विचार/लेख
-अतुल अनेजा
चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने महासचिव शी जिनपिंग के कद को पार्टी राज्य के संस्थापक कहे जाने वाले माओ त्से तुंग के अनुरूप करने के लिए एक और कदम उठाया है। हालांकि, ऐसा कहा जाता है कि माओ के शासनकाल में उनकी नीतियों ने लाखों लोगों की जान ले ली थी और 1976 में उनकी मृत्यु के समय चीन पतन की कगार पर पहुंच गया था।
बीजिंग में मंगलवार को कूटनीति पर शी जिनपिंग के विचार किताब जारी की गई। प्रकाशन ने शी जिनपिंग विचार के लिए 'नए युग' के रूप में एक महत्वपूर्ण आयाम को बढ़ाया है जिसका अनावरण सीपीसी की 19वीं पार्टी कांग्रेस के दौरान अक्टूबर 2017 में किया गया था।
दो दशक के संयोजन के दौरान शी की हैसियत को माओ के अनुसार ऊंचा किया गया क्योंकि वह पीआरसी के संस्थापक के बाद एकमात्र चीनी नेता हैं जिनके विचार पार्टी के संविधान में निहित किए गए हैं। यहां तक कि शी की तुलना में चीन के सुधारों के वास्तुकार डेंग शियाओपिंग की स्थिति भी छोटी हो गई। पार्टी के संविधान में डेंग के सिद्धांत के योगदान को माओ और शी के विचार के एक पायदान नीचे मान्यता दी गई है।
शी को 2016 में 'कोर' नेता के रूप में भी नामित किया गया था। यह एक ऐसी उपाधि है जो माओ और देंग सहित शक्तिशाली चुनिंदा चीनी नेताओं के लिए आरक्षित रही है।
बीजिंग में मंगलवार को चीनी उच्च अधिकारियों ने फैसला किया कि कोरोना महामारी के बाद चीन की सत्ता में शी के सर्वोच्च अधिकार को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) में माओ जैसे अधिकार के रूप में फिर से पुष्ट किया जाना अब अति आवश्यक हो गया है।
चीन इन आरोपों की सुनामी का सामना कर रहा है कि उसने जानबूझकर या अनजाने में कोविड-19 महामारी फैलाई है जिसने सीपीसी को एक मौलिक विकल्प चुनने के लिए मजबूर किया है। पार्टी या तो घुटनों में चेहरा छिपाकर इन वैश्विक हमलों की अनदेखी कर सकती है या फिर इसके विपरीत वह आक्रामक रुख अपनाकर शी के नेतृत्व में पूर्ण राजनीतिक सामंजस्य के साथ अपनी सैन्य शक्ति को एक निवारक के रूप में प्रदर्शित कर सकती है।
इस दुविधा के बीच बीजिंग ने आक्रामक दृष्टिकोण अपनाने का फैसला किया। इसने एक साथ दो भौगोलिक थिएटरों में अपनी ताकत दिखाना शुरू कर दिया। पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए), जिसके कमांडर-इन-चीफ शी हैं, ने मजबूती से उभरते भारत के साथ सीधे तनाव में लद्दाख में घुसपैठ की। पश्चिम प्रशांत क्षेत्र में पीएलए नेवी (पीएलएएन) ने संसाधन संपन्न दक्षिण चीन सागर में अपने समुद्री दावों को लागू करने के लिए शक्ति दिखाना शुरू किया। एक तरफ भारतीय सशस्त्र बल लद्दाख में पीएलए के सामने डट गए, दूसरी तरफ अमेरिकियों ने सभी चीनी दावों को अस्वीकार करते हुए दक्षिण चीन सागर में दो विमान वाहक पोत भेजे। इस इलाके में वियतनाम, फिलीपींस, मलेशिया, थाईलैंड और ब्रुनेई जैसे आसियान देशों के संप्रभुता के अपने-अपने दावे हैं।
इस परिदृश्य में चीन ने शी जिनपिंग के कूटनीति पर विचार को 'शी जिनपिंग डिप्लोमैटिक थॉट रिसर्च सेंटर' के गठन के साथ संस्थागत बनाने का फैसला किया। यह दुनिया को यह बताने के लिए है कि शी की अगुवाई में सीपीसी नेतृत्व पूरी मजबूती से काम कर रहा है और शायद कोविड-19 के बाद और भी मजबूत हुआ है।
केंद्र के उद्घाटन के दौरान चीनी विदेश मंत्री व स्टेट काउंसलर वांग यी ने भी आश्चर्यजनक रूप से खुलकर खुलासा किया कि शी का चीन एक मध्यकालीन साम्राज्य 2.0 की महत्वाकांक्षाएं रखता है। इस सिद्धांत के तहत चीन, पहले के शाही चीन की तरह, प्रमुख 'सार्वभौमिक' शासक बनने के लिए इच्छुक है, जो कई सहायक राज्यों द्वारा प्रतिस्थापित (रेपलेनिश्ड) किया जाएगा और जिन्हें बदले में बीजिंग में रहने वाले 'अधिपति' (सुजैरेन) द्वारा सुरक्षा मिलेगी।
वांग ने मध्य साम्राज्य की आकांक्षाओं की गूंज के साथ कहा, "चीनी राष्ट्र के महान कायाकल्प के सपने के साकार होने का आज जैसा समय पहले कभी नहीं आया।"
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि शी जिनपिंग के चीनी विशेषताओं के साथ 'डिप्लोमैटिक थॉट्स ऑन सोशलिज्म' के नए युग में चीन एक ऐसे मंच पर आ गया जहां वह वैश्विक एजेंडा को आकार देने में नेतृत्व करेगा।
वांग ने कहा, "हम वैश्विक शासन प्रणाली में सुधार का नेतृत्व करने के लिए पहल करते हैं, वैश्वीकरण के विकास को अधिक समावेशी और समावेशी दिशा में बढ़ावा देते हैं और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के विकास को और अधिक उचित दिशा में बढ़ावा देते हैं।"
चीन के मध्य साम्राज्य के सपनों को पूरा करने वाले 'दो शताब्दी के लक्ष्यों' में शी ने 19वीं पार्टी कांग्रेस के दौरान घोषणा की थी कि चीन 2020 में 'मध्यम समृद्ध समाज' और 2050 तक एक 'बेजोड़ पूर्ण विकसित देश' बन जाएगा, जो पीआरसी के गठन की शताब्दी को चिह्न्ति करेगा।
फाइनेंशियल टाइम्स के गिडियोन रैचमैन ने एलएसई आईडीईएएस स्पेशल रिपोर्ट के एक लेख में कहा, "अब यह साफ प्रतीत हो रहा कि चीनी राष्ट्रपति चीन को उसके उस पारंपरिक स्थान पर लौटाने की कोशिश कर रहे हैं जो उसके लंबे इतिहास में एशिया में उसके एक शक्तिशाली क्षेत्रीय शक्ति का रहा था।"
'झेनगू' या मध्य साम्राज्य की कल्पना के तहत, जिसे झोउ राजवंश से जोड़ा जा सकता है, माना जाता है कि चीनी शाही राजवंशों ने क्रूर सैन्य बल के साथ व्यापार और वाणिज्य किया था, जिसने उन्हें मध्य एशिया, कोरियाई प्रायद्वीप के कुछ हिस्सों और पूरे दक्षिण पूर्व एशिया में एक सहायक प्रणाली बनाने के लिए सक्षम किया था।
पूरी तरह से क्षेत्रीय या यू कहें कि वैश्विक प्रभुत्व हासिल करने की चीन की कोशिश में, भारत अपनी बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ एक कठोर बाधा पेश कर रहा है।
पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के मीडिया का हिस्सा चीनी वेबसाइट शिलू डॉट कॉम ने माना है कि 21 वीं सदी के उत्तरार्ध तक चीन का सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी निश्चित रूप से भारत होगा।(indianarrative)
मनीष सिंह
मैं आपको बताता हूँ कि मैं असंतोष पैदा करने वाला क्यों बन गया हूं।
मैं अदालत को भी यह भी बताऊंगा कि मैंने भारत में सरकार के प्रति असंतोष को बढ़ावा देने के आरोप में खुद को दोषी क्यों माना है- जिन जज के सामने हर कोई खुद को निर्दोष बताता था, वह भौचक्का हो पहले ऐसे शख्स का चेहरा निहार रहा था, जो बगैर बहस, खुशी से खुद को दोषी करार दे रहा है, ऊपर से उसके तर्क भी बता रहा है।
1922 में यंग इंडिया में लेख के आधार ओर गांधी पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। पुलिस ने पकड़ा, जज के सामने पेश किया। गांधी ने आरोप छाती ठोककर स्वीकारा, खुद को राजद्रोही बताया।
यह देश मे गांधी की स्वीकार्यता को अचानक ही इतनी उछाल दे गया, जिसकी अंग्रेज सरकार ने कल्पना नही की थी। असहयोग आंदोलन की असफलता के बाद गांधी की विश्वनीयता और लीडरशिप दांव पर थी। आपदा को अवसर में बदलते हुए गांधी ने वो दांव खेला, कि सरकार उलझ गयी। न चाहते हुए सजा देनी पड़ी। फिर कम्यूट भी करनी पड़ी।
पूरे प्रकरण में हुआ बस ये कि, जनता में गांधी की शुध्दता और हिम्मत जनमन में स्थापित हुई। इसके बाद राजद्रोह का आरोप लगाकर फसने का काम ब्रिटिश सरकार ने दोबारा नही किया।
अन्ना आंदोलन का बड़ा खास मोड़ था जब सरकार ने अन्ना को साथियों सहित तिहाड़ में जेलबन्द किया। मुद्दा तूल पकडऩे पर सरकार ने उन्हें छोडऩा चाहा, तो उनकी टीम ने जमानत लेने से इनकार कर दिया। बगैर जमानत के छोड़े जाने के आदेश होने पर भी जेल छोडऩे से इनकार कर दिया। उनका कहना था कि अनुमति के बगैर आंदोलन और भूख हड़ताल की वजह से उन्हें गिरफ्तार किया गया है, वह निकलते ही फिर वही करेंगे, आप फिर गिरफ्तार करेंगे। तो बेहतर है हम निकलें ही नही।
सरकार ने हाथ जोडक़र जेल से बाहर निकाला। मजबूरन आंदोलन की अनुमति दी। आंदोलन रातोरात बड़ा हो गया।
भाजपाई नेता की महंगी बाइक को कॅरोना लॉकडाउन के दौरान बगैर मास्क, सवारी करते चीफ जस्टिस की तसवीरें आयी। प्रशांत भूषण ने यही लिखकर ट्वीट कर दिया। कोर्ट ने स्वत:स्फूर्त संज्ञान लेकर कंटेम्प्ट का मामला दायर किया है।
प्रशांत भूषण महात्मा गांधी की तरह खुद वकील हैं, अन्ना आंदोलन के शिल्पकार रहे हैं। मैं उम्मीद में हूँ कि इस आपदा को अवसर में बदलकर दिखाएंगे।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजकल भारत और अमेरिका के बीच जैसा प्रेमालाप चल रहा है, मेरी याददाश्त में कभी किसी देश के साथ भारत का नहीं चला। शीतयुद्ध के घनेरे बादलों के दौरान जवाहरलाल नेहरु और सोवियत नेता ख्रुश्चोफ और बुल्गानिन के बीच भी नहीं। इसका कारण शायद यही समझा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी की मोहिनी ने डोनाल्ड ट्रंप को सम्मोहित कर लिया है। यह समझ नहीं, भ्रम है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में व्यक्तिगत संबंधों की भूमिका बहुत सीमित होती है। उसका संचालन राष्ट्रहितों के आधार पर होता है। इस समय ट्रंप प्रशासन चीन के घुटने टिकवाने के लिए कमर कसे हुआ है। इसीलिए वह भारत के प्रति जरुरत से ज्यादा नरम दिखाई पड़ रहा है।
उसने कोविड-19 के लिए चीन को सारी दुनिया में सबसे ज्यादा बदनाम किया। उसने चीन के विरुद्ध यूरोपीय संघ और आग्नेय एशिया के राष्ट्रों को लामबंद किया। अमेरिकी कांग्रेस (संसद) में चीन को धमकाने के लिए एक प्रस्ताव भी लाया गया। उसमें अमेरिकी सांसदों ने चीन से कहा है कि वह भारत के साथ तमीज से पेश आए। डंडे के जोर से वह भारत की जमीन हड़पने की कोशिश न करे। अमेरिका ने ताइवान को लेकर पहले चीन से अपनी भिट्टियां भिड़ा रखी थीं, अब हांगकांग के सवाल पर उसने पूरा कूटनीतिक मोर्चा ही खोल दिया है। दक्षिण चाइना-सी के मामले में वह चीन के पड़ौसी और तटवर्ती राष्ट्रों का खुलकर समर्थन कर रहा है।
गलवान घाटी में हुई भारत-चीन मुठभेड़ तो ऐसी है, जैसे ट्रंप के हाथों बटेर लग गई। पहले उन्होंने दोनों देशों के बीच मध्यस्थता की पहल की और फिर चीन के विरुद्ध छर्रे छोडऩे शुरु कर दिए। दोनों देशों, भारत और चीन के विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री, मुख्य सेनापति और व्यापार मंत्रियों के बीच सघन वार्ताएं जारी हैं। मानो वे किसी युद्ध की तैयारी कर रहे हों। हमारे अंडमान-निकोबार द्वीप के आस-पास अमेरिकी नौ सैनिक जहाज ‘निमिट्ज’ के साथ भारतीय जहाज सैन्य-अभ्यास भी कर रहे हैं। अमेरिका चाहता है कि यदि उसे चीन के खिलाफ एक विश्व-मोर्चा खोलना पड़े तो एशिया में भारत उसका सिपहसालार बने। भारत को अमेरिका का यह अप्रत्याशित टेका भी खूब सुहा रहा है, क्योंकि भारत के लगभग सभी पड़ौसियों पर चीन ने डोरे डाल रखे हैं लेकिन भारतीय विदेश-नीति निर्माता यह भयंकर भूल कतई न करें कि वे अमेरिका के मोहरे बन जाएं। इस अमेरिकी मजबूरी का फायदा जरुर उठाएं लेकिन यह जानते हुए कि ज्यों ही अमेरिकी स्वार्थ पूरे हुए कि वह भारत को भूल जाएगा और फिर ट्रंप का कुछ पता नहीं कि वे दुबारा राष्ट्रपति बनेंगे या नहीं ? (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-पीटर यूंग
कोलंबिया के एंडीज पहाड़ों पर बसे औपनिवेशिक शहर बारिचरा में साल का सबसे अहम दिन क्रिसमस, नया साल या ईस्टर का नहीं होता.
यहां साल के सबसे अहम दिन को स्थानीय लोग 'ला सैलिडा' कहते हैं, जिसका अर्थ होता है बाहर निकलना.
इस दिन बारिचरा की गलियों में कुछ होने की आशा बढ़ जाती है. गलियां बुहारने वाले और घरों में साफ-सफाई करने वाले लोग अपना काम बंद कर देते हैं. बच्चे स्कूल से बाहर निकल आते हैं और दुकानदार दुकान छोड़कर गायब हो जाते हैं.
सभी लोग बेशकीमती "होर्मिगस कुलोनस" या "बड़ी चींटी" की तलाश में रहते हैं जिनको उत्तर-मध्य कोलंबिया के सांटेंडर इलाके में कैवियार (मछली के बेशकीमती अंडे) समझा जाता है.
हर साल वसंत में आसपास के देहाती इलाकों से ऐसी लाखों चींटियां पकड़ी जाती हैं. मनोवैज्ञानिक से शेफ बनी मार्गेरिटा हिगुएरा 2000 से बारिचरा में रह रही हैं.
वह कहती हैं, "इसमें पहले आओ पहले पाओ चलता है. अगर आपने किसी चींटी के घोंसले के ऊपर अपनी बाल्टी रख दी तो वह आपका हुआ, भले ही ज़मीन आपकी हो या न हो."
चींटी पकड़ने का उत्सव
हर साल मार्च या अप्रैल में यह उत्सव तब होता है जब भारी बारिश के बाद तेज़ धूप निकली हो और रात में चांदनी बिखरी हो.
ला सैलिडा से चींटियों का सालाना प्रजनन मौसम शुरू होता है जो दो महीने तक जारी रह सकता है. इसी दौरान स्थानीय लोग ज़्यादा से ज़्यादा रानी चींटियों को पकड़ने के लिए छीना-छपटी करते हैं.
अंडों से भरी हुई और प्रजनन के लिए तैयार भूरी, कॉकरोच के आकार की रानी चींटियां किसी ट्रॉफी की तरह होती हैं.
उनका पिछला हिस्सा फूलकर मटर के दाने जैसा होता है. इसे नमक मिलाकर भूनने से यह मूंगफली, पॉपकॉर्न या खस्ते बेकन जैसा लजीज हो जाता है.
चींटियों के पंखों को अलग करते हुए हिगुएरा कहती हैं, "मेरे लिए यह जायका अनोखा होता है."
"यह मेरे अतीत की याद दिलाता है. मुझे याद है कि एक बार मेरे दादाजी चींटियों से भरा एक पूरा बैरल खरीदकर लाए थे. हम अंदर उनके सरसराने की आवाज़ सुन सकते थे. उनको तैयार करने के लिए पूरा परिवार एक साथ बैठा था."
रानी चींटियों को लजीज पकवान की तरह खाया जाता है. सड़क किनारे की कुछ दुकानों में उनको तैयार किया जाता है.
कामकाजी परिवारों की रसोइयों में उनको भूना जाता है और वे पूरे कोलंबिया के महंगे रेस्तरां के मेन्यू में भी शामिल हैं.
एक किलो रानी चींटियों के बदले तीन लाख पेसो (65 पाउंड) मिल सकते हैं. इस तरह ये कोलंबिया के मशहूर कॉफी से भी महंगे हैं. स्थानीय लोगों के लिए ये कमाई के अच्छे स्रोत हैं.
बारिचरा में सड़कों की सफाई करने वाले फ़ेडेरिको पेड्राज़ा कहते हैं, "होर्मिगस जमा करके मैं एक ही दिन में हफ्ते भर के बराबर कमा सकता हूं. लेकिन यह मुश्किल काम है. चींटियां रानी चींटी को आसानी से ले जाने नहीं देतीं."
ख़तरा बहुत है
यह काम टखने की ऊंचाई तक के रबर बूट और लंबी आस्तीन पहनकर किया जाता है. काम तेज़ी से निपटाना पड़ता है वरना रानी की सुरक्षा के लिए तैनात कॉलोनी की सैनिक चीटिंयां हमला कर देती हैं. उनके काटने से तीखा दर्द होता है और ख़ून बाहर आ सकता है.
गांव वाले खेतों में फैल जाते हैं और उनके पास जो भी हो- थैला, मग, बरतन या बोरा- उसमें रानी चींटियों को जमा करते जाते हैं. यह काम दिन में होता है जबकि उनका लजीज पकवान रात के भोजन में खाया जाता है.
एटा लाविगाटा प्रजाति की चींटियां दक्षिण अमरीका की लीफ़कटर चींटिंयों के नाम से भी जानी जाती हैं.
उनमें भरपूर प्रोटीन होता है, साथ ही ये अनसैचुरेटेड फ़ैटी एसिड से भरी होती हैं जो कोलेस्ट्रोल को बढ़ने नहीं देता.
"फ्रंटियर्स इन न्यूट्रिशन" जर्नल में प्रकाशित शोध से पता चलता है कि चींटियों में एंटी-ऑक्सीडेंट होता है और उनको नियमित रूप से खाने से कैंसर रोकने में मदद मिल सकती है.
"यही वजह है कि बारिचरा के लोग लंबी और सेहतमंद ज़िंदगी जीते हैं"- यह दावा है सेसिलिया गोज़ालेज़-क्विंटेरो का जो पिछले 20 साल से कांच के जार में चींटियां बेच रही हैं. "चींटियां हमें विशेष ताक़त देती हैं- ख़ासकर बड़ी नितंब वाली रसदार चींटियां."
पारंपरिक खाना
सांटेंडर के आसपास पिछले 1400 साल से होर्मिगस कुलोनस को खाया जाता है. ऐतिहासिक रिकॉर्ड के मुताबिक मध्य कोलंबिया के देसी गुआन लोगों ने सबसे पहले 7वीं सदी में चींटियों की खेती और उसे खाना शुरू किया था. बाद में स्पेन से आए लोगों ने भी यह आदत अपना ली.
जिन परिस्थितियों में इन चींटियों को पकड़ा जाता है उस वजह से इनको कामोत्तेजक भी माना जाता है. शादियों में अक्सर चीनी मिट्टी के बर्तनों में भरकर इनको उपहार के तौर पर दिया जाता है.
एंडीज के देसी समुदायों में यह प्रथा आम है. नारंगी-पीली ज़मीन पर चलने और इसी रंग की मिट्टी से पारंपरिक घर बनाने के कारण इन समुदायों को पीले पैर वाले समुदाय के रूप में जाना जाता है.
पास के बुकरमंगा शहर में इन चींटियों की बड़ी-बड़ी धातु की मूर्तियां बनाई गई हैं. दीवारों पर भी उनके रंग-बिरंगे चित्र देखे जा सकते हैं.
टैक्सी ड्राइवर भुने हुए कुरकुरे होर्मिगस खाने के लिए रुकते हैं और बच्चे चींटियों के खिलौनों से खेलते हैं.
कोलंबिया का लजीज पकवान
हाल के वर्षों में, चींटियों के खाने की लोकप्रियता बढ़ी है. इनकी पहचान अब स्थानीय व्यंजन की जगह पौष्टिक खाने की हो गई है.
ग्राहकों की मांग पूरी करने के लिए हर साल ट्रकों में भरकर रानी चींटिंयां पूरे कोलंबिया में भेजी जाती हैं.
राजधानी बगोटा के महंगे रेस्तरां के सीज़नल मेन्यू में भी उनको शामिल किया गया है. जैसे- मिनी-माल, जिसमें चींटियों को अमेज़ॉन की पिरारुकु मछली के साथ परोसा जाता है या भुने हुए बीफ़ के साथ काली मिर्च और चींटियों की चटनी दी जाती है.
शेफ एडुआर्डो मार्टिनेज़ कहते हैं, "चींटियां कोलंबिया के खानपान का अहम हिस्सा हैं."
मार्टिनेज़ ने चींटियों को पहली बार तब चखा था जब वह नौ साल के थे और परिवार के साथ सांटेंडर आए थे. "मैं उनके प्रयोग को बढ़ावा देना चाहता हूं ताकि यह परंपरा कायम रहे."
क्या चींटियां ख़त्म हो जाएंगी?
हाल में पेड़ कटने और शहरीकरण के कारण चींटियों और सांटेंडर के लोगों के बीच समस्याएं पैदा हुई हैं.
आबादी बढ़ने से चींटियां इमारतों की नींव में घुस जाती हैं. वे फसलों को नुकसान पहुंचाती हैं जिससे किसानों के झगड़े होते हैं.
इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन ने भी चींटियों के प्रजनन चक्र को प्रभावित किया है. अनियमित मौसम ने उनकी कॉलोनियों में आर्द्रता, धूप और बारिश के संतुलन को बिगाड़ दिया है.
उनका मेटिंग सीजन बहुत विशिष्ट मौसम परिस्थितियों पर निर्भर करता है. यदि मिट्टी मुलायम न हो तो रानी चींटियां अपनी भूमिगत सुरंगों से आसानी से बाहर नहीं आ सकतीं.
इसी तरह पेड़ कटने और शहरीकरण बढ़ने से चींटियों के प्राकृतिक आवास पर असर पड़ा है, उनके घोंसले फैलने की जगह सीमित हो गए हैं.
बड़े पैमाने पर खपत के लिए चींटियों की ब्रीडिंग के तरीकों का अध्ययन कर रही बुकरमंगा की रिसर्चर औरा जुडिट कुआड्रोस कहती हैं, "पारिस्थितिकी बदल रही है."
"यदि सही स्थितियां नहीं हैं तो चींटियां पैदा नहीं हो सकतीं या वे ज़मीन पर बाहर नहीं निकल सकतीं."
फिर भी बारिचरा के ढलानों से लेकर सैन गिल, क्यूरिटि, विलेनुएवा और गुआन शहरों के चारों ओर फैली घाटियों में उनके मिलने का मतलब है कि इन चींटियों के अस्तित्व पर अभी कोई ख़तरा नहीं है.
लड़ाकू चींटियां
स्थानीय गाइड और चींटी विशेषज्ञ एलेक्स जिमेनेज़ ने पेड़ की टहनी से चींटियों के घोंसले के दरवाजे पर कुछ हरकत की. कुछ ही देर में सैंकड़ों सैनिक चींटियां हालात को समझने के लिए बाहर निकल आईं.
जिमेनेज़ के मुताबिक एक घोंसले में कई हज़ार से लेकर 50 लाख तक चींटियां हो सकती हैं. अगर सुरंगें सही बनाई गई हों तो उनकी लंबाई कई मील तक हो सकती है.
घोंसले की रानी चींटी 15 साल तक ज़िंदा रहती है लेकिन उसके मरने के बाद कॉलोनी को वहां से जाना पड़ता है और नया निर्माण करना पड़ता है.
जिमेनेज़ कहते हैं, "चींटियों की अपनी समझदारी होती है. वे मिलकर काम करते हैं ताकि सबका अस्तित्व बना रहे. हजारों सालों से उनको खाया जा रहा है लेकिन वे ख़त्म नहीं होंगीं."
अपनी बात साबित करने के लिए जिमेनेज़ पिछले साल का अनुभव बताते हैं. चींटियों के प्रजनन मौसम में जिमेनेज़ अपने दोस्तों के साथ 6 किलोमीटर की साइकिल यात्रा पर निकले थे.
देहाती इलाकों की उनकी यात्रा में 30 मिनट लगने चाहिए थे लेकिन उसमें चार घंटे लगे क्योंकि चींटियों को देखकर उनका दल रुक जाता था और अधिक से अधिक चींटियों को इकट्ठा करता था. पहाड़ियों पर पूरा गांव उनके साथ चींटियां जमा करने में जुट गया.
