विचार/लेख
इमरान कुरैशी
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों राज्य की विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को राज्यपालों द्वारा दबाए रखने को भले ही ‘आग से खेलने वाला’ और इसे ‘चिंता का विषय’ बताया हो लेकिन हालत ये है कि कई राज्यों में सरकारों के फैसले पर राज्यपाल अनुमति नहीं देते और वे सालों-साल तक कानून नहीं बन पाते।
ऐसे ही टकरावों पर अलग अलग राज्यों में क्या है स्थिति बता रहे हैं बीबीसी के सहयोगी पत्रकार।
सडक़ पर उतरे केरल के राज्यपाल
ऐसा लगता है कि राज्यों के राज्यपालों के बीच एक अनुचित प्रतिस्पर्धा विकसित हो रही है। एक के बाद एक प्रोटोकॉल उल्लंघन की घटनाएं सामने आ रही हैं।
राज्यपाल ऐसे कदम उठा रहे हैं जो देश ने पहले कभी नहीं देखा है।
एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने प्रोटोकॉल के सभी मानदंडों को तोड़ दिया।
वे कोझिकोड की सडक़ों पर अकेले चले और एक दुकानदार द्वारा पेश किए गए कोझिकोडन हलवे का स्वाद चखा।
सादे कपड़ों में पुलिसकर्मी उन्हें किसी भी अप्रिय घटना से बचाने के लिए उनके साथ चल रहे थे।
कोझिकोड में राज्यपाल का विरोध
ये उस समय हुआ है जब दो दिन पहले स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) के कार्यकर्ता ‘गो बैक-गो बैक’ के नारे लगा रहे थे।
उन्होंने बैनर लगा रखे थे, जिन पर लिखा था, ‘मिस्टर चांसलर, आपका यहां स्वागत नहीं है।’
इसके ठीक 12 महीने पहले, उनके समकक्ष तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने कुछ ऐसा किया जो भारतीय विधायिका के इतिहास में किसी दूसरे राज्यपाल ने नहीं किया था।
वह विधानसभा में अपने पारंपरिक संबोधन को बीच में छोडक़र चले गए थे, क्योंकि सत्तारूढ द्रमुक के सदस्यों ने उनके उस भाषण को नहीं पढऩे का विरोध किया, जिसे राज्य कैबिनेट ने संविधान के मुताबिक मंजूरी दी थी।
एक राज्यपाल राज्य के प्रमुख के तौर पर नए साल के पहले दिन जब विधानमंडल की बैठक होती है तो अपने संबोधन में सरकार को ‘मेरी सरकार’ बताता है।
एक राज्यपाल को जैसा कि संविधान इजाजत देता है या जैसा सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि निश्चित रूप से, मुख्यमंत्री या सरकार की सलाह के मुताबिक काम करना होता है।
तमिलनाडु के राज्यपाल ने तोड़ी परंपरा?
लेकिन राज्यपाल रवि ने विधानसभा के बाहर अपनी सरकार, इस मामले में द्रमुक सरकार की आलोचना कर स्थापिक परंपरा को तोड़ दिया। इसी तरह की प्रतिस्पर्धात्मक भावना से राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद ख़ान केरल की वामपंथी लोकतांत्रिक मोर्चा सरकार की आलोचना भी करते रहे हैं।
चेन्नई स्थित राजनीतिक विश्लेषक एन सत्यमूर्ति ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘राजभवन के भीतर राजनीति हमेशा चलती रहती थी, जो पुराने समय के मशहूर ‘आया राम, गया राम’ में परिलक्षित होती है। लेकिन कोई भी राज्यपाल अपनी ही सरकार की आलोचना करने की सीमा तक नहीं गया।’
उन्होंने कहा, ‘वर्तमान राज्यपाल वैचारिक और विवादास्पद मुद्दों पर बोलने लगे हैं।’
पूर्व कुलपति और राजनीतिक टिप्पणीकार प्रोफेसर जे प्रभाष तिरुवनंतपुरम में रहते हैं। उन्होंने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘एक नागरिक के रूप में, हम राज्यपाल के पद पर बैठे व्यक्ति से कुछ मर्यादा की उम्मीद करते हैं। ऐसी कार्रवाइयों से हो यह रहा है कि विश्वविद्यालयों का नियमित कामकाज बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। अभी 15 विश्वविद्यालयों में से करीब नौ में पूर्णकालिक कुलपति नहीं हैं।’
राज्यपाल रवि और राज्यपाल खान दोनों के मामले में, विश्वविद्यालयों पर नियंत्रण को लेकर संबंधित राज्य सरकारों के साथ उनका टकराव शुरू हो गया है। राज्यपालों ने कुलाधिपति के रूप में विश्वविद्यालयों के मामलों में हस्तक्षेप करने का प्रयास किया है। सामान्य परिस्थितियों में कुलाधिपति राज्य सरकारों की सिफारिशों को मंजूरी देते हैं।
उनके कार्यों या निष्क्रियताओं ने संबंधित सरकारों को कुलपतियों की नियुक्तियों में कुलाधिपति की शक्तियों पर अंकुश लगाने के लिए कानून बनाने के लिए प्रेरित किया है। राज्यपाल खान की ओर से नौ कुलपतियों से इस्तीफा मांगने के बाद केरल सरकार ने यह कानून पेश किया।
लेकिन दोनों राज्यपालों ने विधानसभाओं की ओर से पारित कानूनों के बारे में कुछ नहीं किया। तमिलनाडु और केरल सरकारों के सुप्रीम कोर्ट जाने के बाद कुछ हलचल हुई। सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ को संविधान पढक़र यह कहना पड़ा कि राज्यपालों के पास ‘इसे स्वीकार करने, इसे वापस करने या इसे राष्ट्रपति को भेजने’ के अलावा कोई और विकल्प नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल रवि को मुख्यमंत्री एमके स्टालिन को चाय पर आमंत्रित करने और मुद्दों पर चर्चा करने के लिए कहा जिसके बाद दोनों की मुलाकात भी हुई। हालांकि इस मुलाकात के बाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बॉडी लैंग्वेज़ से ऐसा लग रहा था कि दोनों ही सुलह को लेकर उदासीन हैं।
मुख्यमंत्री और राज्यपाल में जुबानी जंग
राज्यपाल खान के कामकाज और बयानों की वजह से मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन के साथ जुबानी जंग छिड़ी हुई है।
राज्यपाल ने एसएफआई को ‘अपराधी’ कहा है। इस पर मुख्यमंत्री ने गंभीर आपत्ति जताई है। उन्होंने कहा है कि उनकी सरकार को केंद्र से उन्हें वापस बुलाने के लिए कहेगी।
प्रोफेसर प्रभाष कहते हैं, ‘लोग सरकार को जिम्मेदार ठहराएंगे, भले ही हर कोई जानता है कि यहां राज्यपाल का एक एजेंडा है।’
सत्यमूर्ति कहते हैं, ‘यहीं तक नहीं है, तेलंगाना की राज्यपाल तमिलसाई सुंदरराजन अपने गृह राज्य के दौरे पर आती हैं। वे एक द्रमुक मंत्री की आलोचना करती हैं। वो यह भूल जाती हैं कि अब वो राज्यपाल हैं। वो किसी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी पर हमला नहीं कर सकतीं हैं।’
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश रोहिंटन नरीमन ने पिछले हफ्ते एशियाटिक सोसाइटी से कहा था कि राज्यपालों का इस तरह का काम राज्य की सभी विधायी गतिविधियों को ठप कर देता है।
कितने विधेयक लंबित हैं पश्चिम बंगाल में
प्रभाकर मणि तिवारी, कोलकाता
पश्चिम बंगाल में राजभवन और राज्य सचिवालय के बीच टकराव का इतिहास यूं तो बहुत लंबा रहा है। लेकिन खासकर तत्कालीन राज्यपाल जगदीप धनखड़ के कार्यभार संभालने के बाद जिस तेजी से यह टकराव चरम पर पहुंचा, उसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती।
उस दौरान सरकार और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सार्वजनिक हित वाले विधेयकों को मंजूरी नहीं देने का आरोप लगाती रही थी।
इनमें सबसे अहम था जून 2022 में पारित एक विधेयक को लेकर है। इसमें राज्य सरकार की ओर से संचालित विश्वविद्यालयों के चांसलर के रूप में राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री को नियुक्त करने का प्रावधान है। लेकिन जगदीप धनखड़ ने महीनों उसे लंबित रखा और आखिर उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनने के कारण उनके अपने पद से इस्तीफा देने तक यह जस का तस पड़ा रहा।
धनखड़ की जगह सीवी आनंद बोस के नए राज्यपाल बनने के बाद भी तमाम विधेयकों पर सरकार और राज्यपाल में गतिरोध जारी है। हालांकि राजभवन की ओर से बीते सप्ताह जारी एक बयान में कहा गया है कि राज्यपाल के पास कोई विधेयक लंबित नहीं है। सिवाय उन विधेयकों के जिनके बारे में राज्य सरकार से स्पष्टीकरण की जरूरत है या जो अदालत में विचाराधीन हैं।
राज्यपाल के पास लंबित हैं सात विधेयक
इसमें कहा गया है कि विश्वविद्यालय मामलों से संबंधित सात अन्य विधेयक न्यायालय में विचाराधीन हैं। बयान के मुताबिक, विधानसभा अध्यक्ष की टिप्पणी के बाद राजभवन में एक समीक्षा बैठक आयोजित की गई।
बनर्जी ने कहा था कि 2011 से कुल 22 विधेयक राजभवन में मंजूरी का इंतजार कर रहे हैं। उन्होंने कहा था, ‘2011 से 2016 तक तीन विधेयक, 2016 से 2021 तक चार और 2021 से अब तक 15 विधेयक अनसुलझे हैं। इनमें से छह विधेयक वर्तमान में सीवी आनंद बोस के विचाराधीन हैं।’
इससे पहले मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आरोप लगाया था कि राज्यपाल ने कई विधेयकों को रोक रखा है। उनका आरोप था, राज्यपाल आनंद बोस राज्य प्रशासन को पंगु बनाने का प्रयास कर रहे हैं। मुख्यमंत्री ने कहा था कि इसके खिलाफ जरूरत पड़ी तो वे राजभवन के समक्ष धरने पर बैठेगीं।।
बिहार: राजभवन से सामंजस्य बना लेती है नीतीश सरकार
सीटू तिवारी
बिहार में राज्यपाल राजेंद्र विश्वनाथ आर्लेकर ने इसी साल फरवरी में पद संभाला था। इसके पांच महीने के भीतर ही राज्य सरकार से राजभवन की तनातनी शुरू हो गई थी। ये तनातनी शिक्षा विभाग से संबंधित फैसलों को लेकर थी। सबसे पहले 25 जुलाई 2023 को राज्यपाल सचिवालय ने एक पत्र जारी किया। इसके मुताबिक राज्य के सभी विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तरीय पाठ्यक्रम में सत्र 2023 -24 के लिए च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम और सेमेस्टर सिस्टम लागू होगा।
25 जुलाई को जारी इस आदेश से पहले ही शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव केके पाठक ने राजभवन सचिवालय को पत्र लिखकर चार वर्षीय पाठ्यक्रम पर फिर से विचार करने का अनुरोध किया था। खुद राज्य के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने इस पर एतराज जताते हुए कहा था, ''राज्य के पास संसाधन नहीं हैं। अभी तीन साल का ग्रेजुएशन पांच साल में पूरा हो रहा है, ऐसे में जब चार साल का ग्रेजुएश होगा तो वो सात साल में पूरा होगा।’
राज्यपाल और राज्य सरकार आमने सामने
जुलाई के बाद अगस्त के पहले सप्ताह में राजभवन ने विश्वविद्दालयों में कुलपति की नियुक्ति के लिए विज्ञापन जारी किया। इस बीच शिक्षा विभाग ने बाबा साहब भीमराव आंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर के कुलपति और प्रति कुलपति के वेतन पर रोक लगाते हुए उनके वित्तीय अधिकार पर रोक लगा दी।
राजभवन ने जब इस रोक को हटाने का आदेश दिया तो शिक्षा विभाग के सचिव वैद्यनाथ यादव ने राजभवन को लिखे पत्र में स्पष्ट कहा कि राज्य सरकार विश्वविद्यालयों को सालाना 4000 करोड़ रुपये देती है, ऐसे में शिक्षा विभाग को विश्वविद्यालयों को उनकी जिम्मेदारी बताने और पूछने का पूरा अधिकार है।
राजभवन के कुलपति की नियुक्ति पर निकले विज्ञापन के बाद 22 अगस्त को शिक्षा विभाग ने भी कुलपति की नियुक्ति का विज्ञापन जारी किया। इसके बाद टकराव की स्थिति बढ़ी तो 23 अगस्त को खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजभवन जाकर राज्यपाल से मुलाकात की। नीतीश कुमार ने राजभवन और सरकार की तकरार पर पत्रकारों से कहा था, ‘सब कुछ ठीक-ठाक है और किसी तरह की तकरार नहीं है।’
राजभवन ने भी इस मुलाकात के बाद कहा, ‘इस मुलाकात में उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालयों से संबंधित विषयों पर सम्मानपूर्ण विमर्श किया।’ (bbc.com)
(बाकी कल के अंक में)
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
देश की 54 दवा निर्माता कंपनियों के कफ सिरप के 128 सैंपल्स का गुणवत्ता में खरा नहीं उतरना वास्तव में चिंता का विषय होने के साथ ही किसी जघन्य अपराध से कम नहीं आका जाना चाहिए। मामला सीधे स्वास्थ्य से जुड़ा होने के साथ ही देश की अस्मिता को भी प्रभावित करने वाला है। दरअसल भारतीय दवा निर्माता कंपनियों द्वारा निर्यात किए जाने वाले कफ सिरप की गुणवत्ता को लेकर गाम्बिया में 70 बच्चों और उजबेकिस्तान के 18 बच्चों के कफ सिरप के कारण किडनी पर गंभीर असर होने से मौत होने के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह मुद्दा गंभीरता से उठ गया और ऐसे हालात में विश्व स्वास्थ्य संगठन डब्लूएसओ ने गंभीर चिंता जताने में कोई देरी नहीं की। लाख सफाई देने के बावजूद इससे ना केवल देश की प्रतिष्ठा पर प्रभाव पड़ा है अपितु भारत के दवा उद्योग को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शर्मिंदा होना पड़ा है। हांलाकि इस घटना के बाद भारत सरकार ने 1 जून, 2023 से ही देश से बाहर निर्यात होने वाले कफ सिरप की गुणवत्ता व मानकों पर खरा होने का सरकारी प्रयोगशाला से परीक्षण कराकर विश्लेषण प्रमाण पत्र प्राप्त करना जरुरी कर दिया है।
दरअसल अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय दवा उद्योग का दबदबा होने के साथ ही वैक्सीन निर्माण, गुणवत्ता और प्रतिस्पर्धात्मक दरों पर उपलब्ध होना बड़ी उपलब्धता रही है। हमारे देश में बनी जेनेरिक दवाओं की तो अमेरिका सहित दुनिया के देशों में जबरदस्त मांग है।
दरअसल देखा जाये तो भारतीय दवा उद्योग की विश्वव्यापी पहचान और धाक है। कोरोना का उदाहरण हमारे सामने हैं जब अमेरिका द्वारा मलेरिया की दवा प्राप्त करने के लिए भारत पर दबाव बनाया गया वहीं दुनिया के देशों को सर्वाधिक कोरोना वैक्सिन उपलब्ध कराने में भारत की भूमिका को समूचे विश्व द्वारा सराहा गया। ऐसे में कफ सिरप की गुणवत्ता को लेकर उठाया गया प्रश्न चिन्ह ना केवल चिंता का प्रश्न है अपितु विश्वसनीयता को भी प्रभावित करता है। दवाओं के निर्यात में भारत की भूमिका को इसी से देखा जा सकता है कि भारत द्वारा वित्तीय वर्ष 2022-23 में 17.6 बिलियन डालर के तो केवल कफ सिरप का निर्यात किया गया। दुनिया के देशों की टीकों की मांग की 50 प्रतिशत पूर्ति हमारे देश द्वारा की जा रही है। अमेरिका में जेनेरिक दवाओं की 50 प्रतिशत मांग को हमारे यहां से किया जा रहा है। इंग्लैण्ड में दवाओं की मांग की 25 प्रतिशत पूर्ति भारत द्वारा की जा रही है। समूचे विश्व में भारतीय दवाओं की मांग है। इसका एक कारण गुणवता है तो दूसरी और तुलनात्मक रुप से सस्ती होना भी है। ऐसे में कफ सिरप के कुछ सैंपलों का गुणवत्ता मानकों पर खरा नहीं उतरने की रिपोर्ट भारत सरकार गंभीर हो गई। पर सवाल यह उठता है कि ऐसे हालात ही क्यों आएं? आखिर निर्यात करने वाली दवा कंपनियों का भी दायित्व होता है। जब कोई वस्तु विशेष में निर्यात की जाती है तो गुणवत्ता मानकों पर खरी हो यह तो सुनिश्चित किया जाना जरुरी हो जाता है। वैसे भी दवा जीवन रक्षक होती है अगर यह जीवन रक्षक दवा ही जीवन लेने का कारण बन जाती है तो यह गंभीर अपराध हो जाता है।
प्राप्त सरकारी आंकड़ों के अनुसार केन्द्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन संस्थान द्वारा विभिन्न कंपनियों के कफ सिरप के ग सैंपल्स का परीक्षण किया गया, इनमें से 54 कंपनियों के 128 सैंपल्स गुणवत्ता मानकों पर खरे नहीं उतरे। अब कहा यह जा रहा है कि केवल 6 प्रतिशत सैंपल्स विफल रहे हैं पर सवाल 6 प्रतिशत का नहीं है। यह सफाई भी नहीं दी जा सकती क्यों कि सैंपल तो एक भी विफल होता है तो वह किसी की जान लेने का कारण बन सकता है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही गुजरात के 385 सैंपल्स में से 20 कंपनियों के 51 नमूने खरे नहीं उतरे। इसी तरह से मुंबई के 523 सैंपल में से 10 दवा निर्माता कंपनियों के 18 सैंपल्स विफल रहे। चंडीगढ़ के 284 सैंपल्स में से 10 कंपनियों के 23 और गाजियाबाद के 502 सैंपल्स में से 9 कंपनियों के 29 सैंपल्स गुणवत्ता पर खरे नहीं उतरे।
सवाल यह है कि यह तो गुणवत्ता मानकों की जांच से सामने आया है और यह तो तब है जब दवा निर्माता कंपनियों का अपना परीक्षण का सेटअप होता है। इससे यह भी साफ होता है कि दवा निर्माता कंपनियों की प्रयोगशालाएं गुणवत्ता जांच को लेकर उतनी गंभीर नहीं है जितनी गंभीरता होनी चाहिए। इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि देश में नकली दवाओं का व्यापार भी खूब फल फूल रहा है। सवाल यह भी उठता है कि कफ सिरप की मांग और उपयोग का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि सर्दियों में कफ सिरप की मांग बहुत अधिक बढ़ जाती है। वहीं कुछ कफ सिरप का उपयोग तो नशे की मांग को पूरा करने के लिए भी उपयोग की चर्चा भी आम है। केन्द्र सरकार का कहना है कि सरकार द्वारा 125 से अधिक कंपनियों का जोखिम आधारित विश्लेषण किया गया जिसमें से 71 कंपनियों को नोटिस जारी कर स्पष्टीकरण चाहा गया है। 18 कंपनियों को बंद करने के नोटिस दिए गए हैं। इसे सरकार की सकारात्मक पहल माना जा सकता है पर जो कुछ किया जा रहा है वह नाकाफी हैं। सरकार को कड़े कदम उठाने ही होंगे। कंपनियों को बंद करना इसका कोई ईलाज नहीं हो सकता। कल यही किसी दूसरे नाम से कंपनी बनाकर सामने आ जाएंगे। वैसे भी नकली दवा बनाना या गुणवत्ता मानकों में दवाओं का विफल रहना किसी क्रिमिनल अपराध से कमतर नहीं माना जाना चाहिए। ऐसे में कठोर से कठोर सजा के प्रावधान होने के साथ ही ऐसे उदाहरण भी सामने आने चाहिए कि नकली या गुणवत्ता पर खरी नहीं उतरने पर दवा निर्माता को कठोर दंड दिया गया। कपंनियों को भी अपनी प्रयोगशाला को अधिक आधुनिक व इंटरनेशनल मानकों की बनानी होगी ताकि इस तरह की हालात ही ना आयें।
उमंग पोद्दार
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस संजय किशन कौल ने कहा है कि देश में बहुमत की सरकारें न्यायपालिका पर दबाव बनाती हैं, लेकिन ऐसा वर्षों से होता रहा है।
बीबीसी के साथ विशेष बातचीत में उन्होंने कहा कि 1950 के बाद से ऐसा कई बार हुआ है।
उन्होंने इस दौरान 1975 से 1977 के दौर का भी जि़क्र किया और उस दौरान न्यायपालिका पर सवाल उठाए जाने की भी बात कही।
बोलने की आजादी के बारे में भी जस्टिस कौल ने कहा कि ये एक सामाजिक समस्या है। इस इंटरव्यू के दौरान उन्होंने स्वीकार किया कि समाज में इस तरह की दिक्कतें बढ़ी हैं।
बीबीसी के साथ इंटरव्यू में उन्होंने जजों की नियुक्ति, समलैंगिक विवाह और अनुच्छेद 370 पर आए फैसलों का भी बचाव किया।
न्यायपालिका तब और अब
सवाल - क्या आपको लगता है कि पहले न्यायाधीश जिस तरह के फ़ैसले दे सकते थे, या देते थे, आज के दिन भी वैसे ही निर्णय दे सकते हैं या उस पर कुछ असर पड़ा है?
