहाल, बहुत सारी कमियां (लूपहोल) हैं, उत्तर कोरिया जैसे कुख्यात खिलाड़ी उनका फायदा उठा लेते हैं।’
कैसे होती है परमाणु हथियारों की निगरानी
वह कहते हैं कि देश के लिए खतरा बने साइबर हमलों से निपटने के लिए जरूरी कानूनों को लेकर दक्षिण कोरिया के साथ समझौता हो पाना कठिन है क्योंकि सत्तारूढ़ और विपक्षी पार्टियों की, चुनाव से करीब एक महीने पहले किसी भी मुद्दे पर सहमत दिखने में दिलचस्पी नहीं।
पार्क कहते हैं, ‘हम जानते हैं कि उत्तर कोरिया ने विशेष हैकिंग टीमें बनाई हैं और उन्हें प्रशिक्षित किया है। वे काफी परिष्कृत हैं और उन्हें एक ही काम सौंपा गया है- हम पर हमले का। हमें इन चुनौतियों का तत्काल जवाब देना होगा।’ (dw.com)
दिनेश श्रीनेत
समाज में रहते हुए हमें दूसरों से मदद की जरूरत भी पड़ती है। हम इतने सक्षम नहीं होते कि अकेले ही हर तरह की स्थिति से निपट लें। बहुत से मामले ऐसे होते हैं जिसमें बतौर नागरिक हमारी सीमाएं होती हैं। इसलिए किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में संस्थाओं की जरूरत पड़ती है। ये संस्थाएं हमारे उन अधिकारों की रक्षा करती हैं, जिन पर कभी न कभी संकट आ ही जाता है।
बतौर नागरिक हमारे कुछ अधिकार होते हैं, बतौर मनुष्य हमारे कुछ अधिकार होते हैं, एक खास समुदाय का हिस्सा होने की वजह से जो हमारी सामाजिक स्थिति बनती है, उसकी वजह से भी हमारे कुछ विशेषाधिकार सुरक्षित करने पड़ते हैं। इसलिए यह जरूरी होता है कि हम सब मिलकर लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत बनाएं।
जब हम किसी और के अधिकार का हनन करते हैं तो अप्रत्यक्ष रूप से हम इस एक्शन को को वैधता प्रदान कर रहे होते हैं। यानी अगर आपने खुद को यह छूट दे कि किसी की गलती की सजा आप बिना पुलिस कोर्ट का सहारा लिए सडक़ पर निपटाएंगे तो इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि हमारे साथ भी कभी भी ऐसा हो सकता है।
असल बात, जिस पर चिंता करनी चाहिए, यह है कि हम धीरे-धीरे अपनी लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर बनाते जा रहे हैं। यदि समाज में किसी के साथ अन्याय हो रहा है तो उसकी सुनवाई कहां पर है?
लेखक, कलाकार और बुद्धिजीवी लिट-फेस्ट में तालियां बटोर रहे हैं। सोशल मीडिया पर दांत निपोर रहे हैं। इन दिनों लेखकों के पास अपनी किताबों के प्रचार का जिम्मा है। वे रात-दिन उसी काम में लगे हुए हैं। कलाकार पैसे के लिए अमीर कारोबारियों के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रहे हैं। बुद्धिजीवी सुरक्षित तरीके से वक्तव्य दे रहे हैं।
मुख्यधारा की मीडिया और पत्रकारों की हालत ऐसी हो गई है कि वे कुछ भी लिख दें, कह दें - सिस्टम पर कोई असर नहीं होता है। इसके समानांतर खड़ा वैकल्पिक मीडिया विपक्ष की भूमिका तो निभा रहा है मगर उसका प्लेग्राउंड राजनीति है। उन्हें भी शोषण, विकास या किसी के साथ नाइंसाफी की खबरों से कोई लेना-देना नहीं है। उनकी भाषा भी असहनीय रूप से काव्यात्मक हो गई है। क्योंकि वे जमीनी मुद्दों से कट गए हैं।
वे इसी में खुश हैं कि वे सत्ता पक्ष की सातों दिन चौबीस घंटे आलोचना का स्पेस बचाए हुए हैं। इतनी काव्यात्मक आलोचना से सत्ता को भी कोई खास फर्क़ नहीं पड़ता और वह व्यवस्था से नाराज लोगों के लिए स्वांत: सुखाय जैसा बनकर रह गया है। मीडिया ही सत्ता पक्ष की भूमिका में हैं और मीडिया ही विपक्ष बनकर खुश है। न तो सत्ता की जनता से जवाबदेही है और न ही विपक्ष की। सभी अपने सुरक्षित खोलों में हैं।
एक्टिविस्ट पर शिकंजा है लिहाजा वे भी शांत होकर बैठ गए हैं। अगर आप किसी आम इंसान को न्याय दिलाने की कोशिश में लगे हैं, या बतौर एक बेहद साधारण नागरिक के रूप में अपने लिए न्याय चाहते हैं, तो बहुत हद तक आपको निराश होना पड़ेगा। आप पाएंगे कि कहीं कोई सुनवाई नहीं है।
जो मध्यवर्ग बदलाव का नेतृत्व करता था अब उसकी दिलचस्पी एक न्यायोचित व्यवस्था में नहीं है। वे चुटकुले देख रहे हैं, हँस रहे हैं, राजनीतिक झगड़े और वाद-विवाद सुन रहे हैं, भजन गा रहे हैं, ओबेसिटी का शिकार हो रहे हैं, ताली पीटकर हँस रहे हैं। और उन्हें लगता है कि वे सुरक्षित हैं और उनके पास ताकत है।
इस स्वार्थी मिडिल क्लास ने हर उस संस्था को कमजोर किया है या माखौल उड़ाया है जो किसी भी रूप में आखिरी आदमी के सपोर्ट में खड़ा था।
फैसल मोहम्मद अली
‘जब जब मोदी डर जाता है, ईडी को आगे लाता है।’
केंद्रीय एजेंसी ईडी के ख़िलाफ़ नारे भी लगे और आधा दर्जन से अधिक नेताओं के भाषणों में उसके कथित दुरुपयोग का जि़क्र भी बार-बार आया।
लेकिन रविवार को दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई लोकतंत्र बचाओ रैली में तृणमूल कांग्रेस नेता डेरेक ओ ब्रायन के बयान का जि़क्र ख़ासतौर पर ज़रूरी है।
अपने संक्षिप्त भाषण में तृणमूल कांग्रेस ने दावा किया कि ‘टीएमसी इंडिया गठबंधन का हिस्सा था, है और रहेगा।’
डेरक ओ ब्रायन के बयान को क्या अरविंद केजरीवाल की गिरफ़्तारी के बाद तृणमूल कांग्रेस के स्टैंड में बदलाव के तौर पर देखा जाना चाहिए या ये महज़ एक बयान है, अभी इसका सिफऱ् अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी ने पश्चिम बंगाल की कुल 42 लोकसभा सीटों पर अकेले ही चुनाव लडऩे का फै़सला किया है जबकि वो शुरु से ही इंडिया गठबंधन का हिस्सा रही है।
मल्लिकार्जुन खडग़े की सीख
मगर इस बयान को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े के भाषण से जोडऩे पर कई नई मायने सामने आते हैं।
कांग्रेस के इस वयोवृद्ध नेता ने अपनी स्पीच के लगभग अंत में कहा, ‘पहले एक होने की सीखो, एक दूसरे को तोडऩा मत सीखो।’
हालांकि अस्सी साल से अधिक उम्र के कांग्रेस नेता ने साथ में ये भी कहा कि गठबंधन में विविधता है मगर बड़े उद्देश्यों को लेकर विपक्षी दल साथ हैं। वामपंथी दलों के नेता डी राजा और सीताराम येचुरी की तरफ़ इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि केरल में हम लड़ते हैं पर बड़े उद्देश्यों के लिए साथ आते हैं।
यही बात उन्होंने पंजाब और आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के रिश्तों को लेकर भी कही।
तमाम कोशिशों के बावजूद पंजाब में दोनों दलों के बीच लोकसभा चुनावों को लेकर किसी तरह का समझौता नहीं हो सका।
रामलीला मैदान में भी रविवार को आप पार्टी और कांग्रेस कार्यकर्ता अलग-अलग समूहों में खड़े दिखे। आप कार्यकर्ताओं की पीली टी-शर्ट और टोपियां मैदान में ख़ूब दिखीं और उसके कार्यकर्ता और समर्थक पानी बांटने से लेकर लोगों को रास्ता दिखाते नजऱ आए।
हालांकि इन कार्यकर्ताओं में भी उनकी तादाद अधिक थी जो पंजाब से आए थे। काफ़ी तो बरनाला जि़ले के अलग-अलग गांवों से थे। छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु से आए इक्का-दुक्का कार्यकर्ताओं से हमारी मुलाक़ात हुई।
गिरफ़्तारी से नहीं बन सका विपक्ष पर दबाव
अगर नरेंद्र मोदी सरकार को ये लगा था कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की कथित शराब घोटाले में गिरफ्?तारी विपक्ष पर दबाव बना पाएगी तो वो असर रविवार को रामलीला मैदान में हुई रैली में नहीं दिखा।
‘लोकतंत्र बचाओ रैली' के नाम से हुई इस रैली में न सिफऱ् तमिलनाडु से लेकर कश्मीर और महाराष्ट्र तक के राजनीतिक दल झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमेंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल की गिरफ़्तारी के विरोध में एकजुट दिखे बल्कि कार्यक्रम शुरु होने तक रामलीला मैदान खचाखच भर गया था।
दिल्ली में विपक्षी एकजटुता का ये कार्यक्रम ठीक उसी दिन हुआ जिस दिन प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश के मेरठ से बीजेपी का चुनावी शंखनाद किया।
मल्लिकार्जुन खडऩे ने अपनी स्पीच में बीजेपी और आरएसएस को ज़हर के समान बताया और लोगों से उन्होंने कहा कि इसे चाटकर टेस्ट करने की कोशिश भी न करें क्योंकि वो भी जानलेवा हो सकता है।
राहुल गांधी के बाद वो उन चंद बड़े कांग्रेसी नेताओं में होंगे जिसने सीधे तौर पर आरएसएस का नाम इस रूप में लिया है।
फ़ारूक़ अब्दुल्लाह का चुनावी बॉन्ड की तरफ़ इशारा
जम्मू-कश्मीर के पू्र्व मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्ला और राहुल गांधी ने अपने-अपने ढंग से कहा कि संविधान पर ख़तरा मंडरा रहा है।
राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि चुनाव आयोग और दूसरी संस्थाओं से मिलकर मोदी सरकार इस पूरे चुनाव को फिक्स मैच की तरह करवाने की कोशिश कर रही है। उन्होंने कहा कि उनका मक़सद ये है कि वो संविधान को पूरी तरह से बदलना चाहते हैं।
हालांकि उन्होंने साफ़ किया कि उनकी ऐसी कोशिश कामयाब नहीं होगी क्योंकि इससे देश के टूटने का ख़तरा पैदा हो जाएगा।
वहीं फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने अपनी स्पीच में उस बात का जि़क्र किया जिसमें छह सौ से अधिक वकीलों ने मुख्य न्यायधीश को ख़त लिखकर न्यायपालिका पर धब्बा लगाये जाने के आरोप लगाये हैं।
ये चि_ी इन वकीलों ने देश की सबसे ऊंची अदालत के उस फ़ैसले के बाद भेजी है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड को ग़ैरक़ानूनी बताया था और बॉन्ड जारी करनेवाली कंपनी स्टेट बैंक को हुक्म दिया था कि वो बॉन्ड और उससे संबंधित सारी जानकारियां सार्वजनिक करे।
इसके बाद इस तरह की रिपोर्टें आईं हैं काफी कंपनियों ने छापों और गिरफ्तारियों के बाद बीजेपी को चंदा दिया है। विपक्ष का आरोप है कि ऐसा दबाव बनाने की वजह से हुआ है।
केजरीवाल की तरफ़ से सुनीता केजरीवाल के वादे
समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल की गिरफ़्तारी पर जर्मनी, अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र की प्रतिक्रिया की बात करते हुए कहा कि इससे दुनिया में भारत की बेइज्ज़ती हुई है।
महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और कभी बीजेपी के सहयोगी दल रहे शिव सेना के प्रमुख उद्धव ठाकरे ने मिली-जुली सरकार की बात कही।
हालांकि सुनीता केजरीवाल के भाषण की बात आखऱिी समय में सामने आई मगर उसमें उन्होंने अरविंद केजरीवाल के एक खत के ज़रिये गरीबों को मुफ्त बिजली से लेकर आप की सरकार बनने पर दिल्ली को पू्र्ण राज्य का दर्जा दिलाने जैसा वायदा किया था।
सुनीता केजरीवाल ने अरविंद केजरीवाल की तरफ़ से ये भी कहा कि उन्हें उम्मीद है कि दूसरे सहयोगी दल उनसे बिना विचार-विमर्श के किए गए इन वादों को लेकर बुरा नहीं मानेंगे।
सुनीता केजरीवाल का ये भी कहना था कि अरविंद केजरीवाल ने इन वादों पर आनेवाले ख़र्च का पैसा कहां से आएगा इसको लेकर पूरी रुपरेखा तैयार कर ली है।
रविवार को रामलीला मैदान में अपनी बातचीत में सुनीता केजरीवाल में पहले से अधिक आत्मविश्वास दिखा – पिछले हफ्तेभर में जनता से सीधे तौर पर उनका ये तीसरा संवाद है।
सपा के कार्यकर्ता नहीं, कांग्रेसी भीड़ तक सीमित
इसी रामलीला मैदान में 2010-2011 में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ अरविंद केजरीवाल और सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हज़ारे और अन्य लोगों ने धरना-प्रदर्शन और अनशन किया था जिसके निशाने पर उस वक्त की कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार थी।
कांग्रेस कार्यकर्ताओं से इस बाबत पूछने पर वो कहते रहे कि पूरे मामले में जिस तरह से चुनाव के बिल्कुल पहले कार्रवाई की जा रही है उन्हें उसको लेकर शिकायत है।
कांग्रेस कार्यकर्ताओं का ज़ोर भीड़ तक ही सीमित था, पानी पिलाने तक का काम आप पार्टी के कार्यकर्ता कर रहे थे। दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश से आने के बावजूद सपा का कोई भी वोलंटियर वहां नहीं दिखा।
और तमाम दावों के बावजूद विपक्षी एकजुटता और उसके चेहरे को लेकर अभी तक स्थिति साफ़ नहीं दिखती। चुनावी महीने की शुरुआत हो चुकी है और यही विपक्षी गठबंधन के सामने बड़ी चुनौती है। (bbc.com/hindi)
अपूर्व गर्ग
सोनम वांगचुक 21 दिनों तक लद्दाख और पर्यावरण के सवाल पर आमरण अनशन पर बैठे ।उनका संघर्ष अब भी जारी है । सोनम वांगचुक के बाद लेह में 70 महिलाएं अनशन पर बैठीं हैं ।
्रस्नस्क्क्र के विरोध में 16 साल तक भूख हड़ताल करने वाली आयरन लेडी इरोम शर्मिला का संघर्ष भी इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज है ।
इरोम की लड़ाई याद करते हुए जब मैं सोनम वांगचुक पर सोचता हूँ कि वो भी यदि चुनाव लड़ें तो क्या होगा?
क्या इरोम की तरह 90 वोट मिलेंगे?
नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर की तरह मुंबई चुनाव में मिली बुरी हार जैसा हश्र होगा ?
वैसे स्वामी अग्निवेश ने भी 2004 में प्रधानमंत्री वाजपेयी के खिलाफ चुनाव लडऩे का ऐलान किया था और बाद में सेक्युलर वोट न बँटे इसलिए नाम वापिस ले लिया था।
हमारे देश में अब तक एक्टिविस्ट जिन्होंने अपने आंदोलन से दुनिया में जगह बनाई, पर राजनीति में पिटते रहे और चुनावी मुकाबले में बिल्कुल टिक न पाए!
सबसे बुरा झटका इरोम शर्मिला को लगा, जिन्होंने मुख्यमंत्री बनने का सपना देखकर मणिपुर की सेवा करनी चाही थी पर जनता ने उनकी जमानत ही जब्त करवा दी थी।
आखिर क्यों सामाजिक कार्यकर्ता चुनावी लड़ाई में पिट जाते हैं?
सामाजिक कार्यकर्ता ही नहीं लाखों की रैली निकलने वाले ट्रेड यूनियन नेता भी कुछ सौ वोट्स में सिमटते रहे।
शराब बंदी के आंदोलन में जो समर्थन देगा वो उस आंदोलन के नेता को चुनाव में वोट नहीं देगा।
ट्रेड यूनियन आंदोलन में आर्थिक हितों की सुरक्षा जो चाहेंगे वो अपने ट्रेड यूनियन नेता को या उनकी पार्टी को चुनाव में कितना समर्थन दे रहे ये तस्वीर देश के सामने है, कहने की जरूरत नहीं। आर्थिक सुरक्षा चाहिए पर वोट डालते समय उन्हें अपनी जात, क्षेत्र, धर्म सब दिखता है पर मुद्दा गायब हो जाता है।
उन्नाव कि पीडि़ता के साथ उन्नाव खड़ा रहा पर जब उसकी माँ ने चुनाव लड़ा तो वो ज़मानत तक नहीं बचा पाई।
जब तक आप सामाजिक मुद्दों को लेकर लड़ते हैं मीडिया आप को कवरेज देता है पर जैसे ही चुनाव लडऩे की सोचकर इस व्यवस्था को बदलने का चुनाव करते हैं, एक-एक लाइन के कवरेज से वंचित हो जाते हैं ।
अपनी चुनावी बात, मुद्दों को रखने के लिए कौन सा प्लेटफार्म बचता है ?
एक्टिविस्ट के पास न वैसी चुनावी कार्यकर्ताओं की प्रोफेशनल टीम होती है न फण्ड और न प्रचार-प्रसार के साधन और न ही ऐसा विस्तृत नेटवर्क जिससे जनता के दिमाग के दरवाजे खोल सकें ।
दरअसल, जनता के दिमाग में सदियों से चुनाव को लेकर जो सोच बनी है जो विचार हैं और जो परंपरा है वो पूरी तरह से सदियों से
स्थापित नैरटिव के आधार पर चलती है। सीधे शब्दों में जनता के दिमाग पर पूंजीवादी सामंती मूल्यों के जाले छाए हुए हैं । इन धारणाओं को दूर करने के लिए और अपनी बात जन-जन तक पहुँचाने के लिए मजबूत संगठन चाहिए। चुनावी बात रखनी है तो चुनावी संगठन होना चाहिए जो अपनी पार्टी की बात जनता तक पहुंचा सके।
सिर्फ पर्यावरण आंदोलन या सामाजिक आंदोलन या ट्रेड यूनियन आंदोलन कर इस व्यवस्था में चुनाव जीतना तो दूर जमानत तक नहीं बचती यही इतिहास है।
एक्टिविस्ट हैं चुनाव लडऩा है तो अपने विचारों के अनुरूप पोलिटिकल पार्टी में शामिल होकर लड़ें तो बेहतर है या मजबूत संगठन है तो जनता के हर तबके को शामिल कर अपनी मजबूत पार्टी बनाने चाहि।
किसी एक आंदोलन में हीरो बनकर या तपकर निकलने के बाद चुनाव जीता जा सकता तो इरोम शर्मिला गुमनाम न होतीं।
ये बात इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि खबर है अंकिता भंडारी को न्याय दिलवाने की लड़ाई लडऩे वाले शायद पहली बार निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर लडऩे वाले हैं।
अंकिता को न्याय मिले ये सब दिल से चाहते हैं। सवाल है जो जनता अंकिता के मुद्दे पर पूरा समर्थन दे रही वो
वोट कितना देगी?