"उस रात पूरा शहर होर्मिगस की ख़ुशबू से भर गया था. होर्मिगस! होर्मिगस! होर्मिगस!"(bbc)
-अमिताभ बेहार
‘सिविल सोसाइटी’ के बढ़ते ‘संस्थानीकरण’ के दौर में काम को ‘सुव्यवस्थित’ रूप से करने का चलन बढ़ा है। इसका अर्थ यह है कि ‘सिविल सोसाइटी’ अब एक सुरक्षित माहौल में काम करना चाहती है, पर दबे-कुचलों की आवाज़ उठाना सुरक्षित माहौल में कहाँ हो पाता है? इसका नतीजा यह है कि समुदायों से ‘सिविल सोसाइटी’ का जो अर्थपूर्ण रिश्ता था, वह टूट-सा गया है। रिश्ते के नाम पर अब अधिकतर एक हितग्राही और एक प्रदाता संस्था है। ऐसे रिश्ते से दो गंभीर नुक्सान हुए हैं पहला कि सरकार और बाजार, दोनों के सामने ‘सिविल सोसाइटी’ की छवि कमज़ोर पडी है। समुदायों से नज़दीकी ही ‘सिविल सोसाइटी’ की प्रमुख ताक़त थी जो अब कमज़ोर पड़ गयी है। (अमिताभ बेहार द्वारा लिखा गया यह लेख पहले अंग्रेजी में ‘इंडियन डेवलपमेंट रिव्यू’ की वेबसाइट पर छपा था और इस पर उसकी बेबाकी और पैने सवालों के कारण काफी चर्चा हुयी थी। इसका संपादित हिन्दी अनुवाद ईशान अग्रवाल ने किया है। )
सुप्रीम कोर्ट ने मार्च2020को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था जिस पर बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया। अदालत ने‘इंसाफ’(इंडियन सोशल एक्शन फोरम) नामक स्वयंसेवी संस्था के पक्ष में फैसला सुनाते हुए‘विदेशी अंशदान विनियमन क़ानून– 2011’(एफसीआरए) के मौजूदा प्रावधानों के ठीक विपरीत‘सिविल सोसाइटी’के‘राजनीतिक उद्देश्य से हस्तक्षेप करने के अधिकार’को वैधठहराया है। इस फैसले कोभारत में जनतंत्र की जड़ों को मज़बूत करने वाला एक महत्त्वपूर्ण कदम माना जा सकता है। ख़ासतौर से मौजूदा दौर में इसकी बडी अहमियत है।
इस फैसले के केंद्र में “राजनीतिक उद्देश्य या कहिये सत्ता पाने के उद्देश्य से किये गए राजनीतिक हस्तक्षेप और सामाजिक या मानवाधिकारों की दृष्टि से किये गए राजनीतिक हस्तक्षेप के बीच का फर्क है जो कि‘सिविल सोसाइटी’को हक़ देता है कि वह इस देश के करोड़ों मज़लूमों के लिए आवाज़ उठाये। जनतंत्र और अधिकारों की रक्षा के लिए किये गए राजनीतिक कार्यों को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में वैध ठहराया है।
हालाँकि इसमें कोई शक नहीं कि इन कार्यों के लिए देश में ही जुटाई गयी राशि बेहतर रहेगी,पर फैसले ने विदेशी धनराशि के उपयोग को भी वैध ठहराया है। कोर्ट ने कहा है कि विरोध प्रकट करने के वैध तरीकों को प्रयोग करने के कारणकिसी‘सिविल सोसाइटी’या संस्था को राजनीतिक संस्था नहीं माना जा सकता और इसके लिए उस संस्था को दण्डित करना अनुचित है।
इस फैसले के दूरगामी प्रभावों के बावज़ूद, ‘सिविल सोसाइटी’ने इस पर कोई ख़ास उत्साह नहीं दिखलाया है। जाहिर है,इस शिथिल प्रतिक्रिया से कुछ सवाल उठते हैं। जैसे कि क्या “इंसाफ” की लड़ाई बेकार गयी?क्याइसका महत्व लोगों को समझ नहीं आया?या‘सिविल सोसाइटी’अपनी राजनीतिक भूमिका को लेकर उदासीन है। इस फैसले के दौरान देशभर में सामाजिक समरसता को होने वाले खतरों के विरुद्ध एक आंदोलन चल रहा था और दिल्ली उसके केंद्र में थी। फिर भी अधिकांश संस्थाओं ने न तो इस आंदोलन के प्रति अपनी दिलचस्पी दिखाई न ही उसका मैदानी समर्थन किया। सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ?अधिकांश सामाजिक संस्थाएं अपने‘मिशन’और‘विज़न’में जिन मूल्यों का ज़िक्र करती हैं,उनमें न्याय,समता,सामाजिक-समरसता,पंथ-निरपेक्षता आदि प्रमुख हैं। दूसरे शब्दों में,संस्थाओं के उद्देश्यों में ऐसे विशुद्ध राजनीतिक मूल्यों के व्यक्त होने के बावजूद यदि संस्थाएं इस निर्णय को तवज्जो नहीं देतीं तो आश्चर्य होना लाज़िमी है।
आज की परिस्थितियों मेंजब सामाजिकआर्थिक और राजनीतिक ताक़तें संवैधानिक मूल्यों और जनतंत्र का गला घोंटने में लगी हैं, ‘सिविल सोसाइटी’को खुद के अ-राजनीतिकरण के प्रश्न से जूझना ही चाहिए।
दान और एक्टिविज़्म : क्या ये एक जीरो सम गेम है
भारत जैसी विषम सामाजिक परिस्थितियों वाले देश में हमेशा वंचितों,दबों-कुचलों को सहारा देने वाली संस्थाओं की ज़रुरत होगी। ऐसी संस्थाएं और ट्रस्ट जो भूखों को खाना खिलाएं,बेसहारों को शरण दें,उन्हें जरूरी पूँजी पहुंचाएं जिससे वे अपना जीवन-यापन कर सकें। साथ में ऐसी सामाजिक संस्थाओं की भी ज़रुरत होगी जो इस पूरे मुद्दे को,लोगों पर करुणा की दृष्टि से नहीं,उनके अधिकारों की दृष्टि से देखें। वे जो दलितों,आदिवासियों,अल्पसंख्यकों को आवाज़ दे सकें। वे जो पेड़ोंजंगलों,नदियों,जीव-जंतुओं की भी आवाज़ बन सकें और राज्य या पूंजीपति यदि गरीबों के संसाधनों पर कब्ज़ा कर रहे हों,तो न्याय के लिए लोगों को खड़ा कर सकें। वे जो किसी-न-किसी तरह इस देश में लोकतंत्र को मज़बूत करने में अपना योगदान दें। शक्ति का लोकतांत्रीकरण‘सिविल सोसाइटी’के वजूद की एक माक़ूल वजह है। इसे चाहे किसी भी तरह,किसी भी खाके से पाने की कोशिश की जा रही हो, ‘सिविल सोसाइटी’का एक बड़ा तबका असल में इसी कोशिश के लिए पैदा हुआ था,लेकिन इसके बावजूद आज‘सिविल सोसाइटी’ऐसी स्थिति में हैं जहाँ वह बात तो गंभीर राजनीतिक चिंतन की करती हैपर उसे क्रियान्वित करने में अराजनीतिक होती हैं या होना चाहती हैं।
आज सिविल सोसाइटी गैर-राजनीतिक क्यों है
पिछले कुछ दशकों में;‘सिविल सोसाइटी,’जो जन-संगठनों और आंदोलनों के रूप में जानी जाती थी,अब वित्त-पोषित संस्थाओं के रूप में जानी जाती है। इनमें से कुछ संस्थाओं के पास काफी संपत्ति इकट्ठी हो गयी है,जैसे कि इमारतें,प्रशिक्षण केंद्र,बड़ी संख्या में तनख्वाह-याफ्ता कर्मचारी आदि। समय के साथ यही संथाएं छोटी संस्थाओं के लिए रोल मॉडल बन गयी हैं।
इन बड़ी संस्थाओं को चलाते रहना ही अपने आप में एक बड़ा काम बन गया है और समाज के ताक़तवर वर्ग के सामने इनकी सवाल उठाने की क्षमता कम होती जा रही है। इन संस्थाओं को चलाने के चक्कर में संगठन की ताक़त संसाधनों को जुटाने में ही खर्च होने लगी है। इसी के साथसरकारी दमनकारी नीतियों ने संगठनों की सवाल उठाने की क्षमता पर दोहरा आघात किया है। इस रास्ते पर चलते हुए‘सिविलसोसाइटी’को कई बार अराजनीतिक भूमिका लेनी पड़ी है,ताकि उनकी संस्था पर कोई आंच न आये। यह बात उन संस्थाओं पर ज्यादा लागू होती हैजो विदेशी अनुदान पर आश्रित हैं और जिन्हें राजनीतिक हलकों में हमेशा शक की निगाह से देखा जाता है।
जाहिर है,संस्थाओं की आदत पड़ गयी है कि वे कभी-कभारसवाल पूछें,पर उन पर टिकी न रहें,ताकि उन्हें सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक ताक़तों का कोपभाजन न बनना पड़े। इस बात पर ध्यान देना‘सिविल सोसाइटी’ने कम कर दिया कि वंचितों के हित में बदलाव लाने की कीमत चुकानी पड़ती है।
‘सिविल सोसाइटी’का पेशेवरीकरण
शुरुआत में‘सिविल सोसाइटी’को अक्षम या नकारा कहकर बहुत आलोचना की गयी। नतीजे में संस्थाओं को पेशेवर बनाने पर बड़ा ज़ोर दिया जाने लगा। इस‘व्यवसायिकता’या;‘पेशेवरीकरण’की लहर में संस्थाओं के कामकाज में नौकरशाही के गुण और प्रक्रियाएं भी घर कर गयीं। इस पूरी प्रक्रिया में‘सिविल सोसाइटी’का‘जुनून’और‘स्वैच्छिक’स्वभाव ख़त्म हो गया। इससे अपने काम को राजनीतिक समझने की नज़र भी कमज़ोर पड़ी,बल्कि गैर-बराबरी और अन्याय जैसे घोर राजनीतिक मुद्दे भी एक मैनेजर की दृष्टि से सुलझाने की कोशिश होने लगी।
‘सिस्टम एप्रोच’का सतही प्रयोग
व्यवसायिक प्रबंधन(बिज़नेस मैनेजमेंट) के तौर-तरीकों से‘सिविल सोसाइटी’में कुशलता (एफीसिएन्सी) और प्रभाव (इम्पैक्ट) जैसे कई शब्दों ने जड़ें जमा लीं। इसके साथ‘फैलाव’(स्केल) का दबाव भी बहुत बढ़ गया,जिससे कुल मिलाकर‘सिविल&सोसाइटी’का अराजनीतिकरण और बढ़ गया। हम अब संगठनों के‘मिशन’और‘विज़न’से आगे आ गए हैं और पूरा काम‘दान-दाता’(डोनर) संस्था द्वारा दिए गए‘प्रोजेक्ट’के अनुसार होने लगा है।
कुछ संस्थाएं अपने आपको इसके बाहर देखने लगी हैं। उन्होंने‘सिस्टम एप्रोच’को अपनाने के प्रयास किये हैं जिसमें एक साफ़ समझ है कि सामाजिक बदलाव कोई एक तरह के ख़ास प्रयासों (या कहिये प्रोजेक्टों) से नहीं आएंगे।‘सिस्टम एप्रोच’समस्या को कई स्तरोंकई तरह की पेचीदगियों के साथ देखती है।मसलन-जंगलों के कटने का कारण सिर्फ आबादी बढ़ना या कम पेड़ लगाना भर नहीं है,बल्कि ऐसे बहुत से सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक कारण हैं जिनका उत्तर सिर्फ पेड़ लगाना नहीं हो सकता।‘सिस्टम एप्रोच’ने संस्थाओं की प्रोजेक्ट से बाहर झाँकने में मदद तो की है,वह उसकी भाषा भी बन गई है,पर दुर्भाग्य से वह उनकी कार्यप्रणाली,&बजट और‘नियमन’(मॉनिटरिंग) का हिस्सा नहीं बनी है। अधिकतर‘दानदाता’संस्थाएं भी बात तो‘सिस्टम चेंज’की करती हैंपर‘फंडिंग’उसी कम अवधि,समय आधारित मानदंडों के अनुसार करती हैं। उनके मानदंड प्रोजेक्ट के‘लौगफ्रेम’विश्लेषण के आधार पर ही होते हैं न कि‘सिस्टम अप्रोच’के आधार पर। इसका मतलब यह है कि संस्थाएं अपने ही बनाये लक्ष्य से भटक रही हैं,उनके कार्यकर्ताओं की प्रतिबद्धता या कहिये लक्ष्य पर यकीन कम हो गया है।
‘सिविल सोसाइटी’का एक विशेष ढांचे में काम करना
‘सिविल सोसाइटी’के बढ़ते‘संस्थानीकरण’के दौर में काम को‘सुव्यवस्थित’रूप से करने का चलन बढ़ा है। इसका अर्थ यह है कि‘सिविल सोसाइटी’अब एक सुरक्षित माहौल में काम करना चाहती है,पर दबे-कुचलों की आवाज़ उठाना सुरक्षित माहौल में कहाँ हो पाता है?इसका नतीजा यह है कि समुदायों से‘सिविल सोसाइटी’का जो अर्थपूर्ण रिश्ता था,वह टूट-सा गया है। रिश्ते के नाम पर अब अधिकतर एक हितग्राही और एक प्रदाता संस्था है। ऐसे रिश्ते से दोगंभीर नुक्सान हुए हैं पहला कि सरकार और बाजार,दोनों के सामने‘सिविल सोसाइटी’की छवि कमज़ोर पडी है। समुदायोंसे नज़दीकी ही‘सिविल सोसाइटी’की प्रमुख ताक़त थी जो अब कमज़ोर पड़गयी है। बहुत सी संस्थाएं अब भी इस बात पर यकीन नहीं करतीं और समुदायकेंद्रित नज़रिये की बजाए तकनीकी विशेषज्ञों वाली नज़र से अपने काम को देखती हैं। दूसरा नुकसान है,जगह खाली होने के कारण उसमें रूढ़िवादी,कट्टरपंथी तत्वों का समुदायों से करीबी रिश्ते बनाने में कामयाब होना। देश में दक्षिणपंथी ताक़तों के उभार के पीछे यह एक प्रमुख कारण है।
सिविल सोसाइटी का हाशिये पर जाना
सिविल सोसाइटी’की सोच और तौर-तरीकों में बदलाव के कारण आज वह रिसर्च,पैरवीपॉलिसी के विषयों और अभियानों पर तो काम करती है पर लोगों को संगठित और लामबंद करने में उसकी भूमिका कम होती जा रही है।
‘सिविल सोसाइटी’अहिंसा के खाके के अंदर रह कर ही काम कर सकती है,पर इसका यह अर्थ नहीं कि हमारे पास गैर-बराबरी और अन्याय से लड़ने के लिए हथियारों की कमी है। चूँकि हमने अपनी ताक़त के स्रोत को ही नकार दिया है,इसलिए हम राजनीतिक या आर्थिक या सामाजिक विमर्श के दायरे से बाहर किये जा रहे हैं।
इसका एक नमूना हम देश में ही हुए ‘सीएए’ विरोधी आंदोलन के अलावा पिछले वर्षों में दुनियाभर में हुए बडे और प्रभावी आंदोलनों में देख सकते हैं। इनका नेतृत्व ‘सिविल सोसाइटी’ की बजाए नागरिकों के पास रहा है। ‘सिविल सोसाइटी’ अपनी अराजनीतिक भूमिका में इस नए विमर्श में कहीं नहीं दिखी। ‘सिविल सोसाइटी’ को इस संकट का उत्तर अपने में ढूंढना ही होगा, नहीं तो कुछ ही समय में हम बिलकुल गैर-ज़रूरी हो जायेंगे(सप्रेस)
-प्रसून लतांत
पांच जून को गांधी विचार को मानने वाले देशभर के अनेक लोगों ने दो अक्टूबर, गांधी जयन्ती और ‘विश्व अहिंसा दिवस’ तक चलने वाले एक-एक दिन के उपवास की शुरुआत की थी। यह उपवास श्रमिकों, किसानों, ग्रामीण-अर्थव्यवस्था और पर्यावरण को बचाने के लिए सरकार, समाज और स्वयं को झकझोरने, बदलने के मकसद से किया जा रहा है।
‘गांधीयन कलेक्टिव,इंडिया’की उपवास-श्रृंखला में गांधी के विचारों में विश्वास रखने वाले और उसके अनुरूप काम करने वाले लोग पूरी तरह से सक्रिय हो गए हैं। उनकी सक्रियता से अब गांधी,गांव और गरीब को लेकर कुछ खास कर गुजरने की सूरत भी निकलती दिखाई पड़ रही है। इस उपवास-श्रृंखला में पहले तो गांधीवादी संस्थाओं और संगठनों से मुक्त हुए लोग शामिल हुए थेलेकिन जब से इसका नियमित और अविराम सिलसिला चल पड़ा है तो गांधी संस्थाओं और संगठनों से जुड़े लोग भी इसमें शामिल होने लगे हैं। पहली बार देखा जा रहा है उपवास के लिए अच्छी-खासी संख्या में युवा वर्ग भी शामिल हो रहा है।
गांधी जी के डेढ़-सौ वीं जयंती वर्ष के शुरू होने के पहले महात्मा गांधी की याद में बड़े-बड़े आयोजन करने के लिए सरकारी घोषणाएं हो रही थीं और केंद्र और राज्य स्तर पर समितियों का गठन किया जा रहा था। सरकारों से अलग-थलग होकर गांधी से जुड़ी संस्थाएं और संगठन भी अपनी सामर्थ्य-भर कुछ करने के लिए एकांगी पहल कर रहे थे। शताब्दी आयोजनों की शुरुआत भी हो गई थी,लेकिन लोकसभा चुनाव आने और उसके बाद दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे भड़कने के बाद देश भर में एक प्रकार की दुखद चुप्पी सी छा गई थी। गांधी जैसी बात करने वालों को भी देशद्रोही करार दिया जा रहा था। ऐसा लगने लगा था कि गांधी के देश में ही गांधी की बात करना गुनाह है।
गांवों और गरीबों की जरूरी बातें स्मार्ट शहरों के शोर में गुम हो गई थीं। वे संसद की चर्चा से भी गायब थीं,वे मीडिया सहित फिल्मों और धारावाहिकों में भी नहीं थीं। यह तो कोरोना वायरस के प्रकोप पर रोक लगाने के लिए लागू लॉकडाउन के दौरान देश के आम लोग जब सड़कों पर अपने गांवों की ओर निकल पड़े,तो शहरों के बढ़ते वैभव का खोखलापन उभर कर सामने आ गया और गांवों की चर्चा तेज हो गई। करोड़ों की संख्या में निकले आम लोगों ने पैरों से हजारों किलोमीटर चलकर गांव पहुंचने की हिम्मत दिखाकर देश की दिशा बदल दी है। गांव और गरीब इन दिनों चर्चा के केंद्र में हैं।
ऐसे में पिछले एक महीने से‘गांधीयन कलेक्टिवइंडिया’समूह से जुड़कर लोगों का व्यक्तिगत सत्याग्रह का सिलसिला शुरु होकर निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। नई सदी का व्यक्तिगत सत्याग्रह। पिछली सदी में जब ब्रिटिश हुकूमत भारत को दूसरे विश्वयुद्ध में झोंकने की कोशिश कर रही थी,तब उसके विरोध के लिए महात्मा गांधी ने आचार्य विनोबा से व्यक्तिगत सत्याग्रह के लिए कहा था। विनोबा के बाद दूसरे व्यक्तिगत सत्याग्रह करने वाले नेहरू थे। व्यक्तिगत सत्याग्रह के कारण‘गांधीयन कलेक्टिव,इंडिया’समूह गांधीगांव और गरीबों के कल्याण के मुद्दों पर लोकशाही की आवाज को बुलंद करने का मंच बन गया है। रोज नए-नए लोग इससे जुड़ रहे हैं। पिछले एक महीने से हरेक दिन एक-एक सत्याग्रही अलग-अलग राज्यों में बैठ रहे हैं।
व्यक्तिगत सत्याग्रह की शुरुआत पांच जून,‘विश्व पर्यावरण दिवस’को बिहार के चंपारण से हुई थी। सत्याग्रही द्वारा‘राष्ट्रीय उपवास श्रृंखला,’दो अक्टूबर‘विश्व अहिंसा दिवस’और महात्मा गांधी जयंती तक चलेगी। पहले सत्याग्रही मोतीहारी (बिहार) के दिग्विजय कुमार,‘गांधीयन कलेक्टिव,इंडिया’समूह की राष्ट्रीय समिति के संयोजक हैं। उन्होंने उपवास कर सत्याग्रह की शुरुआत कर दी है।
उपवास का मकसद श्रमिकों, किसानों, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और पर्यावरण को बचाने के लिए सरकार, समाज और स्वयं को झकझोरना है, बदलना है। ताकि कोरोना वायरस से बच सकें और मजबूत हिंदुस्तान बन सके। अब तक इस उपवास श्रृंखला में मणिपुर, गोआ, दिल्ली, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, मध्यप्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, ओडिशा, बिहार, छत्तीसगढ़, असम आदि राज्यों में एकल और सामूहिक रूप से तीस से अधिक सत्याग्रही बैठ चुके हैं।
‘गांधीयन कलेक्टिव,इंडिया’का कहना है कि इस पहल का मकसद देश की मौजूदा राजनीति में अंतिम जन को केंद्र में लाना और गांधीजी के डेढ़ सौवीं जयंती वर्ष पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए देश और दुनिया में फैले गांधी-प्रेमियों को एक मंच प्रदान करना है। उल्लेखनीय है कि इस राष्ट्रव्यापी उपवास श्रृंखला में शिक्षक,समाजकर्मी,;कलाकार,लेखक,पत्रकार,वैज्ञानिक,पर्यावरणवादी और छात्र व युवा पूरे उत्साह से भाग ले रहे हैं। इनमें महिलाएं और बुजुर्ग भी शामिल हैं।
‘गांधीयन कलेक्टिव,इंडिया’समूह की ओर से गांधी जयंती तक चलने वाले इस सत्याग्रह में कुल 119 सत्याग्रही शामिल होंगे। गांधी जयंती के दिन कुछ खास कार्यक्रम करने की योजना पर विचार किया जा रहा है। इस बीच वेबीनार के जरिए कोरोना वायरस सहित गांधी,गांव और गरीब के साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था और पर्यावरण संरक्षण के बारे में संवाद प्रक्रिया शुरू करने की तैयारी चल रही है। उपवास के दौरान हाथ से लिखे बैनर का इस्तेमाल किया जा रहा है और पेड़-पौधे भी लगाए जा रहे हैं।(सप्रेस)
-राज कुमार सिन्हा
आजादी के बाद से हमारे देश में जिस तौर-तरीके का विकास हुआ है उसने आदिवासी इलाकों में उसे विनाश का दर्जा दे दिया है। खनन, वनीकरण, ढांचागत निर्माण और भांति-भांति की विकास परियोजनाओं ने आदिवासी इलाकों की मट्टी-पलीत कर दी है। विकास का यह मॉडल ग्रामीण, खासकर आदिवासी क्षेत्रों को कैसे बर्बाद कर रहा है?
अब केवल विकास करते रहना ही जरूरी नहीं है,बल्कि विकास और विकास नीतियों की समीक्षा भी जरूरी है। वर्ष 1986 में‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ने विकास के अधिकार की उद्घोषणा तैयार की थी जिस पर भारत सहित अनेक राष्ट्रों ने हस्ताक्षर किए थे। इस संधि के अनुसार विकास सभी नागरिकों का अधिकार है। विकास परियोजना के लिए तीन मापदंड निर्धारित किये गए हैं। एकप्रभावित व्यक्तियों की सहमति। दो,परियोजना से निर्मित संसाधनों के लाभ में हिस्सेदारी तथा तीन,विकास परियोजनाओं से प्रभावितों का आजीविका के संसाधनों पर अधिकार। वर्ष 2007 में‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ने आदिवासी समुदायों के अधिकारों का घोषणा-पत्र जारी किया था। इसमें आजीविका के संसाधनों पर जनजातीय समाज के अधिकार सुनिश्चित करने का महत्वपूर्ण प्रावधान है। दुर्भाग्य से भारत में ऐसी किसी भी अन्तराष्ट्रीय संधियों का अनुसरण नहीं किया जाता।
भारत में अधिकांश परियोजनाएं संविधान की पांचवीं अनुसूची वाले आदिवासी क्षेत्रों में स्थापित की जाती रही हैं। संसाधनों के मामले में आदिवासी क्षेत्र समृद्ध रहा है। इस इलाके में देश का 71% जंगल,92% कोयला,92% बाक्साइट,78% लोहा,100% यूरेनियम,85% तांबा,65% डोलोमाइट इत्यादि की भरमार है। भारत के जलस्रोतों का 70% आदिवासी इलाके में है तथा करीब 80% उद्योगों के लिए कच्चा माल इन्हीं क्षेत्रों से मिलता है। यह प्रकृति की ओर से मिला वरदान है,लेकिन यही वरदान इनके लिए चुनौती भी है,क्योंकि इन्हीं संसाधनों की लूट और कब्जे को लेकर देश और दुनिया के कार्पोरेटों की उस पर गिद्ध-दृष्टि लगी है। इन संसाधनों पर काबिज होने की प्रक्रिया काफी तेज हो गई है।‘योजना आयोग’के अनुसार आजादी के बाद विभिन्न विकास परियोजनाओं से लगभग 6 करोङ लोग विस्थापित हो चुके हैं जिसमें 40 प्रतिशत आदिवासी एवं अन्य परम्परागत वन-निवासी हैं।
वन,पर्यावरण एवं जलवायु-परिवर्तन मंत्रालय’के आंकड़ों के अनुसार 2004 से 2013 के बीच उद्योगों और विकास परियोजनाओं हेतु 2.43 लाख हैक्टर वन क्षेत्र दिया गया था। इन्हीं वर्षो में 1.64 लाख हैक्टेयर वनभूमि तेल और खनन की हेतु दी गई थी। पिछले पांच वर्षों में देश की लगभग 55 हजार हैक्टर वनभूमि विकास परियोजनाओं हेतु परिवर्तित की गई है। इसमें सबसे ज्यादा मध्यप्रदेश में (12 हजार 785 हैक्टर) वनभूमि परिवर्तित की गई है। मध्यप्रदेश के वन विभाग द्वारा‘भारतीय वन अधिनियम-1927’की‘धारा (4)के अन्तर्गत अधिसूचित वनखंडों के 22 वन मंडलों में आदिवासियों की लगभग 27 हजार 39 हैक्टर ऐसी निजी भूमि को अपनी‘वार्षिक कार्य-योजना’में शामिल कर लिया गया है जिसका कोई मुआवजा नहीं दिया गया है। प्रदेश में कई हजार हैक्टर जमीन आज भी वन और राजस्व विभाग के विवाद में उलझी हुई है जहाँ 28 हजार पट्टे निरस्त किये गए हैं।
प्रदेश के विभिन्न जिलों के 6520 वनखंडों में प्रस्तावित,लगभग 30 लाख हैक्टेयर भूमि में नये संरक्षित वन घोषित किया जाना लंबित है। इससे‘राष्ट्रीय उद्यान,’‘अभयारण्य’बनाने की प्रकिया तेज होगी तथा वन में निवास करने वाले समुदायों का निस्तार हक खत्म किया जाएगा। अब तक‘राष्ट्रीय उद्यानोंएवं‘अभयारण्यों’से 94 गांवों के 5 हजार 460 परिवारों को बेदखल किया जा चुका है तथा 109 गांवों के 10 हजार 438 परिवारों को चरणबद्ध तरीके से बेदखली की कार्यवाही जारी है। वर्तमान मध्यप्रदेश सरकार द्वारा 12 नये अभयारण्य बनाने के प्रस्तावों पर कार्य जारी है।
केवल नर्मदा घाटी में बन चुके और प्रस्तावित बांधों से अभी तक लगभग 10 लाख लोग विस्थापित एवं प्रभावित हो चुके हैं। मध्यप्रदेश सरकार जिस प्रकार किसानों को विस्थापित करती जा रही है,उसका सबसे ज्यादा असर आदिवासी एवं दलित परिवारों पर हो रहा है। वर्ष 1993-94 में प्रदेश में 3.85 लाख परिवार भूमिहीन थे,जबकि 2004-2005 में भूमिहीन परिवारों की संख्या बढ़कर 4.64 लाख हो गई है। विस्थापन के दुष्प्रभावों के अध्ययन से पता चला है कि बच्चों पर इसका सबसे अधिक असर होता है। विस्थापन के बाद 20.40 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोङने पर मजबूर होते हैं,26.68 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार होते हैं तथा 24.81 प्रतिशत बच्चे बीमारी के शिकंजे में फंस जाते हैं। जाहिर है,आदिवासी क्षेत्रों में विकास के नाम पर विस्थापन,बेरोजगारी,पलायन आदि लाकर आदिवासी समुदायों को उनके समाजिक-सांस्कृतिक परिवेश से बाहर हो जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है।
सन् 2010-11 में देश की 15 करोङ 95 लाख 90 हजार हैक्टर भूमि पर खेती होती थी जो 2015-16 में घटकर 15 करोङ 71 लाख 40 हजार हैक्टर भूमि हो गई,अर्थात् 24 लाख 50 हजार हैक्टर भूमि गैर-कृषि कार्य में परिवर्तित हो गई। नतीजे में वर्ष 1951 में भारत के‘सकल घरेलू उत्पाद’;(जीडीपी) में कृषि और उससे जुड़ी गतिविधियों की जो हिस्सेदारी 51.88 प्रतिशत थी,वह 2011 में घटकर 15.78 प्रतिशत के निचले स्तर पर आ गई। स्वतंत्रता के बाद 1950-51 में भारत की सरकार पर कुल तीन हजार 59 करोङ रूपये का कर्जा था जो वर्ष 2016-17 में 74 लाख 38 हजार करोड़ रुपए हो गया था और अब 2019-20 में यह बढ़कर 88 लाख करोड़ रुपये हो गया है।
उपरोक्त तथ्यों से साफ़ है कि प्राकृतिक संसाधनों का जो दोहन हो रहा है,वह न सिर्फ समाज और मानवता के लिये दीर्घकालीन संकट पैदा कर रहा है,बल्कि उसका लाभ समाज और देश को भी नहीं हो रहा है। इस दोहन से देश के बङे पूंजीपति घराने अपनी हैसियत ऐसी बना रहे हैं जिससे वे समाज को अपना आर्थिक उपनिवेश बना सकें। इसमें वे सफल भी हो रहे हैं। दूसरी ओर,आर्थिक उपनिवेश बनते समाज को विकास का अहसास करवाने के लिए सरकार द्वारा और ज्यादा कर्जे लिए जा रहे हैं। आर्थिक विकास की मौजूदा परिभाषा बहुत गहरे तक उलझाती है। यह पहले उम्मीद और अपेक्षाएं बढाती है,फिर उन्हें पूरा करने के लिए समाज के बुनियादी आर्थिक ढांचे पर समझौता करवाती है। ऐसी शर्ते रखी जाती हैं जिससे समाज के संसाधनों पर पूंजी का एकाधिकार हो सके। इसके बाद भी मंदी आती है तो उससे निपटने के लिए कार्पोरेट रियातें मांगती है। दिसम्बर 2016 में सरकारी और गैर-सरकारी बैंकों में कुल 6.97 लाख करोड़ रुपये‘अनुत्पादक परिसंपत्तियां’(एनपीए) था। वर्तमान केंद्र सरकार ने कार्पोरेट टेक्स 35 प्रतिशत से घटाकर 25.2 प्रतिशत कर दिया है,जिससे सरकार को एक लाख 45 हजार करोड़ रूपये का घाटा होगा। ऐसे में विकास के विरोधाभास को जल्द-से-जल्द समझना होगा तथा विकास की ऐसी नई परिभाषा बनानी होगी जिसे समझने-समझाने के लिए सरकार और विशेषज्ञों की आवश्यकता न पडे।(सप्रेस)
-अभय शर्मा
भारत में लॉकडाउन हटाए हुए डेढ़ महीने से ज्यादा समय हो चुका है. सरकार ने अर्थव्यवस्था की खराब होती हालत को देखते हुए अनलॉक फेज एक और दो में आर्थिक गतिविधियों को लगभग पूरी तरह खोल दिया है. भारत की अर्थव्यवस्था अब वापस पटरी पर लौटती दिख रही है, सरकार और आरबीई के ताजा संकेतों को देखें तो इसका साफ पता चलता है. इसके अलावा हाल ही में गूगल की कोविड-19 मोबिलिटी रिपोर्ट आयी है. ये इशारा कर रही है कि भारत की अर्थव्यवस्था वापस लॉकडाउन से पहले की स्थिति की तरफ तेजी के साथ बढ़ रही है. गूगल की ये रिपोर्ट 131 देशों के लिए निकाली गई है. इस रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया का सबसे कड़ा और लंबा लॉकडाउन लगाने के बाद भी भारत उन टॉप 50 देशों में शुमार है जिनकी अर्थव्यवस्था ज्यादा तेजी के साथ सामान्य स्थित की तरफ बढ़ती दिख रही है.