जस्टिस कौल- ‘देखिए, ये एक प्रोसेस रहा है। अगर आप 1950 से देखेंगे तो ये प्रोसेस रहा है।
साल 1975 से 1977 के दौर में भी एक प्रोसेस रहा है। मैं ये कहूंगा कि हमेशा थोड़ी खींच-तान रहेगी, न्यायपालिका और कार्यपालिका में। वो अच्छा भी है कि थोड़ा सा टर्फ वॉर (खींच-तान) रहे।
न्यायपालिका का काम है, चेक एंड बैलेंस करना। जब हमारे पास इलेक्टोरल सिस्टम ऑफ डेमोक्रेसी है। उसमें जब गठबंधन सरकारें होती हैं तो न्यायपालिका का थोड़ा पुश बैक कम हो जाता है।
जब कोई ज़्यादा बहुमत से आए तो उन्हें लगता है कि हमें पब्लिक मैंडेट (जनता का समर्थन) है। तो वो परसीव (ऐसा लगता है) करते हैं कि न्यायपालिका हमारे काम में दखल क्यों दे रही है तो थोड़ा न्यायपालिका की तरफ पुशबैक ज़्यादा हो जाता है। ये थोड़ा तो खींच-तान रही है और रहेगी।’
सवाल- तो अभी पुश-बैक बढ़ा है?
जस्टिस कौल - ‘जब मेजोरिटी गवर्नमेंट (बहुमत वाली सरकार) होगी तो हमेशा पुश-बैक (दबाव) थोड़ा सा ज़्यादा होगा।’
सवाल - ये पुश-बैक किस तरह बढ़ता है?
जस्टिस कौल- ‘पुश-बैक इस तरह होता है कि एक लाइन है, उसके एक तरफ न्यायपालिका है और दूसरी ओर वो (कार्यपालिका) है।
मेरा मानना है कि जब-जब गठबंधन सरकारें आती हैं तो ये संभव है कि अदालत एक आध कदम उस लाइन के बाहर भी ले जाए। जब मेजोरिटी गवर्नमेंट (बहुमत वाली सरकारें) आती हैं तो वो (कोर्ट) पीछे आते हैं।
वो लार्जली (मोटे तौर पर) इस बात पर पीछे आते हैं कि मेजोरिटी गवर्नमेंट (बहुमत वाली सरकार) मानती है कि जो वो क़ानून ला रही है वो पब्लिक मैंडेट (जनमत) के साथ ला रही है। इसलिए उस पब्लिक मैंडेट (जनमत) का सम्मान करना चाहिए क्योंकि वो एक लोकतंत्र है।
कोर्ट की इसमें दखलअंदाजी कम होनी चाहिए। उसमें जब कोर्ट चैलेंज होता है और उसको हम देखते हैं तो उनको लगता है कि संसद ने तो (कानून) पास कर दिया है, हमारा काम है, कानून बनाना। आप इस चीज में क्यों दखलअंदाजी क्यों कर रहे हैं।
लेकिन कोर्ट की भूमिका का फुल एपरीसिएशन (पूरा महत्व) नहीं है। क्योंकि उसका काम ही है कि किस केस में दखलअंदाजी करना है, देखने के लिए। थोड़ा बहुत मतभेद रहे तो अच्छा ही है क्योंकि ये सिस्टम की वाइब्रेंसी दिखाता है।’
सवाल- आपको लगता है कि भारत में इस समय फ्री स्पीच (अभिव्यक्ति की आजादी) का जो स्टेटस है, आप जबसे जज बने हैं तब से आप इसमें किसी तरह का ट्रेंड देख रहे हैं। आपको लगता है कि अभिव्यक्ति की आजादी कम हुई है?
जस्टिस कौल - मेरा विचार ये है कि जो लिखता है, उसको लिखने दीजिए, जो पेंट कर रहा है, उसे पेंट करने दीजिए। मेरी अपनी सोच रही है कि हिंदुस्तानी सोसाइटी बहुत लिबरल (उदार) रही है। किसी धर्म का कुछ मानना है, किसी दूसरे धर्म का कुछ और मानना है।
अगर इतने डायवर्स देश (विविधताओं से भरे) को एक साथ रखना है और एक साथ रहना है तो एक दूसरे को टॉलरेट (सहना) करना तो सीखना पड़ेगा। मैं एक मज़बूत विश्वास रखता हूँ कि हर आदमी को अपनी जि़ंदगी को अपनी तरह जीने का हक है।
सवाल-क्या आपको लग रहा है कि अभी इस दौर में इस पर असर पड़ा है, जैसे अगर हम देखें तो इंडिया की प्रेस फ्रीडम इंडेक्स रेटिंग काफी गिर रही है। कितने पत्रकारों के खिलाफ मामले बढ़ रहे हैं, कुछ लिखने के लिए, कुछ करने के लिए?
जस्टिस कौल - देखिए कहीं न कहीं, कुछ दिक्कतें सामने आई हैं। लेकिन मैं किसी पीरियड (समय विशेष) पर इसे फिक्स नहीं करना चाहूंगा।
मैं इसे एक सामाजिक समस्या के रूप में देखता हूँ। अगर आप समाज को देखिए तो कहीं न कहीं हमारी एक दूसरे के प्रति सहिष्णुता कम हुई है।
और मैं देश की बात नहीं कर रहा हूं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यही समस्या है।
हम मानते हैं कि माई-वे या हाई वे नहीं होना चाहिए। या तो मेरा रास्ता मानो या नहीं। तभी कोई कहता है कि वो भक्त हैं, वो ओपोनेंट हैं।
न्यायपालिका में यौन शोषण के मामले
सवाल- हाल ही में यूपी में एक सिविल जज थीं, उन्होंने चीफ जस्टिस को पत्र लिखा कि उनके जो जिला जज हैं, उन्होंने उनके साथ यौन उत्पीडऩ किया है। उसके बाद उनकी आईसीसी में शिकायत भी बहुत मुश्किल से दर्ज हो सकी। अब वो कह रही थीं कि उन्हें इथूनेशिया करने की इजाजत दे दी जाए क्योंकि उनमें अब जीने की कोई इच्छा नहीं रह गई है। तो ऐसे हमने पहले भी देखा कि जो पहले चीफ़ जस्टिस रह चुके हैं, रंजन गोगोई, उनके खिलाफ भी आरोप आए थे। अब जिला न्यायालय में एक जज हैं उनके खिलाफ आरोप लगाए गए हैं। ऐसे में न्यायपालिका के अंदर से जो यौन उत्पीडऩ की शिकायतें आती हैं, आपको लगता है कि न्यायपालिका उससे निपटने में पूरी तरह से असमर्थ रही है।
जस्टिस कौल- देखिए, भगवान जज को ऊपर से नहीं टपकाते हैं। वे भी हमारी सोसाइटी का हिस्सा हैं। ऐसे में जज से अपेक्षाएं ज़्यादा होती हैं। लेकिन वो एब्सोल्यूट नहीं हो सकतीं। कुछ मामले होंगे, जिनसे निपटा जा सकता है। अब ये एक खास मामला है, जिसकी जानकारी मुझे नहीं हैं।
लेकिन हर चीज में एक आरोप होता है और एक बचाव भी होता है। क्या हम आरोपों को फाइनल मान लें? और दूसरे शख्स को बर्बाद कर दें? बिना ये जांच किए कि उसने कोई गलती की है या नहीं?
मैं इसे एक भावुक प्रतिक्रिया समझूंगा कि मुझे मरने की अनुमति दीजिए। कुछ चि_ी लिखी है तो अटेंड हुई है। चीफ जस्टिस ने देखा है, उसे अटेंड किया है। ये नहीं है कि नजरअंदाज कर दी गई हो।
कभी-कभी एक पक्ष को लगता है कि मेरे तरीके से नहीं हो रहा है।।।है तो एड्रेस होगी। और सही ।।।नहीं है तो ये नहीं हो सकता कि जो नतीजा मुझे चाहिए, वही नतीजा चाहिए। ये किसी भी चीज़ में है।
सवाल- हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट में जातिगत प्रतिनिधित्व को आप कैसे देखते हैं। विधि मंत्रालय के मुताबिक़, 5 सालों में हुईं 659 नियुक्तियों में 75त्न लोग सामान्य वर्ग के थे। एससी सिर्फ 3।5त्न और एसटी 1।5त्न और ये स्थिति सुप्रीम कोर्ट में भी रही है। इसकी क्या वजहें हैं?
जस्टिस कौल- न्यायिक नियुक्तियां तीन चरणों में होती हैं। सब-ऑर्डिनेट जजेज़ की जो नियुक्तियां होती हैं, उनमें आरक्षण होता है। उसे अमल में भी लाया जाता है। हाई कोर्ट के एक तिहाई जज उसी में से आते हैं। तो वो एक तिहाई का तो प्रतिनिधित्व हो गया।
हम बात कर रहे हैं वो जो बार (वकालत करने वाले वकीलों का संघ) से आते हैं। अब कई बार सामाजिक उत्थान यहां नहीं उतना हुआ है। तो आपको बार में किस एज में देखना है।आपने देखना है, 45 से 50 साल के उम्र वर्ग की ओर। इसी आठ दस साल के वक़्त में आपको प्रतिनिधित्व देखना होगा।
अगर किसी विशेष समुदाय से वकील देखेंगे, कोई कंशेसन देंगे। चीज़ देखेंगे। लेकिन अगर नहीं है तो जबरदस्ती इस चीज़ को कैसे किया जा सकता है।
महिलाओं की नियुक्तियों की बात करें तो मैं कई बार कहता हूं कि कई पोस्ट्स में महिलाओं की नियुक्तियां 50 फीसद से ज़्यादा हो रही हैं। अब 25 साल पहले महिलाएं नहीं थीं तो आज उन्हें कैसे कंसीडर किया जाएगा। फिर भी उस पहलू को देखा जाता है। कई बार जब सरकार कि दिलचस्पी होती है तो ऐसा नहीं कि वह कास्ट या कम्यूनिटी नहीं देखती है। ऐसे में प्रतिनिधित्व तो है, लेकिन उचित प्रतिनिधित्व में थोड़ा वक््त लगता है।
सवाल - क्या सरकार जजों की नियुक्ति के मामले में कोर्ट के आदेश का पालन नहीं कर रही थी?
जस्टिस कौल - जबसे ये कॉलेजियम सिस्टम आया है तो ये पॉलिटिकल क्लास को लगता था कि नहीं हमारा कुछ रोल होना चाहिए।
एनजेसी को सरकार ने पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया। एक तरफ से वो स्वीकार नहीं कर रहे थे एक तरफ़ से कॉलेजियम अपनी सिफारिश दे रहा था।
सवाल-अभी आपका 5 दिसंबर को जजों की नियुक्ति से जुड़ा हुआ, इसकी अंतिम सुनवाई में आपने कहा था कि कुछ चीजों को बिन कहे छोड़ देना चाहिए। आपका क्या आशय था?
जस्टिस कौल-‘मैंने डेट दी थी, हालाँकि वो मैटर लगा नहीं। कोर्ट की रजिस्ट्री चीफ जस्टिस के अंडर काम करती है। अगर वो नहीं लगाया तो मैं इस चीज़ में ज़्यादा जाऊंगा नहीं। क्योंकि मैं समझता हूं कि ये उनका अधिकार क्षेत्र है। इसलिए मैंने कहा कि मैं इसमें क्या कह सकता हूं।
चीफ जस्टिस के साथ इस विषय पर चर्चा हुई थी लेकिन मैं इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं करूंगा।
यह इंटरनल सिस्टम है। हाँ मैंने जिक्र किया था। इस चीज में मैं ज़्यादा कुछ कहना नहीं चाहूँगा। रिटायरमेंट के बाद इस चीज पर मैं रोशनी डालना उचित नहीं समझता हूं।’
और किस किस की लिस्टिंग किस कोर्ट में होनी चाहिए ये चीफ जस्टिस का प्रेरोगेटिव है। चीफ जस्टिस को ट्रस्ट करना होगा इस मामले में।
पहले जिन जजों को इस सिस्टम से दिक्कत थी, जब वो चीफ जस्टिस बने कोई भी इसका कुछ अच्छा नतीजा नहीं निकाल पाए।
आगे कोई चीफ जस्टिस ये देख सकते हैं कि अगर कुछ बेहतर किया जा सके तो।
सवाल- एक तरफ इलेक्टोरल बॉन्ड जैसे अहम मुद्दे अभी भी अदालत में लंबित हैं, वहीं समलैंगिक विवाह जैसे मुद्दे पर एक साल में फैसला भी आ गया? इसे आप कैसे देखते हैं?