उन्नाव पीडि़ता की माँ का ताजा उदाहरण सामने है।
दो बातें हो सकती हैं या तो पूरी मजबूती के साथ व्यापक संगठन बनाते हुए पूरे संसाधनों का इस्तेमाल कर चुनाव लड़ें या स्वामी अग्निवेश की तरह वैचारिक आधार पर किसी को समर्थन दें।
आगे जो भी हो। हर ऐसा एक्टिविस्ट सफल रहे हमारी तो ऐसी शुभकामनाएं रहेंगी ही।
लता विष्णु
कुछ दवा कंपनियां हमेशा गलत वजहों से सुर्खियों में बनी रहती हैं। ऐसी ही एक कंपनी है फाइजर। यह खुद को दुनिया की प्रमुख बायोफार्मास्युटिकल कंपनियों की तरह से पेश करती है, जो जिम्मेदार तरीके से लोगों और इस प्लेनेट के स्वास्थ्य और कल्याण को प्राथमिकता देने की बात करती है। अगर वास्तव में यह सच है तो इस बात की भी संभावना नहीं है कि कंपनी को मरीजों और सरकारों की ओर से बहुत सारे मुकदमों का सामना करना पड़ेगा।
हाल के दिनों में अमेरिका के टेक्सास राज्य ने फाइजर के खिलाफ अपने कोविड-19 वैक्सीन की प्रभाव को जानबूझकर गलत तरीके से पेश करने का आरोप लगाते हुए मुकदमा दायर किया गया है। अटॉर्नी जनरल केन पैक्सटन ने कहा, ‘फाइजर का यह दावा कि उसका टीका 95 प्रतिशत प्रभावी है, पूरी तरह से भ्रामक है।’ क्योंकि इसने केवल दो महीने के क्लिनिकल टेस्ट डेटा के आधार पर सापेक्षिक जोखिम में कमी बताई। जबकि टीका (टीके का नाम कॉमिरनाटी है) हासिल करने वालों में पूर्ण जोखिम में कमी सिर्फ 0.85 प्रतिशत थी।
अमेरिका की इस बहुराष्ट्रीय कंपनी के खिलाफ सबसे गंभीर आरोप यह है कि उसने उन लोगों को सेंसर करने की धमकी दी, जो वैक्सीन के प्रभावी होने के सच से पर्दा उठाना चाहते थे। फाइजर को लगता था किसी तरह के अभियान से प्रोडक्ट को तेजी से अपनाने और इसके वाणिज्यिक विस्तार पर असर पड़ेगा।
रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक, मुकदमे में उपभोक्ताओं को भ्रामक विज्ञापन से बचाने वाले टेक्सास कानून का उल्लंघन करने के लिए 10 मिलियन डॉलर से अधिक के जुर्माने की मांग की गई है। इसके अलावा फाइजर पर कथित झूठे दावे और उसके टीके के बारे में सही बात बताने पर चुप्पी साधने का भी आरोप है। फाइजर ने 2021-22 में कॉमिरनाटी से 74 अरब डॉलर से अधिक का रेवेन्यू हासिल किया।
ऐसा प्रतीत होता है कि अपने खिलाफ गलत धारणा को झूठा साबित करने में फाइजर लगातार विफल हो रही है। अमेरिकी न्याय विभाग के मुताबिक, धोखाधड़ी या गुमराह करने के इरादे से दर्द निवारक बेक्सट्रा की गलत ब्रांडिंग करने के मामले में भी फाइजर को नुकसान हुआ। आपराधिक आरोपों के आंशिक निपटान में किए गए सबसे बड़े भुगतान में से एक 2.3 बिलियन डॉलर था।
2009 में फाइजर ने झूठे दावे अधिनियम के तहत लोगों को भरमाने या गलत कार्यों के आरोपों को हल करने के लिए एक बिलियन डॉलर का भुगतान किया। फाइजर पर यह भी आरोप लगा कि वह अवैध रूप से बेक्सट्रा और तीन अन्य दवाओं, एंटीसाइकोटिक जियोडॉन, एंटीबायोटिक जायवॉक्स और मिर्गी-रोधी दवा लिरिका का प्रचार कर रहा है। हालांकि कंपनी ने इनमें से किसी भी समझौते में गलत काम करने को स्वीकार नहीं किया है।
ऐसा नहीं है कि दवा बनाने की अन्य दिग्गज कंपनियां निर्दोष हैं। लगभग सभी बिग फार्मा पर कदाचार का आरोप और जुर्माना लगाया गया है। लेकिन फाइजर अपने खिलाफ लगाए गए कई आपराधिक आरोपों और बड़े पैमाने पर निपटान के लिए खड़ा है। यह वह बहुराष्ट्रीय कंपनी है जिसने आक्रामक अभियान के माध्यम से बौद्धिक संपदा अधिकारों (आईपीआरएस) को वैश्विक व्यापार व्यवस्था में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 20वीं सदी की शुरुआत तक अधिकांश यूरोपीय देश आईपीआरएस के पक्ष में नहीं थे और अपने आइडियाज की अवधारणा केवल अमेरिका और ब्रिटेन के पक्ष में रही थी।
यह बात और है कि अमेरिकी अपने पूर्व उपनिवेशक ब्रिटेन से ज्ञान और जानकारियों को चुराकर ही औद्योगिक रूप से फले-फूले। फोर्डहम विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर डोरोन बेन-अटार ने अपनी बुक ट्रेड सीक्रेट्स: इंटेलेक्चुअल पाइरेसी एंड द ओरिजिन्स ऑफ अमेरिकन इंडस्ट्रियल पावर में इस बात पर दिलचस्प जानकारी भी दी है। वह बताते हैं कि अमेरिका का पेटेंट कार्यालय उन उपकरणों के लिए उदारतापूर्वक पेटेंट दे रहा था, जो कहीं और इस्तेमाल में लाए जा रहे थे।
कुछ साल पहले इस स्तंभकार के साथ एक इंटरव्यू में बेन-अटार ने कहा था कि जब अमेरिका अपने नागरिकों, स्वैच्छिक संगठनों और सरकारी अधिकारियों को यूरोपीय आविष्कारों और कारीगरों को नई दुनिया में तस्करी के लिए प्रोत्साहित कर रहा था, तो वह उसी समय युवा गणतंत्र को भी रोक रहा था। कानून बनाकर नवाचार का एक अनुकरणीय रक्षक दूसरे मानकों से आगे निकल गया। यह बात अलग है कि यूरोप के ज्यादातर देश प्रभावित नहीं हुए।
उदाहरण के लिए, नीदरलैंड 20वीं सदी के शुरुआती दशकों तक आविष्कारों में मुक्त व्यापार को कायम रखने के लिए प्रतिबद्ध था। लेकिन हमारा ध्यान संकीर्ण है। कैसे चिकित्सा क्षेत्र में पेटेंट अपनी जड़ों को मजबूत कर चुका है, जिसे सार्वजनिक हित माना जाता है, लेकिन इसने हमारी नैतिक नींव को कमजोर कर दिया है। यही नहीं कैसे जीवन रक्षक दवाओं के उत्पादन के कानूनी अधिकार को पेटेंट सिस्टम द्वारा सीमित कर दिया गया है। खोजी पत्रकार और लेखक अलेक्जेंडर जैचिक ने बिग फार्मा के पावर गेम पर विस्तार से लिखा है।
उनके मुताबिक फाइजर के सीईओ एडमंड टी प्रैट जूनियर ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नियमों में आईपीआरएस को शामिल करने पर खास काम किया था। उनका मानना था कि वैश्विक स्तर पर दक्षिण-आधारित जेनेरिक उद्योग के उदय और 1970 के दशक से संयुक्त राष्ट्र में विकासशील देशों के समूह जी 77 (77 का समूह) द्वारा बढ़ती सक्रियता चिंताजनक है।
विकसित देशों से गरीब देशों में चिकित्सा प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण के लिए दबाव बनाना एक महत्वपूर्ण बिंदु था। इसमें उन्हें कामयाबी भी मिली जब वो डेनिश डॉक्टर हाफडेन महलर को विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक के रूप में नियुक्ति कराने में कामयाब हुए। महलर ने जी 77 के पीछे अपना जोर लगा दिया। 1978 में सोवियत शहर अल्माटा के सम्मेलन में उन्होंने गरीब देशों को अपने घरेलू दवा उद्योगों का निर्माण करके दवा खर्च को कम करने में मदद करने के लिए एक कार्यक्रम भी पेश किया।
सम्मेलन के अंत में की गई घोषणा में कहा गया कि स्वास्थ्य का समानता और सामाजिक न्याय पर मानव अधिकार है। जैचिक का कहना है कि इस की घोषणा से फाइजर चिंतित हुआ, क्योंकि इस तरह की घोषणा का अर्थ यह था कि बहुराष्ट्रीय कंपनी विशेष रूप से एशिया में दवाओं और कृषि उत्पादों के लिए वैश्विक बाजारों पर हावी होने की महत्वाकांक्षी योजनाओं खतरे के तौर पर देखा।
उन्होंने खुलासा किया कि प्रैट ने जी 77के प्रभाव और जेनेरिक उद्योग के उदय का मुकाबला करने की योजना पर चर्चा करने के लिए दवा उद्योग के अधिकारियों के एक समूह को इक_ा किया। स्वाभाविक तौर पर फाइजर जवाबी हमले का स्वाभाविक नेता था क्योंकि इसके वकील दुनिया भर में आत्मघाती संबंधी उल्लंघन के मुकदमे शुरू करने के लिए मशहूर थे।
इसका सबसे कुख्यात पेटेंट मुकदमा यूके सरकार के खिलाफ था जब राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा नेफाइजर-पेटेंट एंटीबायोटिक, टेट्रासाइक्लिन का एक इतालवी जेनेरिक संस्करण की खरीद की थी। इस बात पर ध्यान न दें कि फाइजर ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पेनिसिलिन के उत्पादन पर पूंजी लगाई थी जिसे ऑक्सफोर्ड में खोजा और विकसित किया गया था और सार्वजनिक डोमेन में छोड़ दिया गया था। हालांकि फाइजर मुकदमा हार गया। जैचिक के मुताबिक इसने पूरे यूरोप में आधुनिक ‘पोस्ट-एथिकल’ अमेरिकी दवा उद्योग के लिए गंभीर रूप सेकाम किया, जहां दवा पेटेंट अभी भी व्यापक रूप से प्रतिबंधित थे।
प्रैट ने विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (डब्ल्यूआईपीओ) जैसे अन्य मंचों पर आईपीआरएस पर एक बाध्यकारी समझौते के उद्योग के विचार को लगातार आगे बढ़ाया। यही बात जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ्स एंड ट्रेड पर उरुग्वे दौर की वार्ता में उठी जो बाद में, 1995 में विश्व व्यापार संगठन के रूप में सामने आया। गैट संयुक्त राष्ट्र की तरह लोकतांत्रिक नहीं था। इसके व्यापक समझौते जो सबसे अमीर देशों के पक्ष में थे वो सभी सदस्यों के लिए बाध्यकारी थे। यह डब्ल्यूटीओ था जहां आईपीआरएस की पकड़ को बनाए रखने के लिए बौद्धिक संपदा अधिकारों (यात्राओं) के व्यापार-संबंधित पहलुओं पर समझौते के रूप में औपचारिक रूप दिया गया था।
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जब 2019 में 100 वर्षों में सबसे खराब महामारी ने दुनिया को प्रभावित किया, उस वक्त विकसित देशों द्वारा समर्थित फाइजर और उसके सहयोगियों ने जीवन-रक्षक उपाय के रूप में भी यात्राओं की छूट देने से इनकार कर दिया था। (डाऊन टू अर्थ)
शुरैह नियाजी
मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिले के मोहाद गांव में रहने वाले मुस्लिम परिवारों के लोग बरसों बाद सुकून से रमजान मना रहे हैं।
इन्हीं में एक इमाम तड़वी भी हैं। चार बच्चों के पिता इमाम अपनी बच्ची को एक सुबह स्कूल छोडऩे जा रहे थे तभी पुलिस ने उन्हें रोक लिया था।
ये घटना जून, 2017 की है, जब इस गांव से हजारों किलोमीटर दूर लंदन में भारत और पाकिस्तान के बीच चैंपियंस ट्राफी का मैच खेला गया था और भारत वो मैच हार गया था।
लेकिन इस मैच से बेखबर 17 युवक और 2 नाबालिगों के लिए ये मैच उनकी जि़दगी में ऐसा पल बन गया जिसे वो याद करके सिहर उठते हैं।
30 वर्षीय इमाम ने बताया कि स्कूल के रास्ते में पुलिस ने उनके साथ बदतमीज़ी की और उनकी बच्ची को धक्का मार दिया गया जिसकी वजह से उसे नाक में चोट आई। वे कहते हैं कि उस दिन उनकी बेटी को लेकर कोई दूसरा व्यक्ति घर गया जबकि उन्हें पुलिस अपने साथ लेकर चली गई।
इमाम की आपबीती
इमाम कहते हैं, ‘मुझे क्रिकेट के बारे में कुछ भी नही मालूम है। लेकिन मैं उसकी वजह से जितना भुगता उसे में बयान नही कर सकता।’
उन्होंने बताया कि पुलिस घर वालों को कई दिन तक परेशान करती रही जिसकी वजह से वो लोग घर छोड़ कर भाग गए।
इमाम दावा करते हैं कि उनके परिजनों को गालियां दी जाती थी और बेइज्जत किया जाता था जिसकी वजह से परिवार ने कई दिन दूसरों के खेतों में सोकर गुजारे।
इमाम अब खेतों में काम करने जा रहे हैं और उन्हें रोज के ढाई सौ से लेकर तीन सौ रुपये तक मजदूरी मिलती है और केस से बरी होने के बाद उनका यह पहला रमज़ान है जब उन्हें अपने मुक़दमे के बारे में नही सोचना पड़ रहा है। उनका कहना है कि उन्हें आज भी नही पता है कि क्रिकेट में कौन-कौन से खिलाड़ी हैं लेकिन उसके बावजूद भी उन्हें उसके लिए परेशान होना पड़ा।
इमरान शाह की कहानी
इमाम तड़वी की तरह ही 32 वर्षीय इमरान शाह को भी पुलिस ने उस दिन गिरफ़्तार किया था। उस समय वो ट्रक में मक्का भर रहे थे। उन्हें पता ही नही था कि उन्हें किस वजह से गिरफ्तार किया जा रहा है।
इमरान ने बीबीसी को बताया, ‘उस समय को हम याद नही करना चाहते हैं। उस समय मेरे साथ पूरा परिवार इतना परेशान रहा कि बता नही सकते हैं। हमें तो गिरफ्तार कर लिया गया था लेकिन परिवार को भी भागना पड़ा था क्योंकि पुलिस कभी भी घर पर आ जाती थी और परिवार वालों से बदतमीजी करती था। घर वाले छुपकर जंगलों में सोते थे।’
इमरान के परिवार में उस समय उनकी मां, पिता, पत्नी और तीन बच्चें थे। इमरान ने इस मामले की वजह से डेढ़ लाख रुपये का उधार लिया है जिसका ब्याज ही वो किसी तरह से चुके पा रहे हैं।
उनका कहना है कि एक साल तक उन्हें हर हफ्ते थाने में जाना होता था जो उनके गांव से 12 किलोमीटर दूर था। इस दौरान वो मजदूरी भी नहीं कर पा रहे थे इसलिए परिवार चलाने के लिए उधारी लेनी पड़ी।
इमरान ने बताया, ‘जितना हमने उस दौरान भोगा उतना ही हमारे परिवार को भी भुगतना पड़ा। पुलिस वाले कभी भी घर पर आ जाते थे और परिवार वालों को गाली देते थे और बदतमीजी करते थे।’
क्या है मामला
मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिले के मोहाद गांव में रहने वाले 17 युवक और 2 नाबालिगों पर चैंपियंस ट्रॉफी के उस मैच के बाद ये आरोप लगा था कि वे पाकिस्तान की जीत का जश्न मना रहे थे।
उन पर पाकिस्तान की जीत को लेकर खुशियां मनाने, पटाखे फोडऩे और मिठाइयां बांटने का आरोप लगाया गया था।
लेकिन कोर्ट ने पिछले साल अक्टूबर में इन सब को सभी आरोपों से बरी कर दिया और पाया कि पुलिस ने इन पर फर्जी मामला दर्ज किया और गवाहों पर गलत बयान देने के लिये दबाव बनाया।
इस मामले में परेशान होकर एक अभियुक्त ने 2019 में आत्महत्या भी कर ली थी।
पहले इन लोगों पर राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया लेकिन बाद में उसे पुलिस ने बदलकर आईपीसी की धारा 153ए के तहत दर्ज किया जिसमें उन पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने जैसे आरोप लगाए गए।
गवाह का अपने बयान से पलटना
इस मामले में पुलिस ने जिन्हें गवाह बनाया था उनका भी कहना था कि इस तरह का कोई मामला हुआ ही नही है।
इस गांव में रहने वाले तड़वी मुसलमान हैं और ज्यादातर लोग मजदूरी करते हैं। आमतौर पर यह लोग खेतों पर काम करके अपना गुजर-बसर करते हैं।
इनका केस लड़ रहे वकील शोएब अहमद ने बीबीसी को बताया, ‘इस मामले में गवाह ही इस बात को नही मान रहे थे कि गांव में इस तरह की कोई चीज हुई है। गवाह अपनी बात पर अड़े रहे। इसके बाद कोर्ट ने फैसला हमारे हक में सुना दिया। ये लोग काफी गरीब हैं और मुश्किल से अपना गुजर बसर कर पाते हैं। खुशी मनाने के लिए न तो इनके पास पैसे हैं और न ही इन्हें क्रिकेट का कोई ज्ञान है।’
हालांकि कोर्ट ने इस मामले में पुलिस वालों के खिलाफ किसी किस्म की कारवाई का कोई आदेश नहीं दिया है जिनकी वजह से इन लोगों को बरसों परेशानी का सामना करना पड़ा।
शोएब अहमद ने बताया कि इन लोगों की पहली कोशिश यही थी कि वो किसी भी तरह से इस मामले से बरी हो जाएं। ये लोग इतने गरीब हैं कि पुलिस से वे लडऩा नहीं चाहते हैं।
इस मामलें में दो नाबालिगों को भी अभियुक्त बनाया गया था जिन्हें किशोर अदालत ने जून, 2022 में बरी कर दिया था।
हालांकि उसके बाद उन दोनों की जिंदगी कभी भी पटरी पर नही लौट पाई और दोनों ही कम उम्र में काम पर लग गए।
इस मामले में एक रुबाब नवाब ने फरवरी, 2019 में आत्महत्या करके अपना जीवन समाप्त कर लिया।
उनके परिवार के मुताबिक, उन पर लगे आरोप और रोज-रोज की बेइज्ज्जती की वजह से उन्होंने ऐसा किया।
नए सिरे से जिंदगी
बाकी बचे लोग भी अब अपनी जिंदगी को नये सिरे से आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं और मजदूरी कर रहे हैं। लेकिन बरसों के मिले जख्म अब भी उन्हें बैचेन करते रहते हैं।
इस मामले में एक मुख्य गवाह सुभाष कोली ने घटना के कुछ दिनों बाद ही मीडिया के सामने आकर कह दिया था कि इस तरह का कोई मामला नही हुआ है और पुलिस ने उन्हीं के मोबाइल फोन से डायल 100 नंबर पर कॉल करके ये मामला दर्ज किया था।
जबकि कोली उस समय अपने पड़ोसी अनीस मंसूरी को बचाने के लिए गए थे जिन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। कोली अब दुनिया में नही हैं। कुछ महीने पहले उनकी मौत कैंसर से हो गई।
इस पूरे मामले में पुलिस के अधिकारी अब बात नही करना चाहते हैं। इस मामले में भोपाल में अधिकारियों से संपर्क किया गया लेकिन उन्होंने जवाब नही दिया।(bbc.com/hindi)
कनुप्रिया
जब चारों ओर से निराशाजनक सुनने को मिलता हो तो कभी-कभी किसी से मिलना बहुत सुखद लगता है।
आज एक ऐसी ही लडक़ी से मुलाकात हुई जिससे मिलकर आश्चर्य भी हुआ और खुशी भी।
लडक़ी 23-24 साल की, माँ बचपन मे ही नही रहीं, 5 बहने हैं, 2 बहनों की शादी हो गई, दो दूसरे शहरों में जॉब कर रही हैं, और लडक़ी सबसे छोटी। (नाम नहीं लिख रही हूँ)। पिछले साल पिता की भी मृत्यु हो गई। पिता की एक छोटी खादी संस्था है, उनके जाने के बाद लडक़ी ने उसे संभाल लिया। वो एम ए इंग्लिश कर रही है, रात को समय मिलने पर govt jobs के लिये तैयारी करती है, दिन में संस्था का काम देखती है, संस्था का अकाउंट, ऑडिट, production ,sale, कर्मचारियों की तनख्वाह सभी कुछ। कहीं कुछ दिक्कत हो सरकारी दफ्तरों में तो उनके चक्कर भी लगाती है, दूसरे शहर जाकर भी। आदमियों से भरी मीटिंग्स अकेली female representative की तरह attend करती है। और ऐसा सब करते हुए बेहद सहज है, पता नहीं उसमें क्यों ये एहसास नजर ही नही आया कि वो कुछ खास है।
उससे मिली तो पाया न वो उदास थी न संघर्ष से चेहरा म्लान, न हतोत्साहित, न निराश। मेरे किसी सवाल पर उसने बेहद सहजता से कहा , ये तो मुझे करना ही होगा, इसके सिवा चारा क्या है। उसे पता है कि क्या करना है, कैसे करना है, ये अच्छी बात है। शायद परिवार का साथ है, बहनें बीच-बीच में आती जाती हैं, उसे संभालती हैं।
सोचती हूँ अकेली लडक़ी, क्या समाज उसे चैन से जीने देता होगा, अकेली कैसे रहती हो, शादी कब करोगी, कोई तो होना चाहिये न तुम्हें संभालने वाला ऐसे सवाल उसे सुनने को मिलते होंगे?
वो 5 बहने हैं, जाहिर है पेरेंट्स को लडक़ा चाहिए होगा, आज वो उसे देखते और उन सबको देखते तो क्या उन्हें लगता कि लड़कियाँ हुईं तो कुछ कमी रह गई? अगर समाजिक मानसिकता सुरक्षा लड़कियों के साथ हो तो वो भी वही सब सहजता से कर सकती हैं जो कोई लडक़ा कर सकता है, और फिर शायद आश्चर्य वाली कोई बात भी न रहे।
समाज की मानसिकता पर बात तो हमेशा होती ही है, मगर अब लड़कियों को भी यही कहना है, कोई आएगा लाएगा दिल का चैन, कोई प्रिंस चार्मिंग, कोई distress damsel को बचाने वाला, कोई आपके जीवन को संवारने वाला अगर ऐसी कोई खाम खयाली हो तो उससे बाहर निकलिए, दुनिया मे कोई आपकी जिम्मेदारी लेने के लिये पैदा नही हुआ है।
प्रेम और सहचर्य अलग बात है, वो सभी को चाहिये होता है, मगर अपनी जिंदगी की बागडोर अपने हाथ मे लेना जरूरी है, आपका जीवन आपका है और उसकी जिम्मेदारी आपकी है ये समझना जरूरी है। तब ये भी बेहतर समझ आएगा कि कभी किसी और के हाथ में देनी भी हो तो उसका पात्र कौन होना चाहिए और पात्र न मिले तो भी अपना जीवन है, किसी और के लिये पैदा नहीं हुए तो उसे किस तरह जीना चाहिए, ये जानना समझना जरूरी है।
आभा शुक्ला
एक वीडियो वायरल हो रहा है। एक बाईक सवार जा रहा है। पीछे बाईक पर दो हिजाब पहने खातून बैठी हैं। दोनों के बार-बार मना करने के बाद भी उनको रंग और पानी से नहलाया जा रहा है। एक लडक़ा डंडा लिए पास मे खड़ा है। सबसे पीछे बैठी खातून के गालो को छूकर गालों पर रंग लगाया गया है।
क्या कर लिया ये करके ?