वे आंकड़े जिनके आधार पर अर्थव्यवस्था में सुधार होने की बात कही जा रही है
गूगल की ओर से जुटाई गई जानकारी के अुनसार खुदरा, किराना, फार्मा, ट्रांसपोर्ट और बैंकिंग जैसे सेक्टर कोरोना काल से एकदम पहले की स्थिति की ओर तेजी से बढ रहे हैं. साथ ही ईंधन, बिजली की खपत और खुदरा वित्तीय लेन-देन में बढ़ोत्तरी को भी अर्थव्यवस्था के सामान्य होने के संकेत के तौर पर देखा जा रहा है. लॉकडाउन के दौरान देश में पेट्रोलियम उत्पादों की खपत 2007 के बाद से सबसे कम हो गई थी, लेकिन अब आंकड़े बताते हैं कि इसमें तेजी से सुधार हो रहा है. बीते जून में जून 2019 के मुकाबले तेल की खपत 88 फीसदी तक पहुंच गई है.
बीते अप्रैल में लॉकडाउन के दौरान वाणिज्यिक और औद्योगिक गतिविधियों में गिरावट आने से बिजली की मांग साल भर पहले की तुलना में करीब 25 प्रतिशत कम रही थी. लेकिन अब आंकड़े काफी उत्साहित करने वाले हैं. केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक देश में बिजली की उच्चतम मांग बीती दो जुलाई को 170.54 गीगावाट दर्ज की गई, जो जुलाई 2019 के 175.12 गीगावाट से महज 2.61 प्रतिशत ही कम है.
लॉकडाउन हटने के बाद बीते जून में वस्तु एवं सेवाकर यानी जीएसटी के संग्रह में भी तेजी आई है. वित्त मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों के अनुसार जून में कोरोना वायरस महामारी के बीच केंद्र सरकार का जीएसटी संग्रह 90,917 करोड़ रुपये रहा है. यह जून 2019 की तुलना में 91 फीसदी है. बीते मई में सरकार को जीएसटी से 62,009 करोड़ रुपये और अप्रैल में महज 32,294 करोड़ रुपये का राजस्व ही मिल सका था.
औद्योगिक उत्पादन और विनिर्माण क्षेत्र से भी राहत की खबर आ रही है. औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) के आंकड़ों के मुताबिक बीते अप्रैल में औद्योगिक उत्पादन में गिरावट 60 फीसदी तक पहुंच गयी थी, जो मई और मध्य जून तक 35 फीसदी से नीचे आ गयी है. इसी तरह विनिर्माण क्षेत्र में बीते अप्रैल में गिरावट करीब 68 फीसदी तक पहुंच गयी थी. लेकिन आईआईपी के आंकड़ों के मुताबिक मई और मध्य जून तक यह गिरावट घटकर 40 फीसदी से नीचे दर्ज की गयी है.
द हिंदू बिजनस लाइन के सीनियर डिप्टी एडिटर शिशिर सिन्हा एक और आंकड़ा भी बताते हैं जिससे आर्थिक गति का अनुमान लगाया जा सकता है. वे बताते हैं, ‘हम बिलटी यानी ईबे रसीद के जरिये भी स्थिति के सुधरने का अनुमान लगा सकते हैं. ईबे रसीद तब जारी की जाती है जब कोई सामान एक राज्य से दूसरे राज्य में या एक ही राज्य में एक जगह से दूसरी जगह भेजा जाता है. इससे पता चलता है कि सामान पर टैक्स दिया गया है या नहीं. इस समय ईबे रसीद जारी होने की संख्या तकरीबन (कोविड-19 महामारी से) पहले वाली स्थिति में पहुंच गयी है. पहले 20 से 25 लाख ईबे प्रतिदिन जारी होते थे.’
शिशिर सिन्हा यह भी कहते हैं कि महंगाई दर की स्थिति से भी जाना जा सकता है कि अर्थव्यव्स्था का चक्का किस तरह से घूम रहा है. उनके मुताबिक महंगाई दर सीधे-सीधे सप्लाई और मांग पर निर्भर करती है. इससे जुड़े आंकड़े भी बताते हैं कि अर्थव्यवस्था थोड़ी सी पहले वाली स्थिति की तरफ बढ़ रही है.
कठोर लॉकडाउन के बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था के समान्य की तरफ तेजी से बढ़ने की वजह
भारत की जीडीपी को देखें तो इसमें सेवा क्षेत्र की करीब 57 फीसदी और औद्योगिक क्षेत्र की करीब 30 फीसदी हिस्सेदारी है. इसके बाद कृषि क्षेत्र आता है जिसकी जीडीपी में हिस्सेदारी तकरीबन 13 फीसदी है. बीते अप्रैल में जब देश में कोरोना वायरस के मामले बढ़ने शुरू हुए तो आर्थिक मामलों के कई जानकारों का कहना था कि अर्थव्यवस्था को बचाने में ग्रामीण भारत बड़ी भूमिका निभाने वाला है. ऐसा कहने के पीछे की वजह यह थी कि जिस तरह से शहरी इलाकों में कोविड के मामले तेजी से सामने आ रहे थे उसे देखते हुए साफ़ था कि सेवा क्षेत्र और औद्योगिक क्षेत्रों की रफ़्तार बहुत धीमी रहने वाली है. ऐसे में सिर्फ कृषि ही एक ऐसा क्षेत्र था, जो अर्थव्यवस्था को सहारा दे सकता था. कृषि क्षेत्र से उम्मीद इसलिए थी क्योंकि ग्रामीण भारत में कोरोना का प्रभाव बेहद कम होने की वजह से वहां रबी की फसल की कटाई सामान्य रूप से चल रही थी. इसके अलावा रबी की फसल को लेकर जो आंकड़े सामने आ रहे थे, वे भी उत्साहित करने वाले थे. कृषि वर्ष 2019-20 में अनाज का रिकॉर्ड 30 करोड़ टन उत्पादन हुआ है. जानकार कहते हैं कि इसके बाद जब केंद्र और राज्य सरकारों ने किसानों को लॉकडाउन की मार से बचाने के लिए राहत योजनायें चलाई तो इससे ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को और फायदा हुआ जिससे वहां से अर्थव्यवस्था को बल मिलने की उम्मीद और ज्यादा हो गई.
सत्याग्रह से बातचीत में भी उत्तर प्रदेश के कई जिलों के किसानों ने यह बात कही कि सरकार की नीतियों और फसल कटाई के समय से होने की वजह से उन्हें कोरोना वायरस संकट के दौरान कोई ख़ास परेशानी नहीं हुई. किसानों का कहना था कि केंद्र द्वारा ‘प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि’ के तहत मिलने वाले दो हजार रुपए की दो किश्तों को तत्काल उनके अकाउंट में डालना, उज्ज्वला योजना के तहत गैस कनेक्शन पाए लोगों को तीन सिलेंडर मुफ्त देना, समर्थन मूल्य बढ़ाना और राशन में हर महीने चना और अनाज मुफ्त देने के चलते उन्हें आर्थिक तौर पर जरा भी परेशानी नहीं उठानी पड़ी.
जानकार कहते हैं कि इन्हीं सब वजहों के चलते ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की आर्थिक स्थिति पहले से बुरी न होकर कुछ बेहतर ही हुई है. इस वजह से देशव्यापी लॉकडाउन के हटते ही वहां आर्थिक गतिविधियां तेज रफ़्तार में चलने लगीं. अगर पिछले डेढ़ महीने के आकड़ों पर नजर डालें तो इसका स्पष्ट पता चलता है. जून महीने में ग्रामीण क्षेत्र में ऑटो इंडस्ट्री के आंकड़े काफी चौंकाने वाले रहे हैं. इस दौरान यहां ट्रैक्टर की बिक्री में रिकॉर्ड उछाल देखने को मिला है. सोनालिका समूह के कार्यकारी निदेशक रमन मित्तल मीडिया से बातचीत में बिक्री के आंकड़ों की जानकारी देते हुए कहते हैं, ‘यह हमारे लिए बहुत गर्व की बात है कि सोनालिका ट्रैक्टर्स इस कठिन समय में अधिकतम वृद्धि दर्ज करने वाली एकमात्र कंपनी है. हमने 15,200 ट्रैक्टरों के साथ बीते जून में दमदार प्रदर्शन किया है, इस साल जून में हुई बिक्री ने अब तक का हमारा उच्चतम स्तर छुआ है.’
ऐसा ही कुछ हाल महिंद्रा एंड महिंद्रा का भी रहा है. जून में महिंद्रा ट्रैक्टर्स की बिक्री में 12 फीसदी का उछाल दर्ज किया गया है. कंपनी ने इस दौरान रिकॉर्ड 35,844 ट्रैक्टर बेंचे हैं. महिंद्रा एंड महिंद्रा लिमिटेड में फार्म इक्विपमेंट सेक्टर के प्रमुख हेमंत सिक्का एक साक्षात्कार में बताते हैं, ‘बीते जून में महिंद्रा ट्रैक्टर की बिक्री के आंकड़े अब तक के हमारे दूसरे सबसे बड़े आंकड़े हैं. दक्षिण-पश्चिम मानसून के समय पर आने, रबी की रिकॉर्ड फसल, कृषि को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा चलायी गयीं योजनाओं के कारण किसान इस समय खासे उत्साहित हैं.’
केवल ट्रैक्टर ही नहीं, ऑटो क्षेत्र की अन्य कंपनियों को भी ग्रामीण भारत ने बड़ी राहत दी है. बाजार में चल रहे उतार-चढ़ाव पर नजर रखने वाली कंपनियां नोमुरा, एमके ग्लोबल और मोतीलाल ओसवाल की रिपोर्ट के मुताबिक ट्रैक्टर के अलावा दोपहिया, तिपहिया और चार पहिया वाहनों की बिक्री में भी शहरी क्षेत्र की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में काफी ज्यादा बढ़ोत्तरी देखी गयी है.
गांवों में शहरों के मुकाबले चीज-सामान की कहीं ज्यादा मांग
गूगल की कोविड-19 मोबिलिटी रिपोर्ट यह दावा भी करती है कि लॉकडाउन हटने के बाद भारत में यूरोप के 17 देशों से कहीं ज्यादा चीज-सामान की खपत हो रही है. अर्थ जगत के जानकार इसके पीछे भी ग्रामीण क्षेत्र का बड़ा योगदान मानते हैं.
‘तेज़ी से बिकने वाली उपभोक्ता वस्तुयें’ बनाने वाली एफएमसीजी कंपनियों के आंकड़े बताते हैं कि शहरों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में उत्पादों की मांग कई गुना बढ़ी है. मार्केट रिसर्च से जुड़ी कंपनी नील्सन की हाल में आयी रिपोर्ट की मानें तो बीते मई में ही ग्रामीण क्षेत्रों में उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री कोविड से पहले वाली औसत बिक्री के 85 फीसदी तक पहुंच गयी थी. जबकि शहरी बाजार में यह आंकड़ा 70 फीसदी पर था.
खाने-पीने के उत्पाद बनाने वाली कई कंपनियों जैसे पारले, ब्रिटेनिया ने भी लॉकडॉन के दौरान और उसके बाद अपने उत्पादों की बिक्री कई गुना बढ़ने की बात कही थी. देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान पारले-जी ने पिछले 82 सालों की बिक्री का रिकॉर्ड तोड़ दिया था. पारले प्रोडक्ट्स के वरिष्ठ प्रमुख मयंक शाह मीडिया से बातचीत में कहते हैं, ‘हमें ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में मजबूत डिमांड मिल रही है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में डिमांड पहले से दोगुनी है.’ मयंक मानते हैं कि कोविड के दौर में ग्रामीण अर्थव्यवस्था शहर की तुलना में बेहतर स्थिति में है.(satyagrah )
अलग-अलग किस्से, सब के हैं अपने-अपने दावे
-राम पुनियानी
आगामी पांच अगस्त को उस स्थान पर राम मंदिर का निर्माण शुरू किया जाना प्रस्तावित है जहां एक समय बाबरी मस्जिद हुआ करती थी। इसी बीच, इस मुद्दे पर दो विवाद उठ खड़े हुए हैं। पहला यह कि कुछ बौद्ध संगठनों ने दावा किया है कि मंदिर के निर्माण के लिए ज़मीन का समतलीकरण किये जाने के दौरान वहां एक बौद्ध विहार के अवशेष मिले हैं, जिससे ऐसा लगता है उस स्थल पर मूलतः कोई बौद्ध इमारत थी। दूसरे, नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली ने दावा किया है कि वह अयोध्या, जिसमें राम जन्में थे, दरअसल, नेपाल के बीरगंज जिले में है। यह कहना मुश्किल है कि ओली ने इसी मौके पर यह मुद्दा क्यों उठाया। उनके इस दावे की उन्हीं के देश में जम कर आलोचना हुई जिसके बाद उनके कार्यालय ने एक स्पष्टीकरण जारी कर कहा कि प्रधानमंत्री का इरादा किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का नहीं था।
रामकथा को लेकर यह पहला विवाद नहीं है। सन 1980 के दशक में जब महाराष्ट्र सरकार ने बी.आर. आंबेडकर के वांग्मय का प्रकाशन शुरू किया था उस समय भी उनकी पुस्तक ‘रिडल्स ऑफ़ राम एंड कृष्ण’ को इस संग्रह में शामिल किये जाने का भारी विरोध हुआ था। इस पुस्तक में आंबेडकर ने शम्बूक नामक शूद्र की तपस्या करने के लिए हत्या करने, जनप्रिय राजा बाली को धोखे से मारने और अपनी गर्भवती पत्नि सीता को त्यागने के लिए भगवान राम की आलोचना की है। इसके अलावा, सीता को अग्निपरीक्षा देने के लिए मजबूर करने के लिए भी आंबेडकर राम की निंदा करते हैं।
आंबेडकर के पहले जोतीराव फुले ने राम द्वारा छुप कर बाली को बाण मारने की निंदा की थी। बाली एक स्थानीय राजा था, जो अपने प्रजाजनों का बहुत ख्याल रखता था और उनमें बहुत लोकप्रिय था। पेरियार ई.वी. रामासामी नायकर ने भगवान राम के व्यक्तित्व के इन पक्षों पर केन्द्रित ‘सच्ची रामायण’ लिखी थी। रामकथा के प्रचलित संस्करण के पात्र जिस तरह का लैंगिक और जातिगत भेदभाव करते दिखते हैं, पेरियार उसके कटु आलोचक थे। पेरियार तमिल अस्मिता के पैरोकार थे। उनके अनुसार, रामायण की कहानी ऊंची जातियों के संस्कृतनिष्ठ, जातिवादी उत्तर भारतीयों द्वारा राम के नेतृत्व में दक्षिण भारत के लोगों पर अपने आधिपत्य स्थापित करने के ऐतिहासिक घटनाक्रम का रूपक मात्र है। पेरियार के अनुसार, रावण, प्राचीन द्रविड़ों के सम्राट थे और उन्होंने सीता का अपहरण केवल अपनी बहन शूर्पनखा के अपमान और उसके विकृत किये जाने का बदला लेने के लिए किया था। पेरियार के अनुसार, रावण एक महान भक्त और एक नेक और धर्मात्मा व्यक्ति थे।
बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद सन 1993 में सफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) द्वारा पुणे में लगाई गई एक प्रदर्शनी में तोड़-फोड़ की गई थी। वह इसलिए क्योंकि वहां बौद्ध जातक कथा पर आधारित एक पेंटिंग प्रदर्शित की गई थी, जिसमें सीता को राम की बहन बताया गया था। इस कथा के अनुसार, राम और सीता उच्च जाति के एक ऐसे कुल से थे जिसके सदस्य अपनी पवित्रता बनाये रखने के लिए अपने कुल से बाहर शादी नहीं करते थे।
कुछ वर्ष पूर्व, आरएसएस की विद्यार्थी शाखा एबीवीपी ने ए.के. रामानुजन के लेख ‘थ्री हंड्रेड रामायणास’ को पाठ्यक्रम से हटाने की मांग को लेकर आन्दोलन किया था। इस लेख में रामानुजन बताते हैं कि रामायण के कई संस्करण हैं जिनमें अनेक विभिन्नताएं हैं और जिनमें घटनाओं का स्थान अलग-अलग बताया गया है।
संस्कृत के विद्वान और भारत में पुरातत्वीय उत्खनन के अगुआ एच.डी. सांकलिया के अनुसार यह हो सकता है कि रामायण में वर्णित अयोध्या और लंका, आज की अयोध्या और लंका से अलग कोई स्थान रहे हों। उनके अनुसार, लंका शायद आज के मध्यप्रदेश में कोई स्थान रहा होगा क्योंकि इस बात की प्रबल संभावना है कि ऋषि वाल्मीकि, विंध्य पर्वतमाला के दक्षिण में स्थित इलाके के बारे में कुछ नहीं जानते होंगे। आज जिसे श्रीलंका कहा जाता है, उसका पुराना नाम ताम्रपर्णी था। रामायण के अलग-अलग आख्यान भारत ही नहीं बल्कि पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया में पाए जाते हैं और इनमें से कई बहुत दिलचस्प हैं। पौला रिचमन की पुस्तक ‘मेनी रामायणास’ (ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस) में भगवान राम की विभिन्न कथाओं की दिलचस्प झलकियाँ दी गयीं हैं।
भारत में राम कथा का जो संस्करण आज सबसे अधिक प्रचलित है वह वाल्मीकि की ‘रामायण’, गोस्वामी तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ और रामानंद सागर के टीवी सीरियल ‘रामायण’ पर आधारित है। इस सीरियल का कोरोना लॉकडाउन के दौरान पुनर्प्रसारण किया गया। राम के कथा का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है जिनमें बाली, संथाली, तमिल, तिब्बती और पाली शामिल हैं। पश्चिमी भाषाओं में इसके अनेकानेक संस्करण हैं, जिनकी कथाएँ एक-दूसरे से मेल नहीं खातीं। थाईलैंड में प्रचलित रामकीर्ति या रामकियेन संस्करण में भारतीय संस्करण के विपरीत, हनुमान ब्रह्मचारी नहीं हैं। रामायण के जैन और बौद्ध संस्करणों में राम, क्रमशः महावीर और गौतम बुद्ध के अनुयायी हैं। इन दोनों संस्करणों में रावण को एक विद्वान और महान ऋषि बताया गया है। कुछ संस्करणों, जो विदेशों में लोकप्रिय हैं, में सीता को रावण की पुत्री बताया गया है। मलयालम कवि वायलार रामवर्मा की कविता ‘रावणपुत्री’ भी यही कहती है। कई संस्करणों के अनुसार, दशरथ अयोध्या के नहीं वरन वाराणसी के राजा थे।
फिर, रामायण के एक वह संस्करण भी है जो महिलाओं में प्रचलित है’। तेलुगू ब्राह्मण महिलाओं द्वारा जो ‘महिला रामायण गीत’ गाए जाते हैं, उन्हें रंगनायकम्मा ने संकलित किया है। इनमें महिलाओं की केन्द्रीय भूमिका है। इन गीतों में बताया गया है कि अंत में सीता राम पर भारी पडतीं हैं और शूर्पनखा राम से बदला लेने में सफल रहती है।
इन आख्यानों की समृद्ध विविधता से पता चलता है कि भगवान कथा की कथा दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में भी लोकप्रिय है और इसके कई रूप हैं। राममंदिर आन्दोलन पूरी तरह से रामकथा के उस आख्यान पर केन्द्रित है जिसे वाल्मीकि, तुलसीदास और रामानंद सागर ने प्रस्तुत किया है। उन तीनों में भी कुछ मामूली अंतर हैं, विशेषकर लैंगिक और जातिगत समीकरणों के सन्दर्भ में। वर्तमान में भारत में प्रचलित आख्यान, लैंगिक और जातिगत पदक्रम के पैरोकार हैं। और यही पदक्रम, सांप्रदायिक राजनीति के मूल में भी हैं। रामकथा के इस संस्करण के जुनूनी समर्थक पैदा कर दिए गए हैं। वे इस कथा के हर उस संस्करण, हर उस व्याख्या पर हमलावर हैं, जो सांप्रदायिक राजनीति के हितों से मेल नहीं खाते।
रामायण पर विद्वतापूर्ण रचनायें, तत्कालीन समाज में व्याप्त मूल्यों और परम्पराओं में विविधता को रेखांकित करतीं हैं। हर राष्ट्रवाद, अतीत का अपना संस्करण रचता है। एरिक होब्स्वाम के अनुसार, “राष्टवाद के लिए इतिहास वह है जो अफीमची के लिए अफीम”। ऐसा लगता है कि विभिन्न प्रकार के राष्ट्रवाद, इतिहास की नहीं वरन पौराणिकी के भी वही संस्करण चुनते हैं जिनसे उनके निहित स्वार्थों की पूर्ती होती हो।(navjivan)
-देवेंद्र वर्मा
(पूर्व प्रमुख सचिव, छत्तीसगढ़ विधानसभा, संसदीय एवं संवैधानिक विशेषज्ञ)
दल बदल कानून का उद्देश्य निर्वाचन के पश्चात निर्वाचित विधायक द्वारा जनता के साथ विश्वासघात करते हुए, निर्वाचित सरकारों को अस्थिर करने, इसके एवज में स्वयं लाभ प्राप्त करने, को रोकने एवं विधायकों की लोभ,लालच की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना है।
दल बदल कानून और संबंधित संविधान के महत्वपूर्ण प्रावधान निम्नानुसार हैं:-
1. यदि कोई विधायक जिस दल के टिकट पर निर्वाचित हुआ है उस दल के विधायक दल
(राजनीतिक दल नहीं)को त्याग देता है, अथवा उसका आचरण/ व्यवहार, गतिविधियाँ ऐसी रहती हैं, जिससे ऐसा आभास होता हो कि, उसने विधायक दल की सदस्यता त्याग दी है, जिसके आधार पर( चाहे त्यागपत्र दिया हो अथवा नहीं या दूसरे दल की सदस्यता ग्रहण की हो अथवा नहीं) वह सदस्यता के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाता है, तो वह जब तक पुनः निर्वाचित ना हो जाए मंत्री पद पर( संविधान के 6 माह के लिए मंत्री पद पर नियुक्त करने के प्रावधान के अंतर्गत भी) नियुक्त नहीं किया जा सकता है और न ही किसी लाभकारी पद पर नियुक्त किया जा सकता है।
(मध्यप्रदेश में भाजपा ने दल बदल कानून एवं संविधान के संबंधित प्रावधानों की धज्जियाँ उड़ाते हुए न केवल 14 इस्तीफ़ा देकर विधायक दल की सदस्यता त्यागने वाले,और मंत्री पद पर अथवा अन्य लाभकारी पद पर नियुक्त किए जाने के लिए अयोग्य पूर्व विधायकों को पुनःनिर्वाचित होने के पहले ही मंत्री के पद पर नियुक्त/अन्य लाभकारी पद पर नियुक्त कर दिया है।
संविधान के प्रावधानों के उल्लंघन के लिए कांग्रेस दल द्वारा अभी तक संज्ञान नहीं लिया जाना विस्मयकारी है।)
2. राजनीतिक दल अथवा इसके द्वारा अधिकृत व्यक्ति,जब सत्र चल रहा होता है,सत्र चलते रहने के दौरान सभा भवन में आवश्यक रूप से उपस्थित रहने के लिए और किसी विषय पर मतदान के समय मतदान में हिस्सा लेने अथवा हिस्सा नहीं लेने के लिए WHIP जारी करता है।WHIP में इस बात का उल्लेख नहीं रहता कि मतदान पक्ष में करना है अथवा विपक्ष में।WHIP के द्वारा केवल उपस्थिति सुनिश्चित की जाती है।
3. दल बदल कानून के प्रावधानों के अंतर्गत, किसी सदस्य अथवा सदस्यों के सदस्यता से अयोग्य होने संबंधी अर्जी प्राप्त होने पर अध्यक्ष विधानसभा उस पर विचार एवं निर्णय करने के पूर्व दूसरे पक्ष को उसकी अयोग्यता से संबंधित अर्जी प्राप्त हुई है,जानकारी में लाने एवं नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप अर्जी पर उसका पक्ष जानने के लिए,प्रति उत्तर प्राप्त करने हेतु नोटिस जारी कर सकते हैं।
4. दल बदल कानून के अंतर्गत (2003 में दल बदल कानून में हुए संशोधन के पश्चात) दल में विभाजन को मान्यता देने के लिए यह आवश्यक है कि विधायक दल( राजनीतिक दल नहीं) की सदस्य संख्या के 2/3 सदस्य विभाजित हो,अन्यथा स्थिति में दल बदल कानून के अंतर्गत सदस्य बने रहने के लिए अयोग्यता आकर्षित होती है।
ऐसा 2/3 सदस्य संख्या वाला समूह,पृथक दल भी गठित कर सकता है अथवा किसी अन्य विधायक दल में सम्मिलित भी हो सकता है।
दल बदल कानून के अंतर्गत अध्यक्ष द्वारा की जाने वाली संपूर्ण कार्यवाही अर्ध न्यायिक स्वरूप की होती है।
संदर्भ से हटकर नोट:- यह आश्चर्यजनक संयोग है कि जिस दल से सदस्य निर्वाचित हुए हैं उस दल के विरुद्ध आचरण एवं गतिविधियाँ करने,पश्चात इस्तीफ़ा देने वाले सदस्य भाजपा शासित राज्यों के पांच सितारा होटल में मेहमाननवाजी करते हैं, उनका संपर्क उनके मूल राजनीतिक दलों के पदाधिकारियों से तो नहीं रहता,किंतु भाजपा दल के पदाधिकारियों से रहता है।मध्यप्रदेश के कर्नाटक राज्य के होटल में मेहमाननवाजी करने वाले,सदस्यों के इस्तीफ़े भी भाजपा के वरिष्ठ नेता विधायक,और पूर्व मंत्री बेंगलुरु से लेकर आए और अध्यक्ष विधानसभा को सौंपे।
इस्तीफ़ा देने वाले कांग्रेस के पूर्व सदस्यों को दिल्ली में आयोजित समारोह में भाजपा की सदस्यता ग्रहण करवाई गई और पश्चात इस्तीफ़ा देने वाले सदस्यों के गुरु से हुए तथाकथित सौदे के अनुरूप 14 व्यक्तियों को दल बदल कानून के प्रावधानों के विपरीत मंत्री पद पर नियुक्त कर दिया गया।इसे संयोग ही मानियेगा,प्रयोग नहीं।
राजस्थान में क्या होता है देखना है!