जस्टिस कौल - ‘मेरा यह मानना है संवैधानिक मामलों पर जल्दी फ़ैसले होने चाहिए क्योंकि इनसे बड़े मामलों का समाधान होता है। कहीं न कहीं बात वहीं जाकर अटक जाती है कि चीफ जस्टिस लिस्टिंग करते हैं। एक हद तक उसके अधिकार क्षेत्र में आ जाता है।’
सेम सेक्स मैरिज, चीफ जस्टिस के अधिकार क्षेत्र में ये एक सामाजिक मुद्दा था। चीफ जस्टिस के विचार में इसे महत्व देना था। रिजल्ट चाहे कुछ और ही निकला हो।
अनुच्छेद 370 पर कोर्ट का रुख
सवाल-अनुच्छेद 370 से जुड़े दो मुद्दे थे-पहला ये कि इसे हटाया जाना क़ानूनी था या नहीं। और दूसरा मुद्दा था कि जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बाँटा जाना सही था या नहीं। दूसरे मुद्दे पर कोर्ट ने कहा कि चूंकि एक सॉलिसिटर जनरल ने आश्वासन दिया है कि राज्य का दर्जा वापस आ जाएगा तो इस पर हमें कोई टिप्पणी देने की ज़रूरत नहीं है। पूर्व न्यायाधीश जस्टिस रोहिंटन नरीमन का कहना था कि न फैसला करना भी अपने आप में एक फैसला करना है।
जस्टिस कौल- बयान सिर्फ सॉलिसिटर जनरल का नहीं था। ये गृह मंत्री की ओर से संसद में दिए गए बयान पर टिका था। अब कोई चीज़ किसी सिद्धांत पर तय हुई है तो उसमें कुछ नहीं होता है, आगे जाकर तो एक एवेन्यू है, इसमें कोई शक नहीं है।
सवाल- ये जो वापस होने वाला बयान है, इसकी कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। दूसरे कानून के जानकारों का भी मानना था कि कोर्ट को एक फैसला देना चाहिए था।
जस्टिस कौल - क़ानून एक ऐसी चीज़ है, जिसमें विचारों की विविधता रहेगी। इसी वजह से वो लोग क्या ठीक समझते हैं और बेंच क्या ठीक समझती है, इसमें फक़ऱ् आ जाता है। लेकिन जो मुद्दा था उसका समाधान दिया गया है।
वो स्टेटमेंट (गवर्नमेंट के वकील ने) अपने आप नहीं दी थी। उनसे पूछा गया उन्होंने इंस्ट्रक्शन लिए और फिर वापस आए। करें न करें लेकिन ये एक बाध्यकारी बयान है। (bbc.com/hindi/)
सनियारा खान
नए साल को दुनिया के सभी मुल्कों में ज़ोर शोर से स्वागत किया जाता है। मूल उद्देश्य शायद एक ही होता है कि पुराने साल की अच्छी बातें याद रखे और नए साल में आगे भी सब कुछ अच्छा होगा....इस विश्वास के साथ खुश हो कर एक दूसरे को गले लगाया जाए। लेकिन साथ में एक और बात सोचना ज़रूरी है कि हम अपनी सहज सरल खुशियों को कहीं शोर और हुड़दंग में गवां तो नहीं बैठते हैं? हालांकि पसंद अपनी अपनी होती है। जैसे कोई लॉन्ग ड्राइव पर जाते हुए लाउड म्यूजिक बजा कर और सुन कर खुश होता है तो कोई खामोशी के साथ खिडक़ी से बाहर का नज़ारा देख कर खुश होता हैं।
तो आइए आज हम बाली में कैसे परंपरागत ढंग से नया साल मनाया जाता है इस बारे में जानते हैं। इस परंपरागत नए साल का उत्सव एक जनवरी को ही मनाया जाना ज़रूरी नहीं है। सभी बाली वासी नया साल को न्येपी के रूप में हिंदू उत्सव मान कर मनाते हैं। इस साल बाली के साका कैलेंडर के हिसाब से 11मार्च को न्येपी मनाना तय है। वैसे भी अभी तक मार्च महीने के ही अलग अलग तारीखों में न्येपी मन रहा है।न्येपी का अर्थ चुप रहना होता है। इसी लिए बाली द्वीप में संपूर्ण मौन व्रत रख कर लोग नए साल को मनाते हैं। न्येपी में खामोश प्रार्थना के साथ खुद को पूरी तरह ईश्वर के साथ जोडऩे की कोशिश की जाती है। इस दिन को मानवता, प्रेम, धैर्य और दया जैसे मूल्यों पर आत्मनिरीक्षण करने का दिन भी कहा जाता है। एक शब्द में कहा जाए तो बाली वासियों के लिए न्येपी एक सार्वजनिक अवकाश है और इस दिन को मौन, उपवास और ध्यान का दिन माना जाता है।चौबीस घंटे के लिए संपूर्ण द्वीप में सभी रौशनी और आवाज़ें बंद कर दी जाती है। किसी भी आयोजन की अनुमति नहीं मिलती है। कोई आनंद नहीं , कोई परिवहन नहीं, कोई रौशनी नहीं और कोई आग भी नही जलनी चाहिए। सभी दुकानें बंद रहती हैं। समुद्र तट और सडक़ों पर न पैदल और न ही गाड़ी में यात्री घूम सकते हैं। रात में स्ट्रीट लाइट ही नहीं बल्कि सभी लाइटें बंद करनी पड़ती है। लोग एक दूसरे के घर नहीं जाते है और आपस में मिलते भी नहीं है। सब को अपने अपने घरों में ही रहना होता है।यहां तक कि फोन करने से भी कोई जवाब नहीं देता है और मेहमानों का स्वागत भी नहीं किया जाता है। इसे कई लोग पागलपन भी समझ सकते है। जो भी हो न्येपी बाली कैलेंडर की सबसे जादुई और अद्भुत तारीख है। यह तारीख बाली द्वीप के अलावा दुनिया में कहीं और नहीं पाई जाती है।न्येपी को एक तरह से आध्यात्मिक सफाई का उत्सव कहा जा सकता है। पिछले साल के कुकर्म और बुराई से द्वीप को पूर्णत शुद्ध करना होता है। यद्यपि बाहरी लोगों के लिए होटल और रेस्टोरेंट खुले रखे जाते हैं... कुछ नियमों को दरकिनार नही किया जा सकता है। इन जगहों पर रौशनी कम की जाती है और दरवाजों और खिड़कियों पर मोटे परदे लगा कर रखे जाते है ताकि बाहर तक रौशनी न पहुंचे। हवाई अड्डा भी बंद रहता है। यहां तक कि राज्य के अधिकृत उपभोक्ता संचार प्रदाता ञ्जद्गद्यद्मशद्वह्यद्गद्य के द्वारा सभी इंटरनेट एक्सेस भी बंद कर दिया जाता है, जबकि निजी स्वामित्व वाली ढ्ढस्क्क चालू रहते हैं। कई होटल्स और रिजॉर्ट्स में भी वाईफाई कवरेज बंद रखा जाता है। सिफऱ् आपातकालीन स्थिति में ही न्येपी नियमों को तोडऩे की अनुमति दी जाती है।
आध्यात्मिक सफाई के अलावा भी न्येपी की एक अच्छाई ये है कि चौबीस घंटे की इतनी सारी पाबंदियों की वजह
से प्रकृति को खुल कर जीने की आज़ादी मिलती है। एक दिन में ही इस द्वीप में बिजली की बहुत ज़्यादा बचत हो जाती है। साथ ही साथ
कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन भी कम हो जाता है। इन बातों पर ध्यान देने पर ऐसा लगता है कि हर मुल्क को साल में कम से कम एक दिन इसी प्रकार मौन दिवस मनाना चाहिए। कुछ समय के लिए मौन रहना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी हितकारी होता है।
मनीष सिंह
असल में ये राज्यसभा में कांग्रेस के सांसदों की सूची है। सभी बड़े-बड़े नाम हैं, इतने बड़े कि आम आदमी की स्मृति में समा नहीं पा रहे। अर्थात कम ही लोग जाने पहचाने हैं।
किसी पार्टी के एक सदन में 36 सांसद कम नहीं होते। इतने में तो पूरी संसद हिलाई जा सकती है। मगर कांग्रेस राज्यसभाई तारामंडल, कुछ एक्सेप्शन्स के अलावे, जुगनुओं का ऐसा झुंड है, जिससे अपने घर में भी रोशनी नहीं हो सकती। कुछ वकालत की फीस ले रहे हैं, कुछ रिटायरमेंट बेनिफिट ले रहे हैं, कुछ वफादारी बेनिफिट ले रहे हैं, कुछ का पुनर्वास किया गया है, और जो बचे हैं, उनका पता नहीं क्या किया गया।
मैं इनमें से ज्यादातर को नहीं पहचानता, मगर इनके राज्यों के ज्यादातर लोग अवश्य पहचानते होंगे, ये बड़े नेता होंगे। तो क्या ही अच्छा हो कि इन सबसे राज्यसभा खाली करवाकर लोकसभा की टिकटें दे दी जाएँ? उनकी मर्जी की।
लिस्ट में दिग्विजय सिंह दिखते हैं। जबरन भोपाल से उतारा गया, गृह सीट से लड़ते तो बिल्कुल जीत जाते। ऐसे ही चिदम्बरम हैं। वे तमिलनाडु से एक सीट नहीं जीत सकते तो लानत है 3 दशक के करियर पर। अखिलेश सिंह, प्रमोद तिवारी भी इसी कैटेगरी के हैं। इमरान प्रतापगढ़ी भरी जवानी में रिटायरमेंट बेनिफिट ले रहे है। खडग़े, वेणुगोपाल का अपना महत्व है, पर अगर अपनी लोकसभा नहीं जीत सकते तो राज्यसभाई सांसद होने की ख्वाहिश नहीं पालनी चाहिए। मनमोहन सिंह, विवेक तन्खा, तुलसी, अभिषेक मनु का केस समझ से बाहर है। राजीव शुक्ल, मुकुल वासनिक को तो भगवान ने बनाते समय माथे पर खोद दिया - ‘जा, तू आजीवन राज्यसभा का एमपी बनेगा।’ जो बचे, उनका तो नाम खोजने पर गूगल भी सिर खुजाने लगता है।
इनको अपने कॉन्फिडेंस वाले क्षेत्र की लोकसभा टिकट देकर तुरत-फुरत रवाना करना चाहिए। इसके साथ पायलट, गहलोत, भूपेश, कमलनाथ, पृथ्वीराज चौहान जैसे शानपट्टीबाज, इनके मंत्रिमंडलों के सीनियर मिनिस्टर और मुख्यमंत्री पदाकांक्षी भी एक-एक लोकसभा में ठेले जाने चाहिए। आखिर स्टेट का बबा बनना चाहते हो, 8 विधानसभा सीट (1 लोकसभा) ही जीतकर दिखा दो। जब भाजपा केंद्रीय मंत्री को डिमोट कर विधायकी लड़वा सकती है, तो यहाँ तो सांसद होना प्रमोशन होगा।
असल में कोई 300 सीटों में कांग्रेस का महज 15 सांसद होना, बेहद अचरज की बात है। पार्टी नेतृत्व चाहे जित्ता खराब हो, इनकी अपनी स्टैंडिंग क्या है?? अपना क्या नेटवर्क है, जनता में क्या छवि है.. ऐसा क्या है जिसके बूते ये लोग बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, माँगें रखते हैं?? देश की संसद में चोर दरवाजे से घुसे हुए हैं?? जमीन पर उतरें, 40-50 एडिशनल सीटें जीतें। कांग्रेस के फ्यूचर के लिए अपनी स्टैंडिंग और वर्थ साबित करें, या चुपचाप इतिहास के कूड़ेदान में चले जायें।
कांग्रेस राज्यसभा खाली कराकर नए चेहरों को मौका दें। फायरब्रांड लोग, जो बोलने को खड़े हों तो महुआ मोइत्रा या संजय सिंह की तरह सत्ता में सिहरन पैदा कर दें। जमीन पर जाकर उसकी गूंज बनाएं। स्ट्रीट से निकले, आर्थिक अक्षम नेता, कम से कम सांसदी की सैलरी, स्टाफ और आभामंडल पाकर बेफिक्री से जनता में उतर सकेंगे। नई पत्तियां नई डालें उगेगी।
कांग्रेस की राज्यसभा इतिहास का म्यूजियम होने की जगह, अब फ्यूचरिस्टिक होनी चाहिए। ये नए नेताओं को लोकस स्टैंडी देने की, उन्हें खड़ा करने की जगह हो, बुढवों की आरामकुर्सी नहीं। इन कारतूसों को साबित करना चाहिए कि इनमें बारूद बचा है। वरना ये लायबिलिटी है, बेकार और दगे हुए कारतूस हैं। और दगे हुए कारतूस ढोकर युद्ध नहीं जीते जाते।
कनुप्रिया
वक्त की धुरी में देखा जाए तो हर नया दिन नया साल ही है, जो सुबह सूरज उगते ही शुरू हो जाता है। हम हर रोज़ उस नए दिन को जीते हैं। कैलेंडर में बस तारीखें बदलती हैं।
मगर फिर भी गया साल जीवन सफऱ का एक मार्क होता है, मील का पत्थर, हम अपने सफऱ को उन सालों से याद करते हैं।
23 में बहुत कुछ हुआ जीवन में, हर साल ही होता है, मगर गए साल में सीखा क्या?
वही जो सदियों से कहा जाता रहा है, और अब हर बीतते साल पहले से ज़्यादा उस सत्य का आभास होता है।
कि जो है अब है, अभी है, आज है, वही सच है, जो बीत गया वो बीत गया, लौटेगा नहीं, लौट ही नहीं सकता, और जो कल आएगा वो भी आज बनकर ही आएगा। बीते का अनुभव आज साथ रहता है, और आने वाले समय के निर्णय भी आज लिए जाते हैं। इसलिये जो कुछ ज़रूरी है वो आज ही है।
जो आज हैं वो कल साथ होंगे या नहीं पता नहीं, जो नहीं हैं क्या पता कल साथ हों। कुछ निश्चित नहीं। और फिर ख़ुद हम ही कल होंगे या नहीं पता नहीं। कितने ही लोग आज मिलते हैं हँसते हुए, अगले दिन उनकी ख़बर मिलती है। हैरानी होती है कि कल तो यहीं थे, सब कुछ था, परिवार, सम्पत्ति, ख़ुशियाँ, दु:ख, लो अब नहीं रहे। ये कितना अजीब है। एक जीवन जो समूची दुनिया लेकर चलता है, पल भर में ख़त्म। बस याद बाक़ी है। (यूँ मृत्यु भी राहत ही है, अगर मृत्यु न होती तो जीवन का होना व्यर्थ हो जाता, उसका कुछ मतलब ही न रहता।)
तो इस वक़्त अगर हम कुछ कह रहे हैं, कुछ कर रहे हैं, अपने स्वास्थ्य का खय़ाल रख रहे हैं, अपने अपनों का खय़ाल रख रहे हैं, ख़ुश हैं, या रो रहे हैं, प्रेम में हैं या नफऱत में हैं, काम कर रहे हैं या मनोरंजन सब इस वक़्त में हैं, इस वक़्त के बाद वो याद की सूची में दाखि़ल हो जाएगा। और कल सम्भवत: हम समूचे उस सूची में शामिल हो जाएंगे और अगर नहीं भी होंगे तो भी हमें तो पता नहीं चलेगा।
इसलिये ये वक़्त जो हम से होकर गुजर रहा है, यही सच है। इस वक़्त के साथ रहा जाए। ये फिर कभी नहीं आएगा।
ये बात जो हमेशा यूँ ही कही सुनी जाती है , जब इसका ज़बरदस्त अहसास होता है, तो लगता है ये इतनी मामूली भी नहीं।
श्रवण गर्ग
बीते साल को किस एक ख़ास बात के लिए याद रखा जाना चाहिए ? राजनीतिक चेतना के प्रति जानबूझकर उदासीन होते जा रहे मीडिया ने एक ख़ास ख़बर के तौर पर सूचित किया है कि 2023 का साल बॉलीवुड के लिए ज़बरदस्त तरीक़े से भाग्यशाली साबित हुआ है ! एक के बाद एक फि़ल्म ने धुआँधार कमाई के रिकॉर्ड क़ायम किए हैं ! बॉक्स ऑफिस के इतिहास में पहली बार फि़ल्म उद्योग ने किसी एक साल में ग्यारह हज़ार करोड़ से ज़्यादा की कमाई की है। इसमें भी महत्वपूर्ण यह है कि हिंसा के दृश्यों से भरपूर फि़ल्मों को सबसे ज़्यादा पसंद किया गया है ! उपसंहार यह कि 2023 को देश में हिंसा के प्रति बढ़ती मोहब्बत के लिए याद किया जा सकता है। फि़ल्म उद्योग को इसके लिए असली ‘आभार’ किसका मानना चाहिए ?
राज्यसभा में पिछले दिनों चर्चा के दौरान कांग्रेस की एक सदस्य रंजीत रंजन ने अत्यंत भावुक होते हुए कहा था :’ आजकल कुछ अलग तरह की फि़ल्में आ रहीं हैं।’कबीर सिंह’ हो या ‘पुष्पा’ हो ! एक ‘एनिमल’ पिक्चर चल रही है। मैं आपको बता नहीं सकती ज्ज्.मेरी बेटी के साथ बहुत सारी बच्चियां थीं जो कॉलेज में पढ़ती हैं।ज्ज्आधी पिक्चर में उठाकर रोते हुए चली गईं। इतनी हिंसा है उसमें। महिलाओं के प्रति असम्मान को फि़ल्मों के ज़रिए सही ठहराया जा रहा है ।ज्ज्हिंसा के ज़रिए हीरो को ग़लत और नकारात्मक तरीक़े से पेश किया जा रहा है। 11वीं और 12वीं के बच्चे उन्हें अपना आदर्श मानने लगे हैं !’
महिला सांसद ने आगे जो बात कही या सवाल किया वह ज़्यादा महत्व का है। सांसद ने कहा : यही कारण है इस तरह की हिंसा आज समाज में देखने को मिलती है । उन्होंने सवाल यह किया कि :’ सेंसर बोर्ड ऐसी फि़ल्मों को कैसे बढ़ावा दे सकता है ? किस तरह ऐसी फि़ल्में(सेंसर बोर्ड से)पास हो कर आ रही हैं जो समाज के लिए बीमारी हैं ?
सांसद द्वारा किए गए सवाल में ही जवाब भी तलाश किया जा सकता है कि जब सरकार को ही फि़ल्मों में दिखाई जा रही हिंसा से कोई शिकायत नहीं है तो सेंसर बोर्ड को आपत्ति क्यों होना चाहिए ! इसे इस तरह भी पेश किया जा सकता है कि बॉक्स ऑफिस पर फि़ल्मों के लगातार फ्लॉप होने के संताप से जूझ रहे फि़ल्म उद्योग को सत्ता की राजनीति ने सफलता का गुर सिखा दिया है।
जो लोग हुकूमत में हैं वे समाज में बढ़ती हिंसा को लेकर किसी भी सांसद या उसकी बेटी की पीड़ा को सुनने-समझने की क्षमता और क़ाबिलियत खो चुके हैं। वैचारिक अथवा धार्मिक प्रतिबद्धताओं के आधार पर सेंसर बोर्ड में भर्ती होने वाली प्रतिभाओं से फि़ल्मों में हिंसा के इस्तेमाल के ख़िलाफ़ फ़ैसले लेकर ताकतवर फि़ल्म उद्योग को नाराज़ करने के साहस की उम्मीद नहीं की जा सकती।
सच्चाई यही है कि वीएफ़एक्स प्रभावों के ज़रिए बॉक्स ऑफिस पर सफलता के लिए प्रदर्शित की जाने वाली नक़ली हिंसा सत्ता की राजनीति में कामयाबी के लिए असली स्वरूप में इस्तेमाल के लिए ज़रूरी हथियार बन चुकी है। इसीलिए फि़ल्मों में प्रदर्शन अथवा राजनीतिक कार्रवाई के लिए इस्तेमाल की जाने वाली हिंसा का शासकों की ओर से आमतौर पर विरोध नहीं किया जाता ! विशेष परिस्थितियों में विरोध उस समय ज़रूर प्रकट होता है जब फि़ल्मी-प्रदर्शन वीइफ़एक्स वाला कृत्रिम नहीं बल्कि सत्य के कऱीब हो; राजनीतिक हिंसा को ‘परज़ानिया’ जैसी किसी साहसिक फि़ल्म अथवा बीबीसी की डॉक्युमेंट्री के माध्यम से नंगा किया जा रहा हो !
फि़ल्मों में प्रदर्शित की जानी वाली अतिरंजित हिंसा और सडक़ों पर व्यक्त होने वाली असली सांप्रदायिक हिंसा से फि़ल्म उद्योग, सेंसर बोर्ड ,राजनीति, धर्म और समाज किसी को कोई परेशानी नहीं है। सत्ताधीशों के लिए जिस तरह से धर्म पैंतीस पार की आबादी को व्यस्त रखने का अचूक मंत्र बन गया है ,फि़ल्मों में हिंसा का प्रदर्शन युवाओं को बेरोजग़ारी की चिंता से मुक्त रखने का तिलस्मी औज़ार साबित हो रहा है।
संसद जैसे मंच पर भी सिफऱ् फि़ल्मों में दिखाई जा रही हिंसा का ही मुद्दा उठाकर महिला सांसद शायद समस्या की असली जड़ पर प्रहार करने से चूक रही हैं ! फि़ल्मों में बढ़ती हिंसा और दर्शकों के बीच उसकी बढ़ती स्वीकार्यता को कथित ‘धर्म संसदों’ में एक क़ौम विशेष के ख़िलाफ़ शस्त्र उठाने के आह्वान, सुरक्षा के लिए तैनात किए गए जवान द्वारा चलती ट्रेन में एक वर्ग विशेष के यात्रियों की ढूँढ-ढूँढकर हत्या करने और सडक़ों पर मॉब लिंचिंग की घटनाओं के साथ जोडक़र नहीं देखा जा रहा है। सवाल यह है कि इन तमाम असली घटनाओं के कि़स्से सुन-पढक़र जब बच्चे-बच्चियाँ विचलित होते हैं कितने सांसद उसे मुद्दा बनाकर हुकूमत को कटघरे में खड़ा करते हैं ?
सत्ता के निहित स्वार्थों द्वारा जब नागरिकों को योजनाबद्ध तरीक़े से हिंसक बनाया जा रहा हो, हिंसा को महिमामंडित करने वाले फि़ल्म उद्योग को भी राजनीतिक दलों का ही एक आनुषंगिक संगठन मानकर चलना पड़ेगा। साल 1944 में रचित महान अंग्रेज उपन्यासकार जॉर्ज ओर्वेल की कालजयी कृति ‘एनिमल फ़ार्म’ का ब्रह्म-सारांश यही है कि ‘सभी जानवर आपस में बराबर हैं पर कुछ जानवर दूसरों से ज़्यादा बराबर हैं !’ वर्तमान की राजनीति शायद इसी मंत्र को संविधान की मूल आत्मा मानती है।
हिंसा के समर्थन से अगर सत्ता में बने रहने के प्रयोग को राजनीति के क्षेत्र में सफलतापूर्वक आज़माया जा सकता है तो उसके इस्तेमाल से बॉक्स ऑफिस पर कामयाब होने वाली फि़ल्मों की क़तारें भी खड़ी की जा सकती हैं ! हो सकता है हिंसा के प्रति बढ़ती मोहब्बत की दृष्टि से राजनीति और फि़ल्म दोनों उद्योगों के लिए 2024 का साल ‘कामयाबी’ के नए कीर्तिमान स्थापित करने वाला साबित हो !