एक समुदाय के कुछ लोगों की उद्दंडता पूरे देश ने देख ली। कुछ लोगों ने इसको पूरे समुदाय की उद्दंडता मानकर स्वीकार भी कर लिया। हमारे त्योहार पर उंगली उठ गई। पर इससे ऐसा करने वालो को क्या मिला।
कुछ नहीं मिला उनको पर जो मैसेज गया उससे नुकसान हम सबका हुआ। डंडे के दम पर अगर उनको रंगीन पानी से सराबोर कर भी दिया आपने तो भी देशहित, हिन्दूहित या धर्महित के क्या कर लिया आपने। कुछ नहीं कर लिया बस इन तीन लोगों के मन से अपने त्योहार का सम्मान समाप्त कर दिया।
वैसे इनसे पुछिये कि अगर तुम होली पर मुस्लिम महिलाओं को जबरदस्ती रंग लगाओ तो अगर वो ईद पर तुम्हारी महिलाओं से जबरदस्ती गले मिलें तो तुम्हे कोई आपत्ति तो नहीं होगी ना। पूछ कर देख लीजिये। दिवाली की चरखी जैसे उछल जायेंगे अभी।
हम ये क्यों भूल जाते हैं कि जन्मजात मिले दो हाथो को उठाकर हम किसी का दिल नहीं जीत सकते। पर उन्हीं दो हाथों को जोडक़र हम सैकड़ों का दिल जीत सकते हैं।
ये मु_ी भर लोग जो 2014 के बाद आजादी पाये हैं ये कभी किसी दुसरे धर्म वाले के यहां होली पर 250 ग्राम गुझिया लेकर नहीं जाते अपना त्योहार दिखाने। बस ये उद्दंडता करके अपनी संस्कृति और त्योहार पर हजारों सवाल उठवाने चल देते हैं।
इसी नस्ल ने पूरे देश का बंटाधार कर रखा है।
हम आप ये कर सकते हैं कि कम से कम इनकी ऐसी हरकत का विरोध कर सकते हैं। और अगर नहीं कर सकते हैं या वो हमारी नहीं सुनते हैं तो कम से कम हम डॉयल 112 बुलाकर इनका जोश ठंडा कर सकते हैं और वो हमको करना चाहिए अगर ये कहीं भी किसी महिला को जबरन छूते हुए दिखे तो।
समाजहित में इतना दायित्व आज जरूर निभाईयेगा।
-मयूरेश कोण्णूर
भारत के कई राज्यों में अनुसूचित जनजातियों के कुछ लोग धर्म के आधार पर आरक्षण के मुद्दे को लेकर एक दूसरे के सामने खड़े हो गए हैं।
आदिवासी या अनुसूचित जनजाति के लोग धार्मिक विश्वास के आधार पर तो बंटे हुए हैं ही लेकिन डीलिस्टिंग की मांग ने उनके बीच इस अविश्वास को और बढ़ा दिया है।
ये सवाल उठता है कि डीलिस्टिंग क्या है, यह कैसे आदिवासी समुदायों को प्रभावित कर रहा है और क्या इसका कोई राजनीतिक पहलू है, इन बातों को समझने के लिए हमने कुछ आदिवासी इलाकों का दौरा किया।
कुछ लोग मांग कर रहे हैं कि जिन आदिवासियों ने ईसाई या अन्य धर्म को स्वीकार कर लिया है उन्हें अनुसूचित जनजाति की सूची से बाहर किया जाए। इसे डीलिस्टिंग कहा जा रहा है। इस मांग से आदिवासी समुदाय में दरार पैदा हो रही है।
इस डीलिस्टिंग बहस के पीछे तो असल मुद्दा आरक्षण है लेकिन इसका एक धार्मिक पहलू भी है। यानी धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण। पिछले कुछ सालों में इस बहस के साथ धर्म परिवर्तन और घर वापसी जैसे मुद्दे भी जुड़ गए हैं।
धार्मिक पहचान
हमने झारखंड और छत्तीसगढ़ के उन इलाकों का दौरा किया जहां ये दरार साफ-साफ दिखती है। कोई भी ये महसूस कर सकता है कि आदिवासियों की सामूहिक पहचान पर हिंदू या ईसाई होने की धार्मिक पहचान हावी हो रही है जिससे उनके बीच धार्मिक ध्रुवीकरण हो रहा है और इसका असर राजनीति पर भी पड़ रहा है।
हमारी यात्रा झारखंड की राजधानी रांची से शुरू हुई। यहां भी कुछ सालों से डीलिस्टिंग के विरोध या पक्ष में कई आंदोलन हुए हैं। लेकिन जैसे-जैसे हम जंगल के अंदर बढ़ते हैं यह बहस और साफ दिखती है।
रांची से दो से तीन घंटे दूर, झारखंड और छत्तीसगढ़ की सीमा के पास गुमला तहसील में टोटो गांव की आबादी 100 है।
यहां घने जंगलों में पीढिय़ों से आदिवासी समुदाय रहते हैं और सदियों से अपनी परंपराओं और संस्कृति को संजोए हुए हैं।
यहां रहने वाले महेंद्र पुरव कहते हैं, ‘यह हमें बांटने की साजिश है। अगर ईसाई और सरना आदिवासी अलग कर दिए जाएं तो हम अल्पसंख्यक हो जाएंगे। वे हम पर सरना सनातन का लेबल लगाने की कोशिश करते हैं। मैं हिंदू नहीं हूं, मैं आदिवासी हूं। मैं प्रकृति पूजक हूं।’
डीलिस्टिंग की बहस?
इसी गांव के नारायण भगत कहते हैं, ‘जो लोग हमारे समुदाय से अलग हो गए वे हमारे रीति रिवाजों की इज़्जत नहीं करते। अगर वे हमारी संस्कृति की इज़्जत नहीं करते, हम उनका साथ कैसे दे सकते हैं?’
यहां हर कोई आदिवासी है लेकिन आजकल ‘स्थानीय’ और ‘बाहरी’ के बीच भेद किया जा रहा है। वे एक दूसरे के खिलाफ खड़े हैं और डीलिस्लिंग का मुद्दा उनके मतभेद को और बढ़ा रहा है।
आदिवासी इलाकों की रोजमर्रा की जिंदगी में डीलिस्टिंग का मुद्दा उनकी संस्कृति, सामाजिक पहचान और उनके आर्थिक-राजनैतिक अधिकारों से जुड़ा हुआ है।
संविधान के प्रावधानों के मुताबिक़ भारत में अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए अलग सूची है। अनुच्छेद 341 एससी और अनुच्छेद 342 एसटी से संबंधित है जो विभिन्न जनजातियों और जातियों को सूचीबद्ध करता है। हर समूह के लिए चयन का मापदंड बनाया गया है।
उनकी सांस्कृतिक विरासत, परंपराओं, जीवनशैली, रीति रिवाजों और प्रथाओं के आधार पर उन्हें विभिन्न राज्यों में वर्गीकृत और सूचीबद्ध किया गया है।
भारत का संविधान
आदिवासियों में धर्मांतरण और आरक्षण को लेकर कब खत्म होगी लड़ाई’, अवधि एसटी का आरक्षण कोटा 7.5 फ़ीसद है। पांचवीं अनुसूची के अनुसार, कुछ आदिवासी बहुल इलाकों को विशेष दर्जा (अनुसूचित क्षेत्र) दिया गया है और छठवीं अनुसूची के तहत पूर्वोत्तर के आदिवासी बहुल राज्यों को विशेष दर्जा और अधिकार दिया गया है।
इन राज्यों में एसटी समुदाय के लोगों के लिए राजनीतिक सीटें आरक्षित हैं।
हाल के सालों में उन आदिवासी समुदायों में ये मांग उठी है कि जिन लोगों ने ईसाई या इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया उन्हें एसटी की सूची से बाहर किया जाए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएस) से जुड़े वनवासी कल्याण आश्रम और नवजाति सुरक्षा मंच से डीलिस्टंग की जोरदार वकालत की जाती रही है।
सांस्कृतिक, धार्मिक, भाषाई और रीति रिवाजों के मद्देनजर आदिवासियों को कैसे शामिल किया जाए और उनका स्वतंत्र वजूद कैसे बनाए रखा जाए, यह अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा मुद्दा है। भारत के संविधान में इन समुदायों को स्वतंत्र अधिकार दिए गए हैं।
लेकिन देश के विभिन्न इलाक़ों में रहने वाले आदिवासी समुदाय के अंदर सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता ने अलग-अलग व्याख्याओं को जन्म दिया है। जंगल पर निर्भरता की वजह से अधिकांश आदिवासी प्रकृति पूजक के रूप में जाने जाते हैं।
विवाद का विषय
इसलिए वे आदि धर्म के अनुयायी कहे जाते हैं। इनमें कुछ ने सदियों तक अपने धर्म का पालन किया। भारत के पूर्वोत्तर से लेकर सुदूर दक्षिण तक हर आदिवासी समुदाय के अपने रीति रिवाज और पूजा पद्धतियां हैं। उदाहरण के लिए झारखंड में आदिवासी सरना धर्म की बात करते हैं।
कई आदिवासी समुदायों ने ख़ुद को हिंदू मानते हुए हिंदू परंपराओं को आत्मसात कर लिया। इसकी वजह से हिंदू राष्ट्रवादी संगठन उन्हें हिंदू मानते हैं।
छत्तीसगढ़ और झारखंड में ईसाई संगठन एक सदी से सक्रिय हैं और यहां कई लोग पीढिय़ों से ईसाई धर्म का पालन कर रहे हैं। धर्म परिवर्तन भारत में विवाद का विषय रहा है और खासकर हिंदू राष्ट्रवादी संगठन इसका विरोध करते रहे हैं।
1967 में पहली बार डीलिस्टिंग का मुद्दा तत्कालीन कांग्रेस नेता कार्तिक उरांव ने उठाया था। इस पर संसद में भी बहस हुई लेकिन फिर यह मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया।
डीलिस्टिंग की मांग का नया चेहरा ‘जनजाति सुरक्षा मंच’ है, जिसे 'वनवासी कल्याण आश्रम’ के तहत 2006 में स्थापित किया गया था।
क्या जन्म से जाति, जन्म से धर्म या आरक्षण का सवाल है?
डीलिस्टिंग की वकालत करने वाले लोग आदिवासियों को हिंदू मानते हैं। लेकिन इसके विरोधियों का तर्क है कि आदिवासियों का अपना स्वतंत्र धर्म, स्वतंत्र रीति रिवाज है और वे अपनी पसंद के किसी भी धर्म या पूजा पद्धति को मानने के लिए आजाद हैं। इसलिए अगर वे इस आजादी का इस्तेमाल करते हैं तो इससे उनका आरक्षण का अधिकार प्रभावित नहीं होना चाहिए।
डीलिस्टिंग के विरोधियों का दूसरा तर्क है कि आरक्षण किसी जाति या समुदाय के आधार पर दिया गया है, यानी यह जन्म से है। धर्म के आधार पर यह कैसे बदल सकता है? क्योंकि हमारा संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं देता।
ये सच है कि डीलिस्टिंग की मांग धर्मांतरण से प्रेरित है। लेकिन इन मुद्दों पर बात करते हुए हमें लगा कि डीलिस्टिंग की मांग में धार्मिक पहलू होने के साथ-साथ आर्थिक मुद्दा भी जुड़ा है।
आरक्षण का लाभ
आदिवासी ईसाई समुदाय अन्य के मुक़ाबले कहीं आगे हैं। डीलिस्टिंग की मांग करने वालों का कहना है कि ‘उन्हें’आरक्षण का लाभ मिलता है ‘हमें’ नहीं।
शैक्षणिक और आर्थिक असमानता को ईसाई आदिवासी नेता और समुदाय के सदस्य भी मानते हैं। लेकिन उनका तर्क है कि इसका कारण शिक्षा है। आरक्षण पाने के लिए शिक्षित होना ज़रूरी है और ईसाई आदिवासियों की कुछ पीढिय़ों को मिशनरी शिक्षण संस्थाओं से शिक्षा मिली। हालांकि ये शिक्षण संस्थाएं सभी के लिए हैं। उनका तर्क है, ‘हमारे आरक्षण के अधिकार पर उन्हें बेचौनी क्यों है?’
पढ़ाई-लिखाई और नौकरी-चाकरी में पिछड़ गए आदिवासियों का लगता है कि इसका हल आरक्षण है और उनके अनुसार सबसे पहले ईसाई आदिवासियों को आरक्षण के लाभ से वंचित किया जाए।
इसे डीलिस्टिंग से हासिल किया जा सकता है। इस तरह यह मुद्दा आदिवासी समुदाय में फैल रहा है और उन्हें आपस में बांट रहा है।
धर्मांतरण से एससी आरक्षण रद्द हो जाता है
तो एसटी आरक्षण का क्या होगा?
जनजाति सुरक्षा मंच का कहना है कि ईसाई या इस्लाम धर्म स्वीकार करने वाले आदिवासियों को दोहरा लाभ मिल रहा है।
आरएसएस से जुड़े वनवासी कल्याण आश्रम के नेशनल ज्वाइंट जनरल सेक्रेटरी रामेश्वर राम भगत कहते हैं, ‘आदिवासी लोगों को 10 प्रतिशत भी लाभ नहीं मिल रहा। लेकिन धर्मांतरण करने वाले दोहरा फायदा उठा रहे हैं। उन्हें एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यक दोनों का फायदा मिल रहा है।’
वो हमें संगठन के जशपुर मुख्यालय में मिले, जहां 1956 में इसकी स्थापना हुई थी।
ईसाई आदिवासी समुदाय के नेता इन आरोपों का खंडन करते हैं। जशपुर के कुंकुरी इलाके में स्थित चर्च एशिया के सबसे बड़े गिरिजघरों में से एक माना जाता है। यहां की अधिकांश आबादी ईसाई है। यहां डॉ। फूलचंद कुजूर एक बड़ा अस्पताल चलाते हैं।
वो कहते हैं, ‘अल्पसंख्यकों के लिए कोई सरकारी योजना या अलग आरक्षण नहीं है। केवल कुछ शिक्षण संस्थाओं में ही अलग से सुविधाएं हैं। लेकिन वहां सभी लोग पढ़ते हैं। ईसाई या मुस्लिम के लिए वहां कोई अलग योजना नहीं है। दोहरे फ़ायदे का तर्क सिर्फ भ्रम पैदा करने के लिए दिया जाता है। किसी को दोहरा फायदा नहीं मिल रहा।’
भारत में आरक्षण
धर्म के आधार पर भारत में आरक्षण नहीं दिया जाता लेकिन डीलिस्टिंग की मांग करने वाले संविधान में संशोधन की मांग करते हैं।
उनका तर्क है कि जब धर्मांतरण के बाद अनुसूचित जाति को आरक्षण नहीं मिलता तो यह आदिवासी जनजातियों पर क्यों नहीं लागू होता।
जनजाति सुरक्षा मंच के क्षेत्रीय संयोजक इंदर भगत कहते हैं, ‘डॉ. आम्बेडकर ने संविधान के अनुच्छेद 341 में एक प्रावधान बनाया था। हिंदू, जैन, बौद्ध आदि को छोड़ अगर कोई विदेश में पैदा हुए धर्म को स्वीकारता है तो उसे एससी आरक्षण छोडऩा होगा। यह 1956 से लागू है। हमारी मांग बिल्कुल यही है।’
इंदर भगत कहते हैं, ‘वो व्यक्ति अपनी परम्पराओं, रीति रिवाजों और जन्म से मिली पहचान को छोड़ देता है जो वास्तव में उसे आरक्षण का अधिकार देता है। जैसे ही वो धर्मांतरण करता है, जन्म से मिली उसकी पहचान भी छूट जाती है। अगर वो खुद ही अपनी पहचान छोड़ता है तो उसे आरक्षण क्यों मिलना चाहिए जोकि उसकी पुरानी पहचान के आधार पर मिलती है। हमारी मांग है कि एसटी के लिए बने अनुच्छेद 342 में संशोधन होना चाहिए और इसका आधार है अनुच्छेद 341।’
हिंदू धर्म का हिस्सा
लेकिन डॉ फूलचंद कुजूर कहते हैं, ‘यह सूची धर्म के बजाय जनजाति के आधार पर बनाई गई है। भारत सरकार का नियम है कि आदिवासी कोई भी धर्म अपना सकते हैं। यह सर्कुलर में भी है। जनजाति सुरक्षा मंच के लोग एससी आरक्षण का हवाला देते हैं लेकिन वो इसलिए है कि अनुसूचित जातियां हिंदू धर्म का हिस्सा हैं। जबकि आदिवासी हिंदू नहीं हैं।’
छत्तीसगढ़ और झारखंड में एक तरफ जनजाति सुरक्षा मंच डीलिस्टिंग का आंदोलन चला रहा है तो दूसरी तरफ क्रिश्चियन ट्राइबल फेडरेशन ने इसके खिलाफ सडक़ पर उतरनेे का फैसला किया है।
विरोधियों का कहना है कि अगर यह लागू हुआ तो इसकी जद में पूरा आदिवासी समुदाय आएगा। पांचवीं अनुसूची में मिली रियायतें खतरे में पड़ जाएंगी और कुल आदिवासी आबादी घटेगी तो आदिवासी डी-शेड्यूल (ग़ैर-अधिसूचित) हो जाएंगे।
क्रिश्चियन ट्राइबल फेडरेशन के प्रवक्ता डॉ. सीडी बखाला कहते हैं, ‘जल-जंगल-ज़मीन पर हमारे अधिकार हैं। अगर डीलिस्टिंग होती है तो हमें अपने ही जंगलों से बाहर कर दिया जएगा और हमारा वजूद खत्म हो जाएगा। इसीलिए हम विरोध कर रहे हैं। यह केवल ईसाइयों को ही नहीं बल्कि सभी आदिवासियों और आदिवासी इलाक़ों को प्रभावित करेगा।’
वो आगे कहते हैं, ‘अनुच्छेद 330 के तहत हमें लोकसभा में प्रतिनिधित्व मिलता है, अनुच्छेद 332 के तहत विधानसभा में। लेकिन अगर हमारा राज्य डी शेड्यूल हो जाता है तो सब कुछ छिन जाएगा। हम न तो गांव के मुखिया या सरपंच बन पाएंगे न विधायक न सांसद।’
अगर हमें बाहर किया जाएगा तो कहां जाएंगे?