कोरोना वायरस महामारी के दौरान भी पड़ोसियों के प्रति अपनी आक्रामकता को जारी रखते हुए चीन ने एक बार फिर भूटान स्थित सकतेंग वन्यजीव अभयारण्य पर दावा ठोंका है। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेनबिन ने एक प्रेस ब्रीफिंग में कहा कि चीन और भूटान के बीच सीमा का अभी तक सीमांकन नहीं किया गया है। उन्होंने कहा, "चीन की स्थिति लगातार स्पष्ट बनी हुई है। चीन और भूटान के बीच सीमा को सीमांकित नहीं किया गया है और मध्य, पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्रों में विवाद हैं।" उन्होंने कहा कि चीन विवाद को सुलझाने के लिए 'एक समाधान पैकेज' पेश कर रहा है। वह इन विवादों को कतई बहुपक्षीय मंचों पर नहीं उठाना चाहता।
हालांकि, चीन ने पूर्वी भूटान के ट्रशिगांग जिले में भारत और चीन की सीमा से लगे अभयारण्य का मुद्दा इस साल जून में ग्लोबल एनवायरमेंट फैसिलिटी (जीईएफ) की एक वर्चुअल बैठक में उठाया था। चीन ने अभयारण्य के लिए अनुदान पर आपत्ति जताते हुए दावा किया था कि यह स्थान विवादित है। परिषद ने चीन की आपत्ति के कारण को दर्ज करने से इनकार कर दिया था और कहा था कि फुटनोट में केवल यह रिकॉर्ड होगा कि चीन ने परियोजना पर आपत्ति जताई है।
भूटान सरकार ने परिषद के सत्र के दस्तावेजों में सकतेंग वन्यजीव अभयारण्य पर भूटान और उसके क्षेत्र की संप्रभुता पर सवाल उठाने वाले संदर्भों का पुरजोर विरोध करते हुए जीईएफ परिषद को एक औपचारिक पत्र जारी किया था। भूटान ने जीईएफ परिषद से दस्तावेजों से चीन के आधारहीन दावों के सभी संदर्भों को निकालने का आग्रह किया है।
भूटान और चीन के बीच 1984 से सीमा विवाद है। थिम्पू और बीजिंग के बीच वार्ता विवाद के तीन क्षेत्रों (उत्तरी भूटान में दो जकार्लुंग और पसमलंग क्षेत्रों में और एक पश्चिम भूटान में) सीमित रही है। सकतेंग इन तीनों विवादित क्षेत्रों में से किसी का हिस्सा नहीं है।
जबकि बाकी दुनिया चीन के हुबेई प्रांत के वुहान शहर से उठी कोरोना वायरस महामारी के आर्थिक दुष्प्रभावों से जूझ रही है, ऐसे में भी चीन ईस्ट चाइना सी, साउथ चाइना सी और भारत को उसके लद्दाख व अरुणाचल प्रदेश में लगातार उकसा रहा है। हालांकि भारत के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव में कुछ कमी आई है, लेकिन स्थिति तनावपूर्ण बनी हुई है।(IANS)
दूसरे विकसित देशों को प्रति इलाज 2,340 डॉलर चुकाने होंगे
- मारिया एलेना नावास
बीबीसी न्यूज़
मई में जब इस बात का एलान हुआ कि कोविड-19 के मरीज़ों पर एक दवा असरदार साबित हो रही है तो इसे लेकर बड़ी उम्मीदें पैदा हो गई थीं.
ये दवा रेमडेसिविर थी. यह अमरीकी फार्मा कंपनी गिलियड की एक एंटीवायरल दवा है.
शुरुआती टेस्ट से पता चला था कि यह दवा कोरोना वायरस से संक्रमित मरीज़ों को जल्दी ठीक कर सकती है.
इस एलान के बाद पूरी दुनिया के विशेषज्ञों, डॉक्टरों और राजनेताओं ने खुद से एक सवाल पूछा. यह सवाल था कि गिलियड इस दवा के लिए कितने पैसे वसूलेगी?
उस वक़्त केवल दो दवाएं ही कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ जंग में प्रभावी साबित होती नज़र आ रही थीं. पहली रेमडेसिविर थी जबकि दूसरी एक स्टेरॉयड डेक्सामेथासोन थी.
कुछ दिन पहले इस सवाल का जवाब मिल गया. अमरीका में बीमा कंपनियों को हर मरीज़ के पांच दिन के इलाज के लिए 3,120 डॉलर हर हालत में चुकाने होंगे.
रेमडेसिविर की क़ीमत
दूसरे विकसित देशों को प्रति इलाज के लिए 2,340 डॉलर चुकाने होंगे.
गिलियड ने एक बयान में कहा कि विकासशील देशों में कंपनी जेनेरिक दवा बनाने वाली कंपनियों के साथ बातचीत कर रही है ताकि इन देशों में दवा काफी कम दाम में मुहैया कराई जा सके. हालांकि, इसमें क़ीमत के बारे में कोई जिक्र नहीं किया गया.
गिलियड के सीईओ डैनियल ओ'डे ने बयान में कहा, "हम रेमडेसिविर की क़ीमत तय करने को लेकर हमारे ऊपर मौजूद बड़ी ज़िम्मेदारी को समझते हैं."
उन्होंने कहा, "काफी सावधानी, लंबा वक़्त और चर्चा करने के बाद हम अपना फैसला साझा करने के लिए तैयार हैं."
ये फैसला हालांकि, एक बड़े तबके की आलोचना का शिकार हुआ.
इन लोगों का मानना था कि ऐसे वक़्त में जबकि दुनिया एक स्वास्थ्य आपातकाल से गुज़र रही है, इसके इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवा की इतनी ऊंची क़ीमत तय करना एक अपराध है.
इन्वेस्टिगेशन और डिवेलपमेंट
पीटर मेबार्डक ग़ैरसरकारी संगठन 'पब्लिक सिटिज़न' के 'एक्सेस टू मेडिसिंस' प्रोग्राम के निदेशक हैं. 'पब्लिक सिटिज़न' का मुख्यालय वाशिंगटन में है.
पीटर कहते हैं, "घमंड और आम लोगों के प्रति उपेक्षा दिखाते हुए गिलियड ने एक ऐसी दवा की क़ीमत हज़ारों डॉलर तय कर दी है जिसे आम लोगों के बीच होना चाहिए."
जानकारों का कहना है कि दवा कंपनियों को मुनाफ़ा कमाने का पूरा हक़ है क्योंकि उन्हें किसी दवा को विकसित करने और उसका उत्पादन करने पर भारी पूंजी निवेश करनी पड़ती है.
मैड्रिड में कैमिलो जोस सेला यूनिवर्सिटी में फार्माकोलॉजी के प्रोफेसर फ्रैंसिस्को लोपेज मुनोज कहते हैं, "आपको इस तथ्य के साथ शुरू करना पड़ता है कि दवाओं का विकास एक बेहद महंगा सौदा होता है. खोज से लेकर मार्केट में आने तक किसी दवा की औसत क़ीमत क़रीब 1.14 अरब डॉलर बैठती है. इसके अलावा इसमें वक़्त भी बहुत लगता है. किसी दवा को विकसित करने में 12 साल तक का वक़्त लग सकता है और स्टडी की जा रही हर 5,000 दवाओं में से केवल एक ही बाज़ार तक पहुंच पाती है. इसके साथ ही हमें पेटेंट के एक्सपायर होने को भी देखना पड़ता है. मार्केट में आने के 20 साल बाद दवा का पेटेंट खत्म हो जाता है."
हेपेटाइटिस-सी से कोरोना तक
हालांकि, रेमडेसिविर के साथ मामला थोड़ा अलग है. ऐसा इसलिए है क्योंकि यह कोई नई दवा नहीं है. न ही गिलियड ने इसे ख़ासतौर पर कोविड-19 के लिए विकसित किया है.
शुरुआत में इस दवा को हेपेटाइटिस-सी के लिए विकसित किया गया था.
जब यह पाया गया कि यह हेपेटाइटिस पर बेअसर है तो इसे इबोला वायरस के इलाज के लिए आज़माया गया, लेकिन यह वहां भी काम नहीं आई और गिलियड ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया.
इस साल की शुरुआत में कोविड-19 के फैलने के बाद गिलियड ने इस दवा को फिर से टेस्ट करने और इसे कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ आज़माने का फैसला किया.
इन नए क्लीनिकल ट्रायल्स पर अमरीका के नेशनल इंस्टीट्यूट्स ऑफ हेल्थ और दूसरे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने पैसा लगाया था. यानी कि ये करदाताओं का पैसा था.
इसी वजह से विशेषज्ञों का कहना है कि कोरोना महामारी के दौर में आम लोगों को यह दवाई उत्पादन की लागत पर मुहैया कराई जानी चाहिए.
हद से ज़्यादा महंगी
गिलियड ने रेमडेसिविर की उत्पादन लागत का खुलासा नहीं किया है, लेकिन क्लीनिकल एंड इकनॉमिक रिव्यू इंस्टीट्यूट (आईसीईआर) के विश्लेषण से पता चला है कि प्रति मरीज़ 10 दिन के इलाज के लिए इस दवा की मैन्युफैक्चरिंग की लागत करीब 10 डॉलर बैठती है.
लेकिन, गिलियड की तय की गई नई क़ीमत के हिसाब से रेमडेसिविर अपनी पेरेंट कंपनी के लिए 2020 में 2.3 अरब डॉलर की कमाई कर सकती है.
रॉयल बैंक ऑफ कनाडा ने इस बात का आकलन किया है.
आलोचक कह रहे हैं वैश्विक स्तर पर एक स्वास्थ्य आपातकाल के वक़्त में किसी कंपनी का मोटा मुनाफ़ा बटोरना एक घोटाले जैसा है.
यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स के इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी एंड हेल्थ रेगुलेशंस के एक्सपर्ट प्रोफेसर ग्राहन डटफील्ड कहते हैं, "मैं मुनाफ़ा कमाने का विरोधी नहीं हूं, लेकिन रेमडेसिविर की क़ीमत हद से ज्यादा है. लेकिन, मैं यह भी मानता हूं कि सरकार ने इसे रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया, ऐसे में यह एक घोटाले जैसा है. इंडस्ट्री एक रेगुलेटरी सिस्टम के तहत काम करती है और रेगुलेटरी सिस्टम सरकार तय करती है."
यूनिवर्सल हेल्थकेयर सिस्टम
हर देश के हिसाब से दवाओं की क़ीमत अलग-अलग तय की जाती है.
डटफील्ड बताते हैं कि ब्रिटेन और बाकी यूरोप जैसी जगहों पर दवाओं की क़ीमत कहीं कम होती हैं क्योंकि यहां एक यूनिवर्सल हेल्थकेयर सिस्टम है. इन्हें मैन्युफैक्चरर्स से बड़े डिस्काउंट मिलते हैं.
डटफील्ड बताते हैं, लेकिन, अमरीका में हालात बिलकुल अलग हैं. वे कहते हैं, "यहां फार्मास्युटिकल इंडस्ट्री किसी भी तरह के प्राइस कंट्रोल के अधीन नहीं है. फार्मा कंपनियां अपनी मर्जी के हिसाब से दवाओं की क़ीमत तय कर सकती हैं. ऐसे में केवल एक ही दबाव क़ीमतों को नियंत्रण में रख सकता है और वह है राजनीतिक दबाव."
इसी वजह से सबसे बुरी तरह से प्रभावित होने वाले विकासशील देशों में विकसित देशों में विकसित हुए इलाज आमतौर पर देरी से पहुंचते हैं और ये बेहद महंगे होते हैं. इस तरह के वाकये पहले भी देखे गए हैं.
वे कहते हैं, "कई देशों में बड़ी तादाद में ऐसे लोग हैं जो कि 3,420 डॉलर खर्च नहीं कर सकते हैं."
'पेटेंट्स छोड़ें दवा कंपनियां'
विशेषज्ञों का कहना है कि रेमडेसिविर की क़ीमत अहम है क्योंकि कोविड-19 के इलाज या वैक्सीन खोज रही दूसरी कंपनियां इसकी क़ीमत के हिसाब से अपनी रणनीति और क़ीमतें तय करेंगी.
मुनोज बताते हैं, "हम रेमडेसिविर की क़ीमत सुनकर डरे हुए हैं. यह बेहद महंगी है. लेकिन, असली दिक़्क़त रेमडेसिविर के साथ नहीं है, बल्कि ये पहली वैक्सीन के आने पर दिखाई देगी."
"रेमडेसिविर केवल एक ख़ास समूह के लोगों, कुछ बेहद कम संक्रमित मरीज़ों के इलाज के लिए है. दूसरी ओर, वैक्सीन दुनिया की पूरी आबादी के लिए आएगी और यह अन्य दूसरे कई नैतिक पहलुओं को भी पैदा करेगी."
इसी वजह से कई लोग फार्मा कंपनियों से महामारी के दौरान अपने पेटेंट्स त्यागने और महामारी का दौर गुज़रने के बाद इन्हें फिर से हासिल करने के लिए कह रहे हैं.
डटफील्ड कहते हैं, "मैं मानता हूं कि इंडस्ट्री में काम कर रहे वैज्ञानिक दुनिया की मदद करना चाहते हैं, लेकिन, अंतिम फैसला इन लोगों के हाथ में नहीं होता."(bbc)
सुसान चाको दयानिधि
देश में रिवर्स ऑस्मोसिस (आरओ) तकनीक के उपयोग के कारण पानी की अत्यधिक हानि हो रही है। इस मामले पर 13 जुलाई 2020, को एनजीटी के न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और न्यायमूर्ति सोनम फिंटसो वांग्दी की दो सदस्यीय पीठ में सुनवाई हुई।
अदालत ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को 20 मई, 2019 के अपने आदेश में एनजीटी द्वारा निर्धारित तरीके से आरओ के उपयोग को प्रतिबंधित करने के लिए एक अधिसूचना जारी करने को कहा था, पर ऐसा नहीं किया गया। इस देरी पर अदालत ने मंत्रालय से जवाब मांगा।
एक वर्ष बीतने के बाद भी, केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने लॉकडाउन के कारण समय बढ़ाने की मांग की थी। अदालत ने निर्देश दिया कि आवश्यक कार्रवाई अब 31 दिसंबर, 2020 तक पूरी की जानी चाहिए।
मामले को 25 जनवरी, 2021 को फिर से विचार के लिए सूचीबद्ध किया गया है।
दिल्ली में चल रहे अवैध बोरवेल को बंद करें
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (डीपीसीसी) को दिल्ली में अवैध बोरवेल और ट्यूबवेल के उपयोग पर पर्यावरण विभाग, दिल्ली सरकार द्वारा तय मानकों के तहत चलाने की प्रक्रिया (एसओपी) का पालन करने का निर्देश दिया।
एसओपी में 'भूजल को निकालने के नियम, बंद करने, बोरवेल / ट्यूबवेल के उपयोग से संबंधित गैरकानूनी गतिविधियों' पर रोक लगाने के लिए दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी), स्थानीय निकायों और खंड विकास अधिकारियों जैसी विभिन्न एजेंसियों को जिम्मेदारियां सौंपी गई थीं। अवैध बोरवेल की पहचान उपयोग की प्रकृति के आधार पर और जिलों के डिप्टी कमिश्नर (राजस्व) को अवैध बोरवेलों के बंद और उल्लंघन की जांच की देखरेख करने की भूमिका सौंपी गई थी।
उपायुक्तों की सहायता के लिए प्रत्येक जिले में एक अंतर विभागीय सलाहकार समिति का गठन किया गया था।
ड्रिलिंग मशीन / रिग्स का इस्तेमाल अवैध बोरवेल खोदने के लिए किया जाता है। भूजन निकालने के लिए पंजीकरण, पूर्व अनुमति और पर्यावरण क्षतिपूर्ति सहित एक प्रणाली को एसओपी में शामिल किया गया था।
यह बताया गया था कि दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी) के द्वारा पहले ही 19661 अवैध बोरवेल की पहचान कर ली गई है, जिस पर कार्रवाई की जा रही है और 7248 इकाइयों को पहले ही जिला अधिकारियों द्वारा बंद करवा दिया गया था। शेष इकाइयों को प्राथमिकता से बंद किया जाना है। ये इकाईयां पहले ही पहचान ली गईं थी और इन्हें तीन महीने की अवधि के अंदर पूरी तरह बंद करने की बात कही गई है।
एनजीटी का यह आदेश बिना लाइसेंस के जमीन से पानी निकालने वाले यंत्रों के चलने, दिल्ली के कुछ हिस्सों में दूषित पानी की आपूर्ति पर की गई शिकायत पर था। (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
श्री लालजी टंडन-जैसे कितने नेता आज भारत में हैं ? वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा में अपनी युवा अवस्था से ही हैं लेकिन उनके मित्र, प्रेमी और प्रशंसक किस पार्टी में नहीं हैं ? क्या कांग्रेस, क्या समाजवादी, क्या बहुजन समाज पार्टी– हर पार्टी में टंडनजी को चाहनेवालों की भरमार है। टंडनजी संघ, जनसंघ और भाजपा से कभी एक क्षण के लिए विमुख नहीं हुए। यदि वे अवसरवादी होते तो हर पार्टी उनका स्वागत करती और उन्हें पद की लालसा होती तो वे उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री कभी के बन गए होते। वे पार्षद रहे, विधायक बने, सांसद हुए, मंत्री बने और अब मध्यप्रदेश के राज्यपाल हैं। जो भी पद या अवसर उन्हें सहज भाव से मिलता गया, उसे वे विन्रमतापूर्वक स्वीकार करते गए। उत्तरप्रदेश की राजनीति जातिवाद के लिए काफी बदनाम है। वहां का हर बड़ा नेता जातिवाद की बंसरी बजाकर ही अपनी दुकानदारी जमा पाता है लेकिन टंडनजी हैं कि उनकी राजनीति संकीर्ण सांप्रदायिकता और जातीयता के दायरों को तोडक़र उनके पार चली जाती है। इसीलिए वे हरदिल अजीज़ नेता रहे हैं।
टंडनजी से मेरी भेंट कई वर्षों पहले अटलजी के घर पर हो जाया करती थी। उसे भेंट कहें या बस नमस्कार—चमत्कार ? उनसे असली भेंट अभी कुछ माह पहले भोपाल में हुई जब मैं किसी पत्रकारिता समारोह में व्याख्यान देने वहां गया हुआ था। आपको आश्चर्य होगा कि वह भेंट साढ़े चार घंटे तक चली। न वे थके और न ही मैं थका। मुझे याद नहीं पड़ता कि मेरे 65-70 साल के सार्वजनिक जीवन में किसी कुर्सीवान नेता याने किसी पदासीन भारतीय नेता से मेरी इतनी लंबी मुलाकात हुई हो।
टंडनजी की खूबी यह थी कि वे जनसंघ और भाजपा के कट्टर सदस्य रहते हुए उनके विरोधी नेताओं के भी प्रेमभाजन रहे। उनके किन-किन नेताओं से संबंध नहीं रहे ? आप यदि उनकी पुस्तक ‘स्मृतिनाद’ पढ़ें तो आपको टंडनजी के सर्वप्रिय व्यक्तित्व का पता तो चलेगा ही, भारत के सम-सामयिक इतिहास की ऐसी रोचक परतें भी खुल जाएंगी कि आप दांतों तले उंगली दबा लेंगे। 284 पृष्ठ का यह ग्रंथ छप गया है लेकिन अभी इसका विमोचन नहीं हुआ है। टंडनजी ने यह सौभाग्य मुझे प्रदान किया कि इस ग्रंथ की भूमिका मैं लिखूं। इस ग्रंथ में उन्होंने 40-45 नेताओं, साहित्यकारों, समाजसेवियों और नौकरशाहों आदि पर अपने संस्मरण लिखे हैं। ये संस्मरण क्या हैं, ये सम-सामयिक इतिहास पर शोध करनेवालों के लिए प्राथमिक स्त्रोत हैं। उनकी इच्छा थी कि इस पुस्तक का विमोचन दिल्ली, भोपाल और लखनऊ में भी हो।
टंडनजी को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि। (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
- विजय शंकर सिंह
19 जुलाई 1969 को बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था और उसके ठीक पचास साल बाद आज 21 जुलाई 2020 को यह खबर आयी कि सरकार छः पब्लिक सेक्टर बैंकों को पुनः निजी क्षेत्रों में सौंपने जा रही है। सरकार और बैंकिंग सूत्रों ने बताया कि बड़े सुधार के तहत पीएसयू बैंकों की संख्या आधी से कम किए जाने की योजना है। अभी देश में जो सरकारी बैंक हैं उन्हें, पांच तक सीमित करने की योजना है।
कहा जा रहा है कि, बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पा रहे सरकारी बैंकों में हिस्सेदारी बेचने के लिए नए निजीकरण प्रस्ताव पर काम चल रहा है और कैबिनेट की मंजूरी के बाद यह प्रक्रिया आगे बढ़ाई जाएगी। अखबारों की एक खबर के अनुसार, कोविड – 19 से देश की अर्थव्यवस्था पर काफी दबाव है और सरकार के पास धनाभाव है। कई सरकारी समितियों और रिजर्व बैंक ने भी सिफारिश की थी कि 5 से ज्यादा सार्वजनिक बैंक नहीं होने चाहिए।
खबर है कि पहले चरण में बैंक ऑफ इंडिया, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन ओवरसीज बैंक, यूको बैंक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र और पंजाब एवं सिंध बैंक का निजीकरण किया जाएगा। सरकार ने पहले ही बता दिया है कि अब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का विलय नहीं किया जाएगा, सिर्फ उनके निजीकरण का ही विकल्प है। पिछले साल ही 10 सरकारी बैंकों का विलय कर 4 बड़े बैंक बनाए गए हैं। अगले चरण में, जिन बैंकों का विलय नहीं हुआ है, उनके निजीकरण की योजना है।
अब जरा पचास साल पीछे चलें। जब 1969 में इंदिरा गांधी ने 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था तो वह एक अभूतपूर्व घटना थी। वह सरकार के वैचारिक बदलाव का एक संकेत था और 1947 से चली आ रही मिश्रित अर्थव्यवस्था से थोड़ा अलग हट कर भी एक कदम था। कांग्रेस के अंदर इंदिरा गांधी के इस कदम का विरोध हुआ और कांग्रेस नयी तथा पुरानी कांग्रेस में बंट गयी, पर देश की प्रगतिशील पार्टियों और समाज ने इंदिरा गांधी के इस कदम का बेहद गर्मजोशी से स्वागत किया और हवा का रुख भांपते हुए इन्दिरा गांधी ने 1972 में निर्धारित आम चुनाव को एक साल पहले ही करा दिया। इसका परिणाम आशानुरूप ही हुआ और 1971 में तब तक का सबसे प्रबल जनादेश इंदिरा गांधी को मिला और स्पष्ट है कि यह जनादेश प्रगतिवादी नीतियों के पक्ष में था और तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी उनके साथ आ गयी थी और वह इंदिरा गांधी का वामपंथी झुकाव था।
ऐसा नहीं था कि इंदिरा गांधी के इस कदम का विरोध नहीं हुआ। विरोध कांग्रेस में भी हुआ और कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गयी। एक का नाम संगठन कांग्रेस पड़ा जिसके अध्यक्ष थे निजलिंगप्पा और दूसरी कांग्रेस इन्दिरा कांग्रेस बनी जिसके अध्यक्ष थे बाबू जगजीवन राम। कम्युनिस्ट इंदिरा कांग्रेस के साथ थे। गैर कांग्रेसवाद के रणनीतिकार डॉ. राम मनोहर लोहिया दिवंगत हो गए थे। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी प्रतिभावान और युवा जुझारू नेताओं के बावजूद भी गैर कांग्रेसवाद के सिद्धान्तवाद से चिपकी रही।
जनसंघ, जो आज की शक्तिशाली भाजपा का पूर्ववर्ती संस्करण था, एक शहरी और मध्यवर्गीय खाते-पीते लोगों की पार्टी थी, जिसकी कोई स्पष्ट आर्थिक नीति नहीं थी। लेकिन उसका झुकाव पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की ओर था। पुराने राजाओं और ज़मीदारों की भी एक पार्टी थी, सितारा चुनाव चिह्न वाली स्वतंत्र पार्टी, जिसकी आर्थिक नीति जनविरोधी और सामंती पूंजीवादी थी। इन तीनों दलों संगठन कांग्रेस, जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी ने इंदिरा गांधी के दो बड़े प्रगतिशील कदमों, एक बैंकों का राष्ट्रीयकरण और दूसरा राजाओं के विशेषाधिकारों और प्रिवी पर्स के खात्मे का खुल कर विरोध किया।
1971 के आम चुनाव में एक तरफ कांग्रेस और उसके साथ कम्युनिस्ट दल थे, तथा दूसरी तरफ, संगठन कांग्रेस, जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी थी। इन तीनों दलों के साथ संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी भी शामिल हो गयी और इसका नाम पड़ा महा गठबंधन, ग्रैंड एलायंस। 1971 के चुनाव में यह महा गठबंधन बुरी तरह हारा। संगठन कांग्रेस, जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी की आर्थिक नीतियां तो पूंजीवादी रुझान की थी हीं, पर समाजवादी उनके साथ कैसे चले गए यह गुत्थी आज भी हैरान करती है। लेकिन इसका कारण सोशलिस्ट पार्टी का गैरकांग्रेसवाद की थियरी थी। यही बिंदु संसोपा को इन दक्षिणपंथी दलों की ओर ले गया। डॉ. लोहिया अगर तब तक जीवित और सक्रिय रहते तो वे क्या स्टैंड लेते इसका अनुमान मैं नहीं लगा पाऊंगा। यह पृष्ठभूमि है बैंकों के राष्ट्रीयकरण की।
भारतीय बैंकिंग प्रणाली में वाणिज्यिक बैंकों की अपनी अलग पहचान है और वे बैंकिंग सेक्टर के मेरुदंड हैं। ये बैंक अपने पूर्ण अंश पत्रों के विक्रय, जनता से प्राप्त जमा सुरक्षित कोष, अन्य बैंकों तथा केन्द्रीय बैंक से ऋण लेकर प्राप्त करते हैं और सरकारी प्रतिभूतियों, विनिमय पत्रों, बांड्स, तैयार माल अथवा अन्य प्रकार की तरल या चल सम्पत्ति की जमानत पर ऋण प्रदान करते हैं। भारतीय रिजर्व बैंक का इन पर नियंत्रण रहता है। राष्ट्रीयकरण से पूर्व इनका उद्देश्य तथा बैंकिंग प्रणाली थोड़ी अलग थी। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ बैंकिंग सेक्टर में आमूल चूल परिवर्तन हुए हैं। यह परिवर्तन ही बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मूल उद्देश्य था। अत: भारतीय बैंकिंग सिस्टम में 14 प्रमुख वाणिज्यिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घटना एक युग प्रवर्तक घटना मानी जाती है।
19 जुलाई 1969 को, देश के 50 करोड़ रुपये से अधिक जमा राशि वाले, चौदह अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ ही, एक नयी आर्थिक नीति, जो प्रगतिशील अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर थी, की शुरुआत हुई। इसी के साथ ही भारतीय बैंकिंग प्रणाली मात्र लेन-देन, जमा या ऋण के माध्यम से केवल लाभ अर्जित करने वाला ही उद्योग न रहकर भारतीय समाज के गरीब, दलित तबकों के सामाजिक एवं आर्थिक पुनरुत्थान और आर्थिक रूप में उन्हें ऊंचा उठाने का एक सशक्त माध्यम बन गया। बैंक राष्ट्रीयकरण के बाद इंदिरा गांधी को यह भरोसा था कि, बैंकिंग उद्योग राष्ट्र के लोक कल्याणकारी राज्य और जन विकास की दिशा में तेजी से अग्रसर होगा। राष्ट्रीयकरण के बाद इंदिरा गांधी ने कहा था कि