- ध्रुव गुप्त
हर नए साल में लोगों को लगता है कि यह साल देश-दुनिया के लिए कुछ नया, कुछ अलग लेकर आने वाला है। हर साल यह भरम टूट भी जाता है। देश-दुनिया की वर्तमान परिस्थितियां बताती हैं कि आने वाले साल में भी सब कुछ वही रहने वाला है। देश में होगा वही बंटा हुआ समाज, वही रहनुमा, वही विभाजनकारी सोच, वही सामाजिक और आर्थिक विषमताएं, वही असहिष्णुता, वही सियासी ड्रामें और वही भांड मीडिया। देश के बाहर युद्ध, आतंक और विनाश का वही वैश्विक परिदृश्य। ऊपर जानलेवा वायरस के कुछ और नए अवतार। हां, नए साल के स्वागत के बेमतलब हंगामे में देश में असंख्य मुर्गे और बकरे ज़रूर कट जाने वाले हैं। अमीर क्लबों और होटलों में नंगी-अधनंगी लड़कियां नचाई जाएंगी। बेमतलब की आतिशबाजी में हवा में थोड़ा और जहर घुलेगा। चौतरफा शराब की नदियां बहेंगी। जहां दारूबन्दी हैं वहां नकली और जहरीली शराब पीकर कुछ और लोग मरेंगे।
नए साल में कुछ नया तब होगा जब हमारे भीतर कुछ नया घटित होगा। कुछ ऐसा कि हमारे आसपास की दुनिया थोड़ी और मुलायम, थोड़ी और खूबसूरत, थोड़ी और प्रेमिल, थोड़ी और निरापद दिखे। सडक़ों पर मानसिक दरिद्रता के भोंडे प्रदर्शन के बज़ाय आने वाले साल के लिए कुछ सार्थक सोचें और करें। खाए-अघाए लोगों के साथ मस्ती करने की जगह कुछ खुशियां उनके साथ बांटे जिन्हें उनकी वाक़ई ज़रुरत है। थोड़ी मुस्कान उन होंठों पर धरें जो मुस्कुराना भूल गए हैं। जो अपने अरसे से रूठे बैठे हैं, उन्हें मना लें। क्षमा मांग लें उनसे जीवन के किसी मोड़ पर जिनका दिल दुखाया है हमने। बासी पड़ चुके रिश्तों में फिर से ताजगी भरें। राजनीति को ख़ुद पर ऐसा हावी न होने दें कि वह हमारी वैचारिक स्वतंत्रता छीनकर हमें मानसिक तौर पर पंगु बना दे। धर्मों की निजता को सडक़ों पर इस तरह मत उतारें कि वह हमारी उदार सामाजिक संरचना को ही तोड़ डाले। नए साल में एक दूसरे की आस्थाओं और निजता का सम्मान करना सीखें।
राजनीति, धर्म और तमाम विचारधाराएं हमारे लिए बनी हैं, हम उनके लिए नहीं। इनमें से कुछ भी एक इंसानी जान से ज्यादा कीमती नहीं है। इसे समझने और महसूस करने के लिए किसी वैचारिक, सियासी या धार्मिक चश्मे की नहीं, थोड़ी अंतर्दृष्टि और बहुत सारी संवेदनशीलता की दरकार है ! आप सभी मित्रों को नववर्ष की मंगलकामनाएं!
- हेमलता महिश्वर
आज भीमा कोरेगाँव शौर्य दिवस है और इधर हर बार मैं सुधा जी को भी याद करती हूँ।
सुधा भारद्वाज मेरी एक ऐसी मित्र हैं जिनको मैं हमेशा बहुत सम्मान के साथ याद करती हूँ। उनसे मेरी पहली मुलाक़ात प्रसिद्ध वक़ील, जाने- माने रचनाकार, गांधीवादी कनक तिवारी जी के घर पर हुई थी। उनके घर में बाहरी बड़ा सा कमरा उनका कार्यालय हुआ करता था। वे वहीं एक कुर्सी पर बैठी हुई थीं। कनक तिवारी जी ने हमारा परिचय करवाया था।
हम दोनों ने बातचीत की और वैचारिक तौर पर हमारी काफ़ी सहमति भी बनी। यही वजह थी कि अगली बार जब वो बिलासपुर आईं तो एक रात मेरे घर पर भी रुकीं। जब उन्हें पता चला कि मेरी बेटियां संगीत सीख रही हैं तो उन्होंने भी गोरख पांडे की कविता गाकर सुनाई। हाय.. वह आवाज़ आज भी वहीं अटकी हुई, लहरें ले रही है। क्या आवाज़ थी ... क्या पकड़ थी और क्या तो धैर्य था ... गज़़ब।
तभी उन्होंने बताया था कि वे किस माता-पिता की बेटी हैं। छ्वहृ में कृष्णा भारद्वाज के नाम पर व्याख्यान माला संचालित होती है। अब तो उनके शानदार परिवार और शिक्षा की जानकारी सबको हो चुकी है।
उसी रात उन्होंने एक दिलचस्प वाकय़ा सुनाया। वह यह था कि मज़दूरों की समस्याओं को सुलझाने के लिए उन्हें वकीलों के पास जाना पड़ता था। वकीलों के पास जाने-आने में, उनकी फ़ीस वग़ैरह में, सुनवाई की डेट लेने में और आवश्यकतानुसार दलील न रख पाना में धन और समय दोनों का ही अपव्यय बहुत होता था। मित्रों ने उन्हें सलाह दी कि क्यों न वे ख़ुद ही रुरुक्च कर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में अपनी वकालत शुरू कर दें। इससे वकीलों के पास जाने में जो समय लगता है, मिलने का समय लेना पड़ता है, किसी भी केस को समझाने में जो समय लगता है और इसके अलावा वक़ील का मेहनताना देने में जो पैसा लगता है, इन सबसे उनके वकालत शुरू करने पर राहत मिल जाएगी। कई बार तो कोर्ट जाने पर पता चलता कि आज केस पर बात नहीं हो पाएगी, डेट आगे बढ़ गई है। न्याय कब होगा, यह तो न्याय व्यवस्था पर निर्भर करता है।
सुधाजी को यह सलाह बहुत अच्छी लगी और उन्होने पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय में रुरुक्च करने के लिए आवेदन किया। पता चला कि उनका आवेदन स्वीकृत नहीं हो सकता क्योंकि उन्होंने रूस्ष्ट की है।उनके पास स्नातकोत्तर उपाधि है पर स्नातक की उपाधि नहीं है। रुरुक्च में प्रवेश के लिए स्नातक की उपाधि ही चाहिए। सुधाजी ने समझाया कि मैंने एकीकृत पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया था। इसमें लगातार पढ़ाई करते रहने पर स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त होती है और स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त होने का मतलब ये भी है कि स्नातक किया जा चुका है। पर व्यवस्था की जो ज़रूरत थी, वह इस बात को स्वीकार ही नहीं कर रही थी कि बग़ैर किसी स्नातक उपाधि के उन्हें स्नातक कैसे स्वीकार किया जा सके, चाहे उनके पास स्नातकोत्तर उपाधि थी। ख़ैर, उन्हें आईआईटी दिल्ली को भी समझाना पड़ा कि स्नातक उपाधि क्यों ज़रूरी है। जहां तक मुझे याद पड़ता है कि उन्हें स्नातक की उपाधि आईआईटी दिल्ली ने दे दी और वे एलएलबी में प्रवेश ले सकीं। कितने रोड़े होते हैं एक अच्छे काम को संपादित करने के लिए!
जब हमारी दोस्ती कुछ अनौपचारिक हो गई तो हम साथ खाना-पीना, सारा कुछ, घर-बाहर करने लगे। एक दिन मैंने अपनी इस्तेमाल की हुई वो साडिय़ाँ बाहर निकाल दी जिन्हें अब मैं नहीं पहन पाती थी। मैंने वो साडिय़ाँ सुधा जी को एक बैग में डालकर दे दी कि वे मज़दूर स्त्रियों के बीच उन्हें बांट देंगी। अगली बार जब वे मेरे घर आयीं तो वे उन्हीं साडिय़ों में से एक साड़ी पहने हुए थी। यह सिफऱ् महसूस सही किया जा सकता है के मुझे उस वक़्त कितनी शर्म आई अपने व्यवहार पर! मतलब मेरे पास शब्द नहीं है यह बताने के लिए कि मैं यह देखकर किस तरह से कट गई थी, यह तक उन्हें बता सकूँ। इतना बड़ा व्यक्तित्व और मेरी पहनकर छोड़ी हुई साड़ी इतनी सहजता से पहन ले, यह मुझे शर्मिंदा कर रहा था। लग रहा था कि मैंने ऐसे साड़ी उन्हें दी ही क्यों? उन्हें तो नई साड़ी दिया जाना चाहिए।
ऐसे ही एक बार मज़दूरों के ही किसी केस के लिए उन्हें दिल्ली आना था और उनके पास पैसे नहीं थे। उन्होंने मुझसे पैसे माँगे थे। मैंने तुरंत तो नहीं, दो-चार दिन बाद उन्हें दिए और यह सोचकर दिए कि ये पैसे मुझे वापस नहीं होंगे। पर लगभग एकाध महीने बाद वे घर आयी और उन्होंने मुझे पैसे दे दिए। एक बार फिर उनके का कार्य ने मुझे भी काटकर रख दिया था। पुन: शर्मिंदा हुई मैं। मैंने उनसे कहा भी कि ऐसी ज़रूरतों के लिए आप पैसे लिया करें, वापस न करें। उन्होंने कहा कि आप यहीं हैं। मानकर चलें कि पैसे यहीं हैं। कोई ऐसी ज़रूरत होगी तो आपसे साधिकार ले लेंगे।
जब मैं नौकरी के लिए दिल्ली आने लगी थी वह मुझ पर नाराज़ हुई थी। उन्होंने कहा कि दिल्ली में काम करने वालों की क्या कमी है। यहाँ से अच्छे लोग क्यों जाए? मैंने उन्हें अनसुना कर दिया था। मुझे लगता है कि वे आज तक मुझसे नाराज़ हैं। ऐसे संवेदनशील और कर्मठ लोगों की नाराजग़ी भी बिरले लोगों के हिस्से आती है। सुधाजी, सचमुच आप बहुत बहुत बड़ी हैं।
-प्रमोद बेरिया
मेरे पोते ने पूछा
‘बाबा, अश्लील मतलब ?’
पहले तो मैं समझ नहीं पाया क्या मतलब बताऊँ फिर कहा
‘बेटा यह आदमी के सभ्य होने के साथ-साथ विकसित होता गया है, अन्यथा, लगता है आदिम युग में तो कुछ अश्लील होता नहीं होगा, अगर होता तो सामूहिक रूप से सब नंगे नहीं रहते!
इसका संबंध मनुष्य की कुंठाओं और अहंकार से भी है, क्योंकि मनुष्य के ‘सभ्य’ होने के साथ ही नाना आवरणों का आविष्कार हुआ और निषेध बढ़ते गए,साथ ही संघर्ष और मनमुटाव भी’
पोते को दलील जंच नहीं रही थी,उम्र भी नहीं थी।
‘बेटा, आदमी अपने आप दीवाल बना लेता है जिसके पार जाना दिनोंदिन उसके लिए कठिन होता जाता है क्योंकि वह बिना दरवाजे की दीवाल होती है। प्रकृति के कुछ ऐसे नियम हैं जिसे मंगल ग्रह पर जाने के बावजूद हम नहीं बदल सकते हैं; जैसे आदमी पैदा तो नंगा ही होगा, विज्ञान द्वारा भी संभव नहीं है कि कपड़े पहने हुए पैदा हो, सुबह से आदमी कितनी बार नंगा होता है लेकिन अश्लील की अवधारणा ही नंगेपन से जुड़ी है, अब इस नंगेपन से आदिम युग के नंगेपन को जोड़ोगे तो करीब पचहत्तर प्रतिशत अश्लीलता का मामला सुलझता नजऱ आता है।’
‘अश्लीलता नंगेपन से जुड़ी न हो कर नंगई से जुड़ी है जोकि मनुष्य के आदमजात आवेगों और कुंठाओं से पैदा होकर सहजात लक्षणों वाले एक से लोगों में सामूहिक होती जाती है और तब हमें ऐसी बहुत सी घटनाओं में, प्रवृत्तियाँ में, कलाओं में, समाजों में नजर आने लगती है और हम भी अनचाहे ही उसमें शामिल होते जाते हैं!’
मेरा पोता टुकुर-टुकुर देख रहा था।
-शंभुनाथ
कोलकाता में सात दिवसीय 29वां हिंदी मेला चल रहा है। लगभग 40 सालों से स्त्री विमर्श चल रहा था और पहले से इसपर काफी मंथन है। पर लघु स्तर पर ही सही सिर्फ स्त्री रचनाकारों का यह संभवत: पहला जमावड़ा है जहां मंच पर सिर्फ स्त्री साहित्यकार हैं और वे स्त्री विमर्श के समक्ष नई चुनौतियों पर कुछ सोचना चाहती हैं। यहां कई अन्य लेखिकाओं को होना चाहिए था, पर हिंदी मेला की आर्थिक सीमाओं के कारण ज्यादा लोगों को बुलाना संभव नहीं हुआ। अत: सभी लेखिकाएं इक_ा होकर स्त्री के समक्ष उपस्थित नई चुनौतियों और स्त्री विमर्श के नए मुद्दों पर बात करें, यह एक स्वप्न ही रह गया।
फिलहाल कुछ ये सवाल मेरे मन में हैं-
1) हिंदी में स्त्री विमर्श लंबे समय से है, पर स्त्रियों का कोई बड़ा संगठित आंदोलन नहीं है। जब तक निर्भया कांड जैसी कोई घटना नहीं होती, हिंदी क्षेत्र की स्त्रियां इक_ी होकर अपने मुद्दों कुछ आंदोलनात्मक कर नहीं पातीं।
2) दुनिया में उस रुत्रक्चञ्ज के आंदोलन आज भी हैं, जो विश्व की आबादी के . 01 प्रतिशत भी नहीं है। लेकिन स्त्रियों का वैसा आंदोलन अब नहीं है जो 20 वीं सदी के आरंभिक 6 दशकों तक तीव्र रूप में था।
उनकी वजह से दुनिया के कई पुराने नियम-कानून बदले, संयुक्त राष्ट्र सक्रिय हुआ और इन सबकी आंच भारत में भी आई। क्या मान लिया जाए कि अब पुरुषसत्ता का मामला ठंडे बस्ते में चला गया है या कुछ तात्कालिक गुस्सों और कुछ एक ही जैसे स्टीरियो टाइप उपन्यास तथा कविताएं लिखने तक सीमित है?
3) क्या स्त्री मुक्ति का आंदोलन पिछले करीब 25 सालों में संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के बाद अब स्त्री-सशक्तिकरण में सीमित हो गया है, अर्थात पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के भीतर ही स्त्रियों को कुछ ऊंचे पद, कुछ आरक्षण, कुछ पुरष्कार-सम्मान और सेमिनारों, कार्यक्रमों में दो-एक को बुलाकार प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व देकर तृप्त कर देना और इन्हीं से स्त्रियों का तृप्त हो भी जाना?
4) पिछले 10 सालों में स्त्री रचनाकारों के कितने उपन्यास या कितनी कहानियां उस धार्मिक कट्टरता और अंधविश्वासों को विषय बनाकर लिखी गई हैं जो वस्तुत: स्त्री स्वतंत्रता पर बड़ा खतरा है?
5) पिछले दो दशकों में स्त्री रचनाकारों ने वे कौन से नए प्रश्न उठाए हैं जो पहले के स्त्री साहित्य में नहीं थे, क्या उनके साहित्य की अंतर्वस्तु में वस्तुत: कोई परिवर्तन या विकास आया है?
6) विश्वविद्यालय और कालेजों में वीमेन्स स्टडी सेंटर बने हैं और अब सबसे आसान है स्त्री विमर्श पर पीएचडी की डिग्री पाना। धर्म की तरह बाजार का स्त्री बिंबों का उपयोग करके किसी भी युग से अधिक पुरुषसत्तात्मक विस्तार हुआ है। इन मुद्दों पर स्त्री लेखिकाएं क्या सोचती हैं? क्या इन घटनाओं को स्त्री विमर्श की सफलता के रूप में देखा जाए या एक चक्रव्यूह के रूप में?
ऐसे कई प्रश्न हो सकते हैं। मुख्य बात है स्त्री विमर्श में आए गत्यावरोध को तोडऩा और इसके अति–होमोजीनियस हो चुके रूप के बाहर आना! क्या आधी आबादी स्त्री, दलित, पिछड़ा, आदिवासी विमर्शों के बीच पुल बनाकर प्रतिरोधों के बीच विभाजन दूर कर सकती है?
पर ये काम खुद स्त्रियों द्वारा ही संभव हैं। उनकी आधी आबादी में पूरी आबादी को बदल डालने की असीम संभावनाएं हैं!