हाल की पीढिय़ों में अच्छी ख़ासी संख्या में लोगों ने ईसाई धर्म अपनाया है। एक अनुमान के अनुसार जशपुर और इसके आसपास के इलाकों में 22 फीसदी आदिवासी आबादी ने ईसाई धर्म स्वीकार किया है। डीलिस्टिंग की मांग से पैदा हुए ‘अंदरूनी’ और ‘बाहरी’ के बंटवारे से इन गांवों में तनाव बढ़ा है।
जशपुर जिले में सोगदा गांव में अधिकांश लोग हिंदू रीति रिवाज मानते हैं। विभाजन इतना बढ़ गया है कि जो लोग सदियों से जंगलों में साथ रहते आए हैं, अब अलग होने की बात करते हैं।
मनीजर राम कहते हैं, ‘हम प्रकृति पूजक हैं और मूर्ति की भी पूजा करते हैं। जो ईसाई धर्म मानते हैं, वो उस तरीके से प्रार्थना नहीं करते हैं। तो हम एक साथ कैसे रह सकते हैं? उन्हें विदेशी धर्मों में फंसा लिया गया और वे ईसाई बन गए। इसीलिए वे हमसे अलग हैं।’
इस इलाक़े में मिलीजुली आबादी है। जनजातियां कई पीढिय़ों से जंगलों में रहती आई हैं और उनके बीच धर्म को लेकर कोई मुद्दा नहीं रहा। लेकिन गांव से अगर कोई धर्म के आधार पर डीलिस्टिंग का मुद्दा उठाता है तो इससे समस्या पैदा हो सकती है।
उसी गांव के सोहम राम कहते हैं, ‘हमें इसका दुख नहीं है। क्योंकि वे हमारी संस्कृति, हमारे धर्म से भटक गए। इसलिए हम किसी चीज से परेशान नहीं हैं। अगर वे लौटना चाहते हैं लौट सकते हैं, लेकिन जो भी गया वो लौटा नहीं।’
डीलिस्टिंग और धर्मांतरण
गांवों में ऐसी धारणा बहुत मजबूत है। जशपुर से हम छत्तीसगढ़ जाते हैं। इस इलाके में अम्बिकापुर एक बड़ा केंद्र है, जहां ग्रामीण और शहरी इलाके हैं। यहां नया पाड़ा में केवल ईसाई रहते हैं।
निवासी कुजूर ने करीब दस सालों तक सरगुजा जिला पंचायत अध्यक्ष की जिम्मेदारी निभाई है। पंचायती राज में आदिवासियों के लिए सीटें आरक्षित होने की वजह से वो इतने लंबे समय तक राजनीति में सक्रिय रहीं। उनके यहां हमारी मुलाकात कुछ ईसाई आदिवासी लोगों से हुई।
निवासी कुजूर ने कहा कि शहरों के मुक़ाबले ग्रामीण क्षेत्रों में डीलिस्टिंग और धर्मांतरण को लेकर भय का मौहाल है।
वो कहती हैं, ‘गांवों में ईसाई बनाम ग़ैर-ईसाई की बहस चल रही है। साफ कहें तो अगर आप आजाद हैं तो जो चाहें धर्म अपनाएं। हमारे संविधान ने अधिकार दिया है कि आप कोई धर्म अपनाएं। कोई भी दबाव नहीं डालता है।’
मुन्ना तापो इस बात से इनकार करते हैं कि धर्मांतरण करने वाले आदिवासी अपनी आदिवासी संस्कृति और परम्पराओं को छोड़ रहे हैं।
राजनीतिक ध्रुवीकरण और चुनावों पर इसका असर
तापो के अनुसार, ‘हम जन्म से मृत्यु तक आदिवासी समुदाय के रीति रिवाजों और प्रथाओं को पालन करते हैं। हम सिफऱ् आशीर्वाद लेने के लिए चर्च जाते हैं। जो लोग हम पर परम्पराओं को छोडऩे के आरोप लगाते हैं, मैं उन्हें चुनौती देता हूं कि वो बताएं की कौन सी परम्परा का हम पालन नहीं करते। मैं आपको सब कुछ बता सकता हूं।’
अनंत प्रकाश एक सीधा सवाल पूछते हैं, ‘अगर हमें एसटी श्रेणी से बाहर कर देंगे तो कहां रखेंगे? किस लिस्ट में? किस कैटेगरी में? हमारे लिए कहां जगह है। बताएं। हमें इन सवालों पर सोचने की जरूरत है।’
डीलिस्टिंग का मुद्दा अब राजनीतिक भी होता जा रहा है, जिसका चुनावी राजनीति पर सीधा असर है। झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और यहां तक कि पूर्वोत्तर के राज्यों में जहां अच्छी ख़ासी आबादी ईसाई है, ये आंदोलन और विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं। उत्तर महाराष्ट्र के नासिक और नंदुरबार जैसी जगहों पर ऐसे ही विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं।
अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम, मेघालय और नगालैंड जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में ईसाई धर्म अपनाने वाली जनजातियों की संख्या अधिक है। इसीलिए डीलिस्टिंग का मुद्दा इन राज्यों में मुखर है और यहां जनजातीय समुदायों में ध्रुवीकरण भी अधिक है।
आदिवासियों को आरक्षण मिलना एक संवैधानिक अधिकार है और इसमें बदलाव का मतलब संविधान संशोधन करना होगा। इसलिए इस बात को लेकर आशंका है कि ये सच में होगा या नहीं। लेकिन अगर ये होता है तो ये अनुमान लगा पाना मुश्किल है कि यह लंबी प्रक्रिया कब पूरी होगी और कब इसकी घोषणा होगी।
रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार आलोक पुतुल कहते हैं, ‘जिन आदिवासी समुदायों में लोगों ने ईसाई धर्म स्वीकार किया और जिन्होंने नहीं किया और जो लोग हिंदू धर्म का पालन करते हैं, उनके बीच रोजाना संघर्ष बढ़ता जा रहा है।’
आलोक पुतुल आगे कहते हैं, ‘इसका चुनावों पर साफ़ असर दिखता है। पिछले दो-तीन सालों में बस्तर जैसे क्षेत्रों में कई संघर्ष हुए हैं। हिंसा की कई ख़बरें सामने आई हैं। इसका चुनाव पर निश्चित असर होगा। और ओडिशा, मध्य प्रदेश और झारखंड में भी इस मुद्दे का असर पड़ेगा और आपको चुनावी नतीजों में इसका असर दिखेगा।’
वोटों में विभाजन हो चुका है। छत्तीसगढ़ के हालिया चुनावी नतीजों में डीलिस्टिंग, धर्मांतरण और घर वापसी जैसे मुद्दों का अच्छा खासा असर देखने को मिला था। और बीजेपी के नेता भी इस तथ्य को स्वीकार करने से नहीं हिचकते।
धर्म में वापसी की वकालत
प्रबल प्रताप सिंह जूदेव पूर्व जशपुर रियासत के शाही परिवार के वंशज हैं। उनके पिता दिलीप सिंह जूदेव बीजेपी के सांसद थे। वो कैबिनेट मंत्री भी रहे थे। प्रबल प्रताप सिंह भी बीजेपी में हैं और उन्होंने हालिया चुनाव भी लड़ा है।
हालाँकि, यह पूर्व शाही परिवार, पहले पिता और अब पुत्र, घर वापसी से संबंधित कार्यक्रमों से जुड़े हुए हैं, यानी वे ईसाई आदिवासियों की हिंदू धर्म में वापसी की वकालत करते हैं। इन हिंदू राष्ट्रवादी कार्यक्रमों को लेकर लगातार विवाद होता रहता है।
प्रबल साफ कहते हैं कि चाहे घर वापसी की बात हो या डीलिस्टिंग की, इससे चुनाव में बीजेपी को फायदा हुआ है।
प्रबल प्रताप ने बीबीसी को बताया, ‘चुनावी नतीजे साफ़ दिखाई दे रहे हैं। आदिवासी समुदायों ने बीजेपी को महत्वपूर्ण समर्थन दिया है। उनका मानना है कि उनके पूर्वज हिंदू थे। उनके पूजा के तौर तरीके, उनकी संस्कृति, उनके रिश्ते, राष्ट्रवादी विचारधाराओं से उनका संबंध- ये सभी जुड़े हुए हैं और वे जनजातीय मुद्दों का समर्थन करते हैं। आपने देखा होगा कि सरभुज और बस्तर जैसे इलाके जहां जनादेश अहम है। बिना इन इलाक़ों के समर्थन के कोई भी पार्टी सरकार नहीं बना सकती। इन दोनों जगहों पर बीजेपी ने बहुत कुछ हासिल किया।’
भाजपा स्पष्ट रूप से राजनीतिक फायदे पर अपना ध्यान केंद्रित किए हुए है। इसलिए उन्होंने ‘जनजाति सुरक्षा मंच’ के संयोजक भोजराज नाग को लोकसभा चुनाव के लिए बस्तर के कांकेर से अपना उम्मीदवार बनाया है।
इस बारे में कांग्रेस का आधिकारिक पक्ष अभी घोषित नहीं है, लेकिन उसके नेताओं का कहना है कि बीजेपी दोहरी बातें कर रही है और ध्रुवीकरण की साजिश रच रही है।
कांग्रेस नेता शैलेश नितिन त्रिवेदी के अनुसार, ‘नागालैंड और मिजोरम ऐसे राज्य हैं जहां ईसाई धर्म व्यापक रूप से माना जाता है। आजादी के पहले से ही। यहां तक कि बीजेपी समर्थक और कार्यकर्ता भी वहां ईसाई हैं। इसलिए, बीजेपी एकतरफा नजरिये की वकालत कर रही है। विभिन्न राज्यों में आदिवासी समुदायों में दरार डालकर वे राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कर रही है।’
राजनीति एक तरफ कर दें तो भी भारत के आदिवासियों को दो हिस्सों में बांटने वाले एक ऐतिहासिक मुद्दे के कारण उनमें गहरी दरार पैदा हो गई है।
परंपरा, संस्कृति, धर्म और विरासत के नाम पर भारत के आदिवासी दो खेमों में बंट गए हैं। (bbc.com/hindi)
-अमिता नीरव
पिछले दिनों अखबार में एक खबर छपी थी। गीर अभ्यारण्य में कुत्ते से लड़ाई में पीछे हटी शेरनी। इस तरह का एक वीडियो सामने आया था और फिर अखबार ने इस घटना के सिलसिले में विशेषज्ञों से बात की। विशेषज्ञों का कहना था कि गीर की उस सफारी में चूँकि वीआईपी को शेर दिखाए जाते हैं, इसलिए उन्हें तैयार खाना दिया जाता है। लगातार तैयार खाना खाते-खाते वे लडऩा भूल गए हैं और यदि यही सिलसिला जारी रहा तो ऐसे और भी वीडियो आते रहेंगे।
विज्ञान बताता है कि जैविक और शारीरिक संरचना में अंतर के अतिरिक्त स्त्री औऱ पुरुषों में मूलत: कोई फर्क नहीं है। न शारीरिक क्षमताओं में और न ही बौद्धिक, मानसिक क्षमताओं में। स्त्री को मिली प्रजनन की विशेषता ने उसकी सामाजिक, आर्थिक स्थितियों का निर्धारण किया।
कुछ वक्त पहले एक वेब सीरीज देखी थी 'कॉसमोस: ए स्पेसटाइम ओडिसी'। इस सीरीज में धरती औऱ अंतरिक्ष के बारे में बताया जा रहा था। सीरीज में बताया गया कि यदि हम धरती की उम्र एक साल मानें तो उस साल के आखिरी महीने मतलब दिसंबर में इस धरती पर जीवन आया। दिसंबर की 31 तारीख को इंसान आया और 31 दिसंबर को रात 11 बजे से सभ्यता अस्तित्व में आई।
इसका मतलब यह है करोड़ों साल के धरती के अस्तित्व के एक बहुत छोटे से हिस्से में इंसान आया और उसके भी हजारों साल बाद व्यवस्था ने आकार लिया। यही बात युवाल भी अपनी किताब 'सेपियंस' में कह चुके हैं। 'ह्युमन डिग्निटी एंड ह्युमिलिएशन' की फिलॉसफर औऱ फाउंडर एवलिन लिंडनर भी यही बात कहती है।
जीन जैक्स रूसो की एक प्रसिद्ध उक्ति है कि, 'वह व्यक्ति इस समाज का निर्माता होगा जिसने पहली बार एक जमीन के टुकड़े को घेरकर कहा कि यह मेरा है और दूसरे भोले लोगों ने उसे मान लिया।' रूसो की मानें तो प्राकृतिक जीवन में संघर्ष नहीं हुआ करते थे। जीवन शांत और सुंदर था। रूसो की तरह ही मार्क्स भी यह कहते हैं कि मानवीय सभ्यता के विकास में निजी संपत्ति के विचार के उदय ने महती भूमिका का निर्वहन किया है। निजी संपत्ति के उदय से ही हम सभ्यता की शुरुआत मान सकते हैं।
एवलिन लिंडनर कहती हैं कि स्त्री की जैविक-संरचना ने उसकी सामाजिक स्थिति का बहुत नुकसान किया है। जब इंसान ने हथियार ईजाद कर लिए थे और कबीलों में संघर्ष हुआ करते थे, तबसे ही स्त्रियों की समाज में भूमिका एकदम स्पष्ट हो गई थी। उन्हें संघर्ष के लिए बच्चों को जन्म देना था। जिस कबीले में जितने ज्यादा बच्चे उस कबीले की उतनी ज्यादा ताकत पुरुष है तो युद्ध के लिए और स्त्री है तो बच्चे जनने के लिए।
वे कहती हैं कि एक स्त्री के प्रजनन काल तक उसे बच्चों को जन्म देना होता था। इससे स्त्री निरंतर गर्भधारण और प्रसव के चक्र में ही फँसी रहती थी। मासिक-चक्र में होने वाली शारीरिक दिक्कत और लगातार गर्भधारण और फिर बच्चों के जन्म देने की क्रम में लगी स्त्री की दुनिया सीमित होती जाती है।
यही बात सिमोन भी कहती हैं कि प्रजनन औऱ मासिक-चक्र में स्त्री को अपनी शक्ति, मेधा, क्षमता और कौशल को निखारने का अवकाश ही नहीं मिल पाता था। दूसरी तरफ पुरुष लगातार खुद का परिष्कार औऱ परिवर्धन करता रहता है। यही वह क्रम है जहाँ से स्त्री की नियति निर्धारित होने लगती है।
सिमोन अपनी प्रसिद्ध किताब ह्लद्धद्ग ह्यद्गष्शठ्ठस्र ह्यद्ग& में लिखती हैं कि – ‘एक अस्तित्ववादी दृष्टिकोण हमें यह समझने में मदद करता है कि कैसे खानाबदोश मानव ने जैविक और आर्थिक स्थितियों को परिवर्तित कर पुरुष की श्रेष्ठता स्थापित की। पुरुष की अपेक्षा औरत ज्यादा घाटे में रही। वह अपनी जैविक नियति का शिकार हो गई। वह मादा पशु की तरह अपनी शारीरिक सीमाओं में प्रजनन-क्षमता के कारण सदा के लिए कैद कर दी गई। मनुष्य महज जीता नहीं, बल्कि अपने जीवन की सर्वोपरिता का औचित्य भी सिद्ध करना चाहता है। पुरुष ने वह सर्वोपरिता हासिल की, क्योंकि बच्चे पैदा करने का काम पुरुष का नहीं था, वह नर था और क्षणों का नियंत्रण कर भविष्य की रूपरेखा तैयार कर सकता था। यह उसका पौरुषीय क्रिया-कलाप था, जिसके जरिए उसने स्वयं के अस्तित्व को सर्वोपरि मूल्य में बदलकर रख दिया, उसने जीवन की जटिल ताकतों को सुलझाने का भार अपने हाथों में रखा औऱ स्त्री तथा प्रकृति को अधिकृत किया। हमें तो यह देखना है कि कैसे यह परिस्थिति सदियों से जारी रही और विकसित होती रही। मानवता का यह हिस्सा क्यों अन्या होकर रह गया और पुरुष ने इस अन्यता को कैसे परिभाषित किया?’
जैसे ही भूमि पर एकाधिकार की अवधारणा जन्मी, हर तरफ एकाधिकार की आकांक्षा ने जन्म लिया। स्त्री भी और बच्चे भी इसी एकाधिकार की आकांक्षा का हिस्सा रहे। याद रहे कि सभ्यता-पूर्व का समाज मातृसत्तात्मक रहा है। कृषि युग में ही जबकि व्यक्तिगत संपत्ति का उदय हुआ समाज का स्वरूप मातृसत्तात्मक से बदलकर पितृसत्तात्मक होता चला गया।
इस बात की तस्दीक एंगेल्स ने अपनी किताब ‘द ओरि़जिन ऑफ फैमिली, प्राइवेट प्रॉपर्टी ऐंड स्टेट’ में भी की है। संपत्ति के संरक्षण के लिए समूह बने, समूह से कबीले फिर संघर्ष के लिए लड़ाके। अब तक सब कुछ ठीक था। स्त्री औऱ पुरुषों के बीच भूमिकाओं का निर्धारण नहीं हुआ था, लेकिन निजी संपत्ति के संरक्षण की मजबूरी ने पुरुषों को संघर्ष की तरफ और लडऩे वाले पुरुषों की अधिक संख्या की जरूरत ने स्त्रियों को लगातार प्रजनन की तरफ धकेला।
मतलब युद्ध के लिए पुरुषों की आपूर्ति के चलते बच्चों को लगातार जन्म देना स्त्री की मजबूरी बन गया। इससे यह हुआ कि पुरुष बाहर जाने लगे औऱ स्त्रियाँ घर में कैद होने लगी। यहीं से स्त्री की दुर्दशा की शुरुआत हुई। तब से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक स्त्रियाँ लगातार घरों में रहीं औऱ प्रजनन की मशीन बनी रहीं। पश्चिम की औद्योगिक क्रांति और स्त्रीवाद की फर्स्ट वेव लगभग साथ-साथ ही आई।
औद्योगिक क्रांति के दिनों में जबकि उत्पादन के लिए अधिक श्रम-शक्ति की जरूरत लगी तो पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों से भी काम करवाया जाने लगा। तब तक पूरी दुनिया पुरुषों के लिए, पुरुषों के द्वारा औऱ पुरुषों की हो चुकी थी।
जिस तरह से गिर अभ्यारण्य में शेरनी शिकार करना भूल गई, उसी तरह स्त्री इतने सालों से लगातार घर में रहते हुए अपने कौशल, क्षमता, मेधा का विकास करना, लडऩा औऱ संघर्ष करना भूल गई। जब स्त्रियाँ अपनी स्थिति के प्रति जागरूक हुई तब तक वह बहुत पिछड़ चुकी थी। जागरूकता की वजह से अपने वजूद के लिए स्त्रियों के अंतहीन संघर्षों की शुरुआत हुई।
- पूजा मेघवाल
‘मेरी शादी कम उम्र में आटा साटा प्रथा द्वारा कर दी गई थी। मेरे बदले में मेरे चाचा के लिए लडक़ी ली गई। मेरी पहली शादी जब मैं 7वी कक्षा में पढ़ती थी तब कर दी गई थी, लेकिन कुछ कारणों से वह टूट गई। फिर दूसरी शादी जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ रही थी तब की गई थी। मैं ससुराल में 3 साल तक रही और फिर जब मैं गर्भवती हुई तो ससुराल वालों ने प्रसव के लिए मुझे मेरे घर छोड़ दिया था। लेकिन डिलीवरी होने पर जब मुझे लडक़ी हुई तो इससे नाराज़ ससुराल वाले न तो मुझे लेने आए और न ही कभी मुझसे बात की। अब मैं संस्था द्वारा ओपन स्कूल से 10वी की पढ़ाई कर रही हूं। अब मेरे अंदर पढ़ाई को लेकर और ज्यादा लगन जगी है। मुझे अपनी जिंदगी में कुछ करना है। पढ़ लिख कर नौकरी करनी है ताकि अपने पैरों पर खड़े होकर अपनी बेटी का भविष्या बना सकूं। यह कहना गांव की 27 वर्षीय सुनीता का, जो राजस्थान के बीकानेर स्थित लूणकरणसर ब्लॉक के कालू गांव की रहने वाली है।
यह गांव ब्लॉक मुख्यालय से लगभग 20 किमी और जिला मुख्यालय से 92 किमी की दूरी पर है। पंचायत से मिले आंकड़ों के अनुसार 10334 लोगों की जनसंख्या वाले इस गाँव में अनुसूचित जाति की संख्या करीब 14।5 प्रतिशत है। गांव में साक्षरता की दर 54।7 प्रतिशत है, जिसमें महिलाओं की साक्षरता दर मात्र 22।2 प्रतिशत है। इतनी कम साक्षरता दर से महिलाओं की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति का पता चलता है। हालांकि महिलाओं में शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से स्थानीय गैर सरकारी संस्था उर्मुल ट्रस्ट द्वारा उर्मुल सेतु अंतर्गत 'प्रगति प्रोजेक्ट' चलाया जा रहा है। इस के द्वारा गांव की उन महिला और किशोरियां, जिन्होंने किसी कारणवश पढ़ाई छोड़ दी थी उन्हें अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए प्रेरित करना है। इसमें 14 से 29 साल तक की महिला और किशोरियों को पढ़ाई के बाद रोजगार कर अपने पैरो पर खड़ा होने के लिए भी प्रेरित करना है।
इस संबंध में गांव की 17 वर्षीय किशोरी पूजा बाबरी का कहना है कि ‘मैं कक्षा 5 तक ही पढ़ाई कर पाई थी। आगे पढऩे का मन करता था। लेकिन हाई स्कूल गांव से दूर होने के कारण मुझे भेजा नहीं जाता था। मुझे नहीं लगता था कि मेरा पढ़ाई का सपना कभी पूरा होगा। लेकिन इस संस्था द्वारा मुझे पढऩे का मौका मिला जिससे मैं बहुत खुश हूं। अब मैं आगे की पढ़ाई के लिए सेंटर पर जाती हूं। वहां मेरी नई सहेलियां भी बनी हैं। पहले मैं फोन पर सिर्फ वीडियो ही देखा करती थी। मगर अब मैं अपनी पढ़ाई और अपने विषय के बारे में जानकारी प्राप्त करती हूं। अब मैं अपने छोटे भाई बहनों को भी पढ़ाती हूं।’ गांव की एक अन्य किशोरी नज़मा का कहना है कि ‘मेरे पिता नहीं हैं। जिस वजह से मां को बाहर जाकर काम करना पड़ता है और मेरे उपर पूरे घर के कामों की जिम्मेदारी रहती है। मैं पढऩे में बहुत होशियार थी। लेकिन 8वीं के बाद घर के कामों की वजह से पढ़ाई छोडऩी पड़ी। परन्तु मुझे पढ़ाई करने का बहुत शौक था। मैं अपने भाई की किताबों को पढ़ा करती थी। जब मुझे पता चला कि संस्था द्वारा हमारा दाखिला करवाया जाएगा और मैं फिर से पढ़ाई कर सकती हूं तो मुझे बहुत खुशी हुई। हमें इस संस्था द्वारा प्रतिदिन 2 से 3 घंटे पढ़ाया जाता है। मुझे ख़ुशी है कि अब मेरा उच्च शिक्षा प्राप्त करने का सपना पूरा हो सकता है।’
22 वर्षीय सीता का कहना है कि ‘जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ती थी तो मेरे दो बड़े भाइयो के साथ मेरी भी शादी करवा दी गई। सोचा था कि सुसराल जाकर अपनी पढ़ाई पूरी करूंगी, लेकिन लगातार बीमार रहने के कारण मैं पढ़ाई नहीं कर पाई। अब मुझे संस्था के माध्यम से एक बार फिर से पढऩे का अवसर मिला है। अब मैं ओपन स्कूल से 10वीं कक्षा की पढ़ाई कर रही हूं।