“बैंकिंग प्रणाली जैसी संस्था, जो हजारों -लाखों लोगों तक पहुंचती है और जिसे लाखों लोगों तक पहुंचाना चाहिए, के पीछे आवश्यक रूप से कोई बड़ा सामाजिक उद्देश्य होना चाहिए जिससे वह प्रेरित हो और इन क्षेत्रों को चाहिए कि वह राष्ट्रीय प्राथमिकताओं तथा उद्देश्यों को पूरा करने में अपना योगदान दें।”
राष्ट्रीयकरण से पूर्व सभी वाणिज्यिक बैंकों की अपनी अलग और स्वतंत्र नीतियां होती थीं और उनका उद्देश्य अधिकाधिक लाभ के मार्गों को प्रशस्त करने तक ही सीमित था जो स्वाभाविक ही माना जाना चाहिए क्योंकि इन बैंकों के अधिकतर शेयर-धारक कुछ इने-गिने पूंजीपति व्यक्ति थे जो अपने हितों की रक्षा के साथ निजी हितों को ही बैंकिंग सेवाओं एवं सुविधाओं का लाभ पहुंचाते थे। समाज के गरीब, कमजोर वर्ग, दलित तथा सामान्य ग्रामीण तबकों के लोगों को बैंक होता क्या है, इसका भी पता नहीं था। अत: वे दिन-प्रतिदिन सेठ-साहूकारों एवं महाजनों के सूद के नीचे इतने दब गए कि उनका जीवन एक त्रासदी की तरह बन गया था।
भारत मूल रूप से एक कृषि आधारित आर्थिकी का देश है। आज भी तीन चौथाई आबादी ग्रामीण क्षेत्र में है। सड़़कों, बिजली, सिंचाई की काफी कुछ सुविधाओं के बावजूद, गांव, कृषि और मानसून पर ही देश की अर्थव्यवस्था निर्भर रहती है। खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता के बावजूद, अगर एक दो साल भी मानसून गड़बड़ा गया तो उसका सीधा असर देश के बजट पर पड़ता है। बैंक राष्ट्रीयकरण के पूर्व किसानों की स्थिति अपेक्षाकृत खराब थी और एक कटु सत्य यह था कि किसान कर्ज में ही जन्म लेता था, कर्ज में ही पलता था, और अपने पीछे कर्ज छोड़कर ही मर जाता था।
1942 के भयंकर दुर्भिक्ष और किसान जीवन पर लिखा तत्कालीन विपुल साहित्य से इसका अंदाज़ा लग सकता है। फलत: मिश्रित और प्रगतिशील अर्थव्यवस्था, तथा जमींदारी उन्मूलन जैसे भूमि सुधार कार्यक्रमों के बावजूद, पूंजीपति अधिक धनवान होते गए तथा निर्धन और भी गरीब बनते गए। देश में सामाजिक असंतुलन का संकट पैदा हो गया और इसके साथ ही, आर्थिक विषमता बढ़ने लगी। इससे सामाजिक तथा आर्थिक विकास की गति अवरुद्ध हो गयी और एक नई प्रगतिशील आर्थिक नीति की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी । तब बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसा कदम तत्कालीन सरकार ने उठाया।
बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मूल उद्देश्य बैंकिंग प्रणाली को देश के आर्थिक विकास में सक्रिय योगदान कराना था। मूल उद्देश्यों को संक्षेप में यहां आप पढ़ सकते हैं,
● राष्ट्रीयकरण के पहले बैंकिंग सेवाएं कुछ पूंजीपतियों एवं बड़े व्यापारी और राजघरानों तक ही सीमित थीं जिससे आर्थिक विषमता बढ़ने लगी थी और, इस विषमता को दूर करने हेतु बैंकिंग सेवाओं एवं सुविधाओं का लाभ समाज में सभी वर्गों विशेषत: ग्रामीण कस्बाई क्षेत्रों में बसे कमजोर वर्गों तक पहुंचाने का मूल उद्देश्य बैंकों के राष्ट्रीयकरण में निहित है।
● बैंक राष्ट्रीयकरण के पहले देश में आर्थिक संकट उत्पन्न होने के कारण आर्थिक विकास की गति अवरुद्ध हो गई थी। अत: देश के आर्थिक विकास में तेजी लाने के लिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया जाना बहुत ही आवश्यक हो गया था क्योंकि किसी भी देश की प्रगति एवं खुशहाली के लिए उसके आर्थिक विकास की ही महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।
● बैंक राष्ट्रीयकरण का तीसरा उद्देश्य था, देश में बेरोजगारी की समस्या और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के माध्यम से इस समस्या का समाधान खोजना। क्योंकि शिक्षित बेरोजगारों को आर्थिक सहायता के माध्यम से उनके अपने निजी उद्योग या स्वरोजगार के अनेक साधनों में वृद्धि करके बेरोजगारी पर काबू पाया जा सकता था।
● जब तक देश में बेरोजगारी की समस्या का उचित हल नहीं होता तब तक उसके विकास कार्य में तेजी नहीं आ सकती। इस तथ्य को दृष्टिगत रखकर बेरोजगारी उन्मूलन की दिशा में ठोस कदम उठाया जाना जरूरी हो गया था ताकि बैंकिंग सेवाओं तथा सहायता का लाभ शिक्षित बेरोजगारों को मिले और वे अपनी उन्नति के नए मार्ग खोज सकें।
● बैंक राष्ट्रीयकरण का एक उद्देश्य यह भी था कि, देश के कमजोर वर्ग तथा प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों के लोग अर्थात छोटे तथा मंझोले किसान, भूमिहीन मजदूर, शिक्षित बेरोजगार, छोटे कारीगर आदि की आर्थिक उन्नति हो। धन की अनुपलब्धता के कारण, समाज में यह वर्ग अलग-थलग था। अतः इनमें आत्मविश्वास पैदा करके उन्हें उन्नति एवं खुशहाली के मार्ग पर लाना देश की सर्वांगीण प्रगति के लिए बहुत आवश्यक था। समाज के आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत कमज़ोर लोगों का विकास, बैंकिंग सुविधा के माध्यम से संभव था अतः राष्ट्रीयकरण पर विचार किया गया।
● बैंकों के राष्ट्रीयकरण का एक और मूल उद्देश्य था ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति में सुधार तथा कृषि एवं लघु उद्योगों के क्षेत्रों का समुचित प्रगति किया जाना। भारतीय किसान, ज़मींदारी उन्मूलन जैसे प्रगतिशील भूमि सुधार कार्यक्रम के बावजूद, उपेक्षित था, और वह गरीबी के पंक से उबर नहीं पाया था।
● यही हालत कुटीर उद्योग एवं लघु उद्योगों की थी। ब्रिटिश उद्योग नीति ने स्वदेशी कुटीर और ग्रामीण अर्थ व्यवस्था की कमर तोड़ दी थी। यह सब कुटीर और ग्राम उद्योग, अधिकतर कृषि पर ही निर्भर थे और कृषि और कृषि का क्षेत्र उपेक्षित तथा अविकसित होने के कारण इन उद्योगों की भी प्रगति नहीं हो पा रही थी। इस प्रकार, कृषि एवं लघु उद्योग जैसे उपेक्षित क्षेत्रों की ओर उचित ध्यान देकर उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार लाया जाना राष्ट्र की प्रगति के लिए बहुत आवश्यक तथा अनिवार्य हो गया था।
● देश के बीमार उद्योगों को पुनरूज्जीवित करके नए लघु-स्तरीय उद्योगों के नव निर्माण को बढ़ावा देना भी बैंकों के राष्ट्रीयकरण का एक उद्देश्य था। बीमार उद्योगों के कारण बेरोजगारी की समस्या में वृद्धि होकर आर्थिक मंदी फैलने का यह भी एक कारण था अत: ऐसे उद्योगों को आर्थिक सहायता देकर पुनरूज्जीवित करना आवश्यक था।
● इसके साथ ही लघु-स्तरीय उद्योगों की संख्या पर्याप्त नहीं थी जिससे कस्बाई क्षेत्रों की प्रगति में तेजी नहीं आ पा रही थी। अत: देश की प्रगति के लिए लघु-स्तरीय उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना भी अत्यंत जरूरी था, जो कि आर्थिक सहायता के बगैर बेहद मुश्किल था। अत: बैंकों द्वारा आर्थिक नियोजन के लिए उन पर सरकार का स्वामित्व होना ज़रूरी था। अतः इन सामाजिक तथा आर्थिक उद्देश्यों के कारण बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया जिससे कि कमजोर एवं उपेक्षित वर्गों की उन्नति के साथ समाज और प्रकारांतर से राष्ट्र की प्रगति हो।
भारतीय बैंकिंग प्रणाली में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना भारत के कृषकों एवं पिछड़े वर्ग के लोगों के जीवन में क्रांतिकारी घटना मानी जा सकती है। क्योंकि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना के पीछे मूल उद्देश्य यही था कि, छोटे तथा मझोले स्तर के किसानों, भूमिहीन मजदूरों आदि को आसानी से बैंकिंग सेवाओं एवं सुविधाओं का लाभ पहुंचाया जाए तथा उन्हें लंबे समय से चले आ रहे, साहूकारों की जंजीरों से मुक्ति दिलाकर उनके अपने गौरव को, पुनरूज्जीवित करने की सहायता प्रदान की जाए।
इन बैंकों की स्थापना क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक अध्यादेश 1975 के अंतर्गत किया गया है। साथ ही स्थानीय जरूरतों को दृष्टिगत रखते हुए, अनुसूचित बैंकों को क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना करने के लिए कहा गया। जिसके कारण, सभी वाणिज्यिक बैंकों ने क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना की और राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों और ग्रामीण बैंकों का नेटवर्क गांव-गांव तक फैल गया। नरेंद्र मोदी सरकार ने बैंकों को और अधिक जनता तक पहुंचाने के लिये जनधन योजना चलाई जिसका लाभ आम जन तक पहुंचा।
लेकिन निजीकरण की राह भी सरकार के अनुसार उतनी निरापद नहीं है। निजीकरण की राह में सबसे बड़ी बाधा बैड लोन बन सकता है। कोरोना आपदा के कारण, चालू वित्तवर्ष में बैड लोन का दबाव दूना हो जाने का अनुमान है। अतः यह प्रक्रिया अगले वित्तवर्ष में की जाएगी। आरबीआई के अनुसार, सितंबर 2019 तक सरकारी बैंकों पर 9.35 लाख करोड़ का बैड लोन था, जो उनकी कुल संपत्ति का 9.1 फीसदी है। ऐसे में हो सकता है कि इस साल सरकार को ही इन बैंकों की वित्तीय हालत सुधारने के लिए 20 अरब डॉलर (करीब 1.5 लाख करोड़ रुपये) बैंकिंग सेक्टर में डालना पड़े।
निजीकरण सरकार की अघोषित आर्थिक नीति बन गयी है। एयरपोर्ट, रेलवे, एयर इंडिया, आयुध फैक्ट्रियां, यहां तक कि बड़े सरकारी अस्पताल तक निजी क्षेत्रों में सौंपने का इरादा नीति आयोग कर चुका है। पर सरकार इस पर धीरे-धीरे चलना चाहती है। केंद्र सरकार एक के बाद एक निजीकरण के फैसले ले भी रही है। सरकार ने अब एलआईसी को छोड़ सभी सरकारी इंश्योरेंस कंपनियों को बेचने की तैयारी कर चुकी है।
सरकार का इरादा तो एलआईसी को लेकर भी साफ नहीं था और उसके भी कुछ अंशों को बेचने की बात उठी थी लेकिन जब विरोध हुआ तो सरकार ने अपने कदम पीछे खींच लिये हैं लेकिन यह वक़्ती रणनीति है, न कि, सरकार का हृदय परिवर्तन। न्यूज़ 18 की एक खबर के अनुसार, एलआईसी और एक नॉन लाइफ इंश्योरेंस कंपनी को छोड़कर बाकी सभी इंश्योरेंस कंपनियों में सरकार अपनी पूरी हिस्सेदारी किस्तों में बेच सकती है। इस पर पीएमओ, वित्त मंत्रालय और नीति आयोग के बीच सहमति बन चुकी है साथ ही कैबिनेट ड्रॉफ्ट नोट भी तैयार हो चुका है।
अगर आप को लगता है यह निजीकरण कोरोनोत्तर अर्थव्यवस्था का परिणाम है तो यह बात बिल्कुल सही नहीं है। 2014 में जब सरकार सत्तारूढ़ हुई तो उसकी आर्थिक नीतियां निजीकरण की थी और यह सब एजेंडा पहले से ही तय है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार गैर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की थी और वर्तमान सरकार ने उस नीति को बदला है। कांग्रेस के पूंजीवादी आर्थिक सोच के बावजूद, कांग्रेस की मूल आर्थिक सोच समाजवादी झुकाव की ओर रही है ।
यह झुकाव जब नेताजी सुभाष बाबू ने आज़ादी के पहले, अपने अध्यक्ष के रूप में योजना आयोग की रूप रेखा रखी थी तब से था। कांग्रेस ने स्वाधीनता मिलने पर, तभी भूमि सुधार और अन्य समाजवादी कार्यक्रमों को लागू करने का मन बना लिया था। मिश्रित अर्थव्यवस्था, पंचवर्षीय योजना ज़मींदारी उन्मूलन और बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना उसी वैचारिक पीठिका का परिणाम था। लेकिन 1991 में इस आर्थिकी जिसे कोटा परमिट राज भी कहा जाता है, के कुछ दुष्परिणाम भी सामने आए तो खुली अर्थव्यवस्था को अपनाया गया। लेकिन इसके बावजूद भी सरकारी क्षेत्र मज़बूत बना रहा।
2014 में सरकार की नीति बदली और सत्ता का जो रुप सामने आया वह पूंजीवाद की स्वस्थ प्रतियोगिता कहा जाने वाला न रह कर, कुछ चहेते पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने तक धीरे धीरे सिमटता चला गया। यह गिरोहबंद पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपिटलिज़्म का रुप है। केवल राजनीतिक सत्ता का ही केंद्रीकरण 2014 ई के बाद नहीं हुआ बल्कि इसी अवधि में पूंजीपतियों का भी केंद्रीकरण होने लगा। जानबूझकर सरकारी क्षेत्रों की बड़ी-बड़ी नवरत्न कंपनियों को भी चहेते पूंजीपतियों के हित लाभ और स्वार्थ पूर्ति के लिये, कमज़ोर किया गया ताकि वे स्वस्थ प्रतियोगिता में न शामिल हो सकें और चहेते पूंजीपतियों को अधिक से अधिक विस्तार करने का खुला मैदान मिल सके।
आज बीएसएनएल और ओएनजीसी जैसी लाभ कमाने वाली कम्पनियां, निजी क्षेत्र की, जिओ और रिलायंस के आगे नुकसान उठा रही हैं। इस प्रकार जब सरकारी उपक्रम कमज़ोर और संसाधन विहीन होने लगे तो उनको बोझ समझ कर उन्हें बेचने की बात की जाने लगी। यह एक विस्तृत विषय है जिस पर अलग से लिखा जायेगा। फिलहाल तो पचास साल पहले उठाया गया एक प्रगतिशील कदम आज फिर पीछे लौटाया जा रहा है। यह एक प्रतिगामी कदम है और समाज तथा इतिहास की प्रगतिशील धारा के विपरीत है। (janchowk)
(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)
-पुलकित भारद्वाज
राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच चल रही जबरदस्त खींचतान के बीच पड़ोसी राज्य गुजरात से आई एक बड़ी ख़बर दब सी गई. वहां कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व ने पाटीदार नेता हार्दिक पटेल को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया है. पटेल ने बीते साल ही कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण की थी. हार्दिक पटेल को मिली इस नई ज़िम्मेदारी को जानकार अलग-अलग नज़रिए से देख रहे हैं. विश्लेषकों का एक धड़ा कांग्रेस हाईकमान के इस फ़ैसले को गुजरात में पार्टी के कद्दावर नेता अहमद पटेल के कमज़ोर होने से जोड़कर देख रहा है. ऐसा मानने वालों का तर्क है कि हार्दिक पटेल को आगे कर कांग्रेस आलाकमान ने यह इशारा दिया है कि आने वाले दिनों में संगठन की बागडौर वरिष्ठ नेताओं के बजाय युवाओं के हाथ में जाने वाली है.
लेकिन गुजरात की राजनीति पर नज़र रखने वाले कुछ अन्य जानकार इस मसले पर बिल्कुल विपरीत राय रखते हैं. उनके मुताबिक हार्दिक पटेल की शक्ल में अहमद पटेल ने पार्टी के पूर्व अध्यक्ष भरत सिंह सोलंकी के ख़िलाफ़ एक बड़ा दांव खेला है. दरअसल अन्य राज्यों की तरह गुजरात में भी कांग्रेस कई गुटों में बंटी हुई है. इनमें से सबसे प्रमुख गुट अहमद पटेल और भरत सिंह सोलंकी के माने जाते हैं. सोलंकी गुजरात कांग्रेस के शायद इकलौते नेता हैं जो अहमद पटेल की आंखों में आंखें डालने की कुव्वत रखते हैं. प्रदेश कांग्रेस से जुड़े सूत्र बताते हैं कि इस वजह से गुजरात में पटेल समर्थक कांग्रेसी नेता भरत सिंह सोलंकी को कमज़ोर करने की कोई कसर नहीं छोड़ते.
अहमदाबाद स्थित गुजरात कांग्रेस कमेटी के कार्यालय यानी राजीव गांधी भवन में दबी आवाज़ में यह चर्चा भी सुनी जा सकती है कि बीते आम चुनाव में भरत सिंह सोलंकी की हार के पीछे भी यही वजह सबसे बड़ी रही थी. कहा तो यह तक जा रहा है कि यदि कांग्रेस हाईकमान चाहता तो हाल ही में गुजरात राज्यसभा चुनाव से पहले पार्टी से बाग़ी हुए आठ विधायकों में से कुछ को जाने से रोक सकता था. इससे सोंलकी की दावेदारी इस चुनाव में अपेक्षाकृत मजबूत हो सकती थी. लेकिन उसने ऐसा करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. नतीजतन सोंलकी को चुनाव में शिकस्त का सामना करना पड़ा. यहां हाईकमान से कुछ नेताओं का इशारा अहमद पटेल की तरफ़ ही है.
अब सवाल है कि हार्दिक पटेल के आगे बढ़ने से भरत सिंह सोलंकी पर क्या प्रभाव पड़ सकता है? इसका जवाब भरत सिंह सोलंकी के पिता और गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी के राजनीतिक इतिहास से जुड़ता है. माधव सिंह सोलंकी 1980 में गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे और तभी से उन्होंने सूबे में बेहद प्रभावशाली पाटीदार समुदाय को दरकिनार करना शुरु कर दिया था. 1981 में माधव सिंह सोलंकी ने बक्शी आयोग की सिफारिश पर 86 जातियों को ओबीसी में शामिल करने का फैसला करते हुए ‘खाम’ (केएचएएम) सिद्धांत दिया. इसमें ‘के’ का मतलब क्षत्रियों से था, ‘एच’ का हरिजनों से, ‘ए’ यानी आदिवासी और ‘एम’ मुसलमान. पाटीदारों को इससे बाहर रखा गया. इसके बाद जो कसर बची थी वह सोलंकी ने अपने मंत्रिमंडल में किसी पटेल नेता को शामिल न करके पूरी कर दी थी.
इसके बाद अपने दूसरे कार्यकाल (1985-90) में माधव सिंह सोलंकी ने सार्वजनिक मंचों से पाटीदारों के खिलाफ ऐसी कई बातें कहीं जिन्होंने इस समुदाय में भयंकर आक्रोश भर दिया. इसके बाद नाराज पटेल राज्यव्यापी आंदोलन पर उतर आए जिसमें 100 से ज्यादा लोग मारे गए. कई लोगों का कहना है कि आरक्षण के विरोध में शुरू हुए इस आंदोलन को बाद में कुछ फिरकापरस्त लोगों ने पहले पाटीदार-ओबीसी और बाद में हिंदू-मुसलमान दंगों की शक्ल दे दी. माना जाता है कि पाटीदारों की नाराज़गी के चलते ही कांग्रेस 1990 के बाद से अब तक गुजरात में सत्ता की सीढ़ियां नहीं चढ़ पाई हैं. और शायद यही कारण था कि 2017 के विधानसभा चुनावों में सोलंकी हाईकमान के इशारे पर चुनावी दंगल में नहीं उतरे थे. तब आरक्षण आंदोलन और हार्दिक पटेल की वजह से पाटीदारों का झुकाव वर्षों बाद कांग्रेस की तरफ़ देखा गया था. लिहाजा माना जा रहा है कि हार्दिक पटेल को तवज्जो देकर कांग्रेस ने पटेलों को यह संदेश देने की कोशिश की है कि पार्टी में सोलंकी परिवार का प्रभाव अब घटने लगा है.
गुजरात की राजनीति पर नज़र रखने वालों के मुताबिक हार्दिक पटेल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाने से कांग्रेस को हाल-फिलहाल दो फ़ायदे होते नज़र आ रहे हैं. इनमें से एक तो यही है कि पार्टी से बहुत ज़्यादा ख़ुश न रहने वाले पाटीदारों और खास तौर पर इस समुदाय के युवाओं का नजरिया पार्टी के प्रति थोड़ा और नरम होगा. और दूसरा यह कि बीते साल लोकसभा चुनावों के बाद से राजनीतिक चर्चाओं से तक़रीबन ग़ायब हो चुकी या फ़िर नकारात्मक कारणों के चलते ख़बरों में रहने वाली गुजरात कांग्रेस इस बहाने थोड़ी बहुत सुर्ख़ियां बटोर पाने में सफल हुई है. जानकारों के मुताबिक इससे प्रदेश संगठन के कार्यकर्ताओं पर एक सकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ सकता है. हालांकि ये जानकार हार्दिक पटेल के जुड़ने से कांग्रेस को होने वाले अंतिम और निश्चित लाभों के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं कह पाते हैं.
इसके कई कारण हैं. गुजरात कांग्रेस से जुड़े एक वरिष्ठ सूत्र इस बार में कहते हैं कि ‘ये एक मिथ है कि हार्दिक पटेल के पास कोई बड़ी संख्या में पाटीदारों का समर्थन बचा है. इसे इससे समझा जा सकता है कि जिस हार्दिक के इशारे पर कुछ साल पहले तक गुजरात रुक जाया करता था, उसने 2018 में जब पाटीदार आरक्षण और किसानों की कर्ज़माफ़ी को लेकर आमरण अनशन किया तो कुछ बड़े नेताओं और मीडिया को छोड़कर वहां प्रतिदिन कुछ सौ लोगों की भी भीड़ नहीं जुट पाती थी. ऐसा लगता था कि किसी को इस बात से कोई फर्क ही नहीं पड़ता था कि इस अनशन से उसकी जान भी जा सकती है. हारकर हार्दिक को 18 दिन बाद अपना अनशन वापिस लेना पड़ा था. तब ये बड़ा सवाल उठा था कि क्या पाटीदारों ने हार्दिक के नाम पर घरों से निकलना छोड़ दिया है?’
ग़ौरतलब है कि बीते कुछ समय से हार्दिक भी अपनी छवि को पाटीदार नेता के बजाय ऐसे युवा नेता के तौर पर स्थापित करने में जुटे हैं जो किसी समुदाय को आरक्षण दिलवाने के बजाय रोजगार, कृषि और अन्य सामाजिक मुद्दों को तवज्जो देता हो.
कांग्रेस से जुड़े ये सूत्र आगे जोड़ते हैं, ‘यह ठीक है हार्दिक को साथ लेने से पाटीदारों के एक वर्ग का झुकाव कांग्रेस की तरफ़ बढ़ेगा. लेकिन यदि जातिगत समीकरण के लिहाज से देखें तो इस निर्णय से घाटा ही नज़र आता है.’ दरअसल गुजरात में पटेलों की अनुमानित आबादी कुल जनसंख्या की करीब 14 फीसदी है. वहीं अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के मामले में यह आंकड़ा 60 प्रतिशत से ज़्यादा है. माना जाता है कि प्रदेश कांग्रेस में भरतसिंह सोलंकी इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं. वहीं, पाटीदार समुदाय भारतीय जनता पार्टी का परंपरागत वोटर रहा है. यह सही है कि 2017 के गुजरात विधानसभा में पटेल मतदाताओं वजह से भाजपा के कब्जे वाली कई विधानसभा सीटें कांग्रेस की झोली में आ गिरी थीं. लेकिन यह बात भी सही है कि उस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी से तमाम नाराज़गियों के बावजूद भी पटेल समुदाय के बड़े हिस्से ने उससे मुंह नहीं मोड़ा था.
इसके सटीक उदाहरण के तौर पर गुजरात के उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल की मेहसाणा सीट को लिया जा सकता है. मेहसाणा पाटीदार बहुल इलाका है और हार्दिक पटेल के आंदोलन का केंद्र रहा है. नितिन पटेल को हराना हार्दिक ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था लेकिन वे अपनी इस कवायद में नाकाम रहे.
फ़िर 2019 का लोकसभा चुनाव आते-आते बहुत हद तक पाटीदार भाजपा की ही तरफ़ झुकते चले गए थे. इसमें पटेलों के हक़ में भाजपा द्वारा शुरु की गई योजनाओं ने भी बड़ी भूमिका निभाई थी. हमारे सूत्र के शब्दों में, ‘पाटीदार समुदाय हमेशा से सत्ता का भागीदार रहा है. इस बात की गवाह पाटीदार राजनीति के प्रमुख स्तंभ रहे केशुभाई पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी (जीपीपी) है. 2002 के विधानसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी की वजह से भाजपा से अलग हुए केशुभाई की यह पार्टी गुजरात में सिर्फ़ दो सीटें जीत पाने में सफल रही थी. ऐसे में पटेलों के एक हिस्से को साथ लेने के लिए ओबीसी के मतदाताओं के समर्थन को दांव पर लगाना कितना ठीक है, ये वक़्त बताएगा!’ यहां इस बात पर भी ग़ौर करना ज़रूरी है कि गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से जुड़ने वाले अल्पेश ठाकोर, जो राज्य में पिछड़ा वर्ग के एक और प्रमुख युवा प्रतिनिधि माने जाते हैं, पहले ही पार्टी से छिटक चुके हैं.
जैसा कि हमने रिपोर्ट में ऊपर ज़िक्र किया कि हार्दिक पटेल की नियुक्ति के तार गुजरात कांग्रेस की आपसी फूट से भी जुड़ते हैं. जानकार आशंका जताते हैं कि उनकी मौज़ूदगी प्रदेश संगठन में खेमेबंदी को और बढ़ावा देने वाली साबित हो सकती है. कांग्रेस के एक मौजूदा विधायक इस बारे में कहते हैं कि पटेल की नियुक्ति से संगठन के उन नेताओं में भी अंदरखाने रोष महसूस किया जा सकता है जो किसी भी बड़े धड़े में नहीं बंटे हैं. नाम न छापने के आग्रह के साथ वे विधायक कहते हैं, ‘पार्टी में ऐसे कई लोग हैं जो कई सालों से ज़मीन पर सिर्फ़ संगठन के हितों के लिए काम कर रहे हैं. लेकिन उनको दरकिनार करते हुए जिस तरह साल भर पहले पार्टी में शामिल हुए हार्दिक पटेल को बड़ी जिम्मेदारी मिली है, इसने हमारे कई कार्यकर्ताओं और नेताओं को हताश और नाराज़ किया है.’ हालांकि ये विधायक आगे जोड़ते हैं कि ‘कार्यकर्ताओं की शिकायत को हाईकमान तक पहुंचा दिया गया है. जल्द ही कुछ और कार्यकारी अध्यक्षों की नियुक्ति की उम्मीद है जो अलग-अलग समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाले होंगे.’