-मुकुल सरल
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने सोशल मीडिया पर अपने जातिवादी पोस्ट को डिलीट कर माफ़ी मांगी है और कहा कि उनकी टीम ने भगवत गीता के श्लोक का ग़लत अनुवाद कर दिया। लेकिन मेरा उनसे पूछना है कि फिर सही अनुवाद क्या है। सही अनुवाद पोस्ट कीजिए।
वे ऐसा नहीं करेंगे, क्योंकि इसका सही अनुवाद यही है।
दरअस्ल 26 दिसंबर को हिमंत बिस्व सरमा ने ‘एक्स’ और फेसबुक जैसे अपने सोशल मीडिया हैंडल पर एवी पोस्ट अपलोड किया था और दावा किया था कि यह गीता के 18 वें अध्याय का 44 वां संन्यास योग श्लोक से है।
उस एनीमेटेड वीडियो में कहा गया था, ‘‘कृषि कार्य, गो-पालन एवं वाणिज्य वैश्यों का आदतन एवं स्वाभाविक कर्तव्य है तथा तीन वर्णों-- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की सेवा करना शूद्रों का स्वाभाविक कर्तव्य है।’’
सरमा ने यह भी कहा था, ‘‘भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं ही वैश्यों और शूद्रों के स्वाभाविक कर्तव्यों के प्रकारों की व्याख्या की है।’’
उनके इस पोस्ट से बड़ा राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया। और अब उन्होंने उसे डिलीट कर कहा कि उनकी टीम सें ग़लत अनुवाद हो गया। ये भी झूठ ही है। गोया उनकी टीम गीता के श्लोकों का अनुवाद करती हो। अरे भाई यही तो गीता के श्लोक का अर्थ है, जिसे उनकी टीम ने कॉपी पेस्ट कर दिया। लेकिन इस बार सरमा जी को लगा अरे इससे तो राजनीतिक नुक़सान हो सकता है तो कहा कि ग़लत अनुवाद हो गया। तो हम उनसे आग्रह करेंगे कि वह सही अनुवाद पोस्ट करें।
जिसके पास भी भगवत गीता हो वो उसे खोलकर पढ़ ले इस श्लोक को जिसकी विवेचना बड़े बड़े विद्वानों ने की है। इसे ही तो हम सदियों से पढ़ते आ रहे हैं, पढ़ाते आ रहे हैं। मनुस्मृति भी यही कहती है। यही तो ब्राह्मणवाद है। लेकिन मुझे हैरत है कि किसी को कोई फक़ऱ् नहीं पड़ता। अब अगर राजनीतिक मजबूरी न हो तो सरमा जी पीछे हटने वाले नहीं थे।
88वें जन्मदिवस, 1 जनवरी पर
-रमेश अनुपम
विनोद कुमार शुक्ल इस 1 जनवरी 2024 को अपने सुदीर्घ जीवन के 87वां वर्ष पूर्ण कर 88वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं इस अर्थ में वे हिंदी के सबसे सम्माननीय बुजुर्ग कवि-लेखक हैं।
विनोद कुमार शुक्ल आज भी जिस तरह से लेखन के क्षेत्र में निरंतर सक्रिय रहते हैं, वह काफी कुछ विस्मित करने वाला है। उनके लेखन का क्षेत्र भी इधर विविध और विपुल होता जा रहा है, जिसमें बहुत सारा लेखन बच्चों और किशोरों के लिए भी है।
विनोद कुमार शुक्ल के लगभग दो काव्य संग्रह के लायक कविताएं और कहानियां अभी अप्रकाशित हैं। विनोद कुमार शुक्ल जिस तरह से प्रचुर मात्रा में लिख रहे हैं उससे लगता है कुछ ही दिनों में इसकी संख्या में काफी इजाफा भी संभव है।
विनोद कुमार शुक्ल के पाठकों की संख्या काफी बड़ी है। हिंदी से बाहर भी उन्हें पढऩे और प्यार करने वाले उनके असंख्य पाठक वर्ग है। इसलिए उनके काव्य संग्रह और कहानी संग्रह की सबको आतुरता के साथ प्रतीक्षा है।
‘मैं दुनिया के सारे सन्नाटे को सुनता हूं। रात में जब नींद नहीं आती है तो मैं मुक्तिबोध की तस्वीर के निकट जाकर बैठ जाता हूं और इस तरह मुक्तिबोध को अपने निकट पाता हूं।’ कहने वाले विनोद कुमार शुक्ल अपने जीवन और लेखन में मुक्तिबोध के सान्निध्य में बिताए हुए दिनों को याद कर इन दिनों बेहद भावुक हो उठते हैं।
विनोद कुमार शुक्ल को गढऩे में जिन पांच विराट चरित्रों की सर्वाधिक उल्लेखनीय भूमिका रही है उनमें उनकी मां श्रीमती रूखमणी देवी, चाचा किशोरी लाल शुक्ल जिन्होंने पिता की असमय मृत्यु के पश्चात पूरे परिवार को आश्रय दिया, विनोद जी की धर्मपत्नी श्रीमती सुधा शुक्ल, हरिशंकर परसाई तथा मुक्तिबोध प्रमुख हैं।
जबलपुर में कृषि महाविद्यालय में अध्ययन के दरम्यान विनोद कुमार शुक्ल को हरिशंकर परसाई का सान्निध्य मिला। विनोद कुमार शुक्ल अक्सर परसाई जी के नेपियर टाउन स्थित उनके घर जाया करते थे।
राजनांदगांव के दिग्विजय महाविद्यालय में मुक्तिबोध की नियुक्ति के पश्चात अपने बड़े भाई संतोष शुक्ल जो मुक्तिबोध के छात्र थे, उनके साथ मुक्तिबोध के बसंतपुर निवास में जाकर पहले पहल मिलना विनोद जी को आज रोमांचित करता है कि किस तरह शाम की गहरे धुंधलके में मुक्तिबोध अपने हाथों में कंदील लेकर बाहर निकले थे जिसकी रोशनी पहले आई थी, रोशनी के पीछे-पीछे मुक्तिबोध आए थे, किसी कविता की अपूर्व बिम्ब की तरह।
साहित्य और अपने लेखन को लेकर विनोद कुमार शुक्ल का यह कथन दुनिया के किसी भी बड़े कवि या लेखक के कथन की तरह है, अभी हाल ही में रायपुर के शैलेंद्र नगर स्थित अपने घर में उन्होंने कहा था कि ‘आप जो लिख रहे हैं, वह अपने लिए नहीं लिख रहे हैं। आप जो भी लिख रहे हैं वह सब ओर बिखर जायेगा और बिखरकर सब तक पहुंच जाएगा। मेरा लिखा हुआ अगर बिखर कर सब तक नहीं पहुंचा तो मेरा लिखा हुआ एक पेड़ की तरह हो जायेगा जिससे लोग मेरी छाया में सुस्ता सकें।’
अभी हाल ही में दिसंबर के माहांत में विनोद जी के पास इजरायल से एक मेल आया है जिसमें मरीना रिम्शा ने उनकी तीन कविताओं ’हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था’, ‘जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे’ और ’जीने की आदत’ के हिब्रू और अंग्रेजी में अनुवाद करने की इजाजत मांगी है।
मरीना रिम्शा ने विनोद कुमार शुक्ल को भेजे गए अपने मेल में लिखा है कि उनकी इन कविताओं के हिब्रू भाषा में अनुवाद से इजरायल और फिलिस्तीन युद्ध में आहत नागरिकों को राहत मिलेगी।
विनोद कुमार शुक्ल का एक काव्य संग्रह अंग्रेजी में भी आने को है। अमेरिका में अरविंद कृष्ण मल्होत्रा इस कार्य को पूरी गंभीरता और ईमानदारी से सम्पन्न करने में जुटे हुए हैं। अंग्रेजी में अनुदित विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं की अनुवाद की किताब भी आगामी फरवरी 2024 में अमेरिका से प्रकाशित होने जा रही है।
विनोद कुमार शुक्ल ने बीते दस पंद्रह वर्षों में बच्चों और किशोरों के लिए ढेर सारा साहित्य लिखा है जो अब तक के प्रचलित और लोकप्रिय बाल साहित्य के खांचे में कहीं फिट नहीं बैठता है। यह हिन्दी का वैसा बाल साहित्य भी नहीं है जो सर्वमान्य और सर्वस्वीकृत है।
‘नजर लागी राजा’ विनोद कुमार शुक्ल की एक अलक्षित कविता है जिस पर किसी काव्य पारखी, गुणगाहक या समीक्षक की दृष्टि अब तक नहीं गई है। इस कविता से विनोद कुमार शुक्ल का नाम हटा दिया जाए तो पहचान करनी मुश्किल होगी कि यह विनोद कुमार शुक्ल की कोई कविता है। उनकी यह कविता अपनी अंतर्वस्तु, रूप और भाषा सबमें अलग और अनूठी है।
हिंदी के वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना यह मानते हैं कि विनोद कुमार शुक्ल की यह कविता काव्य की दृष्टि से एक विलक्षण कविता है। वे यह भी मानते हैं कि ’नजर लागी राजा’ जैसी कविता समकालीन हिंदी कविता में अन्यत्र नहीं है। यह समकालीन हिंदी कविता की उपलब्धि है।
इस कविता का जिक्र करने पर स्वयं विनोद कुमार शुक्ल कुछ कम चकित नहीं होते हैं। उन्हें दुख है कि इस सुंदर कविता पर अब तक किसी की भी दृष्टि नहीं गई है। विनोद कुमार शुक्ल की यह कविता उनके छठवें और अब तक अंतिम काव्य संग्रह ‘कभी के बाद अभी’ (प्रकाशन वर्ष सन 2012) में संग्रहित है। बहरहाल विनोद कुमार शुक्ल की कविता ‘नजर लागी राजा’ उनके 88 वें जन्मदिवस 1 जनवरी के अवसर पर प्रस्तुत है -
नजर लागी राजा
नजर लागी राजा काले चश्में में
अब तू यह चश्मा उतार दे
मैं बहुत सांवली हूं
काले चश्मे से मैं नहीं दिखूंगी।
राजा! चश्मा उतार दे
और नजर मिला ले
अपने सांवलेपन में मैं अच्छी दिखूं
इसलिए मैं तेज धूप में खड़ी हूं।
काले चश्मे की बदली ने तुम्हारी आंखों को
और मुझे और सांवला ढंाक दिया है
काला चश्मा उतार कर मुझे पूरा उघार दे
और मुझे नजर लगा दे।
सचमुच तू यह चश्मा उतार दे
मैं बहुत सांवली
अंधेरी रात में तुमसे मिलना चाहती हूं
तेरे काले चश्मे से पूर्णिमा का गोरा चन्द्रमा भी
नहीं दिखता होगा
धूप का चश्मा लगाने वाले
चश्मा उतार दे
रात में कहीं धूप होती है?
मुझे और धूप को देखे हुए तुम्हें बहुत
दिन हो गए
मैं बहुत सांवली हूं
काला चश्मा उतार कर केवल मुझे देखोगे
तो लगेगा तुमने काला चश्मा नहीं उतारा।
राजा! प्रेम का संसार बुझ गया
मेरी छाती चकमक पत्थर की तरह कठोर और गोल हैं
तुम्हारे हाथ भी चकमक पत्थर की तरह कठोर हैं
हाथों के आघात से जो चिनगारी पैदा होगी
उसी की यह बुझता संसार प्रतीक्षा कर रहा है
कि जल उठे
और प्रेम की अग्नि को पा सके
परन्तु राजा! मैंने तुम्हारे ह्रदय को पत्थर नहीं कहा।
राजा! तुम्हारा काला चश्मा मैं क्यों चुराऊंगी
क्या तुम इसे पहने सो रहे?
कई रातों की जागी
तुममें जो मेरा मन बसा है
तुम तक मुझे बुलाता है
चलते-चलते तुम्हारी दूरी से थकी
एक दिन तुम्हारे बिछौने पर
तुम्हारे साथ सो जाऊंगी
तुम चश्मा पहने सो रहे होगे
और मैं तुमको चश्मा सहित चुरा लूंगी।
राजा! तेरे काले चश्मे में मेरी नजर लगी
अपनी अनदेखी देह का क्या करूं
मैं कैसे उजागर होऊं
कि केवल तुम मुझे देख सको
या तो चश्मा उतार कर फेंक दो
धूप में खड़ी मैं कोयला
तुम्हारी देह की हवा को छू लेने से
चिनगारी परच
अंगार होकर दहक गई हूं
देखो सूर्य बुझ गया है
और मैं सुलग रही हूं।
चश्मा मत उतारो।
जो गरमी है वह मेरा ताप है
तुम अब चश्मा मत उतारना
मेरे ताप में बहुत तेज धूप
जैसे तुम्हारी धूप में
मेरी धूप निकली है।
राजा! काले चश्मे में मेरी नजर लगी है
पर तुम्हारी धूप और ताप को मैं नहीं सह पाऊंगी
तुम काला चश्मा मुझे दे दो
मैं शृंगार करूंगी
हंसुली, पैरी, मुंदरी, पहनूंगी
स्नो-पाउडर लगाऊंगी
कीमती गहने की तरह काला चश्मा पहनकर
तुमको रिझा लूंगी।
तुम मेरे लिए मड़ई-मेले से
एक काला चश्मा खरीद देना
हम दोनों काला चश्मा लगाये मेला घूमेंगे
फोटो खिंचवायेंगे
परदे के हवाई जहाज के साथ
जिसमें दोनों काला चश्मा लगाये
सूरज तक उड़ेंगे।
दीपक तिरुआ
एक युवा लडक़े और उसकी गर्लफ्रेंड में बहस हो रही है।
मेरे कान में इयरफोन ठुंसा है, इसलिए वे मेरी परवाह नहीं कर रहे। मैं चाहता भी नहीं, इसलिए उधर देख भी नहीं रहा।
उनकी प्राइवेट बातों के बीच पॉलिटिक्स घुस आयी है और मैंने चुपके से इयरफोन पे गाना बंद कर लिया है।
लडक़ा समझा रहा है, ‘डेमोक्रेसी का मतलब है कि अगर चार लोग हैं तो चारों की सुनी जाये। ये नहीं कि तीन आपकी साइड हैं, तो आप चौथे को दबा लो।’
लडक़ी मानने को तैयार नहीं है। ‘डेमोक्रेसी है, तो जो लोग चाहेंगे वही होगा। लोग उन्हें पसंद कर रहे हैं, तभी तो चुन रहे हैं।’
‘लोग गलत भी हो सकते हैं।’ वो कह रहा है।
‘तुम्हारे मन की नहीं होगी तो तुम देश की जनता को गलत कह दोगे?’ वो पूछ रही है। ‘तुम हो कौन? क्या समझते हो अपने आपको?’
‘कबीर सिंह देखी है तूने ? गल्र्स के लिए कैसी फिल्म है?’ लडक़ा पूछ रहा है।
‘अब कबीर सिंह इसमें कहाँ से आ गया ?’
‘बता न कैसी है ?’
‘महा घटिया है।’
‘लेकिन सुपरहिट हुई थी। इट मीन्स लोगों ने बहुत पसंद की थी।’
‘लोग साले बेवकूफ हैं। ऐसी ही चीज़ें पसंद करते हैं।’ लडक़ी कह रही है।
अब लडक़ा हँस रहा है। मुझे हवा में ब्रेकअप की बू आ रही है।
मैंने इयरफोन पे एडवांस में, उनके लिए दु:ख भरा गीत चालू कर लिया है।
द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
उन दिनों देश में बहुत कुछ घट रहा था लेकिन मेरे शहर में कुछ नहीं हो रहा था, जैसे पहिए थम से गए थे। अपना हाल भी वही था, अपनी मिठाई दूकान में बैठना, एम.ए.फायनल की तैयारी करना, ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’ और अमेरिकी पत्रिका ‘लाइफ’ पढऩा, सिनेमा देखना और अफसोस करना कि ‘अब तक कोई लडक़ी पटी नहीं।’
एम.ए.फायनल की परीक्षा आ गई, निपट गई, फिर ‘वायवा’ का समय आ गया। बाह्य परीक्षक वही, पिछले वर्ष वाले डॉ.रामरतन भटनागर! साक्षात्कार कक्ष में प्रवेश कर मैंने अभिवादन किया और घबराया हुआ कुर्सी पर बैठ गया। डॉ. भटनागर मुझे देख कर मुस्कुराए और उन्होंने पूछा, ‘कैसे हो?’
‘जी सर, ठीक हूँ।’
‘शादी हो गई ?’
‘नहीं हुई सर, बड़ी विचित्र समस्या आ गई है।’
‘कैसे ?’
‘मेरे पिताजी बड़े आदमी माने जाते हैं इसलिए साधारण परिस्थिति वाले अधिक ‘बजट’ के डर से हमारे घर प्रस्ताव लेकर आते नहीं, जिनका बजट अधिक है उनको जब यह मालूम पड़ता है कि लडक़ा मिठाई बेचने का धन्धा करता है तो वे बिदक जाते हैं। बेचारे किसी को क्या बताएंगे- ‘दामाद हलवाई है’ ?
‘फिर ?’
‘फिर क्या सर...लंगड़े-लूलों का ब्याह होता है, मेरी किस्मत में भी कोई न कोई तो होगी।’
‘ठीक है, आप जाइए।’
‘कुछ पूछेंगे नहीं सर?’ मैंने उनसे पूछा।
‘पिछले साल ही पूछ लिया था।’ उन्होंने मुझे प्यार भरी नजरों से देखा।
उन्होंने मुझे सौ में चौहत्तर अंक दिए, पिछले वर्ष से दो अंक कम। पता नहीं, मेरे साक्षात्कार में क्या कमी रह गई थी ?
एम.ए. भी पास हो गया। तब फिर वही समस्या कि अब क्या किया जाए? मेरे मन में आया पी.एच.डी. कर लिया जाए। प्राध्यापक राजेश्वर दयाल सक्सेना मेरे ‘गाइड’ हो गए और विषय तय हुआ, ‘स्वातन्त्रयोत्तर भारत की राजनीति का हिंदी साहित्य पर प्रभाव’। मैंने भारतीय राजनीति की उपलब्ध पुस्तकों का अध्ययन आरंभ कर दिया। मोहनदास करमचंद गांधी, जवाहरलाल नेहरु, अबुल कलाम आजाद, मानवेन्द्रनाथ रॉय, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण आदि अनेक शीर्ष राजनेताओं के विचार पढ़े तथा अन्य लेखकों की भी पुस्तकें खोजता और पढ़ता। हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं को भी साथ-साथ पढ़ता रहा लेकिन जितना भी पढ़ पाया, मुझे लगता था कि अभी तक शोध लिखने लायक नहीं पढ़ पाया हूँ, पूरी जानकारी के अभाव में कैसे लिखूं? उसी उधेड़बुन में मुझसे कुछ भी न लिखा गया, दो साल बीत गए और समय मेरे हाथों से तेजी से फिसल गया। वक्त के जहाज ने मेरा कोई लिहाज़ न किया, वह मुझे छोडक़र आगे बढ़ गया और मेरे सामने ऐसे हालात बना दिए कि मैं हाथ मलता ही रह गया। आप सोच रहे होंगे, आखिर ऐसा क्या हो गया? उसे बाद में बताऊंगा, पहले एक मजेदार वाकय़ा पढि़ए-
आप जब भी किसी नई जगह में जाते हैं तो पता करते हैं कि वहां देखने लायक क्या है? है न? यदि आप कभी बिलासपुर आकर पूछेंगे कि आपके शहर में देखने लायक क्या है तो मेरा जवाब होगा, ‘कुछ नहीं, परन्तु मिलने लायक एक विलक्षण व्यक्ति है, मधुकरराव चिपड़े।’
मधु चिपड़े ने बनारस विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण की थी और वे हस्तरेखा विज्ञान का अध्ययन कर के जब ट्रेन से बिलासपुर वापस आ रहे थे, उत्सुकतावश उन्होंने बगल में बैठे व्यक्ति का हाथ देखकर कहा, ‘अरे तुम तो किसी का मर्डर करके आ रहे हो, तुम्हें तो जेल में होना चाहिए।’ वह व्यक्ति अगले स्टेशन में चुपचाप उतर कर वहां से खिसक गया। हस्तरेखा विज्ञान में अद्भुत पकड़ के कारण कुछ ही समय बाद मधु चिपड़े की ख्याति बढ़ती गई और जनसामान्य अपनी समस्याओं के समाधान खोजने, अपना भविष्य जानने उनके पास आने लगे। अनुमानत: उन्होंने अपने जीवनकाल के 50 वर्षों तक लोगों के हाथ देखकर जनसेवा की और कभी किसी से एक पैसा नहीं लिया। उनकी प्रतिभा और ज्ञान के बारे में कितना लिखूं? फिलहाल समझने के लिए आपको यह बता रहा हूँ कि वे आधुनिक त्रिकालदर्शी थे।
एक दिन की बात है, उस समय मैं लगभग 20 वर्ष का था, मधु चिपड़े हमारी दूकान ‘पेन्ड्रावाला’ में आए तो मेरे बड़े भाई साहब ने उनसे कहा, ‘मधु भैया, जरा द्वारिका का हाथ देखिए, इसकी शादी कब होगी ?’
उन्होंने मेरी हस्तरेखाओं का अध्ययन किया और बोले, ‘क्या मजाक करते हो रूपनारायण ? इसकी तो शादी हो चुकी और इसका एक बच्चा भी है।’
बड़े भैया ने मुझे घूरकर देखा, मुझे काटो तो खून नहीं। कहाँ तो मैं जल-बिन-मछली की तरह एकाकी जीवन बिता रहा था और चिपड़ेजी ने ऐसी बात कह दी कि मेरे चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लग गया। मैं चुप रह गया परन्तु बड़े भैया तुरंत बोले, ‘नहीं, अभी इसकी शादी नहीं हुई है और न ही इसके लिए रिश्ते ही आ रहे हैं।’
चिपड़ेजी बोले, ‘तो अब फिर आठ साल बाद होगी, इस बीच विवाह का कोई योग नहीं।’ मेरी जान पे जान आई और प्राण भी सूख गए। प्राण क्यों सूखे? आप समझ गए होंगे।
(आत्मकथा ‘न वो समझ सके न हम’ का एक अंश)
दिनेश राय द्विवेदी
घर पर अभी भी फिजिकली एक अखबार आता है। पर खबरें? उसमें बहुत कम होती हैं। जिन्हें हम लीड खबरें कहते हैं उनकी दशा बहुत खराब है।
आज का अखबार सामने है। लीड में खबर है ‘सत्ताईस दिन बाद’ ‘मंत्रिमंडल का गठन आज’ 18 से बीस मंत्री ले सकते हैं शपथ। नीचे संभावित मंत्रियों के नाम हैं, सीएम और दो डिप्टी सीएम के कुछ सप्ताह पहले शपथ लेने की खबर का दोहराव है।
अब आप खुद सोचिए ये खबर है? केवल सस्पेंस बनाए रखना है। मुआ अखबार न हुआ जासूसी नॉवल की स्टोरी हो गयी। आज मंत्रिमंडल का गठन हो जाता सबके नाम छाप देते तो खबर होती। पर मुखपृष्ठ का आधा तो विज्ञापन है शेष के दो तिहाई में यह सस्पेंस है और एक तिहाई में खबर है ‘यूपी की तर्ज पर छापे’ तीसरे दिन 3426 बदमाश गिरफ्तार, अब तक 9994 बदमाशों को सलाखों के पीछे पहुँचाया।
असल में इनमें ज्यादातर वे छोटे मोटे गरीब अर्धबेरोजगार लोग हैं जिनकी लिस्ट थानों में हमेशा रहती है इन्होंने कभी कोई अपराध कर लिया होता है और इनका नाम थाने में दर्ज हो जाता है। हर गुम अपराध के बाद इन्हें थाने में बुला कर कुटाई की जाती है तब कोई दूर दराज का सुराग पुलिस को मिलता है। यह काम पुलिस वैसे भी हर साल दिसम्बर माह में करती है। यह पुलिस का रूटीन का काम है। पर अखबार ने इसे नयी सरकार से जोड़ दिया है।
अगला पूरा पेज विज्ञापन है। फिर तीसरे पर वही लीड है ‘रामलला श्वेत होंगे या श्याम’? जिसने भी यह हेडिंग दिया है वह दिमाग में जरूर गोरा-काला सोच रहा होगा। उसके बाद छोटे मोटे अपराधों की खबरें हैं। सूबे के सबसे बड़े अफसर के रिटायरमेंट और पुलिस महानिदेशक के वीआरएस की खबर है। यह उन सफेदपोश लोगों को राहत है जो इनके कारण परेशान थे। बाकी दुर्घटनाओं और अपराधों की खबरें हैं। लेकिन इन दुर्घटनाओं और अपराधों के कारणों की वजहें नदारद हैं। कुछ सरकारी कार्यवाहियों पर जनसमूहों के विरोध के समाचार भी हैं। युवाओं को दिल के दौरे पडऩे और सरकारी जमीन पर कब्जे कर भूमाफियाओं द्वारा प्लाट बेचने की खबरें भी हैं। कार्यवाही की खबर कभी नहीं छपती। एक पेज पर मरने वालों के संस्कारों के विज्ञापन और तमाम धार्मिक आयोजनों की खबरें हैं।
अखबार में एक संपादकीय पेज भी है जिसके आधे पेज पर प्रधान संपादक जी के न समझ आने वाले गरिष्ठ विचारों की उल्टी है। हताहतों के वीडियो फैलाने पर एक लेख है और धार्मिक कट्टरपंथ के बढऩे के खतरे के बारे में लेख है। यह मौजूदा केन्द्र सरकार के लिए जरूरी खुराक है। इसी पर सरकारी पार्टी की राजनीति चलती है। शेष पृष्ठों पर पानी, जंगल, जमीन के खराब होते जाने की खबरे हैं, जिनके लिए सिर्फ जनता दोषी है। इन्हें खराब करने की छूट देने वाली सरकारें और खराब करने वाले पूंजीपतियों को पूरी तरह बरी कर दिया गया है। खेल रूटीन खबरें हैं।
कुल मिलाकर अखबार पाँच मिनट रोज का किस्सा और साढ़े पाँच रुपए रोज का जबरन खर्चा मात्र रह गया है। फायदा सिर्फ इतना है कि उत्तमार्ध इस पर सब्जी फैला कर साफ करती है। घर और कार के शीशे इससे पौंछे जा सकते हैं। इस्त्री वाला कपड़ों पर इस्त्री करने के बाद अंदर रख देता है जिससे उनकी स्टिफनेस बनी रहे। पर वह भी एक दिन शिकायत कर रहा था कि अब कागज बहुत खराब आता है उसमें स्टिफनेस ही नहीं है।
बस कहा जा सकता है कि अखबार अभी जीवित हैं। पर मुझे अपने एक सीनियर की 30 साल पहले न्यायव्यवस्था के बारे में कही गयी बात याद आती है कि ..