अब मुझे लगता है कि मैं भी अपनी जिंदगी में कुछ कर सकती हूं।’ वहीं 17 वर्षीय किशोरी कविता का कहना है कि ‘जब मेरी पढ़ाई छूटी तो मुझे लगता था कि मैं सिर्फ घर का काम काज ही करूंगी और शिक्षा प्राप्त करने का मेरा सपना कभी पूरा नहीं होगा। लेकिन अब मैं पढ़ रही हूं तो मुझे लगता है कि मैं भी अपनी जिंदगी में बहुत कुछ कर सकती हूं। अपना भविष्य उज्जवल बना सकती हूं और आत्मनिर्भर बन कर अपना ध्यान खुद रख सकती हूं।’ कविता कहती है कि पहले महिलाओं पर इसलिए अत्याचार होते थे, क्योंकि वह पढ़ी लिखी नहीं होती थी। जिससे वह अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं होती थीं। लेकिन अब शिक्षा प्राप्त कर महिलाएं और किशोरियां अपने अधिकारों के प्रति भी जागरूक हो रही हैं।
उर्मुल की पहल से न केवल महिलाएं और किशोरियां, बल्कि उनके अभिभावक भी खुश नजऱ आ रहे हैं। उनकी लड़कियों को पढऩे, आगे बढऩे और सशक्त होने का अवसर प्राप्त हो रही है। इस संबंध में एक अभिभावक 40 वर्षीय भीयाराम मेघवाल का कहना है कि 'संस्था की यह पहल अच्छी है। जो बालिकाएं किसी कारणवश स्कूल नहीं जा पाती थीं उनका प्रेरकों ने हौसला बढ़ाया। जिससे वह आगे पढऩे की हिम्मत जुटा सकीं।' भीयाराम का मानना है कि पढ़ी लिखी लड़कियां ही महिलाओं पर होने वाले अत्याचारो के विरुद्ध आवाज उठा सकती हैं और उसका विरोध करने का साहस दिखा सकती हैं। वह बताते हैं किसी कारणवश उनकी बेटी की शिक्षा बीच में ही छूट गई थी। लेकिन मुझे खुशी है कि अब वह संस्था के माध्यम से अपनी शिक्षा पूरी कर रही है।
इस संबंध में स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता हीरा का कहना है कि ‘इस प्रोजेक्ट को चलाने का उद्देश्य दूर दराज गांवों की उन महिलाओं और किशोरियों को शिक्षित करना है, जिनका किसी कारणवश बीच में ही पढ़ाई छूट गई है। इनमें ऐसी बहुत सी किशोरियां हैं जिनकी 8वीं के बाद शिक्षा सिर्फ इसलिए छूट गई क्योंकि आगे की पढ़ाई के लिए गाँव में हाई स्कूल नहीं था और उनके परिवार वाले उन्हें दूसरे गाँव पढऩे के लिए भेजने को तैयार नहीं थे। इसके अलावा कुछ अन्य कारण भी थे जैसे घर की आर्थिक स्थिति का खराब होना, उनकी जल्दी शादी हो जाना और कई लड़कियों के घर का काम ज्यादा होने की वजह से भी उनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई थी। ऐसी ही लड़कियों और महिलाओं को यह संस्था पढ़ाने का कार्य कर रही है। इससे उनकी शिक्षा का स्तर भी बढ़ा है। जो किशोरियां शिक्षा से वंचित रह गई थी और ड्रॉप आउट थी उनकी पढ़ाई फिर से जारी हो गई है। पढ़ाई को लेकर महिलाओं और किशोरियों में उत्साह बढ़ा है। वह अपने अधिकारों को लेकर भी जागरूक हो रही हैं और उनके परिवार वालो का भी उनके प्रति बदलाव देखने को मिल रहा है। अब उनके परिवार वालो को भी लगता है कि हमारी लड़कियां बहुत कुछ कर सकती हैं। पढ़ लिख कर सशक्त बन सकती हैं।
वास्तव में, महिलाओं और किशोरियों ने शिक्षा के जरिए अपने परिवार और समाज में बहुत बड़ा बदलाव किया है और करती रहेंगी। स्त्री शिक्षा का समाज और परिवार की सोच में परिवर्तन लाने में बहुत बड़ा योगदान होता है। जब एक स्त्री शिक्षित होती है तो सिर्फ एक स्त्री नहीं बल्कि पूरा परिवार शिक्षित होता है। इसके माध्यम से ही महिलाओं और किशोरियों को अपने अधिकारों की जानकारी प्राप्त होती है और जिससे समाज और परिवार के अंदर बेहतर योजनाओं को बनाया जा सकता है। (चरखा फीचर)
- अपूर्व गर्ग
टीवी घर -घर आया और धीरे -धीरे पत्र -पत्रिकाओं को ही नहीं पुस्तकें भी निगल गया । टीवी ने ये तय करना शुरू कर दिया लोग क्या खाएं, पहनें और कैसा जीवन जीयें ।
दिमाग अखरोट की गिरी सा दीखता है और इस अखरोट की दिमागी गिरी का आवरण बन गया टीवी ।
इसी टीवी के तार सत्ता के एंटीने से जुड़ गए और बरसाने लगीं प्रायोजित मंशाएं । भाषा बदल गई, तेवर बदल गए और सूख गए समाचार ।
इसका असर पूरे मीडिया पर आया और मीडिया जगत बन गया कठपुतली मीडिया ।
इस ‘डिहाइड्रेटेड’ मीडिया में खबर की एक बूँद भी न देखकर लोग सोशल मीडिया की ओर विमुख हो चुके और खबर पाने की प्यास वो ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर’ से लगाए हुए हैं ।
‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर’ को लोगों ने बेतहाशा समर्थन दिया , समय दिया , पैसा दिया, विश्वास दिया।
इसमें कोई दो राय नहीं कुछ पत्रकार और बुद्धिजीवी जनता के विश्वास की कसौटी पर खरे उतरे हैं और उनके पास विजन है,भाषा है, ज्ञान है, संस्कार है पर इनसे कहीं दुगनी-चौगुनी मात्रा में बहुत से नौजवान ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स’ उभरे हैं जो चालू भाषा में।
उत्तेजक पोस्ट निर्भीकता से डालकर सत्ता को चुनौती देते हैं। ये ऐसे नौजवान हैं जो शुरू -शुरू में हर उन खबरों पर बात करते हैं जो दबाई और छिपाई जाती हैं ।
जाहिर है इन युवा ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स’ की ओर उनकी ख़बरें ब्रेक करने की कला को देख लोग भागते हैं और एक दिन उन्हें लगता है ये जो कह रहे वही सही। लोग इन्हें कई मिलियन सब्सक्राइबर का बादशाह बनाते हैं इनके सोशल मीडिया के सभी माध्यमों फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब, इंस्टाग्राम में फॉलो करते हैं। कभी गौर करिये ज़्यादातर इन ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स’ के पास न सोच है न समझ न विचार न विचारधारा। भाषा की तमीज जानते नहीं बस एक के बाद एक उकसावे-उत्तेजक पोस्टों के गोले दागते हैं और उस ताली पीटते हैं लाखों लोग ।
ताली पीटने वाले ऐसे लोग हैं जिनका न किसी पत्र से कोई रिश्ता रहता है न किताबों से, दरअसल, ये लोग उस धरती पर खड़े हैं जो कभी पत्रकारिता और साहित्य के शब्दों से हरी-भरी थी और अब बंजर हो चुकी। अच्छे और बुरे का कोई ज्ञान नहीं, समझ नहीं। फिर भी जिन्हें अगर ये लग रहा है कि सोशल मीडिया पत्रकारिता का विकल्प बन चुका तो बहुत बड़े मुगालते में हैं। सनसनी फैलना खबरें पढ़ाना नहीं होता।
गौर से देखिये, ज़्यादातर इन ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स’ ने बची-खुची भाषाई तमीज छीन ली है, पाठकों को तमाशाई दर्शकों में बदल दिया, गंभीरता-चिंतन गायब।
पहले ही हिंसक हो चुकी आवारा और तमाशबीन भीड़ को ब्रेकिंग न्यूज़ के नाम पर कैसे मुर्ख, जाहिल और भाषाई असभ्य बना रहे हैं ये चंद ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स’ इस पर पहल करिये।
चुनाव बीत जायेगा पर आवारा और असभ्य बनाई जा रही भीड़ का खतरा बना रहेगा ।
-अनंत झणाणें
पीलीभीत से भारतीय जनता पार्टी ने मौजूदा सांसद वरुण गांधी को टिकट नहीं दिया। उनकी जगह पार्टी ने कांग्रेस से बीजेपी में आए और योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री जितिन प्रसाद को उम्मीदवार बनाया है। इसके बाद इस बात को लेकर कयास लगाए जा रहे थे कि वरुण गांधी वहाँ से निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे लेकिन 27 मार्च को जब नामांकन भरने का समय समाप्त हो गया तो इन अटकलों पर भी विराम लग गया। लेकिन राजनीति में एक कयास ख़त्म होता है तो दूसरा शुरू हो जाता है।
अब चर्चा यह हो रही है कि कहीं वरुण गांधी दूसरी सीट से तो नहीं लड़ेंगे। समय के साथ इन कयासों से भी पर्दा हटेगा पर वरुण गांधी के अगले क़दम को लेकर सस्पेंस बना हुआ है। 16 फऱवरी, 2004 को कऱीब 24 साल की उम्र में वरुण ने अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता लेते हुए कहा था, ‘भले ही उनका परिवार (नेहरू-गांधी परिवार) कांग्रेस पार्टी का हिस्सा रहा है, लेकिन वो यह मानते हैं कि उनका परिवार किसी पार्टी के प्रति नहीं बल्कि आत्म-बलिदान की परंपरा, राष्ट्रीय गौरव और आत्मा की स्वतंत्रता के सिद्धांतों के प्रति सच्चा था।’ उन्होंने बीजेपी की सदस्यता लेते हुए पार्टी को मज़बूत करने की बात कही थी और सदस्य बनने के अपने फ़ैसले को राष्ट्र हित में सर्वोत्तम फ़ैसला बताया था। लेकिन वरुण अब शायद ही इस फ़ैसले को सर्वोत्तम मानते होंगे।
नरेंद्र मोदी और अमित शाह की बीजेपी में वरुण गांधी पिछले 10 सालों में बीजेपी में हाशिए पर ही रहे हैं।
बीजेपी में रहते बागी तेवर
सबसे पहले वरुण गांधी का टिकट कटने के संभावित कारणों को समझने की कोशिश करते हैं। दरअसल, वरुण गांधी अक्सर कई मुद्दों को लेकर सोशल मीडिया पर अपने विचार खुल कर रखते हैं। जैसे अफ्रीका से लाए गए चीतों के मरने पर उन्होंने कहा, ‘विदेशी जानवरों की यह लापरवाह खोज तुरंत समाप्त होनी चाहिए।’ चीतों की मौत को वरुण ने न सिफऱ् क्रूरता बल्कि लापरवाही का भयावह प्रदर्शन भी कहा था।
दरअसल, भारत में 1952 में चीते को विलुप्त घोषित कर दिया गया था। इन चीतों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में लाकर छोड़ा गया था। इससे पहले बीते साल उनका एक वीडियो क्लिप वायरल हुआ था जिसमें एक कार्यक्रम में वरुण गांधी कार्यकर्ताओं के एक साधु को टोकने पर उनसे कहते हैं, ‘अरे, उन्हें टोको मत, क्या पता कब महाराज सीएम बन जाएँ।’ इसके बाद वो कार्यकर्ताओं से कहते हैं, "आप बिल्कुल इनके साथ ऐसा मत करो, कल को मुख्यमंत्री बन जाएँगे तो हमारा क्या होगा। समय की गति को समझा करो।’ उनके इस बयान को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर तंज के तौर पर देखा गया।
बीते साल ही द हिंदू अख़बार के लिए लिखे लेख में उन्होंने देश के 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने के मिशन पर कहा था कि देश को इससे पहले एक बेहतर लोक हितकारी व्यवस्था बनाने की ज़रूरत है। इस लेख को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस दावे पर निशाना माना गया जिसमें मोदी देश को 2025 तक 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने की बात करते है। इससे पहले उन्होंने कृषि बिल के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे किसानों का भी समर्थन किया था। वरुण के इस बयान को सरकार की आलोचना के तौर पर देखा गया।
क्या बयानों के कारण गिरी गाज़
उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार उमर रशीद कहते हैं, ‘वरुण गांधी के बयानों से बीजेपी के ब्रैंड मोदी और ब्रैंड योगी पर सवाल खड़े होते थे।’ पीलीभीत से बीजेपी प्रत्याशी जितिन प्रसाद के नामांकन के बाद हुई रैली में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह ने वरुण गांधी की ग़ैर-मौजूदगी के बारे में कहा, ‘वरुण गांधी बीजेपी के नेता हैं और हमारे साथ हैं। उनका उपयोग हर जगह है। उनका उपयोग पार्टी ठीक तरह से करेगी। मुझे विश्वास है कि वो हमारे साथ रहेंगे।’ उत्तर प्रदेश में बीजेपी पर लंबे समय से नजऱ रख रहे पत्रकार रतिभान त्रिपाठी कहते हैं, ‘वरुण गांधी जिस परिवार से आते हैं, उसकी अपनी विरासत है। लेकिन बीजेपी का अपना अनुशासन है। वरुण गांधी अपने आप को पार्टी से ऊपर समझ रहे थे। पार्टी और सरकार को लगातार ट्रोल कर रहे थे। यह किसी पार्टी में रहते उचित नहीं होता है। उन्हें अपनी बात पार्टी के फोरम पर रखनी चाहिए ना कि सार्वजनिक फोरम पर।’
पत्रकार उमर रशीद कहते हैं, ‘पार्टी लाइन से अलग हट कर अपने विचार सार्वजनिक करने के बावजूद, मुझे लगता है कि कहीं न कहीं वरुण गांधी को लगता था कि उन्हें टिकट मिल ही जाएगा। अगर उन्हें टिकट कटने का इल्म होता तो अब तक वो अपनी राजीतिक दिशा को बदलने की कोशिश करते और हमें कहीं न कहीं वो कोशिश होती नजऱ आती। पिछले एक महीने से वरुण ने बिल्कुल चुप्पी साधी हुई है। उन्होंने सोशल मीडिया पर एक महीने से एक पोस्ट भी नहीं डाली।’
क्या पार्टी में होगा कमबैक?
लेकिन यूपी बीजेपी में बड़े-बड़े से नेता पार्टी लाइन से अलग जाने पर अतीत में किनारे किए जा चुके हैं। इस फेहरिस्त में कल्याण सिंह से लेकर उमा भारती तक हैं। यहाँ तक कि एक समय में योगी आदित्यनाथ को भी पार्टी में तवज्जो नहीं मिली थी तो अलग होना पड़ा था। पत्रकार रतिभान त्रिपाठी कहते हैं, ‘राजनाथ सिंह सांसद हैं। देश के रक्षा मंत्री हैं और उनके बेटे पंकज सिंह विधायक हैं। पंकज सिंह ने कभी भी पार्टी लाइन के ख़िलाफ़ एक शब्द नहीं बोला। लखनऊ से पूर्व सांसद लालजी टंडन राज्यपाल थे और उनके बेटे आशुतोष टंडन योगी सरकार में मंत्री थे। आशुतोष टंडन भी हर हाल में पार्टी लाइन के साथ खड़े रहे। मेनका गांधी भी पार्टी के ख़िलाफ़ कभी नहीं गईं लेकिन वरुण इस लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर रहे थे।’ बीजेपी ने मेनका गांधी का टिकट नहीं काटा लेकिन वरुण को नहीं दिया। इससे ये भी संदेश गया कि वरुण को पार्टी के ख़िलाफ़ बोलने के कारण टिकट नहीं मिला।
मेनका को टिकट मिलने के कारण?
वरिष्ठ पत्रकार उमर रशीद कहते हैं, ‘हमें वरुण गांधी और मेनका गांधी का राजनीतिक आकलन करने के लिए दोनों को अलग-अलग देखने की ज़रूरत है। मेनका गांधी काफ़ी लंबे समय से राजनीति में हैं। वह कैबिनेट मंत्री भी रह चुकी हैं। उन्होंने काफ़ी चुनौतियों का सामना भी किया है। 32 साल तक राजनीति करके पीलीभीत को उन्होंने अपना गढ़ बनाया और उसका लिहाज बीजेपी भी करती है।’
उमर रशीद कहते हैं, ‘वरुण गांधी के पास गांधी परिवार का सदस्य होने के अलावा कोई आकर्षण नहीं है। और इस देश की राजनीति में गांधी परिवार का मतलब है सिफऱ् सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी। पीलीभीत उत्तर प्रदेश में अमेठी और रायबरेली की तजऱ् पर गांधी परिवार के गढ़ के रूप में कभी देखा नहीं गया है।’
घटता राजनीतिक प्रभाव?
उत्तर प्रदेश की राजनीति में 2012 और 2017 के बीच युवा नेताओं और नेतृत्व का दौर आया। अखिलेश यादव सूबे के मुख्यमंत्री बने, राहुल गांधी अमेठी से सांसद थे और देश की राजनीति के साथ-साथ उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी सीधा दख़ल देते थे।
वरुण गांधी के नाम से कई फैन क्लब सोशल मीडिया पर सक्रिय थे। लेकिन इसके बावजूद वरुण गांधी का प्रभाव पीलीभीत और सुल्तानपुर से तक सीमित क्यों रह गया? इसकी झलक हमें 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से जुड़े एक इंटरव्यू में मिलती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि बीजेपी के उत्तर प्रदेश में 55 मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। इसी इंटरव्यू में उन्होंने यह भी कहा था कि वो अपने मन की बात कहते हैं।
वरुण गांधी के राजनीतिक करियर पर शुरू से नजऱ बनाए हुए बरेली से वरिष्ठ पत्रकार पवन सक्सेना मानते हैं कि पीलीभीत के लोगों का वरुण गांधी और मेनका गांधी से लगाव ज़रूर है। उसके समझते हुए वो कहते है कि, ‘एक समय यह जब आडवाणी पीलीभीत में एक सभा करने आए और मेनका गांधी ने मंच से ही अपना टिकट घोषित कर दिया।’ यह उनका राजनीतिक दबदबा दर्शाता है।
बीच में यह दौर भी आया जब वरुण गांधी के उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री चेहरा बनने की चर्चा हुई। पत्रकार पवन सक्सेना कहते हैं, ‘वरुण के समर्थकों ने जगह-जगह इस बात की चर्चा चलाई, रोड शो और जन सभाएं हुईं। लेकिन यह सब 10 साल पहले हो कर ख़त्म हो चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा में ऐसा संभव नहीं था।’
अब वरुण के पास क्या विकल्प हैं?
वरुण गांधी को लेकर चर्चा गर्म थी तभी लोकसभा में कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी का बयान आया। उन्होंने तो एक तरह से वरुण को कांग्रेस में शामिल होने का निमंत्रण दे दिया। अधीर ने कहा था, ‘गांधी परिवार से होने के कारण बीजेपी ने वरुण गांधी को टिकट नहीं दिया। वरुण गांधी को कांग्रेस में शामिल होना चाहिए। वह एक साफ़ छवि के नेता हैं। हम चाहते हैं कि वरुण गांधी अब कांग्रेस में शामिल हों। अगर पार्टी जॉइन करते हैं, तो हमें ख़ुशी होगी।’
तो क्या अब वरुण कांग्रेस का रुख़ करेंगे?
उमर रशीद कहते हैं, ‘उनकी माँ मेनका गांधी बीजेपी में ही हैं और चुनाव लडऩे जा रही हैं। कांग्रेस का पहले से तीन गांधी नेतृत्व कर रहे हैं और उसका आलाकमान है। तो सवाल यह उठता है कि वरुण कांग्रेस में शामिल होकर क्या करेंगे? इससे पार्टी में विरोधाभास पैदा होगा।’
उमर रशीद वरुण और मेनका की राजनीतिक क्षमता का आकलन करते हुए कहते हैं, ‘2019 के लोकसभा में सुल्तानपुर सीट से अगर वरुण गांधी चुनाव लड़ते तो उनका जीतना मुश्किल होता। इसलिए मेनका गांधी ने पीलीभीत छोड़ सुल्तानपुर से चुनाव लड़ा और वरुण गांधी को सुरक्षित सीट पीलीभीत से चुनाव लड़वाया। लेकिन सुल्तानपुर की सीट पर भी मेनका गांधी महज़ 15,000 वोटों से जीतीं। मतलब यह कि जो दोनों की जीतने की क्षमता समय के साथ घटते नजऱ आ रही है।’
भाजपा के लिए वरुण गांधी के महत्व के बारे में उमर कहते हैं, ‘एक ज़माने में मेनका गांधी और वरुण गांधी का बीजेपी में क़द उनके सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को काउंटर करने के नज़रिये से बढ़ाया गया।’
‘लेकिन कांग्रेस की कमज़ोरी और खास तौर से उत्तर प्रदेश में गांधी परिवारों के कमज़ोर होते गढ़ के कारण अब उसकी उपयोगिता भी कम हो गई है। धीरे-धीरे भाजपा गांधी परिवार और उसके नाम से हर किस्म की दूरी बनाना चाहती हैं। अगर दूर की सोचें तो यह बीजेपी के लिए भी फ़ायदेमंद है क्योंकि वो पीलीभीत और सुल्तानपुर जैसी सीटों पर अपने जातिगत और विचारधारा के अनुसार, स्थानीय चेहरों को आगे बढ़ा सकती है।’ (bbc.com/hindi)
-प्रेरणा
साल 2022 में द्रौपदी मुर्मू भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनीं। देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर एक आदिवासी महिला का बैठना कई मायनों में ऐतिहासिक था। इसी का एक दूसरा पहलू ये भी है कि आदिवासी महिला राष्ट्रपति होने के बावजूद, राजनीति में अनुसूचित जनजाति की महिलाओं की हिस्सेदारी काफ़ी कम है।
वर्तमान में देश की संसद में आदिवासी महिलाओं की भागीदारी महज़ 1।8 प्रतिशत है। इसके पीछे की वजह क्या है और साधारण पृष्ठभूमि से आने वाली आदिवासी महिलाओं के लिए राजनीति में अपनी जगह बना पाना कितना चुनौतिपूर्ण है?