विश्लेषक इस बारे में यह भी कहते हैं कि किसी युवा नेता को आगे बढ़ाने से किसी भी संगठन को एक बड़ा फायदा यह भी होता है कि कोई खास राजनीतिक इतिहास न होने की वजह से विरोधियों की पकड़ में उनकी पुरानी ग़लतियां या कमजोरियां नहीं आ पाती हैं. लिहाजा आम तौर पर नए नेताओं को घेर पाना विरोधियों के लिए टेड़ी खीर साबित होता है. लेकिन हार्दिक पटेल के मामले में ऐसा नहीं है. वे युवा तो हैं. लेकिन ऐसे जो कई मामलों को लेकर पहले ही आलोचनाओं का सामना करते रहे हैं. उनके करीबी उन पर पाटीदार अनामत आंदोलन की आड़ में बड़ी मात्रा में धनराशि बटोरने का आरोप लगाते आए हैं.
पटेल पर यह इल्ज़ाम लग चुका है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने पाटीदार आंदोलन से जुड़े काबिल नेताओं के बजाय गलत लोगों को कांग्रेस की टिकट दिलवाने में मदद की थी. फ़िर इन चुनावों से ठीक पहले उनका एक कथित सेक्स वीडियो भी सामने आया था जिससे पाटीदार आंदोलन से जुड़े कई लोगों को धक्का लगा था. इस सब के अलावा उनके ख़िलाफ़ हार्दिक पटेल पर राजद्रोह और दंगा भड़काने जैसे मामलों में क़़रीब सत्रह मुकदमे दर्ज़ हैं जिनमें से कुछ में वे दोषी भी साबित हो चुके हैं.
गुजरात के राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा बहुत आम है कि लगातार डेढ़ दशक से राज्य की सत्ता में रहने के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने प्रदेश कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं के कच्चे-चिठ्ठे इकठ्ठे कर लिए हैं और इनका इस्तेमाल वह चुनावों से पहले करती है. ऐसे में कांग्रेस के कई नेता अलग-अलग तरह से चुनाव के दौरान भाजपा के लिए फ़ायदेमंद ही साबित होते हैं. आरक्षण आंदोलन के दौरान हार्दिक पटेल के बेहद करीबी सहयोगी रहे एक अन्य युवा पाटीदार नेता इस बारे में घुमाकर कहते हैं कि ‘बहुत कम समय में ही हार्दिक इतनी ग़लतियां कर चुका है जो उसे जिंदगी भर राजनैतिक दलों की कठपुतलियां बनाकर रखने के लिए काफ़ी हैं. विधानसभा चुनाव से पहले जो देखने को मिला वह तो ये मान लो कि कुछ भी नहीं था.’
हार्दिक पटेल की राजनीति पर शुरुआत से नज़र रख रहे गुजरात के एक वरिष्ठ पत्रकार हमें बताते हैं कि ‘वो समय दूसरा था जब हार्दिक के पास खोने के लिए कुछ नहीं था. तब मध्यमवर्ग से ताल्लुक रखने वाला ये लड़का किसी सरकार से नहीं डरता था. लेकिन आज उसके पास खोने के लिए बहुत कुछ है. सार्वजनिक मंच से वो चाहे जो कहे, लेकिन अब उसमें वो धार नहीं रही है.’ फ़िर हार्दिक पटेल को करीब से जानने वाले उन्हें जबरदस्त महत्वाकांक्षी भी बताते हैं. आरक्षण आंदोलन में उनके सहयोगी रहे अधिकतर लोगों की शिकायत है कि ये हार्दिक की महत्वाकांक्षाएं ही थीं जिन्होंने पाटीदार आंदोलन को कुंद कर दिया. यदि इन लोगों के आरोपों को सही मानें तो देखने वाली बात यह होगी कि कांग्रेस की उम्मीदों पर हार्दिक पटेल कितना खरा उतरते हैं और हार्दिक की महत्वाकांक्षाओं को कांग्रेस कितना पूरा कर पाती है.(satyagrah)
मनीष सिंह
मोहनदास के शब्द सुनकर कस्तूर को झटका लगा। पलटकर चिल्लाई-आप कैसी बात करते हैं? कुछ भी कहते है? बच्चो के सामने ? दिमाग खराब हो गया है आपका?गांधी अखबार टेबल पर फेंकते हुए हॅंसे। ‘अरे, यह मैं नहीं, जनरल स्मट्स का नया कानून कह रहा है। उसने क्रिश्चियन तरीके से हुई मैरिज को छोडक़र बाकी सभी प्रकार की शादियां अवैध करार दे दी हैं।’
कस्तूर को बात समझ आयी। पूछा - ‘तो क्या हमे चर्च में जाकर फिर से शादी करनी होगी’?
‘नहीं। हम लड़ेंगे, यह कानून स्मट्स को बदलना होगा। हम अपने धार्मिक और परम्परागत रवायतों की रक्षा के लिए लड़ेंगे। हम सत्याग्रह करेंगे’ - गांधी की धीमी महीन सी आवाज कमरे की दीवारों से टकराकर गूंज रही थी। इसकी गूंज, दक्षिण अफ्रीका के शासक, जनरल स्मट्स की कुर्सी हिलाने वाली थी।
आप ब्याह कैसे करना चाहेंगे? फेरे लेकर, कबूल है- कबूल है कहकर, पादरी के सामने किस करके, या मजिस्ट्रेट के सामने पेपर दस्तखत करके? आपकी पसंद चाहे जो हो, क्या सरकार को अधिकार है कि वह शादी के किसी और तरीके को वैलिड कर दे, और दीगर तरीके अवैध।
भारत का संविधान बना तो इन सवालों से संविधान सभा को सोचना था, संसद को सोचना था। तय यही हुआ कि सत्ता धार्मिक, परम्परागत तरीको में हस्तक्षेप नहीं करेगी। शादी आपने अपनी रवायत के अनुसार फेरे लेकर की, या चुम्मा लेकर .. उसे कानूनी मान्यता होगी।
यही पर्सनल लॉ है। विवाह से शुरू होता है, परिवार की परिभाषा तय करता है, उत्तराधिकार की जो रवायतें उस कौम या धर्म के अनुसार हों, उसे यथावत स्वीकार करता है, और मान्यता देता है। उंसके अनुसार टैक्स के नियम रवायतों की इज्जत करते हुए बनते है। हिन्दू अन डिवाईडेड फेमली (॥ह्वस्न) का पैन कार्ड तो सुना होगा, बनवाया भी होगा?
यूनिफार्म सिविल कोड को लेकर बहस है। अधिकांश सिर्फ शब्दों में उलझे हैं। एक देश एक संहिता- हां बे, जनरल स्मट्स के नाती। तो ब्याह, चूमकर करना सबको अनिवार्य किया जाए?? या कबूल कबूल करके??? अच्छा चलो, सबको फेरे लेना कानूनी किया जाए? कौन सा सिस्टम डालेंगे ड्राफ्ट में, बताओ ?
पर्सनल लॉ किसी का व्यक्तिगत (निजी/पर्सनल) कानून नही है। यह उक्त समाज के पर्सन्स ( पीपुल/पेर्सनल्स) के बीच सदियों से चली आ रही रवायतें है, जिसे शासन ने लीगल पर्पज के लिए वैलिड मान लिया है।
कानून रवायतों के बीच पल रही बुराइयों को अनदेखा नही कर सकता। वह सती को आपकी परम्परा नही मान सकता, वह हत्या है। वह दहेज, अस्पृश्यता के निवारण के लिए कानून बनाता है, जो हर धर्म पर लागू है। एससी-एसटी में कोई जातिगत गाली दे, तो वह मुसलमान हो या पारसी, जेल जाएगा।
तमाम कन्फ्यूजन है मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को लेकर। किसी देश की गुणवत्ता इससे नापी जाती है कि अल्पसंख्यकों की निजता की रक्षा कितनी शिद्दत से करता है। यह ला बोर्ड सरकार के पास एक विंडो है, जो उनकी निजी रवायतों की समझ बनाने के लिए सलाहकारी काम करता है।
मुसलमान कितनी शादी करते हैं, कैसे तलाक लेते है, सारी बहस बस इन दो बिंदुओं पर टिकी है। शीर्ष मूर्ख यह भी समझते है कि शायद मुसलमानों के लिए कोई अलग से द्बश्चष्/ष्ह्म्श्चष् है। अज्ञान और उकसावे में मूर्खतापूर्ण नॉन ईशूज 70 साल से देश की छाती पर मचल रहे है।
शाहबानो केस इसमे उठता है। शाहबानो समृद्ध घर की लेडी थी। उसे पैसों की जरूरत नही थी, पति को हराना था। सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी, 200 रुपये की ऐलमोनी के लिए। कठमुल्ले कोर्ट के फैसले को अपनी रवायतों में अतिक्रमण मानकर लॉबीइंग करने लगे। राजीव ने माना कि ये लोग गड्ढे में रहना चाहते हैं, रहे।
आप भी यही मानिए। मुस्लिम महिलायें बुरके में रहे, या हिजाब में उन पर छोडिये। महिला सशक्तिकरण की ढेर चिंता है, तो पहले अपने घर मे इज्जत दीजिये, मा-बहन की गाली देना बंद कीजिए। हिन्दू या मुस्लिम या किसी भी महिला पर अत्याचार हुआ, तो डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट है। सब पर लागू है।
बहरहाल गांधी ने सत्याग्रह किया। खूब बमचक हुई। गांधी जेल गए। यह 1912-14 का दौर था। जिसके अंत मे गांधी भारत लौटे। स्मट्स ने चैन की सांस ली। जाते जाते गांधी ने अपनी चप्पलें स्मट्स को गिफ्ट भेजी, जो उन्होंने जेल में पहनी थी।
स्मट्स को अटपटा लगा होगा। तब तो नही, मगर बरसों बाद उन्होंने गांधी को लिखा
‘ÒI have worn these for many a summer, even though I may feel that I am not worthy to stand in the shoes of so great a man.Ó
आप आज, गांधी के हत्यारों के साथ मिलकर, गांधी की उन चप्पलों को तोडऩे पर आतुर है।
प्रकाश दुबे
बात तब से शुरु की जा सकती है, जब करुणानिधि, बाला साहब ठाकरे, माधव राव सिंधिया, राजेश पायलट, एस वाय राज शेखर रेड्डी, मुफ्ती मोहम्मद सईद, अजीत जोगी जीवित थे। और भी पीछे जा सकते हैं। जब नंदमूरि तारक रामाराव, बाबू जगजीवनराम, एस आर बोम्मई, एस बंगारप्पा राजनीति में सक्रिय थे। वर्तमान हलचल के हिसाब से शुरुआत सचिन पायलट से करना ठीक है। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक रात में बुलाई गई थी। मकसद साफ था। तब तक दिल्ली के अधिकांश वरिष्ठ पत्रकार थकान उतारने चेम्सफोर्ड क्लब के सामने बने राहत शिविर पहुंच जाते हैं। अखबार तैयार करने का दायित्व संभालने वाले संपादकीय सहयोगी संवाद एजेंसी पर आँख गड़ाये रहते हैं। 24, अकबर रोड पर कांग्रेस कार्यालय में मौजूद इक्का--दुक्का पत्रकार चल दिए थे। मैं अंधेरे की आड़ में जिस व्यक्ति की प्रतीक्षा कर रहा था-वे मुख्यालय से बाहर निकले। सफेद कपड़े पहने आर के धवन। देखकर चौंके- दुबेजी ? जी। सच बताइए। आपकी किस बात पर झड़प हुई? धवन का प्रतिप्रश्न था-किसने बताया? आप मुंह पर सच बोलने से नहीं हिचकते। बैठक में किससे झड़प हुई?
धवन के मन में जमा रोष फट पड़ा-इंदिराजी का बाबू होने का मुझे गर्व है। इस बाबू के घर सबेरे सबेरे आप दूध देने आप कई बार सपत्नीक आये। राजेश पायलट महत्वाकांक्षी नेता थे। बारीक दांव चलते थे। नारायण दत्त तिवारी गुम हुए तब वे आंतरिक सुरक्षा राज्यमंत्री थे। पायलट ने कहा-तिवारीजी को ढूंढ निकालेंगे। उनकी सुरक्षा के लिए एक (इंस्पेक्टर) चार (हवलदार) की स्थाई तैनाती करेंगे। गु़लाम नबी आज़ाद ने कहा-ये पायलट पंडत को मरवाएगा। पायलट कई बार प्रधानमंत्री नरसिंह राव से शिकायत कर चुके थे कि गृह मंत्री शंकर राव चव्हाण विश्वास में नहीं लेते।
चव्हाण अलग मिट्टी के बने थे। राजनीतिक-अपराधी गंठजोड़ पर वोहरा समिति की रपट संसद में पेश हुई। प्रधानमंत्री को छोडक़र चव्हाण ने किसी अन्य को हवा नहीं लगने दी। ज़मीनी संपर्क में प्रवीण राजेश पायलट की सडक़ दुर्घटना में मृत्यु हुई। उन्हें भावी प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल किया जाता था। दुर्घटना को लेकर संदेह जताया गया। पत्नी रमा पायलट को कांग्रेस ने लोकसभा उम्मीदवार बनाया। उसके बाद सचिन सक्रिय हुए। राहुल गांधी की युवा मंडली में उन्हें महत्व मिला। कम आयु में संसद और सरकार में शामिल होने का अवसर मिला। दूसरा चेहरा ज्योतिरादित्य का। सफदरजंग इलाके की विशाल कोठी में किसी शाम माधवराव से गपशप होती। ज्योतिरादित्य कारोबार संभालते थे। राजनीतिक चर्चा में ज्योतिरादित्य कभी माधवराव के जीते जी सहभागी नहीं हुए।
माधव राव का जीवन राजकुमार होने के बाद भारी उतार-चढ़ाव से गुजरा था। मां की राजनीतिक वैचारिकता तथा उनके निकटतम विश्वासपात्रों जैसे मसलों पर असहमति थी। प्रकाश चंद्र सेठी अड़े लेकिन कांग्रेस में शामिल किये गये। प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में माधवराव का नाम था। नरसिंह राव का नाम तय होने से पहले कमलनाथ ने चुटकी ली-एक सांसद के दम पर प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल होने वाले भी हैं। एक सांसद मतलब बस्तर से जीतकर आए-महेन्द्र कर्मा जिनका नक्सली हमले में निधन हुआ। इस हमले में छत्तीसगढ़ के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों अजीत जोगी और डॉ. रमन सिंह की मिलीभगत के कई किस्से आज भी हवा में तैरते हैं।
सचिन और ज्योतिरादित्य सहित जिन राजदुलारों को चांदी की चम्मच में पद मिले, उनकी महत्वाकांक्षा उसी अनुपात में आकाश निहारने लगी। सितारे छूने वाली सीढ़ी राजनीति में हमेशा उपलब्ध नहीं होती। कांग्रेस में आरम्भ से दो धाराएं रही हैं। एक संपन्नता के बावजूद सक्रिय राजनीति में अपने को झोंकने की। इसका फल पीढ़ी दर पीढ़ी चखा। वंश बेल से सत्ता का स्वाद चखने मिला। इसके बावजृद श्रम और समर्पण की अनदेखी नहीं की जा सकती। दूसरा प्रवाह मोहन दास गांधी का था। जीते जी उनके किसी परिवार जन को सत्ता में सहभागिता नहीं मिली। गौर करने वाली बात यह है कि गांधी ने किसी न किसी प्रयोग में किसी अपने को झोंक दिया। कुर्बान किया।
इस बात का ध्यान उन लोगों ने भी नहीं रखा जिन्हें गांधी ने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय संगठन विसर्जित करने की सलाह दी थी ताकि सत्ता की दौड़ में समान अवसर मिले। बसंत राव नाईक, देवराज अरसु, वसंत दादा पाटील, माधव सिंह सोलंकी, करुणाकरण, तरुण गोगोई, कमल नाथ आदि ने परिवार के उद्धार को महत्व दिया। पार्टी ने पूरा सहयोग किया। शरद पवार ने परिवार की तीसरी पीढ़ी को तुरंत लोकसभा की उम्मीदवारी देने पर ऐतराज किया। घर में कलह छिड़ी। इस देश की खूबी है राजनीति, खेल, कारोबार हर क्षेत्र में वारिस की ताजपोशी की लंबी सूची है। प्रो प्रेम कुमार धूमल, वसुंधरा राजे, अमित शाह, राजनाथ सिंह, येदियुरप्पा नाम घोखते हुए थक जाएंगे। एक और धारा थी। परिवारवाद एवं व्यक्तिवाद के विरुद्ध जन्मी इस विचारधारा के बीजू पटनायक, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद, राम विलास पासवान आदि आदि। इनमें ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक को याद करें।
राजनीति में सक्रिय वर्ग के पास एक ज़ोरदार तर्क है। डॉक्टर, वकील, स भी तो यही करते हैं। कारोबार में तो यह आम है। वे सही कहते हैं। राजनीति को कारेाबार के नजरिए से तौलकर अंबानी सफलता के शिखर पर हैं।राजनीति के बारे में अब भी धारणा यही है कि यह समाज सेवा है। इस धारणा का अंत किए बगैर इस तरह के सवाल पूछे जाते रहेंगे। महाराष्ट्र में क्षेत्रीय पार्टी शेतकरी-किसान कामगार पक्ष के नेता नारायण ज्ञान देव पाटिल से किसी ने पूछा-आपने बेटे या किसी को राजनीति में नहीं उतारा। संघर्ष को जीवन समर्पित करने वाले पाटिल ने उत्तर दिया- जिनके लिए राजनीति संपत्ति है या कमाई का जरिया है, वे विरासत सौंपते हैं। मैं तो विचार का कार्यकर्ता हूं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राजस्थान उच्च न्यायालय का फैसला कांग्रेस के बागी नेता सचिन पायलट के या तो पक्ष में आएगा या विरोध में आएगा। या हो सकता है कि अदालत सारे मामले को विधानसभा अध्यक्ष पर ही छोड़ दे। हर हालत में अब सचिन पायलट का राजस्थान की कांग्रेस में रहना लगभग असंभव है। उनका कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष का पद गया, उप-मुख्यमंत्री और मंत्री पद गया। अब वे साधारण विधायक हैं। यदि अदालत ने उनके विरुद्ध फैसला दे दिया तो विधानसभा अध्यक्ष उन्हें विधानसभा का सदस्य भी नहीं रहने देंगे।
दल-बदल विरोधी कानून की खूंटी पर सचिन और उनके साथियों को लटका दिया जाएगा। पार्टी की सदस्यता भी जाती रहेगी। और यदि अदालत ने सचिन के पक्ष में फैसला दे दिया तो विधानसभा अध्यक्ष शायद अपना नोटिस वापिस ले लेंगे। फिर आगे क्या होगा? आगे होगा विधानसभा का सत्र! सचिन गुट तब भी कांग्रेस का सदस्य माना जाएगा। यदि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपनी सरकार के प्रति विश्वास का प्रस्ताव लाएंगे तो सचिन-गुट क्या करेगा ? वह यदि उस प्रस्ताव के पक्ष में वोट देता है तो वह अपनी नाक कटा लेगा और यदि विरोध में वोट देता है तो दल-बदल विरोधी कानून के अंतर्गत पूरा का पूरा गुट विधानसभा की सदस्यता खो देगा।
इसीलिए अदालत में जाने का कोई फायदा दिखाई नहीं पड़ रहा है। इस वक्त राजस्थान की कांग्रेस भी सचिन-गुट को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेगी। मुख्यमंत्री गहलोत ने सचिन के लिए जितने कड़ुवे बोल बोले हैं, उसके बाद भी यदि सचिन-गुट राजस्थान की कांग्रेस में रहता है तो उसकी इज्जत दो कौड़ी भी नहीं रह जाएगी। ऐसी स्थिति में सचिन-गुट के लिए अपनी खाल बचाने का क्या रास्ता है ? एक तो यह कि पूरा का पूरा गुट और उसके सैकड़ों-हजारों कार्यकर्ता कांग्रेस से इस्तीफा देकर अपनी एक नई पार्टी बनाए। दूसरा, यह कि सचिन समर्थक विधानसभा में टिके रहें और गहलोत-भक्ति में निमग्न हो जाएं लेकिन स्वयं सचिन विधानसभा से इस्तीफा दें और राजस्थान की राजनीति छोडक़र दिल्ली में आ बैठे। कांग्रेस की डूबती नाव को बचाने में जी-जान लगाए। राजस्थान में सचिन ने जो बचकाना हरकत कर ली, उसका वह हर्जाना भी भर दे और अपनी राजनीति को किसी न किसी रुप में जीवित रखे। अब राजस्थान के जहाज में पायलट के लिए कोई जगह नहीं बची है। (nayaindia.com) (नया इंडिया की अनुमति से)
उत्तराखंड में इस साल बादल फटने से आई बाढ़ के कारण लगभग 20 लोगों की मौत हो चुकी है। यहां हर साल बादल फटने की घटनाएं हो रही हैं, जिसके कई कारण हैं। इसकी पड़ताल एक खास रिपोर्ट-
-वर्षा सिंह, त्रिलोचन भट्ट
बीते 8 अगस्त तक उत्तराखण्ड के लगभग सभी जिलों में सामान्य से कम बारिश दर्ज की गई थी। लेकिन, 8-9 की रात को ज्यादातर हिस्सों में तेज बारिश हुई और तीन जगहों पर बादल फटने की घटनाएं भी दर्ज की गई। इसके बाद 17 की रात से बादल फटने और भारी बारिश की खबरें आ रही हैं। इससे 14 लोगों की मौत और 17 लोगों के लापता हो चुके हैं। इससे पहले हुई घटना में 6 लोगों की मौत हुई थी और एक बच्ची अब तक लापता है। सवाल उठता है कि आखिर उत्तराखंड में बादल फटने की घटनाएं बार-बार क्यों हो रही हैं?