न्यायपालिका तो कब की मर चुकी, हम न्यायपालिका की लाश ढो रहे हैं। यह सुनने के बाद मैंने पूछा तो फिर अब क्या होगा?
कहने लगे कुछ नहीं होगा, फिर प्रलय होगा और फिर नव निर्माण।
तब से मैं प्रलय का इंतजार कर रहा हूँ। पर फिलहाल तो होता नहीं दीखता। बीच बीच में अखबार ही खबर छापता रहता है कि फलाँ तारीख को प्रलय होने वाला है। तारीख निकल जाती है पर होता नहीं। पर मन में यह विश्वास पक्का है कि होगा जरूर एक दिन। इंसान खुद ही कर डालेगा।
डॉ. आर.के. पालीवाल
गोदी मीडिया की तरह गोदी नौकरशाही की परंपरा भी बहुत तेजी से बढ़ रही है। ऐसा नहीं कि पहले इस तरह की परंपरा नहीं थी, जब कुछ खास नौकरशाहों को ट्रान्सफर पोस्टिंग , डेपुटेशन , एक्सटेंशन एवम पोस्ट रिटायरमेन्ट नियुक्तियों में अन्य अफसरों से ज्यादा तवज्जो दी जाती थी, लेकिन यह अमूमन उन अफसरों के साथ ही होता था जिनकी कर्मठता और ईमानदार छवि प्रमुख प्रशासनिक पदों के लिए उपयुक्त होती थी।
ऐसी नियुक्तियां अक्सर जनता और विशेष रूप से प्रबुद्ध जनों और मीडिया द्वारा भी सराही जाती थी। इस कड़ी में आज़ादी के तुरंत बाद पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के सचिव वी पी मेनन का नाम बहुत आदर के साथ याद किया जाता है जिन्होंने राष्ट्रीय एकता और अखंडता बरकरार रखने के लिए राजे रजवाड़ों के साथ बहुत प्रभावी ढंग से वार्ता कर उन्हें अखंड भारत का अभिन्न अंग बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसी तरह बाद में टी एन सेशन जैसे कुछ और अधिकारी भी हुए हैं जिनकी योग्यता और प्रशासनिक क्षमता को मुख्य चुनाव आयुक्त के रुप में आज भी हर आम चुनाव के वक्त शिद्दत से याद किया जाता है और निकट भविष्य में भी किया जाता रहेगा।
आजकल प्रवर्तन निदेशालय, दिल्ली पुलिस कमिश्नर,केंद्रीय प्रत्यक्ष एवम अप्रत्यक्ष कर बोर्ड में चेयरमैन एवम मेंबर आदि की नियुक्ती हो या चुनाव आयुक्त और राज्यों के प्रमुख सचिव और डी जी पी की नियुक्ति हो, काफी मामलों में विवादित छवि के लोगों के चुनाव या बहुत से योग्य अफसरों के होते हुए कुछ खास लोगों को बार बार एकस्टेंसन देने की परंपरा हो गई है जिसकी विपक्षी दलों के साथ साथ प्रबुद्ध जनों और मीडिया द्वारा भी मुखर आलोचना होती है। वह मामला भी बहुत पुराना नहीं है जब उत्तर प्रदेश में आई ए एस एसोसिएशन द्वारा चिन्हित किए गए भ्रष्ट अफसरों को प्रमुख सचिव बनाया गया था और सेवानिवृति के बाद ही आर्थिक घोटालों के संगीन मामलों में उन्हे जेल की सजा हो सकी थी।
मध्य प्रदेश में भी शिवराज सिंह चौहान की निवर्तमान सरकार में मुख्य सचिव को चुनाव की पूर्व संध्या पर दूसरी बार सेवा विस्तार देने पर विपक्ष ने चुनाव आयोग तक लिखित शिकायत की थी हालांकि केन्द्र सरकार की सहमति के बाद चुनाव आयोग ने इस सेवा विस्तार को निरस्त नहीं किया था जिसकी वजह से चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर भी प्रश्न चिन्ह खड़े किए गए थे। बहुत से उपयुक्त उम्मीदवार होने के बावजूद जब मुख्यमंत्री, केन्द्र सरकार या खास विचारधारा से नजदीकियों वाले अधिकारियों को प्रशासन के शीर्ष पर बैठाकर सेवा विस्तार दिए जाते हैं तब इस तरह की गोदी नौकरशाही पर विपक्ष और जनता का संदेह स्वाभाविक है।
तेलंगाना में चुनाव आयोग द्वारा तत्कालीन डी जी पी का निलंबन भी इसी श्रेणी की मानसिकता का ताजा उदाहरण है। चुनाव नतीजों का रुझान देखकर डी जी पी का विपक्षी दल के प्रमुख नेता, जिनकी अगला मुख्यमंत्री बनने की प्रबल संभावना थी, को बधाई देने पहुंचने का मामला इस लिहाज से संवेदनशील है क्योंकि पुलिस प्रशासन के शीर्षस्थ अधिकारी से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह सत्ता का रुख देखकर अपना व्यवहार तीन सौ साठ डिग्री बदल ले। सरदार पटेल ने आज़ादी के बाद भारतीय नौकरशाही को प्रशासन का स्टील फ्रेम कहा था। पिघलते पिघलते उस स्टील फ्रेम का लचीली प्लास्टिक बनकर गोदी नौकरशाही तक पहुंचने का सफर, संविधान,लोकतंत्र और राष्ट्र के हित में नहीं है। नौकरशाही में इस गिरावट के लिए उच्च पदस्थ अफसर, पी एम ओ, गृह मंत्रालय और मुख्यमंत्री आदि सभी सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ऐसे हर मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकते जहां योग्यता और दक्षता के इतर कारणों से शीर्ष पदों पर ऐसे लोगों की नियुक्तियां होती हैं जिनसे निष्पक्ष प्रशासन की उम्मीद नहीं होती। विभिन्न सिविल सेवाओं की एसोसिएशन को अपनी अपनी सेवा की इस गिरावट को रोकने की कौशिश करनी होगी तभी नौकरशाही का सम्मान बच सकता है।
विष्णु नागर
वैसे ‘आवारा’ एक बदनाम सा शब्द है। चिपक जाता है किसी पर तो मुश्किल से छूटता है मगर अनेक बार यह बहुत बुरा शब्द भी नहीं समझा गया है। राजकपूर की एक फिल्म थी-‘आवारा’। इसमें एक गाने में नायक खुद को ‘आवारा हूं, आसमान का तारा हूं’ बताता है। विष्णु प्रभाकर ने शरदचंद्र की जो मशहूर जीवनी लिखी है,उसका शीर्षक है-‘आवारा मसीहा’। एक जमाने में कवि-शायर अपना उपनाम या तखल्लुस आवारा रखा करते थे। एक लोकप्रिय उपन्यासकार हुआ करते थे-प्यारेलाल आवारा।
आवारा मगर अकसर इतना अच्छा शब्द भी नहीं माना गया है। पशु जो निराश्रित हैं,किसी के पाले हुए नहीं हैं या पाल कर छोड़ दिए गए हैं, उन्हें भी ‘आवारा’ कहा जाता है। ‘आवारगी’ न उनकी पसंद है और न वे बदचलन, लुच्चे- लफंगे हैं, जो आवारा शब्द का एक प्रचलित और शब्दकोशीय अर्थ है। उनके निराश्रित होने में उनका दोष नहीं है।आपको विदेशी कुत्ते पसंद हैं, देसी कुत्ते पालने में आपकी हेठी होती है तो आप अकसर इन्हें नहीं पालते। आप गाय को अपने स्वार्थ के कारण छुट्टा छोड़ देते हो,जब वे उपयोगी नहीं रहतीं, दूध नहीं देने के कारण भारस्वरूप हो गई हैं। उत्तर भारत में हिंदूवाद का उत्पात बहुत ज्यादा है। धर्म भी इसकी इजाजत नहीं देता कि इन्हें कटने भेज दिया जाए (हालांकि कौन कहता है कि कटती ही नहीं हैं?)। इस नाम पर दंगा भी हो सकता है। हत्या हो सकती है। भले ही ये जानवर भूखे मरने के कारण रात को किसानों की फसल बर्बाद कर दें!
भैंसें आपको ‘आवारा’ नहीं दिखतीं क्योंकि उन्हें अनुपयोगी होने पर निपटा दिया जाता है। बिना शोर के। तब धर्म अधिक नहीं आता। धर्म भी तभी आड़े आता है,जब उसे आड़े आना होता है।
तो जानवरों की ‘आवारगी’, इनकी ‘आवारगी’ नहीं , हमारी स्वार्थपरता, हमारी सीमा है, हमारी आवारगी है। आवारा हम हैं, जानवर नहीं।
फैसल मोहम्मद अली
कांग्रेस ने अपने 139वें स्थापना दिवस पर गुरुवार को महाराष्ट्र के नागपुर में एक रैली का आयोजन किया। रैली का नाम ‘हैं तैयार हम’ दिया गया था।
राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खडग़े स्टेज पर चार बजे के आसपास पहुंचे, तब तक मैदान में लगाई गईं सभी पैंतीस हज़ार कुर्सियां भर चुकी थीं। इसके अलावा भी जगह-जगह पर लोग खड़े थे। स्टेज के पास तैयार दूसरे मंच से इकबाल की जानी-मानी नज़्म ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’, ‘मेरे देश की धरती सोना उगले’ और कवि प्रदीप की मशहूर रचना ‘साबरमती के लाल तूने कर दिया कमाल’ जैसे गीतों का आनंद लेते रहे। इन गानों को एक लाइव बैंड पेश कर रहा था।
पूरे मैदान में लगे वीडियो स्क्रीन, फर्श पर कार्पेट, ‘हैं तैयार हम’ के नारे साथ आसमान में तैर रहे गुब्बारे और मुख्य स्टेज के ऊपर कांग्रेस के झंडे के रंग वाले कपड़े, पूरी तैयारियां कांग्रेस के पूर्व के कार्यक्रमों से अलग लगीं।
लाइव बैंड के गीतों के बीच एक व्यक्ति जनसभा को माइक पर कांग्रेस का इतिहास, नागपुर से पार्टी का रिश्ता और भारत के निर्माण में पार्टी के योगदान के बारे में बता रहा था।
इसी क्रम में हरित क्रांति, श्वेत क्रांति, राकेश शर्मा को स्पेस में भेजे जाने, देश भर में आईआईटी जैसी संस्थाओं की स्थापना और सूचना तकनीक क्रांति जैसी बातों का जिक्र किया गया।
पार्टी के अल्पसंख्यक मोर्चे के अध्यक्ष इमरान प्रतापगढ़ी ने जवाहर लाल नेहरू से लेकर मौलाना अबुल कलाम आज़ाद तक की जेल यात्राओं और इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी की हत्या देश के नाम पर किए जाने की बात भी की।
इसी क्रम में एक शेर भी पढ़ा उन्होंने, ‘हम आतिशे सोजां में भी एक बात कहेंगे।’
हम जि़ंदा थे, हम जि़ंदा हैं, हम जि़ंदा रहेंगे
क्योंकि हम कांग्रेस हैं
कांग्रेस को क्यों याद करने पड़ रहे हैं काम
मनमोहन सिंह सरकार में प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पृथ्वीराज चव्हाण ने बीबीसी से कहा, ‘जरूरत है कि इन सभी बातों को बार-बार दोहराया जाए क्योंकि नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी बार-बार यही आरोप तो लगाती रहती है कि पिछले 70 सालों में कुछ हुआ ही नहीं।’
बीबीसी ने उनसे पूछा था कि क्या कांग्रेस पार्टी को लगता है कि उसने पूर्व में जो कुछ किया है उस भूला दिया गया है? क्या इसलिए उसे ये सारी बातें दोहरानी पड़ रही हैं?
चव्हाण ने कहा कि ये सारे वीडियो और ऐसी सामग्री मुल्क के दूसरे हिस्सों में भी भेजे और दिखाए जाएंगे ताकि आम जन का जुड़ाव पार्टी से बढ़ सके।
पृथ्वीराज चव्हाण का कहना था कि जनता से चंदा इक_ा करने का मक़सद भी लोगों ये ‘कनेक्ट’ जोडऩे का है।
क्या पुराने पड़ गए हैं कांग्रेस के हथियार
राजनीतिक विश्लेषक रशीद कि़दवई हालांकि मानते हैं कि कांग्रेस पुराने हथियारों से नई लड़ाइयां लडऩे की कोशिश कर रही है।
कांग्रेस पार्टी पर अपनी किताब ‘24 अकबर रोड’ के लेखक उसी अकबर रोड का हवाला देते हुए कहते हैं कि जनवरी 1978 में उस भवन में गई पार्टी अब उसे खाली कर दूसरे कार्यालय में शिफ़्ट कर रही है।
इन लगभग 45 सालों में दुनिया बदल गई है। लेकिन कांग्रेस उन्हीं पुराने विचारों और तरीक़ों के सहारे जीना चाहती है, मगर अब जरूरत है उसे बदलने की। अब इन बातों को लेकर बहुत उत्साह नहीं दिखता। रशीद कहते हैं, ‘कांग्रेस जो कर रही है, उसमें एक बिखराव सा है। उसको लेकर किसी तरह की कोई रिसर्च नहीं है कि जो वो कर रहे हैं, उसका राजीतिक रिटर्न कितना है।’
राहुल गांधी की भारत जोड़ा यात्रा का जिक्र करते हुए वो कहते हैं कि तेलंगाना की जीत में इसके योगदान की बात हो रही है, मगर ये भी तो पूछा जाना चाहिए कि मिजोरम जहाँ राहुल गांधी गए वहाँ इसका असर क्यों नहीं हुआ?
राहुल की ‘भारत न्याय यात्रा’
अगले महीने शुरू होने वाली राहुल गांधी की ‘भारत न्याय यात्रा’ को लेकर रशीद किदवई कहते हैं जिस मणिपुर से महाराष्ट्र तक का सफर वो कर रहे हैं, वहाँ पार्टी की 15 सीटें हैं। लेकिन इनके बीच कुल सीटों की तादाद 340 से अधिक है, तो क्या किसी को ये आइडिया है कि वहाँ क्या किया जाए, जिसका राजनीतिक लाभ पार्टी को मिल सके!
‘भारत जोड़ो यात्रा’ को लेकर यही सवाल बीबीसी ने लोकसभा में कांग्रेस के डिप्टी नेता गौरव गोगोई से भी पूछा था, जब उन्होंने कहा था कि उत्तर-पूर्व में माहौल भारतीय जनता पार्टी के इतना खिलाफ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वहां के दो राज्यों मणिपुर और मिजोरम में जा नहीं सकते। इसके बावजूद बीजेपी मिज़ोरम में पिछली बार से एक सीट अधिक जीत गई।
किसे विचारधारा की लड़ाई बता रहे हैं राहुल गांधी
राहुल गांधी ने अपने नागपुर भाषण में कहा कि जो लड़ाई कांग्रेस और बीजेपी के बीच जारी है, वो राजनीतिक और सत्ता की लड़ाई दिखती है, मगर वो मुख्यत: विचारधारा की लड़ाई है।
कांग्रेस ने जो आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी, वो सिफऱ् अंग्रेजों के खिलाफ नहीं थी बल्कि उन 500 से अधिक राजे-रजवाड़ों के खिलाफ भी थी जो अंग्रेजों के डर से उनके साथ थे।
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पर सालों तक भारतीय झंडा न फहराने को लेकर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कहा कि आज देश के हर वयस्क को मत देने का अधिकार है, वो कांग्रेस की देन है।
रशीद कि़दवई का कहना था कि विचारधारा की लड़ाई और संविधान बचाओ जैसी बातें आज की पीढ़ी को अपील नहीं कर रही हैं, यह कई बार सामने आ चुका है।
राहुल गांधी ने केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनने पर युवकों के लिए रोजग़ार मुहैया करवाने का वादा यह कहते हुए किया कि नरेंद्र मोदी की सरकार ये नहीं कर सकती है।
बेरोजग़ारों से कांग्रेस की उम्मीद
वहीं कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े का दावा था कि 30 लाख सरकारी पद ख़ाली हैं और उन पर बहाली नहीं की जा रही है।
कांग्रेस अध्यक्ष ने अपनी स्पीच में 1920 के नागपुर में हुई कांग्रेस के सेशन का जि़क्र किया।
कांग्रेस की उस बैठक में महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय और मोहम्मद अली जिन्ना जैसे नेता शामिल हुए थे।
इसमें असहयोग आंदोलन से जुड़े कई अहम फ़ैसले लिए गए थे, जिसे लेकर पट्टाभि सितारमैया ने लिखा है कि ‘इसने भारतीय इतिहास में एक नए अध्याय की शुरुआत की थी।’
कांग्रेस ने नागपुर रैली को ‘हम तैयार हैं’ महारैली का नाम दिया था। इसमें जनता से सस्ती गैस से लेकर, न्याय योजना को लागू करने और रोजग़ार जैसे वायदों को दोहराया गया।
मीडिया और राजनीतिक विश्लेषकों का एक वर्ग इसे कांग्रेस द्वारा लोकसभा चुनाव के शंखनाद के तौर पर देख रहा है। (bbc.com)
सिद्धार्थ ताबिश
मानवता या प्राकृतिक जीवन को बेहतर और खुशहाल बनाने के लिए जो भी व्यक्ति या संस्था काम करती हैं, मेरे लिए वही लोग ‘हीरो’ होते हैं.. शाहरुख़ खान, अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर, लता मंगेशकर इत्यादि जितने भी लोग हैं, वो कलाकार हैं.. अपने अपने क्षेत्र के कलाकार.. इन्हें मैं पसंद कर सकता हूँ, बहुत पसंद कर सकता हूँ, मगर जीवन दर्शन और प्रकृति की बेहतरी के लिए मैं इन्हें अपना हीरो नहीं मान सकता हूँ.. मुझे अपना जीवन कैसे जीना है और प्रकृति के साथ कैसे एकरूप होकर रहना है, ये लोग मुझे ये नहीं सिखा सकते हैं
भारतियों समेत सारे विश्व के लोगों की ये बड़ी समस्या है कि कोई भी व्यक्ति, जो अपने कार्य क्षेत्र के किसी कार्य की वजह से प्रसिद्धि पा लेता है, उससे लोग अपने जीवन की हर परेशानियों और समस्याओं के लिए राय लेने लगते हैं.. अमिताभ बच्चन सिफऱ् अच्छे एक्टर हैं.. सचिन तेंदुलकर बस एक अच्छे खिलाड़ी हैं.. ये उनके हीरो हो सकते हैं जिन्हें क्रिकेट खेलना है.. मगर आप ये कहने लगें कि वो देश, मानवता और प्रकृति के लिए कुछ बड़ा कर चुके हैं, ये बेवकूफी की बात है.. अभिनेता कभी देश के लिए एक्टिंग नहीं करता है.. खिलाड़ी कभी देश के लिए नहीं खेलता है.. आप को टीम में एंट्री मिल जाए आप भी देश के लिए खेलने लगेंगे.. जो भी भारतीय टीम में होगा वो देश के लिए खेलेगा.. जैसे अगर आप टाटा कम्पनी में हैं तो टाटा के लिए नौकरी करेंगे न कि महिन्द्रा के लिए.