पढि़ए झारखंड के तीन अलग-अलग जगहों से, तीन अलग-अलग आदिवासी महिलाओं की कहानी। ये तीनों महिलाएं राज्य में जल,जंगल, ज़मीन से जुड़े आंदोलनों का मुख्य चेहरा रही हैं।
हमारी इस यात्रा की शुरुआत झारखंड के संथाल परगना क्षेत्र से हुई। हमें यहां मुन्नी हांसदा नाम की एक महिला से मिलना था। वो दुमका के काठिकुंड में रहती हैं और संथाल के इस क्षेत्र में एक जाना-पहचाना नाम हैं। वो प्रदेश की उन आंदोलनकारी महिलाओं में शामिल हैं, जो पिछले कई सालों से राज्य की ख़निज संपदा को कॉरपोरेट घरानों से बचाने की लड़ाई लड़ रही हैं और अपनी एक राजनीतिक पहचान बनाना चाहती हैं।
पहली बार उनका नाम सुर्खियों में तब आया था, जब साल 2005-07 में दुमका के काठीकुंड में कोलकाता की एक बड़ी कंपनी अपना पावर प्लांट स्थापित करने वाली थी।
झारखंड की तत्कालीन सरकार के साथ कंपनी ने एमओयू पर हस्ताक्षर भी कर लिए थे पर ग्रामीणों के विरोध और लंबे चले आंदोलन के बाद कंपनी और सरकार दोनों को बैकफुट पर जाना पड़ा।
मुन्नी हांसदा इसी आंदोलन का मुख्य चेहरा बनकर उभरी थीं। उन्होंने कंपनी के प्रस्ताव के ख़िलाफ़ तकऱीबन सात महीने जेल में भी बिताए थे। इससे पहले वो लंबे समय तक आदिवासियों को पेसा क़ानून, फॉरेस्ट राइट्स, संथाल परगना टेनेन्सी एक्ट के बारे में जागरूक करती रही थीं। कोलकाता की कंपनी के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन में मिली जीत शायद इसी का नतीजा था। मुन्नी हांसदा ने इसके बाद भी कई आंदोलनों का नेतृत्व किया और हक़ के लिए लड़ती रहीं।
बतौर सामाजिक कार्यकर्ता एक सफल पारी खेलने के बाद मुन्नी हांसदा ने जब राजनीति में अपनी किस्मत आज़माने की कोशिश की, तो उन्हें लोगों का अपेक्षित समर्थन नहीं मिला। वो कहती हैं, ‘चुनाव के समय में जिसके पास पैसा है और वो गाँव में पैसा फेंकता है, दारू पिलाता है तो उसको वोट मिल जाता है। हमारे समाज में वोट को लेकर जागरूकता नहीं है। वो नहीं समझते कि किसको जिताने से हमारी आवाज़ लोकसभा या विधानसभा में उठेगा।’
साल 2009 में तृणमूल कांग्रेस, साल 2015 में मार्कसिस्ट कोऑपरेशन और साल 2020 के विधानसभा चुनाव में भी टीएमसी से शिकारीपाड़ा सीट से चुनाव लड़ चुकी हैं। इन तीनों ही पार्टियों का झारखंड में कोई जनाधार नहीं है। वो मानती हैं कि उनकी जैसी साधारण पृष्ठभूमि से आने वाली महिलाओं के लिए राजनीति में अपने बूते जगह बना पाना बहुत मुश्किल है। वो बताती हैं, ‘इसके पीछे वो दो-तीन मुख्य वजहें हैं। पहला कि कोई भी बड़ी पार्टी आपको टिकट नहीं देती। आपके पास पैसे हों, संसाधन हो, मज़बूत राजनीतिक बैकग्राउंड हो, तभी टिकट मिलने की उम्मीद है लेकिन अगर आपके पास इन तीनों में से कुछ भी नहीं है और आप महिला हैं, तो आपका कुछ नहीं हो सकता।'' इसके बावजूद मुन्नी हांसदा ने आगामी लोकसभा चुनाव में दुमका लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लडऩे की इच्छा जताई है।
वो कहती हैं कि इस सीट से सबसे अधिक बार चुनकर आए शिबू सोरेन आदिवासी समुदाय से ही आते हैं लेकिन उन्होंने आदिवासियों के लिए कुछ काम नहीं किया। वो जानबूझकर आदिवासी युवाओं को वो मौक़े नहीं देना चाहते, जिनके वो हक़दार हैं क्योंकि वो जानते हैं कि अगर उन्होंने इस समुदाय के लोगों का आगे बढ़ाया तो वो राजनीति में भी हस्तक्षेप करेंगे। इन दिनों मुन्नी हांसदा ग्रामसभा को संबोधित कर आदिवासियों को उनके वोट की अहमियत समझा रही हैं।
उन्हें उम्मीद है कि एक दिन उनके समुदाय के लोगों को ये बात ज़रूर समझ आएगी और वो उनके जैसी महिलाओं पर भरोसा जताएंगे। वो कहती हैं, ‘हमारे यहाँ के आदिवासियों के पास राजनीतिक ज्ञान नहीं है। पैसा पर बिका, वोट दिया दूसरे को, हमको सपोर्ट नहीं किया। आंदोलन में साथ देता है लेकिन चुनाव के वक़्त पैसा पर बिक जाता है, लेकिन हम आज भी लोगों के साथ हैं, आज भी लड़ रहे हैं।’
आदिवासी बहुल राज्यों में आदिवासी महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी
बिहार से अलग होकर झारखंड राज्य का गठन साल 2000 में किया गया। साल 2000 से 2019 तक इस प्रदेश ने कुल चार लोकसभा चुनाव देखे हैं लेकिन इन चार चुनावों में प्रदेश से चुनकर देश की संसद तक का रास्ता चार महिलाएं भी पूरा नहीं कर सकी हैं। रही बात आदिवासी महिलाओं की तो आदिवासी बहुल राज्य होते हुए भी इस समुदाय से आने वाली केवल दो महिलाएं ही सदन में प्रवेश कर पाई हैं।
साल 2004 में खूँटी से चुनी गईं सुशीला केरकेट्टा और साल 2019 में सिंहभूम सीट से जीतकर आईं गीता कोड़ा। गीता कोड़ा झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी हैं, वहीं सुशीला केरकेट्टा प्रदेश से चुनी गईं इकलौती आदिवासी महिला सांसद है, जो साधारण पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखती हैं। झारखंड से इतर हम अगर दूसरे प्रदेशों की बात करें तो मध्य प्रदेश में जनजाती समुदाय की सबसे अधिक आबादी रहती है। आज़ादी के बाद हुए पहले आम चुनाव से लेकर पिछले 2019 के आम चुनाव तक इस प्रदेश से 12 आदिवासी महिला संसद चुनी गई हैं।
आंध्रप्रदेश, ओडिशा से आठ, महाराष्ट्र-राजस्थान से तीन, छत्तीसगढ़-गुजरात जैसे राज्यों से दो और कर्नाटक-पश्चिम बंगाल से एक-एक आदिवासी महिला सांसद चुनी गई हैं। डॉ वासवी किड़ो ख़ुद विस्थापन से जुड़े कई आंदोलनों का मुख्य चेहरा रही हैं। किसी बड़ी पार्टी कि तरफ़ से टिकट न मिलने पर साल 2019 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने बतौर स्वतंत्र उम्मीदवार हटिया सीट से चुनाव लड़ा। वो कहती हैं, ‘राजनीतिक दलों का एक करैक्टर जो दिखायी दे रहा हैज्चाहे झारखंड हो या राष्ट्रीय स्तर पर, वो ये है कि बहुत पढ़ी-लिखी, बहुत संघर्ष की हुई, बहुत काम की हुई औरतें उनको बिल्कुल पसंद नहीं हैं। कम बोलो, कम बात करो, ख़ूबसूरत चेहरा रखो और अच्छी साडिय़ाँ पहनोंज्तो ऐसी औरतों को वो ज़्यादा तवज्जो देते हैं कि भई ये औरतें ज़्यादा मुँह नहीं लगेंगी, ज़्यादा हक़ की बात नहीं करेंगी, ज़्यादा मुद्दे नहीं उठाएंगी’।
आदिवासी महिलाओं की न के बराबर भागीदारी पर वो कहती हैं, ‘आदिवासी महिलाओं को टिकट नहीं देते क्योंकि समझते हैं कि इनके पास नॉलेज नहीं है। ये लड़ती ज़्यादा हैं, बोलती हैं, इनके पास में जो बैकग्राउंड होना चाहिए वो नहीं है।’ ‘उनको सशक्त करना, सही जगह दिलाना ये काम नहीं हो रहा है। राजनीतिक दलों के द्वारा और इसलिए आदिवासी औरतों को ज़्यादा चुनौती फेस करना पड़ रहा है कि वो राजनीति में अपनी जगह बना पाएं।’ हालांकि एक वर्ग मानता है कि दो साल पहले द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद आदिवासी महिलाओं में ये विश्वास पनपा है कि वो भी देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहुंच सकती हैं। डॉ वासवी किड़ो भी इस बात से सहमत नजऱ आती हैं।
उन्होंने कहा, ‘निश्चित तौर पर महिलाओं में विश्वास तो आया है और वो इस बात से खुश हैं कि एक आदिवासी महिला देश की राष्ट्रपति हैं लेकिन ये काफ़ी नहीं है। आप एक आदिवासी औरत को बैठाके वन संरक्षण संशोधन अधिनियम में साइन करा रहे हो, पूरे जंगल उजाड़ रहे हो आदिवासी औरत को बिठाकर आप आदिवासी औरतों को जेल भेज रहे हो तो आदिवासी औरतें ये भी समझ रही हैं।
क्या कहते हैं आंकड़े?
एक बार आंकड़ों की तरफ़ नजऱ डालें तो साल 1952 से लेकर साल 2019 तक हुए लोकसभा चुनावों में कुल 51 आदिवासी महिला सांसद चुनी गई हैं। इनमें सबसे अधिक यानी 30 कांग्रेस पार्टी से चुनकर आई हैं। वहीं भारतीय जनता पार्टी से 12 अनुसूचित जनजाति की महिलाएँ संसद पहुंची हैं। तीसरे नंबर पर ओडिशा की बीजू जनता दल है, जिससे आज तक दो आदिवासी महिला सांसद चुनी गई हैं। वर्तमान में देश के निचले सदन में 77 महिला सांसद हैं। इनमें से दस आदिवासी समुदाय से आती हैं। यानी कुल 543 सदस्यों वाले निचले सदन में आदिवासी महिलाओं की भागीदारी महज 1।8 प्रतिशत है।
संसद पहुँचीं ये सभी महिलाएं अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों से जीतकर आई हैं, जिनकी संख्या कहने को लोकसभा चुनावों के इतिहास में सबसे अधिक है लेकिन अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित देशभर की 47 सीटों में से अभी भी 20 सीटें ऐसी हैं, जिससे आज तक एक भी महिला उम्मीदवार चुनकर नहीं आईं।
झारखंड की आयरन लेडी के नाम से मशहूर दयामनी बारला की पहचान देश- दुनिया में हैज्पिछले एक दशक से वो नई और स्थानीय पार्टियों के सहारे चुनावी लड़ाई लड़ रही हैं। कुछ महीने पहले ही उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ली है। वो खूंटी या लोहरदगा लोकसभा सीट से चुनाव लडऩे की इच्छुक हैं। लेकिन इस बात की संभावना कम ही है कि पार्टी उन्हें टिकट दे। वो कहती हैं, ‘टिकट की गारंटी कोई करे या ना करे, चाहे लोकसभा टिकट की गारंटी करे ना करे, विधानसभा टिकट की गारंटी करे ना करे, लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप में आना है और संघर्ष करना है एक दिन आपको कामयाबी मिलेगा, हमलोग हमेशा बोलते हैं कि लड़ेंगे और जीतेंगेज्हमलोगों ने कई आंदोलन लड़ा है और जीता है, बाक़ी आंदोलन भी लड़ेंगे और जीतेंगे।’
- डॉ. आर.के. पालीवाल
केन्द्रीय जांच एजेंसियों की ताबड़तोड़ कार्यवाहियों से दिन ब दिन लगातार यह आभास और पुख्ता होता जा रहा है कि वे उस निष्पक्षता से कोसों दूर होती जा रही हैं जिसकी परिकल्पना संविधान निर्माताओं ने उनसे की थी। ऐसा नहीं है कि यह परिर्वतन रातों रात हुआ है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि कुछ दौर में इन जांच एजेंसियों का व्यवहार अत्यंत पक्षपातपूर्ण दिखने लगता है। इंदिरा गांधी के आपातकालीन दौर के आसपास ऐसी ही स्थिति बनी थी या फिर वर्तमान केंद्रीय सत्ता के दौर में कुछ कुछ उसी तरह के हालात बनते दिखाई दे रहे हैं।
दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री को एक के बाद एक नौ समन जारी करने के बाद उनके सरकारी आवास से देर शाम छापे के बाद गिरफ्तार करने की घटना आजाद भारत के लिए इसलिए ऐतिहासिक बन गई है क्योंकि इसके पहले भी भ्रष्टाचार के मामलों में बहुतेरे मुख्यमंत्रियों पर संगीन आरोप लगे हैं और उनकी गिरफ्तारी हुई है लेकिन किसी दौर में किसी मुख्यमंत्री को इस तरह पद पर रहते हुए गिरफ्तार नहीं किया गया और वह भी पूरे देश में लोकसभा चुनाव के मद्देनजर लगी आचार संहिता के समय, इसलिए अरविंद केजरीवाल की गिरफ़्तारी के समय का चुनाव भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।
भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र सरकार यह कहकर अपना पल्ला झाडऩे की असफल कोशिश करेगी कि चुनाव काल में केंद्रीय जांच एजेंसियां स्वतंत्र रूप से अपना काम कर रही हैं। लेकिन आम आदमी पार्टी के लिए यह करो या मरो की स्थिति है। जब उसके तीन तीन कद्दावर नेता अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और संजय सिंह आबकारी नीति मामले में जेल में बंद हैं, ऐसे में उसके दूसरी और तीसरी श्रेणी के नेता आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं को कितना उत्साह दिला पाएंगे, आम आदमी पार्टी का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा।
ऐसा लगता है कि दिल्ली में उप राज्यपाल, केंद्रीय जांच एजेंसियों और दिल्ली पुलिस के माध्यम से आम आदमी पार्टी की सरकार की गतिविधियों में रोड़े अटकाने वाली केन्द्र सरकार ने बहुत नाप तौल कर अरविन्द केजरीवाल को ऐसे नाजुक वक्त में गिरफ्तार करने का जोखिम उठाया है जिसका ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है।इलेक्टोरल बॉन्ड के घेरे में फंसती भारतीय जनता पार्टी के लिए लोकसभा चुनाव में बाहर रहकर अरविंद केजरीवाल इस मुद्दे पर काफी परेशानी खड़ी कर सकते थे। अरविंद केजरीवाल और उनकी पत्नी सुनीता केजरीवाल लंबे समय तक आयकर विभाग में रहे हैं और आर्थिक अपराध की बारीकियों को अधिकांश नेताओं से बेहतर समझ सकते हैं। अरविन्द केजरीवाल स्वभाव से अत्यंत मुखर और महत्वाकांक्षी हैं इसलिए इलेक्टोरल बॉन्ड के मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा कर वे इंडिया गठबंधन में भी अपना कद बढ़ा सकते थे इसलिए लोकसभा चुनाव के समय इंडिया गठबंधन के लिए प्रचार के लिए उनका उपलब्ध रहना भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन सकता था। केजरीवाल का जेल में रहना भाजपा के लिए अलग तरह की परेशानी पैदा कर सकता है। उनकी अनुपस्थिति में कार्यकर्त्ता धरने प्रदर्शन कर माहौल अपने पक्ष में बनाने की पूरी कोशिश करेंगे।
अरविंद केजरीवाल की गिरफ़्तारी का ऊंट किस करवट बैठेगा, निकट भविष्य में यह न्यायपालिका के आदेशों पर सबसे ज्यादा निर्भर करेगा। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में आ चुका है। अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में विद्वान वकीलों की भारी भरकम फौज निचली अदालत से लेकर उच्च और उच्चतम न्यायालय तक जिरह करने के लिए चौबीस घंटे उपलब्ध रहती है जिसमें अभिषेक मनु सिंघवी से लेकर कपिल सिब्बल सरीखे दिग्गज शामिल रहते हैं। अगले दस पंद्रह दिन में केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का भविष्य थोड़ा साफ दिखने लगेगा। फिलवक्त आम आदमी पार्टी से ज्यादा केंद्र सरकार इस मामले में घिरती नजर आ रही है ।
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
होली हो और नजीर अकबराबादी पर बातें न हों यह हो नहीं सकता। ब्रज की होली के रंगों को जिन लोगों ने देखा और जिया है उनके लिए होली का अर्थ समझना आसान है ,लेकिन जिन लोगों ने ब्रज की होली नहीं देखी है वे उसके मर्म को समझ नहीं सकते। टीवी से ब्रज की होली समझ में नहीं आ सकती।
विगत वर्षों में होली खेलते खेलते ब्रज बदला है, मंदिर, बदले हैं, मंदिरों में होने वाला हुरंगा बदला है, सड़कों की रौनक और रंगों का खेल बदला है। आम लोगों का होली के प्रति मिजाज बदला है। ब्रज की होली का अर्थ है कोई नियम नहीं। यह दिन मनुष्य के लिए मुक्ति और आनंद का दिन है। इस दिन को मनुष्य पूर्ण उल्लास और आनंद के साथ व्यतीत करता है।
होली में रंग तो बहाना है असल मकसद है बंधनों से मुक्ति। रंग यहां बंधनमुक्ति का प्रतीक हैं। जब आप किसी को रंग देते हैं तो बंधन मुक्ति की कामना करते हैं। जिसने भी होली को आरंभ में खेला था वह बंधनों में बंधे मनुष्य की पीड़ा का भुक्तभोगी रहा होगा। होली का मतलब महज होलिका दहन नहीं है, कुछ लकड़ियों का जलाया जाना नहीं है.यह पौराणिक आख्यान की पुनरावृत्ति भी नहीं है। वैसे हमारे समाज में प्रत्येक त्यौहार के साथ पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं , कोई न कोई देवी-देवता, नायक-नायिका आदि जुड़े हैं। ये इन पर्वों के गौण रूप हैं। उत्सवधर्मिता इसके पीछे प्रदान लक्ष्य है।
होली सांस्कृतिक पर्व है अतः इसकी महिमा निराली है। उसके रंगों का अर्ख रंगों के परे है। यह रंगों से आरंभ जरूर होता है, लेकिन खत्म बंधनों से मुक्ति में होता। रंग पड़ने का अर्थ है निषिद्ध की मौत, बंधन का अंत।यही वजह है होली सब मनाते हैं, लेकिन होली के बहाने भारतीय समाज बंधनों से मुक्ति का महा उत्सव मनाता है।
मजेदार बात यह है कि होली ब्रज की ही सुंदर मानी गयी है, सवाल यह है कि ब्रज की होली क्यों ? ब्रज में भी मथुरा की ही होली क्यों महत्वपूर्ण है ? मथुरा भारत की प्राचीन नगर सभ्यता के बड़े केन्द्रों में से एक रहा है। कृष्ण की जन्मभूमि है और सामाजिक परिवर्तन का श्रीकृष्ण सबसे बड़ा मिथकीय नायक है। वह बंधनों से मुक्ति का भी नायक है। यही वजह है मथुरा को होली का आदर्श स्थान माना गया।
इसके अलावा जिस चीज ने होली को महान बनाया वह है इसका जातिभेद रहित रूप। होली एकमात्र त्यौहार है जो परंपरा में शूद्रों का पर्व माना जाता है, लेकिन इसको मनाते सभी जाति के लोग हैं। भारत की जातिप्रथा के प्रतिवाद में इस पर्व की बड़ी भूमिका रही है। बंधन, जाति, भेद आदि को होली में जलाते हैं। भेदरहित बंदनमुक्त समाज के आदर्श सांस्कृतिक पर्व के रूप में इस मनाया जाता है। होली पर यदि आप किसी रंग पर डाल दें, किसी को गाली दे दें, किसी को रंग के हौदा में डुबो दें। या फिर प्रेम व्यक्त कर दें।कोई बुरा नहीं मानता। होली में सात खून माफ हैं।
लेकिन परवर्ती पूंजीवाद में होली में मौजूद सहनशीलता को प्रभावित किया है। इन दिनों हम असहिष्णु ज्यादा बने हैं।किसी ने बिना बताए और स्वीकृति के बिना रंग डाल दिया तो प्रतिवाद करते हैं, झगड़ा करते हैं, नाराज होते हैं। होली का नारा है बुरा न मानो होली है। होली में मनुष्य की एक नई परिकल्पना की गई है वह है 'भडुए' की। यह अनुशासित नागरिक की मौत की सूचना का पर्व भी है। यह तथाकथित अभिजनवादी सभ्य समाज की विदाई का दिन भी है। यह जानते हुए भी सभ्य लोग होली पर रंग पड़ने पर बुरा मानते हैं। सरकार ने अनिच्छा से रंग फेंकने के खिलाफ कानून बना दिया है,रंग फेंकना अपराध घोषित कर दिया है। यह होली नहीं है बल्कि होली का सरकारी नियमन है।
ब्रज में होली पूरे फाल्गुन माह चलती है। रंगों का मंदिरों में जमकर हुरंगा चलता है। होली एकमात्र ऐसा पर्व है जिस पर दुश्मन से भी लोग गिला -शिकवा खत्म करके गले मिलते हैं। यह रंजिशों के अंत का दिन है। स्त्री-पुरूष के भेद के अंत का सांस्कृतिक पर्व है, यह अकेला ऐसा सांस्कृतिक पर्व है जिसमें औरतें लट्ठमार होली खेलती हैं और पुरूष निहत्थे होते हैं। वरना और किसी पर्व पर औरतों के हाथ में कोई लट्ठ आपको नहीं मिलेगा।
यहां हम नज़ीर अकबराबादी की होली पर लिखी एक शानदार कविता पेश कर रहे हैं जिसमें होली के मर्म की शानदार प्रस्तुति की गई है।
"जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली की,
और दफ़ के शोर खड़कते हों
तब देख बहारें होली की,
परियों के रंग दमकते हों
तब देख बहारें होली की,
खुम, शीशे, जाम छलकते हों
तब देख बहारें होली की,
महबूब नशे में छकते हों
तब देख बहारें होली की,
हो नाच रंगीली परियों का
बैठे हों गुलरू रंग भरे,
कुछ भीगे ताने होली के
कुछ नाज़-ओ-कदा के ढ़ंग भरे
दिल भोले देख बहारों को
और कानों में आहंग भरे
कुछ तबले खड़के रंग भरे
कुछ ऐश के दम मुँह जंग भरे
कुछ घुँघरू ताल छनकते हों
तब देख बहारें होली की
सामान जहाँ तक होता है
इस इशरत के मतलूबों का
वो सब सामान मुहय्या हो
और बाग़ खिला हो खूबों का
हर आन शराबें ढलती हों
और ठठ हो रंग के डूबों का
इस ऐश मज़े के आलम में
इक ग़ोल खड़ा महबूबों का
कपड़ों पर रंग छ्ड़कते हों
तब देख बहारें होली की
गुलज़ार खिले हों परियों के,
और मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग के छीटों से
खुशरंग अजब गुलकारी हो
मुँह लाल ,गुलाबी आँखें हों,
और हाथों में पिचकारी हो
इस रंग भरी पिचकारी को,
अँगिया पर तककर मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों,
तब देख बहारें होली की
इस रंग रंगाली मजलिस में,
वो रंडी नाचने वाली हो
मुँह जिसका चाँद का टुकड़ा हो,
औऱ आँखे भी मय की प्याली हो
बद मस्त,बड़ी मतवाली हो,
हर आन बजाती ताली हो
मयनोशी हो बेहोशी हो
'भडुए' की मुँह में गाली हो
भडुवे भी भडुवा बकते हों,
तब देख बहारें होली की
और एक तरफ़ दिल लेने को
महबूब मवय्यों के लड़के
हर आन घड़ी गत भरते हों
कुछ घट-घटके कुछ बढ़ -बढ़के
कुछ नाज़ जतावें लड़-लड़के
कुछ होली गावें अड़-अड़के
कुछ लचके शेख़ कमर पतली
कुछ हाथ चले कुछ तन फड़के
कुछ काफिर नैन मटकते हों
तब देख बहारें होली की
ऐ धूम मची हो होली की
और ऐश मज़े का झक्कड़ हों
उस खींचा-खींच की कुश्ती में
और भडुवे रंड़ी का फक्कड़ हो
माजून शराबें, नाच, मज़ा और
टिकिया, सुलफा, कक्कड़ हो
लड़-भिड़के 'नज़ीर' फिर निकला हो
कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश झमकते हों
तब देख बहारें होली की ।
-राहुल कुमार सिंह
(संदर्भ : राजकमल प्रकाशन समूह का आयोजन)
संयोग कि मेरे आस-पास और लगभग नियमित संपर्क में छह-सात ऐसे घनघोर पाठक हैं, जिनसे लाभान्वित होता रहता हूं। ये सभी, जो हाथ आए पढ़ लेते हैं, कहीं लिखने-छपने को उत्सुक नहीं रहते, आपस की बैठकी में अपनी पसंद पर बातें जरूर कर लेते हैं। इन्हीं में से एक ने किसी दिन हल्के मूड में कहा- 'कभी लगता है पढऩे को ज्यादा ही सम्मान दिया जाता है, हम दूसरे कई जरूरी कामों से बच कर किताबों में मुंह छुपा लेते हैं।'
मैंने देखा है कि अधिकतर 'पाठक' के रूप में पहचाने जाने वाले लिखने-छपने वाले या इसकी तैयारी में चाल-चलन को समझने की कोशिश करने वाले होते हैं। पाठकों की पसंद का कुछ अनुमान बाजार और लोक-प्रतिष्ठा से लगाया जा सकता है, मगर पुस्तकालयों और विनिमय से पढऩे वालों और साधक भाव वाले पाठकों की तादाद कम नहीं। मुझे लगता है कि किंडल और नेट आदि के बावजूद हिंदी का गंभीर पाठक का बड़ा वर्ग अभी भी पुस्तक और छपे रूप पर टिका है।
पढऩे और पसंद की बात होते, क्या पढ़े? कुछ अच्छा बताइए, पूछने वाले जरूर मिलेंगे, इनके अच्छा पाठक बन सकने का भविष्य संदिग्ध ही होता है। मेरे एक परिचित अभी भी कागज का हाथ आया पुरजा हो या चिंदी, एक नजर देख कर, सरसरी बांचे बिना नहीं फेंकते।
एक अन्य परिचित, जो नये-नये लेखक बन रहे थे, किताब छपाना चाहते थे, मुझे प्रिंट-आउट दिखाया, ठीक-ठाक लिखा था। बताया कि प्रकाशक अमुक राशि ले कर छापने को तैयार है, मैंने सुझाया कि जल्दी न हो तो कुछ अच्छे प्रकाशकों से बात कर लीजिए, वे भी तैयार हो सकते हैं। इस पर उन्होंने कहा साहित्यकार बनने की इच्छा नहीं है, मैं चाहता हूं, मेरी किताब छपे, बस-ट्रेन का मुसाफिर, बैठे-ठाले जिसके हाथ लगे, पढ़ ले, उसे पसंद आ जाए, बस। आज उनकी चार-पांच पुस्तकें हैं, सारी आत्मकथा वाली, खूब पढ़ी जा रही हैं, पसंद की जाती हैं। वे खुद चाहें तो अपनी पहचान यहां उजागर कर दें।
-विजया एस कुमार
याद नहीं कब से, पर बहुत ही छुटपन से मैं शिव की अन्यन भक्त रही हूं। शिव का अभिषेक और उनका श्रृंगार मुझे अतिशय प्रिय रहा।शायद इसलिये भी की वैष्णव सम्प्रदाय की दीक्षा लेने वाली पीढिय़ों के वावजूद हमारे अँगने में शिव हमेशा से ही विराजमान रहे हैं, फिर चाहे वो हमारे पुराने अँगने का मिट्टी का शिवलिंग हो या नए अँगने में वाराणसी से ले स्थापित किये गए शिवलिंग। वैसे भी अवधारणा है कि काशी से लाये गए शिवलिंग को स्थापना की जरूरत नही है क्योंकि वहां तो कण कण में शिव विराजते हैं। अम्मा गर्मियों में उनके ऊपर पानी की झाँपि रखती थी जिससे पूरे दिन बून्द-बून्द बरसते जल से शंकर भगवान का अभिषेक होता रहता और उन्हें ठंडक मिलती थी, वही सर्दियों में भोला बाबा के नजदीक धूप की अलाव जलती थी ताकि कैलाशपती को सर्दी का अहसास न हो। ऊपर से बड़े पापा के साथ हर पूर्णिमा दश्वमेध घाट का स्नान और विश्वनाथ मंदिर में बाबा का अभिषेक। वही पापा के साथ सावन में बाबा वैद्यनाथ का दर्शन। आज भी साल में कम से कम एक बार महराज मलिककार्जुन का दर्शन तो सुखद हो ही जाता है।
जब घर मे ऐसा माहौल हो तो शिवभक्ति तो रग रग में घुलने ही लगती है। सावन की हरेक सोमवारी और शिवरात्रि तो होना ही था, पर फागुन की शिवरात्रि का मोह कैसे छूट जाता।इसी दिन तो प्यारे शिव लाडली गौरा संग विवाह बंधन में बंध जाते हैं। वही बंधन जिसमे बंधते वक्त हर माता पिता अपनी बिटिया दामाद में गौरीशंकर ढूंढते हैं और उन जैसा ही होने का आशीर्वचन देते हैं। शिवरात्रि के दिन तो हर कोई भोले का पूजन करता है पर मेरी बड़ी चाची अगले दिन की पूजा मुझसे खूब मनोयोग से करवाती और कहती कि गौरा संग ब्याह के कैलाशपति इतने प्रसन्न होते हैं कि हर वचन देने को आतुर होते हैं जो चाहे मांग लो,फिर इसी दिन से गांव में खड़ी होली की भी शुरुआत होती है।
ब्याह के बाद तो गौना होता है, उसके बगैर दूल्हन आये कैसे ससुराल! तो गौरा भी कैसे पहुंचे विश्वनाथ गलियां। गौरा को गौनाने आते हैं त्रिपुरारी और संग उनके गण। बनारस में ठीक फाल्गुन एकादशी के दिन विश्वनाथ मंदिर के महंत जी के यहां से रजत जडि़त गौरा और महादेव चांदी की पालकी पर विराज गौरा के मायके की गलियों से गुजरती विश्वनाथ मंदिर आती है और सारे भक्तगण खुशी मे गुलाल उड़ाते हैं इतना कि मय नगरी लालम लाल हो जाती है और एकादशी रंगभरी हो जाती है इसलिए ही इसे रंगभरी एकादशी भी कहते हैं। इसी एकादशी से शुरुआत हो जाती है रंगों गुलाल वाली फाल्गुनी होली की।
पर शिव के भक्त में सिर्फ मनुष्य एवं देवगण ही तो नहीं आते हैं न! इस औघड़ की टोली तो भूत पिशाचों की भी उतनी ही होती है, तो भला उन्हें सिर्फ रंगों की होली कैसे रास आये। ठीक गौने के अगले दिन मणिकर्णिका पर चितायों की राख से भस्म होली खेली जाती हैं। वही मणिकर्णिका जहां सैकड़ों सालों से कभी भी चिता की आग ठंडी नही हुई है, जहां पहुच कर ही अहसास होता है कि शरीर की आखरी गति वही है। तुम्हारे पूर्वज भी इसी मिट्टी में मिले हुए हैं जिनमे तुमने भी मिलना है। फिर इस संसार से इतनी प्रीति क्यों। विरक्ति क्यो नही।
तो कितना निराला है ना शिव का प्रीति से विरक्ति तक का सफर। आइए इस होली हम भी अपने घमंड और टसनो को भी भस्म कर दे और उससे होली खेलते लब से फूटे-
‘खेले मशाने में होली दिगम्बर, खेले मसाने में होली’
होली है!