मौसम विज्ञान केंद्र देहरादून के निदेशक बिक्रम सिंह कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों के डाटा का आंकलन करने पर पता चलता है कि पूरे मानसून सीजन में बारिश तो एक समान रिकॉर्ड हो रही है लेकिन इस दौरान रेनी डे (किसी एक जगह, एक दिन में 2.5 मिलीमीटर या उससे अधिक बारिश रिकॉर्ड होती है, उसे रेनी डे कहते हैं) की संख्या में कमी आ रही है। यानी जो बारिश सात दिनों में होती थी, वो तीन दिन में ही हो जा रही है। जिससे स्थिति बिगड़ रही है। साथ ही जो मानसून सीजन जून से सितंबर तक एक समान होता था, वो अब जुलाई-अगस्त में सिकुड़ रहा है।
आपदा प्रबंधन विभाग के निदेशक पीयूष रौतेला के मुताबिक अत्यधिक भारी बारिश से सिर्फ उत्तराखंड ही नहीं हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर को भी बहुत नुकसान होता है। वर्ष 2018 में भारी बारिश से उत्तराखंड में 58 से अधिक मौतें हुईं थीं। वर्ष 2017 में मानसून सीजन में 84 लोगों की मौत हुई थी और 27 लोग लापता हो गए। एक हजार से अधिक मवेशियों की मौत हुई। 1602 आवासीय भवन क्षतिग्रस्त हुए। 1329 सडक़ें टूट गईं और 1244 पुल-पुलिया और सुरंगों का नुकसान हुआ। इसी तरह वर्ष 2010, 2012 और 2016 में भी बादल फटने और भारी बारिश से राज्य में काफी नुकसान हुआ है।
मिजोरम विश्वविद्यालय में प्रोफेसर विश्वंभर प्रसाद सती ने उत्तराखंड में बादल फटने की घटना पर अपना शोध पत्र वर्ष 2018 में स्विटजलैंड में पेश किया। उन्होंने वर्ष 2009 से 2014 के जून से अक्टूबर तक बारिश के आंकड़ों की पड़ताल की। इसी मौसम में बादल फटने की घटनाएं होती हैं। तथ्यों के आंकलन से उन्होंने पाया कि इस दौरान बारिश में अत्यधिक उतार-चढ़ाव आए हैं। बारिश में गिरावट भी दर्ज की गई है। हालांकि इस दौरान अपेक्षाकृत कम अवधि में बारिश की तीव्रता अधिक पायी गई, जो कि बादल फटने के बराबर है, जिससे प्राकृतिक आपदाएं आती हैं। उनके मुताबिक बारिश में अत्यधिक अनियमितता और जलवायु परिवर्तन की वजह से वर्षा की तीव्रता और फ्रीक्वेंसी दोनों बढ़ी हैं।
प्रोफेसर सती कहते हैं कि क्लाइमेट वेरिएबिलिटी पूरे हिमालयी क्षेत्र में बढ़ गई है। बारिश की तीव्रता भी बढ़ गई है। बारिश पॉकेट्स में हो रही है। किसी एक जगह बादल इकट्ठा होते हैं और अत्यधिक भारी वर्षा से बादल फटने जैसे हालात पैदा होते हैं। बारिश का सामान डिस्ट्रिब्यूशन नहीं है। अपने शोध के जरिये वे बताते हैं कि मानसून का टोटल टाइम ड्यूरेशन यानी कुल अवधि भी घट गई है। इसके साथ ही गर्मियों में हीट वेव बढऩे से घाटियां और मध्यम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में गर्मी बढ़ रही है। जिसका असर जलवायु में आ रहे बदलावों पर पड़ता है। प्रोफसर सती का कहना है कि क्लाइमेट चेंज बाद में है, पहले क्लाइमेट वैरिएबिलिटी की समस्या बड़ी हो गई है।
वाडिया इंस्टीट्यूट के जियो-फिजिक्स विभाग के अध्यक्ष डॉ सुशील कुमार कहते हैं कि निश्चित तौर पर बादल फटने की घटनाएं पिछले एक दशक में बढ़ी हैं। उत्तराखंड में पहले भी बादल फटते थे लेकिन वो दुर्गम इलाकों में किसी गांव में ऐसी इक्का-दुक्का घटनाएं होती थीं। जिससे नुकसान भी इतना अधिक नहीं होता था। लेकिन अब मल्टी क्लाउड बर्स्ट यानी बहुत सारे बादल एक साथ एक जगह पर फट रहे हैं। जिससे काफी नुकसान हो रहा है।
डॉ सुशील के मुताबिक टिहरी बांध के अस्तित्व में आने के बाद इस तरह की घटनाओं में खासतौर पर इजाफा हुआ है। टिहरी में भागीरथी नदी पर करीब 260.5 मीटर ऊंचा बांध बना है। जिसका जलाशय करीब 4 क्यूबिक किलोमीटर का करीब 3,200,000 एकड़ फीट में फैला है, जिसका उपरी हिस्सा करीब 52 वर्ग किलोमीटर का है। जिस भागीरथी नदी का कैचमेंट एरिया (जलग्रहण क्षेत्र) पहले काफी कम था, बांध बनने के बाद वो बहुत अधिक हो गया। वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक के मुताबिक इतनी बड़ी मात्रा में एक जगह पानी इकट्ठा होने से बादल बनने की प्रक्रिया में अत्यधिक तेज़ी आई। मानसून सीजन में बादल इस पानी को संभाल नहीं पाते हैं और फट जाते हैं। पूरे उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाएं चल रही हैं। नदी का प्राकृतिक बहाव रोकने से प्रकृति मुश्किल में आ गई है। इसलिए बादल फटने की घटनाओं में भी तेजी आई है।
हिमालयन पर्यावरण अध्ययन एवं संरक्षण संस्था के संस्थापक डॉ अनिल जोशी जो लगातार हिमालयी पर्यावरण का अध्ययन करते हैं, मानते हैं कि बादल फटने की घटनाओं में पिछले एक दशक में निश्चिततौर पर इजाफा हुआ है। पर्यावरणविद् अनिल जोशी का कहना है कि टिहरी बांध की विशाल झील से जो वाष्पीकरण होता है वो बरसात के मौसम में भारी बादल बनाता है। जिसका असर सिर्फ गढ़वाल पर ही नहीं कुमाऊं पर ही होता है। वे कहते हैं कि सरकार इसलिए भी बादल फटने की घटना से इंकार करती हैं क्योंकि उन्हें अभी काली नदी पर पंचेश्वर डैम बनाना है, जिसका आकार टिहरी झील से कई गुना बड़ा होगा। टिहरी झील बनाने के बाद पर्यावरण पर उसके प्रभाव का अध्ययन जरूरी हो जाता है।
उत्तराखंड में बादल फटने की पहली बड़ी घटना 1952 में सामने आई थी। जब पौड़ी जिले के दूधातोली क्षेत्र में हुई अतिवृष्टि से नयार नदी में अचानक बाढ़ आ गई थी। इस घटना में सतपुली कस्बे का अस्तित्व पूरी तरह से खत्म हो गया था। वहां खड़ी कई बसें बह गई थी और कई लोगों को मौत हो गई थी। 1954 में रुद्रप्रयाग जिले के डडुवा गांव में अतिवृष्टि के बाद भूस्खलन से पूरा गांव दब गया था। 1975 के बाद से लगभग हर साल इस तरह की घटनाएं होने लगी और अब हर बरसात में 15 से 20 घटनाएं दर्ज की जा रही हैं।
उत्तराखंड वानिकी एवं औद्यानिकी विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग के अध्यक्ष डॉ. एसपी सती इंटरगवर्नमेंट पैनल फॉर क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट का हवाला देते हैं। वे लगातार बढ़ रही अतिवृष्टि की घटनाओं को ग्लोबल वार्मिंग के कारण होने वाले क्लाइमेट चेंज का असर मानते हैं। सती कहते हैं कि अब एक साथ सूखा और अतिवृष्टि का सामना करना पड़ रहा है। वर्ष में ज्यादातर समय सूखे की स्थिति बनी रहती है और कुछ दिन के भीतर इतनी बारिश आ जाती है कि जनधन का भारी नुकसान उठाना पड़ता है। वे कहते हैं अतिवृष्टि से होने वाला नुकसान इस बात पर निर्भर करता है कि उस क्षेत्र में पहाड़ी ढाल की प्रवृत्ति किस तहत की आमतौर पर भंगुर और तीव्र ढाल वाले क्षेत्र में अतिवृष्टि से ज्यादा नुकसान होता है।
सती पर्वतीय क्षेत्रों में बड़ी संख्या में बनने वाली सडक़ों को भी अतिवृष्टि से होने वाले नुकसान का कारण मानते हैं। उनका कहना है कि उत्तराखंड में पिछले 20 वर्षों में लगभग 50 हजार किमी सडक़ों का निर्माण हुआ है। एक किमी सडक़ निर्माण में औसतन 40 घन मीटर मलबा पैदा होता है। इस तरह इन 20 वर्षों में हम 200 करोड़ घनमीटर मलबा पैदा कर चुके हैं। इस मलबे के निस्तारण के लिए भी कोई वैज्ञानिक तरीका नहीं अपनाया जाता। मलबा पहाड़ी ढलानों में ही पड़ा रहता है और तेज बारिश होने पर निचले क्षेत्रों में नुकसान पहुंचाता है।
लेखक व पर्यावरण संबंधी मसलों के जानकार जयसिंह रावत पहाड़ों में अतिवृष्टि के लिए वनों के असमान वितरण को भी एक बड़ा कारण मानते हैं। वे कहते हैं कि उत्तराखंड के 70 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में वन हैं, लेकिन मैदानी क्षेत्रों में वन नाममात्र के ही हैं। ऐसे स्थिति में मानसूनी हवाओं को मैदानों में बरसने के लिए अनुकूल वातावरण नहीं मिल पाता और पर्वतीय क्षेत्रों में घने वनों के ऊपर पहुंचकर मानसूनी बादल अतिवृष्टि के रूप बरस जाते हैं। वे कहते हैं कि आज जरूरत सिर्फ पर्वतीय क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि मैदानी क्षेत्रों में भी तीव्र वनीकरण की आवश्यकता है। (downtoearth)
-श्रवण गर्ग
कोरोना प्रभावितों की संख्या ग्यारह लाख को पार कर गई है! हमें डराया जा रहा है कि दस अगस्त के पहले ही आंकड़ा बीस लाख को लांघ सकता है।यानि हम इस मामले में शीघ्र ही दुनिया में ‘नम्बर वन’ हो जाएँगे। देश में सामुदायिक विकास अभी भी एक अधूरा सपना है पर कहा जा रहा है कि कोरोना का सामुदायिक संक्रमण फैल चुका है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने चिंता ज़ाहिर की है कि हालात बहुत ही ख़राब हैं। संक्रमितों की तादाद तो लगातार बढ़ रही है पर ज़्यादा आश्चर्य यह है कि असंक्रमितों की निश्चिंतता पर इसका कोई असर दिखाई नहीं दे रहा है। लोगों को यह भी याद नहीं है कि कोरोना के सिलसिले में प्रधानमंत्री ने देश को आख़िरी बार कितनी तारीख़ को कितने बजे सम्बोधित किया था और क्या कहा था! मोदी ने हाल ही में इस सिलसिले में जो कुछ कहा उसे ज़रूर याद किया जा सकता है।
प्रधानमंत्री ने यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक परिषद) के एक उच्च-स्तरीय सत्र को हाल के अपने वर्चुअल सम्बोधन में बताया कि : 'भारत में कोरोना महामारी से लड़ने के लिए इसे एक जन आंदोलन बना दिया गया है जिसमें सरकार की कोशिशों के साथ-साथ नागरिक समाज भी अपना योगदान दे रहा है।’ कोरोना से लड़ाई निश्चित ही एक जन आंदोलन इस मायने में तो बन ही गई है कि ‘व्यवस्था’ अब अपनी व्यवस्था की ज़िम्मेदारी लोगों की व्यवस्था के हवाले करती जा रही है। लोगों को वर्चुअली सिखाया जा रहा है कि वे अपनी इम्यूनिटी को बढ़कर कैसे महामारी को मात दे सकते हैं। हो सकता है आगे चलकर, रहवासी बस्तियों में ही छोटे-छोटे अस्पताल और क्वॉरंटीन केंद्र स्थायी रूप से बनाने की योजना को भी लागू कर दिया जाए। कोरोना को मात देना जिंगल और गानों में बदला जा रहा है। इसे सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का ज़मीनी स्तर तक विकेंद्रीकरण भी कहा जा सकता है।
सरकारों और उन्हें चलाने वाली पार्टियों के पास वैसे भी कई और भी महत्वपूर्ण काम करने के लिए होते हैं ! और फिर, दिन और रात मिलाकर पास में होते तो चौबीस घंटे ही हैं। इतने में ही महामारी से भी लड़ना है, सीमाओं की रक्षा भी करनी है, अर्थ व्यवस्था भी सुधारनी है और चुनी हुई सरकारों को गिराने-बचाने का काम भी तत्परता से किया जाना है। इसलिए ज़रूरी है कि कम से कम एक काम में तो लोगों को आत्म निर्भर होने को कह दिया जाए। इससे माना जा सकता है कि जब महामारी के लिए जनता सरकार का मुँह देखना बंद कर देती है तो उसके साथ लड़ाई एक जन आंदोलन बन जाती है।
हक़ीक़त यह है कि जितनी रफ़्तार से कोरोना बढ़ रहा है, लोगों का अनुशासन भी उतनी ही तेज़ी से फूटकर सड़कों पर रिस रहा है। यह भी कह सकते हैं कि लोग बैठे-बैठे बुरी तरह थक गए हैं। ऐसा इसलिए है कि कोरना जैसी वैश्विक महामारी से लड़ना और वह भी किसी वैक्सीन के अभाव में जिस तरह के अनुशासन की माँग करता है उसके लिए एक राष्ट्रीय कर्तव्य के रूप में लोगों को कभी तैयार ही नहीं किया गया। समुद्र तटों पर बसने वाले मछुआरे जन्म-घूटी के साथ ही तूफ़ानों से लड़ने के लिए दीक्षित होते रहते हैं। अधिकांश जनता को तो केवल नारे लगाने वाली भीड़ की तरह ही प्रशिक्षित किया जाता रहा है।
थाईलैंड के बहादुर बच्चों की कहानी हमारी राजनीतिक तबियत से मेल नहीं खाती। उसे भूल-सा भी गए हैं हम। ग्यारह से सोलह साल के बारह फ़ुट्बॉल खिलाड़ी बच्चे अपने पच्चीस-वर्षीय कोच के साथ दो साल पहले 23 जून को थाइलैंड की थाम लुआंग गुफा में तीन सप्ताह के लिए फँस गए थे। दो किलो मीटर लम्बी और आठ सौ मीटर से ज़्यादा गहरी अंधेरी घुप्प गुफा में जहां जगह-जगह पानी भरा हुआ था ये बच्चे बिना किसी आहार के केवल अपनी उस इम्यूनिटी की ताक़त के बल पर बचे रहे जो प्रार्थनाओं के अनुशासन के ज़रिए उनकी साँसों में उनके कोच के द्वारा भरी गई थी। कहानी सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि बच्चे जो गुफा के अंदर थे सुरक्षित बचा लिए गए ! कहानी यह है कि बच्चे जब गुफा में क़ैद थे, उनका पूरा देश बाहर उनके लिए प्रार्थनाएँ कर रहा था। क्या हमारे यहाँ ऐसा हो रहा है ?
आत्म निर्भर बनाए जा रहे देश के लोग इस समय बड़ी संख्या में कोरोना की अंधेरी गुफा में प्रवेश करते जा रहे हैं, पर उन्हें कोई प्रशिक्षण नहीं है कि प्रार्थनाएँ और अनुशासन क्या होता है ! जो पीड़ित हैं उनके लिए तो प्रार्थनाएँ उनके परिजनों के साथ-साथ वे लोग कर रहे हैं जो खुद की जान को जोखिम में डालकर उनकी चिकित्सा-सेवा में जुटे हुए हैं।पर जिन्हें जगह-जगह धक्के खाने के बाद भी उचित इलाज नसीब नहीं हो पा रहा है और जिनकी मौतें हो रही हैं उनकी कहानियाँ भी अब हज़ारों में हैं। हो यह भी रहा है कि कोरोना-पीड़ित जब विजेता बन कर अपने घर की तरफ़ लौटता है, तो आसपास के घरों के दरवाज़े बंद कर लिए जाते हैं। कोरोना से लड़ाई में इस समय कोच कौन है, देश को उसका भी पता नहीं है। पहले पता था।
महामारी न तो पार्टियों की कम-ज़्यादा सदस्य संख्या और न ही उनके झंडों के रंग देखकर हमला कर रही है। सवाल यह है कि कोरोना की जब मार्च में शुरुआत हुई थी और प्रतिदिन केवल सौ सैम्पलों की जाँच होती थी तब में और आज जबकि साढ़े तीन लाख से अधिक सैम्पलों की जाँच रोज़ाना हो रही है, हमारे और व्यवस्था के नागरिकत्व में कितना फ़र्क़ आया है ? हम देख रहे हैं कि बढ़ती जाँचों के साथ-साथ मरीज़ भी बढ़ते जा रहे हैं और साथ ही संवेदनशून्यता भी। हो सकता है वक्त के बीतने के साथ-साथ इनका बढ़ना हमारे सोच से काफ़ी बड़ा हो जाए।अतः चिंता कोरोना महामारी की नहीं उस संवेदनशून्यता की है जिसे पहले व्यवस्था ने जनता को हस्तांतरित कर दिया और अब वही अनुशासनहीनता के रूप में नागरिकों के स्तर पर व्यक्त हो रही है। जो गुफाओं में क़ैद हैं उनकी मज़बूरी तो समझी जा सकती है पर जो बाहर हैं वे भी अपने कोच को लेकर कोई सवाल अथवा पूछताछ नहीं कर रहे हैं। इस अवस्था को जीवन-मृत्यु के प्रति लोगों का निरपेक्ष भाव मान लिया जाए या फिर व्यवस्था का सामूहिक मौन तिरस्कार ?
-सरोज सिंह
बिहार, 21 जुलाई। बिहार में जुलाई के पहले 18 दिन में कोरोना के 15 हजार से ज्यादा मामले सामने आए हैं। मई और जून दोनों महीनों के आंकड़ों को मिला भी दिया जाए तो ये संख्या उससे अधिक है।
इसलिए विपक्ष नीतीश सरकार पर हमलावर है और तेजस्वी यादव कह रहे हैं कि बिहार कोरोना का ग्लोबल हॉटस्पॉट बनने जा रहा है। कुछ इसी तरह की बात मेडिकल जर्नल लैंसेट की रिपोर्ट में कही गई है। 17 जुलाई की इस रिपोर्ट में भारत के तमाम राज्यों के 20 जिलों का वल्नरबिलिटी इंडेक्स बताया गया है। 20 में से 8 जिले अकेले बिहार के हैं।
आसान शब्दों में कहें तो इसमें ये बताया गया है कि कौन सा राज्य कोरोना की चपेट में आने के बाद उससे लडऩे के लिए कितना तैयार है। इस इंडेक्स में मध्य प्रदेश के बाद नंबर आता है बिहार का। यानी इन दोनों राज्यों की व्यवस्था चरमराने का खतरा सबसे ज्यादा है।
डब्ल्यूएचओ और आईसीएमआर दोनों ही संस्थाएं कोरोना के खिलाफ लड़ाई में टेस्टिंग को सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई मानती है। यानी टेस्ट अधिक से अधिक होगा, तो पॉजिटिव लोगों के बारे में जानकारी समय पर मिलेगी और फिर उनके कॉन्टेक्ट को ट्रेस और आइसोलेट करने में मदद मिलेगी।
लेकिन प्रदेश की सरकार उसी में पिछड़ती जा रही है। बिहार में प्रति मिलियन टेस्ट की बात करें, तो आंकड़ा 3000 है। बिहार से कहीं छोटा राज्य दिल्ली है। वहां प्रति मिलियन 45000 टेस्ट किए जा रहे हैं।
हालांकि ये आंकड़े महाराष्ट्र, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में इससे भी कहीं ज्यादा हैं। इन आंकड़ों से समझा जा सकता है कि बिहार में टेस्टिंग की हालत कितनी खराब है। अगर टेस्ट नहीं होंगे तो पॉजिटिव लोगों के बारे में पता नहीं चल पाएगा। और फिर कॉन्टेक्ट ट्रेसिंग भी नहीं हो पाएगी।
एलएनजेपी पटना के हड्डी रोग विभाग के पूर्व निदेशक डॉक्टर एचएन दिवाकर की मानें, तो जुलाई में आंकड़ों में इजाफा इसलिए भी आया है क्योंकि टेस्टिंग बढ़ी है। इसे केवल नकारात्मक तरीके से ही नहीं देखना चाहिए। जांच ज्यादा होगी तो मामले ज्यादा निकलेंगे ही। बिहार में आज सुबह तक कुल 3 लाख 78 हजार लोगों के टेस्ट हुए है, जिनमें से पिछले 24 घंटे में 10 हजार से ज्यादा टेस्ट हुए हैं।
बिहार की बिगड़ती गुई कोरोना स्थिति पर केंद्र सरकार की भी नजर है। इसलिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की तीन सदस्य टीम स्थिति का जायजा लेने रविवार को बिहार पहुंची है।
इस टीम में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल, नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल के डॉक्टर एसके सिंह और एम्स नई दिल्ली के डॉक्टर नीरज निश्चल शामिल हैं। सोमवार देर शाम इनकी वापसी है। लेकिन दो दिन में ये टीम इस बात का पता लगाएगी कि आखिर राज्य सरकार में चूक कहां हुई।
ये हाल तब है जब बिहार में बीजेपी सत्ता में शामिल है. बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे ख़ुद बीजेपी कोटे से स्वास्थ्य मंत्री हैं।
दिल्ली में एक समय पर कोरोना की स्थिति ऐसी बिगड़ती नजर आई थी। दिल्ली सरकार ने समय रहते अलार्म बेल बजाया, और केंद्र सरकार हरकत में आई। खु़द मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और स्वास्थ्य मंत्री से मदद माँगी और मामला काबू में आता दिख रहा है।
लोकजनशक्ति पार्टी के नेता और लोकसभा सांसद चिराग पासवान ने ट्वीट पर केंद्र सरकार द्वारा टीम भेजने की पहल की सराहना की है। लेकिन बिहार सरकार की अपनी तरफ से ऐसी कोई पहल नहीं दिखी।
लेकिन बिहार सरकार ने अपनी तरफ से खुल कर केन्द्र से ना कोई मदद मांगी ना ही खतरे की घंटी का जिक्र ही किया। केन्द्रीय टीम ने बिहार दौरे के दौरान केन्द्र सरकार के बनाए कंटेन्मेंट जोन प्लान को सख्ती से अमल में लाने की बात भी कही है। इन सबको देखते हुए विपक्ष भी राज्य सरकार को फेल बताने से भी परहेज नहीं कर रही है।
हालाँकि बिहार सरकार ने कोरोना की बिगड़ती हुई हालत से निपटने के एक बार फिर से लॉकडाउन लगाया है। उसका कितना फायदा मिलेगा इसका पता कुछ समय बाद चलेगा। लेकिन डॉक्टर दिवाकर का मानना है कि पिछले लॉकडाउन का सही इस्तेमाल ना तो सरकार ने किया और ना ही जनता ने। डॉक्टर दिवाकर कहते हैं कि अभी तक बिहार में प्राइवेट अस्पतालों में के लिए कोई टेस्टिंग प्रोटोकॉल सरकार की तरफ से जारी नहीं किया गया है।
इतना ही नहीं पटना में केवल दो अस्पतालों को ही कोविड19 अस्पताल बनाया गया है। इसके अलावा दो अस्पतालों को आइसोलेशन सेंटर बनाया गया है। नतीजा ये कि बाकी जिलों से ज्यादातर मरीजों को पटना रेफर किया जा रहा है और प्राइवेट अस्पतालों ने इलाज के लिए हाथ खड़े कर दिए हैं, उनका बोझ भी इन्ही अस्पतालों पर पड़ रहा है।
दिल्ली या बाकी राज्यों में प्राइवेट अस्पतालों को कोविड से लडऩे के लिए जिस तरह से तैयार रहने के आदेश राज्य सरकार से मिले हैं, वैसे आदेश बिहार सरकार की तरफ से जारी नहीं किए गए हैं।
बिहार का हेल्थ केयर सिस्टम
बिहार सरकार अपने विज्ञापनों और ट्वीट में राज्य के बेहतर रिकवरी रेट का हवाला देती आई है। बिहार में फिलहाल रिकवरी रेट 62.9 फीसदी है. लेकिन जानकारों की मानें, तो रिकवरी रेट कोरोना की सही तस्वीर पेश नहीं करते।
आईएमए बिहार के सचिव सुनील कहते हैं कि बिहार में हेल्थ केयर सिस्टम की खस्ता हालत ही बिहार के कोरोना विस्फोट के लिए जिम्मेदार है। बीबीसी से फोन पर बातचीत में डॉक्टर सुनील कहते हैं, नालंदा मेडिकल कॉलेज पटना में कोविड अस्पताल है. वहाँ एनेस्थेसिया विभाग में 25 सीनियर रेजिडेंट्स का पद हैं। उनमें से एक भी पद पर आज की तारीख में डॉक्टर नहीं हैं। 60 साल की उम्र से अधिक दो डॉक्टरों और 5 जूनियर रेजिडेंट डॉक्टरों की मदद से आज किसी तरह से काम चल रहा है।
डॉक्टर सुनील कहते हैं कि यही हाल ज़्यादातर मेडिकल कॉलेज का है। जब फ्रंटलाइन वर्कर ही नहीं होंगे तो कोरोना से निपटेगा कौन?
आईएमए के अनुमान के मुताबिक बिहार में सभी मेडिकल कॉलेजों को मिला कर 3000 पद खाली हैं। उनके मुताबिक आईएमए ने राज्य सरकार में मुख्यमंत्री से लेकर स्वास्थ्य सचिव तक सभी को तुरंत रिक्त पदों पर नियुक्ति के बारे में कई पत्र लिखे हैं लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है। इसी तरह से मरीज और डॉक्टर अनुपात, मरीज और अस्पताल में बेड के अनुपात में भी बिहार देश के सबसे पिछले राज्यों में से एक हैं।
कोरोना और राजनीति
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं कि कोरोना के लिए बिहार सरकार की तैयारी वैसी ही थी, जैसी किसी को अपने दुश्मन के खिलाफ बिना हथियार के जंग लडऩे के लिए उतार दिया जाए।
राज्य सरकार ने कोरोना के कार्यकाल में स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव का ही तबादला कर दिया। इसके पीछे कई वजहें गिनाई गईं लेकिन महामारी के बीच में ऐसा करने पर विपक्ष को राजनीति का हथियार मिल गया।
मणिकांत आगे कहते हैं, जैसे बाकी प्रदेशों के मुख्यमंत्री चाहे वो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे हों, या फिर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हों या फिर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सभी समय समय पर कोरोना काल में हरकत में नजर आए। दूसरे मुख्यमंत्रियों की तुलना में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कम एक्टिव दिखे। विपक्ष हमेशा नीतीश कुमार के क्वारंटीन में होने की बात ही करता रहा।
हालांकि नीतीश कुमार पाटलिपुत्र स्पोर्टस सेंटर में बने कोविड केयर में मुआयना करने गए थे, लेकिन ज्यादातर वीडियो कॉन्फ्ररेंसिंग से ही स्थिति पर नजर रखते रहे।
मणिकांत ठाकुर के मुताबिक कुछ राज्यों ने कोरोना में आने वाले दिनों में हालात कितने बद से बदतर होने वाले हैं इसके लिए टास्क फोर्स बनाया लेकिन बिहार सरकार ने ऐसी कोई पहल नहीं की।
ये भी वजह थी कि सरकार के पास एक्सपर्ट नहीं थे जो उन्हें सही समय पर सही सलाह दे पाते. उनका मानना है कि राज्य सरकार में ज्यादातर फैसले नौकरशाहों ने किए बीमारी के जानकार डॉक्टरों ने नहीं।
वो मानते हैं कि राज्य सरकार ने प्रवासी मजदूरों पर भी निर्णय देर से लिया। लेकिन वो साथ में ये भी जोड़ते हैं कि उसमें नीतीश सरकार की ज्यादा गलती नहीं थी, क्योंकि उन्होंने केंद्र के प्रोटोकॉल को ही फोलो किया था।
इतना जरूर है कि प्रवासी मज़दूरों को ठीक से संभाल पाने में सरकार कामयाब नहीं रही। क्वारंटीन सेंटर में ना तो खाने की व्यवस्था अच्छी ना रहने की ना शौचालय की। इनकी हालत की और भ्रष्टाचार की भी खबरें सबने देखी ही है। इसलिए सबसे पहले क्वारंटीन सेंटर भी बिहार में ही बंद किया गया।
फिलहाल बिहार में कोरोना से मरने वालों का आंकड़ा दूसरे बड़े राज्यों के मुकाबले कम है। विपक्ष सरकार पर वर्चुअल रैली में व्यस्त रहने का आरोप लगा रही है लेकिन चौक चौराहों से जो तस्वीरें आ रही हैं वो अपने आप मे डराने वाली है।
डॉक्टर दिवाकर की मानें, तो पूरा दोष सरकार पर मढ़ देना भी सही नहीं है। बिहार में जगह-जगह कोरोना के लक्षण और बचाव के बारे में पोस्टर लगे हैं। बावजूद इसके किसी भी चौक चौराहे पर इसका पालन करते आपको लोग नहीं दिखेगें। जब मोबाइल फोन पर आपको इसके बारे में बताया जा रहा है, टीवी पर हर घंटे कई बार विज्ञापन दिखाया जा रहा है, फिर भी लोग ना तो मास्क पहनने को राजी है और ना ही सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रहे हैं।
बिहार में नेता प्रतिपक्ष ने ट्विटर पर एक वीडियो पोस्ट किया है, जिसमें जांच के लिए अस्पताल में खड़े लोग एक दूसरे के साथ पीठ से पीठ सटाए खड़े नजर आ रहे हैं।
डॉक्टर दिवाकर कहते हैं कि इसके लिए सरकार को नहीं जनता को दोषी मानना चाहिए। जब तक लोगों में कोरोना से भय नहीं होगा और बचाव के लिए ख़ुद लोग सजग नहीं होंगे, प्रशासन के सारे उपाय धरे के धरे रह जाएंगे।
तो बिहार को क्या करना होगा?