वो लोग जिन्होंने दवाएं खोजी, वैक्सीन बनायीं, प्राकृतिक संतुलन खोजा, जंगल बचाए, पर्यावरण बचाया, जानवरों से लेकर मनुष्य तक के जीवन को सुधारा, वो लोग मेरे लिए हीरो होते हैं.. मगर हमारे समाज की विडम्बना ये है कि इनमे से एक भी व्यक्ति हमारा हीरो नहीं होता है.. घटिया और क्षुद्र सोच वाले राजनेता, अभिनेता, खिलाड़ी, शायर और फंतासी लेखक को हम हीरो बना कर अपने बच्चों के आगे प्रस्तुत करते हैं.. इसीलिए यदि मेरे जैसा कोई भी व्यक्ति प्रकृति, मानव समाज की समस्या, प्राकृतिक संतुलन की बात करता है वो भी बने हुवे सामाजिक दायरे को तोडक़र, जिसका समर्थन अमिताभ, शाहरुख़ और सचिन तेंदुलकर करते आये हैं, तो आप नाराज़ हो जाते हैं.. आपको लगता है सचिन तेंदुलकर से अच्छी राय आपको कौन दे सकता है इस मामले में.. वो अगर आपको ये बता सकते हैं कि ‘पेप्सी पीना आपके जीवन के लिए कितना ज़रूरी है, या एडीडास के जूते पहनना कितना अच्छा है’, तो वो किसान, खेती प्रकृति, जंगल और ज़मीन पर क्यूँ नहीं आपको समझा सकते हैं.. उनको ऐसे तो सरकार ने भारत रत्न नहीं दे दिया है.. वो आकर टीवी पर आपको अगर गेंहू और चावल की खेती से पृथ्वी को होने वाले नुकसान पर बोलेंगे तब आप उसे ‘सही’ मानेंगे
जो हीरो आपके समाज ने बना रखे हैं, वो आपके जीवन और इस पृथ्वी के किसी काम के नहीं हैं.. वो बस शो है.. और आप इसी शो को जीवन समझते हैं तभी आपके आसपास से जंगल ख़त्म हो जाए, धरती के भीतर का जलस्तर बिलकुल ही ख़त्म हो जाए, और आप जान भी नहीं पाते हैं मगर भारत विश्वकप हार जाए तो आप महीनों उदास रहते हैं।
नोट- फोटो में हीरो श्री सालिम अली, भारत के मशहूर पक्षी वैज्ञानिक, जिन्हें भारत का ‘बर्डमै’ कहा जाता है
विनीत खरे-पायल भुयन
कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले ‘डोनेट फॉर देश’ नाम से ऑनलाइन क्राउडफंडिंग कैंपेन की शुरुआत की है।
18 साल से अधिक उम्र के भारतीय 138 रुपए, 1380, 13,800 या फिर और ज्यादा चंदा पार्टी को एक खास डिजाइन की गई वेबसाइट से दे सकते हैं।
इस वेबसाइट की लॉन्चिंग के मौके पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने कहा, ‘ये पहली बार है कि कांग्रेस पार्टी ने आम जनता से मदद लेकर देश को बनाने के लिए ये क़दम उठाया है।’
क्राउडफंडिंग वेबसाइट के लगातार अपडेट हो रहे डोनेशन डैशबोर्ड के मुताबिक, अभियान के तहत छह करोड़ रुपये से ज़्यादा इक_ा हो चुके हैं और पार्टी के मुताबिक अब तक करीब दो लाख लोग इस अभियान से जुड़ चुके हैं।
बीबीसी से बातचीत में कांग्रेस कोषाध्यक्ष अजय माकन ने कहा कि कैंपेन की शुरुआत का मतलब ये नहीं है कि पार्टी के पास संसाधनों की कमी है।
वो कहते हैं, ‘हम ये उम्मीद नहीं कर रहे हैं कि इससे हमारा चुनाव का खर्चा निकल जाएगा। ये तो हमारा टारगेट भी नहीं है। ये एक राजनीतिक गतिविधि है, जिससे हम लोगों को जोडऩे की कोशिश कर रहे हैं।’
संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स के मुताबिक़, साल 2021-22 में देश की आठ प्रमुख राजनीतिक पार्टियों में करीब 6,046।81 करोड़ की संपत्ति के साथ भाजपा सबसे आगे है जबकि कांग्रेस के पास करीब 806 करोड़ रुपये की संपत्ति है।
यानी भाजपा के पास कांग्रेस से सात गुना से भी ज़्यादा संपत्ति है और ये बात छिपी नहीं कि भारत में चुनाव लडऩा बेहद महंगा है।
‘डोनेट फॉर देश’
‘डोनेट फॉर देश’ कैंपेन की टाइमिंग को लेकर किए गए सवाल पर अजय माकन मानते हैं, ‘’मैं समझता हूँ कि ये पहले होना चाहिए था जितना ये पहले होता उतना हमारा जनता से बेहतर कनेक्ट हो पाता।’’
कांग्रेस के ‘डोनेट फॉर देश’ कैंपेन की शुरुआत के वक़्त को लेकर कैंब्रिज विश्वविद्यालय में पीएचडी अराध्य सेठिया कहते हैं, ‘अब ये बहुत लेट हो गया है। अब लोगों को लगेगा कि इनको कैंपेन चलाने के लिए इनको पैसे चाहिए और हम पैसे दे रहे हैं।’
अख़बार हिंदुस्तान टाइम्स के राजनीतिक संपादक विनोद शर्मा के मुताबिक, ‘देर आए दुरुस्त आए। पैसा आ रहा है, देर से आ रहा है, क्या फर्क़ पड़ता है।’
तो वहीं सत्तारूढ़ भाजपा ने कांग्रेस के इस कैंपेन को गांधी परिवार को समृद्ध करने की एक और कोशिश बताया है।
भाजपा प्रवक्ता शहज़ाद पूनावाला ने कहा, ‘साठ साल ‘लूट फ्रॉम देश’ करते-करते आज कैंपेन ये चला रहे हैं ‘डोनेशन फॉर देश’। साठ वर्षों तक ‘जीप स्कैम’ से लेकर ‘अगस्ता वेस्टलैंड स्कैम’ तक, ‘नेशनल हेरल्ड स्कैम’ तक आपने देश की पाई-पाई लूटी, लाखों करोड़ों रुपए का गबन किया, लूट फ्रॉम देश किया और आज आप कैंपेन चला रहे है ‘डोनेशन फ्रॉम देश’।’
कांग्रेस के इस कैंपेन की शुरुआत के ठीक पहले भाजपा ने तीन राज्य मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को हराया था, तो वहीं कांग्रेस पर आरोप लगे कि उसकी वजह से चुनावी कैंपेन के दौरान ‘इंडिया अलायंस’ की गतिविधियां रुक सी गईं।
इस बीच तमाम सर्वे कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं।
भाजपा उनके तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने का विश्वास जता रही है और विपक्ष के सामने चुनौती है कि भाजपा को लगातार तीसरी बार संसदीय चुनाव जीतने से कैसे रोका जाए।
संसद की सुरक्षा में सेंध पर संसद में हंगामे के बाद करीब 150 सांसदों का संसद से निलंबन सरकार और विपक्ष के बीच टकराव का ताज़ा उदाहरण है।
कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता संजय झा के मुताबिक, विपक्ष के लिए अगले चुनाव के नतीजे ‘करो या मरो’ की स्थिति है।
क्या है ये कैंपेन?
जानकारों के मुताबिक़, क्राउडफंडिग का मक़सद पैसा इक_ा करने के अलावा समर्थकों को ये महसूस कराने का भी है कि पार्टी में उनका भी हिस्सा है।
कांग्रेस के सामने ये भी चुनौती होगी कि वो इस कैंपेन से कितनी बड़ी संख्या में लोगों को जोड़ पाती है।
अजय माकन कहते हैं, ‘जिस तरीके से भारतीय जनता पार्टी प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) का इस्तेमाल करती आ रही है तो ये (संसाधन जुटाना) चुनौती तो है ही, इसके बावजूद हमारी आर्थिक स्थिति खऱाब नहीं है।’
विपक्ष लगातार सरकार पर सरकारी एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाती रही है। सरकार ने इन आरोपों को खारिज किया है।
कांग्रेस इस कैंपेन के जरिए कितनी रकम जुटाना चाहती है, इस सवाल पर अजय माकन कहते हैं, ‘क्राउडफंडिंग का कोई टारगेट नहीं रखा गया है। फिलहाल 80 प्रतिशत से ज़्यादा पैसा यूपीआई के माध्यम से आ रहा है। हम कैंपेन के ज़रिए जमा पैसों का 50 प्रतिशत फिक्स्ड डिपॉजि़ट में डाल देंगे। इससे कमाया गया ब्याज पार्टी के कामकाज पर खर्च किया जाएगा। बाकी का पैसा राज्य इकाइयों को दे दिया जाएगा। लेकिन उसे भी कैश में नहीं दिया जाएगा।’’
नागपुर में होने वाली कांग्रेस की रैली में हर जगह क्यूआर कोड लगा कर लोगों से डोनेट कराने की योजना है। साथ ही भविष्य में पार्टी की विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए लोगों में मर्चेंडाइज़ बाँटने का भी प्लान है।
अजय माकन कहते हैं, ‘ये तो कोई सोच ही नहीं सकता कि क्राउडफंडिंग से चुनाव निकाल ले। ये संभव है ही नहीं। संसाधन तो हमें क्राउड फंडिंग के अलावा भी चाहिए होंगे।’
उन्होंने बताया कि वेबसाइट पर हजारों मैलवेयर हमले हो चुके हैं और कई हमलों का मकसद डेटा चुराने का था।
वो कहते हैं, ‘हमने एक भी हमले को कामयाब नहीं होने दिया है। हमारी वेबसाइट एक मिनट के लिए भी धीमी नहीं हुई है। हमारी क्षमता 5,000 ट्रांजैक्शन प्रति मिनट की है।’
धन जुटाने की होड़
नजदीक आते चुनावों में संसाधनों के असंतुलन की बहस के केंद्र में इलेक्टोरल बॉन्ड्स है।
इलेक्टोरल बॉन्ड्स यानी चंदा देने का वित्तीय ज़रिया, जिसे कोई भी नागरिक या कंपनी भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खरीदकर राजनीतिक दल को गुमनाम तरीके से दान कर सकता है।
भारत सरकार ने इस योजना की शुरुआत करते हुए कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड देश में राजनीतिक फंडिंग की व्यवस्था को साफ कर देगा।
लेकिन पिछले सालों में ये सवाल बार-बार उठा है कि इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा देने वालों की पहचान गुप्त रखी गई है, इसलिए इससे काले धन की आमद को बढ़ावा मिल सकता है।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स के त्रिलोचन शास्त्री कहते हैं, ‘पूरी दुनिया में, कोई भी लोकतंत्र ले लीजिए आप, हर कहीं पाई पाई का हिसाब होता है। जनता को मालूम होता है कि किसने कितना पैसा दिया। उसमें रोक होती है। वो रोक भी हटा दी उन्होंने।’
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016-17 और 2021-22 के बीच इलेक्टोरल बॉन्ड से मिले पैसे का सबसे ज़्यादा हिस्सा सत्तारूढ़ भाजपा को मिला।
कांग्रेस की लोगों तक पहुँच
हिंदुस्तान टाइम्स के राजनीतिक संपादक विनोद शर्मा कहते हैं, ‘कांग्रेस पब्लिक आउटरीच कर रही है और जनता को अपना मैसेज भी पहुंचा रही है और देख रही है कि कितना उसको रेस्पॉन्स मिलेगा, कितने लोग उसके साथ जुड़ेंगे।’
‘आज के दिन कोई भी उद्योगपति विपक्ष को पैसा देता नजर नहीं आना चाहता। उनको क्या डर है, ये तो वो स्वयं ही बता सकते हैं।’
‘लेकिन हमें पता है कि वो खुले तौर पर विपक्ष को पैसा देने से घबराते हैं क्योंकि उनको लगता है कि कहीं इससे जो सत्ता में बैठी पार्टी है वो कहीं उससे नाराज़ न हो जाए।’
यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज में पीएचडी कैंडीडेट अराध्य सेठिया के मुताबिक, अभी भी चुनाव में ख़र्च होने वाला ढेर सारा पैसा कैश में आता है।
वो कहते हैं, ‘कानून ये कहता है कि अगर डोनेशन 20 हजार रुपये से ज़्यादा है तो आपको बताना होगा। लेकिन वो ये नहीं कहता कि कोई कितनी बार 20 हजार या उससे कम का चंदा दे सकता है।’
‘ज़्यादातर पार्टियां जिनमें राष्ट्रीय पार्टियां भी शामिल हैं, इस चीज़ की जानकारी नहीं देती हैं। उनका तर्क है कि ये तो 20 हजार से कम की रकम है’’
कांग्रेस का कैंपेन
कांग्रेस का दावा है कि उसका ये अभियान आजादी से पहले वर्ष 1921 में असहयोग आंदोलन के लिए शुरू किए गए महात्मा गांधी के ऐतिहासिक तिलक स्वराज फंड से प्रेरित है।
अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने भी अपनी पार्टी के गठन के बाद क्राउडफंडिंग से पैसा जुटाया था।
पश्चिमी देशों में पार्टियां क्राउड फंडिंग के ज़रिए पैसा इक_ा करती हैं। वहां पार्टी का सदस्य बनने के लिए भी फीस होती है।
यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज में पीएचडी कैंडीडेट अराध्य सेठिया के मुताबिक अगर कांग्रेस क्राउडफंडिंग कैंपेन को किसी अंडरडॉग की तरह लेती है तो उसे बहुत फायदा नहीं होगा।
वो कहते हैं कि ‘अगर कांग्रेस इस सोच के साथ जाएगी कि हाँ हम मज़बूत हैं, हम भाजपा के खिलाफ बड़ी ताकत हैं और अगर आपको राजनीतिक में हिस्सा लेना है तो पैसा दीजिए’ तब पैसा इक_ा करने की कोशिश कामयाब हो सकती है।
अराध्य सेठिया के मुताबिक राजनीति में पैसा महत्वपूर्ण है लेकिन कोई भी चुनाव सिर्फ पैसे से नहीं जीता जाता। पार्टी का चेहरा, नेतृत्व, संगठन और विचारधारा भी पार्टी के प्रदर्शन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
एक सोच ये भी है कि अगर इस क्राउड फंडिंग की कोशिश कांग्रेस के बजाए 28 विपक्षी दलों के गठबंधन इंडिया अलायंस की तरफ से होती तो शायद उसकी प्रतिक्रिया और बेहतर होती, और विपक्ष लोकतंत्र बचाने के अपने राजनीतिक संदेश को भी आगे बढ़ा पाता। (bbc.com)
-विनीत खरे और पायल भुयन
कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले 'डोनेट फ़ॉर देश' नाम से ऑनलाइन क्राउडफ़ंडिंग कैंपेन की शुरुआत की है.
18 साल से अधिक उम्र के भारतीय 138 रुपए, 1380, 13,800 या फिर और ज़्यादा चंदा पार्टी को एक ख़ास डिज़ाइन की गई वेबसाइट से दे सकते हैं.
इस वेबसाइट की लॉन्चिंग के मौक़े पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा, "ये पहली बार है कि कांग्रेस पार्टी ने आम जनता से मदद लेकर देश को बनाने के लिए ये क़दम उठाया है."
क्राउडफ़ंडिंग वेबसाइट के लगातार अपडेट हो रहे डोनेशन डैशबोर्ड के मुताबिक़, अभियान के तहत छह करोड़ रुपये से ज़्यादा इकट्ठा हो चुके हैं और पार्टी के मुताबिक़ अब तक क़रीब दो लाख लोग इस अभियान से जुड़ चुके हैं.
बीबीसी से बातचीत में कांग्रेस कोषाध्यक्ष अजय माकन ने कहा कि कैंपेन की शुरुआत का मतलब ये नहीं है कि पार्टी के पास संसाधनों की कमी है.
वो कहते हैं, "हम ये उम्मीद नहीं कर रहे हैं कि इससे हमारा चुनाव का ख़र्चा निकल जाएगा. ये तो हमारा टारगेट भी नहीं है. ये एक राजनीतिक गतिविधि है, जिससे हम लोगों को जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं."
संस्था एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स के मुताबिक़, साल 2021-22 में देश की आठ प्रमुख राजनीतिक पार्टियों में क़रीब 6,046.81 करोड़ की संपत्ति के साथ भाजपा सबसे आगे है जबकि कांग्रेस के पास क़रीब 806 करोड़ रुपये की संपत्ति है.
यानी भाजपा के पास कांग्रेस से सात गुना से भी ज़्यादा संपत्ति है और ये बात छिपी नहीं कि भारत में चुनाव लड़ना बेहद महंगा है.
‘डोनेट फॉर देश’
‘डोनेट फॉर देश’ कैंपेन की टाइमिंग को लेकर किए गए सवाल पर अजय माकन मानते हैं, ‘’मैं समझता हूँ कि ये पहले होना चाहिए था जितना ये पहले होता उतना हमारा जनता से बेहतर कनेक्ट हो पाता.’’
कांग्रेस के ‘डोनेट फॉर देश’ कैंपेन की शुरुआत के वक़्त को लेकर कैंब्रिज विश्वविद्यालय में पीएचडी अराध्य सेठिया कहते हैं, "अब ये बहुत लेट हो गया है. अब लोगों को लगेगा कि इनको कैंपेन चलाने के लिए इनको पैसे चाहिए और हम पैसे दे रहे हैं."