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने कहा है कि किसी राजनीतिक पार्टी के बैंक खातों को फ्रीज करना, ऐसे समय में जब चुनाव होने वाले हों, सभी को एक समान अवसर देने के नियम से उसे वंचित करना है। हाल ही में कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेताओं ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर आरोप लगाया कि दो पुराने मामले का हवाला देते हुए पार्टी के खातों को फ्रीज कर दिया गया है। कांग्रेस का आरोप है कि 30-35 साल पुराने मामले को खोल कर चार खातों को फ्रीज कर दिया गया जबकि इस मामले में करीब 14 लाख रुपये की गड़बड़ी के चलते 285 करोड़ रुपये का फंड रोक लिया गया।
बीबीसी संवाददाता इकबाल अहमद से विशेष बातचीत में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने कहा कि चुनाव आयोग का काम है स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना, इसलिए वो कांग्रेस के बैंक खाते फ्रीज किए जाने के मामले में निर्देश दे सकता है। वो ये कह सकता है कि जैसे इतने दिन रुका गया, दो महीने और रुका जा सकता है। हालांकि उनका कहना है कि अरविंद केजरीवाल का मामला अलग है। बीते एक साल से समन आ रहे थे और वो उसे नजरअंदाज कर रहे थे।
आचार संहिता लागू होने के बाद, पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व को गिरफ़्तार करने से पहले जांच एजेंसियों को क्या चुनाव आयोग को सूचित नहीं करना चाहिए? इस सवाल के जवाब में कुरैशी ने कहा कि ऐसा मामला पहले चुनाव आयोग के सामने आया नहीं। हलांकि उन्होंने कहा कि ऐसे समय में दो दो मुख्यमंत्रियों को जेल के अंदर डालने से एक ग़लत छवि बनती है। और कुछ लोग रूस से तुलना कर सकते हैं जहां हाल ही में हुए आम चुनाव के दौरान विपक्षी नेताओं को जेल के अंदर डाल दिया गया था। उन्होंने कहा कि कार्रवाई करने वाली एजेंसियां भी बहुत हद तक स्वतंत्र होती हैं, ऐसा कहना मुश्किल है।
इलेक्टोरल बॉन्ड की पारदर्शिता क्यों संदेह के घेरे में थी?
इलेक्टोरल बॉन्ड जब लाया जा रहा था तो इसी चुनाव आयोग ने आपत्ति ज़ाहिर की थी और 2017 में उसने चि_ी लिखी थी और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया भी इसके विरोध में था। लेकिन बाद में उनकी राय बदल गई।
ये पूछने पर कि इससे क्या आशय निकलता है, एसवाई कुरैशी ने कहा, ‘जब ये इलेक्टोरल बॉन्ड आए थे, तो 2017 में चुनाव आयोग की प्रतिक्रिया बहुत कड़ी थी। रिज़र्व बैंक ने इस बारे में चि_ी लिखी। लेकिन 2021 में इन्होंने बिल्कुल यूटर्न ले लिया।’ अब जबकि इलेक्टोरल बॉन्ड की स्कीम रद्द कर दी गई है और चुनाव आयोग ने इससे जुड़ी सारी जानकारियों को सार्वजनिक कर दिया है, क्या इससे कोई बदलाव आएगा?
इस पर एसवाई कुरैशी का कहना था कि इससे बदलाव तो जरूर आएगा, ‘सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्पष्ट रूप से असंवैधानिक करार दिया है। ये तो चुनाव आयोग की ही मांग थी और मेरी भी इस बारे में पुख़्ता राय रही है।’
इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर एसवाई कुरैशी ने अपनी एक किताब ‘इंडिया एक्सपेरिमेंट विद डेमोक्रेसी: लाइफ ऑफ ए नेशन थ्रू इट्स इलेक्शन’ का हवाला दिया।
कुरैशी कहते हैं, ‘जब इलेक्टोरल बॉन्ड लाया जा रहा था तो तत्कालीन वित्त मंत्री ने कहा था कि बिना पारदर्शी राजनीतिक फंडिंग के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं हैं और बीते 70 साल में इसे पारदर्शी बनाने की हमारी कोशिशें नाकाम रहीं। लेकिन अपने भाषण में पारदर्शी प्रणाली को ही उन्होंने खत्म कर दिया।’ वो कहते हैं, ‘उस वक्त ये नियम था कि 20 हजार से ऊपर चंदा लेने पर चुनाव आयोग को बताना होता था और सर्टिफिकेट दिया जाता था। इस आधार पर इनकम टैक्स छूट मिलती थी। इलेक्टोरल बॉन्ड के आने के बाद 20 हजार करोड़ का भी कोई हिसाब नहीं है। किसने किसको कितना दिया ये पता ही नहीं चलता है।’
चुनावी चंदे का पारदर्शी तरीक़ा क्या हो?
लेकिन सवाल उठता है कि एक आदर्श चुनावी चंदे की कोई प्रणाली होनी चाहिए। ये प्रणाली क्या हो सकती है?
इस पर कुरैशी ने कहा, ‘इलेक्टोरल बॉन्ड से पहले राजनीतिक पार्टियों को जाने वाला 70 प्रतिशत चंदा नकद में होता था। ये कहां से आया किसने दिया, कुछ पता नहीं लगता था। उस समय भी सुधार की बात उठी।’ वो कहते हैं, ‘इसका एक ही तरीका है कि नेशनल इलेक्शन फ़ंड (राष्ट्रीय चुनाव कोष) बना दिया जाए, क्योंकि ये कहा जाता है कि चंदा देने वाले डरते हैं कि दूसरी पार्टी न नाराज हो जाएं। प्राइम मिनिस्टर फंड, नेशनल डिजास्टर फंड आदि में देने में किसी को ऐतराज नहीं होता। इसी तरह इसमें भी फंड दिए जाएं।’
उनके मुताबिक, ‘इस राष्ट्रीय चुनावी फंड से पिछले चुनाव में मत प्रतिशत के आधार पर पार्टियों को फंड दे दिये जाएं। 70 फीसदी यूरोपीय देशों में ये प्रणाली चल रही है। इससे काफी हद तक चुनावी चंदे में पारदर्शिता आ सकती है।’
ईवीएम पर सवाल खड़ा करना कितना सही?
चुनाव करीब आते ही ईवीएम पर फिर से सवाल खड़े होने लगे हैं और कांग्रेस की अगुवाई वाले विपक्षी इंडिया गठबंधन ने हाल ही में मुंबई में हुई एक रैली में इस पर तीखा हमला बोला।पूर्व चुनाव आयुक्त ने कहा, ‘ईवीएम पर सबसे अधिक विरोध 2009 में बीजेपी ने किया था। मैं 2010 में चुनाव आयुक्त बना। लेकिन मेरी धारणा ईवीएम को लेकर सकारात्मक रही है। अगर कोई सवाल है तो राजनीतिक दलों की बैठक कर उसे हल करना चाहिए।’
‘ईवीएम के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क है कि उसी ईवीएम से राजनीतिक दल लगातार हारते और जीतते रहते हैं, कर्नाटक, पंजाब, दिल्ली, हिमाचल इसका उदाहरण है, जहां सत्तारूढ़ पार्टी हारी। हालांकि इसमें सुधार किया जा सकता है। मेरा सुझाव है कि वीवीपैट में ऐसी सुविधा दी जाए कि मतदाता संतुष्ट होने के बाद हरा बटन दबाए और तभी पर्ची निकले। और अगर इसमें गड़बड़ी हो तो अलार्म का लाल बटन हो ताकि मतदान को रोका जा सके।’
अभी चुनिंदा मतदान केंद्रों पर ही वीवीपैट की सुविधा होती है लेकिन कई राजनीतिक दल इसे 100 प्रतिशत लागू करने और उन पर्चियों की गिनती की भी मांग करते रहे हैं।
इस पर कुरैशी ने कहा कि ‘भरोसा कायम करने के लिए ये दोनों मांगें मानी जानी चाहिए। इससे चुनावी नतीजों में थोड़ी ही देरी होगी। हालांकि ये भी तरीका बनाया जा सकता है कि अगर किसी सीट के दो शीर्ष उम्मीदवार किसी बूथ के वोट की फिर से गिनती करवाना चाहें तो ये करने देना चाहिए, जिससे फिर से पूरी मतगणना से बचा जा सकेगा।’ हालांकि उन्होंने कहा कि ईवीएम बनाने वाली कंपनी में सत्तारूढ़ दल बीजेपी के लोगों का स्वतंत्र निदेशक की हैसियत से शामिल होना गंभीर बात है। उनके अनुसार, ‘निदेशक के पास बहुत ताकत होती है, वो कुछ बदलाव के लिए कह सकता है। लेकिन निदेशक भले ही कुछ न करें, उनकी राजनीतिक नियुक्ति लोगों के मन में संदेह पैदा करती है। हालांकि ये भी सुझाव पहले से रहा है कि सॉफ़्टवेयर को ओपन सोर्स कर दिया जाए। सार्वजनिक होने से उसमें सुधार ही होगा।’
चुनाव आयोग में कितना सुधार हुआ?
ये पूछने पर कि टीएन शेषन के कार्यकाल की तुलना में बाद के चुनाव आयुक्तों की कार्यपद्धति में क्या बदलाव आया, कुरैशी कहते हैं कि जिस काम को उन्होंने शुरू किया, बाद के चुनाव आयुक्तों पर उसे और मजबूत करने की जिम्मेदारी थी और हुआ भी।
उन्होंने तत्कालीन कानून मंत्री वीरप्पा मोइली के बारे में एक किस्सा भी सुनाया कि चुनाव सुधार की मीटिंग के लिए वो खुद उनके पास आए।
उन्होंने कहा कि टीएन शेषन कहते थे कि चुनाव आयुक्त को कानून मंत्री के दफ्तर के बाहर दो घंटे इंतजार करना पड़ता था। लेकिन तबसे स्थिति काफी सुधरी है।
वो पूछते हैं कि टीएन शेषन कहते थे कि वो नाश्ते में नेताओं को खाते हैं लेकिन क्या आज कोई चुनाव आयुक्त ऐसा कह सकता है?
हाल के दिनों में चुनाव आयोग में हुए विवादों पर कुरैशी ने कहा कि ‘2019 में जैसे अशोक लवासा की असहमति का मामला सामने आया। इससे थोड़ा धक्का तो लगा ही। उस समय चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर असर पड़ा था लेकिन पिछले सालों में आयोग की छवि में सुधार ही हुआ है।’ (bbc.com/hindi)
-दिनेश श्रीनेत
पिछले दिनों दूरदर्शन के पुराने सीरियल ‘फिर वही तलाश’ का जिक्र चला तो बहुत सी यादें ताजा हो गईं। अस्सी के दशक के अंतिम साल यह टेलीकास्ट हुआ था। तब तक भारत में निजी चैनल शुरू नहीं हुए थे, तो ‘ऑन-एयर’ एक किस्म की मासूमियत फैली हुई थी। दूरदर्शन पर प्रसारित इन सीरियल्स में सादा सी कहानियां, रंगमंच से आए अभिनेता- जो पूरी तरह किरदार में ढल जाते थे और सहज-सरल निर्देशन होता था। बात को बहुत जटिल तरीके से या घुमा-फिराकर कहने की कोशिश नहीं होती थी।
उन्हीं सादा दिनों में मासूम सी प्रेम कहानी वाला यह सीरियल शुरू हुआ था। महज चार लाइनों में सिमटी प्रेम कहानी को इसके लेखक रेवती सरन शर्मा ने इस तरीके से कहा कि लगता था कि छोटे से स्क्रीन में सचमुच कुछ चलते-फिरते वास्तविक लोगों की जिंदगी समा गई है। हालांकि इससे पहले भारतीय मध्यवर्गीय जीवन पर आधारित कुछ बेहद लोकप्रिय सीरियल आ चुके थे। सन् 1984 में ‘हम लोग’ और 1986 में ‘बुनियाद’ की लोकप्रियता आज भी इतिहास है। लेकिन ‘फिर वही तलाश’ ने चुपचाप लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाई थी।
आज जब कई बरस बीत चुके हैं, इसकी याद हल्की सी कसक के साथ उन सबके भीतर आज भी मौजूद है, जिन्होंने वह समय देखा था। उस कहानी के साथ कुछ सुंदर से लम्हे बिताए थे। मुझे याद है कि ‘फिर वही तलाश’ का प्रसारण दोपहर बाद हुआ करता था- शायद तीन बजे के आसपास। इसकी टार्गेट ऑडियंस के लिए शायद दूरदर्शन को यह उपयुक्त समय लगा होगा, जब घरेलू महिलाएं फुर्सत में हुआ करती थीं। मेरी मां को यह सीरियल बहुत पसंद था। उनके साथ बैठकर मैं भी देख लिया करता था। देखते-देखते जाने कब मैं नरेंद्र और पद्मा की प्रेम कहानी से जुड़ता चला गया।
इसमें एक कंट्रास्ट भी था। सकुचाई हुई पद्मा की शोख सहेली थी शहनाज। मुफलिस और मजबूर नरेंद्र के बरअक्स था आत्मविश्वास से भरा हुआ किरदार कैप्टन सलीम, जो शहनाज़ से प्रेम करता था। पूरे 22 एपिसोड बस इन्हीं चार किरदारों के इर्द-गिर्द बुने गए थे। उनकी खुशियां, उनकी चिंताएँ, परेशानियां, शरारतें, कभी उम्मीदों से भर उठना और कभी आसपास निराशा के बादल घिर जाना। लेकिन यह लेखक और निर्देशक की खूबी थी कि उन्होंने तमाम छोटे-छोटे किरदार भी बखूबी लिखे थे। इसमें सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित किया नरेंद्र के पिता बने वीरेंद्र सक्सेना और उसके पड़ोस में रहने वाली लडक़ी तारा के रोल में हिमानी शिवपुरी ने। संभवत: हिमानी शिवपुरी को इस सीरियल में पहला ब्रेक मिला था।
मुख्य किरदार तब नए थे। कहानी के नायक नरेंद्र का किरदार निभाया था डॉ. अश्विनी कुमार ने। मूल्यों पर भरोसा करने वाला एक ऐसा इनसान जो जीवन की ख्वाहिशों और जरूरतों के द्वंद्व में उलझा हुआ है। अश्विनी कुमार को हम बहुत शानदार अभिनेता नहीं कह सकते मगर यही बात इस सीरियल के लिए शायद उनकी खूबी बन गई। वह इतने आम से दिखते हैं कि लगता ही नहीं कोई अभिनय कर रहा है। हालांकि इस सीरियल के बाद उन्होंने पूरी तरह अभिनय छोड़ दिया और फुल-टाइम डॉक्टर बन गए।
ऐसी ही सरल सहज थीं पूनम रेहानी जिन्होंने चुपचाप सी रहने वाली पद्मा का किरदार निभाया था। उन्होंने भी इस सीरियल के बाद कहीं और अभिनय नहीं किया। कहते हैं ‘मैंने प्यार किया’ के लिए उनका ऑडिशन हुआ था मगर मना करने पर यह रोल ‘कच्ची धूप’ से सामने आई भाग्यश्री को मिल गया। नीलिमा अजीम को हम सब जानते हैं, उन्हें उनकी पूरी शोखी के साथ सर्वश्रेष्ठ रूप में देखना हो तो ‘फिर वही तलाश’ जरूर देखनी चाहिए। उनके प्रेमी बने कैप्टन सलीम का रोल किया था राजेश खट्टर ने, जो नई जनरेशन के अभिनेता ईशान खट्टर के पिता भी हैं।
इसके निर्देशक लेख टंडन ने कई सफल फिल्में बनाईं मगर अस्सी के दशक में उनके लायक सिनेमा नहीं बन रहा था तो शायद उन्होंने दूरदर्शन का रुख किया। यह उनका पहला सीरियल था। उन्होंने रेवती सरन शर्मा की कहानी को बड़ी सादगी से जस-का-तस स्क्रीन पर उतार दिया। असल जादू तो रेवती सरन जी की कहानी का ही था। उनके रग-रग में रेडियो नाटक बसा हुआ था। टेलीविजन को कई यादगार फिल्में और नाटक देने के बावजूद वे अंत तक खुद को ‘रेडियोवाला’ ही कहते रहे। उनके कई लोकप्रिय रेडियो नाटक बरसों-बरस सुनने वालों को याद रहे।
बहुत कम लोगों को पता होगा कि दरअसल ‘फिर वही तलाश’ उनके ही एक घंटे भर के रेडियो नाटक ‘फिर उसी वीराने की तलाश’ की पुन: प्रस्तुति थी। उस रेडियो नाटक के राजन और रमा टेलीविजन में आकर नरेंद्र और पद्मा बन गए। चुलबुली शहनाज रेडियो में भी थी और टीवी में भी। उसका नाम नहीं बदला गया, बस उसकी प्रेम कहानी को टीवी में विस्तार मिल गया। कहानी बस इतनी सी थी पढ़ाई के लिए शहर आए एक नौजवान को किसी परिचित की मदद से शहर के एक रईस के आउटहाउस में रहने की गुंजाइश मिल जाती है। संयोग से उस अमीर व्यक्ति की बेटी भी उसी कॉलेज में पढ़ती है।
परिस्थितियां इस तरह करवट लेती हैं कि दोनों के बीच प्रेम हो जाता है मगर लडक़ी को मजबूरन किसी और से शादी करनी पड़ती है। एक दिन वह अपने पति की फैक्टरी में ही उसी युवक को नौकरी करते देखती है। वह उससे मिलती है और कहती है कि कई साल बीतने के बाद भी वह उसको नहीं भूली है और अपने पति से तलाक लेकर उसके साथ शादी करने को तैयार है। यहां तक की कहानी दोनों में एक जैसी है। मगर टीवी में अंत बदल दिया गया है। रेवती सरन शर्मा के निधन पर फ्रंटलाइन पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में उन्हें (बाकी पेज 8 पर)
‘वाइस ऑफ ह्यूमनिज़्म’ कहकर याद किया गया था। वे गंगा-जमुनी तहजीब वाले लेखक थे। उर्दू में लिखा करते थे, अपनी मुहावरेदार भाषा और काव्यात्मकता के जरिए उनका लेखन सीधे सुनने वालों के दिल में उतर जाता था। ‘फिर वही तलाश’ में नायक के सपनों से उन दिनों छोटे शहर की पृष्ठभूमि से आया हर नवयुवक जुड़ जाता था। क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हापुड़ कसबे में जन्मे रेवती सरन के पिता भी यही चाहते थे कि वे आगे पढऩे की बजाय दुकान संभालना सीखें और शादी करके घर बसा लें। शर्मा आगे पढऩा चाहते थे और यह उनके पिता को बिल्कुल पसंद नहीं था।
शायद इसी वजह से सीरियल में नायक डॉ. अश्विनी कुमार और उनके पिता बने वीरेंद्र सक्सेना के बीच द्वंद्व इतनी गहराई से उभरकर सामने आया है। रेवती सरन शर्मा की सबसे बड़ी खूबी उनके संवाद थे। उन्हें पता था कि रेडियो का श्रोता सिर्फ नरेशन और संवादों के जरिए अपनी कल्पना को उड़ान दे सकता है, लिहाजा वे इस तरह से लिखते थे कि पात्रों की तस्वीर बिना कुछ लिखे-कहे सुनने वाले के मन में बनती चली जाती थी। उनके पास रंगमंच का गहरा अनुशासन था मगर नाटकों के विपरीत वे छोटे और अंग्रेजी नाटकों की तरह विट वाले संवाद लिखा करते थे। उर्दू पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी, लिहाजा उर्दू अफसानों का चुस्त लहजा भी उनकी लेखनी को अलग बना देता था। इसका एक उदाहरण रेडियो नाटक ‘फिर उन्हीं वीरानों की तलाश’ में देखा जा सकता है, जब रमा की शादी के बाद राजन की उससे मुलाकात होती है -
मुलाकात के कुछ देर बाद राजन कहता है-मैं जा सकता हूँ?