इसका जवाब लैंसेट की रिपोर्ट में है। इस रिपोर्ट को लिखने वाले राजीब आचार्य ने बीबीसी से बात की। राजीब पॉपुलेशन काउंसिल ऑफ इंडिया के साथ जुड़े हैं। उनके मुताबिक बिहार को हेल्थ सिस्टम पर ज्यादा खर्च करने की जरूरत है और वो भी जिला स्तर पर। इसके अलावा लोगों की समाजिक और आर्थिक स्थिति पर ध्यान देने की जरूरत है ताकि घरों में पानी, टॉयलेट जैसी बुनियादी सुविधाएं लोगों को मिल सके।
इसके अलावा बिहार में गरीब लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है। कोरोना की स्थिति से कैसे निबटेंगे, ये राज्य सरकार को सुनिश्चित करने की जरूरत है कि उनका इलाज कैसे होगा और खर्च कैसे चलेगा।
जाहिर है ये सभी चीजें रातों रात नहीं होंगी। लेकिन पांच महीने में भी बिहार सरकार ने इस दिशा में क्या किया, ये अब सोचने का सही वक्त है।(bbc.com/hindi)
अपने नागरिकों की निगरानी एक बुरी नजीर है और हो सकता है कि यह इस स्वास्थ्य संकट के खत्म होने के बाद भी जारी रहे
-अक्षत संगोमला
कोविड-19 के मरीजों के नाम जारी करने से लेकर, मोबाइल ऐप के माध्यम से लोगों को उनकी निजी जानकारी साझा करने तक, केंद्र और राज्य सरकारें इस स्वास्थ्य संकट के समय खुलेआम लोगों की निजता और मानवीय मर्यादा का उल्लंघन कर रही हैं। दरअसल, सरकारें मोबाइल निगरानी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के उपयोग से चेहरे की पहचान का एक पुरातन कानून का दोहन कर रही है जो टेलीविजन के आविष्कार से पहले वजूद में आया था। यह कानून है महामारी अधिनियम (एपिडेमिक एक्ट) 1897, जो पिछले 123 वर्ष से बिना किसी बड़ा बदलाव के चल रहा है।
इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स में स्वास्थ्य सलाहकार पीएस राकेश द्वारा वर्ष 2016 में प्रकाशित एक शोधपत्र में पाया गया कि यह कानून सरकारों को लोगों की स्वायतता, गोपनीयता और स्वतंत्रता पर परिस्थिति को बिना स्पष्ट तौर पर परिभाषित करते हुए लगाम लगाने की इजाजत देता है। यह कानून किसी नैतिक और मानव अधिकारों पर तो कुछ नहीं कहता, साथ ही, अधिकारियों को भी किसी मुकदमे या कानूनी कार्रवाई से सुरक्षा देता है। 1897 का यह कानून, 2005 के राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून के साथ मिलकर कोविड-19 से लड़ने के कड़े कदमों को उठाने के लिए कानूनी नींव प्रदान करता है।
डिजिटल निगरानी के अलावा सामाजिक नियंत्रण स्थापित करने के लिए राज्य सरकारें पुलिस के द्वारा इस्तेमाल में लाए दाने वाली तकनीकों का इस्तेमाल अपने नागरिकों के ऊपर नजर रखने के लिए कर रही हैं। प्रशासन हर वे तरीके इस्तेमाल करने के लिए उत्सुक है जिससे वायरस के प्रसार को रोका जा सके, लेकिन जनता के ऊपर बिना किसी मजबूत कानूनी ढांचे के निगरानी की वजह से सार्वजनिक सुरक्षा और व्यक्तिगत गोपनीयता के बीच अनिश्चित संतुलन बनने के खतरे की तरफ इशारा करता है। उदाहरण के लिए केंद्र सरकार द्वारा प्रचारित आरोग्य सेतु मोबाइल एप्लीकेशन को देखें तो इसमें भी निजता की चिंताएं शामिल हैं, जैसे ऐप पर दी गई जानकारी को कैसे उपयोग या साझा किया जाएगा।
इसी तरह, राज्य सरकारें ऐप और वेबसाइट का बिना निजता सुरक्षा उपायों के जारी कर रही हैं और जिसका उपयोग बड़ी संख्या में लोगों के गंभीर स्वास्थ्य और निजी जानकारी इकट्ठा करने में हो रहा है। तमिलनाडु अपने क्वारंटाइन ऐप से पुलिस के माध्यम से लोगों की निगरानी कर रही है। बिना गोपनीयता नीति और उपयोग की शर्तों के साथ ऐप को जारी कर दिया। मानव अधिकारों के लिए लड़ने वाली एक गैर लाभकारी संगठन एक्सेस नाउ की रिपोर्ट चेताती है कि स्थान की निगरानी बिना किसी सुरक्षा उपाय के रखने से वे जानकारियां भी साझा हो सकती हैं जिनका जिनका कोरोनावायरस के संग लड़ाई में कोई काम नहीं है और ऐसे पूरा देश निगरानी की जद में आ जाता है।
यह स्थिति वैश्विक स्तर पर भी समान रूप से गंभीर है क्योंकि कई देश अपने कानूनों में बदलाव कर निरंकुश होकर बिना जनता की सहमति के उन पर नजर रखने का अधिकार पा रहे हैं। प्राइवेसी इंटरनेशनल के एडवोकेसी डायरेक्टर एडिन ओमानोविक कहते हैं, “निगरानी का जो दौर हम लोग देख रहे हैं, वह वाकई अभूतपूर्व है। यह 9/11 के उस समय से भी आगे निकल गया है जब से विश्व में सरकारें जनता पर निगरानी रखने लगी हैं। कानून, ताकत और तकनीकों का उपयोग विश्वभर में मानव की आजादी पर एक गंभीर और लंबे समय तक चलने वाला खतरा पैदा कर रहा है।” यह संस्था 100 दूसरे नागरिक संगठनों के साथ मिलकर वैश्विक स्तर पर सरकारों से कोविड-19 के समय उठाए गए आक्रामक कदमों से मानव अधिकारों को सुरक्षित रखने की सिफारिश कर रही है। वह आगे कहते हैं कि यह जाहिर है कि असाधारण संकट के लिए असाधारण कदमों की जरूरत होती है, लेकिन ऐसे वक्त में अद्वितीय बचाव की भी जरूरत होती है।
सरकारें न केवल लापरवाही से प्रौद्योगिकी का उपयोग कर रही हैं, बल्कि लोग सवाल पूछने से भी डरते हैं। दिल्ली स्थित सेंटर फॉर इंटरनेट एंड सोसाइटी की नीति अधिकारी मीरा स्वामीनाथन कहती हैं, “नागरिक अभी अपने परिवारों की चिकित्सीय जानकारी सार्वजनिक डेटाबेस और मोबाइल ऐप पर अंधाधुंध रूप से साझा कर रहे हैं, जो उन्होंने सामान्य परिस्थितियों में कभी नहीं किया होगा।”
साथिया वेंकटेशन 23 मार्च को न्यूयॉर्क से हैदराबाद लौंटी और सेल्फ क्वारंटाइन में लगातार उत्पीड़न और डर के माहौल में रही। वह कहती हैं, “पहले एयरपोर्ट के अधिकारियों ने मेरी कलाई पर सेल्फ-क्वारंटाइन का ठप्पा लगाया। तीन दिन के बाद नगर निगम के लोग आकर मेरे घर के आगे क्वारंटाइन का एक नोटिस चिपका गए। उन्होंने कहा कि वह उनका परीक्षण करने बीच-बीच में आएंगे। हालांकि, उसके बाद से कोई भी उनकी तरफ से नहीं आया। इस दौरान, वह नोटिस मेरे सोसाइटी के व्हाट्सऐप ग्रुप में हलचल मचाने लगा। इससे मुझे पता चला कि आपातकालीन जरूरत पड़ने पर मेरी मदद को कोई नहीं आने वाला।” वेंकटेशन ने एक और चिंताजनक बात कही, “सरकार के विभागों के बीच जानकारियां साझा नहीं हो रही हैं। मैंने एयरपोर्ट पर अपनी सारी जानकारी भरी थी। कुछ दिन बाद मुझे स्थानीय पुलिस का फोन आया कि उन्हें मेरा पता चाहिए। उनका कहना था कि एयरपोर्ट से उन्हें सिर्फ मेरा फोन नंबर मिला।”
कई देश निगरानी और लोगों की जानकारी इकट्ठा करने के तरीके अपनाया, लेकिन पुराने अनुभव कहते हैं कि ये जानकारियां किसी काम नहीं आतीं। वर्ष 2014 में अफ्रीका में इबोला के प्रसार पर हुए शोध में योगदान देने वाली सियन मार्टिन मेकडोनाल्ड लिखती हैं, “यह धारणा है कि लोगों की जानकारियां इकट्ठा कर उसका विश्लेषण कर स्वास्थ्य संबंधी कार्यों को गति और बल मिलेगी और मोबाइल नेटवर्क के माध्यम से इकट्ठा जानकारी से स्वास्थ्य का ढांचा ठीक किया जा सकता है।” मार्च 2016 के शोधपत्र में वह कहती है कि जानकारों ने सुझाव दिया था कि लोकेशन की जानकारी हासिल कर लोगों के संपर्क की जानकारी इकट्ठा की जा सकती है। इस प्रक्रिया में संक्रमण के फैलाव पर नजर रखने के लिए लोगों की आवाजाही की निगरानी होती है जिससे इसका पूर्वानुमान आसानी से लगाया जा सकता है। हालांकि, असल में इस घटना के बाद से मानवता के लिए काम करने वाली संस्थाओं ने पाया कि डिजिटल माध्यमों के जरिए संपर्कों की निगरानी लीबिया, जो इस संक्रमण का केंद्र था, में सामान्य बात हो गई।
सूचना प्रणाली के विभिन्न हिस्सों- सरकार, अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों और निजी कंपनियों के बीच समन्वय की अनुपस्थिति के कारण इबोला प्रतिक्रिया के डिजिटलीकरण ने मानवीय प्रतिक्रिया को और अधिक कठिन बना दिया। इसमें शामिल महत्वपूर्ण कानूनी, वित्तीय और व्यावहारिक जोखिमों को हल नहीं किया गया।” कुछ इसी तरह का अनुभव कोविड-19 के संक्रमण के समय भी सामने आ रहा है जिसमें निगरानी का स्तर इबोला से कहीं ज्यादा है। दक्षिण कोरिया में जब निगरानी अगले स्तर तक पहुंची तो लोग अपनी जांच कराने से बचने लगे। इस देश में लोगों की निगरानी जियो लोकेशन के साथ सीसीटीवी फुटेज और क्रेडिट कार्ड के रिकॉर्ड के माध्यम से की जा रही है। जनवरी तक यहां संक्रमित लोगों की जानकारी अपलोड होती रही जिसमें उन्होंने मास्क पहना था या नहीं, या वह कौन सी जगह घूमने गए, जैसी जानकारियां शामिल रहती थीं। लोग भीड़ के हमले के डर से अपनी जांच करवाने से बचने लगे और प्रशासन को सारी जानकारी ऑनलाइन साझा करने के अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना पड़ा। एक्सेस नाउ की रिपोर्ट कहती है, “एक महामारी व्यापक और अनावश्यक डेटा एकत्र करने का कोई बहाना नहीं है। स्वास्थ्य डेटा तक पहुंच उन लोगों तक सीमित होगी जिन्हें उपचार, अनुसंधान करने और अन्यथा संकट का समाधान करने के लिए जानकारी की आवश्यकता होती है।
जानकारी को एक अलग डेटाबेस में सुरक्षित रूप से संग्रहित किया जाना चाहिए।” यह रिपोर्ट आगे कहती है कि जानकारियों को संकट का समय खत्म होने के बाद मिटा देना चाहिए। निगरानी के मुद्दे पर रिपोर्ट गोपनीयता की सुरक्षा और सटीकता में सुधार करने के लिए मोबाइल उपकरणों के उपयोग के बजाय विस्तृत इन-पर्सन संपर्क ट्रेसिंग की सिफारिश करती है। जियो लोकेशन ट्रैकिंग के मामले में, डेटा को बिना नाम के होना चाहिए। रिपोर्ट में निजी कंपनियों द्वारा डेटा के दुरुपयोग के खिलाफ सख्त सुरक्षा उपायों की भी मांग की गई है।
रिपोर्ट के अनुसार, “सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट से निपटने के लिए एप्लिकेशन बनाते समय, निजी कंपनियों को अपने उत्पादों के उपयोग से प्राप्त डेटा से पैसा कमाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। इसके अलावा, डेटा के बाद में होने वाले उपयोग या आगे की प्रक्रिया पर स्पष्ट सीमाएं होनी चाहिए।” भारत में अधिकांश राज्य सरकार के ऐप निजी कंपनियों द्वारा विकसित किए गए हैं और उनमें से कई बिना गोपनीयता नीति के हैं। कंपनियां संयुक्त राज्य में भी अग्रणी भूमिका निभा रही हैं।
निजता का हनन बड़ा खतरा है जिसे कोविड-19 अचानक से बढ़ा सकता है। कई देशों ने अपने कानून में मनमाने तरीके से बदलाव कर निजता हनन के अधिकार पा लिए हैं और यह स्वास्थ्य संकट के खत्म होने के बाद भी जारी रहेगा। लेखक युवाल नोआह हरारी ने फाइनेंशियल टाइम्स में प्रकाशित लेख के जरिए चेताया कि यह दौर न केवल निगरानी के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले तरीकों को सामान्य बना देगा बल्कि उन देशों में भी यह लागू हो जाएगा जो पहले इस निगरानी का खारिज कर चुके हैं। इससे सरकार द्वारा की जाने वाली हमारी निगरानी ओवर द स्किन से अंडर द स्किन हो जाएगी। यानी सरकार पता चल जाएगा कि हमारे जेहन में क्या चल रहा है। वह कहते हैं कि जब आप स्मार्टफोन के स्क्रीन को उंगली से टच करते थे तो सरकार ये जानना चाहती थी कि आप किस जगह क्लिक कर रहे हैं, लेकिन अब स्क्रीन छूते हैं तो सरकार ये भी जानना चाहती है कि आपकी उंगली का तापमान क्या है और आपकी त्वचा के भीतर का रक्तचाप कितना है।
नया खतरा
केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकाराें ने कोविड-19 की निगरानी वाले कई ऐप जारी किए हैं
आरोग्यसेतु
डेवलपर: नेशनल इंफॉर्मेटिक्स सेंटर
डाउनलोड्स: 12 करोड़ से अधिक
अनुमति चाहिए: ब्लूटूथ, जीपीएस, संपर्क और स्टोरेज
जानकारी चाहिए: निजी जानकारी जैसे नाम, उम्र, लिंग, स्थान, व्यवसाय और यात्रा का इतिहास के साथ स्वास्थ्य संबंधी जानकारी
गोपनीयता की समस्या
उपयोगकर्ता को उपयोग और गोपनीयता नीति की शर्तों तक पहुंचने के लिए सभी विवरणों को पंजीकृत और प्रस्तुत करना होगा। गोपनीयता नीति कई बार मैं शब्द का उपयोग करती है। इस बात पर अस्पष्टता रहती है कि बाद में डेटा का उपयोग कैसे किया जा सकता है। उपयोगकर्ता का डेटा लीक होने या अनधिकृत उद्देश्य के लिए उपयोग किए जाने के मामले में सरकार उत्तरदायी नहीं है। उपयोगकर्ता के डेटा का दुरुपयोग नहीं होगा, इस पर गोपनीयता नीति कुछ नहीं कहती।
टेस्ट योरसेल्फ
डेवलपर: इनोवैक्सर आईएनसी
उपयोगकर्ता: 50,000
जानकारी चाहिए: अगर उपयोगकर्ता देना चाहे तो निजी जानकारी जिसमें इंटरनेट उपयोग का इतिहास शामिल है, आईपी एड्रेस की सहायता से सामान्य भू-भाग की जानकारी और सोशल मीडिया की जानकारी।
गोपनीयता की समस्या
यह वेबसाइट जो खुद के माध्यम से कोविड-19 के संक्रमण का मूल्यांकन करने का दावा करती है, बहुत सारी स्वास्थ्य संबंधी इकट्ठा करती है जिससे उपयोगकर्ता को कोई लाभ नहीं मिलता। जानकारों ने आगाह किया है कि ऐसी गैर जरूरी जानकारियां इकट्ठा करने के बजाए सरकार को उपयोगकर्ता को सीधे किसी चिकित्सक से दूर से ही संपर्क करने की सुविधा देनी चाहिए थी।
तमिलनाडु क्वारंटाइन मॉनिटर
डेवलपर: पिक्सोन एआई सॉल्यूशन्स प्राइवेट लिमिटेड
डाउनलोड्स: 100,000
अनुमति चाहिए: लाइव निगरानी के लिए जीपीएस
जानकारी चाहिए: आवाजाही की जानकारी
गोपनीयता की समस्या
ऐप में गोपनीयता नीति या उपयोग की शर्तें नहीं हैं और इस बात की जानकारी नहीं देती है कि डेटा का उपयोग कैसे किया जाएगा, जो भारत में सामान्य डेटा सुरक्षा विनियमन के तहत अनिवार्य है।
महाराष्ट्र महाकवच
डेवलपर: कई सरकारी और निजी संस्थाएं
डाउनलोड्स: 10,000
अनुमति चाहिए: जीपीएस लोकेशन
जानकारी चाहिए: निजी जानकारी, स्थान की जानकारी, तस्वीरें
गोपनीयता की समस्या
ऐप में कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग करने के बावजूद सामान्य गोपनीयता नीति है
(स्रोत: दिविज जोशी, मोज़िला में प्रौद्योगिकी नीति विशेषज्ञ और मीडिया रिपोर्ट)
गहन निगरानी
यूरोपीय संघ और कम से कम 23 देश नागरिकों पर नजर रख रहे हैं, जो कोविड संकट के दौरान गैर-सहमति से सरकार के डिजिटल निगरानी में अचानक वृद्धि को उजागर करते हैं। यहां कुछ कदम हैं जो चिंताएं बढ़ाते हैं
ऑस्ट्रिया
सबसे बड़ी दूरसंचार कंपनी ए-1, स्वैच्छा से सभी मोबाइल फोन उपयोगकर्ताओं के प्रोफाइल के साथ आवाजाही की जानकारी सरकार को प्रदान कर रही है। कंपनी ने अपने ग्राहकों को बिना बताए या उनकी सहमति के बिना सूचना साझा करने की शुरुआत की।
ऑस्ट्रेलिया
एडिलेड राज्य में पुलिस कोविड रोगियों और उनके आवाजाही पर नजर रखने के लिए आपराधिक जांच के लिए उपयोग किए जाने वाले एक निगरानी वाले तंत्र पर भरोसा कर रही है। पुलिस को किसी व्यक्ति की निगरानी के लिए सिर्फ उसका फोन नंबर चाहिए और इसके बाद सारी जानकारी स्वास्थ्य विभाग के साथ साझा की जा रही है।
बुल्गारिया
दूरसंचार से ग्राहक डेटा की मांग करने का अधिकार आंतरिक मंत्रालय को देने के लिए इलेक्ट्रॉनिक संचार अधिनियम में संशोधन किया गया है। संशोधन का मतलब है कि मंत्रालय को निगरानी करने के लिए अदालत के आदेश की आवश्यकता नहीं है और संकट खत्म होने के बाद भी यह विशेषाधिकार जारी रहेगा।
चीन
अली पे और वीचैट जैसे ऐप ऐसे व्यक्तियों को चिन्हित कर रहे हैं जिनमें संक्रमण का जोखिम अधिक है और उन्हें इसके बाद क्वारंटाइन में भेज दिया जाता है या भीड़भाड़ से अलग रख दिया जाता है। लोगों को कहीं आने-जाने के लिए इन ऐप के माध्यम से ग्रीन क्लियरेंस प्राप्त करना जरूरी होता है। कंपनियां ऐसे सॉफ्टवेयर भी विकसित कर रही हैं जो कैमरे के माध्यम से बिना संपर्क में आए तापमान का पता लगा सके। कुछ शहर संक्रमित पड़ोसियों की सूचना देने पर इनाम भी दे रहे हैं।
कोलंबिया
एक पुराने ऐप का नाम बदलकर इसे कोरोनऐप के नाम से वायरस की जानकारी हासिल करने के लिए जारी किया गया है। इस ऐप को भारी मात्रा में निजी जानकारी चाहिए जिसमें जातीयता की जानकारी भी शामिल है। इस बात की पारदर्शिता भी नहीं है कि इन जानकारियां का कौन कितना इस्तेमाल कर सकेगा।
यूरोपीय संघ
दूरसंचार कंपनियां और प्रशासन एक ऐसी व्यवस्था बनाने जा रही है जिसमें लोग अपने स्थान की जानकारी साझा करेंगे। अब तक इस व्यवस्था में कुछ पारदर्शिता थी जिससे पता रहता था कि कितनी जानकारी साझा की जा रही है और कितने समय तक यह कानूनन चलेगा। सरकारों के अलावा यूरोपीय कमिशन ने दूरसंचार कंपनियों से वायरस के फैलाव का पता लगाने के लिए और हॉटस्पॉट का पता लगाने के लिए जानकारियां मांगी हैं।
इजराइल
घरेलू सुरक्षा एजेंसी शिन बेट ने कोविड-19 प्रकोप पर नजर रखने के लिए आतंकवादियों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली अपनी सेलुलर जियोट्रैकिंग तकनीक को फिर से तैयार किया है।
केन्या
एमसफारी ऐप की मदद से संपर्क का पता लगाने के लिए इस ऐप को एक निजी कंपनी ने बनाया है। इसका इस्तेमाल सार्वजनिक परिवहन में लगी बस, टैक्सी और दूसरे परिवहन व्यवस्था में यात्रियों की निगरानी के लिए किया जा रहा है। चालकों से यह उम्मीद की जाता है कि वे इस ऐप को डाउनलोड करके सभी यात्रियों को इस पर पंजीकृत करेंगे। सरकार उन सभी यात्रियों पर निगरानी रखकर उन्हें 14 दिन के क्वारंटाइन में रखेगी।
दक्षिण कोरिया
यहां की सरकार उन लोगों की जानकारी इकट्ठी कर ऑनलाइन डाल रही है जो या तो संक्रमित हैं या इसकी आशंका है। यहां मौजूदा डाटाबेस को नए डेटाबेस से मिलाकर सीसीटीवी फुटेज, क्रेडिट कार्ड और लोकेशन के इतिहास की निगरानी की जा रही है। यह जानकारियां ऑनलाइन जारी की जा रही है जिसमें लोग कब काम से वापस निकले, सबवे में उन्होंने मास्क पहना या नहीं, वे किस स्थान पर बार-बार गए और किस स्थान पर उनकी जांच की गई आदि शामिल हैं। अब सरकार ने निजी जानकारी जारी करना बंद किया है क्योंकि भीड़ ने ऐसे लोगों को परेशान करना शुरू कर दिया था।
ताइवान
प्रशासन यहां एक्टिव मोबाइल नेटवर्क की निगरानी कर क्वारंटाइन को सुनिश्चित कर इसके संपर्क में आने वाले लोगों की पहचान कर रहा है। अगर किसी का मोबाइल नेटवर्क घर के बाहर एक्टिव होता है तो प्रशासन सतर्क हो जाता है।
ट्यूनीशिया
इनोवा रोबोटिक्स ने पीगार्ड रोबोट का संचालन शुरू करने के लिए आंतरिक मंत्रालय के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। ये रोबोट इंफ्रारेड कैमरों के एक सेट से लैस होंगे और लोगों को घर छोड़ने से रोकेंगे। इन रोबोटों को कहां तैनात किया जाएगा, वे कौन सी जानकारी जुटाएंगे, इसकी कोई जानकारी नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र
यहां शोधकर्ता फेसबुक के डेटा का इस्तेमाल सामाजिक दूरी का आकलन करने के लिए कर रहे हैं। जिन उपयोगकर्ताओं ने फेसबुक पर अपना लोकेशन साझा की है, उनके डेटा के इस्तेमाल से एक तरह का नक्सा खींचा जा रहा है। इस काम में गोपनीयता और जानकारियों की रक्षा प्रभावित होती है क्योंकि उपयोगकर्ता ने सिर्फ फेसबुक को यह जानकारी साझा करने की अनुमति दी होती है। गूगल की जैव प्रौद्योगिकी कंपनी वेरिली ने कोविड-19 की स्क्रीनिंग वेबसाइट लॉन्च की है। स्क्रीनिंग के लिए अर्हता प्राप्त करने के लिए, उपयोगकर्ताओं के पास गूगल खाता होना चाहिए और गूगल के साथ जानकारी साझा करने के लिए सहमत होना चाहिए। वेबसाइट कैलिफोर्निया के गवर्नर कार्यालय और अन्य संघीय अधिकारी के सहयोग से काम कर रही है। (downtoearth)
पिछले हफ़्ते स्टैंडअप कॉमेडियन अग्रिमा जॉशुआ का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। सालभर पुराने इस वीडियो में अग्रिमा ने कई चीजों के साथ मुंबई में बनने वाले छत्रपति शिवाजी स्मारक पर भी टिप्पणी की थी। इस टिप्पणी में उन्होंने बताया कि ‘कोरा’ वेबसाइट पर कुछ लोग इस स्मारक के बारे में बेबुनियाद दावे कर रहे थे, जैसे यह कि वह दरअसल स्मारक के रूप में, नई तकनीक से लैस एक हथियार है। इस बात पर अग्रिमा ने व्यंग्य किया कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक गौरव के नाम पर झूठे तथ्य फैलाना हमें स्वीकार है मगर ऐतिहासिक हस्तियों के ‘आदर’ और ‘सम्मान’ में ज़रा सी भी कमी हो तो हम जंग छेड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं।
अग्रिमा की यह टिप्पणी सही साबित हुई जब उनकी इस टिप्पणी से कई लोगों की भावनाएं बेहद आहत हो गई। लोगों ने अग्रिमा पर शिवाजी महाराज का अपमान करने और महाराष्ट्र की जनता की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप लगाया। हज़ारों लोगों ने अग्रिमा की गिरफ़्तारी की मांग की और ख़ुद महाराष्ट्र के गृहमंत्री अनिल देशमुख ने अग्रिमा पर एफ़आईआर दर्ज करने की बात की। सोशल मीडिया पर उन्हें गालियां और धमकियां मिलीं। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कुछ कार्यकर्ताओं ने उस स्टूडियो को तहस-नहस कर दिया, जहां उन्होंने परफ़ॉर्म किया था। स्थिति इतनी बुरी हो गई कि ट्विटर पर एक वीडियो जारी कर अग्रिमा को शिवाजी महाराज पर की गई अपनी टिप्पणी के लिए माफ़ी मांगनी पड़ी।
इसके बाद सोशल मीडिया पर अग्रिमा को बलात्कार और जान से मारने की धमकियां देने वाले वीडियो आने लगे। भद्दी भाषा में अग्रिमा और उनके परिवार को नुक़सान पहुंचाने की बात करते इन वीडियोज़ का सोशल मीडिया पर समर्थन भी किया गया। ऐसे वीडियो बनानेवाले कुछ लोगों के नाम सामने आए और वे गिरफ़्तार भी हुए हैं। पर शिवाजी महाराज के इस तथाकथित ‘अपमान’ के लिए अग्रिमा के ख़िलाफ़ यह द्वेष एक विषैला रूप धारण कर चुका है। उनके यौन शोषण से लेकर उनके खुलेआम कत्ल की मांग करनेवालों की कमी नहीं है। ज़्यादातर ट्रोल्स को इसी बात से ऐतराज है कि अग्रिमा एक ईसाई हैं और एक बेबाक, उन्मुक्त सोच वाली औरत हैं। ये दो चीजें पितृसत्ता और धर्मांधता की सड़ांध में फल-फूल रहे इस समाज से बर्दाश्त नहीं होतीं।
आज अभिव्यक्ति की आज़ादी हमारे देश में एक मज़ाक बनकर रह गई है। एक फ़िल्म, एक किताब, एक कविता या महज़ एक ‘कॉमेडी शो’ से तथाकथित धर्मरक्षक आहत हो जाते हैं। लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों को ‘हिंदू विरोधी’, ‘देशद्रोही’, ‘आतंकवादी’, ‘नक्सली’ घोषित करके उन्हें नुकसान पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। सोशल मीडिया पर धमकियां, लांछन और चरित्र हनन तो है ही, उन्हें दिनदहाड़े जान से मार भी दिया जाता है। यही ज़हर गौरी लंकेश, नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे जैसे तमाम लेखकों और चिंतकों की हत्या के लिए ज़िम्मेदार है, जिन्होंने सामाजिक कुरीतियों और नाइंसाफियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई।
सिर्फ़ बड़े लेखक और कलाकार ही नहीं, हर वह औरत जो मौजूदा सामाजिक या शासन व्यवस्था का विरोध करने की हिम्मत रखती है, इसी तरह के हमले का निशाना बनती है।
लेखक या पत्रकार हो या कोई अभिनेता या हास्य कलाकार, ‘देश विरोधी’ और ‘हिंदू विरोधी’ होने का इल्ज़ाम कभी भी, किसी पर भी लगाकर उसे हर तरह के शारीरिक हमले और धमकियों का निशाना बनाना अब आम बात हो गयी है और इसका सबसे बुरा प्रभाव पड़ रहा है महिलाओं पर। महिलाओं पर हमला करने का मुख्य तरीका है यौन उत्पीड़न और उनका चरित्र हनन। अग्रिमा अकेली नहीं हैं जिन्हें अपने विचारों के लिए ‘रंडी’ बुलाया गया या बीच सड़क पर उनका शोषण करने की धमकी दी गई। आए दिन हम देखते हैं कैसे सोशल मीडिया पर महिला पत्रकारों, राजनेताओं, कलाकारों, बुद्धिजीवियों के चरित्र और यौनिकता पर सवाल उठाए जाते हैं, उनके नाम पर अश्लील वीडियो और तस्वीरें फैलाई जाती हैं और गंदी भाषा में उन्हें अमानवीय शारीरिक हिंसा की धमकियां दी जातीं हैं।
सिर्फ़ बड़े लेखक और कलाकार ही नहीं, हर वह औरत जो मौजूदा सामाजिक या शासन व्यवस्था का विरोध करने की हिम्मत रखती है, इसी तरह के हमले का निशाना बनती है। हमें याद है किस तरह शाहीन बाग़ में नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाली महिलाओं पर वेश्यावृत्ति का इल्ज़ाम लगाया गया था। सफ़ूरा ज़रगर के गर्भवती अवस्था में गिरफ़्तार होने पर उनके बच्चे के पिता के परिचय पर सवाल उठे थे और छिछली टिप्पणियां की गई थीं। मुख्यधारा से विपरीत विचार रखनेवाली बेबाक औरतों पर उंगली उठाना तो लगभग रोज़ का मामला है ही।
जिस देश में लगभग हर चौथी औरत बलात्कार और यौन उत्पीड़न का शिकार रह चुकी है, जिसे ‘महिलाओं के लिए सबसे ख़तरनाक देश’ के तौर पर जाना जाता है, वहां इस प्रकार औरतों का लांछन और शोषण कल्पना से परे नहीं है। अग्रिमा जॉशुआ जैसे कलाकार ही नहीं, हम में से कोई भी इसका निशाना बन सकता है। दुख की बात यह है कि जिन ऐतिहासिक महापुरुषों के सम्मान के बहाने अग्रिमा जैसी महिलाओं पर आक्रमण किया जाता है, वे खुद ही कभी इसका समर्थन नहीं करते बल्कि वे खुद सबसे पहले इसका विरोध ही करते।