अख़बार हिंदुस्तान टाइम्स के राजनीतिक संपादक विनोद शर्मा के मुताबिक, "देर आए दुरुस्त आए. पैसा आ रहा है, देर से आ रहा है, क्या फ़र्क पड़ता है."
तो वहीं सत्तारूढ़ भाजपा ने कांग्रेस के इस कैंपेन को गांधी परिवार को समृद्ध करने की एक और कोशिश बताया है.
भाजपा प्रवक्ता शहज़ाद पूनावाला ने कहा, "साठ साल 'लूट फ्रॉम देश' करते-करते आज कैंपेन ये चला रहे हैं ‘डोनेशन फ़ॉर देश’. साठ वर्षों तक ‘जीप स्कैम’ से लेकर ‘अगस्ता वेस्टलैंड स्कैम’ तक, ‘नेशनल हेरल्ड स्कैम’ तक आपने देश की पाई-पाई लूटी, लाखों करोड़ों रुपए का गबन किया, लूट फ़्रॉम देश किया और आज आप कैंपेन चला रहे है ‘डोनेशन फ्रॉम देश’."
कांग्रेस के इस कैंपेन की शुरुआत के ठीक पहले भाजपा ने तीन राज्य मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को हराया था, तो वहीं कांग्रेस पर आरोप लगे कि उसकी वजह से चुनावी कैंपेन के दौरान ‘इंडिया अलायंस’ की गतिविधियां रुक सी गईं.
इस बीच तमाम सर्वे कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं.
भाजपा उनके तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने का विश्वास जता रही है और विपक्ष के सामने चुनौती है कि भाजपा को लगातार तीसरी बार संसदीय चुनाव जीतने से कैसे रोका जाए.
संसद की सुरक्षा में सेंध पर संसद में हंगामे के बाद क़रीब 150 सांसदों का संसद से निलंबन सरकार और विपक्ष के बीच टकराव का ताज़ा उदाहरण है.
कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता संजय झा के मुताबिक, विपक्ष के लिए अगले चुनाव के नतीजे 'करो या मरो' की स्थिति है.
क्या है ये कैंपेन?
जानकारों के मुताबिक़, क्राउडफंडिग का मक़सद पैसा इकट्ठा करने के अलावा समर्थकों को ये महसूस कराने का भी है कि पार्टी में उनका भी हिस्सा है.
कांग्रेस के सामने ये भी चुनौती होगी कि वो इस कैंपेन से कितनी बड़ी संख्या में लोगों को जोड़ पाती है.
अजय माकन कहते हैं, "जिस तरीक़े से भारतीय जनता पार्टी प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) का इस्तेमाल करती आ रही है तो ये (संसाधन जुटाना) चुनौती तो है ही, इसके बावजूद हमारी आर्थिक स्थिति ख़राब नहीं है."
विपक्ष लगातार सरकार पर सरकारी एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाती रही है. सरकार ने इन आरोपों को ख़ारिज किया है.
कांग्रेस इस कैंपेन के ज़रिए कितनी रक़म जुटाना चाहती है, इस सवाल पर अजय माकन कहते हैं, “क्राउडफंडिंग का कोई टारगेट नहीं रखा गया है. फ़िलहाल 80 प्रतिशत से ज़्यादा पैसा यूपीआई के माध्यम से आ रहा है. हम कैंपेन के ज़रिए जमा पैसों का 50 प्रतिशत फिक्स्ड डिपॉज़िट में डाल देंगे. इससे कमाया गया ब्याज पार्टी के कामकाज पर ख़र्च किया जाएगा. बाक़ी का पैसा राज्य इकाइयों को दे दिया जाएगा. लेकिन उसे भी कैश में नहीं दिया जाएगा.’’
नागपुर में होने वाली कांग्रेस की रैली में हर जगह क्यूआर कोड लगा कर लोगों से डोनेट कराने की योजना है. साथ ही भविष्य में पार्टी की विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए लोगों में मर्चेंडाइज़ बाँटने का भी प्लान है.
अजय माकन कहते हैं, "ये तो कोई सोच ही नहीं सकता कि क्राउडफंडिंग से चुनाव निकाल ले. ये संभव है ही नहीं. संसाधन तो हमें क्राउड फंडिंग के अलावा भी चाहिए होंगे."
उन्होंने बताया कि वेबसाइट पर हज़ारों मैलवेयर हमले हो चुके हैं और कई हमलों का मक़सद डेटा चुराने का था.
वो कहते हैं, "हमने एक भी हमले को कामयाब नहीं होने दिया है. हमारी वेबसाइट एक मिनट के लिए भी धीमी नहीं हुई है. हमारी क्षमता 5,000 ट्रांजैक्शन प्रति मिनट की है."
धन जुटाने की होड़
नज़दीक आते चुनावों में संसाधनों के असंतुलन की बहस के केंद्र में इलेक्टोरल बॉन्ड्स है.
इलेक्टोरल बॉन्ड्स यानी चंदा देने का वित्तीय ज़रिया, जिसे कोई भी नागरिक या कंपनी भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से ख़रीदकर राजनीतिक दल को गुमनाम तरीक़े से दान कर सकता है.
भारत सरकार ने इस योजना की शुरुआत करते हुए कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड देश में राजनीतिक फंडिंग की व्यवस्था को साफ़ कर देगा.
लेकिन पिछले सालों में ये सवाल बार-बार उठा है कि इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए चंदा देने वालों की पहचान गुप्त रखी गई है, इसलिए इससे काले धन की आमद को बढ़ावा मिल सकता है.
एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स के त्रिलोचन शास्त्री कहते हैं, "पूरी दुनिया में, कोई भी लोकतंत्र ले लीजिए आप, हर कहीं पाई पाई का हिसाब होता है. जनता को मालूम होता है कि किसने कितना पैसा दिया. उसमें रोक होती है. वो रोक भी हटा दी उन्होंने."
एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016-17 और 2021-22 के बीच इलेक्टोरल बॉन्ड से मिले पैसे का सबसे ज़्यादा हिस्सा सत्तारूढ़ भाजपा को मिला.
कांग्रेस की लोगों तक पहुँच
हिंदुस्तान टाइम्स के राजनीतिक संपादक विनोद शर्मा कहते हैं, "कांग्रेस पब्लिक आउटरीच कर रही है और जनता को अपना मैसेज भी पहुंचा रही है और देख रही है कि कितना उसको रेस्पॉन्स मिलेगा, कितने लोग उसके साथ जुड़ेंगे."
"आज के दिन कोई भी उद्योगपति विपक्ष को पैसा देता नज़र नहीं आना चाहता. उनको क्या डर है, ये तो वो स्वयं ही बता सकते हैं."
"लेकिन हमें पता है कि वो खुले तौर पर विपक्ष को पैसा देने से घबराते हैं क्योंकि उनको लगता है कि कहीं इससे जो सत्ता में बैठी पार्टी है वो कहीं उससे नाराज़ न हो जाए."
यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैंब्रिज में पीएचडी कैंडीडेट अराध्य सेठिया के मुताबिक़, अभी भी चुनाव में ख़र्च होने वाला ढेर सारा पैसा कैश में आता है.
वो कहते हैं, ‘’क़ानून ये कहता है कि अगर डोनेशन 20 हज़ार रुपये से ज़्यादा है तो आपको बताना होगा. लेकिन वो ये नहीं कहता कि कोई कितनी बार 20 हज़ार या उससे कम का चंदा दे सकता है."
"ज़्यादातर पार्टियां जिनमें राष्ट्रीय पार्टियां भी शामिल हैं, इस चीज़ की जानकारी नहीं देती हैं. उनका तर्क है कि ये तो 20 हज़ार से कम की रकम है’’
कांग्रेस का कैंपेन
कांग्रेस का दावा है कि उसका ये अभियान आज़ादी से पहले वर्ष 1921 में असहयोग आंदोलन के लिए शुरू किए गए महात्मा गांधी के ऐतिहासिक तिलक स्वराज फंड से प्रेरित है.
अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने भी अपनी पार्टी के गठन के बाद क्राउडफंडिंग से पैसा जुटाया था.
पश्चिमी देशों में पार्टियां क्राउड फंडिंग के ज़रिए पैसा इकट्ठा करती हैं. वहां पार्टी का सदस्य बनने के लिए भी फ़ीस होती है.
यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैंब्रिज में पीएचडी कैंडीडेट अराध्य सेठिया के मुताबिक अगर कांग्रेस क्राउडफंडिंग कैंपेन को किसी अंडरडॉग की तरह लेती है तो उसे बहुत फ़ायदा नहीं होगा.
वो कहते हैं कि "अगर कांग्रेस इस सोच के साथ जाएगी कि हाँ हम मज़बूत हैं, हम भाजपा के ख़िलाफ़ बड़ी ताक़त हैं और अगर आपको राजनीतिक में हिस्सा लेना है तो पैसा दीजिए" तब पैसा इकट्ठा करने की कोशिश कामयाब हो सकती है.
अराध्य सेठिया के मुताबिक़ राजनीति में पैसा महत्वपूर्ण है लेकिन कोई भी चुनाव सिर्फ़ पैसे से नहीं जीता जाता. पार्टी का चेहरा, नेतृत्व, संगठन और विचारधारा भी पार्टी के प्रदर्शन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
एक सोच ये भी है कि अगर इस क्राउड फंडिंग की कोशिश कांग्रेस के बजाए 28 विपक्षी दलों के गठबंधन इंडिया अलायंस की तरफ़ से होती तो शायद उसकी प्रतिक्रिया और बेहतर होती, और विपक्ष लोकतंत्र बचाने के अपने राजनीतिक संदेश को भी आगे बढ़ा पाता. (bbc.com/hindi)
पंकज स्वामी
धर्मयुग पत्रिका के लिए आबिद सुरती ने आम आदमी को चित्रित करती हुई एक कार्टून स्ट्रिप बनायीं थी, जो प्रसिद्ध पत्रिका का एक लोकप्रिय अंग बन गया था। छोटी कद-काठी के और ऊपर से लेकर नीचे तक काले लबादे में ढंके ढब्बू जी ने अपने व्यंग्य और कटाक्ष से पाठकों का दिल जीत लिया था। ‘ढब्बू जी की वेशभूषा आबिद सुरती साहब ने अपने वकील पिता से ली थी और ढब्बू जी का आगमन एक गुजराती अख़बार / पत्रिका से हुआ था। ढब्बू जी धर्मयुग में कैसे आये इसके पीछे भी एक रोचक वाकया है, दरअसल, धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती उस समय एक जाने-माने कार्टूनिस्ट की रचना अपनी पत्रिका में प्रकाशित करने की सोच रहे थे जिसमे कुछ हफ़्तों की देरी थी जिसे भरने के लिए उन्होंने आबिद साहब को उन कुछ हफ़्तों के लिए कुछ बनाने को कहा। इस एकदम से मिली पेशकश के चलते आबिद साहब को कुछ और नहीं सूझा तो उन्होंने अपने पुराने चरित्र को एक नया नाम ढब्बू जी देकर ‘धर्मयुग’ में छपवाना शुरू कर दिया और जो चरित्र सिर्फ कुछ हफ़्तों के लिए फि़लर की तरह इस्तेमाल होना उसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ी की वो पत्रिका का एक नियमित फीचर बन गया’। आबिद सुरती ने धर्मयुग के लिए ढब्बू जी कार्टून स्ट्रिप 30 से ज्यादा सालों तक बनाई।
वन मैन एनजीओ
सत्तर वर्षीय लेखक और कलाकार आबिद सुरती ड्रॉप डेड फाउंडेशन (ddfmumbai.org) के संस्थापक हैं, जो एक गैर सरकारी संगठन (गैर सरकारी संगठन) है जो मुंबई, भारत के घरों में लीकेज जैसी छोटी पाइपलाइन समस्याओं की मुफ्त में मरम्मत कर के सामाजिक सरोकार से जुड़े हुए हैं। इन दिनों आबिद सुरती जबलपुर के प्रवास पर हैं। वे 30 दिसंबर तक जबलपुर में रहेंगे।
अशोक पांडे
गैरीबाल्डी के नेतृत्व में इटली की आजादी की लड़ाई में पंद्रह साल के एक लडक़े ने भी हिस्सा लिया था। उसकी बहादुरी के लिए सिल्वर मैडल से नवाज़ा गया। बचपन से ही उसे केमिस्ट्री अच्छी लगती थी और वह फार्मासिस्ट बनने की हसरत रखता था। बड़ा होने पर उसने अपने शहर मिलान में एक लेबोरेटरी स्थापित की जहाँ वह तमाम तरह के प्रयोग किया करता।
1881 के साल जब वह तीस का था, उसने किनोआ की छाल (जिसके सत से कुनैन बनाया जाता है), पेपरमिंट, दालचीनी, कुटकी और आयरन साइट्रेट को आधार बनाकर अमारी नाम की इटली की एक पारम्परिक शराब का ऐसा संस्करण तैयार किया जिसे पाचनक्रिया को दुरुस्त बनाने के लिए काम में लाया जा सकता था। उसने इसे फेरो-चाइना के नाम से पेटेंट कराया।
तेरह साल बाद उसने अपने प्रिय इतालवी नगर नोसेरा उम्ब्रा के नाम पर एक मिनरल वाटर का ब्रांड भी लांच किया। 1899 में उसने कुनैन, आर्सेनिक और आयरन सॉल्ट्स की मदद से एक ऐसा रसायन बनाया जिसे मलेरिया के उपचार में मुफीद पाया गया।
एक सफल व्यवसायी और रसायनविद के तौर पर उसने ख़ूब शोहरत कमाई। इसका सबूत इस बात में मिलता है कि 1921 में सत्तर साल की आयु में हुई उसकी मृत्यु के बाद मिलान शहर की एक सडक़ का नामकरण उसके नाम पर किया गया।
उसका बनाया मिनरल वाटर दुनिया-जहान में नाम कमा कर 1960 के दशक में भारत पहुंचा। उन दिनों भारत में मिनरल वाटर की खपत सिर्फ पांच सितारा होटलों में होती थी। यूरोप में भी कंपनी के इस ब्रांड का धंधा कोई ख़ास नहीं चल रहा था। सो 1969 के साल पारले ग्रुप चलाने वाले जयंतीलाल चौहान ने चार लाख रुपये देकर ब्रांड को ही खरीद लिया।
आज सात हज़ार करोड़ से अधिक की कीमत रखने वाले इस ब्रांड का नाम सारा भारत जानता है। उसके नाम की स्पेलिंग बदल-बदल कर सैकड़ों नकली ब्रांड भी अच्छा खासा व्यापार कर रहे हैं।
मैं हिमालय की तलहटियों में बोतलबंद किये जाने वाले पानी की बात कर रहा हूँ जिसकी करोड़ों बोतलों पर हर रोज़ इटली के उस प्रतिभाशाली केमिस्ट फेलीसे बिसलेरी का नाम छपता है।
डॉ. आर.के. पालीवाल
इन्टरनेट युग में विश्व गुरु वही बन सकता है जिसके पास इंटरनेट की मजबूत ताकत है। इस मामले में हमारे देश की सार्वजनिक संस्था बी एस एन एल की स्थिति में कोई गुणात्मक सुधार होने के बजाय पिछ्ले कुछ वर्षों में हद दर्जे की गिरावट आई है।
आज स्थिति यह पहुंच गई है कि बी एस एन एल के नए कनेक्शन में उचित वृद्धि तो दूर इसके पुराने कनेक्सन रिचार्ज नहीं कराए जा रहे हैं और काफी संख्या में लोग बी एस एन एल के नंबर जियो और एयरटेल आदि सेवा दाताओं में शिफ्ट कर रहे हैं। बी एस एन एल एक समय हमारे देश की अग्रणी फोन और इन्टरनेट सेवाओं का सबसे विशाल और कुशल प्रदाता था। वर्तमान केन्द्र सरकार के दौर में एक तरफ सरकार द्वारा पोषित बी एस एन एल निरंतर खड्डे में गिरता चला गया और दूसरी तरफ़ निजी कंपनी जियो आदि विस्तार के मामले में अश्वमेध के घोड़ों की तरह दौड़ते हुए बहुत आगे निकल गए। खुद के राष्ट्रवादी सरकार होने का डंका पीटने वाली सरकार के इंटरनेट प्रदाता की इतनी दयनीय स्थिति हमारी सरकार के छद्म राष्ट्रवाद की पोल खोलने के लिए काफी है।
दूरसंचार आजकल ऐसी जरूरत बन गई है जिसका उपयोग स्कूल जाने वाले बच्चों से लेकर एकाकी जीवन जी रहे बुजुर्गो के लिए कदम कदम पर जरूरी है। मजबूत सरकार और देशवासियों के लिए सस्ता और सुलभ दूरसंचार सार्वजनिक उपक्रम ही उपलब्ध करा सकता है। यह काम प्राइवेट कंपनियों के भरोसे छोडऩा उचित नहीं है।कोरोना महामारी के बाद वर्क फ्रॉम होम और ऑन लाइन काम करने वालों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। दिल्ली और मुंबई सरीखे महानगरों में भीड़भाड़ से बचने के लिए काफी व्यापार और सेवाओं को इन्टरनेट की अच्छी गति की आवश्यकता पड़ती है। इस मामले में बी एस एन एल संभवत: सबसे निचले पायदान पर आ गई है।
दिल्ली देश की राजनीतिक राजधानी है और मुंबई आर्थिक राजधानी। इन दोनों महानगरों में बी एस एन एल फोन और इन्टरनेट की स्थिति बर्दाश्त के बाहर है। लंबी सरकारी सेवा में रहने के बावजूद हमारा स्वाभाविक रुझान सरकारी कंपनी बी एस एन एल की तरफ ही था इसलिए सेवानिवृति के बाद भी हमने बी एस एन एल की सेवाएं जारी रखी। एक भावनात्मक जुड़ाव यह भी था कि निजी कंपनियों से सेवा लेने की बजाय सार्वजनिक उपक्रम की सेवा लेना हम सब का नैतिक राष्ट्रीय दायित्व है बशर्ते कि सेवा की गुणवत्ता बनी रहे।
बी एस एन एल इस मामले में गहरी खाई में गिर चुका है। किसी भी आपात कालीन सेवा के लिए बी एस एन एल के भरोसे रहना घातक हो सकता है। एयरपोर्ट और महानगर की मुख्य सडक़ों पर जहां जियो पूरे सिग्नल के साथ चलता है वहां बीएसएनएल का इन्टरनेट दस बारह घंटे तक डाउन रहता है और कुछ देर के लिए आता भी है तो वीडियो कॉल या वर्चुअल मीटिंग तो दूर कोई बड़ा मेसेज तक नहीं भेज सकते। फोन के सिग्नल की हालत भी अत्यंत दयनीय है।
मुंबई और दिल्ली के हालिया दौरे में हमने यह शिद्दत से महसूस किया कि बी एस एन एल की कनेक्टिविटी इतनी दयनीय हो गई है कि यह आपके परिजनों, ड्राइवर और मित्रों आदि से संपर्क करने के लिए नाकों चने चबवा सकता है और अच्छे खासे व्यक्ति को जबरदस्त स्ट्रेस दे सकता है। इसलिए मन मारकर बी एस एन एल को हमेशा के लिए अलविदा कहना जरूरी हो गया। अब इसे झेलना असंभव है।
ऐसा मानना मुश्किल है कि केन्द्र सरकार बी एस एन एल की वर्तमान स्थिति से अवगत न हो। शायद सरकार खुद प्राइवेट कंपनियों के मुकाबले बी एस एन एल को मजबूती से खड़ा करने के लिए कृत संकल्प नहीं है अन्यथा मोदी है तो सब मुमकिन है नारे के दौर में यह कैसे मान लिया जाए कि बी एस एन एल को सुधारना उस मोदी सरकार के लिए मुमकिन नहीं है जो खुद को विश्वगुरु होने का दावा करती है।