रमा : तुमने मुझे माफ नहीं किया?
राजन : मुझे घर जाना है।।।
रमा : कुछ देर और न बैठ सकोगे?
राजन : फायदा?
रमा : हर बात फायदे के लिए की जाती है?
राजन : नहीं की जाती?
रमा : राजन...
राजन : कम से कम इस बारे में अब तो तुम्हें ईमानदार हो जाना चाहिए।
सवाल के बदले सवाल; और जब आप कहानी से गुजर चुके हों तो हर वाक्य नए अर्थ खोलता चलता है। रमा के साथ अपनी आखिरी मुलाकात में राजन कहता है, ‘तुम अगली बार मिलोगी तो पाओगी कि मैं टूटा नहीं हूँ, जुड़ गया हूँ, बन गया हूँ। मुझे चाहते रहना पर उस मंजिल की तरह जो पहली थी आखिरी नहीं...’
नाटक में रमा और राजन एक-दूसरे से कभी नहीं मिल पाते हैं और शहनाज के इस वाक्य के साथ नाटक का अंत होता है, जब वह रमा से कहती है, ‘बहुत से सफर सितारों के साथ कटते हैं तेरा सफर भी ऐसा ही सही...’
‘फिर वही तलाश’ किस तरह इस रेडियो नाटक से अलग है, इसके लिए इस सीरियल को यूट्यूब पर देखा जा सकता है, @DoordarshanNational ने इसके सभी 22 एपिसोड डाल दिए हैं। इस सीरियल की एक और खूबी थी चंदन दास की आवाज में इसका टाइटल सांग, जिसे लिखा था दिनेश कुमार स्वामी यानी शबाब मेरठी ने। इनका एक शेर है,
उस एक चेहरे के पीछे हजार चेहरे हैं
हजार चेहरों का वो काफिला सा लगता है
बहरहाल ‘फिर वही तलाश’ के टाइटिल सांग में उन्होंने लिखा था,
कभी हादसों की डगर मिले
कभी मुश्किलों का सफर मिले
ये चराग हैं मेरी राह के
मुझे मंजिलों की तलाश है
कोई हो सफर में जो साथ दे
मैं रुकूँ जहाँ कोई हाथ दे
मेरी मंजिलें अभी दूर है
मुझे रास्तों की तलाश है
लेकिन इसका सबसे खूबसूरत पहलू था हर एपिसोड के अंत में कहानी के किसी खास मोड़ पर आने वाला कोई शेर जैसे कि हमेशा पिता से तल्ख रिश्तों के बावजूद उसकी मौत पर फूट-फूटकर रोते हुए नायक के क्लोजअप के साथ जब एपिसोड खत्म होता है तो आवाज उठती है -
वो जो मुद्दतों मेरे साथ था,
वो जो मेरा दाहिना हाथ था,
मेरी जिन्दगी से निकल गया,
मुझे आसरों की तलाश है
या फिर
कोई दर्द हो या हो खुशी,
कोई ख्वाब हो या हकीकतें
जहाँ सच के चेहरे दिखाई दें,
उन्हीं आईनों की तलाश है
यह सच है कि यह सीरियल एक अंतत: एक नॉस्टेल्जिया ही है। शायद जिन्होंने उन उदास ढलती दुपहरियों में उदासी में लिपटी नायिका की उस हँसी को देखा होगा, जो अनजाने अपनी नियति की तलाश में भटकते उन किरदारों से जुड़ गया होगा, वही शायद आज दोबारा उसी शिद्दत के साथ उन भावनाओं को महसूस कर सकता है। आज जब हम ‘फिर वही तलाश’ को याद करते हैं तो शायद उन किरदारों में अपनी ही परछाइयों को पाने की कोई जि़द-सी होती है।
कोई मुझसे दूर भी जाए तो,
जिन्हें अपनी रूह में सुन सकूँ,
मुझे जिन्दगी तेरी नब्ज में
उन्हीं आहटों की तलाश है
- डॉ. आर.के. पालीवाल
अति भौतिकता के वर्तमान दौर में अर्थ इतना शक्तिशाली हो गया है कि मनुष्य का पूरा जीवन ही अर्थ के इर्द गिर्द कोल्हू के बैल की तरह सिमट कर रह गया है। हमारे व्यक्तिगत रिश्ते हों या व्यावसायिक संबंध अथवा दो देशों के बीच आपसी रिश्ते, उनका सबसे शक्तिशाली तत्व अर्थ बन गया है। यहां तक कि कभी सेवा का सबसे सशक्त और व्यापक माध्यम मानी जाने वाली राजनीति भी अब पूरी तरह अर्थ केंद्रित हो गई है। और तो और कभी अर्थ से बहुत दूर रहने वाला धर्म भी अर्थ प्रधान हो चुका है। सादगी और सेवा को सर्वोपरि मानने वाला भारतीय संत समाज, जो कभी अर्थ को छूने तक से परहेज करता था, भी अर्थ केंद्रित हो गया है। हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था ने समाज को इस तरह आत्म केंद्रित बना दिया है कि अर्थ की तपती भट्टी में नैतिक मूल्यों और मनुष्यता के तमाम मूलभूत सिद्धांतो की बलि चढ़ चुकी है। इसके लिए केवल पश्चिम की भोगवादी जीवन शैली या राजनीति को ही दोषी नहीं ठहरा सकते। अर्थ ने हर व्यक्ति और हर संस्था को अपने मोहपास में जकड़ लिया है।
कोटा कोचिंग फैक्ट्री कमसिन युवाओं को पहले दिन से बड़े बड़े पे पैकेज के लिए तैयार करती है। खुद बच्चों के मां बाप अपने जिगर के टुकड़ों को कोटा और दिल्ली की कोचिंग भट्टियों में झौंक रहे हैं। इन भट्टियों में तपकर निकले बच्चे पकी ईंट की तरह कठोर हो जाते हैं जिनमें कोमल मानवीय रिश्तों की कच्ची मिट्टी जैसी भीनी खुशबू दूर दूर तक दिखाई नहीं देती। इन्हें केवल मल्टी नेशनल कंपनियों के भारी भरकम पे पैकेज दिखाई देते हैं , भले ही वह कंपनी चीन की हो या कनाडा की इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
हमारी शिक्षा पद्धति और उसके आसपास उपजी कोचिंग संस्कृति पूरी तरह अर्थ के इर्दगिर्द घूमती है। वैसे तो प्ले स्कूल की संस्कृति ने प्राइमरी स्कूल से पहले की शिक्षा को ही इतना महंगा बना दिया है कि आम आदमी के लिए अच्छे स्कूल कॉलेज का रुख करना असंभव है। अधिसंख्य आबादी के लिए सरकारी स्कूल की लचर व्यवस्था या कुकुरमुत्तों से उपजे अंग्रेजी नाम वाले सी ग्रेड स्कूल ही एकमात्र विकल्प हैं। उच्च शिक्षा के प्राइवेटाईजेसन ने इंजीनियरिंग, मेडिकल, वकालत और एम बी ए आदि की पढ़ाई को इतना महंगा और भ्रष्ट कर दिया है कि वहां काले धन का भी धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है।आई सी एस और पी सी एस की कोचिंग के जाल महानगरों से निकलकर शहरों और कस्बों तक में फैल गए हैं जिनके सब्जबाग के सपनों में ग्रामीण बच्चे उलझकर न खेती किसानी के मतलब के रहते और न किसी सरकारी नौकरी में घुस पाते हैं। आईआईटी और आईआईएम से निकले बच्चे बुजुर्ग होते अभिभावकों से बेफिक्र अर्थ प्रधान ग्रीनर पास्चर्स खोजते हुए पूरी दुनियां में भटकते रहते हैं। अर्थ का बढ़ता प्रभाव
पति-पत्नी के दाम्पत्य में दरार डाल रहा है, जमीन जायदाद और पारिवारिक धन संपत्ति के लिए भाई-भाई में तकरार बढ़ रही हैं, बुजुर्गों और बच्चों के बीच आर्थिक तनातनी के कोर्ट केस बेतहासा बढ़ रहे हैं।
राजनीतिक दलों ने कॉरपोरेट घरानों और मतदाताओं के रिश्ते में अर्थ लाभ को प्रमुख बना दिया है। इसका दुष्परिणाम एक तरफ सत्ताधारी दलों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग से कंपनियों से धन उगाही के रुप में सामने आ रहा है और दूसरी तरफ़ मतदाताओं को मुफ्त की रेवडिय़ां बांटने से देश में आलसियों की बडी फौज पैदा हो रही है। अर्थ ने हमारी मानसिकता को इस तरह जकड़ लिया कि उसकी पकड़ से छूटना असंभव सा दिखता है। ईसा मसीह, गुरु नानक और महात्मा गांधी जैसी विभूतियों ने अर्थ के दुष्प्रभावों से तत्कालीन समाजों को इसीलिए चेताया था। हमे भी शांतिमय जीवन के लिए अर्थ के आकर्षण से बाहर आने के विकल्प खोजने होंगे।
- प्रियदर्शन
हिंदी के साथ सबसे ज़्यादा धोखा किसने किया है?
1 हिंदी के लेखकों-प्राध्यापकों ने, जिन्होंने जानबूझकर या नासमझी में ऐसी हिंदी विकसित की जो आमजन की भाषा नहीं थी।
2 हिंदी के बुद्धिजीवियों ने, जिन्होंने अरसे तक इस भाषा में किसी क्रांतिकारी विचार को लगातार हतोत्साहित किया।
3 मध्यवर्गीय समाज ने, जिसने अपने बच्चों को हिंदी में पढ़ाना बंद कर दिया और वह जड़ ही सुखा दी जिस पर हिंदी का वृक्ष बढ़ता।
4 उन हिंदी प्रेमियों ने जिन्होंने बाक़ी भारतीय भाषाओं के साथ लगभग विद्वेष भरा रिश्ता रखा। बांग्ला, मराठी, तमिल, तेलुगू सीखने से परहेज किया।
5 संस्कृत के उन पुजारियों ने, जो बताते रहे कि हिंदी तो संस्कृत की बेटी है और उसका रिश्ता स्थानीय बोलियों से काट दिया।
6 संविधान-निर्माताओं ने, जिन्होंने हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार नहीं किया। (क्या ही अच्छा होता कि हम एक ऐसी भाषा के लेखक-पाठक होते जिसकी दो-दो लिपियां संभव हो सकती थीं।)
7 अंग्रेजी के आतंक के मारे उन लोगों ने, जो मानते रहे कि सिर्फ अंग्रेजी में ही ज्ञान-विज्ञान और विशेषज्ञता संभव है, जिनकी वजह से अंग्रेजी ऐसी अपरिहार्य हो गई कि सभी भारतीय भाषाओं की मालकिन बन गई है।
8 हिंदी के संपादकों ने। ज़्यादातर खऱाब लेखक रहे और खऱाब लेखन को प्रोत्साहित करते रहे। वही लोग बाद में पुरस्कर्ता भी हुए और खऱाब परंपरा को पुरस्कृत करते रहे।
9 हिंदी के पत्रकारों ने, जिन्होंने एक तेजस्वी परंपरा को कीचड़-कीचड़ कर दिया। प्रतिरोध की भाषा भूल समर्पण के खेल में लग गए।
10 सार्वजनिक संस्थानों में बैठे हिंदी अफसरों ने, जो अबूझ कंकडऩुमा अनुवाद करते-करवाते हुए हिंदी को बदनाम करते रहे, अपने दफ्तरों में हिंदी लागू नहीं करवा पाए और खऱाब पत्रिकाएं निकालते रहे।
शुरैह नियाजी
मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिले के मोहाद गांव में रहने वाले मुस्लिम परिवारों के लोग बरसों बाद सुकून से रमजान मना रहे हैं।
इन्हीं में एक इमाम तड़वी भी हैं। चार बच्चों के पिता इमाम अपनी बच्ची को एक सुबह स्कूल छोडऩे जा रहे थे तभी पुलिस ने उन्हें रोक लिया था।
ये घटना जून, 2017 की है, जब इस गांव से हजारों किलोमीटर दूर लंदन में भारत और पाकिस्तान के बीच चैंपियंस ट्राफी का मैच खेला गया था और भारत वो मैच हार गया था।
लेकिन इस मैच से बेखबर 17 युवक और 2 नाबालिगों के लिए ये मैच उनकी जि़दगी में ऐसा पल बन गया जिसे वो याद करके सिहर उठते हैं।
30 वर्षीय इमाम ने बताया कि स्कूल के रास्ते में पुलिस ने उनके साथ बदतमीज़ी की और उनकी बच्ची को धक्का मार दिया गया जिसकी वजह से उसे नाक में चोट आई। वे कहते हैं कि उस दिन उनकी बेटी को लेकर कोई दूसरा व्यक्ति घर गया जबकि उन्हें पुलिस अपने साथ लेकर चली गई।
इमाम की आपबीती
इमाम कहते हैं, ‘मुझे क्रिकेट के बारे में कुछ भी नही मालूम है। लेकिन मैं उसकी वजह से जितना भुगता उसे में बयान नही कर सकता।’
उन्होंने बताया कि पुलिस घर वालों को कई दिन तक परेशान करती रही जिसकी वजह से वो लोग घर छोड़ कर भाग गए।
इमाम दावा करते हैं कि उनके परिजनों को गालियां दी जाती थी और बेइज्जत किया जाता था जिसकी वजह से परिवार ने कई दिन दूसरों के खेतों में सोकर गुजारे।
इमाम अब खेतों में काम करने जा रहे हैं और उन्हें रोज के ढाई सौ से लेकर तीन सौ रुपये तक मजदूरी मिलती है और केस से बरी होने के बाद उनका यह पहला रमज़ान है जब उन्हें अपने मुक़दमे के बारे में नही सोचना पड़ रहा है। उनका कहना है कि उन्हें आज भी नही पता है कि क्रिकेट में कौन-कौन से खिलाड़ी हैं लेकिन उसके बावजूद भी उन्हें उसके लिए परेशान होना पड़ा।
इमरान शाह की कहानी
इमाम तड़वी की तरह ही 32 वर्षीय इमरान शाह को भी पुलिस ने उस दिन गिरफ़्तार किया था। उस समय वो ट्रक में मक्का भर रहे थे। उन्हें पता ही नही था कि उन्हें किस वजह से गिरफ्तार किया जा रहा है।
इमरान ने बीबीसी को बताया, ‘उस समय को हम याद नही करना चाहते हैं। उस समय मेरे साथ पूरा परिवार इतना परेशान रहा कि बता नही सकते हैं। हमें तो गिरफ्तार कर लिया गया था लेकिन परिवार को भी भागना पड़ा था क्योंकि पुलिस कभी भी घर पर आ जाती थी और परिवार वालों से बदतमीजी करती था। घर वाले छुपकर जंगलों में सोते थे।’
इमरान के परिवार में उस समय उनकी मां, पिता, पत्नी और तीन बच्चें थे। इमरान ने इस मामले की वजह से डेढ़ लाख रुपये का उधार लिया है जिसका ब्याज ही वो किसी तरह से चुके पा रहे हैं।
उनका कहना है कि एक साल तक उन्हें हर हफ्ते थाने में जाना होता था जो उनके गांव से 12 किलोमीटर दूर था। इस दौरान वो मजदूरी भी नहीं कर पा रहे थे इसलिए परिवार चलाने के लिए उधारी लेनी पड़ी।
इमरान ने बताया, ‘जितना हमने उस दौरान भोगा उतना ही हमारे परिवार को भी भुगतना पड़ा। पुलिस वाले कभी भी घर पर आ जाते थे और परिवार वालों को गाली देते थे और बदतमीजी करते थे।’
क्या है मामला
मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिले के मोहाद गांव में रहने वाले 17 युवक और 2 नाबालिगों पर चैंपियंस ट्रॉफी के उस मैच के बाद ये आरोप लगा था कि वे पाकिस्तान की जीत का जश्न मना रहे थे।
उन पर पाकिस्तान की जीत को लेकर खुशियां मनाने, पटाखे फोडऩे और मिठाइयां बांटने का आरोप लगाया गया था।
लेकिन कोर्ट ने पिछले साल अक्टूबर में इन सब को सभी आरोपों से बरी कर दिया और पाया कि पुलिस ने इन पर फर्जी मामला दर्ज किया और गवाहों पर गलत बयान देने के लिये दबाव बनाया।
इस मामले में परेशान होकर एक अभियुक्त ने 2019 में आत्महत्या भी कर ली थी।
पहले इन लोगों पर राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया लेकिन बाद में उसे पुलिस ने बदलकर आईपीसी की धारा 153ए के तहत दर्ज किया जिसमें उन पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने जैसे आरोप लगाए गए।
गवाह का अपने बयान से पलटना
इस मामले में पुलिस ने जिन्हें गवाह बनाया था उनका भी कहना था कि इस तरह का कोई मामला हुआ ही नही है।
इस गांव में रहने वाले तड़वी मुसलमान हैं और ज्यादातर लोग मजदूरी करते हैं। आमतौर पर यह लोग खेतों पर काम करके अपना गुजर-बसर करते हैं।
इनका केस लड़ रहे वकील शोएब अहमद ने बीबीसी को बताया, ‘इस मामले में गवाह ही इस बात को नही मान रहे थे कि गांव में इस तरह की कोई चीज हुई है। गवाह अपनी बात पर अड़े रहे। इसके बाद कोर्ट ने फैसला हमारे हक में सुना दिया। ये लोग काफी गरीब हैं और मुश्किल से अपना गुजर बसर कर पाते हैं। खुशी मनाने के लिए न तो इनके पास पैसे हैं और न ही इन्हें क्रिकेट का कोई ज्ञान है।’
हालांकि कोर्ट ने इस मामले में पुलिस वालों के खिलाफ किसी किस्म की कारवाई का कोई आदेश नहीं दिया है जिनकी वजह से इन लोगों को बरसों परेशानी का सामना करना पड़ा।
शोएब अहमद ने बताया कि इन लोगों की पहली कोशिश यही थी कि वो किसी भी तरह से इस मामले से बरी हो जाएं। ये लोग इतने गरीब हैं कि पुलिस से वे लडऩा नहीं चाहते हैं।
इस मामलें में दो नाबालिगों को भी अभियुक्त बनाया गया था जिन्हें किशोर अदालत ने जून, 2022 में बरी कर दिया था।
हालांकि उसके बाद उन दोनों की जिंदगी कभी भी पटरी पर नही लौट पाई और दोनों ही कम उम्र में काम पर लग गए।
इस मामले में एक रुबाब नवाब ने फरवरी, 2019 में आत्महत्या करके अपना जीवन समाप्त कर लिया।
उनके परिवार के मुताबिक, उन पर लगे आरोप और रोज-रोज की बेइज्ज्जती की वजह से उन्होंने ऐसा किया।
नए सिरे से जिंदगी
बाकी बचे लोग भी अब अपनी जिंदगी को नये सिरे से आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं और मजदूरी कर रहे हैं। लेकिन बरसों के मिले जख्म अब भी उन्हें बैचेन करते रहते हैं।
इस मामले में एक मुख्य गवाह सुभाष कोली ने घटना के कुछ दिनों बाद ही मीडिया के सामने आकर कह दिया था कि इस तरह का कोई मामला नही हुआ है और पुलिस ने उन्हीं के मोबाइल फोन से डायल 100 नंबर पर कॉल करके ये मामला दर्ज किया था।
जबकि कोली उस समय अपने पड़ोसी अनीस मंसूरी को बचाने के लिए गए थे जिन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। कोली अब दुनिया में नही हैं। कुछ महीने पहले उनकी मौत कैंसर से हो गई।
इस पूरे मामले में पुलिस के अधिकारी अब बात नही करना चाहते हैं। इस मामले में भोपाल में अधिकारियों से संपर्क किया गया लेकिन उन्होंने जवाब नही दिया।(bbc.com/hindi)